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१८२ - वीरस्तुतिः। - सं० टीका स्थितिमा सुखोपभोक्तॄणां वा जीवानां चोर्डानां देवानामिति, तन्मध्ये यथा लवसत्तमा पञ्चानुत्तरजास्तदुत्पन्ना देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः प्रधानाः, यदि वा तेषां सप्तलवायुष्कमभविष्यत्तदा-सिद्धिगमनमभविष्यदिति चापि । अतस्तेऽभिधीयन्ते कथ्यन्ते लवसत्तमाः श्रेष्ठतमाः । समानां परिषदां मध्ये यथा सौधर्मा "स्यात्सु धर्मा देवसमेत्यमरः” परिषच्छेष्ठा "सुधम्मा तु सभा मता इत्यमिधानप्पदीपिका ।" बहुभिः क्रीडास्थानः सभ्यजनगोष्ठीमिरुपेतत्वात्तथा। यथा सर्वेऽपि धर्मा निर्वाणफलं दर्शयन्ति वा सर्वेभ्यो हितं सार्चमहैद्दर्शन-सर्वेषां जीवानां हितकर्ता उत नाहितकारकोऽतः सोर्हत्प्रणीतधर्मों निर्वाणप्रदाने श्रेष्ठ इति भावः । यत एवं ज्ञातृपुत्रात्सर्वज्ञाच्छीमहावीरात्वप्रकाशात् परं प्रधानमन्यच्च विज्ञानं नास्त्येव सर्वथा भगवानपरज्ञानिभ्योऽपिंको ज्ञानीति भावः ॥ २४ ॥
अन्वयार्थ-[जह] जैसे [ठिईण ] आयुष्मानोंमे [लवसत्तमा] पांच अनुत्तर विमानोंमें निवास करनेवाले देव [ सेठ्ठा ] श्रेष्ठ होते है, [सभाण ] सव सभाओंमे [ सुहम्मा ] सौधर्म-इन्द्रकी [ सभा] समा [ सेठ्ठा ] श्रेष्ठ है, [ सव्वधम्मा] ससारके सब धोंमें [ निव्वाणसेठ्ठा ] मोक्ष धर्म प्रधान है, किन्तु [णायपुत्ता] ज्ञात-पुत्र महावीरसे [परमं] बढकर [णाणी ] ज्ञानी कोई भी [न] नहीं [ अत्यि ] है ॥ २४ ॥
भावार्थ-उत्कृष्ट स्थितिमे सर्वार्थ-सिद्धिके देव प्रधान है, क्योंकि सुखपूर्वक रहते हुए इतना वडा आयु पांचवें अनुत्तर विमानके देवोंके अतिरिक्त अन्य किसीकी नहीं है, उनके वरावर सुख भी किसी दूसरेको नहीं है, तथा जिस प्रकार सौधर्म-इन्द्रकी सभा अन्य सभाओंसे सुन्दर है, और सव आस्तिक परलोक-वर्ग-नरक-आत्मा आदि पदार्थों को माननेवालोंमे धर्मका फल एक मुक्ति ही है, क्योंकि मिथ्यामार्गकी पुष्टि करनेवाले भी मोक्षको खयं प्रधान मानते हैं, उसी भांति भगवान् भी समस्त ज्ञानिओंमें परमोत्कृष्ट ज्ञानी थे, ॥ २४ ॥