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________________ करके निर्माण की है। इस परिस्थिति में मेरे अन्तेवासी सुमित्त भिक्खु ने यथा संभव इस पुस्तकके प्रुफ देखकर सहायता की है अतः इसका नाम लिखते समय मुझे प्रसन्नता होती है • इस पुस्तकमें अज्ञताके कारण यदि कहीं भूल होगई है तथा सूत्रसिद्धान्तसे विरुद्ध कुछसे कुछ लिख गया हू तो उसका निखालिस हृदयसे "मिथ्या दुष्कृतम्" वीरस्तुतिके अभ्यासिओ! इसे भावशुद्धि पूर्वक पढिये, पठन और मनन के द्वारा ज्ञातपुत्र महावीर प्रभुके समान बनिये, एवं अपने हृदयसे पुरानी रूढियें एवं पक्षवाद-टोलावाद-सम्प्रदायवाद-गच्छवाद-पार्टीवाजी और मतभेदका कालापाप निकाल डालिये, और समदृष्टि बनकर भारतके दासत्वको दूर कीजिये जगतको भूखेमरनेसे बचाइये, अपने धर्मगुरुओंको राग-द्वेष ईर्ष्या एवं मत्सरताके कीचडसे निकालिये, समाजमें सच्चरित्रता और पारस्परिक सहानुभूति पैदा करनेका प्राण सञ्चार कीजिये, मेरी अन्तिम भावना यही है।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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