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वीरस्तुतिः।
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७ नाचने, गाने, ढोल बजाने आदि अनेक प्रकारके तमाशे देखने तथा फूलमाला, गन्ध, लेपनादिक लगाने तथा आभूषण शृंगार करनेसे विरक्त होता है। , ८ ऊचे और वढे आराम देनेवाले आसनों और बडी शय्याओंमें शयन करनेका त्याग करता हूं। इत्यादि-छठवें नियममें रात्रि भोजन इनके यहां भी वर्जनीय है।
घोर अन्धकारमें आखों से कुछ नहीं दीखता, उस समय रातमें उडने- - वाले जीवोंका भोजनमें पडजाना भी सभव है अतः रातमें कौन खा-पी सकता है ?
रात्रि भोजनके प्रत्यक्ष दोप___ “भोजनमें कीडी खाई जाने पर बुद्धिका नाश करती है, यूका खाई जाय तो जलोदर हो जाता है, मक्खीसे वमन हो जाता है, पेटमें मकडी जानेसे कोढ हो जाता है । काटा या लकडी का टुकडा गलेमें पीडा कर देता है। शाक भाजीमें विच्छ आजाय तो वह हलक को डंक मारकर वेध देता है । गलेमें यदि वाल अटक जाय तो खरका भंग हो जाता है, रातमें खानेसे ये दोप प्रत्यक्ष हो जाते हैं।” “रातमें वरतन मल कर साफ करते समय कुंथुवा आदि वहुतसे जीव मसले जाते हैं।" “रातमें प्राशुक वस्तुएँ भी न खानी चाहिए क्योंकि मोदक फलादिकों के जीव रातमें दिख नहीं सकते।" "सूर्यके तेजमे ऋग् यजुः साम, इस तरह तीनों वेदोंका तेज है यह वेदज्ञोंका कहना है, और इसीलिए सूर्यका नाम त्रयीतनु पडा है, उसके किरणोंसे सव कुछ पवित्र हो जाता है, और समस्त शुभकर्म उसके प्रकाशमें हो, उसके अभावमै शुभकर्म जो भोजन पानादिक हैं वे न करने चाहिए।"
"वेदज्ञ कहते हैं कि आहुति, स्नान, श्राद्ध और देवार्चन दान आदि रात्रिमें विधान करने योग्य नहीं हैं। परन्तु रात्रिभोजन तो बिल्कुल त्याज्य है।"
"दिनके आठवें भागमें सूर्यका प्रकाश मन्द हो जाता है, अत बुद्धिमानोने उसे भी रात्रि समझा है । और उस समय भी भोजन वर्जनीय है।" , "देवता पहले पहरमे जीम लेते हैं, ऋपि मध्यान्हमें भोजन करते हैं, तीसरे पहरमें पितृलोकोंकी भोजन-निवृत्ति होती है, चौथे पहरम दैत्य और दानव भोजनसे निवटते हैं । सन्भ्यामें यक्ष राक्षस खाते हैं, अतः हे युधिष्ठिर! सव देवताओंकी वेलाका अतिक्रम होनेसे रात्रि भोजन अभोजन है।"