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प्राकथन श्रीमत्सूत्रकृतासूत्रके पंचम अध्यायमें 'नरकविभक्ति' का अधिकार प्रदिपादन किया गया है और वह ज्ञातपुत्र महावीर भगवान्ने खयं कहा है। इसके अनन्तर उनका ही चरित्र इस गुणकीर्तनविभूतिरूप छठवें अध्यायमें वर्णन किया है।
शास्त्रोपदेशकके महत्वसे शास्त्रका महत्व है इस सम्बन्धसे इस अध्यायके उपक्रमादि चार अनुयोग होते हैं। उसमें भी उपक्रम अन्तर्गत जो अर्थाधिकार है वह महावीर प्रभुके गुणसमूहका उत्कीर्तनरूप है। अनुयोगका दूसरा मेद निक्षेप है, जिसके दो प्रकार हैं। ओघनिष्पन्न और नामनिष्पन्न ।
ओघनिष्पन्न निक्षेपके रूपमें यह अध्याय और नामनिष्पन्न के रूपमें महावीर स्तुति । उसमें महत् 'वीर' और 'स्तव' के निक्षेप उल्लेखनीय हैं।
'जैसा उद्देश वैसा निर्देश' इस न्यायके अनुसार प्रथम 'महत्' शब्दका निर्णय किया जाता है। यह महत्' शब्द बहुरूप है। जैसे कि 'महाजन' वडा आदमी है। 'महाघोष' अतिरूप है। महामय-प्राधान्य रूप है। महापुरुष सवमें वडा पुरुष है। ये चार अर्थ 'महत्' शब्दके प्राधान्य अर्थमें ग्राह्य हैं। यथा
पाइन्ने महासहो, दव्वे खेत्ते य काले भावेय।
वीरस्स उणिक्खेवो, चउक्कओ होइ णायव्वो ॥
महावीर स्तवमें 'महत्' शब्द प्राधान्य अर्थ में है, और वह नामस्थापना-द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव इन मेदोंसे छ प्रकारका है। इस प्राधान्यमें नाम और स्थापनाके मेद तो सुगम ही हैं। द्रव्य प्राधान्य ज्ञ शरीर-भव्य शरीर और ज्ञ भव्य व्यतिरिक्त ये तीन मेद हैं । ज्ञ भव्य व्यतिरिकके सचित्तअचित्त और मिश्र ये तीन प्रकार हैं। उनमें सचित्त मी द्विपद-चतुष्पद' और अपदके मेदसे तीन तरहका है। तथा द्विपदमे तीर्थकर-चक्रवर्ती आदि, चतुपादमें हाथी घोडा आदि और अपदमें कल्पवृक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप-रस-गंध और स्पर्शमें उत्कृष्ट पुण्डरीक कमलादि पदार्थाका प्राधान्य है।
अचित्तमें वैदूर्य आदि विविध प्रभावयुक्त मणिरत्नोंका प्राधान्य है। मिश्रम विभूषित तीर्थकरादि ।