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सके इस भावसे प्रेरित होकर इसका प्रकाशन किया है। मुझे तो इसके प्रतिसमयके खाध्याय और पाठसे भरपूर शातिसुधाधाराका अव्यवच्छिन्नरूपसे आखादन करनेका पूर्ण सौभाग्य मिल रहा है। अतः मुझे पूर्ण आशा है कि अन्यान्य मुमुक्षुमहानुभावोंको भी इसके निरन्तर पाठ तथा मननात्मक खाध्यायसे अवश्य शान्तरसकी प्राप्ति होगी। यद्यपि इसकी कई आवृत्तिएँ निकलकर प्रकाशित हो चुकी हैं परन्तु यह संस्करण जिस आवश्यकताकी पूर्ति में सर्वाङ्ग सफल हुआ है इसका उत्तर पाठकगणोंके ऊपर ही छोड दिया जाता है, कहने सुनने और लिखनेकी आवश्यकता नहीं है। कारण यह है कि जिस समय अमृतका पान किया जाता है उस समय वह जनताको यह नहीं कहता है कि मेरा खाद कैसा है? उसका वर्णनतो जिह्वा स्वयं करने लगती है तथा उसकी प्रशंसाके पुल बाघ देती है। अत: इस न्यायको लक्ष्यमें रखकर इस लोहलेखनीको विराम देता हूं।
लघुतम'पुप्फ भिक्खु.