Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
- The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૯
rammercemewati Au
-
yms
-
-
NAGAR
जनकारत्नकाप
जाग त्रीजो.
a -
S
-
.
-
-
CE:
आ पुस्तकमां .. मोडविवेकनो गम नया श्रीधर्मनानं स्तवन
भने श्रीरामकलमिती सन्ट, बालाबोध तथा प्रत्येक बाल
उगा आपली दानिक कथा सहित छ.
समस्त साधु आवक वर्गने भणवा पांचवा माटे
घणाज उपयोगी जाणीने । श्रावक नीमसिद मारणक
श्रीमोहमयी पत्तन मध्ये निर्णएमगर नामक मुद्रालगमा मुद्रित कगाके.
सरकारना कायदा प्रमाणे हक नोधाग्यो छे.
.
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन यारत्नकोपः
नाग त्रीजो.
प्रस्तावना. श्रा श्रीजैनकथा रत्नकोप नामना पुस्तकनो त्रीजो नाग बापीने प्रसि तामां मूकेलो , जेमा प्रथम अत्युत्तम मोहविवेकनो रास बापेलो ने, जेनी अंदर उपमितिनवप्रपंच नामना ग्रंथनी माफक विवध प्रकारे मोह राजा तथा कर्म परिणाम राजा अने तेमनां कुटुंबादिकनुं तथा धर्म परिणा मराजा बने सम्यगदर्शन नामें प्रधान तेमज विवेकादिक वगेरे, वर्णन करे लुंजे, ते वांचवाथी वांचनारने यथार्थ संसारस्वरूप स्वतः जाणवामां आवशे.
ते पनी बीजो ग्रंथ महोपाध्याय श्रीविनयविजयजी विरचित श्रीधर्मना थजीनुं स्तवन १३७ गाथा- दाखल करेलुं . ते ग्रंथ पण नपलाज ग्रं थने घणुं करी मलता विषयवालोज ले. ते पड़ी त्रीजो ग्रंथ दर्शन सित्तरी नामे ले. ते ग्रंथमां समकेतनी चार सद्दहणा यादिक सडशत बोल- सवि स्तर वर्णन करेलु ,अने ते वली प्रत्येक बोलनी उपर घणीज रसिक अने हाबेदब तेज विषयने दर्शावनारी तादृश उपदेशनी सूचक एवी महोटा महोटा प्रानाविक पुरुषोनी कथा आवेली, तेथी ते वांचवाथी वांच नारने अपूर्व बोध थयाविना रहेशेज नहिं, एवा महा आनंदकारी पूर्वी क्त ए ग्रंथो एतत्पुस्तक गत मुश्ति करेला ने.
दर्शनसित्तरी ग्रंथनी एकज प्रत महारी पासें घणीज अशुभ लखेली होवाथी तेने शुरू करी बापवाने अर्थे बीजी प्रत मेलववा माटे घणोज प्र
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
ง
प्रस्तावना.
यत्न को परंतु क्यांदिथी प्रत मली शकी नहीं माटे एकज प्रत उपरथी महारी यथाशक्ति शोधन करीने ए ग्रंथ बाप्यो बे तथा वली ए ग्रंथमां साक्षी दाखल अनेक स्थले जूदा जूदा शास्त्रोनी गाथा ने श्लोको मा गधी जापा तथा संस्कृत भाषामां खावेला बे, तेने शुद्ध करवा माटे कोइ पण साहामी प्रत नही मलवाथी तेमां अशुद्धताना दोष साधारण वाच नार साहेबाने पण दीगमां श्रावशे तो चतुरजनोने दीगमां यावे तेमां तो कहेवुंज गुं ? माटे महान्पुरुषो महारामां ग्रंथ शोधन करवानी हानश क्ति जाणता बतां पण महारी उपर अप्रियता न प्राणतां पोतें सुधारी वाचशे अने हुं महाराथी थयेली नूलोने माटे समस्त वांचनारा साहेबोनी समद्द महारा शुद्ध अंतःकरणथी मिठाडुक्कड देनं बुं.
दर्शन सित्तरी ग्रंथने कथा सहित बराबर धारणामां राखवाथी समके तना सडसठ बोल मांहेला कया कया बोल कया कया सम्यकदृष्टि जनो मां पामीयें ? एवं अनुमान करवानी शक्ति यादिक बीजा पण मोक्षमार्ग ना साधनने प्राप्त करावनारा एवा अनेक उत्तम गुणोनो लान थवाथी र रहेवाने लीधे यशकीर्त्तिनी वृद्धि होवाथी या नवमां पण सर्व सजनो मां सरनी पदवीने पामशे. ए ग्रंथमां केटली कथा बे ने ते कया कया उत्तम जनोनी बे ? इत्यादि बाबतो जो सामान्यथी जाणवी होय तो ते पासेना पानामां अनुक्रमणिका जोवाथी जाणवामां श्रावशे.
दू
मोहविवेकनो रास घणुकरी मारवाडदेशमां रचेलो होवाथी तेमां श्रा वेली भाषा पण घणी खरी मारवाडदेशनेज मलती होवाथी ते जाषामां हुं विशेपे करी जाण होवाने लीघे तेम वली ए ग्रंथनी मात्र एकज प्रत महारा हस्तगत होवाथी वधारे शुद्धता करवानुं माहाराथी बनी शक्युं नथी.
या ग्रंथो केवा रसिक ले, ते विपेनी तारीफ मारा मोढाथी नहिं करवा रकतां हुं एम धारुं बुं के सुइ वांचनारा पोतेज ते ग्रंथो वांचवाथी तेनी तारीफ करा वगर रहेशे नहि. किंबदुविलेखनेन शुनमस्तु .
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्य पुस्तकस्यानुक्रमणिका.
४७
प्रथम मोहविवेकना रासनी अनुक्रमणिका. क्रमांक. ग्रंथनाम.
पृष्ठांक. १ पहेला खंममा मंगलाचरण कस्या पली बहा बारानुं तथा पहे
ला बीजा धारानुं क्वचित् स्वरूप. तेमज कुलघरनी उत्पत्ति प्रमु ख तथा पद्मनान जिनचरित्र, धर्मरुचि मुनि मोदाधिकार जे. २ बीजा खममां मोहविवेकनी उत्पत्ति, मनप्रधाननी उत्पत्ति, मो
हराजानी स्थापना इत्यादि वर्णन ने. .... ... .... ३ त्रीजा खममां अविद्या नगरीनुं वर्णन तथा तेनो राजा मोह बे, तेनुं वर्णन, निवृत्तिनारीनुं वर्णन, तेमज केटलाएक दर्शनीयोना मतप्रमाणे तेमनी क्रियानुं स्वरूप जैनदर्शननुं स्वरूप इत्यादि. २६ ४ चोथा खममां पुण्यरंग पाटणनुं वर्णन, वीर विवेकनो परिवार मो
हचर प्रेखण कंदर्पदर्प दिगविजयादि वर्णन . ..... .... ५ पांचमा खममां मयण परिवार, कलिकाल सविस्तर स्वरूप
वर्णन, कंदर्पोत्सव, विवेकपरिणित्त प्रस्थानादि वर्णन. .... ६ बजा खममां मोहराजाना सैन्यना प्रत्येक सुनटसंबंधी बलनुं वर्णन तथा विवेक राजाना सैन्यमांदेला प्रत्येक सुनटोना बल नुं वर्णन तेमज मोह अने विवेकनु परस्पर युद्ध थयुं,तेनुं वर्णन. तथा हंसराजने परमपदनी प्राप्ति अने ब्रह्मस्वरूप वर्णनादि . ७ ७ ग्रंथ समाप्त थयो. .... २ बीजो ग्रंथ उपाध्याय श्रीविनयविजयजी कृत उपमिति नवप्र
पंच याश्रयी श्रीधर्मनाथनुं स्तवन तेमां पण मोहादिकना परि
वार तथा सम्यग्दर्शनना परिवार प्रमुखनुं वर्णन . .... १०६ त्रीजो ग्रंथ सम्यक्त्व सप्ततिका बालावबोध तथा कथासहित ,तेनी अनुक्र० १ पहेली त्रण गाथामां दायिकादिक समकेतनुं स्वरूप तथा शुदि. ११४ २ समकेतनी शुधिने विषे आरामनंदननी कथा. .... .... ११६
६६
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
.... १५१ .... १५५
अनुक्रमणिका. ३ चोथी गाथामां समकेतनी शुद्धि केम थाय? ते कडुं . .... १३६ ४ पांचमी तथा बही गाथामां सडशन बोलनां नाम कह्यां .... १३७ ५ सातमी गाथामां प्रकरण कर्त्तानी सूचना . .... ६ आतमी गाथामां चार सदहणानुं स्वरूप बे. .... .... ७ नवमी गाथामां परमार्थ संस्तवनामें पहेली सदहणानुं स्व०.... G पहेली सहहणानी उपर जिनदास श्रावकनी कथा.
ए दशमी गाथामां बीजी सदहणानुं स्वरूप कह्यु बे..... १४ १० बीजी सदहणानी नपर पुष्पचूला साध्वीनी कथा. .. १४६ ११ अगीयारमी गाथायें त्रीजी सदहणानुं स्वरूप कह्यु . १२त्रीजी सदहणानी नपर जमालीना दृष्टांत. .... १३ बारमी गाथामां चोथी सदहणानुं स्वरूप कडं ..... १४ चोथी सदहणानी नपर बे पोपटनी कथा. .... ..... १५६ १५ तेरमी चौदमी गाथामां समकेतना त्रण लिंगनुं स्वरूप कडं बे. १५७ १६ समकेतना शुश्रूषा नामा प्रथम लिंग उपर सुदर्शन शेत अने
अर्जुनमालीनी कथा. .... १७ पन्नरमी गाथामां बीजा लिंगनुं स्वरूप कडं जे. .... .... १७ बीजा लिंगनी उपर आरोग्यहिजनी कथा. १५ शोलमी गाथामां समकेतना त्रीजा लिंगनुं स्वरूप कडुं . .... १६४ २० त्रीजा लिंगनी उपर वजनानादिकनी कथा. ..... १६६
१ सत्तरमी गाथामां दश प्रकारना विनयनां नाम कह्या ले. .... १६७ २२ अढारमीथी एकवीशमी गाथा पर्यंत दश विनयनुं स्वरूप कह्यु . १६॥ २३ बावीशमीथी चोवीशमी गाथामा विनय केम करवो? ते कहेलु . १७१ २४ विनयनी नपर नुवनतिलकनी कथा. .... २५ पञ्चीशमी गाथामां मनःशुदिनुं स्वरूप कह्यु . .. २६ मनःशुदि उपर नरवर्मा राजानी कथा..... .... १७ए २७ बबीशमी गाथामां वचनशुचिर्नु स्वरूप कडं . ....
.... १७५ २७ वचनशुदिनी उपर धनपाल पंमितनी कथा.... ....
ए सत्तावीशशी गाथामां कायदिनुं स्वरूप कडुं ..... ३० कायंशुदिनी उपर ववकरण राजानी कथा, .... ..... १एए
ช
แs
us
.... १७४
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
on
to
अनुक्रमणिका. ३१ असावीश गाथामां समकेतनां पांच दूषण कह्यां . ३२ गणत्रीशमी गाथामां शंकादि दूषणनां स्वरूप कह्यां . .... २०२ ३३ शंका दूपण उपर आषाढनूति आचार्यनी कथा. ..... .... २०३ ३४ कांदा दूषणनी नपर जितशत्रु राजानी कथा. .... .... २०५ ३५ त्रीशमी गाथामां वितिगिहा दूषणना दोनुं स्वरूप कडुं बे. ३६ वितिगिला उपर शुनमति राणीनी कथा...... ३७ परपावंमीनी प्रशंसादोषना नेदप्रतिनेद सहित स्वरूप कडुं . ३० प्रशंसाने विपे सुमति अने नागिलनी कथा. ३५ मिथ्यादृष्टिना परिचय उपर सौराष्ट्रवासी श्रावकनी कथा. .... २१७ ५० एकत्रीशमीथी तेत्रीशमी गाथामां आठ प्रानाविक, स्वरूप..... ४१ प्रावचनिक अने धर्मकथिक ए वे उपर वजस्वामीनी कथा..... ४२ चोत्रीशमी गाथमां वादी तथा निमित्त प्रानाविकनां लक्षण..... ४३ वादी प्रानाविक नपर मन्नवादीनी कथा.
.... .... २३१ ४४ निमित्त प्रानाविकनी उपर श्रीनवादु स्वामीनी कथा. .... ४५ पांत्रीशमी गाथामां तपस्वी तथा विद्या प्रानाविकनुं स्वरूप कडं. ४६ तपस्वी प्रानाविकनी उपर विष्णुकुमारनी कथा. .... .... ४७ विद्या प्रानाविक उपर आर्य खपटाचार्यनी कथा..... ....
बत्रीशमी गाथामां सिम तथा कवि प्रानाविकनां लक्षण. .... २४६ Hए सिक्ष्प्राजाविकनी उपर पादलिप्ताचार्यनी कथा. .... .... २४७ ५० कवि प्रानाविकनी उपर सिबसेन दिवाकरनी कथा..... .... ५१ साडत्रीशथी गणचालीशमी गाथा पर्यत प्रकारांतरेंप्रानाविकना
नेद तथा तेवा प्रानाविकने अनावें कोने प्रानाविक कहेवा? ते जे. २६५ ५२ प्रकांतर नेद उपर संघपति रत्नश्रावकनी कथा. .... .... २६४ ५३ चालीशमी गाथामां समकेतना पांच जूषणनां नाम कह्यांबे. २६ए ५४ एकतालीशमी गाथामां कौशल्य तथा तीर्थसेवा नूषणस्वरूप. २७० ५५ कौशल्यपणानी नपर नदायिन राजानी कथा. .... .... २७० ५६ तीर्थसेवा नूषणनी नपर नागदत्तनी कथा. .... ५७ बहेंतालीशमी गाथामां नक्ति आदिक नूषणोनुं स्वरूप कमु दे. १७७ ५७ नक्ति नूषणनी नपर कामिनीनी कथा. ....
... ... २७ए
or to T I o D o rror rrrrrrrrrr ० ० ० ० PD ~Marr mr m
T o o o o a
mr r mr rrrrrrr
0 1
३७४
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
....
अनुक्रमणिका. पए स्थिरता नामें नूपणनी उपर सुलसानी कथा. .... .... २७० ६० प्रनावना प्रानाविकनी नपर कालिकाचार्यनी कथा. .... ६१ तालीशमी गाथामां समकेतना पांचलणनुं हार कह्यु बे..... ६२ चुम्मालीशमी गाथामां उपशम तथा संवेग लक्षणनुं स .... एन ६३ उपशमलहणनी उपर मेतार्यमुनिनी कथा. ६४ संवेगलदानी नपर दमदत्त मुनिनी कथा. .... ६५ पीस्तालीशमी गाथामा निर्वेद्यादि लक्षणस्वरूप. .... ६६ निर्वेद्यलक्षणनी उपर हरिवाहन राजानी कथा. .... ६७ अनुकंपा लणनी उपर जयराजानी कथा. ६७ पांचमा आस्तिक्य लक्षणनी नपर पद्मशेखरनी कथा. .... ३१७ ६ए तालीशथी अडतालीशमी गाथापर्यंत ब जयणां कही बे..... ३२१ ७० वंदन तथा नमनरूप वे जयणा उपर संग्रामशूरनी कथा. .... ३२३ ७१ उगएपञ्चास तथा पञ्चासमी गाथामां दानादि चार जयणा स्व० ३ ७२ पाबली चार जयणानी नपर मंत्रितिलकनी कथा..... .... ७३ एकावनथी त्रेपनमी गाथामां आगारनुं स्वरूप कडं डे. .... ७४ चोपनमी गाथामां आगारथी समकेत नंग न थाय. .... ७५ धागारनी उपर मृगांकलेखानी कथा..... ..... ७६ पञ्चावनथी अजवनमी गाथापर्यंत जावनानुं स्वरूप जे. .... ७७ समकेतनी उ नावनानी उपर चंश्लेखानी कथा...... .... ७७ गणशातमी गाथायें समकेतनांब स्थानकनां नाम कह्यां . जए शाठमी गाथाथी पांचशतमी गाथापर्यंत उ स्थानकनुं स्वरूप. ३६५ G० स्थानकनी उपर नरसुंदर राजानी कथा.
.... .... २६० ७१ बाशमी गाथामां सर्वशास्त्रनुं निगमनवाक्य कयुं . .... ३७४ ७२ सडशठमी गाथामांसडशठ बोलना झानथी गुंफल थाय? ते कडुं. ३ ७३ अडशमी गाथायें समकेतनी शुदिना प्रकार कह्या . .... ३७६ ७४ गणोतेरमी गाथायें संघादिकना प्रत्यनीकनां लक्षण कह्यां . ३७७ ७५ समकेतना प्रत्यनीक न थएँ, ते उपर सुंदर राजानी कथा..... ३७ ७६ शित्तुरमी गाथायें शास्त्रनुं तत्त्वनृतवाक्य कह्यु डे. .... ३७४
or of or of or in n n n BBPP/RD DD - Mor rrrm m mr
m M m m m m m
m .
m
-
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ ॥ ॥पंमित श्रीधर्ममंदिर विरचित श्रीमोदविवेकनो रास प्रारंनः॥
तत्र प्रथम खंमः
॥दोहा॥ ॥चिदानंद चित चाहगुं, प्रणमुं प्रथमोनास ॥ तेज तमस जीत्यां जि , लोकालोक प्रकाश ॥ १ ॥ गुण अनंत गुरुजन तणा, दयाकुशल नं मार ॥ ज्ञान दात दीये जिके, ते प्रणमुं सुखकार ॥२॥ ज्ञान वडं सं सारमा, ज्ञान ज्योति जगमांय ॥ ज्ञान देव दिलमा धरूं, ज्ञान कल्पतरु बाय ॥३॥ अनंत सिमां ज्योति ए, साधारण महाधाम ॥ मुनि मनपं कजमां धरे, सारे वंबित काम ॥४॥ ज्ञानी पण वचनें करी,कही न शके जसु पार ॥ आतम अनुनवा लहे, चिदानंद विस्तार ॥ ५ ॥ कर्म जाति बदु वर्गणा, फिर रही डे जसु पास ॥ पण तेहने लागे नहि,ज्युं रविवाद ल रास ॥ ६ ॥ पुण्यपापथी ए नहिं, अनुपम ज्योति अनंग ॥ जन्म क ह्यो जोगीसरें, उदासीनता संग ॥ ७ ॥ चन्दीप मणि नानुनी, ज्योति देशथी होय ॥ जडता दाहकता तिहां, इहां कलंक न कोय ॥ ७ ॥ लोग मांहि वसतां थकां, पहोंचाज्या इण पार ॥ कोड वर्ष कष्टें करी,न तस्या बदु संसार ॥ ए॥ काम क्रोध न रहे तिहां, जिहां जागी ए ज्योत ॥ बा लबुद्धि जाणे नहिं, नवजल तारण पोत ॥१०॥ नाद वाद तप मौन धर, आसन आश निरोध ॥ इणगुं नर लाने नहिं, स्वानाविक ए बोध ॥ ११॥ नमो नमो सरस्वति जणी, कर्म अलुखता दूर ॥ नानिपुत्र ब्रह्माथ की, उपनी अनुपम नूर ॥१२॥ निर्मल मानससर वसे, अवर मूकीप रिवार ॥ हंस केलि त्यां नित करे, सरस्वति वाहन सार ॥ १३ ॥ ते सर स्वति बातम निकट, वहे रहे निश दीस ॥ अवर कोइ जाणे नहिं, इक जाणे योगीश ॥१३॥ नीच गमन पाषाण बद्ध,जडता जाल प्रकार ॥अव र नदी दूषण घणां, ए निर्मल निर्धार ॥१५॥ जिन वाणी सरस्वति कही, बीजी सरस्वति नांही॥नव्य लोकहितकारिणी, जयवंती जगमांही॥१६॥
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ ढाल पहेली ॥ ॥ नमणी खमणी ने मनगमणी ॥ए देशी ॥ श्रीजयशेखर आखे सुरि न्दा, सुगजो रोचक नविजन वृंदा ॥ अध्यातमनो ए अधिकार, मीठो मा नुं अमृतधार ॥ १ ॥ मूरख मोहदशामा राचे, लौकिक चतुर कथा करि माचे ॥ कही परने झान दिखावे, आप प्रबोधमां कबहुँ नावे ॥२॥ पढि गुण ग्रंथ वडाई पाइ, शान्ति दशा मनमें कनु नां ॥ ज्युं नश्क गज मो ती धारे, पण तेहना गुण फल न विचारे ॥३॥ शृंगारमा बदु नर र सिया, शान्तितणे घर विरला वसिया ॥ शीत तापमां बद्ध दिन होई,शुन जाणे मेरे दिन को ॥४॥ अग्नि पडे जे पबरसेंती, बहुला लाने धरती सेंती ॥ चन्कान्ते जे अमृत वरसे, तेहवो समरस विरलो फरसे ॥ ५ ॥ अगवाव्यां पण वननां धान, उपजे निपजे को नहिं मान ॥ शालिनां जतन घणां वलि कीजें, उत्तम लोकां आदर दीजें ॥ ६ ॥ सम रस शालि सरीखो जागो, बीजा रस तुब मनमा आगो ॥ समरस अनुजवतां सु खदाइ, बीजा रस दुःख राचे ना॥ ७॥ उत्तम नर उत्तम कुल जायो, तिण ए नाग्यसंयोगें पायो । मूढ लोक बीजा रस सेवे, अंतरदृष्टि ते कब दं न देवे ॥ ७ ॥ साचो रस समरस रस राजा, शिवसुख अमृत यापे ताजा ॥ कविन कषाय विकार विदारे,जे सेवे तसु पार उतारे ॥ ए॥ वन ताडीना मूकी तमासा, पुजल परणन परणी वासा ॥ जूठी रामत जूता पासा, होय रह्या काय परना दासा ॥१०॥ अत्तरवास सुवासमां ली गा, ते नर जगमां जाण प्रवीणा ॥ मनगज समता अंकुश दीजें, अध्या तम अमृत रस पीजें ॥ ११ ॥ विवेक वीरनो वास वसीजें,समता रसनो स्वाद लहीजें ॥ बीजा रस कूचा जाणीजें, नरनव केरो लाहो लीजें ॥ १२ ॥ शान्ति शिरोमणि नवरसमांहि, गावो तसु गुण मन नहाहि ॥ ए सेवंतां शिवसुख आवे, मोह महिपतिनो नय जावे ॥ १३ ॥ काम अ न बीजा रस बाले, समता रस साहामो न निहाले । वीर विवेक परस्प र प्यारो, मोह रायने ए रस खारो ॥ १४ ॥ अध्यातम शैलीनो साचो,रा जनीतिमां नहिं जे काचो ॥ कोविद कविता गुणनो धारी, ते इण ग्रंथत णो अधिकारी ॥ १५ ॥ पहेली ढालें शान्तरस गायो, उदासीन में मंदिर पायो । नूर नविक जन मनमा नायो, धर्ममंदिर कहे सुख सवायो ॥१६॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास.
॥ दोहो॥ ॥ श्राचारिज कहे सांजलो, शान्तिरसक जे होय ॥ तेहतणां लक्षण कहुँ, परखेजो सदु कोय ॥ १ ॥
॥ ढाल बीजी॥ ॥ आनंद समकित नञ्चरे रे लाल ॥ ए देशी॥ शान्ति सदा रस सेवियें रे लाल, कीजें एहरां प्रीत सुखकारी रे ॥ ब्रह्म मुहूर्त प्रातनो रे लाल, तिहां कीजें एह रीत सुखकारी रे॥शांति सदा रस सेवियें रे लाल ॥१॥ आलस निशबे तजे रे लाल,आत्मचिन्तक होय सु०॥ स्थिर मन तन वचने करी रे लाल,ज्ञान नयनशुं जोय सु० ॥शां॥२॥ कामीने वादी दुवे रे लाल, दं
जी लोनीलोल सु०॥ बहिर्मुखी कुमती सदा रे लाल,गीत गायन रंग रोल सुशां०॥३॥ मुंजाणो इन्श्यि विषे रे लाल,मानी क्रोधनो गेह सु०॥ विश्वा सघाती वक्रता रे लाल, तुरत दिखावे बेह सु० ॥ शां० ॥४॥ एवा दोष जिहां नहि रे लाल, तेहिज पुरुष प्रधान सु० ॥ रोष धरे नहिं दूहव्या रे साल, मान दीयां नहि मान सु०॥ शां० ॥ ५ ॥ हुं कुण क्यांथी यावि यो रे लाल, कुण डे माहरु रूप सु०॥ मित्र शत्रु कुण माहरा रे लाल, मोह माया ए कूप सु० ॥ शां०॥६॥ संबल साथें झुं हशे रे लाल, का ज्योतिमां जाय सु० ॥ वैराग्यें मन वालियुं रे लाल, इम आतमगुं धाय सु० ॥ शां० ॥ ७॥ इव्य नयातम पातमा रेलाल, एक निश्चे नहिं नेद सु० ॥ व्यवहारे बदुनेद ले रेलाल,
तिमाहे नव खेद सु०॥शां० ॥७॥ अंतरंग बहिरंगना रे लाल, धर्म पटंतर जोय सु ॥ परमाणु मेरु शैलनो रे लाल, एवडो अंतर होय सु॥ शां० ॥ ए॥ काने पाप सुणे नहिं रे लाल, परदोष देखे न कोय सु० ॥ पंमित पण मौनता नजे रे लाल, स म रस साधे सोय सु० ॥ शां०॥१०॥ साध्य दशा साधक नजे रे लाल, अन्यासे नर जेह सु०॥इन्डियनी वृत्ति वश दुवे रे लाल,देखे स्वरूपने तेह सु० ॥ शां०॥ ११॥ बहिरातमता मूकीने रे लाल, अंतर बातम लीन सु०॥ रूपातीत ध्यान धावता रे लाल, मूक प्रथम ध्यान तीन सु० ॥ शां० ॥ १२॥ ते परमातमता नजे रे लाल, सम रस साधक जेह सु०॥ दोष सकल दूरें दूवे रे लाल, थावे ज्ञान अह सु० ॥ शां० ॥१३॥ बि हुँ ने सदु जीव रे लाल, नव्य बनव्य प्रकार सु० ॥ नव्य ते सिम
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. होशे सही रे लाल, अनव्य फिरे संसार सु० ॥ शां० ॥ १४ ॥ सिम ते तीन प्रकार रे लाल, दूर आसन ने मम सु० ॥ पुजल अर्दै सीमशे रे लाल, अंतरे कहियें सिम सु० ॥ शां० ॥१५॥ अंतर मुहूर्त सीजशे रे ला ल, ते आसन कहाय सु० ॥ ए बेहु विच जे दुवे रे लाल, मध्यम सिम सुहाय सु० ॥ शां० ॥ १६ ॥ इहां मध्यम सिफ्नो कहुं रेलाल, आतमनो अधिकार सु०॥ मोह विवेक हंस चेतना रे लाल, वलि एनो परिवार सु० ॥ शां० ॥ १७ ॥ नविक जणी प्रतिबोधवा रे लाल, कल्पना कीधी एम सु०॥ यांन बोल्या पन्नव जणी रे लाल, ए पण दृष्टांत तेम सु० ॥ शां० ॥१७॥ परमारथ साधन जणी रेलाल,कीजें एह उपाय सु० ॥ जन्म ज रा फुःख मेटीय रे लाल, ज्ञान लब्धि सिम थाय सु० ॥शां०॥ १५॥श्रा तमनो अनुनव दुवे रे लाल,पाप तिमिर कुःख दूर सु०॥ धर्ममंदिर ज्ञान सेवतां रे लाल, सासतां सुख नरपूर सु० ॥ शां॥२०॥ सर्व गाथा ॥५३॥
॥दोहा॥ ॥ निश्चय नय निजगुण करी,सदा विराजे एह ॥ बातम अविकारी अ चल, व्यवहारियें धरि देह ॥१॥ माया नारी वश कियो, चेतन राजा जे म ॥ मोह विवेक विरतंत सब, नवि जन सुणजो तेम ॥ २ ॥ १६ वचन अनुसारथी, ए अधिकार करे ॥ बालक अटवी कतरे, गुरुजन हाथ धरे ॥३॥ पद्मनान नगवंतनो, शिष्य नावि अणगार ॥ धर्मरुचि नामें नलो, कहेशे सकलविचार ॥४॥
॥ढाल त्रीजी॥ ॥झर अांबा थांबली रे ॥ ए देशी ॥ जंबुदीप ए जाणियें रे, गोलत णी परें होय ॥ मध्य मेरु नानि समो रे, दीसते अरका जोय ॥ नविकज न,सुणजो ए अधिकार ॥१॥ ज्युं लाने अनुनव सार,ज्युं पामे नवनो पार ॥नासु। एमांकणी ॥ मेरुथी दक्षिण दिश नलो रे,नरत देत्र कहेवाय ॥ रत्न लान लोजें करी रे, समुइ निकट रहेवाय ॥ न ॥ सु० ॥॥ एथ वसर्पिणीमां दुवा रे, तीन आरा बदु मान ॥ चोथा थारा बेहडे रे, दुवा श्रीवईमान ॥ न० ॥ सु० ॥ ३ ॥ सात हाथ सुप्रमाण ले रे, सोवन वर ण शरीर ॥ सिंह लंबन शोने नलो रे, जिनवर श्री महावीर ॥ ज०॥सु० ॥४॥ तस पद पंकज नमर ज्युं रे, सेवे श्रेणिक राय ॥ गिरुन श्रावक गु
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
Ա
णें नो रे, मगधेसर कहेवाय ॥ ज० ॥ सु०||५|| राजगृही नगरीतला रे, सघला सुखिया लोक || सौम्यदृष्टि स्वामीतली रे, वाधे सघला थोक ॥ ॥ ० ॥ ० ॥ ६ ॥ यरिनो जाव रथ चक्रमें रे, लाने तेहने राज ॥ ते मप्रताप वाधे घारे, सारे सदुनां काज ॥ ज० ॥ सु० ॥ ७ ॥ धर्म थे काम तीन ए रे, साचवे समय सावधान ॥ देव परीक्षा पहोंचियो रे, दीपायो धर्मवान ॥ ज० ॥ सु० ॥ ८ ॥ मीनग्राही ऋषि देखीने रे, चू को नहि सद्भाव ॥ समकित साचो राखियो रे, जवजलतारण नाव ॥ ॥ ज० ॥ ० ॥ ॥ दार कुमार जाइ पुत्रनो रे, वात संबंध विचार || अ वर यागमयी जाणजो रे, इहां न कह्यो विस्तार ॥ ज० ॥ सु० ॥ १० ॥
रिहंत क्ति यादें करी रे, वीश स्थानकमां केवी ॥ तीर्थकर गोत्र बांधि युं रे, शुद्ध खातम सुविसेवी ॥ ज० ॥ सु० ॥ ११ ॥ समकितधारी जे दुवे रे, पतित धारा पाय || वैमानिक वरजी करी रे, अवरतें नवि जाय ॥ ० ॥ ० ॥ १२ ॥ श्रेणिक समकित जानथी रे, पेहलुं बां ध् याय ॥ ए कारण जाणो इहां रे, पहेली नरकें जाय ॥ ज० ॥ सु० ॥ १३ ॥ रुंधीजें दरियावने रे, अर्जुन बाल रोकाय ॥ रुंधीजें वलि वीजली रे, कर्म उदय न रहाय ॥ ० ॥ सु० ॥ १४ ॥ स्वरूतभावना जावतो रे, निर्जर तो निज कर्म । यति वेदना होगें नहिं रे स्थिर रहेशे निज धर्म ॥ ज० ॥ सु० ॥ १५ ॥ सहस्र चोराशी वर्षनो रे, पाली प्रायु निदान ॥ गज जिम गरता लंघशे रे, वारु वधशे वान ॥ ज० ॥ सुं० ॥ १६ ॥ मति श्रुत प्रवधि ज्ञानें करी रे, शोजतो होशे तेह ॥ श्रवतरशे ए नरतमां रे, पावकमां मेह ॥ ० ॥ सु० ॥ १७ ॥ सर्वगाथा ॥ ७४ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ पूढे शिष्य किले समे, कुण नामें जिनराय ॥ कोण ठामे कोण पुर वसे, हवे गुरु कहे पसाय ॥ १ ॥
॥ ढाल चोथी ॥
॥ नल राजारे देश, होजी पिंगलदूती पलालिया ॥ ए देश ॥ ए अव सर्पिणी एम, होजी सघली उतरी जिए समे ॥ बीजी उत्सर्पिणी तेम, दोजी वधतो समे दुःखने समे ॥ १ ॥ पेहलो थारो यति दुष्ट, होजी उतस्यो बीजो लागसी ॥ ए कांइक बेशुद्ध होजी मेघ घणा त्यां वरससी
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
M
