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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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हैं कि यह सृष्टि अलौकिक वस्तु है, और यह नित्य तथा शाश्वत है। इस सृष्टिके अलौकिक सामोसे भरपूर अलंकारोंमें धर्म ही एक सर्वोत्कृष्ट अलंकार है। जगत्में अनेक धर्ममीमासक हो गये हैं, और वे अलौकिक अलंकार रूपसे अपने धर्मविचाररूप प्रसादीसे इस भूतलको अलकृत कर गये हैं। इन अलौकिक प्रसादियोंमें इस समय वेदान्त, जैन, बौद्ध, साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, शैव, वैष्णव, खामी. नारायण, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी आदि मुख्यतासे दृष्टिगोचर होते हैं। इनका तथा इनके अतिरिक्त और और अनेक धर्मालंकारोंका हेतु केवल आत्मानन्दको ही प्राप्त करनेका है। सर्व धर्मका हेतु एक होकर उनके साधन भी एक ही हो जाते हैं, और वे अलग अलग देश कालपर आधार रखकर अलग अलग रूपोंमें प्रवृत्त हो रहे हैं । जैनका हेतु केवल आत्माका पहचानना और उसे मोक्ष तक ले जाना ही है। वेदान्तिक, वैष्णव, स्वामीनारायण, तथा योगीजन भी यही कहते हैं । जिनमें जैन कहते हैं कि -"एगं जाणइ से सव्वं जाणइ' जो एकको जानता है वह सवको जानता है । वेदान्तकी भगवती श्रुति भी कहती है-'आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।' एक आत्माके जाननेसे यह सब कुछ जाना जा सकता है। जैन कहते हैं कि-"अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है। तव वेदान्त कहता है कि-'अहं ब्रह्मास्मि, तत्वमसि, प्रज्ञानं ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म ।" 'मैं ब्रह्म अर्थात् परमात्मा हूं' 'तू भी वही है' प्रकर्ष तया सम्यग्ज्ञान ही ब्रह्म है' 'यह आत्मा ब्रह्म है'। वेदके चार खंड हैं, इन चारों खडोंमें एक एक महावाक्य है। 'प्रज्ञानं ब्रह्म' यह ऋग्वेदका, 'अहं ब्रह्मास्मि' यह यजुर्वेदका, 'अयमात्मा ब्रह्म' यह अथर्ववेदका
और 'तत्त्वमसि' यह सामवेदके छादग्योपनिषद्का महावाक्य है। जैन सिद्धान्तका नियम है कि-"नाणे पुण नियमा आया।" 'ज्ञानमें नियमसे आत्मा है' वेदान्त मी यही कहता है कि-"प्रज्ञानं ब्रह्म' 'प्रज्ञान ही आत्मा है' जैन कहते हैं कि जन्ममृत्यु रूपक समृति कर्मके द्वारा चलती है, और वे कर्म जड हैं। इन कर्मोका नियामक आत्मा है। यानी आत्मा कर्मजन्य सृष्टिका अधिष्ठान है । वेदान्त कहता है कि-मायाके द्वारा ये जन्मादि हैं और इसका नियामक आत्मारूप ईश्वर है। जैन कहते हैं कि-कर्मो