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________________ निदर्शन उपासकके अन्तरमें भक्तिभावका मोघ उछलने लगता है तव स्तोत्र या स्तुतिका साहित्य-सर्जन होता है, इस प्रकारकी भारतीमें कई वार अमूल्य रत्न बहकर निकल आते हैं। विवेचक इन रत्नोंका मूल्य आकने एवं समझनकेलिये लम्बे चौडे भाष्य और टीकाएँ बनाते हैं। जैन साहित्यमें तीर्थंकर भगवान्की स्तुतिओंका साहित्य पुष्कळ प्रमाणमें पाया जाता है। यहा तक तो है कि अन्य कोई दर्शन उसकी बरावरी नहीं करसकता, यह कहदें तो कोई अत्युक्ति न होगी। समर्थ नैयायिक और वैयाकरणी भी काव्यसाहित्यमें जो कुछ अपनी प्रतिमा उंडेलनेको उद्यत हुये हैं तो वह भी स्तुतिसाहित्यका ही प्रताप है। आमका वृक्ष फलोंसे लदा हो, मञ्जरी महकती हो और वसन्तका वायु चलता हो तो कोयल परवश होकर भला पंचमखर निकाले विना क्योंकर रह सकेगी? इसी प्रकार न्याय-दर्शन-व्याकरण या अन्यान्य कठिनसे कठिन शास्त्रोंमें पारंगत समझे जानेवाले पुरुषोंके अन्तरमे किसी समर्थपुरुषके प्रति भक्तिभाव जागृति हो तो वे स्तुतिके साहित्यकी उपेक्षा कभी न कर सकेंगे । चन्द्रदर्शनसे उभरकर वढनेवाले महासागरकी भाति अन्तर भी भक्तिसे सक्षुब्ध बन जाता है। परन्तु परमपुरुषकी स्तुतिओंमें केवल काव्य अथवा साहित्यका ही अश हो यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। स्तुतिका रचयिता उस समय जव कि कविका आसन स्वीकार करता है परन्तु अपनी विशिष्टताको नहीं छोडता। इसीलिये कि स्तुतिओंके साहित्यम तत्वज्ञान अध्यात्म झलक और बुद्धिचातुर्यके अत्यद्भुत अंश उसे उस समय भी प्राप्त होते हैं। • समग्र आगम-सग्रहके उपोद्घातके समान गिने जानेवाले नन्दीसूत्रमे श्रीदेव वाचक क्षमाश्रमणने मगलाचरणके रूपमें जो गाथायें ग्रंथन की हैं उसमें मूलमें तो श्रमण भगवान महावीर प्रभुकी स्तुतिका ही प्राधान्य है परन्तु उसमें इतना अधिक गम्भीर अर्थ है कि आचार्यमलयागिरि रचित संस्कृत टीकारूप तालिकाको समझे विना उस स्तुतिके गंभीर अर्थकी कल्पना शायद ही किसीकी समझमें आयगी। • श्रीमलयगिरिने स्तुतिके लोकोंकी व्याख्या करते समय आप्तवाद-स्याद्वाद आत्मवाद-प्रमाणवाद जैसे तत्वज्ञान सम्बन्धी अनेक सिद्धान्तोंको स्पष्ट कर दिखाया है।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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