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥ ॥ जसम समी नूमि तेह, होजी ताता निवाहतणी पेरें । समय स्व जावे मेद, होजी तिहां किणे गुन श्म अनुसरे ॥ ३ ॥ पुष्करावर्त बंदु मे ह, होजी वरसशे शुन धारा करी ॥ त्यार पड़ी दीर जेम, होजी वरसशे घृ त धारा धरी ॥ ४ ॥ मीठी धरती थाय, होजी चीकणी बदु रस सारणी॥ प्रीतमनो संग पाय, होजी ज्युं नारी सुख धारिणी ॥ ५ ॥ वसुधा वाध्यो वान, होजी वृद अंकुर प्रगट थया ॥ हर्षित दूइ जीहान, होजी वहा ला मल्या ज्युं दुःख गयां ॥ ६ ॥ समय स्वनावें होय, होजी नूमि सबे व सुधारिका ॥प्रगट्या पर्वत जोय, होजी रात्रि समे ज्युं तारिका ॥॥ स्थि र परनावथी एम, होजी उपचय चय होवे सदा ॥ पुजल परणित तेम, होजी जगवंत नांख्यो श्म मुदा ॥॥ बीजो आरो बदु जाय, होजी त्रीजो आरो निकटें यदा ॥ इणिपरे जरतें थाय,होजीचढत पडत रीत ए तदा॥॥
॥दोहा॥ ॥ मित्रप्रन संनूम वली, सुप्रन स्वयंप्रन तेम ॥ दत्तसूक्ष्म सुबन्धु ति म, अनुक्रमें कुलगर एम ॥ १ ॥ वैताढयगिरि निकटें होशे, शान्तिधार पुर नाम ॥ कुलगर होशे सातमो, सुमति नाम अनिराम ॥ २ ॥ सुनागी सु खियो घणुं, जोग पुरंदर काम ॥ सुमति यथार्थ सुमतिधर, वधती होशे माम ॥ ३ ॥ तसु घर ना जारजा, शील गुणे शिरदार ॥ शील सोवननी कसवटी, प्रमदा प्रेम उदार ॥ ४ ॥ पहेली नरकें पाथडो, सीमंतो इण नाम ॥ त्यांथी श्रेणिक पातमा, अवतरशे ण ठाम ॥५॥ मानसरोवर हंस ज्युं, मुक्ताफल सीपमांय ॥ जज्ञकुख अवतारा, सुरतरु सम जसु बाय ॥६॥ चौदे स्वप्नां देखशे, सुख सूती तेनार ॥ सुमति स्वमतिगुंबाखशे, उ तम स्वप्न विचार ॥ ७ ॥ तिण प्रस्तावें आवीने, इन्६ कहेशे एम ॥ तीन नुवन शिरसेहरो, पुत्र होशे बहु प्रेम ॥ ७॥ गुन लक्षण कुख ताहरी, र यण वैरागर खाण ॥ मंदिरनी तुं कंदरा, गर्ने कल्पतरु जाण ॥ए॥ सुर नर किन्नर मधुप गण, जस पद पंकज लीन ॥ प्रथम तीर्थकर होयशे, थ धिक अधिक परवीण ॥ १० ॥ एम कही इन्झ गया पडी, हर्षित तन मन होय ॥गनेतगी रहा करे, पथ नोजन ले जोय ॥११॥ तब दोहना पूरा होशे, गर्नतणे अनुसार ॥ नव मासे अधिके थये, सुत होशे सुखकार ॥१२॥
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
॥ ढाल पांचमी ॥
॥ एक दिन दासी दोडती, आइकम ने पासरे ॥ ए देश ॥ बप्पन दिशनी कुंव री मिली, साचवे निज निज कम्म रे ॥ वासन कंपे प्रविधें करी, जाणि यो जिनवर जम्म रे ॥ १ ॥ जगतगुरु जनमिया गुनदिने, सुमति घर उत्सव यारे ॥ नारकी पण सुख पामियो, गायो सुरवधू प्राय रे ॥ जगतगुरु जन मिया० ॥ २ ॥ पद्म वासा वसवा जली, पद्मनी वृष्टि बहु होय रे ॥ देवता क्ति नावे करी, समकित बीज पण बोय रे ॥ ज० ॥ ३ ॥ चोसठ सुरपति यावशे, मेरु शिखरें लेइ जाय रे ॥ जन्मोत्सव विविधें करी, पुण्य नो लान लेवाय रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ आनंद उलट नावयुं पूजा रची बहु प्रेम रे ॥ मातानी पास याणी घरे, कहे होजो कुशल ने देम रे ॥ ज० ||५|| हेमनी कोडी त्यां वरसीने, देवता स्थानक जाय रे ॥ मात ने तात मन हर खियां, निरखियो पुत्र सुहाय रे ॥ ज० ॥ ६ ॥ पद्मनी वृष्टि पुहवी तले, पग पग दुइ अभिराम रे || एहनो अर्थ मन आणीने, होयशे पद्म नान नाम रे ॥ ज० ॥ ७ ॥ मानवी दानवी देव ए, पालियें लालिये तेम रे ॥ अंगुष्ठ पान पीयूषथी, तनुतणी पुष्टता एम रे ॥ ज० ॥ ८ ॥ कथी अंक पर घी, हाथथी हाथ वली जेइ रे ॥ कोड कर होड कर खेल वे, सुरवधू नरवधू के रे ॥ ज० ॥ ए ॥ बालकरूप घरी देवता, खेलशे तेहनी साथ रे ॥ हर्ष धारे मनमां घणो, सहजशुं जो ग्रहे हाथ रे ॥ ज० ॥ १० ॥ याव वरसना हुया जिसे, प्रापथी पंमित एह रे ॥ तात इम जा लीने तेहने, राज देशे बहु नेह रे ॥ ज० ॥ ११ ॥ तरुणता संपदा साहि बी, अंतर एह त्रिदोष रे ॥ पय्यनोजन उदासीनता, जे धरे तास बहु तो परे ॥ ज० ॥ १२ ॥ उद्यम देश साधनतणो, कीयो तिरो तिल समे प्राय रे ॥ पूर्णन मानि देवता, सेनान । तमु थाय रे ॥ ज० ॥ १३ ॥ यु६ नुं काम ते सुर करे, अनुपम पुण्य पमूर रे ॥ दानव मानच देवता, सेवशे व्यावि हजूर रे ॥ ज० ॥ १४ ॥ देवसेना नाम तव थयो, भुवनमां नूरि वि ख्यात रे ॥ पुत्रसम में प्रजा पालतो, धारतो राज्यंग सात रे ॥ ज० ॥ १५॥ ॥ दोहा ॥
D
॥ इक दिन सेवक वीनवे, सुण स्वामी सस्नेह ॥ मयगल मस्तो मन हरु, शैलोपम सम देह ॥ १ ॥ चन्ड़्ती परें कजलो, चार दंत गजराज ॥
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. आज राज आव्यो बजे, रिपु गण वटिका वाज॥२॥ नवि जाणुं आयो कठा, किण प्रेयो किण हेत ॥ इन् की, तुज नेटयो, मूक्यो ए गज सेत ॥३॥ हाथी घणा तुम राजमां, ए सम को नहिं एक ॥ हस्तीशालायें या वियो, आपथी धरि सुविवेक ॥४॥ राजा याव्यो त्यां किणे, सेवकनां सुणी वयण ॥ हस्ती रयण दीठो खरो, यानंद पायो नयण ॥ ५ ॥ उ पयोगें करी निरखियो, नगवंत ज्ञान विशेष ॥ वैताढय वनवासी करी, नागे दवने देख ॥ ६ ॥ बदु गुन लक्षण देखीने, पटहस्ती राय कीध ॥ तसु बेसी फिरशे धरा, विमलवाहन नाम दीध ॥ ७ ॥ पद्मनान देवसेन वली, विमलवाहन प्रण नाम ॥ अर्थ युक्त इणि परें होशे, जोगवशे सु ख काम ॥ ॥ नोग कर्म खपवा जणी, केवल करशे राज ॥ पुण्य पाप विण जोगव्यां, न लहे धर्म जहाज ॥ ए॥
॥ढाल बही॥ ॥ रसियाना गीतनी देशी॥ ललीलली लोकांतिक सुर वीनवे,सुण स्वामी अरदास ॥ सुझानी ॥ राज धरा मूको हवे मूलथी, धर्म तीर्थ परगास ॥ सुझानी ॥ ॥१॥ तुं ज्ञानी तुं ध्यानी ध्यायें, त्यागी सागी रे होय ॥ सुझानी ॥ संगी रंगी तुं कबही नहिं, शिवरूपी शिव जोय ॥ सुझानी ॥ल ॥२॥ तुं दानी तुं मानी दीपतो, वाणी सुणी हवे तेह ॥ सुज्ञानी ॥ दान धर्म दीपायो देश्ने, सोवन धारा रे मेह ॥ सुझानी ॥ ज०॥३॥ वरसी दान ते मेह समान ने, निवृत्ति दुइ जब तास ॥ सुझानी॥ प्रगटी सुरुचि शरद मनमां नली, निर्मल जीवन राश ॥ सुझानी ॥ल० ॥ ४ ॥ पातक पंक पलाया तिण समे, हरख्यां हंसनां वृंद ॥ सुझानी॥ सरस दु यां फल सघलां बीजा, विकस्यां नवि अरविंद ॥ सुझानी ॥ ज० ॥५॥ मुगता मारग दुथा मनहरु, साधु जणी सुख थाय ॥ सुझानी ॥ संयम से वा उद्यम तव करे, पितृ परलोकें रे जाय ॥ सुज्ञानी ॥ ल० ॥ ६ ॥ त्रीश वर्ष पण होशे तिण समे, पुत्रने देशे रे राज ॥ सुझानी ॥ दीक्षा उत्सव करशे देवता, सघला मली सुरराज ॥ सुझानी ॥ ल० ॥ ७ ॥ शिबिका बेसी सुरनर सुंदरां, नव नव नाटक साज ॥ वैरागी॥ जय जय धन धन शब्द सदुजणे, साधो श्रातम काज ॥ वैरागी ॥ ॥७॥ उपवन था वी शिबिकाथी उतरी, बाजरण सकल उतार ॥ वैरागी ॥ नमो नमो श्री
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. सिम नणी कहे, सावद्य सघलां निवार ॥ वैरागी ॥ ॥ ॥ निश्चे मन अात्मा नावता, शत्रु मित्र समता रे तास ॥ वैरागी ॥ धर्म पवन शीत सबलां जालशे, गिरि ज्युं धीरमवास॥वैरागी ॥ ल॥१०॥ धन घा ती माती वृदावली,दूर करे बल फोर ॥ वैरागी ॥ नावत ध्यान कुठार करें ग्रही, एकाकी थाप जोर ॥ वैरागील ॥११॥ देवता नर तीर्थचे जे किया, सबल परिसह जेह ॥ वैरागी ॥ सहिया वहिया कर्म उदय करी,थ नुलोम प्रतिलोम तेह ॥ वैरागी॥ल॥१॥ बार वरस पद तेर उपर थ कां, लेशे केवल ज्ञान ॥ वैरागी॥ समवसरण करशे सुरपति तदा, जोयण नो तसु मान ॥ वैरागी॥॥ ॥१३॥ कनक सिंहासन यादि देशक री, प्रतिहारज प सार ॥वैरागी ॥ देशना देशे मधुर ध्वनियें करी, नवि जनने उपकार ॥ वैरागी ॥ ल॥१॥ समकित के देशविरत केश, केशले संयम नार ॥ वैरागी ॥ संघ चतुर्विध स्थापना होयशे,धर्म उदय सुखकार ॥वैरागी॥०॥१५॥ एकादश गणधरनी स्थापना, त्रिपदी देरे कीध ॥वैरागी ॥ शिष्य घणा होशे तसु सेहथें, प्रगटी बातम कमि ॥ वैरागी॥ लम्॥१६॥ नगवंत देश विदेशे विचरशे, तारण तरण जहाज ॥वैरागी॥ धर्ममंदिर कहे धन वासर तिको, वांदीजें जिनराज ॥वैरागी ॥ ल॥१७॥
॥दोहा॥ ॥ पद्मनान जिनवर तणो, साधु गुणे शिरदार ॥ काम क्रोध जीत्या जिणे, धर्मरुचि अणगार ॥ १ ॥ किण प्रस्तावें पूबशे, कहो स्वामी मुफ एह ॥ केवल होशे के नहिं, मुफ मन संदेह ॥२॥ जगवन् नांखे सुण ऋषि, सुग्राम नामें ग्राम ॥ तस उपवनमांहे तुफे, केवल पद अनिराम ॥३॥
॥ढाल सातमी॥ ॥ राग धन्याश्री॥नरत नृप नावयुं ए॥एदेशी॥ धर्मरुचि एम सांजली ए, ले जिनवर आदेश, महामुनि सेवियें ए ॥ ए टेक ॥ चाली ते तिहां जायशे ए, तसु वनने परदेश ॥ महा॥१॥ एकादशमी प्रतिमा धरी ए, ध्यान धयां जयलीन ॥ म० ॥ पक श्रेणी कामां करि ए, थावशे गुणगाणे वीण ॥ म०॥२॥ तेरमे केवल पामशे ए, लोकालोक प्रकाश ॥ म ॥ केवल महिमा सुर करे ए, श्राणी अधिक उन्नास ॥म ॥३॥ देवनां ई उनि वाजशे ए, जय जय शब्द सुहाय ॥ म० ॥ ग्रामना लोक सदु या
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वशे ए, वंदन कारण धाय ॥ म ॥ ४ ॥ गामनो चोधरी थावशे ए, म हिमा देखण काज ॥ म ॥ चमत्कार चित पामशे ए, धन्य धन्य कृषि राज ॥ म० ॥ ५॥ जाप होम कीजें घणा ए, एको न आवे देव ॥ म॥ अणतेड्या आवी करी ए, लाख झानें करे सेव ॥ म ॥ ६ ॥ देवे नहिं लेवे नहिं ए, बादर न करे कोय ॥ म० ॥ दर्शन स्वप्नं दोहिनु ए, ते सुर सेवक होय ॥ म०॥७॥प्रजुता लवला. करी ए, मानव मान करे॥ म०॥ अनुपम प्रजुता एहनी ए, समता दमता धरे ॥ म०॥७॥ रूडो रूप सोहामणो ए, यौवन लावण्य जोर ॥ म० ॥ तप जप तेज दिवाकर ए, कष्ट क्रिया पण घोर ॥ म० ॥ ए॥ एम उलसित परिणाममु ए, नाव जगति मन काम ॥ म ॥ चरण कमल वांदी करी ए, बेसी यथायोग्य ठाम ॥ म०॥ १०॥ देशना दे रह्या पनी ए, एकांत वेला पाय || म॥ ग्रामणीकर जोडी करी ए, पूबशे चित्त लगाय ॥ म० ॥ ११ ॥ तुम दर्शन थी पामिया ए, विस्मय वारंवार ॥ म०॥ तमें कोण क्याथी याविया ए, एकदि केहे प्रकार ॥म० ॥१२॥ ते विरतंत कहीजियें ए, ज्युं मन आ नंद थाय ॥ म०॥ वचन सुधारस पीजियें ए, नवनी प्यास बुजाय ॥म० ॥ १३ ॥ देवानुप्रिय सनिलो ए, महोटुं चरित्र २ एह ॥म॥ स्थिर मन करि गुन जावयुं ए, धर्म उपर धरि नेह ॥ म० ॥१४॥ प्रथम खंम पूरो थयो ए, साते ढालें सार ॥म०॥ दयाकुशल पाठकवरु ए, तमु सान्निध्य सुखकार ॥ म० ॥ १५ ॥ धर्ममंदिर गणीयें कह्यो ए, पद्मनान अधिकार ॥ म० ॥ सुणतां जणतां शिवकरु ए, श्रीसंघने जयकार ॥ म० ॥ १६ ॥
इतिश्री प्रबोधचिन्तामणौ ढालनाषाप्रबन्धे पद्मनानजिनचरित्र धर्मरुचि मुनिमोक्षाधिकार नामा प्रथमखमः संपूर्णः ॥२॥ ॥ अथ दितीयखंग प्रारंनः॥
॥दोहा॥ ॥ हवे बीजे खंम बोला, बातमनो अधिकार ॥ आलस उंघ तजी क री, सुजो नवि चित्त धार ॥ १ ॥ ग्रामणी पूब्यो तेहनो, उत्तर आखें एम ॥दि सिदि जिनवर लही, धर्मरुचि कहे तेम ॥ २ ॥ स्थिर वस तां संसार पुर, नामें नगर कहाय ॥ अनंत जीव लोकें नयो, घृतघट करें
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास. न्याय ॥ ३ ॥ दूधा होशे जे बजे, ग्राम नगर नग राशि ॥ ए सदु ते पु रने बजे, एके खूणे वास ॥४॥ स्वर्ग मृत्यु पाताल ए, पाटक तीन प्रका र ॥ उत्तम मध्यम जघन्य जीव, वसवानो व्यवहार ॥ ५॥ कमी कीटक आदें करी, ६ अनं सदु जीव ॥ आप आपणा नाममां, मन रहे निशि दीव ॥ ६॥ क्युं कामण ण पुर कियां, वास न बोज्यो जाय ॥ कुःख दू पण देखे घणां, तोही यावे दाय ॥ ७॥ अवर नयर प्रायें दुवे, वासक दे नदवास ॥ अधिकायी ए नगरनी, कदी न होवे नाश ॥॥ आषाढा सम उदधि सह, क्रीडा गिरिसम मेर ॥ गति आगति नाटक तिहां, होय रह्यां बहु वेर ॥ ॥ तिण नगरें राजा अजे, हंसराज अनिराम ॥ यात्म दृष्टी उलखे, तास कहुँ गुण ग्राम ॥१०॥
॥ ढाल पहेंली॥ ॥ नायकानी देशी ॥ अथवा ॥ तसु घरणी मृगावती रे ॥ ए देशी॥ संसार नगरीनो धणी रे,अनुपम रूप निधान रे सोनागी ॥ गुण तेहना को ण दाखवे रे लाल, जो करे सहस विधान रे सोनागी ॥ हंस राजा गुण सांजलो रे लाल, पावन करो निज कान रे सो ॥ हं० ॥१॥ प्रत्यक्ष के ई एहना रे, गुण मणिरयण प्रकाश रे सो ॥ केश अगम अपार ले रे ला ल, उज्ज्वल गुण हिमराश रे सो॥ हं० ॥॥ कोटि ज्ञानें ग्रंथें जणे रे, के तप तपे लाख रे सो० ॥ ते पण सकल स्वरूपने रे लाल, कही न शके मुख नाव रे सो० ॥ हं० ॥३॥ अंगुलि मेरु उपाडियें रे, बांहे समुह तरेय रे सो० ॥ एवा शूरा सांजव्या रे लाल, नृप गुण सदु न धरेय रे सो० ॥ हं० ॥॥ एक समयमां संचरे रे, लोकने अंतें वेग रे सो० ॥ एक समय अवर न को बजे रे लाल, जागती जेनी तेग रे सो० ॥ हं० ॥५॥ ज्ञानसागर पण ए सही रे, समकित मोती जेथ रे सो ॥ ग्रंथ अर्थ लहेरां घणी रेलाल, पवन विनावले नेथ रे सो० ॥०॥६॥ स्वाना विक गुण जेहनो रे, केवल ज्ञान विलास रे सो० ॥सूर्य ज्योति ज्युं जाग सीरे लाल, दीपावे आकाश रे सो० ॥ ॥ ७॥ वर्णाश्रमण पण नही रे, रंग विरंग न थाय रे सो० ॥ संघयण संगण ए नहिं रे लाल, अकल व रूप सुहाय रे सो ॥६० ॥ ७ ॥ आर्य अनार्य ए नहिं रे, बाल न बुछो एह रे सो० ॥ जंगम स्थावर ए नहिं रे लाल, स्थूल न नहानी देह रे
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. सो० ॥ हं० ॥ ५॥ रूपी रसियो ए नहिं रे, गंध न लेवे कोय रे सो० ॥ फरसे नहिं ए फरसने रे लाल, ज्योति स्वरूपी सोय रे सो० ॥ ॥१०॥ निर्मल स्फटिकतणी परें रे, निश्चय नय करी जोय रे सो० ॥ कर्म उपाधि मव्यां थयां रे लाल, बहुविधरूपी होय रे सो० ॥ हं॥ ११॥ परगुण ने वश आवीयो रे, निज गुणने वीसार रे सो० ॥ चर स्थिर सघले संचरे रेलाल, अशुभ योग प्रकार रे सो० ॥ हं० ॥ १२ ॥ काष्ठमां पावक पा ये रे, तिलमा तेल ज्युं होय रे सो० ॥ गौरसमां घी नालिये रे लाल, मा टीमां हेम होय रे सो० ॥ हं० ॥ १३ ॥ दीर नीर न्यायें करी रे, होय र ह्यो एक मेक रे सो ॥ देहमांहे रह्यो उलखे रे लाल, जसु हैडे सुविवेक रे सो० ॥ हं० ॥ १४ ॥ पंचनूत नेलां करे रे, नाम कर्म वश पाय रे सो०॥ सेनानी सूत्रधार ज्यु रे साल, सेना रथंग मिलाय रे सो० ॥ हं० ॥१५॥ सकल पदारथ लोकमां रे, दिखलावे जे एम रे सो० ॥ दीपक तम निशि मंदिरें रे लाल, प्रगट प्रकाशे तेम रे सो० ॥ हं० ॥ १६॥ कर्ता नोक्ता ए सही रे, गमनागमन विचार रे सो० ॥ जब लग कमै विंटियो रे लाल, तब लग ए व्यवहार रे सो० ॥ हं० ॥ १७ ॥ एह विना जग शून्य रे, चंड विना जेम रात रे सो० ॥ वदन कमल नया विना रे लाल, शोने नहिं तिल मात रे सो० ॥ ॥१७॥ आतमना गुण आखिया रे, धर्म रुचि अणगार रे सो॥ धर्ममंदिर कहे सांनलो रे लाल, हवे पटराणी विचार रे सो० ॥ हं० ॥१॥ सर्वगाथा ॥ २ ॥
॥दोहा॥ ॥ चेतना राणी रायनी, चमकी चतुरा नार ॥ प्रीतमझुं राती रहे, घ रनी जाणे सार ॥ १॥ संवित १ प्रज्ञा २ चेतना, ३ थातपज्योति । तदा र ॥ इत्यादिक जसु नाम , विविधरूप विस्तार ॥ २ ॥ मूल रूप केवल दशा, अनुपम महिमा निधान ॥ ज्यु कत्रिम तिनमें नहिं, परमास्पंद प्रधा न ॥३॥ तेह रूप बातम निकट, रहे न देखे एह ॥ ज्ञानावर्णादिक घणी, लाग रही ले खेद ॥४॥ बीजु रूप राणीतां, बुदि इस्यो विख्यात ॥ अनंत गुणें हीणो अडे, मूल रूपथी गात ॥ ५ ॥ पांचांसुं मलती रहे, श्रवण मनन परचार ॥ नूपति करणी जे करे, बुदितणे अनुसार ॥ ६ ॥ बुद्धितणां बे रूप दुवे, कुबुद्धि सुबुद्धि विशेष ॥ न्युं धरती एकरूप ने, खा
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. रीमीती देख ॥ ७ ॥ सुबुद्धि कुबुद्धि बेन घरणी, व्यवहार वर्तण काज ॥ सूर्य बबी निशि सुख अ,इणिपरें विधरे साज ॥ ७ ॥ सुबुदितणे वारे क रे, नूपति उत्तम काम ॥ कुबुदितणे वारे करे, पापतणो जे धाम ।। ए॥ सुबुदि शीख सुख दाखवे, राजा नावे दाय ॥ पथ्य अने हित शीखवे, प्रा ये मधुर न थाय ॥ १० ॥ कुबुदि नारीयुं नरपति, अहोनिश राखे रंग ॥ नदीपूर धननो धणी, ढले नीचसुं संग ॥ ११ ॥
॥ ढाल बीजी॥ ॥ बींदलीनी देशी ॥ सीता तो रूपें रूडी, जाणे यांबा मालें सूडी हो। सीता अति शोहे ॥ ए देशी ॥ तिण नगरीयें एक नारी, वसे माया कामण गारी हो माया मन मोहे । कर्म प्रकति नाम बीजो, यात्मदामनिका त्रीजो हो ॥ मा०॥ १॥ काम कुतूहल जाणे, तिण सघला घरमें थाणे हो ॥ ॥ मा० ॥ चंचल विजली जेसी, चमकंती चाले तेसी हो ॥ मा० ॥२॥ नामिनी जोग जलेरी, तिम मलपे शेरी शेरी हो ॥ मा० ॥ हाव नाव बदु जाणे, तिम नरनां मन वश आणे हो॥ मा० ॥३॥ कूड कपटनी गेह, जसु हैडानो नहिं बेह हो ॥ मा० ॥ सोले कषाय शृंगारा, सजी चालीरा ज उवारा हो ॥ मा०॥४॥ दीठो राय तिण नारी, चंचल चतुरा अति सारी हो ॥ मा० ॥ खतणे फुरकारे, राय कीधो आपणे सारे हो ॥ ॥ मा० ॥ ५॥ बिहुँ राणीj मेल, करवा वांडे नेल हो ॥ मा० ॥ सुबु विशुं मांही अंगीठी, करे मुखनी वात ते मीठी हो ॥ मा० ॥ ६॥ कुबुद्धि गुं महा प्रेम धारी, करे मांहोमांहे यारी हो ॥ मा० ॥ नव नव राग वि लासा, देखावी राय कियो दासा हो ॥ मा० ॥ ७॥ हंस राजा वश की धो, माया मनवंबित सीधो हो ॥मा० ॥ अनंत दलिक पुण्य पाप. बंधन बांध्यां बदु व्याप हो ॥ मा० ॥॥राजा मन नवि कोपे, नव नवलीप्री ति आरोपे हो ॥ मा० ॥ बांध्यो पण वडवेगी, जाये सिम शीला लग तेगी हो ॥ मा० ॥ए ॥ जरता ने जेनेरे, सद्बुझिगुं मनसा फेरे हो ॥ मा० ॥ माया कुबुदितणो एकारो, थबे सुबुद्धितणो वसे वारो हो ॥ मा ॥१०॥ मायानुं कडं माने, सद्बुधिने कीयां काने हो ॥ मा०॥ श्रुवियु घणी प्रीत, वली मायायुं घर रीत हो ॥ मा० ॥ ११ ॥ राजा बागल माया, पुर्बुदि गुण वदे सवाया हो ॥मा॥ उर्बुदि माया मलियां, अहानिश माणो
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. रंग रलियां हो ॥ मा० ॥ १२ ॥ सुबुधिने वारें वासे, पियु नावे तेहनी पासें हो ॥ मा० ॥ सुबुधिने को नहिं मान, मायानो वाध्यो वान हो । ॥ मा० ॥१३॥ सुबुदिरागी इम ध्यावे, हवे प्रीतम हाथ न आवे हो ॥ मा० ॥ साची वात ए जो, लोक परघरनंजा होइ हो ॥ मा० ॥१४॥ बेहेनड शोक्य ए मेरी, मायायें ते पण फेरी हो ॥ मा० ॥ घरनो नेद ए जारी, तिण कां न फेरे सारी हो ॥ मा० ॥ १५ ॥बे नारी बे पासी, गथी ढुंजा नासी हो ॥ मा०॥ कामण करी पियु बांध्यो, तनु बगड्यो अन्न ज्युं रांध्यो हो ॥ मा० ॥ १६ ॥ नारी चरित्र ने नारी, मो विण कु ए जाणणहारी हो ॥ मा० ॥ नृपने सकल बतावं, जो अवसर सखलं पा q हो ॥ मा० ॥ १७ ॥ अवसर औषध लीजें, नवले तप क्युंही न दीजें हो ॥ मा० ॥ अवसर नदियां तरियें, नव पूर न नरवा करियें हो ॥ मा० ॥ १७ ॥ अवसर वेढ निवारे, बुध तेहिज वेला विचारे हो ॥मा० ॥ सुबु ६ इस्युं मन आणी, कोइने न कही हित वाणी हो ॥ मा० ॥१॥
॥दोहा॥ ॥ मायाथी सुख सेवतां, पुत्र थयो परधान ॥ मोह नाम जग परगडो, वाध्यो संघले वान ॥ ॥ मोहथकी माया हवे, मायाथी मोह जाण ॥ अगुफ निश्चय नय जोवतां, कर्मतणी ए खाण ॥ २ ॥ बीजथकी सहकार बे, सहकारें बीज जोय ॥ पर्वथकी इदु नीपजे, इदुथकी पर्व होय ॥३॥ बगलांथी मां दुवे, मांथी बग देख ॥ ए अनादि संबंध ने, व्यवहारें बढ़ नेख ॥ ४ ॥ उर्बुदिने वलन घj, खेलावे धरि कोड ॥ मोह कुंवर मनोह र थयो, बीजो नावे जोड ॥ ५ ॥ माया पुर्बुदि एणी परें, मोह वधारे दो य ॥ नवि जाणे को पुत्र ए, बीढुंमें कहेनो होय ॥ ६ ॥ सहजे मेलो मोह ए, जनकजणी करें शेह ॥ हेतविना सदु लोकगुं, वैर वधारे मोह ॥७॥ पामातुर नरने सदा, मीठी खाज सुहाय ॥ पण ते सुःखदायक घj, मो ह इसी पेरें थाय ॥ ७ ॥ र्बुदि माया मोह मली, केद कियो हंसराय ॥ तेह दशा हवे वर्णवे, सद् सुजो मन लाय॥ ए॥
॥ ढाल त्रीजी॥ ॥ चरणाली चामुंम रण चढे ॥ए देशी॥ नायक लायक ने घj, पडियो परवश जायो रे ॥ जुआरी पर दारियो, रुक्षितणो व्यवसायो रे ॥ नायक
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
10
श्रीमोदविवेकनो रास. ॥१॥ दिन उगे ज्युं चन्मा, हिम पड्यां ज्युं वृदो रे ॥ कान्तिकला ज्यु हीन ए, दूतो अति हि ददो रे ॥ नायक ॥ २ ॥ निर्माण नारी मटयां, एक फजेती जोयो रे ॥ रंक नयो रजवट गयो, घेहलानी परें होयो रे ॥ ॥नायक ॥३॥ मूढ जयो मद बालसु, मूक जयो वली अंधो रे॥ बो बडो बोखो लघु जयो, मायाने प्रतिबंधो रे ॥ नायक ॥ ४ ॥ मोह मा हा मद प्रेरियो, सूक्ष्म निगोड़ जायो रे ॥ वली बादर निगोदमां, अनंत काल रहिवायो रे ॥ नायक ॥ ५॥ पृथ्वी पाणीमां ते उपजे, वाय वन स्पति तेमो रे ॥ सूक्ष्म बादर बेजम्यो, असंख्याता नव एमो रे नाय॥ क०॥ ६ ॥ कमी कीटक कुंथु नयो, कीटिका भ्रमर पतंगो रे ॥ विकलेनिश यमां बन जम्यो, माया मानिनी संगो रे ॥ नायक ॥ ७॥ नरपरि नुज परि खेचरा, जलचर जीव विशेखो रे ॥ पंचेन्ड्यि तिर्यचना, नवनो के हो लेखो रे ॥ नायक ॥ ७ ॥ साथ दुइ माया नारी, साते नरक देखा य रे॥ वायुवशे ज्यु पानडु, जल थल सघले जाय रे ॥ नायक०॥ए॥ हंस विचारे एकदा, किमही माया जायो रे ॥ जागी बांहतणी परें, लाग रही गल धायो रे ॥ नायक ॥ १० ॥ अनंत काल नव पंथ डे, पंथी सम नृप जायो रे ॥ फरतां थाको एकदा, नरवपु पुरमांबायो रे॥ नायक ॥११॥
॥दोहा॥ ॥ पुर पेसंतां श्क मल्यो, मनरूप बालक कोय ॥ आलिंगन आवी दी यो, शकुन नखं ए होय ॥१॥ अति सूक्ष्म तनु जेहनु, सुंदर चंचलरूप ॥ बालस नहिं उद्यमधरु, म चिन्ते मन नूप ॥२॥ पांचे शान्झ्यिनी क्रिया, मालम करशे मोही ॥ परपंची परधान ए, होशे राजनी सोही ॥३॥ श्म जाणी आदर दियो, माथे फेरी हाथ ॥ मधुर वचन बतलाइने, तुर त लियो ते साथ ॥ ४ ॥ औदारिक पुदंगल ग्रही, तनु पुर वास वसाय ॥प्राण उदान अपान वली, इत्यादिक पंच नाय ॥ ५॥ व्यापारी महोटा जिहां, पांचे इन्श्यि सार ॥ पाणी तेह वसाश्या, नगर दु शिरदार ॥६॥ इंमा पिंगला नारी तिहां, राय मार्ग सुखदाय ॥ नव हारें करी शोनतो, नुजधर्गल कहेवाय ॥ ७॥ सातुं धात कपाट वली, निपजाया बहु मान ॥ जब मन परजापति थयो, तब कीनो परधान ॥॥माया महिला रायनो, क्षण इक न तजे साथ ॥ण कारण अधिकार सब, मान प्रधानने हाथ ॥ ए॥
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ ढाल चोथी ॥ ॥ धरा ढोला एना गीतनी देशी ॥ण अवसर हवे एकदा रे, रूठी माया नारी॥मनना मान्या॥ प्रीतमझुं कलहो करे रे, मानवती निर्धार ॥ मनना मान्या ॥ कयुं कीजें हो सुजाण कयुं कीजें, नीच मायागुं मोहिनी उतार ॥ मनना मान्या ॥ १ ॥ ए आंकणी॥ सुबुदि कहे कर जोडिने रे, सांजल तुं जरतार ॥ म ॥ एह दशा तुमची नहीं रें, आपो आप विचार ॥ म० ॥ कयुं ॥२॥ पंमित तुं जग परगडो रे, नीचर्यु संग निवार ॥ म० ॥ हुँ नारी तुमने कहुँ रे, तेह नहिं व्यवहार ॥ म० ॥ ॥ कयुं ॥३॥ व्यसन वगोवे वाहला रे, उत्तमने पण एह ॥ म ॥ मुख मीठा धीठा जिके रे, अंत दिखावे ह ॥म० ॥ क० ॥ ४ ॥ नोला तो नूले सदा रे, एह अनादिनी रीत ॥म ॥ पंमितही जो पांतरे रे, क्युं रहेशे गुन नीत ॥म ॥ कह्यं ॥ ५॥ तुं उत्तम शिरसेहरो रे, नेहडो पर्यु निवार ॥ म० ॥ नीच कीचमां इहां रहे रे, निज पदने सं नार ॥ म० ॥ कयुं ॥ ६ ॥ घरणी परणीजे तजे रे, दत ऊपर ए खार ॥म० ॥ प्रीतम पल्लव जालीने रे, वीन, वारंवार ॥ म० ॥ कयुं ॥ ७॥ चातुर पण आतुर सदा रे, कर्म उदय वश होय ॥ म०॥ पण कबही पा बी लिये रे, आप विचारी जोय ॥ म० ॥ कयुं० ॥७॥ तें शिर चाढी एहने रे, घरधणियाणी कीध॥ म०॥ चारवाकमती हशे रे, घरनो नेद ण दीध ॥ म० ॥ कयुं०॥ ॥ पोषी पण षी न रे, शोषी नहि एलगार ॥म ॥ दूध तुजंगी पायें रे, वाध्यो विषनो नार ॥म ॥कह्यु॥१०॥ मधुबिन्छ सम सुख देइने रे, दे कुःख मेरुसमान ॥मा हत करे शत नावें चढी रे, वाध्यु अति अनिमान ॥ म० ॥ कह्यु०॥ ११॥ विषवेली व्याली कीg रे, काजी पावक जाल म॥ ए पातकथी नविटले रे, पाप सरो वर पाल ॥ म० ॥ कयुं ॥ १२॥ पापीथी पावक कीधो रे, अमृतथी विष थाय ॥म० ॥ अंगारा वरसे चन्थी रे, रविथी तम प्रगटाय ॥ म० ॥ कयुं०॥१३॥ धूल उडे सागरथकी रे, पथ्यथकी थाय रोग ॥म ॥ वर स्वरूपी तो नए रे, एह कर्मनो योग ॥म ॥ कयुं॥१४॥ पाप क्रिया जे ए करे रे, तसु नोक्ता तुं थाय ॥ म० ॥ रागवशे जाणे नहिं रे, ए कामण कहेवाय ॥ म ॥ कयु०॥१५॥ एहनो शील शत एहवो रे,ज्यु
