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संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता
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ही होते हैं तब उन्हें और नवीन कृपा क्या करनी है ? तथापि अर्थाको घरगाठका विचार नहीं होता, इसलिए यह वचन मुझसे 'अर्थी' का ही है, और जो दयावान् होता है उसकी विशेषता इसी प्रकार वर्णन की जाती है। मतः देव! तुम कृपाके भंडार हो, तुम्हारा अवलम्बन लेकर ही पार हो सकूँगा, यह सत्य और निस्सदेह है।
राग-द्वेषे भर्यो मोह-वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो। क्रोध वश धमधम्यो, शुद्धगुण नवि रम्यो,
भम्यो भवमांहे हुं विषय मातो ॥२॥
भावार्थ-हा तो भगवन् ! यह दास कैसा है ? सुनिए, यह राग-द्वेषके कीचडमें फंसा हुआ है, जगत्-सागरमें ड्वा पडा है, गुणी जनोंसे ईर्ष्या करता है, मोहके नशेमें बेसुध है, तत्वकी बातोमें विल्कुल अज्ञात है, विपर्यासका कुछ ठिकाना ही नहीं है। मोह वैरीने भारी झपट मारी है जिसके कारण अपने उस मोहभावसे स्वयं उसके नीचे दव गया है। तथा लोककी रीतिभांति, चाल-ढाल, अन्धश्रद्धा, उलटी टेढी रूढी आदिमें खूब ही मस्त है, लोकोंकी गतानुगतिकता भेडचालमें ही सदा मन है, अपनी गाठकी अकलसे कुछ भी नहीं विचारता, लोकोंको प्रसन्न करनेकी वडी चाह लगी रहती है । लोकोंसे डरता भी खूव है इसी कारण गुप्त अनाचार सेवन करता है, तव लोकोंने भी वुगला-भक्तकी ही उपाधि दी है। क्रोधसे पारा गर्म हो जाता है, चंडपरिणाममें धमधमायमान है। जिस प्रकार धौंकनीकी प्रेरणासे अमि तप उठता है इसी तरह क्या वल्के इससे भी अधिक क्रोधके द्वारा तप जाता हूं । शुद्ध गुण जो सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान-परमशुद्ध चरित्र-क्षमा-मार्दव-आर्जव आदि आत्मगुण हैं, उनमें कमी रमण नहीं करता, न कमी में उनमें तन्मय ही होता हू, अपने खरूपका ग्रहण भी कभी नहीं किया, सदैव तुसके समान निस्सार परभाव या विभावको ही खीकार किया है, नरक-तियेच मनुष्य-देव आदि चार गति रूप संसारचक्रम इसी कारण मारां मारा फिरता हूं। तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप समृतिमें, पाच इन्द्रियोंके विषय-खादमें उन्मत्त और उन्मम हो रहा हूं। विषयग्रस्त हो कर इस भाति विश्वचक्रका कडुवा अनुभव ले रहा हूं, में वही अंघमदास हूं,