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वीरस्तुतिः।
वधु कठण , अध्यात्मिक
सर्वज्ञ कलियु, ए सौथी
आर्यभाषा, आर्यजीवन,] उत्तम कुल, दीर्घ आयुष्य, आरोग्य शरीरे, समस्त इन्द्रियोने इच्छानुकूल सामग्रीनो संयोग अने अध्यात्मिकजीवन गाळनार साधुपुरुषोनो सत्संग ए तेनाथी वधु कठण छ। पण वीतराग प्रणीत धर्ममा प्रयत्नशील वनवू, ए सौथी वधु कठण छ । जगत्ना जीवोने कल्याणकर सर्वज्ञ कथित धर्मज छे, आ भाव औषधिना सेवनथी शारीरिक तेमज मानसिक सर्व रोगो नाश पामे छे, ते धर्म ज्ञातपुत्र श्रीमहावीर प्रभुए दानशील-तप-भाव ए चार प्रकारे वतावेलो छे.
दान धर्मनी विशेषता-दानने सौथी प्रथम एटला माटे कहेवामां आवेल छ के दान धर्मनो पाछलना त्रणे प्रकारोमां पण समावेश थएला छे, जगतमा आ लोक तथा परलोकनी खातर दान देवानी प्रणाली सौथी पुराणी छे। श्रीतीर्थकर भगवान् सौथी पहेला वरसीदान आपीने पछी दीक्षा अंगीकार करेछ।
शीलमां दान धर्मनो समावेश-शील धर्ममा पण दानधर्मनो समावेश थाय छे, ब्रह्मचर्य पालनथी दरेक वखते असंख्य वेइन्द्रिय असंख्य सम्मूर्छिमपंचेन्द्रिय तथा नव लाख गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीवोने अभयदान मळे छ । अन्य शास्त्रकारोए पण आ व्रतनुं वहु ज माहात्म्य दर्शावेल छ ।
एकरात्रोपितस्यापि, या गतिर्ब्रह्मचारिणः । न सा ऋतुसहस्रेण प्राप्तुं शक्या युधिष्ठिर ॥
[मार्कण्ड ऋपि] ' भावार्थ-एक रात्रिना पण ब्रह्मचर्य पालनथी जे उत्तम गति तथा श्रेष्ठ फल ब्रह्मचारीने मळे छे, ते हे युधिष्ठिर ! हजार यज्ञोथी पण मळतां नथी।
शीलवतनुं पालन करीने वीर्य (आत्मशक्ति) नुं रक्षण करनार गर्भ, जन्म मरणादि दु खोयी मुक्त थाय छ । एटले के ते पोताने पण अभयदान आपे छ । आथी शीलमां पण दान गर्भित होवानुं स्पष्ट जणाय छ।
तपमां पण दानधर्मनो अन्तर्भाव-शीलनी माफक तपश्चर्यामां पण दानधर्मनी आराधना छुपायेली छे । आ वात सर्व कोई जाणे छ के छकायनी विराधना [हिंसा या आरम्म] वगर भोजन तैयार थई शकतुं नयी । परन्तु