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७
श्रीमोदविवेकनो रास. कायरनी बांह ॥म॥ कमल नाल पुण ने धरो रे, वली वादलनी बांह ॥ म०॥ कयुं ॥ १६ ॥ वेलुघर रायनुज जिमे रे, खल वाणी वारि तेह ॥ म० ॥ मुख मीठी ए दती खरी रे, निपट नहिं जसु नेह ॥ म० ॥ कह्यु ॥ १७ ॥ तीन नुवनत्रायक हतुं रे, बल तहालं ते केथ ॥ म ॥ प्रता ते ताहरी किहां रे, रंक थयो रह्यो एथ ॥ म० ॥ कयुं० ॥ १७ ॥प्रायः स्त्री जगमां अजे रे, रांठें विण पगपाश ॥ म॥ रात विना अंधकार ए रे, पुरुष जणी करे दास ॥म ॥ कयुं ॥ १ ॥ पाणी विना ए पुरुष के रे, धूल विना रज लेप ॥ म० ॥ मदिरा विण मदमत्तता रे, क्युं रज नीरें दे प ॥म० ॥ कयुंग ॥ २० ॥ सुबुदि शीख इणि परें कही रे, प्रीतमने पर धान ॥ म० ॥ धर्ममंदिर गणि म कहे रे, अजहुँ माया मान ॥म० ॥
॥ दोहा ॥ ॥ वलि राणी इम वीनवे, सुण आतम माहाराय ॥ ढुं पण एहथकी मरूं, ना तुमचे पाय ॥१॥ माया पुत्र कुपुत्र जे, मोह इस्यो जस मान ॥ तुम शेही किण गुण करी, जीवन प्राण समान ॥ २ ॥ माया बदि कामिनी, बेहू एकज साथ ॥ बेद तजवा योग्य , सुण साहिव मुकना थ ॥ ३ ॥ निर्माल्य फूलतणी परें, अब जो बोडे एह ॥ रादुमुक्त ज्युं चं मा, सघली शोन धरेह ॥४॥ हितवत्सल प्रिया कह्यो, सघली वात विचार ॥ राजा सुणि बोल्यो नहिं, चिंतवे सुबुद्धि विचार ॥ ५ ॥ प्रायः पुरु ष कठोर दृढ, मन वच कायामांहिं॥ नमती खमती प्रेमें करी, क्युंही रीके नांहि ॥ ६ ॥ नारी सारीनी परें, तुरत फरे लही दाव ॥ कोमल कमलत गी परें, मृउ मन मुग्ध स्वनाव ॥ ७ ॥ नदीयां मीठां जल ग्रही, सिंधु स मी जाय ॥ खारो जीवन खार मुख, करि तस सहामो थाय ॥ ७॥ प्री तरीत धर्म नीतिने, मके सगुगोस्वाम ॥ तो जावीन मटे सही, सहजें होसे काम ॥ ए ॥ सुबुदि इस्युं मन चिंतवी, जाय रही निज ठाम ॥ सं कलेश स्थानक तजे, संत सदा सुखधाम ॥१०॥
॥ ढाल पांचमी॥ ॥चूनडीनी देशी॥अथवा ॥ कनकमाला इम चिंतवे, प्रेखी प्रद्युम्न स्व रूप रे, मन मोयुं अमारुनंदना ॥ ए देशी ॥ण अंतर मायामानिनी, मन मान तजीने आइ रे ॥ सूर्य यूति अलगी गयां, जेम यामिनी आवे धाई रे
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥१॥ मन मोह्यो माया कामिनी, नीको मटको एह रे ॥ ठमके चमके पगला जरे, चपला चमके देह रे ॥ म० ॥ २॥ शोक्य तणी शंकां नहिं, रंग राती मातीलाल रे॥खीर नीर ज्युं मिल गइ, फूलवासना एक निहाल रे ॥म ॥ ३ ॥ हालचाल मायातणो, राजानो को नहिं चार रे ॥ मन मंत्री पण हवे चिंतवे, काम करवू ए अनुसार रे ॥म०॥४॥ माया राणीगुं करे, नीत मुजरो मन परधान रे ॥ अवसरने ते उलखे, जे होवे बुदिनिधान रे ॥ म०॥ ५॥ काम काज मायात', मन मंत्री समारे सार रे॥ खिजमत बोडी रायनी, माया सेवे करीक तार रे ॥ म०॥ ६ ॥ माया पण जाणे खरो, ए सेवक में सिरदार रे ॥ कृपण नाव वजीरा, नविकीजें ए व्यवहार रे॥ म ॥७॥ माया मान्यो मंत्रवी, अति वाध्यो साध्यो राज रे ॥ जोध जुवान दु जिसे, करे परणवानो साज रे ॥म॥ ॥ ॥ व्याकरणी कहे पंम ए, ते शब्दतणे अनुसार रे ॥ पण परमा रथ जोवतां, पुरुषोतम दीन उदार रे ॥ म० ॥ ए ॥ हवे उर्बुदिने ने पुत्रि का, नामें प्रवृत्ति प्रसिद रे ॥ मायाने कहे मंत्री, त्रण पुत्री लेश दीध रे म॥ १० ॥ सगपण नवि दूर हवे, प्रवृत्ति मोह बहु प्रीति रे ॥ कुटुंब स दु नेलुं रहे, करे रंग रली निज रीत रे ॥म॥११॥ सुबुद्धि सुणी ए वार ता, मनमांहे कियो योग रे ॥ जश नरणी ने योगिणी, त्रण मली हूउ कु योग रे॥म० ॥१२॥जाग्यवशे पति घरे, नेली थत्रण नार रे ॥प्र वृत्ति कुबुदि माया वधू, ते राजाने शिर नार रे ॥म०॥ १३ ॥ राजा तो जाणे नहिं, वश पडियो वानर जेम रे ॥मायाकामिनी नाचवे, नृप राचे नाचे तेम रे ॥म०॥१४॥ परणावीने वश कियो,मन मंत्री जे परधान रे ॥ण उमा पग आरोपिया, मायानो वाध्यो वान रे ॥म०॥१५॥१३॥
॥दोहा॥ ॥ सुबुदि राणी मन चिंतवे, कीजें कोई उपाय ॥ घरनां सूत रहे जि णे, ए मुफ आवे दाय ॥ १ ॥ आलोचीजें केहगुं, केहगुं कीजें वात ॥ घरमांहे ए साथा, न जिले मारी धात ॥ २॥ पापो आप विचारियु, बेसीने एकांत ॥ राजा सम आज मंत्री ने, जिम तिम ए हिततंत्र ॥३॥ तो हवे ढुं पण एहने, निज पुत्री परणाव ॥ सगपण साधुं एहा, दीसे डे ए दाव ॥ ४ ॥ पुत्री ने गुज लक्षणी, रत्नकूरखी कहेवाय ॥ जो कोश क
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
२॥
श्रीमोदविवेकनो रास. ण पेदास हूय, तिपथी ए फुःख जाय ॥५॥ नानाने पण सुख करे,बेसाडे निज राज ॥ माया मोह कुबुदिने, काढि समारे काज ॥६॥ श्म आलोची मंत्रीने, बोलावी कहे एम ॥ स्वामी धर्मधर तुं सही,धरजे ढुकढुं तेम॥७॥
॥ ढाल बही॥ ॥ मेरी बहेनी कहे कोई अचरिज वात ॥ ए देशी ॥ मुफ हर्ष दून ने ए सही, सुण मंत्री कहूँ तेह ॥ पुत्री निवृत्ति के माहरी, परणीजें सस्नेह ॥ मंत्री मानजे ए माहरो उपदेश, अनुपम सुख लहेश, हर्षित होशे नरेश ॥मंत्री०॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ रत्नकूखी मुफ पुत्रिका, निवृत्ति एहवे नाम ॥ परणावं डं तोजणी, होशे वंडित काम ॥॥२॥ मंत्री मनमांहि चिंत वे, तेलियें केम करी लाल ॥ आदर दे घर श्राणियें, नवि कीजें पूल गाउ ॥ मं० ॥ ३ ॥ म जाणीने मन मंत्रवी, परणियो निवृत्ति नन्नास ॥ बिदु जामिनी सुखयुं रमे, नव नव रंग विलास ॥मं०॥४॥ इम जाणीने मन मंत्रवी, पडवो वारो वास ॥ इक शंखिणी इक पद्मिनी, मुर्गध इक फुलवास ॥ मं० ॥ ५॥ जूजू प्रकृति मिले नहिं, पश्चिम प्राची जोय ॥ अस्त उदय संगतिथका, सूर्य सम पियु होय ॥ मं० ॥ ६ ॥ वारो दुवे जब प्रवृत्तिनो, तब करे पाप अघोर ॥ निवृत्तिने वारे थये, पाप खरे अति जोर ॥ मं० ॥ ॥ ७ ॥ उर्बुढि माया बे मली, गुण वर्णवे मुख एम ॥ तुं वडनागी मंत्रवी, बे स्त्री परण्यो प्रेम ॥ मं० ॥॥ वनना होवे उर्लना, गुण करी आप समा न ॥ सरिखा सरिखो जो मले, तो करे सद् गुणग्राम ॥ मं० ॥ ए ॥ तम गुण सरखी प्रवृत्ति , अति चपल चतुरा नार ॥ सकल क्रियामां पंमिता, कामकद सिरदार ॥मं०॥ १० ॥ ए सुबुदिनी जे बोकरी, आलसुनाका र ॥ कर्महीण दीसे अने,क्रियागुण न लगार ॥॥११॥ तुज गुणथकी विपरीत , तो किस्युं आदर मान ॥ अजगर ज्युं बंधी रहे, न करे लौकि क काण ॥मं०॥१२॥ शांत दांत सरिखी दीसती, क्युं नहिं लाव ने साव॥ कामकद माणस नहिं, तेहगुं केहो नाव ॥मं०॥ १३ ॥ राज बीज वली मोह , माया तणो अंगजात ॥ एशुं प्रीत घणी करो, होशे जगतमें ख्या त ॥मं०॥ १४॥ को पर्व अवसर जाणीने, निवृत्तिने बोलाय ॥ क्षण एक तेहगुं सुख लहो, तुरत करो विदाय ॥७॥१५॥ बेउ नारीएम.मंत्रवी, सुख जोगवे संसार॥धर्ममंदिर कहे ते सुणो,विवेकतणो विस्तार ॥०॥१६॥
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
॥ दोहा ॥ ॥शीप स्वाति जल कण लही, मोती धारे जेम ॥ निवृत्ति नारी जन मियो, गुन लक्षण सुत एम ॥ १ ॥ नानी सुबुदिनणी दूत, मनमां हर्ष अपार ॥ नाम विवेक दीयो जलो,सब जनमां सुखकार ॥२॥ विमल कमल कोमल तनु, नीलवट टीको नूर ॥मोह इस्यो तम जीपवा, अभिनव कग्यो सूर ॥३॥ राजा रलियायत थयो, रंग ढंग तसु देव ॥ संग जलो एनो सही, रत्न विवेक विशेष ॥॥ परम प्रतीत पवित्र तनु, अनुपम कुंवर विवेक ॥ परम क्षिप्रापतिकरु, ए सम अवर न एक ॥ ५॥ खेलावे खंतें करी, राजा अवसर पाय ॥ सुबुदि मने सुख ऊपजे, आनंद अंग न माय ॥ ६॥ माया जुर्बुदि प्रवृत्तिने, मनमां थयो विषाद ॥ निवृत्तिने बेटो दूर, वधशे वाद विवाद ॥ ७॥ विष वैरी पावक क्षणो, अल्पेशं नित हाल ॥ बांधी में कांश हवे, पाणी पहेली पाल ॥ ७ ॥ रखे राजा मंत्री नणी, मलशे वारं वार ॥ तो बाजी हाथाथकी, जाशे पहेले पार ॥॥ मोह विवेक बेहू रमे, देखे राजा हंस ॥ बेदु प्रवृत्ति मले नहिं, ज्युं वायस ने हंस ॥ १० ॥
॥ ढाल सातमी ॥ ॥ केश्क वर लाधो ॥ ए देशी ॥ माया बुंदि वे मली, मन चिंते एह विचार रे॥ वश करजे वारु ॥प्रवृत्ति नणी इणिपरें कहे, शीख सांजल पुत्री सार रे ॥व॥१॥ तुं चतुरा चपला घj,नवि जाणे उमा नेद रे॥व०॥ शांत दांत तुज शोक्य डे, तसु पुत्र दुवो गयो खेद रे ॥ व० ॥ २॥ पुत्र वती प्रिया मानीयें,घर सघलुं तेने हाथ रे ॥वण॥ पुत्रपखें शी पनिणी, स ही पुत्र अ घर आथ रे ॥व॥३॥ पुत्र विवेक दुआ पड़ी, नृप मंत्री बे दु एह रे ॥व०॥ निवृत्ति जणी आदर करे, बानो न बिपे कदी नेह रे ॥व० ॥॥ आज पडी तुं पियुप्रत्ये, तन मन वचनें एकांत रे ॥व०॥ नाव नक्ति एम साचवे, जेम वश दुवे तुझ कांत रे ॥३०॥५॥ निवृत्तियकी मन उत रे, कां करजे एवी वात रे ॥व०॥ कर्म क्रिया केलवे नली, मुफ वाघे अं गनी धात रे ॥ २० ॥ ६ ॥ निवृत्तितणे वारे अजे, तुम जेम करे ते लाज रे ॥व०॥ शोक्यतणी शंका किसी, ए शीख धरे मन आज रे ॥व०॥७॥शो क्य शूनी वली सायणी, वलगी न नली तुं जाण रे॥व०॥ शोक्य कही शू ली जिसी, युं कहिजे तेह वखाण रे ॥व०॥॥ शीख इसी परें सांजली,
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. रहे प्रवृत्ति पियु पास रे ॥व०॥ क्षण अंतर अलगी रही, जेम तनु बाया । क वास रे ॥व० ॥ ए ॥ रात दिवस उनी रहे, खिजमतगारी मनखंत रे ॥व०॥ सकल काम संसारनां, साधे नव नवी नंत रे॥व०॥१०॥ प्रवृत्ति नारी मन मंत्रवी, वश कीधो आपणो नाथ रे ॥व०॥ निवृत्ति नणी आ वा न दे, सदु सरखो मिलियो साथ रे ॥व०॥ ११ ॥ उवट चाल्यो मंत्रवी, जीव घात करे निशंक रे ॥व०॥ मृषा बोले धन हरे, परदारा सेवे वंक रे ॥व॥१॥ नव नव परिग्रह मेलिया, मद मांस नखे दिन रात रे ॥व०॥ परोही मोही दुळ, आरंनी दंनी जात रे ॥व०॥ १३ ॥ वार्तध्यानी आ करो, वली शेह तणा परिणाम रे ॥व०॥ तंउलमत्स्य सगी परें, दूर ध्या नी यातु जाम रे ॥व०॥१४॥ तेली बेलतणी परें, खरवृत्ति समाडे जूर रे ॥ व ॥ ज्युं तरुवरने उखेडिने,वाहे बदु जलनुं पूर रे॥ व ॥ १५ ॥ माया मन हरखी घj, हवे मंत्री अमारे सार रे ॥ ॥ सोहागिणी बात्री तिका, जेणें वश कीधो जरतार रे ॥ व० ॥१६॥ सर्वगाथा ॥१३॥
॥दोहा॥ ॥ मायासेंती मन मल्यो, हवे केहने ए पाड ॥ नन्हलियो जलनिधि जिस्यो, हवे केही तसु आड ॥ १ ॥ पवने प्रेस्यो अनि ज्युं, मयगल मातो जेम ॥ प्रेयो जल्यो वाजि ज्यं, धावे इत उत तेम ॥२॥ पंम पन्नग त णे,क्युं कुपथानो रोग ॥ विख लेप्यो ज्युं तीर ए, तिम मन माया योग ॥ ३ ॥ थाको थलमें दुवे नहिं, नवि बूडे जलपूर ॥ सांसीणो न दुवे क दा, पर्वत चढे सनूर ॥४॥ अग्निमांहि नमतो थको, न वले सबलो वेग ॥ अलख अगोचर संचरे, नवि पामे उद्वेग ॥ ५॥ रमु पास जंजीररां, न विडं बांध्यो जाय ॥ मंत्र यंत्र औषध करी, वश क्युंही नवि थाय ॥६॥ धाम काम रामा रमा, नेली कीधी नूर ॥ नृपति न पामे सिंधि ज्युं, लख आवे जलपूर ॥ ७ ॥
॥ ढाल पातमी॥ ॥ घर बांगण सुर तरु फल्यो जी ॥ ए देशी । मेमत्त मंत्री चिंतवे जी, हवे मुफ हाथे राज ॥ राजा परजा मो वशु जी, आनंद अधिको आज ॥ कर्मगति कठिन कही जिनराज ॥ १ ॥ ते निज श्रवणे सांजली जी, नवि जन नावमें बाय ॥ क० ॥ एमांकणी ॥ राय वधारयो हाथज्यु जी, नाना
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
JJ
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
थी वडकी ॥ घर अधिकारी स्थापियो जी, निज मुद्दा जसु दीध ॥ क ॥२॥ तेहवे मंत्री रायने जी, शेह करे प्रति जोर ॥ बांध्योथो पहेली सही जी, निवड बंधन करे उर ॥ क० ॥ ३ ॥ आप वधास्यो व्यापने जी, पीडाकारी जोय ॥ काष्ठ वधारे वन्हिने जी, काष्ठही बाले सोय ॥० ॥ ४ ॥ अल्पशक्ति राजा थयो जी, मूल नहिं ते नूर ॥ धूलपमल धूवे करी जी, ढांकी राख्यो सूर ॥ क० ॥ ५ ॥ मन मान्युं मंत्री करे जी, न्यायें न्याय विचार ॥ बांधे बोडे आपथी जी, हेतु अवर न लगार ॥ क० ॥ ६ ॥ मोजो माणे मन घली जी, ज्युं लहरी दरियाव | लूंटे खूटे लोकने जी, लाधी आपली दाव ॥० ॥ ७ ॥ लाख क्रोड वरसां लगें जी, तप करे धर्मनी खंत ॥ ते पण मनना प्रेरि याजी, सातमी नरकें जंत ॥क० ॥८॥ जोग नला सुख जोगवे जी, तेने या पे मोख ॥ सधली करणी एहनी जी, दोष घने गुणपोष ॥ क० ॥ ए ॥ तप जप दान दया सही जी, मन वि सघलो बार ॥ मनमेलु महोटो को जी, कतारें नवपार ॥ क० ॥ १० ॥ किा अवसर मन मंत्रवी जी, दीठगे विवेक कुमार || सौम्यवदन सरिखी कला जी, बोलाव्यो सुखकार ॥ क० ॥ ११ ॥ चित्त चितारी निवृत्तिनें जी, खाय खडी ते एम ॥ सद्बुद्धिने सं जारिने जी, विसरी विद्या जेम ॥ क० ॥ १२ ॥ समरी देवीनी परें जी, नजी श्रावी पास | नयणांनो मेलो हुई जी, उलस्यो अंग उल्लास ॥ क ॥ १३ ॥ माता पण यावी अबे जी, निजपुत्रीनी लार ॥ बांध्यो राजा लखी जी, दूरथकी निज नार ॥ क० ॥ १४ ॥ शक्ति नहिं मलवातणी जी, परव शने परकाश ॥ दासतणी परें हुइ रह्यो जी, प्रमदा नावे पास ॥ क० ॥ १५ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ राजा हवे निज निंदतो, संजारे सोवार ॥ माया साधारण वधू, से व्यां एह विकार ॥ १ ॥ सुबुद्धि प्रिया में ताहरी, शीख धरी नहिं कांय ॥ ते ए चोरतली परें, बंधन एवडां थाय ॥ २ ॥ प्रौढी पावन तुं प्रिया, निर्मल गंगानीर ॥ ते तो तुं गुण आगली, हीर कीर दंमीर ॥ ३ ॥ तुं चिन्तामणि सारिखी, में बोडी मति मूढ ॥ मायाकाच करें ग्रही, जग सघलो ढूंढ ॥४॥ ॥ ढाल नवमी ॥
॥ वीर सुलो मोरी वीनती ॥ ए देशी ॥ पियु प्राखे प्रिया सांजलो, तुफ महोटी हो जगमांहे माम ॥ परथपकारी परगडी, थावीने हो कीजें निज
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
श्रीमोहविवेकनो रास. काम ॥पिण॥१॥ घरनी सोह घरणी हाथे, ए वाणी हो में साची दी॥ कथन न मान्युं ताहरूं, परसंगें हो दुवो ढुं धीठ ॥ पि०॥ ॥ तुज प्रसा दथी पामिये, निज पदवी हो जे त्रिनुवन राज ॥ तुज विण दासपणुं न ज्यो, परघरना हो कीजें काज ॥ पि०॥३॥क्यां बांध्यो क्यांरूंधियो, क्यां पीड्यो हो क्यां वीटयो जोय ॥ क्यां मसल्यो क्या हत दु, क्यां किं कर हो क्या सेवक होय ॥पि० ॥४॥ दाल दुकम दुयो किहां, निर्धनिया हो कीधी बढ़ जात ॥ नव नव रंग किया तिहां, में सघनी हो न कहाये वात ॥ पि० ॥ ५ ॥ तुज विरहो वारु नहिं, में जाण्यं दो हवे पामी शीख ॥ माया मनमंत्री मली, मुफ कीधो हो ण आप सरीरन ॥ पि०॥ ६ ॥ में मंत्री महोटो कियो, इण कीधो हो मुफ एह प्रकार ॥ स्वारथियां सघ लां मल्यां, हवे सुंदरि हो तुंहीज आधार ॥ पि० ॥ ७॥ वांजे रविने शीत मे, जल वाह्यो हो नावाने धाय ॥ दृग वंडे अंधक नरु, तममाहे हो दी पक आवे दाय ॥ पि० ॥ ॥ण परि ढुं हवे तो नली, चित्त चाटुं दो मकुं परसंग ॥ दीनदयाल दया करी, हवे राखो हो मुझसेंती रंग ॥ पि० ॥ ए॥ शीलवती साची तिका, जे न तजे हो पति बापदमांय ॥ सयण तिके साचा सही, कुःखमाहे हो काढे यहि बांय ॥ पि०॥१०॥ में अव हीला जे करी, ते खमजो हो तुं सुगुणी नार ॥ रोष रखे मनमें धरो, श्म बोल्यो हो नूप वारंवार ॥ पि० ॥११॥ इण अवसर पुर्बुद राणी, अ णचिन्ती हो आवी तिण ताम ॥ तासु नयें करि त्रासवी, मा बेटी हो जाये निज धाम ॥ पि० ॥१२॥ बहु दिवसें मलिया दुता, मनमंत्री हो निवृत्ति विवेक ॥ सुबुद्धि राणी साथें दुती, नृप पासें हो आया था डेक ॥ पि० ॥१३॥ देखी शके नहिं उर्जना, संत मेलो हो तेहने न सुहाय ॥ धर्ममंदिर धन ते नरु, जे न करे हो वेढ राड उपाय ॥ पि० ॥१४॥
॥ दोहो ॥ ॥ माया नारी प्रवृत्ति बे, ए पण आवी तेथ ।। राजा मंत्री कुबुद्धिव ली, मलि रति बेला जेथ ॥ १ ॥
॥ ढाल दशमी॥ ॥ देशी हांजरनी॥ अथवा ॥ काल अनंतानंत, नवमांही जमता हो जे वेदन सही ॥ ए देशी॥ श्राइ नारी अचान, तीन मिल कर हो नरपति
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नी कने ॥ उलंनो दिये एम, ए क्यु आइ हो जे कीधी मने ॥ १ ॥थ मगुं एवी प्रीत, फिर अम शोकडी हो मुख क्युं लगायें ॥ अहोनिश की में सेव, जीजी करिने हो तुजने गायें ॥२॥ उलंना वली एम, मंत्री ने पण हो माया उच्चरे ॥ प्रकति बुरी क्युं नारी, राज पधास्या हो नि तिने घरे ॥ ३ ॥ दूति तत्त्वदृग मूकी, तें बोला हो सुबुदि नए। इहां ॥ निंबु रसनी नाय, दीसतो हेज हो मिलता जिहां तिहां ॥४॥नोलो तुमन मंत्री, ए मुफ वातां हो साची सही॥ सुबुद्धिमली जो एथ, तो मुफ प्रनुता हो स्थिरता नां रही ॥५॥इम समजाव्यो मंत्री, माया नारी हो वचन कही घणां ॥ प्रति नणी कहे एम, करजे पुत्री हो आलोच मन तणा ॥ ६ ॥ देशवटानी वाट, निवृत्ति नारी हो जिण परें ए लहे ॥ की में तेह नपाय, तो ए प्रनुता हो निज हाथे रहे ॥ ७ ॥ विषमति पियुनी काली, आलस मूकी हो काम करीजियें ॥ तुझ सखिया पचवीश, किरि या सारी हो साथें लीजियें ॥ ॥ कायिक्यादि प्रसिह, धारां धीरां दो नव नव नायका ॥ ए पंचवीशमां इक टाली, इरियावहिया हो तुज नेह लाइका ॥ ए॥ निवृत्ति नारी जेह, गगुं नासे हो उनी ना रहे ॥ मारो ने विश्वास, चोवीशसेंती हो तुज आझा वहे ॥ १० ॥ ए सखियां अनि राम, जिण जग सघलो हो जेर कियो नलो ॥ सबलो सजियो साज, नि वृत्तिसेंती हो हवे कर साफलो ॥ ११॥ चोवीशे ले साथ, पियुयुं खेले हो नव नव रंगलॅ ॥ सखीयांनां सुख देख, पियुडो मोह्यो हो प्रमदा संग गुं॥१२॥ विन्रम विविध विलास, मुखनां मटकां हो लटकां अति म व्यां ॥ गायां वायां गीत, प्रीतम गे हो मुख पासा ढव्या ॥ १३ ॥
॥दोहा॥ ॥ कहे प्रीतम सुण तुं प्रिया, मनमांहि लीजें ढूंश ॥ नवि पूरुं जो आ जथें, तो तुज गलाना खूश ॥ १ ॥ प्रवृत्ति कहे सुण साहिबा, निवृत्ति तारी नार ॥ ते मुफ हैडामां सही, वेज करे ज्युं सार ॥२॥ गोमुख घर एगी ए अने, थाढी शीली सार ॥ बरफतणी पर पीडवे, एनी वात अपार ॥३॥ तमथी पण गुदरे नहिं,नाजे करण विकार ॥गरव महेली गेहिनी. एनो उलटो चार ॥ ॥ माता पण ने एहनी, सूबानी सिरदार ॥ वैराग ण शी वावरी, न धरे लोकाचार ॥ ५॥ दोषवती जाणी करी, राजा दीधी
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
२५
बोड || निज पुत्री पण तेहवी, सरखा सरखी जोड | ६ || गीत गान गा वे नहिं, हास्य विलास न कोय ॥ स्नान पान वली मान नहिं, व्यसन र सन नवि होय ॥ ७ ॥ जो अमनें दीधो लें, उलगरी अधिवास || देशवटो निवृत्तिने, दीजें ए अरदास ॥ ८ ॥ नागण तो मुख विष कही, व पु विष होय ॥ शोक्य नीच कां सापिणी, आदि अंत विष होय ॥ ए ॥ सा ती परें काढवे, सुतसेंती ए नार ॥ तो अमने सुख ऊपजे, जीवन
प्राणाधार ॥ १० ॥
॥ ढाल अग्यारी ॥
॥ राग धन्याश्री ॥ कुंवर इस्यो मन चिंतवे ॥ अथवा || मेरी बहेनी क हे कां चरिज वात ॥ ए देश ॥ ए अरज मानी मंत्रवी, निवृत्ति कीधी विदाय ॥ यापद तेह सती तली, कविजनथें हो क्युं वरणी जाय ॥ १ ॥ माया मन उत्सव घणो रे || ए टेक ॥ हवे सीध्यां हो सघलाई काज ॥ उद्यम सफल ए टू रे, हवे होसी हो मोहकुंवरने राज || माया० ॥ २ ॥ परवश पड्यां जे मानवी, वली कामली रे हाथ ॥ तसु बुद्धि यामिनीमां सही, नही उगे हो न्यान वासरनाथ ॥ मा० ॥ ३ ॥ माता पिता पग ला गिनें, निज पुत्र साधें जेह ॥ नीसरी निवृत्ति तिहांथकी, पंथ चाली हो पं श्री परे तेह || मा० ॥ ४ ॥ निष्कंटक राज हवे हुनु, नीसरी निवृत्ति नारी ॥ प्रचंमपवनें प्रेरियो, जेम चाले हो ध्वज अंचल चार ॥ मा० ॥ ५ ॥ इम म न मंत्री दह दिशें, नमी रह्यो होनिश तेह ॥ ऋण एक पाठोनवि वले, वधि तृष्णा हो नावे तसु बेह ॥ मा० ॥ ६ ॥ डुर्बुद्धि माया प्रवृत्तियं, नीनो रहे निशिदीस ॥ वली वीनव्यो सघले मली, हवे पूरो हो इतनी जे जगीश ॥ मा० ॥ ७ ॥ मोहने राजा कीजियें, ए अधिक मन उत्साह || तुशुं सघ लो होय, ए अवसर हो लाजीजें कांह ॥ मा०॥ ८ ॥ सुत सहित निवृत्ति पण नहिं, सद्बुद्धि राजा दूर | व्यापणो अधिपति ए किहां, सुख होशे हो सघन जरपूर | मा० ॥ ९ ॥ जोरावर ए जोध बे, निजगुणें करि विख्यात ॥ याज नदय एनो अबे, ढील न करो हो हवे एहिज वात ॥ मा० ॥ १० ॥ मनमंत्री मानी वारता, मोहने राजा कीध ॥ यति घणां वाजां वाजियां, मनमांहे हो सघलां य सि६ ॥ मा०॥ ११ ॥ होकार करता नरपति, सुर पति सघला जेह ॥ धूजाव्या मोह राजा थये, प्रति अनमी हो तीन
૪
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. वनमें जेह ॥मा॥१२॥ मोह राय पण हवे मंत्रवी, मानियो अतिही उदार ॥ण एक अलगो नहिं करे,मुख आगे हो सघलो कामदार मा॥१३॥ अति सबल राज वध्यु हवे, जेम वधे वड जल पाय ॥ सुख जोगवे मोह नूपति, नीत नवला हो यानंद मन थाय ॥मा०॥ १४ ॥ गुणवंत गुरु पा कवरु, श्रीदयाकुशल उन्नास ॥ तसु शिष्य धर्ममंदिर कहे, ए बीजो हो खंम मोहविलास ॥मा०॥ १५॥ इति श्रीप्रबोधचिंतामणौ नाषा ढाल प्रबं धे पंमितधर्ममंदिरगणिविरचिते मोहविवेकोत्पत्तिमनःप्रधानोत्पत्तिमोहराज्य स्थापननामा दितीयः खमः संपूर्णः ॥ २ ॥ सर्वगाथा ॥ २६ ॥
॥ अथ तृतीयखंम प्रारंजः ॥
॥ दोहा ॥ ॥ पार्श्वनाथ प्रसादथें, प्रगटे नवे निधान ॥ अलिय विघ्न दूरे हरे, ज पतां जेहनुं नाम ॥१॥ मोहराय हवे चिंतवे, नगरी अविद्या नाम ॥ पुरी पुराणी ने सही, ते सरखरी मुफ वाम ॥ २॥ साज करी रहियें तिहां, जय केहनो नवि थाय ॥ राजानी ए नीति ,न रहे एकण वाय ॥३॥ धननीरी धरणी बदु, विविधं करे विचार ॥ गुणवंत ते गाफल नहिं, स्वारथ साधे सार ॥४॥ म चिंतवी पुर सज करी, सघला लोक वसाय ॥ संसारी प्राणी जणी, दीनां यावे दाय ॥५॥
॥ढाल पहेली॥ .. ॥ पांचमी तपविधि सोनलो ॥ ए देशी ॥ नगरी निरखो मोहनी, नाम अविद्या जासो रे ॥ शोना सखरी तेहनी, नीको निविड निवासो रे ।। न गरी० ॥ १॥त्रण अज्ञान त्रिकोट बे, ते नगरीनी पासें रे॥ कोसीसां सो हे जिहां, कर्म प्रकृति प्रकाशे रे ॥ न ॥॥ देव नरक पशु मानवी, ए गति चार प्रतोली रे ॥ तीखी तृमा खातिका, अति मी तसु दोली रे ॥ न०॥३॥ रमणी जोग ते वाडियां, मुखकमलें करी सोहे रे ॥ समर कुंवर रमतो रहे, यौवनरूप मन मोहे रे ॥ न॥४॥ पाप अढार तटाक ते, ते अति कंमां दीसे रे ॥ शठ हतवाद ते खाल , उन्माद जल तिहां हीसे रे ॥ न० ॥ ५॥ क्रीडा वापी कामिनी, शृंगार रस करि गाढी रे ॥ करपदकमलें शोनती, सरली सुंदर टाढी रे ॥ न० ॥ ६ ॥ कामासन या
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोहविवेकनो रास.
