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वीरस्तुतिः ।
च भवति । अतः क्षान्त्यैव नश्यति । मत्समो नान्योऽस्तीति मननं मानं । अथवाऽऽत्मन्यविद्यमानगुणारोपणोत्कर्षरूपा बुद्धिर्मानो महति धनाये सत्यपि ह्यनुक्षणं वर्धमाने तदभिलाषो लोभोऽथवा परवित्तादिकं दृष्ट्वा नेतुं ( ग्रहीतुं ) यो हृदि जायतेऽभिलाषो लोभश्च सः ।
इतरेऽप्याहुर्यथा
“लोभ एव मनुष्याणां, देहसंस्थो महान् रिपुः । सर्वदु: - खाकरः प्रोक्तो, दुःखदः प्राणनाशकः ।" "सर्वपापस्य मूल हि, सर्व्वदा तृष्णयान्वितः, विरोधकृत् त्रिवर्णानां सर्व्वीर्तेः कारणं तथा ।" " लोभात्त्यजन्ति धर्मं च, मर्यादां वै तथैव च मातरं भ्रातरं हन्ति, पितरं बान्धवं तथा ।" "गुरुं मित्रं तथा तातं लोभाविष्टो न किं कुर्य्यादकृत्यं पापमोहितः " ॥
पुत्रं च भगिनीं तथा, २६ ॥
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अन्वयार्थ --- भगवान् महावीर ( कोहं ) क्रोधको (च) और ( माण ) मानको (च) और (मायं) मायाको ( तहेव ) इसीप्रकार ( चउत्थं ) चौथे ( लोभं ) लोभको अर्थात् ( एआणि ) इन सब ( अज्झत्थदोसा ) अध्यात्मिक आत्मसंवन्धी दोषोंको (वंता ) त्यागकर ( अरहा ) अर्हन् तथा ( महेसी ) महर्षि हुए; और (पावं ) पाप (ण) न ( कुव्वइ ) स्वयं करते है (ण) न ( कारवेइ ) औरोंसे प्रेरणासे कराते हैं ॥ २६ ॥
भावार्थ - कारणके नाश होनेपर कार्यका भी नाशहोजाता है संसारके चढने में कारणभूत क्रोध- मान-माया और लोभ हैं, अतः इनके नाश होनेपर समार- कर्मवर्गणाकामी नाश हो जाता है, इसलिए भगवान् क्रोधादिका नाश करके अर्हन् अवस्था एवं महर्षिपदको प्राप्त हुए, क्योंकि वास्तवमें कषायका नाश किए विना कोई भी महर्षि नहीं बन सकता, और भगवान् न वयं पाप करते हैं न औरोंको पापमें प्रेरित करते हैं ॥ २६ ॥
भाषा टीका - क्रोध कषायका पहला भेद है, इसके आवेशमें आकर जीव द्वेषका उपयोग करने लगता है, इससे औरोंका अनिष्ट तक भी कर डालता हैं, चित्तकी वृत्ति गर्म और खराव होजाती है, अनिष्ट करते समय क्रोधका ही