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वीरस्तुतिः। . परिशिष्ट नं० १ वीरस्तुति-गुर्जरगायन
कडखाकी चाल तार हो तार प्रभु मुझ सेवक भणी, जगत्मां एटलुं सुजश लीजे। दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो,
दयानिधि दीनपर दया कीजे ॥१॥ ' भावार्थ-किसी समय श्रीजिनागमके अभ्यास द्वारा ससार भ्रमण करते हुए, ज्ञानावरणादि आवरणोंसे ढके जानेपर भी अपनी अनन्त शक्तिको जान कर अनादि परभावानुपंगताके दोषसे उद्विग्न मात्मा अपनी साधक शक्तिको न देखकर परम निर्यामकके समान २४वें तीर्थंकर श्रीज्ञातृपुत्र-महावीर भगवान्के नामका गरण निर्धारित करता है, और श्रीवीरपरमात्माको अन्तरमें अनुभूत करके प्रार्थना सहित विनति करता है और अपनेको प्रभुका दास निश्चित रूपमें समझकर मानो पुकार पुकार कर कहता है कि-हे नाथ ! हे दीनदयालो! है प्रभो! मुझसा निर्वल तत्वसाधक आपकी आज्ञाओंके पालन करने में कहा समर्थ है, मुझे तो मात्र नामका सेवक समझ कर तार? तार ? इस गुणरोधकरुप दु.खसे निस्तार! ओह प्रभो! तुझ से प्रभुको छोडकर और किसे कहूं? यह इतनासा सुयश आपही लीजिए और मुझे भवजलधिसे पार कीजिए! भगवन् ! मुझे यह भी ज्ञात है कि-प्रभुको तो सुयशकी कुछ भी अभिलाषा नहीं है। परन्तु उपचारसे भविवश आपके नाममें आतुर होकर यह सब कुछ कहकर में ही अपनी अज्ञानताका परिचय दे रहा हूं; यद्यपि में अपनेको आपका दास समझता हूं, मगर यह दास तो रागद्वेष-असंयम-अनुष्ठानाशंसादि दोप-एकान्ततादोप-अनादर आदि दोपरूप अवगुणसे भरा हुआ है । तो भी में तेरा ही कहलाता हूं । अत एव हे दयानिधे ! भावकरुणासमुद्र में दीन-रंक- अशरण-टुःखित-तत्वशून्य-सम्यग्ज्ञानादिसे शून्य भावदरिद्र, तत्वमार्गका विराधक-असयमचारी-महाविकारशील-आपकी आज्ञासे विमुख-अनादिकालका उद्धत, आदि २ अनेक दुर्गुणांसे पूर्ण हूं। इसी लिए मुझ दीन-हीन पर दया कीजिए। तेरी कृपा ही त्राण-शरणके योग्य हो जायगी। यद्यपि 'भर्हन्' प्रभु सदा कृपावान्
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