२७ सन जिहां, चोरासी बाजारो रे ॥ परिणाम देण कुण जीवडा, तेहिज घर वि स्तरोरे ॥ ० ॥ ७ ॥ नगरीविच जे लोक बे, ते तो मदरा माता रे ॥ नगरीने बेहडे वसे, ते कबु सरल कहाता रे ॥ न० ॥ ८ ॥ थोडे लाने लोक जे, मनमां हर्षित थाय रे || थोडे लानें जे नरा, दीन थइने जा य रे ॥ न० ॥ ए ॥ ममत्वोपश्व देवता, नगरीनी रखवाली रे ॥ सान्निध्य खबर नली करे, ज्युं वाडीमां माली रे ॥ न० ॥ १० ॥ नाचे कूदे के नरा, के वाद विचारे रे ॥ नंदे वंदे के स्तवे, केई याचक वारे रे ॥ ० ॥ ११ ॥ कोपे रोपे गर्वने, जोपें करण न जीपे रे ॥ प्राकंद रोवन के करे, मिथ्या मति प्रति दीपे रे ॥ न० ॥ १२ ॥ धसमस धंधामां फिरे, शिकथा विकथा का रे ॥ गावे वा नरा, फेरे कपटनी सारी रे | न० ॥ १३ ॥ नि विचार सदु लोकने, राजाना यति रागी रे ॥ नगरी वर्णी एहवी, मोह राजा वडभागी रे || न० ॥ १४ ॥ सर्वगाथा ॥
१९ ॥
॥ दोहो ॥
॥ हवे राजा वर्णन सुणो, वली एहनो परिवार ॥ कविकल्पना उपमा करी, कहे सघलो विस्तार ॥ १ ॥ ॥ ढाल बीजी ॥
॥ देशी कुंमखडानी ॥ प्रथवा ॥ रंगी ले सारथी ॥ ए देशी ॥ मूढ संगति परखद नली रे, महेल कुवासना तेथ ॥ महीपति मोहना || सिंहासन मति शबेरे, त्र संजम जेथ ॥ म० ॥ १ ॥ खड्ग निचंबन कर ग्रहे रे तेर क्रिया अंगी सार ॥०॥ पांचे इन्दिय परवडी रे, पांचेई दथीयार ॥० ॥ ॥ २ ॥ रति ने रति बे खडी रे, चामर ढालणहार ॥ म० ॥ पाखंमी बहु पोलिया रे, स्वामी धर्म सिरदार ॥ म० ॥ ३ ॥ बहुविध संज्ञा नट ति हां रे, नाटक करे उदार ॥ म० ॥ कामिक श्रुत तिहां गाइयें रे, राजाने सु खकार ॥ म० ॥४॥ भुजबली जीमतली परें रे, शृंगार सखर करे ॥० ॥ चार्वाक मित्र मानतो रे, अधिको मान धरे ॥ म० ॥ ५ ॥ पटराणी जड ताकही रे, गुण गए रूप रसाल ॥ म० ॥ तस कुखि कंदर केशरी रे, मद न पुत्र वड नाल ॥ ० ॥ ६ ॥ राग द्वेष प्रारंभ वली रे, ए पण पुत्र बे तास ॥०॥ जोरावर सघला बे रे, जीप शके कुण जास ॥ म० ॥ ७ ॥ चिन्ता प्रमुख पुत्री घणी रे, रा करवाने शूर ॥ म० ॥ नाश्नी परें नड घ
•
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
शत
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जे रे, दिन दिन अधिके नूर ॥ म० ॥ ॥ कर्म किया जाणे घणी रे, मं त्री मिथ्यादृष्टि ॥ म ॥ बाप धरी जेहनी नरा रे, हीमे सघली सृष्टि ॥ म ॥ ए ॥ उष्ट योग मनना जिके रे, तेहिज सामंत सार ॥ म ॥ सात व्यसन सेवे सदा रे, राज्यता आधार ॥ म०॥ १०॥ मंगलिक राजाने अ रे, क्रोध मान लोनादि ॥म० ॥ दंन जोरावर जोध रे, पग पग जींपे वाद ॥ म० ॥ ११॥ सेनानी परमाद ने रे, कु.६ करणने जोध ॥म० ॥ शान्ति माहा सुनटां नयी रे, जीत्या जेणें रोध ॥म०॥ १२॥ चमनाव कोटवाल ने रे, तस्कर कालपहार ॥म ॥ शेव जिहां व्यादेप ने रे, म हाजनने सुखकार, ॥ म० ॥ १३ ॥ पाप परिग्रह अति घणो रे, तेहिज अधिक नंमार ॥ म ॥ संग कुसंग दाणी तिहां रे, पुरोहित पाप प्रचा र ॥म० ॥१४॥ बालस शय्यापाल ने रे, शठ हा बाहलदार ॥ म० ॥ निंदककांनुंगा घणा रे, कुकवि बहु सूधार ॥म ॥ १५॥ तंबोली प्रेम राग ते रे, मुखशोना परकार ॥म॥ हर्ष शोक बे मन्न रे,क्रीडा कौतुक सार ॥ म॥१६॥ विषय विकार चाकर घणारे, एवो राज्य पार ॥ म. ॥ धर्ममंदिर धन ते नरा रे, मोहथकी वसे दूर ॥ म० ॥ १७ ॥३०॥
॥ दोहो । ॥ हवें निवृत्तिनी वारता, सुजो नविजन तेह ॥ शील सत्य मनमां धरे, साधवी लक्षण एह ॥ १ ॥
॥ ढाल त्रीजी॥ ॥कर्म परीक्षा करण कुंवर चल्यो रे ॥ ए देशी ॥ धर्म सहाय करी कामनी चली रे, निवृत्ति नीके नूर ॥ आपद संपदमा जे स्थिर रहे रे, नरनारी ते यूर ॥ धर्म ॥१॥ मोह महिपतिने नय नासती रे, पवनतणी परें तेह ॥ सुत सखरो पण साथें युं करे रे, नावी न चले जेह ॥धर्म० ॥ ५ ॥ मारग लांघ्यो अति धणो कामिनी रे, थाकी राणी थाय ॥ विसामो मन जाणे लीजियें रे, सखरे नाम सुहाय ॥१०॥३॥ ब्रह्मपुरी इक नाली नामिनी रे,श्हां रहेवानो लाग ॥ मंत्र पवित्र पाणी करी बांटिये रे, पूजी में वली आग ॥ध० ॥ ४ ॥ यज्ञस्थन मांमयो ने यागें करी रे, सकल स का सार ॥ वेदपाठी ब्राह्मण मुख उच्चरे रे, वेदकंठें उच्चार ॥ ३० ॥५॥ माष अने जव तिल सदु नेलीने रे, होम करे बहु जाति ॥ खीजड पीपल
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास. लाकड मेलियां रे, धर्म तणी मन खांति ॥ ३० ॥ ६ ॥ बागना कानमां मं त्रजणी करी रे, बलि करे ब्राह्मण तेह ॥ देवने तृप्ति होशे एहथी रे, सर ग होशे स्वदेह ॥ध०॥ ॥ निवृत्ति एवी हिंसा देवीने रे, मनमा चिन्ते एम ॥ ब्राह्मण ते सम दम दमता धरे रे, झानी निर्मम हेम ॥१०॥॥ मन शुचिकारक संतोषी सदा रे, त्यागी करुणावंत ॥ सत्यवादी सूधा ब्रह्म पारखु रे, चारज अनुपम संत ॥ १० ॥ ए॥ चमनूला ए ब्राह्मण नाम थी रे, गमरी प्रवाहें लोक ॥ वेदमंत्रे करि बागने स्वर्ग ले रे, मन वंडित लहे थोक ॥ ध० ॥ १० ॥ बागतणी परें वहालाने करो रे, सखरी गति नपचार॥उर्गतियें कां मूको बापडा रे, वेद उपर एक तार ॥ध० ॥११॥ वेदमंत्र करी कन्या व्याहियें रे, ते पण विधवा थाय ॥ मंत्रतणी जो शक्ति तिहां गई रे, व्यो परतो मन लाय ॥ध ॥ १२ ॥ वेदपाठी ब्राह्मणने ताडतां रे, पीडा न दुवे लगार ॥ तो ते बागने पीडा नहिं दवे रे, मंत्रश क्ति श्रीकार ॥ध ॥ १३ ॥ सिंह सर्पनो याग कह्यो नहिं रे, बापडां ब करा अनाथ ॥ उर्बलपाती देव अडे सही रे, नबलाने कोण साथ ॥ धo ॥ १४ ॥ परमेश्वर ए खावां सरजियां रे, एह बोले एह ॥खादकथी पण पापी धागलो रे, हिंसा दीपावे तेह ॥ ध० ॥ १५ ॥ यागहिंसाने हिंसा नवि कहे रे, चार्वाक मतना धार ॥ प्राण हरे जो पंचेन्श्यि तणां रे, लघु जीव केही सार ॥ ध० ॥ १६ ॥ शिव ते सर्ग तीर्थ जलने कहे रे. प्रजे गो पशु मंद ॥ गृहधारीने गुरु करी सर्दहे रे, देव अग्नि सुखकंद ॥ धo ॥ १७ ॥ ए सघला मुज शोक्य प्रवृत्तिना रे, पदपाती परधान ॥ एम जा पीने निवृत्ति नीसरी रे, धरे तेम धर्मध्वनि ध्यान ॥१०॥ १७॥ ५६ ॥
॥दोहा॥ ॥ विसामो लेवा जणी, वली जोवू को गाम ॥ फरतां एक दीढं तिहां, ब्रह्ममतीनुं नाम ॥ ॥ वैरागी बेठा घणा, कोपिन वसन धरे ॥ हाथ कमंगल दंमधर, जप अदमाल धरे ॥ २ ॥ स्थानक वारु देखिने, सतनं बेठी ठाम ॥ एक ब्रह्म जगमा अडे, शब्द सुण्यो ए ताम ॥३॥
॥ढाल चोथी॥ ॥ जंबूदीप मकार, नरत देत्रमाहे ॥ ए देशी ॥ सुत बोल्यो सुण मात, वचन दुवे तीके, जे कोइ तत्त्व सम जाणियें ए ॥ ब्रह्म विना सब जूत,
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. एकांत मतधरू, यहां रहेवा मन नाणियें ए॥ १ ॥ साधक व्यवहार जेह, निरत कारण जर्नु, उरहो अवलंब ए सहि ए॥ निश्चयने ग्रहे एह, कीरिया दूषवे, खोटागुंवणशे नहिं ए॥२॥ ग्रंथथकी करे बोध, तप जप खप करे, उद्यम पण सवि पाचरे ए॥मुखथी बोले एम, ए सद जून, नय प्रमाण नवि उच्चरे ए ॥ ३ ॥ स्याहाद नहिं एथ, जे साचो सही, स कल रसायण साधकू ए ॥ कपटी कूडा एह, स्वपर रूपनु, परमारथना बा धक ए॥ ४ ॥ वली कहे जगमा एक, बातम व्यापियो, ब्रह्म स्वरूपी ए दु ए ॥ ज्युं आकाशे चन्छ, एकज डे सही, जल प्रतिबिंब जू जून ए ॥ ५॥ उपजे विएसे नूर, जलकन्नोल ज्युं, नाना महोटा दीसता ए॥ पण ते एक स्वरूप, अवर न कोयनें, एह अर्थ कहे हीसता ए ॥ ६ ॥ के उत्तम के नीच, के सुर नारकी, बारज म्लेह के आखियें ए ॥ के ना री के खंज, के नर तिर्यंच, मोर पिन्ड सम साखीयें ए॥ ७ ॥ के पंमित के मूढ, के रंक राजवी, इत्यादिक नेद अनुसरे ए॥ कर्म न माने हेत, सह ज स्वनाव ए, बदरी कंटकनी परें ए ॥ ७ ॥ आतमगुण पर्याय, अनंत माने नहिं, बोले बालकनी परें ए ॥ परिणामी बे इव्य, आतम पुजल, एक विवेचन ना करे ए ॥ए॥ सत्ता शाश्वतरूप, निज निज व्यनी, मर्यादा मूके नहिं ए ॥ व्य अने पर्याय, नेदानेद जे, स्याहादी समजे सही ए॥ १० ॥ इहां नव सीके माउ,विवेक सुतें कह्यो, माता वचन प्र माणियो ए ॥ उनि चली पंथमांही, पुत्र प्रेरी थकी, जेद जलो मन या णीयो ए ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ ७० ॥
॥ दोहा ॥ ॥ सुबुदि सुता हवे चालतां, तापस आश्रम दीव ॥ विसामो श्हां ली जियें, सखरी बाया मीठ ॥ ॥ बढा तापस अति घणा, जटा जूट बद्ध नार ॥ हाथ अदमाला अडे, नाम नारायण सार ॥२॥ शिष्य घा चिद् दिश जइ, मूल कंद फल लेह ॥ वनवीही आणे घणा, नोजन अर्थे तेह ॥३॥ शुक सारो पंखी नणी, राम नाम शीखाय ॥ पादप सींचे वा रियं. धर्म न धर्म नपाय ॥ ४॥ निवृत्ति नारी चिंतवे, ए पण मोहें तीन
॥ शम दम करुणा को नहिं, झान गुणें करि हीन ॥ ५ ॥ चुक्ता नामिनी 'बे तजी, नजी न अंतर दृष्टि ॥ कोड क्रिया अफली दुवे, ज्युं उखरमें वृष्टि
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
३१
॥ ६ ॥ प्रारंभ मिथ्यामति घणा, निरवद्य नहिं ए वाय ॥ श्रांत थयां प ए मियें, नदीकूलनी बाय ॥ ७ ॥
॥ ढाल पांचमी ॥
|| मेरे रहनां ॥ ए देशी || सुबुद्धि सुता वली त्यांथकी रे हां, धरिधी रज मनमांहि ॥ धर्म धुरंधरा ॥ चाली चतुरा चोंपशुं रे हां, काली पुत्रनी बांहि ॥ ६० ॥ १ ॥ तुं सुत सुरतरु बांही, तो सम अवर को नांह। ॥० ॥ एक ॥ कपुर बेठी कामिनी रे हां, कोलधर्म सुणी कान ॥ ६० ॥ विसामो इहां लीजियें रे हां, जो रहे आपणो मान ॥ ६० ॥ २ ॥ ए धर्म सेवे घणुं रे हां, तरुणपणे नर नारि ॥ ध० ॥ खाकर्षे लोको नली रे हां, ध
शब्द सुखकारि ॥ ६० ॥ ३ ॥ संत साधु मुख नच्चरे रे हां, याने बहु मान ॥ ० ॥ मंगल मांगे मन रली रे हां, गावे गीत ने ज्ञान ॥ ६० ॥ ४ ॥ रंगा चंमा दीक्षिता रे हां, धर्म दारा ने एह ॥ ध० ॥ सेव्यां शक्ति होशे सुखी रे हां, मन मत धरो रे संदेह ॥ ० ॥ ५ ॥ मद्य मांस खातां कां रे हां, इस गमे दोष नहिं ॥ ६० ॥ इम सुणी निवृत्ति चिंतवे रे हां, धिक् धिक् एहनी बहिं ॥ ६० ॥ ६ ॥ मोह मंत्रीना दास ए रे हां, संग जलो न हिं एह ॥ ० ॥ निवृत्ति तिहां दूती चली रे हां, शीलवती गुणगेह ॥ ६० ॥ ७ ॥ अवर नगर दीतुं ननुं रे हां, बौधमतीनुं गम ॥ ६० ॥ श्रातमनी चर्चा करे रे हां, ए होगें अनिराम ॥०॥ ८ ॥ तसु मुख एवं सांजल्युं रे हां, यातम कण कण नांहि ॥ ६० ॥ पुण्य पाप केहने नही रे हां, शून्यप यो जगमांही ॥ ६० ॥ ॥ माता पूबे सुत जणी रे हां, एहनुं खखे एम ॥ ६० ॥ विवेक पुत्र तव बोलियो रे हां, सुण माता कहुं तेम ॥ ६०॥१०॥ बोधने कहियें पुत्र तुंरे हां, पिता जो हो नांहि ॥ ६० ॥ व्याह जोगवेला जू रे हां, एक पिता क्युं सांही ॥ ६० ॥ ११ ॥ अपराध को बीजो करे रे हां, प्रवर दंमीजें कोइ ॥ ६० ॥ राजनीति पण उजवी रे हां, धर्मनणी किहां होइ ॥ ध० ॥ १२ ॥ शय्या सखरी सूइयें रे हां, पीजें खीर प्रजात ॥०॥ जोजन मीतुं कीजियें रे हां, सांख्यमतीनी वात ॥ ६० ॥ १३ ॥ सौगत मत ए सांजली रे हां, निवृत्ति नारी न सुहाय ॥ ६० ॥ तत्त्व कपूरने कर ग्रह्मां रे हां, दूषण न वेदाय ॥ ध० ॥ १४ ॥ मुग्ध मानव मृगपाश ए रे हां, जव टवीमां नूर ॥ ध० ॥ निरखी निरखी पग मंमियें रे हां, इथं
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. रहियें दूर ॥ध०॥१५॥ आगे चाली उतावली रे हां, न रही एक पल मा त ॥ध ॥ कपिल योगी पण मव्यां रे हां,तिगान करीवात ॥ध॥१६॥ सेवक सघला मोहना रे हां, निवृत्ति नारी मन जाण ॥ध० ॥ वैरीनी परें परहस्या रे हां, नूले नांहि सुजाण ॥ ध० ॥ १७ ॥ सर्वगाथा ॥ ए४ ॥
॥ दोहो ॥ ॥ण परि सघली नूमिका, नमतीजमती नूर ॥ विसामो लाधो नहिं, खेद करे जे पूर ॥ १ ॥
॥ढाल बनी॥ ॥ रहो रहो रहो रहो वालहा ॥ ए देशी॥प्रवचन पुर गई पाधरी, पुण्य तणे अंकूर लाल रे ॥ निकट नावी निरखे सहि, पापीयडा दूर लाल रे ॥प्र० ॥१॥ चारित्र प्रासादने ऊपरें,धर्मध्वज लहकाय लाल रे ॥ दूरथकी पण देखतां, यानंद अंग न माय लाल रे ॥३०॥ ॥ पुण्य पवित्र परि णामथी,उपदेश नगरमां जोय लाल रे ॥ पाप कर्म चंकालन, पग पेसार न कोय लाल रे ॥प्र० ॥ ३ ॥ साधु शिरोमणि संत जे, नगर मध्ये रहे तेह लाल रे ॥ देशवति ने समकिती, बाहिर वसिया अह लाल रे ॥॥४॥ प्रवचन पुर वासी घणा, सघला सुखियाँ लोक लाल रे ॥ तत्त्वतणे सुख पागलें, तृण सम सुख सुरलोक लाल रे ॥प्र० ॥ ५॥ त्यांथकी मुक्ति पुरीनगी, साथ चले दिन रात लाल रे ॥ चोर चरड लागे नहिं,नीति त णी नहिं वात लाल रे ॥३०॥ ६ ॥ तसु पुरवासें वन बजे, इंडियदमन डे नाम लाल रे ॥ निवृत्ति नारी देखियो, अनुपम ए अनिराम लाल रे॥प्र० ॥ ७ ॥ साधुवदन ते कुंम बे, जिन वचनामृत नीर लाल रे ॥ नूर नविक पंथीनणी, जाये नवनी पीर लाल रे ॥ ॥ ७ ॥ धर्मवचन फल फूटरां, योगी मधुकर सार लाल रे ॥ निवृत्ति विसामो तिहां लियो,खेद गमावणहा र लाल रे ॥ प्र० ॥ ए ॥ योग त्रिनूमि आवास , तिहां इक नरने दीठ लाल रे ॥ दिलनर दर्शन तेहनु, अमृतथकी पण मीठ लाल रे ॥३०॥१०॥ विद्यानो नंमार ने, जाणे सघली वात लाल रे ॥ वंदना कीधी नारियें, जं गम तीरथ जात लाल रे ॥प्र०॥ ११ ॥ हाथ जोडीने पूछे सता, कोण तुं स्वामी आख लाल रे ॥ इण वनमांहे क्युं रहे, साचुं सघळु दाख लाल रे ॥ प्र०॥ १५॥ पुरुष कहे सुण सुंदरी, मारी सघली वात लाल रे ॥ वि
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास.
३३ मलबोध नामें अg, सिपुरुष विख्यात लाल रे ॥प्र० ॥१३॥ण पुर माहे राजवी, अरिहंत नाम के जास लाल रे॥ तसु आदेश लही करी, ण वाडीमें वास लाल रे ॥ प्र॥ १४ ॥आवास पहेली नूमिका, बेसीने था राम लाल रे ॥ राखं सुख नरपूरा,वृत्ति दुवे अनिराम लाल रे ॥॥१५॥ राजाना परसादथी, मुऊने एहवं झान लाल रे ॥आगम नीगम वारता,सघ लांने समाधान लाल रे ॥प्र० ॥ १६ ॥ कर जोडीने कामिनी, याखे पु रुपने एम लाल रे ॥ उपकारी शिर सेहरो, सुणजे दुं कहूँ तेम लाल रे॥प्र० ॥१७॥अबला नारी एकली, नहानो पुत्र ए साथ लाल रे ॥ चमणतणुं फुःख झुं कहूँ, इक जाणे जगनाथ लाल रे ॥प्र०॥ १७॥ मया करीने जो इये,ए बालकनो हाथ लाल रे॥कहिये होशे एहने,प्रनुता संपद साथला ल रे ॥प्र॥ १५ ॥ नजरें जे देखा, वारु एहनी वार लाल रे ॥ ए स घटुं मुझने कहो, आणी मन नपकार लाल रे ॥प्र० ॥ २० ॥ ११५॥
॥दोहा ॥ ॥ सिम पुरुष बोल्यो हवे,सुण नामिनी फुःख तुज ॥ दूर गयां दवे जा एजे, ए वाचा मुफ॥१॥ए बालक जे ताहरो, नत्तम लक्षणवंत ॥ सकल वातनो हुँ कहूं, ए माने एकंत ॥ २ ॥ तत्त्वरुचि नामा पुत्रिका, महारी के मनुहार ॥ गुजाचार दारा कुखें, उपनी ते निर्धार ॥३॥ तेसेंती तुज पुत्रने, परणावो बदु प्रेम ॥ अविचल जोडी एहनी, होशे कुराला देम ॥ ४ ॥ वर कन्या बेहू जलां, लेह लोग संयोग ॥ चं अने पूनम तणो, पूरण मलियो जोग ॥ ५ ॥ एह वचन सुंदर सुणी, देखी कन्या सार ॥ लावण्य लक्षण देखिने, पामी हर्ष अपार ॥ ६॥ नाग्य नबुं मुज पुत्रनु, ए घर घरणी थाय ॥ घरमें लक्ष्मी श्रावती, क्युं टेलीजें पाय ॥७॥ निशलु शय्या लहे, तरष्यो अमृत पान ॥ नूरख्यो पायस नां तजे, लाधो रंक निधान ॥ ७ ॥ निवृत्ति नारी मानियु, सिमवचन शिरदार ॥ लग्न तेह दिन साधियुं, न कयो को विचार ॥ ए॥
॥ ढाल सातमी॥ ॥ उसह उलह किसन हो, उलहिणी राधिका जी ॥ ए देशी ॥ कुंव र कुंवर विवेक हो, लामी तत्त्वरुचि जी, परणे परम नन्नास ॥ विलंब वि लंब न कीधो हो, वहाले वागमें जी, विस्तरीयो जसवास | कुं० ॥१॥ म
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नमें मनमें हो, महोत्सव मांमयो अति घणो जी, ते जाणे जगदीश ॥ जुगति जुगति जोडी हो, मिली हेमज्युं जी, वाणी विशवा वीश ॥ कुं०॥ ॥ ॥ माणिक माणिक जोडी हो, हेमनी मुडी जी, बेसनो उनय संयो ग ॥ संपद संपद मिलतां हो, होवे सोहिली जी, किहां माणस संयोग ॥ कुं० ॥३॥ विमल विमलबोध कहे, सुण सगी जी, आपद दुःख मन नाण ॥ वाधे जे वाधे डे पण, बीजे चन्मा जी, आतलें पंमित वाण ॥ कुं० ॥४॥ सुस्त्री सुस्त्री हो, आयां आपद नवि रहे जी, राहु मुखें जेम चंद ॥ धीरज धीरज खमजे हो, आपद नपनां जी, वायें न चले गिरिंद ॥ कुं० ॥ ५॥ बाजथी आजथी होशे हो, एनी गुन दशा जी,यापद् अ लगी थाय ॥ प्रगट प्रगट होशे हो, पुण्य पाधरां जी, सब जनने सुखदाय ॥ कुं० ॥६॥ नद्यम उद्यम बता हो, जाल तुफ फले जी, अनुपम ने न पाय ॥ निष्फल निष्फल न होवे हो, निश्चय जाणजो जी, परतो पूरण थाय ॥ कुं० ॥ ७ ॥ सर्वगाथा ॥ १३१॥
॥ दोहा ॥ ॥ प्रवचन पुरनो डे धणी, राजा अरिहंत नाम ॥ नाव शत्रु जित्या जिणे, अतुली बल अनिराम ॥ १॥ नुक्ति मुक्ति दाता सकल, अचिंत चि न्तामणि जोय ॥ कामकुंज सुरतरु घणा, ए सम अवर न कोय ॥ २ ॥
॥ ढाल धाउमी॥ ॥ हां हां चन्द्रावती क्यां गइ ॥ ए देशी ॥ शोना साहेबनी घणी, मो पें कहीय न जायो रे ॥ स्थूलहष्टि करि वर्ण, निश्चें अनुनव पायो रे ॥ शो० ॥१॥ तीन बत्र शिर शोनतां, तीन नुवन ठकुराई रे ॥ तीन गढ़ें करी राजतो, रत्न त्रय सुखदाई रे ॥ शो० ॥ २ ॥ सिंहासन उज्ज्वल नर्बु, अशोक वृद वलि होय रे ॥ नविजन ताप बुझायवा, अछुत जलधर जोय रे॥शो० ॥३॥ मिथ्या तिमिर नसायवा, सूरज सम ने तेजो रे ॥ धर्मचक्र जसु ागलें, देव धरे धरि हेजो रे ॥ शो ॥४॥ इति नीति जा ये सवे, जंबुक ज्यु सिंह सादे रे ॥ फूल फगर वरसा दुवे, वलि सुर उंछ निनादें रे ॥ शो० ॥ ५ ॥ जाति वैर मूकी करी, सुरनर ने तिर्यंचो रे ॥ पर्षदमें आवी मले, एवो ने जिहां संचो रे ॥ शो० ॥ ६ ॥ अचरिज मू ल जे इन्ऽ , कोसुरने नवि देखे रे ॥ ते सघला किंकर इहां, निरुपम एह
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
३५ वशेखें रे ॥ शो ॥ ७ ॥ अतिशय एहना अतिघणा,कहेतां नावे पारो रे ॥ केवलझान दिवाकरु, अनंत वध्यो विस्तारो रे ॥ शो ॥ ७ ॥जामाता जो एहने, सेवे स्थिर करि चित्तो रे ॥ ससरे एवं आखियुं,अनंत दुशे तुक वित्तो रे ॥ शो० ॥ ए ॥ एम सुरणी निवृत्ति नारी, हरखी अतिहि नन्नासो रे॥ मन संदेह विलय गयो, परम प्रतीत प्रकाशो रे ॥ शो ॥ १० ॥ ल ३ आदेश उठी करी, पुत्रवधूनी संगे रे ॥ प्रवचनपुर पेसण नणी, निवृत्ति चली मन रंगे रे ॥ शो ॥ ११ ॥ चित्रारो तारो पामीने, अधिक किरण जानु थाय रे ॥ विवेक तिसि परें देखियो, प्रमदा परणी आय रे ॥ शो ॥ १२ ॥ नगर नजीक आव्या जिसें, पाखंमी मलिया यारो रे ॥ तव वि वेक देखी करी, सुंदर रूप अपारो रे ॥ शो ॥ १३ ॥ कपट निपट मुख केलवे, बगलानी पर तेहो रे ॥ बोलावे आडा फरी, वश करवा धरि नेहो रे ॥ शो० ॥ १४ ॥ मित्र सुणो इक वारता, बेसी शीतल बाया रे ॥ नग री लोक गुमान बे, अम घर आवो सुहाया रे ॥ शो ॥ १५ ॥ संकीर्ण पुरमें अने, आ रुसना जायगा रे ॥ खिजमत करसां में घणी, हैडे ध रि मन रागा रे ॥ शो ॥ १६ ॥ पुरनृपलं पण थाहरे, वडो केहो का जो रे ॥ उनारो नृपनो नलो, आसंग न करो ताजो रे ॥ शो ॥ १७ ॥ वली ए राजा एहवो, टाढो शीलो होय रे ॥ काम न काढे केहनो, मुनि वर सो मुख जोय रे॥ शो० ॥१७॥ माया बोडावे मनथकी, प्रीत रीत नवि जाणे रे ॥ शत्रु मित्र सरखा गणे, आप रुखो एक ताणे रे ॥ शो ॥ १५ ॥ स्वार्थ में पण एहनी, उदासीनता लाने रे ॥ तुं प्राणी नोलो अ ने, बाथ जरे कां बाजे रे ॥ शो ॥ २०॥ लोकाचार न लेखवे, तोष रो षन जणावे रे ॥ पुरुष वेदन को नहिं,नेदन कोइ न पावे रे ॥शो॥१॥ निंदा स्तुति बेक मली, श्म पाखंमी कीधी रे ॥ धर्ममंदिर कहे सांजलो, विवेकतणी मति सीधी रे ॥ शो० ॥ २२॥ सर्वगाथा ॥ १५५॥
॥ दोहा ॥ ॥ वली पारवंमी बोलिया, वीर विवेकने एम ॥ अम ठाकुरने सेवजे,म नवंबित लहे जेम ॥१॥पाले ताडे फिर करे, हरि हर ब्रह्मा देव ॥ जग सघलोही जुगतिगुं, अहनिश सारे सेव ॥ २ ॥ जीर करे नगतांतणी, य रि नाखे नथेड ॥ सेवक सखरा एहना, को न करे तसु बेड ॥३॥ तूपयां
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. प्रजुता दे सही,रूठ्यां ले जनाल.॥ परतो श्रम देवातणो,श्रावी नजर नि हाल ॥४॥ मोदनणी जो चाह ,अलवे देशे एह ॥ शिव दे ने जिन पण सही, कष्ठ त्यागगुं तेह ॥५॥ खातां पितां विलसतां, जो लानीजें मोक्ष । निज मारग लाधां थकां, कोण ले विषमो दोष ॥६॥ जंगम स्थावर एहना, सेवक सघला लोक ॥ कोई विरलो होश्सी, जिन रवि दर्शन कोक ॥ ७ ॥
॥ढाल नवमी ॥ ॥ श्रीचंश प्रनु प्रार्णा रे ॥ ए देशी ॥ वीर विवेक वदे इस्युं रे, उत्तर या सार रे ॥ सिंह तणी परें गाजियो रे, पर मत मान उतार रे ॥वी० ॥१॥ मुझने तुमें, केम नोलवो रे, सरस्वतीने श्यो पाठ रे ॥ वचन तमा रां वावला रे, चंदन नहिं वंश काठ रे ॥ वी० ॥ २॥ में मिथ्यामति तुम तणी रे, जाणी ने निर्धार रे ॥ धूवाडे करी जाणियें रे, पाप करो उपचार रे ॥ वी० ॥३॥ देवनणी थे उलव्यो रे, उहित देव प्रकाश रे ॥ मोहतणा थे मित्र बो रे, तुमयु केहो वास रे ॥ वी० ॥४॥ देवानो जे देव ने रे, श्री वीतराग विशेष रे ॥ पाच बते कोण काचने रे, हाथ ग्रहे कुए देख रे॥ वी०॥५॥ कंचन पीतल अंतरो रे, खजु सूरज जेम रे॥ तृण तरुवर नो अंतरो रे, देव कुदेवनो तेम रे ॥ वी० ॥ ६ ॥ निष्कलंकी जिन देव ने रे, उज्ज्वल अनुपम एह रे ॥ दोष वशे करि दूषवो रे, पण ए गुणनो गे हरे ॥ वी० ॥ ७॥ दृष्टिराग में दो हिलो रे, मूक्यो क्युंहि न जाय रे ॥मो हें घेला माणसां रे, सूधो नावे दाय रे ॥ वी० ॥ ७ ॥ मूको मिथ्यावादने रे. गुण ऊपर करो राग रे ॥ शम दम संतरसी खरो रे ॥ कां बोडो ते माग रे ॥ वी० ॥ ए॥ मदन नहिं मद लोनता रे, तृमा नहिंय तरंग रे॥ विषय विकार इन्श्यितणा रे, नहिं रामानो संग रे ॥ वी० ॥ १० ॥ मम ता रमता रोषता रे, हास्य विलास न तास रे ॥ याशापाश न वासना रे, एहवा गुण प्रकाश रे ॥ वी० ॥ ११ ॥ देव नलो दिलमां धरो रे, नूलो नूं में नर्म रे॥ श्रीवीतराग विना नहिं रे, दाता शिव सुर शर्म रे ॥वी॥१२॥ संसारी सुख कारणे रे, लीजें वस्तु जिकाय रे ॥ तास परीक्षा सदु करे रे, एहनी क्युं नवि थाय रे ॥वी०॥१३॥ तत्त्वपरीक्षा जोग ने रे, मानुष मोटी जात रे ॥ ते लही परमादें करी रे, न धरे नांति उनांत रे॥वी॥१४॥ ते पशु नर रूपें करी रे, शृंग नहिं पुन कोय रे ॥ नूला नवथटवीविषे रे,
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
३७
नूला मृग सम जोय रे ॥ वी० ॥ १५ ॥ देव तमारा देखिया रे, रागी सा गी एह रे || वामा कामी मोहिया रे, निपट विटंब प्रवेह रे ॥ वी ॥ १६ ॥ मुक्ति हुवा कां श्रवतरे रे, दैत्य निपाया कांय रे || खेले कां संत होने रे, मायायुं मनसाय रे ॥ वी० ॥ १७ ॥ शस्त्र घरे माला धरे रे, नार धरे अंगमांही रे || वाहन बेसी चालतां रे, ए देव शोना नाहीं रे || वी० ॥ १८ ॥ जगन उपायों तिल समे रे, व्याधि जरा दुःख रोग रें ॥ नीपाया कां जालि नेरे, जगवंताने क्रम जोग रे ॥ वी० ॥ १९ ॥ यात्म दिश व्योम काज जे रे, वस्तु खमित एह रे || कुण उपजावे एहने रे, यादि न लाने बेह रे ॥ वी० ॥ २० ॥ मुख्य यात्म इव्य प्राखियां रे, ज्ञान. ते सकल स्वरूप रे || एह विना यें जाणजो रे, सघलो बे अंधकूप रे ॥ वी० ॥ २१ ॥ सक ल पदारथ शाश्वता रे, इव्य गुणें करि होय रे ॥ परजाय फिरता रहे रे, एह स्वनावतुं जोय रे ॥ वी० ॥ २२ ॥ राजस तामस सत्त्व जे रे, एह उपाधि संसार रे ॥ ज्ञानादिक गुणें शोजतो रे, देव तिको निर्धार रे ॥ वी० ॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ वली पाखंमी बोलिया, सुण विवेक वर वीड ॥ कर्मजोगमें पण कहां, ते शिव दायें हीर ॥ १ ॥ जिए जेवो क्रम याचस्यो, तेहवं फल दें ईश ॥ एह वचन सुणि ति समे, विवेक वदे मन हींस ॥ २ ॥ कर्मानुसारी तुमत ो, देवदु निर्धार ॥ तो क्युं थें कर्मा जली, नवि मानो सविचार ॥ ३ ॥ कर्मव जगजीवडा, सुख दुःख लाने जोय || पण परमेश्वर केहने, नलो बुरो नहिं होय ॥ ४ ॥ थें खाखो जिन देव ए, रूसे तूसे नाहिं || एह वात साची सही, पण चरिज इमांहि ॥ ५॥ नक्त तिके सहजें लहे, अनुपम लील विलास ॥ नक्त नहिं जे जिन तला, ते लहे बंधन पास || ६ || ऋतु वसंत बाया नहे, तरुवर नवलां पान ॥ वली वारद वूठे थके, सघले वाधे वान ॥ ७ ॥ इणे दृष्टांतें सुख लहे, जिनवर सेवे जेह ॥ सहेजें समियो ला जिने, शिव पण पामे तेह ॥ ८ ॥
॥ ढाल दशमी ॥
॥ मन मधुकर मोही रह्यो । ए देशी || विवेक कहे वली सांजलो, तु मचा देव ने एह रे || पाले ताडे लोकने, शूरा सखरा एह रे ॥ वि० ॥ १ ॥ ए गुण देखी रंजिया, तो जग जींत्या राय रे ॥ देव कहे सघना सही, नु
