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४१२ , वीरस्तुतिः .....,
" (३) उक्त फर्ममलके कारण इस जीवको नाना योनिओंमें अनेक सङ्कट भोगने पड़ते हैं और उसीके नष्ट हो जानेपर यह जीव अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तसुख और अनन्तशक्ति आदिको जो कि इसकी निजी सम्पत्ति है
और जिसे मुक्ति कहते हैं वह प्राप्त करता है। . . . . . ' . (४) निराकुलता. लक्षणयुक्त मोक्ष सुखकी प्राप्ति इस जीवके अपने निजी पुरुषार्थके अधिकार में है किसीके पास मांगनेसे नहीं मिलता। । (५) पदार्थोके खरूपका यह सत्य श्रद्धान [ Right belief ] सत्य, ज्ञान [ Right knowledge ] और सत्य , आचरण [ Right conduct] ही यथार्थमें मोक्षका साधन है।' ' । (६) वस्तुयें'- अनन्त धर्मात्मकहैं, 'स्याद्वाद ही उनके प्रत्येक धर्मका सत्यतासे प्रतिपादन करता है। , , . (७) सत्य आचरणमें निम्नलिखित बातें गर्भित हैं, यथा
[क] जीव-मात्र पर दया करना; - कभी किसीको शरीरसे कष्ट न देना, वचनसे बुरा ने कहना, और मेनसे बुरा न विचारता ।। . . . . ...
[ख] क्रोध-मान-माया-लोभ और मत्संरआदि कषायमावसे आत्माको मलिन न होने देना, उसे इनके प्रतिपक्षी गुणोंसे सदा पवित्र रखना ।
[ग] इन्द्रियों और मनको वश करना एवं वाह्य संसारमें लिप्त न होना।
[घ] उत्तम क्षमा-निर्लोभ-सरलता-मृदुलता-लाघव-शौच-संयम-तप-त्यागज्ञान ब्रह्मचर्यादि लक्षणात्मक धर्मको धारण करना ..' .' - च] झूठ-चोरी-कुशील आदि निन्द्य कार्योसे, ग्लानि करना ।।
। (८) यह संसार खयं सिद्ध अर्थात् अनादि अनन्त है, इसका कर्ता हर्ता कोई नहीं है। . . . . . . . . . . .. (९.) आत्मा [soulऔर परमात्मा [G6d] में केवल विमाव और खभावका विशेष है। जो 'आत्मा रागद्वेषरूप. विमाव को छोडकर निज खमावरूप हो जाता है उसे ही परमात्मा कहते हैं। ।.. ., . (१०) ऊंच-नीच-छूत अछूतका -विकार मनुष्यका निजका किया हुआ विकार है वैसे मनुष्यमात्रमें प्राकृतिक भेद कुछ भी नहीं है।
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