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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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जिस का आशय यह होता है कि-किसी के एक-प्राणको भी निरर्थक न दुखाना चाहिए। साधु मुनिराज इसका सम्पूर्ण अग पालन करते है। और गृहस्थ जन इसका एक भाग ही निमा सकते हैं क्योंकि सवको अपना जीवन सब वस्तुओं से अधिक प्रिय है।
जैसे कहा है कि-"यदि मरनेवालेको यह कहा जाय कि-तुम सोनेके "एक क्रोड सिक्के लेकर हमें अपनी जान मारनेकेलिए कहदो, तब वह धनके ढेरको छोडकर जीवित रहनेकी आशा प्रगट करेगा। क्योंकि जान देदेनेपर उसकेलिए धन किस कामका है । अत सबको अपना जीवन प्रिय है। इस लिए सब दानोंमें अभय दान श्रेष्ठ है।"
अभयदान पर उदाहरण-"अरिदमन वसन्तपुरका राजा है, वह अपनी चार रानियोंसे नित्य रग रलिया करता है। एक दिन उन रानिओंने गाना, वजाना, नाचना आरभ किया; राजा उनकी गान्धर्व विद्या पर लटू होगया
और बोला कि आज तुम जो कुछ मागोगी वही दूंगा। रानिओंने कहा कि इस समय तो हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, कालान्तरमें माग लेंगी, अब हमारा वर अपने पास जमा कर लीजिए; राजाने कहा अच्छा।"
__एक बार रानियोंने एक चोरको देखा कि जिसे लाल कपडे, और जूतोंका हार पहिना कर वध्य भूमि ले जाया जा रहा है। रानियोंके साथ राजा भी महल पर टहल रहा था, देखकर उन्होंने पूछा कि प्राणनाथ ! इसने क्या अपराध किया है। राजाने उसी समय एक सिपाहीको बुलाकर पुछवाया, उसने कहा कि पृथ्वीनाथ ! इसने चोरी जैसो अकार्य करके राज और धर्मके विरुद्ध कार्य किया है, अत आपनेही तो इसको 'प्राणदंड' पानेकी आज्ञा दी है। ' यह सुनकर उनमें से एक रानी ने कहा कि प्राणवल्लभ! आप मेरा 'वर' यह दें कि इसे एक दिनके लिये न मारें जिससे मैं इस पर कुछ उपकार कर सकू । राजाने कहा "तथास्तु" । रानीने उसे महलमें लिवा कर कहा तुझे आजके लिए बचा दिया है, अतः आज खा पी और मौज कर। यह कह उसका खूब अन और वस्त्रसे खागत किया, सवेरा होने पर उसे एक हजार दीनार देकर अपने महलसे विदाकर दिया।
इसी प्रकार दूसरी और तीसरी रानीने भी एक एक दिन रक्खा और भमसे एक लाख और एक कोड सोनेके तिकोंका पारितोषिक दिया।