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
क्ति मुक्तिना दाय रे ॥ वि० ॥ २ ॥ गोपी वहाली जेहने, तेने कीधो देव रे ॥ मूढमतें एम वर्णवो, मुक्ति दासी करे सेव रे ॥ वि० ॥ ३ ॥ कोप शा
देवे घणा, अर्धाग राखे नार रे || नाटक हास्य विलासियो, क्युं ते देव विचार रे ॥ वि० ॥ ४ ॥ पूजा शोना देखिने, हर्ष धरे मनमांहि रे ॥ खावे पीवे खुश करे, देवपणुं ते नांहीं रे ॥ वि० ॥ ५ ॥ लोक घणे सेवक जये, तो ते देव न थाय रे || मोहता सेवक घणा, देव करो मन लाय रे ॥ वि० ॥ ६ ॥ संसारी करणी करे, मन रहे मनमांहि रे ॥ देव म जालो ते हने, मृगतृष्णाजल नाहीं रे ॥ वि० ॥ ७ ॥ देव निरंजन ध्याइयें, ध्यान धरी शुद्ध होय रे ॥ अंतर यांख उघाडीने, जात नली परें जोय रे ॥ वि० ॥ ८ ॥ साधुं रूप जाण्या विना, चूजे बे संसार रें ॥ पण परमार्थे प्री जो, सीप ए रूपुंसार रे ॥ वि० ॥ ए ॥ साचो देव नही करी, जूतो नावे दाय रे ॥ दरसमु नही करी, खारे जल कोण नहाय रे ॥ वि० ॥ १० ॥ महारुं नाम विवेक बे, समजावुं सब लोय रे ॥ ऊवेरी जाणे यांतरो, काच मणिमें होय रे ॥ वि० ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ २०४ ॥
॥ दोहा ॥
॥ इण वचनें पाखंमीने, जीपि नगरमें श्राय ॥ माता मुनिशाला रही, सुतपुर देखे जाय ॥ १ ॥ ति अवसर हवे निवृत्तिनो, मनमंत्री पियु सार || बहु विरहो न खमी शक्यो, खायो मिला विचार || २ || पियु बोल्यो सुप हे प्रिया, तुंगुन नारी होय ॥ मु वचनें तुं नीसरी, रोप न यायो कोय ॥ ३ ॥ तुं सत्यवंती साधवी, सूधी सखरी नार || तब में प्र वृत्ति वरों करी, दीधी चित्त उतार ॥ ४ ॥ इक दिन तुऊ गुण सांनखा, ति से मिलवाने खाय ॥ तुऊ सुत वीसरतो न बे, गुणवंत यावे दाय ॥ ५ ॥ तु सुत परण्यो ति समे, हुं पण बानो तेथ ॥ गुप्तपणे श्राव्यो हतो, विमलबोध बे जेथ ॥ ६ ॥ वारु वीर विवेक ए, परणी तत्त्वरुचि नार ॥ करशे काम जिको हवे, तिहां यावीश संचार ॥ ७ ॥ दोष न खायो पा बलो, पियुशुं दिलमिल होय ॥ सोवन जागोही मिले, पर न मिले कोय ॥ ८ ॥ एह वचन श्रवणें सुणी, कुलवंतीने कोश | पगधुं पाठा ठेलियें, तोही न प्राणे रोप ॥ ९॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
॥ ढाल अग्यारमी ॥ ॥ दरिया मन लागो ॥ ए देशी ॥ इक दिन माता सुत जणी, शीख कहे मन लाय रे॥ सुत सुण सोनागी ॥ तुं माह्यो शाणो अडे,मात नणी सुखदाय रे ॥ सु० ॥१॥ हित वाणी पाणी जणी, राखण तुं ने जोग रे ॥सु०॥ पक्कघडो काचो नहिं, साचो सखर संयोग रे ॥ सु० ॥ २ ॥ हितवाणी कामधेनु डे, सतपुत्रकाने आय रे ॥ सु०॥ उष्ट कुसुत मातं गने, घरमां कहो क्युं जाय रे ॥ सु०॥३॥ सघलांने रुचती नथी, गुरु जन वाणी एह रे ॥ सु०॥ अमृतथी अधिकी अजे,जाणे स्वादी जेह रे ॥ सु० ॥ ४ ॥ शुन उपदेश विना फिरे, नर नारी जगमांहि रे॥ सु०॥ लाव एय लक्षण बाहिरा, झान हैये जसु नांहीं रे ॥ सु० ॥ ५ ॥ मात वाणी जाणे सही, अमृत धारा मेह रे ॥ सु० ॥ उखर देवतणी परें, मत देखा डे बेह रे ॥ सु० ॥ ६ ॥ प्रवृत्ति शोक्य शमवा जणी, कीजें कोई उपाय रे ॥ सु ॥ एह अवस्था तिणे करी, जमवारो क्युं जाय रे ॥ सु० ॥ ७ ॥ पियु वियोग स्थान मुंशता, सुबुद्धि तणो नहिं योग रे ॥ सु०॥ ए कुःख सघलां नवि गणुं, गुनपुत्रने संयोग रे ॥ सु० ॥ ॥ धन नरिया नंमार जे, खातां खूटी जाय रे ॥ सु० ॥ अदयनिधि पुत्र संपदा, संसारीने था य रे ॥ सु०॥ए ॥ माता सदाइ पुत्रनी, आशा राखे नूर रे ॥ सु० ॥ ते तुज पुत्र रतन्नथी, क्युं मन न रहे सर रे॥ सु० ॥ १० ॥ सुकरी रास नीने घणा, पुत्र दुवा शी सिम रे ॥ सु०॥ सिंहिणी एको सुत जणे, स घलोई सुख दीध रे॥ सु०॥ ११॥ कुलमंदिर दीपक सही, कुलजामि नीचंद रे ॥ सु० ॥ कुलगाडी धुर धवल डे, सुपुत सदा सुखकंद रे ॥सु० ॥ १२॥ तमरूप वैरी वश करे, मील कमल ननास रे ॥ सु०॥ सुपुत्र सू रज नगे थके, शोनावे घरवास रे ॥सु०॥१३॥ हवे तुं ए नगरीनो ध एणी, सेव निरंजन देव रे॥सु० ॥ जास प्रसाद लह्यां थकां,सकल करे तुऊ सेव रे ॥ सु० ॥ १५ ॥ मोह महीपति जीपता, कपर करसी एह रे ॥सु ॥ सेवक पण एहना अडे, मोह दावानल मेह रे ॥ सु० ॥ १५॥ उलग करजे एहनी, पाठ पहोर अप्रमत्त रे ॥ सु० ॥ साचो कतरजे सही, सा च नलो जग मित्त रे ॥ सु० ॥ १६ ॥ न रुचे कूड ए स्वामीने, कांई ति ल तुष मात रे ॥ सु० ॥ सेवा प्रमादने वेर ने, गाय अने वाघ जात रे॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
४० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥सु० ॥ १७ ॥ लक्षण ए ते स्वामीना, सेवक चूका जाग रे ॥सु० ॥ प्र मादने वश दुइ रह्या, मोहें सीधा ताण रे ॥ सु०॥ १७ ॥ तेनणीप्रमाद बोडीने, खीजमत करजे खास रे ॥ सु० ॥ प्रस्तावें सघली करे, आ पणी जे अरदास रे ॥ सु०॥ १ ॥ शीख इसी माता तणी, शीश चढाई तेण रे ॥ सु०॥धर्ममंदिर कहे हवे सुणो, विवेक वदे हरखेण रे ॥सु॥२०॥
॥दोहा॥ ॥ पय प्रणमीने बोलियो, मीठा वचन विचार ॥ नर पशु पंखीमें स ही, मात दुवे सुखकार ॥१॥ पण साची माता तिका, बाखे शीख सुझा न ॥ हेमकोडि हितकारिणी, नहिं ते शीख समान ॥२॥ मानी ने शीख ते सही, मातु जे जे दीध ॥ सुधाकुंममां नाश्यें, कामगवी पय पीध ॥ ॥३॥ नंदन वन निरख्यो कियो,बावन चंदन लेप ॥ इणि परें सुख मुझने थयुं, सुणि तुम वचन अपेख ॥४॥ माता वचन नथापशे,सो सत पुत्र न होय ॥ सुख नापे माता जणी,व्याधि रूप ते जोय ॥५॥ इम माता हर्षित करी, पयो कुंवर तिवार ॥ माता हाथ माथे धरी, जाये राजवार ॥६॥
॥ढाल बारमी॥ ॥ रामचंके बाग, चांपो मोरि रह्यो री ॥ ए देशी ॥ परखदा बातम नाव, मांहि विराज रह्यो री॥ श्रीजगनाथ नरेंद, निरखी हर्ष गह्यो री ॥१॥ बत्र ढले सिरदार, सिंहासन पर राजे ॥धर्म धनुष धरि हाथ, कर णी खड्ग ते बाजे ॥ २ ॥ तवना बे कर जोड, पय प्रणमी ने करे री॥ तीन नुवननो नाथ, अनुपम शोन धरे री ॥३॥अष्टांग योगना धार, यो ग जोग नले री ॥ हृदय कमल तुज धार, ध्येयगुं जाय मिले री॥५॥ ॥ श्लोक ॥ अष्टांगयोगाः॥संयमो नियमश्चैव, करणं च तृतीयकम् ॥ प्राणा यामः प्रत्याहारः,समाधिर्धारणा तथा ॥ १ ॥ ध्यानं चैतस्य योगस्य, ज्ञेय मष्टांगकं बुधैः॥पूर्णागक्रियमाणस्तु, शुक्रमे स्यादशोचता ॥ २॥ सुर नर न मरा नूर, सेवे पाय सदा री ॥ तुझ पयपंकज सार, मनमें अधिक मुदा री ॥ ५ ॥ ज्योतिरूप जगनाथ, केवलरूप नयो री ॥ स्याहादी सु खरूप, नूप अनूप नयो री ॥ ६ ॥ नाव कर्म मल बोडी, आउँ रूप विरा जे ॥ तो सम अवर न कोय, दिन दिन अधिक दिवाजे ॥ ७॥ नव नव जमतां थाज, दर्शन तुमचो दीगो । बाज अधिकानंद, लोचन अमिय प
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१
श्रीमोदविवेकनो रास. शो ॥ ७ ॥ सुरतरु सम तुं राय, बीजा नूप करीरा ॥ तुं जातिनो हेम, य वर ते धातु कथीरा ॥॥ राम दम सघना नाव,आनंद अधिक घणारी॥ तम सेव्यां लहे लोक, नहिं कां रिक्षि मणारी॥१०॥ रविथी नासे घूक, मोरथी नासे नुजंगा ॥ तेम तुज आगथी दोष,न करे को परसंगा ॥११॥ जंगम स्थावर जीव, तुं सघलां सुखदाइ ॥ मित्र अमित्र समान, ए तुममें अधिका॥१२॥ तुम गुण केरो पार, कहेतां क्युं हि नावे ॥ पण याप एग। मति सार, सेवक नाव जगावे ॥१३॥
॥दोहा॥ ॥ श्म स्तवना जिन राजनी, कीनी वे कर जोड ॥ वली पंचांगें पय न मे, मन मद मबर बोड ॥१॥ कृपा कटादें जोइने, इमबोल्या जिनराज ॥ परखद बारां सांजलो, धरि चित्तमांहि समाज ॥२॥ वीर विवेक कहीजियें, ते ने एह कुमार ॥ नांतो नांत नली परें, तत्त्व बुदिनंमार ॥३॥ ना यक विना सेना किसी,झान विना ज्युं वाणि ॥ जल विण सरवर को नहिं, गुण विण लाल कबाण ॥४॥ धर्म कर्म तिम ए विना, सखरो नावे धात ॥जली बुरी सब नावनी, तुरत लखे ए वात ॥५॥ विकलेनियमां ए नहीं,पशु नरकमें नांहि॥प्रायः नरमां ए वसे, वत्नी आरज कुलमांहि ॥६॥ त्यां पण को विरला कने, पूरण लाने एह ॥ बीप घणी सघली नहि,मोती धारे जेह ॥७॥ अहंकार में नहिं, कृपणनाव नहिं कोय ॥ मीठा बोले मुख हसे, धर्मवंत वलि होय ॥ ७॥ लाजवंत मतिवंत ए, पर दोष ढंकण हार ॥ सुखमाहे मूंजे नहिं,दीन हीन दुःख चार ॥॥ विण उपकारें उपकरे, निर्मल गंग तरंग ॥ मुऊने ते होय वालहो, जे करे एहनो संग ॥१०॥ मुज पें आयो ए सही, अधिकार लेवा काज॥ते नणी एहने में कियो, इण पुर नो शेतराज ॥ ११ ॥ एह वचन नृपर्नु सुपी, सघले कीध प्रमाण ॥ न गरमां हि वासो दियो, कुंवर लहे बहु मान ॥ १२ ॥
॥ ढाल तेरमी॥ ॥ चित्रोडा राजा रे ॥ ए देशी ॥ इक दिन अरदासा रे, करे कुंवर प्र काशा रे, मोह जीपण आशा वासा, आणीये रे ॥ साहिब जिन राजा रे, अति सबल दिवाजा रे, फिर वेरी दुवा छे ताजा, जाणीये रे ॥ १॥ मन महरालो रे, सुःख खेतनो मालो रे, यति पापनो जालो आलो, मोह ले रे
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ विद्या गढ कीधो रे, निज वंबित सीधो रे, जाणे जल ज्युं पोधो, वड ए सोह बेरे ॥ २ ॥ हाथी जला घोडा रें, वली मानव जोडा रे, बहु रा रख्या बे होडा, होडी तुम तली रे | सघलो जग जीत्यो रे, दूबे वदीतो रे, वैरी नीतो बीतो, सदु नए रे ॥ ३ ॥ मोहराजा जोरें रे, खाज स खरो तोरे रे, कहे हरि खावे कोरें, एहने रे ॥ तपसी तप चूके रे, मोह पासें के रे, धर्म सघलो ते खूंटे, जोरे तेहने रे ॥ ४ ॥ कुलवंत कहीजें रे, आचारे बीजें रे, मोहें करी जींजे, रीके रागमां रे || देव दानव नागा रे, इल या जागा रे, पूठा वली नावे सरगा, मागमें रे ॥ ५ ॥ वेद मंत्रना पाठारे, तो पण जाये नाठा रे, इसा मोहना काठा जाठा, कुण सहे रे ॥ पशुपंखी जीत्या रे, जस खाटे वदीता रे, बहु काल व्यतीता, अंत न को लहे रे ॥ ६ ॥ तुम सेवक नांख्या रे, तो पण मोह राख्या रे, कोइ जोर न चाले पाले, को नहिं रे ॥ अतुली बज दीसे रे, पाप विशवा वीशे रे, सघलानां मन हींसे, वे सही रे ॥ ७ ॥ तमचो मुख जोइ रे, हरखे सब कोइ रे, पर पूछें न हो, हमणां वे जिस्या रे || मोह राय लेखे रे, जग सघलो पेखे रे, जाणो विशेषें, हमलां ए दशा रे ॥ ८ ॥
❤
॥ दोहा ॥
॥ वली विवेक वांचे घणा, मोहतणा अवदात || जगगुरु तुं सब जा एग े, तो पण सुजो वात ॥ १ ॥ जीव हणावे लोकपें, फूट शीखावे जोर ॥ वाट पडावे धन हरे, परदारक प्रति घोर ॥ २ ॥ बज बल साधे प्रति घणा, जोडे धननी राश || लोलुप लोनी लंपटी, व्यसन न मूके पा स ॥ ३ ॥ शीखावे सघला भए।, पापती बहु वात ॥ संतति सखरी हो यसी, गरवतो करो घात ॥ ४ ॥
॥ ढाल चौदमी ॥
॥ वेगवती तिहां बांजणी ॥ ए देशी || मोहतणो महिमा सुणी, नवि जन श्रातम जावो रे || उदय अधिक यावे बते, वाधे मोहनो दावो रे ॥ मो० ॥ १ ॥ पूजावे पीपलनणी, देवरावे दवदारो रे || पावस पात्रने पो पियें, ए ए मोह विकारो रे || मो० ॥ २ ॥ लाख पीपी फल जेहनां, कृमि कीटको हो रे || पीपल पीतरा उद्धरे, ए ए मोह हो रे || मो० ॥ ३ ॥ पूजावे निर्जीवने, नागतणे याकारो रे ॥ सापती हिंसा करे, ए ए मोह
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३
श्रीमोदविवेकनो रास. विकारो रे ॥ मो० ॥ ४॥ शत्रु वडो संसारमां, पावक पाप निधानो रे॥ पूजीजें पुण्य कारणें,ए ए मोह विधानो रे ॥ मो० ॥ ५॥ आरंन अधिका जेहथी, वाधे नवजल पूरो रे ॥ कन्यादान कहीजियो, ए ए मोह अंकूरो रे ॥ मो० ॥ ६ ॥ बाहिर शुचि जलथी दुवे, तिहां माने धर्मनावो रे ॥ ती थैकरजीन आदरे, ए ए मोह सनावो रे॥मो॥७॥ माखी मधु दानें दिये, होमे धान्य अपारो रे ॥ धर्म बुद्धि तिणझुंधरे, एए मोह प्रकारो रे ॥मो० ॥ ॥ पति मूकी पर पुरुषने,सेवे साहमी शुदि रे ॥ एकाकार करी मली, ए ए मोह कुबुद्धि रे ॥ मो० ॥ ए ॥ सुरनि मुख पुढे कहे,बदु देवोनो वा सो रे ॥ शुरू कहे मल मूत्रने, ए ए मोह विलासो रे ॥मो० ॥ १० ॥ सं सारी देवां कने, मागे मोद गमारो रे ॥ गेहीने गुरु करि गणे,ए ए मोह विकारो रे ॥ मो० ॥ ११ ।। गेही धर्म महोटो सही, जसु आश्रय सब को यो रे ॥ इम बोले जगमा घणा, मोहें मोह्या लोयो रे ॥ मो० ॥१२॥ सोनानी सुरनि करी, मंत्र जपी विप्र लेह रे ॥ नाग करी वहेंची लिये, ए पण मोहना गेह रे ॥ मो० ॥ १३॥ कर्षणी कहे अम उपरा, धर्मी केहा होय रे ॥ पशु पंखी नर कण ग्रहे, अमथें मोह ए जोय रे ॥ मो० ॥१४॥ वेद पुराणें पालियो, वली मार्कम पुराणो रे ॥ निशिनोजन क र नहिं, समजो चतुर सुजाणो रे ॥ मो० ॥ १५॥ सूरज किरणें फरसि यो, गंगारो पण पाणी रे ॥ पीवा योग्य पावन अजे, निशि नवि पीवे धी रो रे ॥ मो० ॥१६॥ एह वचन निज ग्रंथरो, माने नहिय लगारो रे ॥ रसना लोनी दूर रह्या, ए ए मोहविकारो रे ॥मो० ॥१७॥ अवर घरे बेठो पिता, पिंम लहे नहिं नोरा रे ॥ मूढमति मूंकी रह्या, ए ए मोहना दोरा रे ॥ मो० ॥१॥ तो परनव पहोतो पिता, निज घर बेतो पुत्रो रे॥ पिंम दियो पहोंचे नहि, परतिख देख पवित्रो रे ॥ मो० ॥ १७ ॥ परणावे वृदा जणी, चेतननी परें जागी रे ॥ ग्रंथ रचे व्यनिचारना, ए ए मोह नी खाणी रे ॥ मो० ॥२०॥ चेतनने माने नहिं,शून्य गिणे संसारो रे॥ क्षणिकवाद केई धरे, मोहतणा विस्तारो रे ॥ मो० ॥१॥ काननमां मृ गलां रहे, सूकां तृण आहारो रे ॥ ते मृग मारे मानवी, ए ए मोह प्रका रो रे ॥ मो० ॥ २२ ॥ मोह सोह बाधा घणी, राज्य वध्यो अति जोरो रे ॥ तमची आणा माने नहिं, बल बलि को फोरो रे॥ मो० ॥ २३॥ ती
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. न लोक नायक तमें, मोह ईशं पणएमो रे ॥ एक मियानमांहे कदा, ख ग रहे बे केमो रे ॥ मो० ॥ २४ ॥ तम सेवक लीजीयें, नेट नली सो वारो रे ॥ जोरो तोरो जाबतो, जाग जितरो विस्तारो रे ॥ मो० ॥ २५ ॥ वैराजो ए दुइ रह्यो, साहिब गरिब निवाजो रे ॥ धर्ममंदिक कहे ते सुणो, जे बोल्या जिनराजो रे । मो० ॥ ६ ॥
॥दोहा॥ ॥ वत्स स्वन मति ताहरी, तुं विवेक वड वीर ॥ उपकारें ए वीनति, नविकतणी करे नीर ॥ १ ॥ हुँ झानें देवू अर्बु, सघलीही ए वात ॥ कर्म उदय अधिको अडे, तिण नहिं बणती धात ॥ ॥ धीर वीर पुरुषे घणो, वध कीधो बदु वार ॥ पण ए फिर फिर पालवे, अनंतकाय अनुहार ॥३॥ महोटो खल ए मोह बे, महोटो रिपु ए जाण ॥ विषम व्याधि वारु नहिं, विष नरियु ए वाहा ॥४॥
॥ ढाल पन्नरमी॥ ॥ दण लाखेणो रे जाय ॥ फूलडानी देशी ॥ मोहवशे वली मानवी रे, मातागुं करे प्रेम ॥ मदमाती ने कामिनी रे,ग्लटी चाले एम॥ विवेकी,धि क् धिक् मोह विकार ॥ संसारी प्राणी जणी रे, नव जल एह अवतार ॥ वि० ॥१॥ पति परदेशे पूरलें रे, पर नरगुं रमे रंग ॥ गर्न तजे मलनी परें रे, न करे करुणा संग ॥ वि० ॥ ॥ जनकतणो वली जोयजो रे, सु तशुं प्रेम नदार ॥ धन प्रजुता लुब्धोथको रे, घात करे अविचार ॥ वि० ॥३॥ मात पिता मूके सही रे, नाइ बेहेन सगीन ॥ प्राण तजे प्रेमें करी रे, वनिता वचन अाधीन ॥ वि०॥४॥ देश फरे गिरि शिर चढे रे, संघे न दीय नवाण ॥ जे कामणने कारणे रे, ते पण न करे काण ॥ वि० ॥५॥ प्रेम घणो सुतरां धरे रे, माता वलिय विशेष ॥ धोवे मल मूत्र धूरथकी रे, विरचे नव नव वेप ॥ वि०॥ ६ ॥ परणावे प्रेमें करी रे, सुंदरि सुंदर देख ॥ यौवन मदमातोथको रे, न धरे वचननी रेख ॥ वि० ॥ ७ ॥ धरती धन लोनीथकां रे, धंध करे मिलि नाय ॥ कथन को माने नहिं रे, चाले आ पणी दाय ॥ वि०॥ ॥ काया कंचन सारिखी रे, उपरथी देखाय ॥ शा रद संध्यावान ज्यु रे, कृणमें खेरू थाय ॥ वि० ॥ए॥ माया बाया सारिखी रे, घन धन मेले रे जेह ॥ स्थिरता ते रदेशे नहिं रे, तडके
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५
श्रीमोदविवेकनो रास. लागे त्रेह ॥ वि० ॥ १०॥ आश्रव अधिका मेलिया रे, नव नव बंधन थाय ॥ काम क्रोध लहरी वधे रे, ज्युं जल पवन पसाय ॥ वि० ॥११॥ मात पितादिक एहवा रे, सघला सखायी न होय ॥ पण संसारी प्राणि या रे, प्रायें एहवा जोय ॥ वि० ॥ १५ ॥ ज्युं बीली बिलमें अड़े रे, सा पां केरो वास ॥ पण आशंका आणि रे, इम समदिहि उदास ॥ वि० ॥ १३॥ सागर तरतां सोहिलो रे, दव लायो रे जाय ॥ सुर सान्निध्य गिरिने खणे रे, पण वश मोह न थाय ॥ वि० ॥ १४ ॥ नूरख्यो राक्स राखियो रे, तीखे शत्रु सहाय ॥ मीण दांत लोह चावियो रे, पण ए विष म कहाय ॥ वि०॥ १५॥ सेवक पण जे मोहना रे, स्वामी सरिखा रे ते ह ॥ कण कण कीधा फिर मले रे, पारद नारकी जेम ॥ वि० ॥ १६ ॥ अनादि अनंत पण ए सही रे, अनादि सांत पण एह ॥ सादि सान्त पण जे अ रे, तुमची संगति जेह ॥ वि० ॥१७॥ मोह एह बहु रूपियो रे, सेवक पण बदु रूप ॥ एकाकी प्राणी नणी रे, लागी रह्या वदे नूप ॥ विo ॥ १७॥ तुज वेलीथी एहना रे, बेली अनंत अपार ॥ क्युं जीपाये वेगलॅ रे, तुहिज आप विचार ॥ वि० ॥१५॥ चंप करी हमणां ते जणी रे, अ वसर समयो देख ॥ शिव साधे समवायगुं रे, ए स्याहाद विशेष ॥ वि० ॥२०॥ मोहवशे होवे जिणे रे, तेह अजे प्रतिकार ॥ ते पण कहिशुं तो नणी री, सुण एक अपर विचार ॥ वि० ॥ ११ ॥
॥दोहा॥ लोक तणे अंते अडे, उंची अनुपम सार ॥ सिहपुरी नामें नली,स घलामां सिरदार ॥ १ ॥ नव्यनणी जे योग्य से, पण करे विरलो वास ॥ हेम संग लाने नहिं, सघली माणिक राश ॥२॥ जन्म जरानुं कुःख नहीं, आपद गर्न न वास ॥ धन मन बंधन को नहीं,बातम सहज विलास ॥ ३ ॥ आधि व्याधि बाधा नहिं, शीत रीत नहिं काय ॥ नूप धूप रूप रंग शा, विरस फरस नहिं थाय ॥ ४ ॥ केवल केवल ज्ञानमां, परनो नहिं प्र संग ॥ ज्ञान सुधा करि थापिया, परम उन्नास उतंग ॥ ५ ॥ ते पुरनी इवा करी, यत्न करे बहु लोय ॥ पण फिर मोहतणी पुरी, पामे प्रापत सोय ॥ ६ ॥ शिवपुर मग जाणे नहिं, जूठो मारग जाल ॥ मुग्ध मीन ज्यु मानवी, फसी रहे जग जाल ॥ ७॥ ज्ञान क्रिया वैराग्य तिम, मारंग सू
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. धो जेह ॥ सईहणा साची नहिं, नामक नावे तेह ॥ ७ ॥ निकट मुक्ति जे जेहने, ते पण मोह बलाय ॥ सागर कंठे पण रह्यो, पोत चलावे वाय ॥ए ॥ मोहथकी बीये घj, शिवपुर जावणहार ॥ बोलावीने तेहने, क रजे हर्ष अपार ॥१०॥ तूं साथें दूयां थकां, नय नहिं तेहने कोय ॥ गरु ड पंखीथी नासही, जुजंग जाति जे होय ॥ ११ ॥ पहेला पण शिव पुर तो,मारग वह्यो एम॥इणिपरेंराजा थाखियो,तहत्ति कियो सब तेम॥१२॥
॥ढाल शोलमी॥ ॥ वधावानी देशी ॥ वधावो हे वीर विवेकने, जगनाथे हे बापणो जा पी दास के ॥ पुण्यरंग पाटण आवियो, राज्य दीधुं हे मानुं नानु नन्नास के ॥ व ॥१॥ सेवक सखरा थापिया, साथ पूरो हे शूरो सुगुण सनूर के ॥ साहिब दुकम कियो वली, तुऊ ससरो हे विमलबोध पमूर के ॥ वo ॥ ॥ तेहने निजपुरनी धरे, कोटवाली हे दीजें सुखकार के ॥ वनपाल कता मूकशे, मुज वचनें हे न्यायें सुविचार के ॥ व ॥३॥ आदेश लेई तिहाथकी, वीर आयो हे निजपुरने नाम के ॥धर्म ध्यान ध्वज ागलें, मुख आगे हे धागें करि अनिराम के ॥व०॥४॥ माता मन आनंदा, वाल वनिता हे वनिता लीधी साथ के ॥ प्रेमनिधान प्रतीतनी, घरमांहे हे मांहे प्रथम ए बाथ के ॥ व०॥ ५॥ जय जय शब्द दुवे घणा, गुण गावे हे जावें गुणि जन सार के ॥ पुण्यरंग पाटणराजियो, सिम विद्या दे विद्याधर ज्युं तार के ॥व०॥६॥ वाजित गुरु उपदेशनां, अति वाज्यां है गाज्यां गुहिर गंजीर के॥ आमंबर अधिको करी, पुर पेठो हे साथें वडवीर के ॥ व० ॥ ॥ महोटा महाजन आविया, राज मुजरो हे कीधो उदार के॥ आनंद अधिक दुधा घणा, पुरमांहे हे वरत्यो जय जयकार के ॥व० ॥॥ कोटवाल ससरो कियो, प्रवाणी हे जाणी कीध प्रमाण के ॥ ढंढेरो करुणा तणो, पुर फेयो हे फेखो वीरनी आण के॥ व० ॥ ए ॥ दूर कीया पापी नरा, पुण्य धारी हे सारी नगरनो वास के ॥ उष्ट उर्दीत जन काढि या, राख्यो नहिं हे तिहां बसनो पास के ॥व० ॥१०॥ राज्य जलो हवे जोगवे, शिव मारग हे मार्गनुं मुख तेह के।जोलावे नवि साथने, जव वारें हे सारे सुख गुणगेह के ॥ व० ॥ ११ ॥ माताने सुखणी करी, जसु सी खें हैं दुधा नवेय निधान के॥ मन मंत्री पण वेगा, आवे जावे हे प्रम
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
%3
श्रीमोदविवेकनो रास.
४७ दा प्रेम निधान के ॥ व०॥ १२॥ अचरिज धरतो मंत्रवी, सुत देखी हे पेखी हर्ष अपार के ॥ लाज रहे सुत पुत्रथी, नवि निंदा हे नानोही नरसार के ॥ व० ॥ १३ ॥ वीर विवेक वाध्यो घणुं, सुख पायो हे श्रीजि नचंद पसाय के॥त्रीजो खंम पूरो थयो, ए सुणतां हे नविजन आवे दा य के ॥ व० ॥ १४ ॥ दयाकुशल पाठकवरु, तसु शिष्य हे धर्ममंदिर गणि सार के ॥ ए संबंध कियो नलो, सुखदायी हे श्री संघने जयकार के ॥व०॥ १५ ॥ इति श्री प्रबोधचिन्तामणौ ढाल भाषा प्रबंधे पंमित धर्म मंदिरगणिविरचिते मोहराजविवेकपाणिग्रहणप्राज्य राज्यप्राप्तिवर्णननामा तृतीयःखंमः संपूर्णः ॥ ३॥
॥ अथ चतुर्थ खंम प्रारंनः॥
॥ दोहा॥ ॥ श्रीगुरु चरण प्रसादथी, लहियें लील विलास ॥ मंगल माला संप जे, दिन दिन अधिक उल्लास ॥ १ ॥ तिण प्रस्तावें मोह हवे, नगरीय विद्यामांही ॥ चार्वाक मित्र जणी कहे, इक दिन वात उन्हाही ॥ २ ॥
आजसमे मो उपरें, ष धरे नहिं कोय ॥ एक विवेक विना सदु, परम मित्र जग होय ॥३॥ पहेले पण बल बल करी, मुजने जीत्यो एण ॥ ते वेला मुफ संनरे, नीति रहे जे तेण ॥४॥ चार्वाक तव बोलियो, मो हराय सुण सिंह ॥ शाल कंगाल विवेक , तिणसुं केहो बीह ॥ ५ ॥
॥ ढाल पहेली॥ ॥ वेगें पधारो हो महेलथी ॥ए देशी ॥मबरालो मोह बोलियो,चारवा क सुण मित्र॥नेद न जाणे तुं एहनो, बानी बुरी ए रात्र ॥म॥१॥ मनमंत्री मूरख थयो, जीवतो मूक्यो एह ॥ में पण न कहुं मंत्रीने, केद करी धरो एह ॥म०॥२॥ण क्षेषी जीवता बतां, क्युं सुख पामे जीव ॥ एको रो गज अंगमां, उन्माद रहे जस जीव ॥ म० ॥ ३॥ विरुन वैरी जागतां, निश्चित सुए जे राय ॥ बंध दु ते जाणजो, नीतिवचन कहेवाय ॥ म० ॥४॥ नानो वैरी न जाणियें, विश्वास न धरो तास ॥ मनमें वलगी कीटि का, हाथीनो करे नाश ॥ म ॥ ५॥ अवगुणियें नहिं रिपु गुणी, नानो सो पण जेह ॥ द अंकूर उग्यो थको, प्रासाद पाडे तेह ॥ म० ॥ ६ ॥
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कुःख पाम्यो नानो थयो, पर हथ दून जोय ॥ हलाहल विष तिल समुं, कुःखदायी क्युं न होय ॥ म०॥ ७॥ कबश्क फिरतां जायसी, प्रवचन पु रमां वास ॥ तो हाथे थावे नहिं, जिम सिंह गिरिमां निवास ॥म ॥॥ राजनीति मांहे कयुं, वैरी निज वश राख ॥ परवाणी कानें सुणी, दैत्य स मोवड नाख ॥ म०॥ए॥ खरी खबर लीधा विना, साल समान ए था य ॥ खबर जणी चर मूकियें, ए मुफ आवे दाय ॥ म० ॥ १० ॥ मित्र कहे वारु थडे, साहिब एह विचार ॥ तुरत तेडाव्या तिणे कणे, आखे स कल प्रकार ॥ म०॥११॥ पाखंमादिक दंन वली, सखरा सेवक जेह ॥ शीख कहे नृप तेहने, काम करो ससनेह ॥ म० ॥१२॥ पुत्र सहित निट त्ति वधू, किहां नाठी किण नाम ॥ जग सघलो ढूंढी करी, खबर करो अ निराम ॥ म० ॥ १३ ॥ स्वामी वचन शीशे धरी, सेवक चाव्या ताम ॥ शू रवीर साहसिकधरु, स्वामीतां करे काम ॥ म॥१४॥ गाम गाम पुर ते फरे, वन वन तरु तरु तेह॥ वानरनी परें जोवता, स्वामी धर्म सस्नेह ॥ म० ॥१५॥ यत्न करी जूवे घj, पण को न कहे वात ॥ पग पग पूज्या अति घणा, न पडी गुरू तिल मात ॥ म०॥ १६ ॥ फरतां दूर देशांतरें, पुण्यरंगपाटण जाय ॥ वात सकल तिहां किण लही, पण पुरमा न ज वाय ॥ म० ॥१७॥ बाना बाहार ब्रूपी रह्या, को तरुनो ले संग ॥ कोट वाल तिहां नीसयो, चोकी करतो चंग ॥ म० ॥१७॥नाग्य जोग यावी जुडी, दूषणा ऊपर चोट ॥ सिदि दुवे क्युं तेहने, जसु दिलमांहे खोट ॥ म० ॥१॥ कोटवाल सम कालिया, काठा बांध्या तेह ॥ समकित नटने वश कस्या, ताडन तरजन देह ॥ म० ॥ २०॥ मिथ्यामती पाखंम वली, दंन प्रमाद विशेष ॥ समकित शूरें कूटिया, मोहता दास देख ॥म ॥ २१॥ विवेकतणी तिण शुधि लर, ताडन पण लही तेथ ॥ हर्ष विषा द बेदु लह्या, पुण्यरंगपाटण जेथ ॥ म० ॥ २२ ॥
॥दोहा॥ ॥ बाना नाग तिहांथकी, रही न शक्या तिहां तेह ॥ जिम दावानल देखीने, मृग नासे लेइ देह ॥१॥ मोह नणी यावी मल्या, प्रणम्या स्वामी पाय ॥ विलखाणा ते देखीने, मोह वदे चित्त लाय ॥२॥ तुमचो मुख था खेय ने, जागा याव्या बाज॥में आगेंही जाणियो,तुमथी नदुवे काज ॥३॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविनेकनो रास.
