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। वीरस्तुतिः।
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अलौकिक विश्वके सुरम्य और सौन्दर्यपूर्ण दृश्यकी ओर दृष्टि फैलानेपर स्पष्टतया नजर आता है कि अखिल विश्व आनन्दसे परिपूर्ण है। अर्थात् अखिल विश्वमे आनन्दकी अपेक्षासे एकता है । जगत्से उसके धर्म भिन्न नहीं हैं, विश्वके प्रत्येक प्राणी आनन्दमय हैं, उन्हें आनन्द ही प्रिय है अतः उसीकी इच्छामें तन्मय हैं। उस आनन्दको प्राप्त करनेके लिये साधन रूप ही विश्वके धर्म हैं, और उन धर्मोंको प्राणियोंने अपने 'आनन्द' के लिये ही उत्पन्न किये हैं, और आनन्दकी अपेक्षा जगत्के सव प्राणी समान हैं। तथापि व्यक्तिकी अपेक्षासे यदि देखा जाय तो मनुष्य एक उत्कृष्ट प्राणी है, और वह आनन्दकी अभिवृद्धिके लिये अनेक आकर्षण एवं सुरम्य उपायोंकी रचना करता रहता है। मनुष्यके रचे हुए आत्मानन्दकी अभिवृद्धिके उपायोंमें धर्म ही एक सर्वोत्कृष्ट उपाय है। प्रत्येक प्राणीके अन्तर्गत आनन्दका खरूप समान है। प्रत्येक प्राणीके आत्माका सामर्थ्य समान है। प्रत्येक प्राणीका वास्तविक स्वरूप भी समान है । तव तो इस अपेक्षासे साधन रूप धर्मीका होना भी समान ही ठीक है, और उसके अनुसार सम्पूर्ण समान ही हैं। मनुष्य कुछ ऐसा प्राणी है कि वह आत्मानन्दकी अभिवृद्धि बहुत जल्दी कर सकता है। इतना ही नहीं बल्कि जो जो मनुष्य आत्मानन्दका अनन्त अनुभव प्राप्त कर चुके हैं वे वे मनुष्य अपने पीछेकी अर्थात् भविष्यकी मनुष्य जातिके लिये पाया हुआ आत्माका साधन रूप धर्म भूतलवासी मनुष्य जातिके लिये स्मारक रूपसे छोड गये हैं। उस धर्म रूपी उपकरण या साधन द्वारा इतर मनुष्य आत्मानन्दके अलौकिक आनन्दत्वको प्राप्त कर सकते हैं। जगत्के अन्य प्राणी इस प्रत्यक्ष विश्वकी अलौकिक प्रभासे आनन्दित होते हैं । परन्तु मनुष्य सज्ञाका प्राणी तो खय निजानन्दमय वन कर उस अपने आनन्द द्वारा अखिल विश्वके अप्रतिम आनन्दमें सुरम्य तथा उपादेयकी अभिवृद्धि कर सकता है । मनुघ्योंका जो धर्म है वही अलौकिक आनन्दकी अभिवृद्धि वानगी रूप है। यह सृष्टि अनन्त कालसे अनन्ततत्त्वके रूपमें ज्योंकी त्यों चली आ रही है, और ध्रुव रूपसे अनन्त तत्त्वमे अनन्त तत्त्व रूपसे अलौकिक खरूपमे अनन्त काल तक शाश्वत खरूपमें ही-सत्य स्वरूपमे ही अलौकिक आनन्द रूपसे स्थिर और नित्य रहेगी। सृष्टि मीमासक शास्त्री भी यही कथन करते