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वीरस्तुतिः ।
एक साधारण नियम है । इस अंग का गुजराती अनुवाद भी 'भगवान् महा वीरनी धर्मकथाओ, यह करनेमें आया है, इस अगका परिचय श्रीसमवायागसूत्रमें किया गया है, उसमें बताया है कि - "इस अंग में ज्ञाताओं के नगरोंका, उद्यानोंका, मातापिता का, "इत्यादि परिचय दिया जायगा' यह लिखा है, टीकाकारने ज्ञाताओंका उदाहरणभूत अर्थ किया है, परन्तु " ज्ञाता" अर्थात् 'ज्ञातृवंशी क्षत्रिय ही अर्थ पूर्वापर विचार करते हुए अधिक निश्चय होता है ।
भगवान् महावीरका परिचय श्रीजिनागमों में 'नायपुत्त' - 'ज्ञातपुत्र' के अतिरिक्त और नामोंसे भी दिया गया है, तथापि वहां पर 'नायपुत्त' शब्द 'की ही विशेष प्रधानता रही है । वहुत से प्राचीनतम सूत्रोंमें भगवान् महावीर प्रभुकी गुण गाथाका सृजन विशेषतः 'नायपुत्त' शब्दसे ही किया गया है -
यथा
“न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्तवओरया” १८ "न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इइ वुत्तं महेसिणो” " एयं च दोसं दट्टणं, नायपुत्त्रेण भासियं सवाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं" " एयं च दोसं दट्टणं नायपुत्त्रेण भासियं, अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए"
२१
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" एवं से उदाहु अणुचरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे, अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए "
१८ भावार्थ - " जो भगवान् 'ज्ञातपुत्र' के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखते हैं वे किसी वस्तु का संग्रह करके नहीं रखते ॥ १८ ॥
प्राणीमात्रकी रक्षा करनेवाले 'ज्ञातपुत्र' महावीर प्रभुने वस्त्र पात्रको परिग्रह न बताकर मूर्च्छा यानी ममत्व भावको ही परिग्रह बताया है, यह महर्षिओंने कहा है; ॥ २१ ॥ ( दशवै० अ० ६ )