॥ ढाल बीजी॥ ॥ देशी पारधियानी॥अथवा ॥बांगरियानी॥अथवा ॥ उर्गपाल दलेलगुं रे, उत्तर पाडो देह रे॥ पुरोहितजी ॥ए देशी ॥ वली राजा म बोलियो रे, मुफ नट दंन कहाय रे॥ दंन दरिया ॥ ते नवि दीसे स्थानकें रे,जीवन स म मुज थाय रे ॥ दंग ॥ मेरे कामित काम करीया, मेरे राज धुराकों धरी या, ढुं चाहूं दर्शन तुफ रे ॥ दं० ॥१॥ ए आंकणी ॥ ते हाथें मुफ राज्य ने रे, जमणी बांह सहाय रे ॥ दं० ॥ विरुवेला एहनी रे, न सुणावे माहाराय रे ॥ दं ॥२॥ उष्ट स्वप्न नवि देखियुं रे, अंग न फरक्युं कोय रे ॥ दं० ॥ शकुन विरोधी न ग्रह्यां रे, ए चिंता क्युं होय रे ॥ दं० ॥३॥ म सुणि सेवक आपणी रे, मामी कहे सब वात रे ॥ दं०॥ दंनें अमने मुकिया रे, इहां रह्यां न बने धात रे ॥ दं० ॥४॥ साहिबने जाइ कहो रे. ए सघलो परकार रे ॥ दं० ॥ ढुंबानो वेपांतरें रे, लेगुं सकल विचार रे ॥ दं० ॥ ५॥ काचे कामें आवतां रे, न रहे सेवकधर्म रे ॥ दं० ॥ आव्यो मुझने देखजो रे, वैरीनो लही मर्म रे ॥ दं० ॥ ६ ॥ श्म सांजली मोह नूप ति रे, आनंद अधिक उत्साह रे ॥ दं०॥ सनामांहे वेठो थको रे, दंन तणा गुण गाय रे ॥ दं० ॥ ७ ॥ बल बल बुदि निधाननो रे, माजी घर नो स्थंन रे ॥ दं० ॥ जीवन तुं चिरंजीवजे रे, थारां चरित्र अचंन रे॥दं० ॥ ७ ॥ सेवक ए जंबुक थया रे, तुं पंचायण सिंह रे॥०॥ विरुवा वैरी चि हुँ दिशे रे, तिहां पण नाणी बाह रे ॥ दं॥॥ सेवक प्राण नणी गणे रे, तृणसम स्वामी काज रे ॥ दं० ॥ ए सेवक धर्म सांजल्यो रे, तें राख्यो ते था ज रे ॥ दं० ॥ १० ॥ नूपति जीपत ते करी रे, वैरीनां बदुदंद रे ॥ दं० ॥ संसारी रीत जामिनी रे, त्यां तुं पूरणचंद रे ।। दं० ॥ ११ ॥ साटे मांहे तूं सही रे, घाटे हाटें दीव रे ॥ दं० ॥राजें काले धनें वनें रे, सघलेही तुं मी उ रे ॥ दं० ॥ १२ ॥ तुम विण फीका फूस ने रे, लावण्य तुफ विण नांहिं रे ॥ दं० ॥ कारज सघलां अन्य रे, तूं मीठो ते मांही रे ॥ दं॥१३॥ वीरसना ए माहरी रे, मोतीमाला जेम रे ॥ दं० ॥ मध्यनायक मणि तूं अजे रे, हजीयन आयो केम रे ॥ दं०॥ १४ ॥ एह वचन क्रोधादिकें रे, सुनटें सुणियुं धाम रे ॥ दं० ॥ रीष राजानी जाणीने रे, उठी चल्या फिर ताम रे ॥ दं० ॥ १५ ॥ पुण्यरंगपाटण उपवनें रे, बाना रहिया जाय रे
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥ दं० ॥ पूर दरियावतणी परें रे, मांहे पग न देवाय रे ॥ दं० ॥ १६ ॥ कूरगडु साधु कोधे ग्रह्यो रे, बाहुबलि मानें तेम रे ॥ दं० ॥ लोनें केसरी ऋषि ग्रह्यो रे, कामें श्रीरहनेम रे ॥ दं० ॥ १७ ॥ खाली फिरी पाना गया रे, राजा करशे रीष रे ॥ दं० ।। एम जाणी ताके घणुं रे, चोर परें निश दीस रे ॥ दं० ॥१७॥ ए सेवक विवेकना रे, बंदी कीधा जाग रे॥ दं॥ जोरो करीने से चव्या रे, मोह नगरी दिश ताण रे ॥ दं० ॥ १५ ॥ बादु बली रहनेमजी रे,यु६ करे तिण साथ रे ॥ दंग ॥ आत्म घरे आया वही रे. साचा देखाया हाथ रे ॥ दं० ॥२०॥ कूरगडादिक ऋषिने ग्रही रे, मोह पुरें ले जाय रे ॥८॥ राजासुं मुजरो कस्यो रे,खाट करीने आय रे॥ दं० ॥२१॥ उर्गति कारागारमें रे, जेई घाल्या तेह रे ॥ दं० ॥ वैरीने वश ते थया रे, पामे दुःख अह रे ॥दं॥२२॥ वली राजापू कहो रे, दंतणी को वात रे ॥दं॥ दर्शन दीतेहने रे, मुझने दुवे सुखशात रे ॥६॥२३॥
॥दोहा॥ ॥ तिण अवसर दंन आवियो, अचिंत्यो तिण ठाम ॥ राजा मलिक जो थयो, दंन देखी अनिराम ॥ १ ॥ करि प्रणाम बेसे जिसें, आलिंगन दे राय ॥ रोम रोम नलस्या घj, आनंद अंग न माय ॥ ५ ॥ कुशल देम पूछे प्रथम, ना आयो वड वीर ॥ बोल्यो स्वामी पसायतें, तरि आयो रि पु नीर ॥३॥ सुण साहिब सघलो कहूं, वाततणो विस्तार ॥ राय विवे कनो जाबदो, दीतो अधिक अपार ॥ ४ ॥ कोटवाल करडो तिहां, नगरत जो रखवाल ॥ धर्मरीत राखे खरी, ज्युं पाणी ने पाल ॥ ५ ॥ नगरमांहि पेसण न दे,तब कीधी में बु८॥ साहिब काम सुधारवा,में वंच्याबहुमुह ॥६॥
॥ढाल त्रीजी॥ ॥ वहालेसर मुज विनति॥गोडीचा राय ॥ ए देशी ॥ पुण्यरंग पाटण पेसवा ॥रंगीला॥ में कीधा जाति नेप रे ॥रंगीला राय ॥ कपट क्रिया करणी करी ॥२०॥ अवसर एवो देख रे ॥२०॥ पु०॥१॥ नूर नविक आवी मल्या ॥२०॥ पण न जणाव्यो नेद रे ॥२०॥ वचन जिके ढूं उच्चरूं ॥२०॥ तहत्ति करे ध्रुवेद रे ॥२०॥ पु० ॥२॥ नोजन सखरां में लह्यां ॥२०॥ ते जति नेख प्रसाद रे ॥ २० ॥ सुरमुज्ञ पण आदरी ॥२०॥ कीधा बहु ला वाद रे ॥ २० ॥ पु० ॥३॥ कीरति कारण आचस्यां ॥२०॥ यावश्य
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. क उच्चार रे ॥ २० ॥ पण अंतर नेद्यो नहीं ॥ २० ॥ आत्म प्रत्ये प्रतिका र रे ॥२०॥ पु०॥४॥ दीधी बदुली देशना ॥२०॥ पररंजनने काज रे ॥९॥ मिथ्यानाव मूक्यो नहिं ॥ २०॥ महेर करी मोहराज रे ॥२०॥ पु०॥ ५॥ श्रावकनो नेख आदस्यो ॥२०॥ उच्चरतो नवकार रे ॥२०॥ निशि कृषि शाला सूश्ने ॥२०॥ उपधि लई कीध विहार रे ॥ रं॥पु॥६॥ परजातें पूजा रची ॥ २० ॥ मुखो मुखयुं लाय रे॥॥धातु रत्न प्रतिमा ग्रही ॥२०॥ नातो स्वामी पसाय रे ॥ २० ॥ पु० ॥ ७॥ याचना मिष करी पेखियो ॥ रंग ॥ घर घर दी। प्राचार रे ॥२०॥ कूड कपट बन के लव्यां ॥२०॥साहिब सान्निध्यकार रे ॥२०॥पु०॥७॥ नर नारी वह
तस्यां ॥२०॥ नव नवा कीधा नेख रे ॥२०॥ हवे पुर वर्णन सांजलो ॥ २० ॥ दीठो जेह विशेष रे ॥२०॥ पु० ॥ ए॥ नगरीने चिहुं दिशि अडे ॥ २०॥ नीयतिको प्राकार रे ॥२०॥ खातिका धर्मनी वासना ।। २० ॥ प्रासाद परिणाम सार रे ॥२०॥ पु०॥१॥ लेश्या धवली बोहगुं ॥२०॥ उज्ज्वल कीधी तेह रे ॥२॥ उंची नूमि निवास ने ॥ २० ॥ साधु जन धर्म नेह रे ॥ २० ॥ पु०॥ ११ ॥ चार नेद धर्म ध्यानना ॥ रं०॥ तेहज पोल्यो चार रे ॥ २० ॥ अनुप्रेक्षा चारे अ ॥ २० ॥ दृढ किमाड उदार रे ॥२०॥पु० ॥ १२ ॥ इन्५ प्रशंसे जेहने ॥२०॥ श्रीसंघ महाजन तेथ रे ॥ २० ॥ योगासन बाजार ॥२०॥ पुण्य करिया| जेथ रे ॥ २० ॥ पु०॥ १३ ॥ समता शेरी मोकली ॥२०॥ बाधा न लहे कोय रे ॥२०॥ ब्रह्मपुरी सोहे नली ॥ २० ॥ सुखियां सघलां लोय रे ॥ २० ॥ पु० ॥१४॥ झान सरोवर शोनतूं ॥ २० ॥ गुप्ति नली ने पाल रे ॥ २० ॥ हंस घणा क्रीडा करे ॥ २० ॥ शान्ति सरस रस शाल रे ॥ २० ॥ पु० ॥ १५ ॥ जीव दया देवी नली ॥२०॥ नगरतणी रखवाल रे ॥रं० ।। सखरी चरचा कू पिका ॥रं ॥ घर घर नयन निहार रे ॥ २० ॥ पु० ॥ १६ ॥ आत्मनाव ना जावतां ॥२०॥ षट् ऋतुहीका चात रे ॥२०॥ केहा गुण तसु दा खq ॥ २० ॥ दीनां यावे धात रे ॥ २० ॥ पु० ॥ १७ ॥ ते आगल पुर ता हलं ॥२०॥ दीन हीन दुःख जाल रे ॥२॥ कांश शोना धरे नहिं ॥२॥ रतन पागल ढेरखाल रे ॥२०॥ पु० ॥१७॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्री जो. ॥ दोहा ॥
॥ दंज कहे सुणजो वली, नगरी लोक विचार ॥ अंतर ए में देखियुं, सरराव मेरु प्रकार ॥ १ ॥ थीएडी निशा घणी, तुऊ लोकामें दीठ ॥ जाग रुक ते लोक बे, चेतन चातुर मीठ ॥ २ ॥ अल्प देत जारत करे, प्रायें ताहरां लोक ॥ वेद नाम ते नवि लिये, तिलनर नांही शोक ॥ ३ ॥ बंधन बहुलां इहां लहे, ताडन तर्जन जोर ॥ तिहां कोई जागे नहीं, बंध कि For परिघोर ॥ ४ ॥ दीन हीनता ए लहे, कण कण वारोवार ॥ नव नव मंगल तेल, सार समाधि विचार ॥ ५ ॥ इहां राजा दंगे घणुं, लोक न
वेदा ||राज प्रजा ते एक बे, हितवत्सल ते खाण ॥ ६ ॥ वे लोक प्रति क्लेशसूं, धन पामे के कोय ॥ सहजें धन पामे घणा, ए च रिज तिहां जोय ॥ ७ ॥ इहां धन धरती गाडियें, अधोगमनने हेत ॥ ति हां देवल दानें करी, वाहीजें गुन खेत ॥ ८ ॥ जानतणो सांसो इहां, उ
अधिक घोर ॥ निवें लान तिहां सही, अल्प नद्यमें जोर ॥ ए ॥ इहां बम लानें करी, हर्ष धरे सहु कोय ॥ लान अनंतें पण तहां, या श धरे नहिं जोय ॥१०॥ हीन वस्तुमां पण सही, लान अनंतो थाय ॥ asद दान दीनां कां, कंचन कोडी प्राय ॥ ११ ॥ नरपति सुरपति ता हरा, सेवक सघला जेह ॥ ते तसु नगरी दास सम, एवडो अंतर एह ॥ १२ ॥ इहां लोकांने सुत बे, ते पण वैरी थाय ॥ लोक विदेशी फिरी ति हां, हितवत्सल लघुना ॥ १३ ॥ एहवां लोक हूं निरखतो, इक दिन सना मकार || राजऋद्धि देखण नली, उनो जाय तिवार ॥ १४ ॥ ॥ ढाल चोथी ॥
॥ राजा जो मिले ॥ ए देशी ॥ साधुनी परखदा ज्योति स्वरूप, तिहां नृप वीर विवेक अनूप ॥ राजा सांजलो, मेरी रजथकी रिपुने कलो ॥ सत्त्व सिंहासन मांमधुं सार, गुरु प्रादेश ने उत्राकार ॥ ० ॥ १ ॥ एक णी ॥ श्री ॐी बेन पासें नार याचार, राजाने चामर ढालणहार ॥ रा० ॥ कर्म विवर not a खवास, तिल महाजन आणीजें पास ॥ रा० ॥ २ ॥ ब्रह्मता जे जाणणहार, गायन गीत करे विस्तार ॥ रा० ॥ गुन लेश्या ते नटवी नारी, येइ थेइ नाटक नाचे उदार ॥ ० ॥ ३ ॥ स्याद्वाद मुख धो ताम, मीठो मृतयी समान ॥ रा० ॥ थिगत हूया ते सघला
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
५३ लोय, नीकी नटवी नाचती जोय ॥रा०॥४॥ निचे व्यवहार लोचन दोय, तिण करी जोतां आनंद होय ॥ रा० ॥ एह रसायण इणहीज ता म, नहिं को दीसे बीजे गाम ॥ रा० ॥ ५॥ सुणवा वा सुणियें जेह, ग्रहण धारण उह कहीये तेह ॥रा ॥ इणिपरें बाते ही गुणसार,पहिया मोतिना तिणे हार ॥रा० ॥ ६॥ आ गाथा माहेला बागुणनां नाम कहे जे १ गर्व न होय, २ निंदा न होय, ३ कटुकनापी न होय, ४ अ प्रिय न होय, ५ बोलवामां क्रोध न होय, ६ काव्य शरीर लक्षण चेष्टावि षये मौनी होय, ७ पूर्व अवगुण न कहे, G स्वात्मा न प्रशंसे ॥ इति ॥ ढाल पूर्वली ॥ सूरितणा गुण बत्रीश होय, आयुध धारे सबलां जोय ॥ रा०॥ सुविचार बालपणानो मित्र, तिणसुं पहिलो राखे चित्त ॥ राम् ॥ ७ ॥ आगाथामां कहेली सूरिना बत्रीश गुणनां नाम कहे ले १ स्वरूपा धिक, २ तेजस्वी, ३ जुगप्रधान, ४ आगम जाण, ५ मधुरवाक्य, ६ गं नीर, ७ बुद्धिवंत, जनपदेश देवाने तत्पर, ए परगुणनापी, १० अवगुण न कहे, ११ सौम्य, १२ शिष्यसंग्रह, १३ अवग्रहवंत विकथात्यागी, १४ चंचलता, रहित उपशांत हृदय, १५ दमा सहित, अहंकार रहित, १६ कपट रहित, १७ निर्लोनी, १७ तपस्या करे, १ए संयम पाले, २० सत्य बोले, २१ अदत्तत्यागी, २२ खुद परिणामी, २३ परिग्रह रहित, २४ व्र ह्मचर्य पाले, अने बार नावना नावे, ए बत्रीश गुण पूर्व ढाल ॥ तत्व रूची पटराणी सार, मानुं लक्ष्मीनो अवतार ॥ रा० ॥ नव वैराग्य वडो ने पूत,न्यायें राजनो राखे सूत ॥रा० ॥ ७ ॥ संवेग निर्वेद पुत्र सुजाण, तेज प्रताप घणो ज्युं जाण ॥रा० ॥ कुश्मन दूर करे पायमाल, जोरा वर जोधा वड नाल ॥ रा० ॥ ॥ ए ॥ पुत्री चारे चतुरां दीत, करुणा मैत्री मुदता मीठ ॥ रा० ॥ चोथी उपेदा नामा सार, सूरि गुणें करीने सिरदार ॥ रा० ॥ १० ॥ समकित मंत्री ने जसु पास, राजानो पूरण विश्वास ॥ राम् ॥ आर्जव मार्दव ने संतोष, शम रस सामंत नहिं को दोष ॥ रा०॥ ११॥ सात तत्त्व ते साते अंग, राज्यतणा राजे अति चंग ॥ रा० ॥ दानादिक चारे धर्म नेद, चतुरंगसेना नहिं को खेद ॥ रा० ॥ १२ ॥ विमल बोध कोटवाल प्रधान, परमागम नंमार निधान ॥रा ॥ दायोपशम समकित नाव विलास, दाणी दाण लिये नन्नास
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
५४ ॥ रा० ॥ १३ ॥ न्याय संवाद नामा बे शेठ, सघला लोक बे जेहने देव ॥ रा० ॥ पांचे व्यवहार चोधरी पांच, ऊगडामांहे न करे खांच ॥ रा० ॥ १४ ॥ सामायिक आवश्यक सार, पुरोहित पदवीनो अधि कार ॥ ० ॥ प्रायश्चित्त ते नीरनी धार, निर्मल करवानो याचार ॥ रा० ॥ १५ ॥ सुख समाध ते शय्यापाल, तंबोली धर्मराग विशाल ॥ रा० ॥ शुद्धाशु प्रणाम पहूर, कोडि ज्ञानें सेवक शूर ॥ रा० ॥ १६ ॥ ए सघला निज स्वामी खाण, नवि लंघे कांइ मुखनी वाण ॥ रा० ॥ धर्म मंदिर हे हवे व दन, खागल बात कहे बे अचंन ॥ रा० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥
|| ति अवसर ति परखदा, मांहें कीध पुकार || मोह जिल्ला सेवक करी, चोरी देश मकार ॥ १ ॥ पुरजन काली लेई गया, आपली लांघी का र ॥ सांजली नूप विवेक तब, कीधो कोप अपार ॥ २ ॥ मुख 'बोले वली एहवं, मेलो मोह नरेश ॥ तीन जुवन राजा थयो, न थइ तृप्ति यजेश ॥ ३ ॥ में प्रभुता निज गुण नही, देखी शके नहिं एह || लोनी लोन वशें करी, हशे लंगर बेह ॥ ४ ॥ राज तेज तेहज खरो, ज्यां रहि रिपु उपचा र ॥ दिनकर कर दीगं थकां, केम रहे अंधकार ॥ ५ ॥ इण वैरी कनां थकां, प्रभुता न लगे मीठ ॥ माटी कुंन मुखें रह्यो, मोघर जलो न दीव ॥ ६ ॥ इम छालोची मंत्रीने, बोलायो नूपाल ॥ मतिनिधान तुं मंत्रवी, प्र जुता वन रखवाल ॥ ७ ॥ बल बल कां केलवी, जिंपीजें रिपु एह ॥ रा ज काज स्थिरता रहे, बुद्धि बतावो तेह ॥ ८ ॥
॥ ढाल पांचमी ॥
॥ मोरा साहिब हो, श्री शीतलनाथ के ॥ ए देशी ॥ मंत्रीसर हो महो टो मतिवंत के कर जोडीने वीनवे ॥ सुए साहिब हो मुऊ गुरु बे जाए के, यागम नीगम अनुनवे ॥ १ ॥ ते गुरुने हो में राख्यो पू के, राज्य वधे के युं रहे ॥ ब्रह्म बोल्यो हो तमचो रिपु मोह के, जोरावर प्रति गहगहे
आ चौदमी गाथामा लखेला पांच व्यवहारनां नाम कहे छे. १ लज्जावंत, २ प्रायश्चित्त शु द्ध, ३ दोष प्रकाशीन, ४ ग्रंथ निर्वाह, ५ उपत्सर्ग अपवाददर्शी. अथवा कालादिक पांच का रणना नाम कहे छे ॥ कालो सहाव णिया, पुव्वकयं पुरिसकारणे पंच ॥ मिच्छत्तं तं चैव ऊसग्ग संबुदोति सम्मत्तं. अर्थ:- १ काल, २ स्वभाव, २ नियतित, ४ पूर्वकृत, ५ पुरिसकार.
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. ॥ ५ ॥ गुरुरुवाच ॥ मोह जीत्या हो तुमची वृद्धि होय के, ते तो इण परि जीपियें ॥ पुरवचनें हो जगमांहि विख्यात के, सर्व राजा दीपियें ॥३॥ तसु राणी हो केवलसिरी जाण के, निर्मलरूप निधान ॥ तसु लीणो हो रहे निशिदिन राय के, दिन दिन चढतो वान डे ॥ ४ ॥ तसु संवर हो महोटो उमराव के, सामंतमां सिरदार २ ॥ तसु घरणी हो मु मुहवा नाम के. जोगीसर हैये हार ॥५॥ तसु पुत्री हो संयमसिरीना म के, सकल जीवां हितकारिणी ॥ तसु कन्या हो परयो विवेक के, तेह होशे जयकारिणी ॥६॥ कन्यानी हो सखियां सुखकार के, पांच अने त्रण आखीयें ॥ एकेकी हो जीपे ले मोह के, एह वचन गुरु नांखियें ॥ ७ ॥
जामुख हो धर्म रुचि अणगार के, करकंफूनाषा आदरी ॥ वेयर स्वामी हो कीधी याहार शुक्षिके, देवनी निदा नही नवी ॥७॥ पडिलेहण हो वल्कलचीरी कीध के, समिति चोथी तिणे अनुसरी॥ज्ञपि ढंढण हो पर ग्वतां सार के, पांचमी समिति विधे करी ॥ ए॥ प्रसन्नचन्हें हो करी म ननी गुप्ति के, धोयां दुष्कृत ध्यानगुं॥ मेतारज हो धरि नाषा गुप्ति केको च उपर दयावानरां ॥ १० ॥ तनु निश्चल हो अनुनव तिणे पाय के, चि लातीपुत्र ते परगडो॥णे राखी हो तनुनी शुदि गुप्ति के, परमातम ध्यानी वडो ॥ ११ ॥ ए आते हो सखियां अनिराम के, संयमश्री साथें रसी ॥ ए परण्यां हो पी. विवेक के, मोह नणी करशे वसी ॥ १२ ॥
॥ दोहा ॥ ॥राय विवेक ए सांजला, मनमां करे विचार ॥ एक म्यानमां क्युं र है, वे सारी तरवार ॥ १ ॥ सुतवंती शीलधारिणी, घरमां बेठी नार ॥ ते ऊपर क्युं आणियें, साल समान विचार ॥ २ ॥ गाढागारीनी परें, कलहो करशे दोय ॥ घरट समोवड दो घरणी, प्रीत करण सम जोय ॥३॥ बी जी परणे सुख जणी, मूढ जिको नर होय ॥ इक दिशि कग्यो सूर पण,बी जी पडतो जोय ॥४॥ इम चिंतातुर देखीने, आइ तत्त्वरुचि नार ॥ मुख हसिने एम उच्चरे, सुण साहिब जरतार ॥ ५ ॥
॥ ढाल बही॥ ॥बे कर जोडी वीन जी ॥ ए देशी ॥ कर जोडी कामिनी कहे जी, तुं नर नाथ कहाय ॥ चिंता बहु नारी तणी जी, नबला नरने थाय । रा
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जेसर प्रमदा परणो तेह ॥ जिण परण्या प्रौढी दुवे जी, आत्म क्षि अजे ह ॥ रा० ॥ए आंकणी ॥ १ ॥ कुलवंती कामणी तीका जी, बहु मिलिया जस लेह ॥ अवधि या नां तजे जी,फटक न दाखे लेह ॥ रा० ॥॥ जगति जुगति मूके नहिं जी, नर्त्तान। नली नार ॥ सागर नदियां सो फि रेजी, गंगा महिमा अपार ॥ रा० ॥३॥ पुरुष रीति बीजी अ जी, ना री रीत न कांय ॥ वेली वृद समान में जी, पण क्युं सरिखा थाय ॥रा० ॥ ४ ॥ हदें हस्ती बांधी जी, वेली न धरे जाण ॥ इणि परें पुरुष प्रधा न ले जा, न करो कांही काण ॥ रा० ॥५॥ वदु नारी परण्याथकां जी, पुरुष जणी नहिं दोष ॥ संयमश्री यायांथकां जी, दं न धरूं मन दोष ॥रा॥६॥ निकला विकल धणी दुवे जी,नारी न तज्यो जाय ॥ःख सुख सरसुं माउली जी, सारस सम नवि थाय ॥ रा० ॥ ७ ॥ जिण आयां निज जय दुवे जी, हुँ से, तसु पाय ॥ एह वचन सुणि नारीनुं जी, हरखी बोल्यो राय ॥ रा० ॥ ए॥ शोक्यें एह सदु पर्नु जी, तो दुइ जयत अपार ॥ विलंब न कीजें तो हवे जी, सुण मंत्री शिरदार ॥रा० ॥ ॥ए ॥ अति नज्ज्वल परिणाम के जी, तेहिज सेवक थाय ॥ परधाने ए मूकियो जी, उलगशे जिण राय ॥ रा० ॥ १० ॥ महिर नली मो उप रेजी, राखे श्रीजिनराज ॥ कन्या तेह देवावशे जी, बांह ग्रह्यानी लाज ॥ रा० ॥ ११ ॥ मंत्री सज करी नरा जी, मूक्या जिनवर पास ॥ ए वि रतंत सदुलही जी, लई यायो चारुनास ॥ रा० ॥ १२ ॥ मत विश्वास करो हवे जी, वैरी वाध्यो वान ॥ आज राज्य अतुली बली जी, कोइ प्रग ट्यो निधान ॥ रा० ॥१३॥ तसु पुर नर नारी धरे जी, तुमगुं जाति वैर ॥ ॥ मंत्री जापतो नपरा जी, साधे सगलो नयर ॥ रा० ॥१४॥ वस्त्र तजे तप आदरे जी, लिखन पठन ध्यान लीन ॥ कामण ट्रमण आचरे जी, तुऊने करवा दीग ॥रा० ॥ १५॥ तुऊ नगरी लोकांजणी जी, लोनावे मुख मीठ ॥ श्राप सरिखा आचरे जी, एवं अचरिज दीत ॥रा ॥ १६ ॥
॥ दोहा ॥ ॥ मोह महीपति एहवो, दंन मुखें सुणि वाद ॥ फालनष्ठ वानर जि स्यो, पामे चित्त विपाद ॥ १ ॥ वैरी वधतो देखीने, मनमां करे विचार ॥ ति अवसर हवे मोहसुत, अरज करे अवधार ॥ ५ ॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
५७
॥ ढाल सातमी ॥
|| देशी कडखानी ॥ तार किरतार, संसार, सागरथकी ॥ ए देशी ॥ वात हवे तातजी, सांजलो मयानी, एवडी चिंत मन, कांइ थाणो ॥ मुज स रिखा सुत, सेवक ताहरे, कुप अबे तुक सम, राय राणो ॥ वा ॥ १ ॥ बंध नरवृंद, करं घणा देख तुं, इन्ड् ने चन्ड् सब, पाय खाएं || सकज सुत घर बते, जनक चिन्ता करे, मूढता केहनी, चित्त जाणुं ॥वा० ॥ २ ॥ पुत्र डुं प्रापनो, तो नवि बीहीजीयें, रवि तो पुत्र, शनि लोक याखे ॥ बीप सुत मोतीडां, मातनो घात करी, सकज सुत एहने, कोण दाखे ॥ वा० ॥ ३ ॥ तातने शात सुख, संपजे जिएगथकी, कमलथी जेम सर, सोह पा वे ॥ पुत्रना पदकज, पालणे प्रीडियें, लोक वैरी तिके, जासु गावे ॥ वा० ॥ ४ ॥ नाम निराम, अंगज किस्युं कीजियें, अंगनो मेल, अंगज कहीजें ॥ तेह नाखी दिये, वनतणां फूलने, वास गुणराशि, शिर पर वहीजें ॥ वा० ॥ ५ ॥ धीरता वीरता, मन घरी जे रहे, सांकडे खाणीने, शत्रु पाडे ॥ जगतिमें नीर, पावक जणी उटवे, तेहने वाडवा, श्री नसाडे ॥ वा० ॥ ६ ॥ एहवां खाकरां, वचन सुपि पुत्रन, मोहने मन हु, सुख सवायो ॥ सा धु साबाश, साबाश तुं सुत जली, आज तें पुरुपता, बल जलायो ॥ वा० ॥ ७ ॥ एहवे तेजें करी, वंश दीपाइयो, सन्य संदोह, अंदोह टाव्यो ॥ राज्यनो नार, सुविचार सुत कंध हवे, शत्रु जल गाहवा, पोत जाव्यो ॥वा० ॥ ८ ॥ काष्ठथी घणुं हुनु, धूम पावकथकी, तनुथकी व्याधि, बुध चन्ड् देखो ॥ वृथी लाख ते, नीरथी पंक बे, एहवा पुत्र, कुपुत्र देखो ॥ वा ॥
॥ धूमथी मेह बे, बिंब पाषाणथी, पंकथी कमल मणि, सर्प माथे ॥ कलश माटी की, एहवा पुत्र दुवे, वंश विनूषणा, शोन सार्थे ॥ वा०॥१०॥ ताहरी अंग, कठावणी एहवी, शत्रु दल धान, ने घरट जारी || लोक या नंदकरी, तो जी वर्णवे, जूठ ते दीठ निज, दृग पसारी ॥ वा० ॥ ११॥ हस्ति ज्युं मस्त वली, ताहरे मित्र बे, जगतने जीपतो, मधु कहीजें ॥ फू
i फूल जे, बाल बेताहरे, रिपु नणी जीपतां, साथ लीजें ॥वा०॥ १२ ॥ मनता प्रतिघणा, घोर परिणाम बे, तेहज ताहरा, दास ताजा ॥ सार शृंगारतें, सैन्य सार्थं लिया, मेघ घनघोर धुनि, तेहज वाजां ॥वा० ॥ १३॥ माहरो मंत्री, मिथ्यात्व नामा जलो, तेह पण ताहरे, साथ सारु ॥ रंजती
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. प्रीति वली, रति नली नारजा,युचनी सिक्ष,अब जात वारु ॥वा॥१४॥ नारिनी गोत, ते जोगणी ताहरे, मंत्रनी तंत्रनी,घात जाणे ॥ कुपथ कथा ग्रहे, लोकने नोलवे, रिपुतणा सैन्यनी, वात आणे ॥वा॥१५॥ गीतनी रीति ने, नाटक नाचतां,हाव ने नाव, प्रमदा विलासा ॥ चारु मणिहार, हथियार साथें धरे, मुखतणा मागिया, होय पासा ॥ वा० ॥१६॥ हास्य ने जूवटो, बे जणा ताहरा, अंगना चंग, रखवाल राखे ॥ रामत अति घणी,तेह दासी नली, काम ने काज, सब तासु पाखे ॥वा॥१७ ॥ सु ख अनिमान, सन्नाह तुं पहेरजे, नेत्रने पान, कपाटोप धरजे ॥ विषय इं श्यितणा, चंचल हय घणा, मत्त उन्माद, मातंग वरजे ॥वा० ॥१७॥ रथ घणा साबता,जेह मनोरथा, पायक लायक, प्रेम पूरा ॥ नायका सा यका, वरसती फोजमां, शोनशे जीपशे, शत्रु यूरा ॥वा ॥१॥
॥दोहा॥ ॥ मोहराय इणपरें कह्यो, मदनतणो परिवार ॥ राय विवेकने जीप वा, शीख दिये सुविचार ॥१॥ पुत्र सुपूत तुं माहरे, राजनीतिनो जाण ॥ मति वेशासे केहने, ए माहारी जे वाण ॥ २ ॥ थोडं बोले बहु करे, अ ति उत्सुक मन होय ॥धीर वीर होवे खरो, बल बल करजे जोय ॥३॥ जोगी जंगम जटिलने, नर नारी तिर्यंच ॥ तरुण वृक्षने पीडवे, कां न करे खल खंच ॥ ४ ॥ दत्री मा न आदरे, याचक लाज न कां ॥ वेश्या प्रेम धरे नहिं, काम अर्थ किम थाय ॥ ५॥ अवसर विण गुण दोष , दोष दुवे गुणपोष ॥ स्नान समे वस्त्र मूकिये, वांको डुम लहे तोष ॥६॥ जग सघलो जुगतें फरी, साधे सघलां गाम ॥प्रवचनपुर मत पेसजे, अरि हंत राजा नाम ॥७॥ शूरवीर तेहज खरो, जोवे वाम विशेष ॥ पाडे मयग ल जीतने, गिरि पाडे नहिं देख ॥ ७ ॥ एक गाम जीतो नहिं, कां नहिं य शनी हाण ॥ वन धन बाया नहिं नसे, इक तरु बेये जाण ॥ ए॥ पिता शीख इणि परें कही,शिर पर धारी मयण ।। चारवाक पंमित नएी,बोलावी वदे वयण ॥ १० ॥ कुंवर जणी वढवातणो, मुहूरत जोवो सार ॥ चार्वा क हवे बोलियो, सुण साहिब सुविचार ॥ ११ ॥ नोग दीर तिण दीर क लि, गुरु नारी धिक्कार ॥ वृष्टि वाउलमें अपशकुन, एता गमन निवार ॥१२॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
