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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता ३५९ । परन्तु अधिक मिरचें, अति तेल, अति खटाई आदि तामसी पदार्थोका उपयोग कभी भी न करना चाहिये । इसके उपरान्त आवश्यकतासे अधिक न बोलकर अधिकांश मौन रहना चाहिये। निकम्मा वाग्व्यय करनेसे योग, वेकार आ जाता है। योग साधना करनेवाले महात्मा पुरुषके पाससे योगकी तालिका सीखकर उसकी साधना करनेके लिये एकान्त तथा पवित्र विजन प्रदेशमें जाना चाहिये । पहाड, पर्वत आदि एकान्तप्रदेशके अतिरिक्त अन्य किसी स्थानमें जैसी चाहिये वैसी अच्छो रीतिसे योगकी साधना नहीं कर सकता। इसीलिये प्राचीन कालके पुरुष अनेक पहाडोंमें जहा नाना सात्विक वनस्पति होनेसे तथा वहा अनेक महात्माभोंके शुद्ध रज कण होनेकी स्मृति रहनेसे, वातावरण मी एकान्त और पवित्र रहनेसे उस स्थलपर एकदम शान्त और अचपल मन हो जाता है। अतः वह स्थान उनका मनपसद है। वडे राजमहल या धर्म स्थानमें जिस आनन्दका खप्नमें भी अनुभव न हुआ हो उस आनन्दका अनुभव कुल्लु और शिमले तथा हंस तीर्थ के वर्फानी पहाडोंमें जानेसे होता है। अतः योगीको किसी ऐसे ही प्रकारका स्थान पसन्द करना चाहिये। यदि कारणवश इन स्थानोंपर न जा सके तो जहा तक अपनी ही वस्तीमें रहता हो उसके आसपास किसी रमणीक वनस्पतिवाले उपवनको चुनना चाहिये, और वहीं योगाभ्यास करना चाहिये। धूलपर वैठकर योगकी साधना नहीं की जा सकती वल्कि बैठनेके लिये आसनकी भी आवश्यकता है।
योगिओंके लिये दर्भासन अत्युत्तम है, और दर्भासनपर कम्बलासन विछाना चाहिये। दर्भासन तथा कम्बलासनमें साधकके शरीरकी विद्युत्शक्तिको टिकाये रखनेकी शक्ति बडी ही उत्तम है। इसीलिये सूतके कपडेपर योगी अपने योगाभ्यासकी साधना न करे।।
__ भगवती आदि सूत्रोंमें भी कई स्थानोपर दर्भासनका पाठ ही दिया गया है। यथा
"भसंथारगं संथरइत्ता।" इसीकी पुष्टिके लिये उत्तराध्ययनमे केशी मुनि और गौतम गणधर जहां मिलते हैं वहा वे भागन्तुक मुनिका खागत “कुश तणाणिय" द के आसनसे करते हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि-जैन जातिमें भी आदानप्रदानके प्रसङ्गमें पहले सर्वत्र दर्भासनका ही रिवाज था।