॥ दाल खामी ॥
॥ चतुर सनेही मोहनां ॥ ए देशी || मोह महीपति सांनलो, बीज ली तिथि जोय रे ॥ चन्ड् उदय दूयां थका, गोधूलिक गुन होय रे ॥ मो० ॥ १ ॥ माततणे पाये नमी, तिलक करायो हरखी रे || लीधी मा ता बननी, याशिष अधिकी निरखी रे || मो० ॥ २ ॥ खादेश ताततणो ह्यो, नाइथं बाहु मलिया रे ॥ प्रेमें मित्र कलत्रं, लोचन दुवे गलगलियां रे ॥ मो० ॥ ३ ॥ पापश्रुत नट ए जलां, बिरुद नणीजें सारो रे ॥ कुमित्र प्रसंग मातंग बे, तसु पर बेशी कुमारो रे || मो० ॥ ४ ॥ चतुरंगी सेनाग्रही, वड वडा यो सार्थे रे || शूरा पूरा शोजता, जयलक्ष्मी घरे हाथे रे || मो० ॥ ५ ॥ काम ती कटकी चढी, तिहां नारीसुख शूरा रे || हास्य विलास देतें करी, अधिका सोहे सनूरा रे || मो० ॥ ६ ॥ बाण ते कामक टाकू बे, चूहांको धन लीधो रे ॥ ढाल ते घुंघट पट धरी, बाण चलावे सीधो रे || मो० ॥ ७ ॥ रोदन मोदन मदनना, नव नव रंग तरंगो रे ॥ मोहें सुर नर मोहिया, चूक्या इसने संगो रें ॥ मो० ॥ ८ ॥ पशु पंखी प एजीपियां, एकेन्द्रिय पण जीत्या रे ॥ किंकर काम तथा घणां, पसस्या सबल अनीता रे ॥ मो० ॥ ए ॥ इन्द्राणी रूपें करी, इन्ड्ने जीत्यो का मोरे ॥ वीर जीपवा, चक्रवर्ती निरामो रे ॥ मो० ॥ १० ॥ अ नमी या घरे नहिं, वांकी टेढी पागें रे || जोधा राव घणा अबे, पण किंकर स्त्रीखागें रे ॥ मो० ॥ ११ ॥ त्रिवल्ली त्रिपथ कहीजियें, नारी न दरें होवे रे || काम पिशाच तिहां बजे, मूढा नर जे जोवे रे || मो० ॥ १२ ॥ पाधोटे पंमितनली, शुचिने रुचिकर हसतो रे ॥ खरध करे धीरज नली, जिहां हिां ए धसमसतो रे । मो० ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥
ए
॥ कामतली फोजां फरी, चिहुं दिशि सारे जग्ग ॥ कोई शर सांधे नही, योषित जोधें नग्ग ॥ १ ॥ ब्रह्मापुर कानें सुयो, राय प्रजापति हो य ॥ ब्रह्म तेज सब जगतनो, जनक कहीजें सोय ॥ २ ॥ एहनो में टालो करो, या या वा ॥ कोइ कालनो मोकरो, बोडो ब्रह्मा जाए ॥३॥ ॥ ढाल नवमी ॥
॥ राग धमाल ॥ अथवा || पर घर गमन निवारियें ॥ ए देशी ॥ ईलि
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
६० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. परें बहुपरें वारियो, पण न टल्यो काम कुमार हो ॥ ब्रह्मापुर जाइ दकि यो, निज तेग जगावणहार हो ॥ ३० ॥१॥ फोज विदा करी नारिनी, चि ढुं दिशि पासें लीधो घेर हो ॥ ब्रह्मा पण ध्यान कोटमां, लीयो जे न दुवे जेर हो ॥ ३० ॥ ॥ रागदूत विचमें फिरे, आखे मत करजो खेड हो । कोट जेट लीधी अडे, पण मयण न बोडे केड हो ॥ ३० ॥३॥ तीन ज गत ए साधतो, आव्यो रे तुम धाय हो ॥ तनक तनक तुम कोटने, क रशे तुझ आण मनाय हो ॥३०॥४॥ सावंत्री जोध मूकियो, इणसैंती राखो रंग हो ॥ ब्रह्मा पण मन चिन्तव्युं, इण साथें न दुवे जंग हो ॥ ३० ॥ ५॥ सावंत्रीसेंती मिट्या, उठीने अंगो अंग हो ॥ चतुर हतो पण चूकियो, जेर दीधो जोर अनंग हो ॥ ३० ॥ ६ ॥ ब्राह्मण सघला बांधि या, वनिता जोध पसमांही हो ॥ अनमी को न पेखियो, धर्म धीरज किणमां नांहिं हो ॥ ३० ॥ ७ ॥ ब्रह्मापुर जीपी चल्यो, आगे ते मयणकु मार हो ॥ जमुनाकांतें आवियो, करतो जग चरित्र अपार हो ॥३॥॥ श्याम वर्ण इक सांजलो, पुरुषोत्तम नाम धराय हो ॥ वैकुंठनाथ वखाणि ये, अवतार लिया मन दाय हो ॥३०॥॥ मत्स्य कूर्म नरसिंहना, वाम न बलिराजा बंध हो ॥ नार्गव पण एहिज थयो, नवि राख्यो दत्रीगंध हो ॥३०॥ १०॥ दशरथ सुत पण ए दुवो, रावणने माखो एण हो ॥ जा दघ कुलमें अवतस्यो, विरची माया हरखेण हो ॥ ३० ॥ ११ ॥ कंस ह एयो नाग नाथियो, नवला जसु अवदात हो॥ दानव मानव जीपिया, कुण श्रारखी शके तसु वात हो ॥ ३० ॥१२॥ सागर मथियो जुजबलें, गिरिवर नपाड्यो जोर हो ॥ पंचजन्य परगट कियो, जस शब्द अ अ ति घोर हो ॥३०॥ १३॥ चक्र गदा शारंग धरे, इन्सेंती जसु प्रीत हो ॥ आज न को एहवो अ, इणशुं मां अनीत हो ॥ ३० ॥१४॥ जानी मानी पण सही, मधुसूदन ए गोपाल हो ॥ मयण वयण इम सां जली, अति कोप्यो क्रूर कराल हो ॥३०॥ १५ ॥ गोपी जोधा मूकि या, जीपवाने किसन मुरार हो ॥ नयण बाण तीखे करी, नेद्यो लक्ष्मी जरतार हो ॥ ३० ॥ १६ ॥ हास्य राशि रति केलिशृं, वश कीधो केशवरा य हो ॥ बल बल को न केलव्यो, रंगरातो मातो थाय हो ॥ ३०॥१७॥ वृंदावनमें खेलतो, गोपियोनी पूरे आश हो ॥ कुसमां करी शिर सेहरो,
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. विरचे ज्यु कोइ दास हो ॥ ३० ॥ १७ ॥ थाकी गोपीने धरे, निज हाथे सारिका जेम हो ॥ वस्त्र उपायां तेहनां, प्रगटे तिणझुं बहु प्रेम हो ॥ ३० ॥ १५ ॥ वृद उपर चढीने रहे, गोपियोनां अंबर खेह हो ॥ नव न वि काम विडंबना, करतां नहिं आवे बेह हो ॥ ३० ॥ २०॥ जोरावर दू तो घणुं, पण हास्यो एकण सार हो। धर्ममंदिर कहे धन तिके, जे जीपे काम विकार हो ॥ ३० ॥ १ ॥
॥दोहा॥ ॥ जयंतहबा दूई करी,चाल्यो तिहांथी मयण ॥ कोइअनमी ने वली, इम बोले मुख वयण ॥१॥ किणहिकें यावीने कयुं, सुण स्वामी मुफ वात ॥ अचल एक कैलास , तिणपर शंनु कहात ॥ २ ॥ लोक कहे तेहने, महोटो श्रीमाहादेव ॥ जटामांहि गंगा वहे, चंझ रहे नितमेव ॥३॥ पा स त्रिशूल हथियार धर, वाहन वृषन विख्यात ॥ जग संहारण जोध ने, अष्टमूर्ति कहेवात ॥ ४ ॥ तीन नेत्र जेहने, जूषण नस्म नुजंग ॥ जे ह कहे में मदननें, जीत्यो कीध अनंग ॥ ५॥ एह वचन सुणी कोपियो, मोह कुंवर मनराल ॥ कन्यो मार्नु केशरी, देवा रिपुशिर फाल ॥ ६॥ मंत्री कहे मूको तमें, जटिल योगनो धार ॥ कहो किम काढीजें कदे, तृण ऊपर तरवार ॥ ७ ॥ काम कहे मूकुं नहि, मदनशत्रु कहेवाय ॥ स हस्त्र किरण नग्यांथकां, तिमिर नाव न रहाय ॥ ७ ॥
॥ ढाल दशमी ॥ ॥ सुमति सदा दिलमां धरो ॥ ए देशी ॥ मदन मोह शर सांधियु, बे जौ कीध गिरीश ॥ सलूणो ॥ कुसुम चाप करी चाढियो, शंकर ज्युं करी रीष ॥ स० ॥ म० ॥१॥धूणीधूप तूं कां सहे, बोड दिगंबर वेश ॥ स॥ हरिणादी परणावस्यां, कर सखरो घरवेश ॥ स०॥ म० ॥२॥ महादेव बोल्या तिसे, तुं मन्मथ विख्यात स॥ पी बुदि ए दीजियें,पहेली सुण मुफ वात ॥ सम॥३॥ प्रेत वनें शंनु वसे, जोजन निदा हाथ ॥स॥ जाजन मनुज कपाल , तिल रति नहिं का आथ ॥साम॥॥ एह अ वस्था के सही, कहो किण परघर थाय ॥ स॥ नारी नदीनुं पूर , साग रमांहि समाय सम॥५॥ रुंढ मुंम माला गले, यांख विरूप कहाय ॥ स० ॥ मुऊथी नासे कामिनी, हंसी थल न सुहाय ॥ स० ॥ म॥६॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. शाली दाल घृत घोल ते, नारी चाहे नित्त ॥ स०॥ इहां निदायें जीमवो, देख घणो इहां मित्त ॥ स० ॥ म ॥ ७ ॥ मंझन चंदन मागशे, वस्त्र घ गां पटकूल ॥ स ॥ चर्म बिजावण ए अने, नारी जणी प्रतिकूल ॥स॥ म०॥ ॥ हास्य वयण मुख धारती, त्रिवनी रंग तरंग ॥ स० ॥ नारी नहिं ज्युं जाणियें, बूडे जे करे संग ॥ स ॥ म ॥ ए ॥ लोचन सहस्त्र तणो धगी, खबर न लाने काय ॥स० ॥ नारी निशा अंधकारमां, अव रने केम कहाय ॥ स ॥ म ॥ १० ॥ मन परिणाम ते वानरी, काम किरात करूर ॥ स० ॥ अजगर हास्य विलास ने, नारी अटवीनूर ॥स० ॥म० ॥११॥ नारीथकी हुँ बीहतो, पर्वत बेठो आय ॥ स ॥ तपसी जोगी जाणीने, मूक तुं मननी दाय ॥ स० ॥ म० ॥१२॥ मदन कहे नी लकंठने, केड न मूकुं कोय ॥ स० ॥ परण तुं पारवती नणी, शीलवंती ए होय ॥ स० ॥ म० ॥ १३ ॥ मदनवशे माहादेवजी, गोपी परण्या नार ॥ स० ॥ निदा तो नावे नहिं, सांजलजे जरतार ॥ स० ॥ म० ॥१४॥ निदा सखरी निकुने, गेहीने न सुहाय ॥ स० ॥धान्य घj घरमां दुवे, ते कहुँ तुऊ नपाय ॥ स०॥ म० ॥ १५॥
॥दोहा॥ ॥ गौरी कहे माहादेवजी, जाट कमनी पास ॥ देवनूमि ते आपशे, बीज धनद परकाश ॥ १ ॥ हल तो हलधर थापशे, यमघर महिष सुचं ग ॥ वृषन एक तुमने अडे, खेती कर मन रंग ॥ २॥ नातुं हुं लावीश नखं, श्म चलशे घरवास ॥ पण निदा नहिं जीमा, इम कीधो उपहा स ॥ ३ ॥ काम विटंबन बहु करी, नव नव कर्म विकार ॥ कहेतां अंत न पामियें, श्म जाणे किरतार ॥ ४ ॥ पाराशर जमदग्नि वली, चूकाया शणे काम ॥ तीन नुवन जीत्या इणे, फिरि फिरि सघले गम ॥ ५॥ पुण्य रंगपाटणनी दिशे, चाल्यो मदन कुमार ॥ तिण वेला ते नगरमां, प्रगट्यो ए आचार ॥ ६ ॥
॥ ढाल अग्यारमी॥ ॥ कोयलो पर्वत धुंधलो रे लोल ॥ ए देशी ॥ कर जोडी करे विनति रे लोल, मंत्री विवेकने एम रे ॥ राजेसर ॥ पुण्यरंगपाटणमां दुवे रे लोल, नुत्पात सघला केम रे ॥ रा० ॥क ॥ १॥ गढ मढ मंदिर धूजियां रे
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
६३
लोल, नूकंप तारापात रे || रा० ॥ शोणित बिन्दु श्राकाशथी रे लोल, वू वान वारु वातरे ॥ रा० ॥ क० ॥ २ ॥ तिए अवसर किए याखीयो रे लोल, आयो मोह कुमार रे ॥ रा० ॥ राजा प्रजा सहु शंकिया रे लोल, मा असुर अपार रे || रा० ॥ क० ॥ ३ ॥ मंत्रीगुं नृप चिंतवे रे लोल, की जें गुंजु रे || रा० ॥ जीतहवा जो दुजीयें रे लोल, तो कीजें ए गु ऊ रे ॥ रा० ॥ क० ॥ ४ ॥ मंत्री कहे सुण साहिबा रे लोल, गुरुनुं वच नाम रे ॥ ० ॥ संयम स्त्री परण्या विना रे लोल, कोइ न होवे का मरे ॥ ० ॥ ० ॥ ५ ॥ मोहतणो हजी जोर बे रे लोल, तिल ए मदन दीपाय रे || रा० ॥ ब्रह्मादिक जिंत्या इों रे लोल, कीधा. कोडि उपाय रे ॥ रा० ॥ क० ॥ ६ ॥ यवसरसेंती सिद्ध वे रे लोल, सघली वातामांदी रे ॥रा० ॥ प्रातम बल विल फोरव्यां रे लोल, कष्ट किया फल नाहिं रे ॥ रा० ॥ क० ॥ ७ ॥ पें पण एहनी परें रे लोल, पाम्या पराजय ठाम रे ॥ रा० ॥ तो हमणां ए श्रेय बे रे लोल, जाइ प्रवचन गाम रे || रा० ॥ क० ॥ ८ ॥ वरशे संयम कन्यका रे लोल, तो ए बार समान रे ॥ रा० ॥ अरिहंतसुं साचा दुखां रे लोल, वधशे खातम वान रे ॥ रा० ॥ क ॥ ॥ आपने कोई खरो रे लोल, कायर मूको माल रे ॥ रा० ॥ अवसर जाणिने याखशे रे लोल, बहुविध लोकनी वाल रे ॥ रा० ॥ क० ॥ १० ॥ नलराजा पत्नी तजी रे लोल, हमें मूकी भूमि रे ॥ रा० ॥ यातमहित इ याचो रे लोल, नायो अपयश धूम रे ॥ रा० ॥ क० ॥ ११ ॥ राय विवेक वदे इस्युं रे लोल, ढील न कीजें खाज रे ॥ रा० ॥ नाजन नोज सिबेरे लोल, केही कीजें लाज रे ॥ रा० ॥ क० ॥ १२ ॥ तुं पूंठे ते यावजे रे लोल, सघला लोक लेइ साथ रे ॥ रा० ॥ हुं थी जाइने रे लोल, उलगगुं जगनाथ रे ॥ रा० ॥ क० ॥ १३ ॥ इण अवसर नर खाविया रे लोल, पहेला मूक्या जेह रे || रा० ॥ नमन करीने वीनवे रे लोल, सुरण साहिब ससनेह रे ॥ रा० ॥ क० ॥ १४ ॥ महेर घणी तुम उ परें रे जोल, ते साहिबनी आज रे || रा० ॥ कुशल प्रश्न बहु पूबिया रे लोल, हर्ष घणो जिनराज रे ॥ रा० ॥ क० ॥ १५ ॥ मिलण नली यावे सही रे लोल, अम चरणे एक वार रे ॥ रा० ॥ इम कहीने श्रम मूकीया रे लोल, वात जली निर्धार रे || रा० ॥ क० ॥ १६ ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥दोहा॥ ॥ सेवक वाणी सांजली, हरख्यो राय विवेक ॥ मनवंबित मुफ होय शे, शकुन दुषां अतिरेक ॥ १ ॥ थान वचन साहमो दुवे, उत्तम शकुन ते जाण ॥ बोलाव्या पुरुषोत्तमें, केही कीजें काण ॥२॥ विवेकराय हवे चालिने, प्रवचनपुरमें आय ॥ मंत्री पण पूथकी, प्रजा लोक सजाय ॥३॥ सकल लोक राजा मली, अरिहंतनी बत्र बाय ॥ सुख समाबें जई रह्या, मर जय कोय न थाय ॥ ४ ॥
॥ ढाल बारमी ॥ ॥ इक दिन नमि राजानो हाथी तूट्यो, अति मदमत्तथको ॥ ए देशी ॥ मयण तणां दल पूरी शूरां, पुण्यरंगपाटण आय रहे। हां याय रहे ॥ शूनुं नगर ते दीतुं सघर्तु, मयण नणी ते जाय कहे ॥ हां ॥१॥ मय ण कुंवर मन चिन्तवे एवं, राय विवेक ते नासी गयो ॥ हां० ॥ नाम सु एणीने न रह्यो मनो, जंबुक कायरकाय थयो ॥हां०॥॥ कुलाचार प एग न कस्यो कोइ, दत्रीतणो धर्म नाख दियो ॥ हां० ॥ मंत्रीतणो सुत बाखर एहज, राजा एहने कोण कियो ॥ हां०॥ ३ ॥ जाति उपर गयो न दु असली, जींत विना केम चित्र धरे ॥ हां० ॥ नासण विद्या धुरथी शीखी, ते नहिं विसरी चित्त खरे ॥ हां० ॥ ४ ॥ रणनी होंश रही मनमां है, इण अवसर शठ ए नाठो ॥ हांग ॥ लोक लाज पण न गणी नोले, काम कियो अतिही माठो ॥ हां ॥५॥ जिनवरनो पण जगतो युगतो, निर्मद निर्मम न्याय थियो ॥ हां।। जे जेहवो नर सेवे तेहवो, फल पण हाथोहाथ दीयो ॥ हां ॥ ६ ॥ जिनवर संगतिथी सिंहादिक, ते पण वैर विरोध तजे ॥ हां ॥ कां चुरकी ए घाले माथे, शीतल सार समाधि नजे ॥ हां ॥ ७ ॥ अरिहंत चरण शरण इणे लीधो, कालूं हमणां पुड ग्रही ॥ हां ॥ उंदर क्युं बिलमांहे लूटे, जो जब जावे साप वही ॥ हां ॥॥ पण मुक ताततणी ए वाचा, प्रवचन पुर मत जाय कदा ॥ हां ।। माह री कीरति सघले दूर, जयतपताका पाइ मुदा ॥हा॥॥ जयततणां नि शान घुरायां, हथियार हवे सब म्यान करे ॥ हां०॥ नवनवां नेटणां ले तो मन्मथ, निजपुर दिशिने पाउ धरे ॥ हांग॥१०॥ नव रसमां क सार शृंगारा, काम अयाणे मुख कीयो ॥ हां० ॥ शान्त जणी ते नेहडे थाप्यो,
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५
श्रीमोदविवेकनो रास. मन्मथ उसस्यो एम हियो ॥ हां ॥ ११॥ अनुक्रमें आयो अविद्या नग री, तिहां किणे मेरो श्रावी दीयो । हां ॥ मोहरायने दीध वधाइ, सुत आयो यशपुंज लियो ॥ हां ॥१२॥
॥दोहा॥ ॥ मोहराय मन हरखियो, आयो पुत्र प्रधान ॥ गुरु लघु रीत न का करी, साहमो जाय सुजाण ॥१॥ मन्मथ तातनणी तिहां, तुरत कीयो परणाम ॥ सुत सखरा ते सलहिये, विनयवंत अनिराम ॥ २ ॥ मन वच काया प्रेम धरी, मलिया मनने रंग ॥ शीतल चंदन चंद ज्युं, सुख दायी सुत संग ॥ ३ ॥
॥ ढाल तेरमी॥ ॥ देशी काब्बानी ॥ अथवा ॥ वाग्यां जांगी ढोल, हे सखी वागा जां गी ढोल ॥ ए देशी ॥ वाग्यां गुहिर निशान,हे सखी वाग्यां गहिर निशान,
आयो लायक नंदन मोहरो ॥ हरख्यो सब परिवार ॥ हे सखी॥ह ॥ निजकुल शेखर दीपे सेहरो॥ ॥ वंचाणा वचननिनाद ॥ हे० ॥ वं०॥ तिणे करी अंबर अधिको गाजीयो ॥ पुरजन करे उबरंग ॥ हे० ॥ पु०॥ धन धन मोह महिपति राजियो ॥२॥ नव नव पाप विकार ॥हेगान॥ नटुथा नाचे राचे जन मना ॥ हाव नाव सुखकार ॥ हे० ॥हा॥ मंगल गावे तिहांबदुला जना ॥३॥ पूर्ण कलश परधान ॥हेापू॥ शृंगार पाणि करीने अति नयो ॥ मलपति सोहव नार हे०म०॥ साहमी आवी मं गल जय कस्यो ॥४॥आश्रव गोख विशाल ॥ हे॥ आ॥ तसुपर बेग नर नारी घणां ॥ नृपसुत नयण निहाल ॥ हे० ॥ नृ०॥ बोले ए सुत ते हने शीमणा ॥ ५ ॥ पुर पेसारो कीध ॥ हे० ॥ पु० ॥ मोहोलें यायो म न्मथ मानगुं ॥ मायादिक परिवार ॥ हे० ॥ मा० ॥ हरख्यो निरखी सुत मुख वानगुं॥ ६ ॥ युगवर श्रीजिनचंद ॥ हे०॥ यु० ॥ तास प्रसाद लही करी में कीयो ॥ चोथो खंग रसाल ॥ हे० ॥ चो० ॥ जणतां गणतां हीसे मुफ हीयो ॥ ७ ॥ पावक प्रवर प्रसि ॥ हे० ॥ पा० ॥ दयाकुशल गणी गुरुप्रसादथी॥ धर्ममंदिर कहे एम ॥ हे॥१०॥ अर्थ सह्यो ए में आगम थी॥७॥ कर्म विचित्र कहाय ॥ हे ॥ क० ॥ तेह तणो ए विवरो आ खियो ॥ नविजनने सुखकार ॥ हे०॥०॥ जिनवर वचन सुधारस
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. दाखियो ए॥ इतिश्री प्रबोधचिंतामणौ ढालनाषाबंधे मोहचरप्रेषण कंदर्प दर्पदिग्विजयवर्णननामा चतुर्थः खमः संपूर्णः ॥ ४ ॥
॥अथ पंचम खंमस्य प्रारंनः॥
॥दोहा॥ ॥ श्रीशंखेश्वर सुखकरु, प्रणमूं पारस नाथ ॥ नाम लियंतां जेहनु,आ वे अविचल आथ ॥ १ ॥ण अवसर मन्मथतणी, कीरति नाट करे॥ नव नव बंद स्वबंदथें, वाणी रचना धरे ॥ २ ॥ जय जय जगने वनहो, जीव जीव चिरंजीव ॥ मोहराय नंदन निपुण, नव सुख माण सदीव ॥ ३॥ तुं शूरा शिरसेहरो, तुं वीरें विख्यात । कुसुम शरें जीत्यो जगत, कोण कहीजें वात ॥ ४ ॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा, इन्श चन्द नागेन् ॥ नूर सूर गुरु गरुड पंखि, जोगि जति नरवृन्द ॥५॥ तें जगमें जीत्या घणा, आण मनाई जोर ॥ काम पदारथ शिखव्यो, धर्म अर्थ शिवगोर ॥ ६ ॥ विषयत णां सुख तुं लहे, मात तात सुखकार ॥ इम आशीप सुणी करी, दीg दान अपार ॥ ७ ॥
॥ ढाल पहेली॥ ॥दर जीव दमा गुण आदर ॥ ए देशी ॥ मात पिता नगिनी ने नाइ, पूजे मयणने एम जी ॥ जग जीपणनी बात कहीजें, बल बुदि कीधी जेम जी॥ मा० ॥ १ ॥ मन्मथ मांमि कहीजे आगें, जीपणनी सदु वातजी ॥ नाठो वीर विवेक विख्यातो, सनिलिया अवदात जी ॥ मा० ॥२॥ माता मन हरव्यु यति गाढं, वखाणे वारंवार जी॥ तुं चिरंजीवे वंश वि नूषण, धन धन तुफ अवतार जी॥ मा॥३॥ बेटा बदुला होशे जगमां, पण तुज जोड न कोय जी ॥ तारा बदु आकाशें दीसे, चन्इ समान न होय जी ॥ मा० ॥ ॥ नयन अमारा चपल चकोरा, तुफ मुख चन्द समान जी ॥ किण दिन सुत आवीने मलशे, दूतो ए मुफ ध्यान जी॥ मा० ॥५॥ आज मनोरथ सघला दूधा, सुरुतरु फलियो आज जी॥ चातक मोर तणीपरें हरख्यो, तुफ दर्शन घनगाज जी॥ मा० ॥६॥ रति रंगीली तारी नारी, वसंत तारो मित्त जी ॥ स्नेह धरीने दिन दिन जोतां, मारग तारो नित जी ॥ मा० ॥ ७॥ रंगरलीगं सघला मलिया, दू
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७
श्रीमोदविवेकनो रास. उअति उबरंग जी॥ नव नव नाटक गीत विनोदा,कर्म उदय परसंग जी॥ मा० ॥ ७ ॥ घर घर मयणतणा गुण गरजे, कामकथा विस्तार जी॥ली नो जग सघलो कामरागें, काम विकार अपार जी॥ मा० ॥ए॥ उत्सव काम तणा अति कीधा,कहेतां नावे पार जी ॥ नरथी आठ गुणो नारीने, वनन काम कुमार जी ॥ मा० ॥ १० ॥ बदुलां सुख संसारनां विलसे, धरतो मन उबरंग जी ॥ धर्ममंदिर कहे धन धन ते नर, कामनो न करे सं ग जी॥ मा० ॥११॥
॥दोहा॥ ॥ मोहमहीपति चिन्तवे, इक दिन एम विचार ॥ वीर.विवेक नासी ग यो, जीवतो सुःख दातार ॥ १ ॥ मंदमति मुफ सुत अजे,बालक बुद्धि वि चार ॥ नावी वात न चिन्तवे, ते बलियो संसार ॥ ५ ॥ पंमित परखे प लकमें, बाधक साधक वात ॥ बल बल कल जाणे घणा, वीर विवेक कहा त ॥ ३ ॥ पंमित तेहने वर्णवे, जे परिणामें मीठ ॥ काथ कटुक मुखरोग ने, दूर करंतो दीठ ॥ ४ ॥ कारज तेहिज कीजियें, अंतें सुख दातार ॥ स्वाद मुखें किंपाक फल, आपे अधिक विकार ॥ ५ ॥ शत्रुथकां जे राज्य सुख, ते सुख स्वप्न समान ॥ अरिहंत नृपपासें रह्यो, करशे कोइ विज्ञान ॥ ६ ॥ श्म मन चिन्तातुर थको, बेगे मोह नरिंद ॥ सघली मलि बेठी स ना, बेग नरनां टुंद ॥ ७ ॥
॥ ढाल बीजी॥ ॥ इक दिन माहाजन आवी ए ॥ ए देशी ॥ तिणसमे सेवक वीनवे, सु ण साहिब सनेहो जी ॥ कालो रूप कुरूप , उंचो वे तसु देहो जी॥ त्रूटक ॥ तसु देह उंचो, पुरुष को, आवी उनो, तियां कणे ॥ कलिकाल नामें, नाम धरतो, नृप जणावे, मुख नणे॥ दीदार तुमचो, देखवा ए,या यो ने तुम,गुण स्तवे ॥ राजरो हूकम, एथ यावे, तिण समय सेवक, वीन वे ॥ १ ॥ राजा तेहने तेडावियो, दीठो रूप तिवारो जी॥ मानी वापत गी परें, सूखो नूखो अपारो जी ॥ ॥ अपार नूरव्यो, लोह जडियो, रूप कुरूपी, अति घणुं ॥ ते रूप देखी,सनाजननां, कंपियां मन, अति घ गुं॥ तिण आय राजा, पाय प्रणम्या, राजा पण, यादर दियो । कर जो डि कनो, वदन आगे, राजा तेहने, तेडावियो ॥ २॥ तब राजा मुखं पू
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
हन
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वियु, देम कुशल तुम होयो जी ॥ किण कारण चिर कालथी, तुझ दर्शन ए जोयो जी ॥ ॥ ए जोय दर्शन, हर्ष पाम्यां, आया थें, कारण कि से ॥ तव बोलियो ते, पुरुष प्रणमी, हेतु मुफ मन, ए वसे ॥ इक मयण दे, जगत जीपी, जेण वडो, यश लियो॥ए मयण देखो, नयनागें, तव राजा, मुख पूबियो ॥३॥ बीजुं कारण ए अजे, तुझवेरी बे एको जी॥ हाथ नायो तुज पुत्रने, जीवतो नानो विवेको जी ॥॥ सुविवेक नागे, तेह चिन्ता, राजन थें, मनमां धरो ॥ तेह चिंता नांजूं, रिपु विनासुं, जो मुफे, सेवक करो ॥ माहरो पण, तेह वैरी, वयर लेगुं, ते पडें ॥ एवो कलि युग. पुरुष बोल्यो, बीजुं कारण, ए अ ॥ ४ ॥ कलि बोल्यो सुण नूप ति, प्रवचन पुर तुऊ रो जी ॥ माहरे मन सुगमो अबे, लेलं तुज हजूरो जी ॥०॥ हजूर खेळ, देख तूं हवे,ज्ञान रदक, बांधलॅ ॥ संवेग सामंत, जेह जोधा, तेह सघला, साधरां ॥ वड वडा वीर, विवेक सघला, सबल दूता, गुनमति ॥ हवे खबर पडशे, अणी माथे, कलि बोल्यो सुण, नूपति ॥५॥ देखे हाथ तुं माहारा,प्रवचन पुर नथेडो जी॥ जोर न नाजे ज्यां लगे,नवि मूकुं तां केडो जी ॥०॥ केडो न मूकुं, ज्यां लगें,अवदीण न दुवे,ए खरो ॥मुक्तिनो मारग, जांजी ना, मदत जो, माहरी करो॥अरिहंत राजा, फे डि नाखू, ध्रुजावू, धर्मनी धुरा॥ कलिकाल महारं,नाम साचूं,देख हाथ तुं, माहरा ॥ ६ ॥ हरख्यो मोह नरेश ते, सांजली वचन करालो जी॥ काम कढ़ नर ए खरो, अरिदलनो ए कालो जी ॥ ॥ ए काल अरिदल, तणे माथे, उक्त नर ए, आकरो ॥ चिर काल एहनी, स्थिति न होसी, तोही ज ने मुज, काजरो ॥ श्म जाणिने निज, पास राख्यो, सार सेवक, सुरखकरु ॥ बहु मान दीधो, वडो कीधो, हरज्यो मोह, नरेशरु॥ ७ ॥
॥दोहा॥ ॥ राज काज लायक घरां, कलियुग राख्यो राय ॥ रत्नथकी सेवक न ला, जिणथी अरि जीपाय ॥ १॥ समय स्वनावथकी हवे, अरिहंत मोद सिधाय ॥ दिनकर श्राथमियें थके, तमनो जोरो थाय ॥ ॥ कलियुग फोज मुखी दुश्, सेना ले। अशेष ॥ चिहुं दिशि पसरे पवन ज्यु, प्रवच नमांही विशेष ॥३॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास.
॥ ढाल त्रीजी॥ ॥ मेघ मन कां मम मोले ॥ ए देशी ॥ राग शेष वली अति घणा जी, बांध्या वड विस्तार ।। विषयतणी तृप्मा वधी जी, विषनी वेल अपार ॥ न विक जन, सुगजो कलियुग वात ॥ मूको बीजी तांत ॥ न० ॥१॥ मन प र्याय ते केवल ज्ञानी, पकश्रेणि सुप्रधान ॥ बेहला संयम तीन जे सख रा, उपशम श्रेणि विधान ॥ न॥ २॥ पुष्कलाक लब्धि ने श्रीजिनकल्पी, चौद पूरव अति मान ॥ आदिम संघयण ने शुक्तध्याना, परम समाधि नि धान ॥ ज० ॥३॥ कलियुग आवते एटलां वानां, दूर कस्यां तिण वार ॥ अनुक्रमें दश पूर्वादिक मेट्या, पूर्वानुयोग विचार ॥ ज० ॥.४ ॥ अंतर मुहू तमा प्रर्व गुणतां, ते रही सब्धि विशेष ॥ संघयण सघता ते पण बांध्यां, बेवो रह्यो देख ॥न॥५॥माहाप्राणायाम ध्यान जे धरता,महोटा श्रीक बिराय ॥ ते पण दूर कियो कलिकालें, अगुन ध्यान दीपाय ॥न० ॥६॥ इणिपरें जाये दिन दिन हीणा, कलियुग की, जोर ॥ काम क्रोध ने वैर वि रोधा, रौ आर्त अति घोर ॥ ज० ॥ ७ ॥ संप्रति राजा अनुक्रमें दू, क लिगुं कीध संग्राम ॥ ठाम ठाम जिनचैत्य कराया, नाव नक्ति अनिराम ॥ न० ॥ ॥ देश अनारजमें पण जिनवर, धर्म दीपायो सार ॥ कलियुग ने तिण काठो कूव्यो, धर्मराग मन धार ॥ ज०॥ ए॥ ते राजा देवलोक गया पली, व्याप्यो काल कराल ॥ वडवडा नपतिनां मन फेयां, कीधी मि थ्याजाल ॥ ॥ १० ॥ नव नव प्रगट किया पाखंझी, हिंसा धर्म अपा र ॥ पुर्निद पण कलियुगना सेवक, दोड्या वारोवार ॥ ॥११॥ जिन वर धर्म कियो तिण खंमित, सामाचारी नेद ॥ महेला मन मुनिवरनां की धां, सूधो संयम वेद ॥न ॥ १२ ॥ चार अडे अनुयोग जे महोटा, अ ल्प किया ते काल ॥ लेश देशथी मति श्रुत दूया, बांध्यो जडता जाल ॥ न॥१३॥ जिनशासननी रक्षा काजें, नावे देवी देव ॥ तप जप ध्यान तणो नहिं महिमा, धर्मतणी नहिं सेव ॥ न० ॥१४॥ गणगड नेद कि या इण चूमे, कृषिमें घाली राड ॥ आत्मअंगमां थोडा बूजे, वेश नणि ध रे वाड ॥ ज०॥ १५॥ सूत्र सकल माने नहिं जी, अर्थतणा करे नेद ॥ सर्दहणा जिन वचनें नाहिं, मिथ्या राखे खेद ॥ ज० ॥ १६ ॥ नूर शूर नो लाया एणे, लोनतणे वश कीध ॥ निर्मथने पण सग्रंथ कीधा, मूर्जा मंति
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. णे दीध ॥ ज० ॥ १७ ॥ निज गुणनो खप न करे कां, परगुण लेवा जा य॥ सावद्य शास्त्रजणे घणां जी, कर्मबंध जिणे थाय ॥नम्॥ १७॥ लाल पाल ऋषिजी करे जी, अवर जेह नर नार ॥ गजवृत्तिने मूकी करी जी, लेवे खर आचार ॥ ज०॥ १५ ॥ विकथा वाद बदु करे जी, बागम न जाणे सार ॥ नाव नेद समफे नहिं जी, बाहिज दृष्टिअपार ॥न॥२०॥ समवाये पांचे करी जी, स्याहाद सुखकार ॥ ते नवि बूजे धुरथकी जी, जि नमति मूल विचार ॥ज० ॥ २१॥ नय प्रमाण निरखे नहिं जी, निश्चय नय न व्यवहार ॥ इव्य अने पर्याय न बजे, कलियुगने परिवार ॥ न ॥ २२ ॥ श्रावक पण वली एहवा दूधा, ए जुगने परसंग ॥ देव न माने गुरु नवि माने, धर्म नपर नहिं रंग ।। न॥२३॥ गोगा मोगा ने महमा यी, देवपाल जली रीत ॥ तेहने सेवे मना सूधा, अरिहंत न धरे चित्त ॥ज० ॥२४॥ नाटक गीत सुहावे नावे, जिनवाणी न सुहाय ॥ गुरु न पदेश सुणे नहिं कबहूँ. घरधंधामा धाय ॥ज ॥२५॥ त्याग धर्म करी ने युं थाखे, फल नव दीयूँ कोय ॥ पूरी प्रतीति नहिं धर्म ऊपर, सिम कि हाथी होय ॥ न० ॥ २६ ॥ दान देबदु वंबा इहां राखे, त्याग न राखे ना व ॥ निर्वउक धर्म मन आचरतां, थाये नवजल नाव ॥ न० ॥ २७ ॥ माहा मंत्र नवकार तजीने, समरे बीजा मंत्र ॥ पुण्यानुसारी धनने अर्थ, धारे बदला यंत्र॥ ज०॥ ॥ धातुरवादी जवटे खेले, वांले धननी रा शि॥ पनरे कर्मादानने सेवे, श्रावक नाम नन्नास ॥ज ॥२ए ॥ वादें कु पात्र मुखें धन खरचे,पात्र न पोष्यो जाय ॥ राजा धन दंमीने लेवे, कोडी दान न थाय ॥ न० ॥३० ॥ आतम रूप न उलखे जी, ज्ञान न आणे चि त्त ॥ काम क्रोध नीनो रहे जी, आरंन अधिको नित्तान० ॥३१॥ कलि युग समय स्वनावथी जी, श्रावक एहवा थाय ॥ धर्ममंदिर कहे विण जो गवियां, कर्म न मूक्यां जाय ॥ न० ॥३॥
॥दोहा॥ ॥अवर लोक पण कलियुगें, व्यापी पापी कीध ॥ कूड कपट बलब लघणा, कुमति कदाग्रह गृ६ ॥१॥सेवक स्वामी बल करे, पिता पुत्र व ली देख ॥ पति पत्नी\ बल करे, लायें कुलनी रेख ॥३॥ न बने सासू ने वहूं, घरमां कलहो होय ॥ वीलू चटकानी परें, सासूवाणी जोय ॥३॥
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
७१ १६ तात दून जिसे, कथन न माने कोय ॥ अशन वसन आपे नहिं, पुत्र वधू वश होय ॥४॥ अल्प नरमने कारणे, खेल करे अति घोर ॥ मन सं तोष धरे नहिं, तृष्णा वाधी जोर ॥५॥ नगिनी ब्रात तणे घरे, जन्म लगे रीसाय ॥ नाइ मांहोमांहि वली, परणी जूया थाय ॥ ६॥ सगपण संपन को धरे,सदु स्वारथने थाय॥ परमारथ प्री नहिं,कलियुग व्याप्योाय॥७॥
॥ ढाल चोथी॥ ॥धर्म हैये धरो ॥ए देशी ॥ रस कसमां कलि व्यापियो रे, दिन दिन एहवो थाय ॥ मेह घणा वरसे नहिं रे, वाजे अधिका वायो रे॥ कलि कौतु क करे ॥ समयतणो वती जोरो रे, अल्प धर्म दून ॥ व्याप्यो पाप अघो रो रे ॥ कलि ॥ १॥ ए आंकणी ॥ पत्नीगुं प्रीत नहिं धरे रे, परनारी लो जाय ॥ शीख जली घरनी दीये रे, ते मन नावे दायो रे ॥क॥२॥ कपट करावे मित्रगुं रे,जननी जनकगुंजूऊ॥ कुबुदि शिखावे पापनी रे,आववान दिये जो रे ॥क॥३॥ स्वारथ लगे मैत्री करे रे,नियम संकट लगि जोय ॥ कष्ट पड्यां समकित तजे रे, एहवा धीरज होयो रे ॥ क० ॥ ४ ॥ थोडी शुन संपत्ति दुवे रे, कश्ये विणसी जाय ॥ जो जीवे तो निश्चे दुवे रे, यो वन धर्मी न थायो रे ॥क ॥ ५॥ दंन विना धर्म नवि करें रे, क्रोध स हित तप तुन्न ॥ मान धरी श्रुतने नणी रे, धन मेले नहिं सुबो रे ॥क०॥ ६ ॥ व्यापारी चोरी करे रे, कुलवंत विट सम थाय ॥ कुल नारी गणिका परें रे, हसन वसन मन दायो रे ॥ क० ॥ ७ ॥ मुख मीठी वातां करे रे, कपट हैयामें राख ॥ कर्षणी अति वारंन करे रे, सामी नावे शाखो रे ॥ क० ॥ ॥ उत्तम फल थोडां दुवे रे, खारां कडुआलाख ॥ अल्प हीर गायां दुवे रे, थोडी संतत शाखो रे ॥ क० ॥ ॥ इम कलिपावक बहु करे रे, सुरुति दृधनो शोष ॥ कुमारपाल नृप अवतस्यो रे, करवा देधने तोषो रे ॥क० ॥ १७ ॥ नपदेशे हेमसरिने रे, दीपायो जिनधर्म ॥ उत्त म आचरणा करी रे, दूर कियां पाप कर्मो रे॥ क०॥ ११॥ अष्टादश देशा विषे रे, मार इसी मुख वाण ॥ कोइन नांखे नर कदें रे, एवी जेहनी था
गो रे ॥ क० ॥ १२ ॥ चरण पोषण नबला करे रे, दीन हीन नमार ॥ नाव नक्ति धर्म रागियो रे, कीयां चैत्य अपारो रे ॥ क०॥ १३ ॥ कलियुग नुं मुख जालियुं रे, चौलक रीफ नरेश ॥ सात व्यसन नट कलितां रे,
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
हणियां काली केशो रे ॥ क० ॥ १४ ॥ अमार शब्द उद्घोषणा रे, तेह 'ज तीखां बाण ॥ कलिने लाग्यां प्रति घणां रे, पण न तज्यां कलिप्रा यो रे ॥ ० ॥ १५ ॥ निरुपक्रम ए यारखे रे, वज्रकपन क्युं देह ॥ क को पारद सेवियो रे, कलियुग नावे बेहो रे ॥ क० ॥ १६ ॥ गलिया ढोरती पेरे, रे होय रह्यो तिथिवार ॥ जीवतो मूक्यो नरपति रे, करुणा चि त मजारो रे ॥ क० ॥ १७ ॥ चार वर्ण धर्म जिनतलो रे, सेवे नृप यादे श ॥ जीवदया पाले खरी रे, सघला देश विदेशो रे ॥ क० ॥ १८ ॥ अध्या तम गुरु दाखवे रे, जाली जीव जीव || निज परगुण परगट कीया रे, धरी स्याहाद शुभ दीवो रे ॥ क० ॥ १९ ॥ केटलां वरस गया पी रे, ते पण देवलोक जाय || फिर जाग्यो कलियुग तदा रे, वलतो वश नवि थायो रे ॥ क० ॥२०॥ कामक्रोध जाग्या घणा रे, धर्मधन लूटयुं जोर ॥ दुर्गति जाये प्राणिया रे, करि करि पाप धोरो रे ॥ क० ॥ २१ ॥ बहुत युगां इम टू रे, कलिकेरो अधिकार || ते पण समयो पामिने रे, दी थयो जिवारो रे ॥ क० ॥ २२ ॥ जिनवर प्रगट हुआ तदा रे, कलियुग पा यो नाश || मोह सुी मन कूरियो रे, सखर थयो मुऊ दासो रे ॥ क० ॥ २३ ॥ प्रति सखरी मति रूपनो रे, चिरंजीव नवि कोय ॥ में याथी जालियो रे, स्थिरता वास न होयो रे ॥ क० ॥ २४ ॥
॥ दोहा ॥
॥ नविजन लोक मली करी, जाये अरिहंत पास || कर जोडी उजा कहे, सु साहिब अरदास ॥ १ ॥ अमल चलाव्यो कलियुगें, करडो संघ जे गम ॥ जीव घणा जाली करी, मूक्या मोहने गाम ॥ २॥ करुणाकर क रुणा करो, मोहतणो मद फेड || जिविध ए लोकांती, वैरी मूके केड ॥३॥ ॥ ढाल पांचमी ॥
॥ जी हो मिथिला नगरीनो ए धणी ॥ ए देशी ॥ जी हो जिनपति ज गगुरु बोलिया, जी हो करुणानिधि कृपाल ॥ जी हो जविक जणी याश्वा सना, जी हो दे जिनवचन रसाल ॥ चतुर नर चेतो चित्त मकार ॥ जी हो शिव अभिलाषा थाय बे, जी हो फलशे वंबित सार ॥ च० ॥ १ ॥ ए
की || जी हो कलियुग शिव पुर जावतां, जी हो रोधक थियो यसमा नं ॥ जी हो पापी पचीयो पापशुं, जी हो हवे वधियूं धर्म ध्यान ॥ च० ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३
श्रीमोदविवेकनो रास. ॥२॥ जी दो मोह विटंबन जे करे, जी हो जाएं हुं तेह ॥ जी हो अवसर विण उदासीनता, जी हो धर रहिया निज गेह ॥ च० ॥३॥ जी हो वीर विवेक वारु अने, जी हो तुम फुःख फेडणहार ॥ जी हो सं यमस्त्रीने परणिने, जी हो जीपशे मोह अपार ॥ च० ॥ ४ ॥ जी हो पाखे स्वामी विवेकने, जी हो विलंब न कीजें सार ॥ जी हो निज नुज बल देखाडिने, जी हो थाd संयम जरतार ॥च०॥५॥ जी हो वीरकुलें ए कन्यका, जी हो वीरव्रता गुण धीर ॥ जी हो शूरजणी परणे सही, जी हो कायरा नहीं शीर ॥च० ॥६॥ जी हो कन्याना गुण सांजलो, जी दो अनुपम रूप निधान ॥ जी हो बीजी नारी तेणि पेरें, जी हो नहिं ले एह विधान ॥ च ॥ ७ ॥ जी हो बीजी नारी सेवतां, जीहो देवता ना सी जाय ॥ जी हो ए कन्या परण्याथकी. जी हो सेवक सुरपति थाय ॥ च० ॥ ॥ जी हो बीजी नारी चालतां, जी हो पग पग बंधन थाय ॥ जी हो ए बंधनने बोडवे, जी हो परमानंद सहाय ॥ च ॥ ए ॥ जी हो बीजी नारी जुवानने, जी हो वां मननी खांत ॥ जी हो ए गरढा नरने खुशी, जी हो एहनी नवली नांत ॥ च ॥ १० ॥ जी हो लोकनां दूषण जे अने, जी हो नूषण एहने थाय ॥ जी हो नूरख्यो दूबलो एहने, जी हो मनमां आवे दाय ॥ च ॥ ११ ॥ जी हो अशन वसन वांडे न हीं, जी हो कष्ण न वां शीत ॥ जी हो केश न गूंथे एकग, जी हो नूत ल शय्या रीत ॥ च०॥ १२॥ जी हो स्नान विना ए गुड़ ,जी हो नूप ण विण ए रम्य ॥ जी हो विण जम्यां वलि धारती, जी हो गुण गण रय ण अगम्य ॥ च ॥१३॥ जी हो वस्त्र विना गुपती रहे, जी हो सुरत विना सुखदाय ॥ जी हो प्रेम विना प्रीत धारती, जी हो परम समाधि नपाय ॥ च ॥ १४ ॥ जी हो नरपति सुरपति ना गमे, जी हो हलधर पण न सुहाय ॥ जी हों एक विवेकी गुहगुं, जी हो प्रीति करे मन लाय ॥ च० ॥१५॥ जी हो नियम करयो ने एणिये, जी दो राधावेध सधाय । जी हो परj पियु प्रीबी सही, जी हो ए आयु में दाय ॥ च० ॥ १६ ॥ जी हो ए कन्या हाजर अजे, जी हो वर तुं वीर विवेक ॥ जी हो परणा वे संवर पिता, जीहो ढील न करिये बेक ॥ च ॥१७॥
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ दोहा ॥ ॥ एह वचन सुणी हरखियो, अरज करे मन लाय ॥ हुँ तुमने गुं वी नवू, तुं सर्वज्ञ कहाय ॥१॥ संहालो सेवक अढूं, टाढो शीलो जोर ॥ क लिन सुगीजें कन्यका, वजतणी परें घोर ॥ २॥ पण तुज चरण प्रसादथी, अतुली बल मुफ जोय ॥ मलयाचल संयोगथी, चंदन तरुवर होय ॥ ॥३॥ हुकम लह्यो संवर सुता, परणावे सुखकार ॥ साधे राधावेधने, ते सुजो सुविचार ॥४॥
॥ ढाल बही ॥ ॥ यत्तनीनी देशी ॥ स्वयंवरा मंझप मंमावे, तिहां वड वडानूप बो लावे ॥ हीये निहचें थंन रोपे, अति उंचो सबल आटोपे ॥१॥आ आ रा पाठ कर्म, अति काग ते नहिं नर्म ॥ वेगें करी फिरता दीसे, मन वी र विवेकनूं हीसे ॥ २ ॥ वाणी गति विषमाकार, फरे चकतणे अनुहार ॥ तिमाहे तत्त्व ते राधा, रूप पूतली कीध अबाधा ॥३॥ जीवना जे यात प्रदेशा, निश्चल मध्य रहे सुदेशा ॥ बीजा असंख्याता जेह, ताता तेल तणी परें तेह ॥४॥ ते स्थन तणे अति पासे, दमा ऊपर लेश वा से ॥धर्म नीरें करीने नरियूं, परमागम कुंम कर धरियूं ॥ ५ ॥ निज चे तन कीध कबाण, तिहां धूंनो धीरज बाण ॥ त राताई बहुला प्राणी, याइकना कबापने ताणी॥६॥ थंजने पण हाथ लगाया, पण तत्त्व कला नवि पाया ॥ नाखीने तार कबाण, घणा नाता मूढ अजाण ॥७॥ लोकें बदु हासा काधा, फिर पाना चाव्या सीधा ॥ हवे वीर विवेकनी वारी, पावि कनो करि दुसियारी॥ ७॥ पहिला जगनाथने वंदे, वलतो गु रुचरण आनंदे ॥ वर तत्त्व कला जे राधा, सीखाइ जेण अगाधा ॥ ५ ॥ आव्यो तिण कुंमनी पासें, काले बाण कबाण उनासें ॥ सीधो कुंमोह वे थापे, चरम चक्रतणे रूप व्यापे ॥१०॥ कर्मचक्र स्वरूपने देखे, कंक दर्पणमांहि विशेषे॥ले बाण कबाण चढायो, टंकार शब्द सुणायो ॥११॥ मुंची दिशि बाणने बांधे, नीची हग करुणा बाधे ॥ नावित करुणा करि गाढी, शुछ शील कबोटी माढी ॥१२॥ क्रम चक्र फिरतो धारी, तिहां थं तर झान विचारी ॥ राधावेधना शेषने नेदे, शुभ बातम अनुनव वेदे ॥ १३ ॥ तब जय जय शब्द नगीजें, वली धवल मंगल पण दीजें ॥ वरसा
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
श्रीमोदविवेकनो रास. वे फूलने देवा, करे वीर विवेकनी सेवा ॥ १४॥ वर माला कन्यायें घाली, पासें उनी आवे बाली॥ सखियां ए प्रवचन माता, तसु उपनी अधिकी शाता ॥ १५ ॥ हर्षित दूत्रा अति प्राणी, तरष्यां ज्युं लाधे पाणी ॥ ति हां परम प्रमोद प्रकाशे, गुन नावना नाव निवासे ॥ १६ ॥ परसंगतणो दु त्यागी, सूधो मुनि मुख्य वैरागी ॥ संयमस्त्री परणी नारी, अरि जीप पने दुशीयारी॥१७॥
॥दोहा॥ ॥ चोरी चढवानी हती, होंश घणी मनमांहि ॥ पूगी तेह विवेकनी, धरि जिनवरनी बांहि ॥ १ ॥ तीन जुवनमें यश थयो, सारो हे संसार ॥ नाग अधिक ए वीरनो, लाधी संयम नार ॥२॥ प्रेम घणो प्रमदा धरे, प्रीतमझुं रसरंग ॥ विलसे वीर विवेकयुं, अनुपम सुख अनंग ॥३॥ वासु देव वली चक्रवर्ती, सुरपति नरपति द्वंद ॥ एहना सुखथी पण अधिक, सुख शोना आनंद ॥४॥
॥ ढाल सातमी॥ ॥ श्रीजिनप्रतिमा हो, जिन सरखी कही ॥ ए देशी ॥ वैरागी सौना गी हो, वीर विवेक ने, निरुपम गुण मणि राशि ॥ उत्तम आतम हो, निज बल फोरियो, अंतर वास सुवास ॥ वै० ॥१॥ ज्ञानावरणी हो, कर्म उदय करी, दोय परिसह धार ॥ दर्शन मोहथी हो, एक परिसहो, वेदनी थाय अग्यार ॥ वै॥ २ ॥ एकज होवे हो, अंतराय कर्मथी, चारित्र मोहथी सात ॥ एहवा परिसह हो, बाविश ऊपजे, सहे खमे दृढगात ॥ वै० ॥३॥ पंच महाव्रत हो, मेरु नपाडिया, तृण जिम न गणे नार ॥ बलवंत म होटो हो, रिपुदल जीपवा, चरण करण हथियार ॥ वै० ॥ ४ ॥ दिन दि न अधिको हो, संयम नारीयुं, अधिक अधिक सस्नेह ॥ तप जप तेजें हो, दीपे अति घj, क्रोध दावानल मेह ॥ वै० ॥ ५॥ करवतनी परें हो, त्रिवट दोहिली, शरणे राखणहार ॥ जंगम स्थावर हो, समनावें करी, राखे चित्त मकार ॥वै०॥६॥क दिन आवी हो, जिनपति वीनव्या, दुकम करो महाराज॥ अरिदल नांजी हो, नव नव नयहरुं, वालुं शिवपुर राज ॥ वै० ॥ ७ ॥ समयें देखी हो, जगवंत नाखियो, न करो ढील लगार ॥ मोह महीपति हो, हवे तूं जीपसी, नहिं ले विघ्न विकार ॥ वै० ॥ ७ ॥
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
धिक करारो हो, याश्रम मोह बे, हजीय न मूके केड | तो हवे निज ब ल हो, नुज बल फोरवी, अरि नाखुं नथेड ॥ वै० ॥ ए ॥ इलि परें चिन्ती हो, जयनंना नली, वजडावे गुन वार ॥ कटक सहायी हो, सघजूं सज क रे, रि जीप अधिकार ॥ वै० ॥ १० ॥ सामंत सखरा हो, साथे वड वडा, पुत्र कलत्र परिवार ॥ हय गय पायक हो, रथ चतुरंगशुं, ते सुएजो विस्तार ॥ वै० ॥ ११ ॥
॥ दोहा ॥
॥ जय जय शब्द सहु नणे, मांगलिक मुख चार ॥ अरिहंत सिद्ध ने साधु धर्म, ए चारे सुखकार ॥ १ ॥ शीख दिये हवे जगगुरु, सुण विवे कवड वीर ॥ समय मात्र पण मत धरे, प्रमादसेंती शीर ॥ २ ॥ माता शीखें चालजे, वे नारी अनुकूल ॥ निवें सन्नाह तुं पहेरजे, यरि होशे अकतूल ॥ ३ ॥
|| TIA HIJA ||
॥ नविक कमल प्रतिबोधवा, साधु तणे परिवार || ए देशी || विनय विवेक विचार, करजेतुं महेलाए ॥ वेशास न करे केहनो, ए बे माहरी यो रे || सु सु शुनमति, तुं बे चतुर सुजाणो रे तो पण ग्राखियें, रिपु जिपरो टालो रे ॥ सु० ॥ १ ॥ ए यांकणी ॥ जन्म की तुं जाएग बेरे, पूरो पात्र सुपात्र || तो पण उपदेश जाएगीने रे, थापीजें तुफ गात्रो रे ॥ सु० ॥ २ ॥ तु वैरी तीखो बे रे, तुं शीलो बे वीर मां बल
रे, पावक तुं नीरो रे ॥ सु० ॥ ३ ॥ शांत रसीलो तुंरे, ते तामस धीर ॥ तुं सुरतरु बाया अबे रे, यातपनो नारो रे || सुप ॥ ४ ॥ निज गुण ने मत मूकजे रे, रहेजे माता पास || अमिय कचोलां एहनां रे, लोचन बे गुण रासो रे ॥ सु० ॥ ५ ॥ जव वैराग्य ए ताहरो रे, सुत महोटो शिरदार ॥ मुख खागें राखे सही रे, जीपशे रिपु परिवारो रें ॥ सु० ॥ ६ ॥ संवेग निर्वेद लघु सुता रें, जय करशे तुक जोर ॥ रण र सिया रिपु जीपशे रे, यातमनो बल फोरो रे ॥ सु० ॥ ७ ॥ समकित दृष्टि जे मंत्री रे, धरजे फोजां मुख्य ॥ नद्यम सफलो ए दुशे रे, जाशे सघलां दुःखो रे ॥ सु ॥ ८ ॥ राम दम तप जप उमरा रे, वड वडा वीर विख्या
॥ दरजेतुं एहने रे, दुशमनने करि घातो रे ॥ सु० ॥ ए ॥ ज्ञान त
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
งง
जार ए ताहरो रे, बुद्धितणो नंमार ॥ स्वसमय परसमय जाल बे रे, रिपु दल नार उतारो रे ॥ सु० ॥ १० ॥ सामायिक यादें करी रे, यावश्यक नि धरि ॥ ते तु पुरोहित प्राखियो रे, तेहने मत वीसारो रे || सु० ॥ ११ ॥ दशविध यति धर्म हाथिया रे, फोजोना शणगार | शीलंग रथ ते रथ नला रे, सज्या सहस ढारो रे ॥ सु० ॥ १२ ॥ नव नव तप नेद तुरंग ले रे, तीखा तेजी वेग || ते ऊपर बेसी करी रे, दीपावे निज तेजो रे ॥ सु०॥ १३॥ शुभ परिणाम ते सावता रे, पायक प्रौढा पमूर ॥ तु मुख यागे र नि डेरे, राखे आप हजुरो रे ॥ सु० ॥ १४ ॥ प्रायश्चित्त ते केम बेरे, तेहने जे साथ || घायलने ए सज करे रे, सिद्धि सखरी जसु हाथो रे ॥सु ० ॥ १५ ॥ राणी वेदु साथ जे रे, जे बे बुद्धिनिधान || नारी जाए न परिहरे रे, कुण शूरो ए समानो रे ॥ सु० ॥ १६ ॥
॥ दोहा ॥
॥ इम सुणी वीर विवेक हवे, यावे नारी पास || ाखे सुंदरी सांन लो, धरि मनमां उल्लास ॥ १ ॥ जिनवर वचन हुई बे, नारी जो सा
य ॥ तुमचो श्यो आलोच बे, स्त्री बोली सुरा नाथ ॥ २ ॥
॥ ढाल नवमी ॥
ज्युं
॥ वाडी फूली यति जली ॥ मन नमरा रे ॥ ए देशी ॥ कर जोडी कामिनी कहे ॥ मु जमरा रे ॥ सुए साहिब जरतार ॥ लाल मुक्त जमरा रे ॥ कटक यात्रा जणी थें चव्या || || में पण याहरें जार ॥ जा० ॥ १ ॥ तनु बाया ॥०॥ केड न मूकुं खाज ॥ ला०॥ चंङ्कला चंद साथ बे ॥ ० ॥ वादल सायें गाज || ला० ॥ २ ॥ साहिब बाग समान बे ॥ मु० ॥ में वे विस्तार ॥ ० ॥ थें सरोवर नीरें नया ॥ मु० ॥ में कमलिनी सु खकार ॥ जा० ॥ ३ ॥ तुं जीवन तुं खातमा ॥ मु० ॥ तुं श्रम प्राणाधार ॥ ला० ॥ तुम विरहो न खमी शकुं ॥ मु० ॥ देखी रह्यो किरतार ॥ ला ॥४॥ शक्ति मारी देखो ॥ मु० ॥ रिपुदल नेलो जेथ ॥ ला० ॥ शूरा पूरा वे खशे ॥ मु० ॥ कसवटी अमची तेथ ॥ ला ॥ ५ ॥ खवर नारी सम डुं नहिं ॥ मु० ॥ राजसुता रजपूत || ला० ॥ रिपुदल तृणसम लेखवां ॥ मु०॥ निज घर राख्यां सूत ॥ ला० ॥ ६ ॥ वीर विवेक खुशी ययो ॥ मु० ॥ प्रमदानी सुणि वात ॥ ला० ॥ सामंत सघला तेडिया ॥ मु० ॥ एह वि
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
IG
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. चार कहात ॥ ला ॥ ७ ॥ आप आपणी नारीने ॥ मु०॥ लेजो सघ ली साथ ॥ ला ॥ जीत दुशे ए शक्तिथी ॥ मु० ॥ कहियो डे जगनाथ ॥ ला० ॥ ॥ प्रशम सामंतें तब ग्रही ॥ मु० ॥ दमा नारी जसु नाम ॥ला ॥ माईव वरी प्रिय नम्रता ॥ मु० ॥ साथ दुई अनिराम ॥ ला० ॥ ए ॥ आर्जव सामंतें ग्रही ॥ मु० ॥ प्रसन्नता नामे नार ॥ ला ॥ सं तोष सामंतें ग्रही ॥ मु० ॥धृति ललना सुखकार ॥ला०॥ १०॥ विम लबोध गुन मार्गणा ॥ मु० ॥ लीधी सुंदर सार ॥ ला० ॥ पुरोहित यास्ति क्यबुदि ने ॥ मु० ॥ लीधी पत्नी तिवार ला॥११॥ शेते सत्यवाणी वधू ॥मु०॥ वेदकता मंत्री नारि ॥ला ॥ नवमंदा पुत्र ते ग्रही ॥ मु० ॥ नारी प्रेम उदार ॥ ला० ॥ १२ ॥ इणि परें सघले साथीयें ॥ मु० ॥ सा थे लीधी नार ॥ ला० ॥ दुकम दुवो साहिबतणो ॥ मु॥ वेगें दूइ अस वार ॥ ला० ॥ १३ ॥ पांचे हथीयार बांधिया ॥ मु०॥ जगमग ज्योति अपार ॥ला ॥ उज्ज्वल गुक्त ध्यान ॥ मु०॥ हथियारमा शिरदार ॥ ला० ॥ १४ ॥ जहर जोसण गुरुशीख ते ॥मु० ॥ पहेर। रदा काज ॥ ला०॥ सकल सजाइले करीमु०॥गमन करे माहाराज ॥ला॥१५॥
॥ दोहा ॥ ॥साधु संयम गजराज दृढ, वरदायी वड वीर॥प्रवचन पुरथी चालिया, साथ वड वडा धीर ॥१॥ मोह महीपति जीपवा, शूरा पूरा साथ ॥ वीर बलें धरता थका, जय लक्ष्मीना नाथ ॥ २ ॥ नव नव गुणगण नूमिका, आक्रमता तिणि वार ॥ पसरी कीर्ति दहदिशे,हरख्यां लोक अपार ॥३॥
॥ ढाल दशमी ॥ ॥पास जिणंद जुहारिये ॥ ए देशी ॥ वरदायी वीर गायें,जग संघले यशवासो रे ॥ हिंसक चोर नासी गया, तम नासे सूर प्रकाशो रे ॥ व० ॥१॥ मिथ्यान्रम दूरें गया, हवे कपट क्रिया रही दूरो रे ॥ अपूर्व करण करतो हवे, प्रतप्यो निज तेज पंमूरो रे ॥व० ॥२॥ नूर नाविक जट क टकमां, आवीने नेला थायो रे ॥ वाहलें जिम नदियां वदें, रिपु जीपण सबल उपायो रे ॥व० ॥३॥ गाम नगरनां नेटणां, नव नवला सम रस लेवे रे ॥ नमता खमता तसु देखीने, उपदेश ते शिरपाव देवे रे ॥ ७ ॥ ४ ॥ मंत्री सघलाने कहे, सुख थाशे धरो वीर आयो रे ॥ मोहतणो नय
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. मिट गयो, हवे धरजो मन गुन ध्यानो रे ॥ व ॥ ५॥ पुःख दोहग दूरें गयां, गया आधि व्याधि विकारो रे ॥रोध विरोध विलय गया, समतायें श्रीसुखकारो रे ॥व०॥ ६ ॥ परम प्रतीति प्रगट नइ, घन वूठो ज्युं हरि कायो रे ॥ पाप ताप दरें गया, नवि लोकांने मन नायो रे ॥ व ॥ ७ ॥ श्रीजिनचंद सूरीश्वरु, जसु नामें सुख अपारो रे ॥ दयाकुशल पाठकवरु, गुरु गिरुथा गुण नंमारो रे ॥व०॥७॥ तासु प्रसादे ए रच्यो, खंम पां चमो नवि नपकारो रे ॥ धर्ममंदिर कहे सांजव्यां, लानीजें सुख श्रीकारो रे ॥ व ॥ ॥ इतिश्री प्रबोधचिन्तामणो ढालनापाप्रबंधे कंदर्पोत्सवकलि काल आगमविगमविवेक परिणयन प्रस्थानवर्णन नामा पंचमः खंमः॥५॥
॥अथ षष्ठ खंम प्रारंनः ॥
॥दोहा॥ ॥ श्रीजिनवास सुवास नित, महोटो महिमा निधान ॥ चरण कमल श्रीपासनां, प्रणमुं परम प्रधान ॥ १ ॥ इण अवसर हवे मोह नृप, चर मुख सांजली वात ॥ साधे सघला देशने, वीर विवेक विख्यात ॥ २ ॥ मा नी मउरालो घा, पर उन्नत नसुहाय ॥ निज मंत्रीने तेडीने, आखे चित्त लगाय ॥३॥ आयो वैरी बल करी, सिंहतगी परें एह ॥ पाला पगला दे इने, फिर मांमयो मति गेह ॥४॥ में पहिलाही जाणियुं, अवसर सा ध्यो एण ॥ थें मनमां हरख्या घj, नागो कायर एण ॥ ५॥ मन्नतो बल मन्न विण, जाणे नहिं में कोय ॥ मुग्धमने थें मृग अडो, बल बल हवे श्यो होय ॥ ६ ॥ नयण प्रमुख बोल्या हवे, सुण स्वामी मोहराय ॥ न करो चिन्ता एवडी, करगुं दाय उपाय ॥ ७॥
॥ढाल पहेली॥ ॥आज निहेजो रे दीसे नाहलो॥ ए देशी ॥ मोह महीपतिने श्म वी नवे, कर जोडीने काम ॥ तुफ मुख आगे वड वडा वीर डे, धर धीरज अ निराम ।। मो० ॥१॥ ए कूकर ज्युं फिरे अब नासतो, देखाडं बुं शूर ॥ ख जून त्यां लगी ज्योति करे फिस्यो, ज्यां नवि उग्यो सूर ॥ मो० ॥ २ ॥ अ वसरथकी जे तेज लही करी, नीच हुई दुःख जाय ॥ सूरज ज्योति, न दाहक तेहवी, जेहवी वेलू थाय ।। मो० ॥३॥ टीटोडी पंखीनी परें
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
GO
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
हवे, पान धरें वे एह || मिंरुकनी परें सोर करे रह्यो, अल्प लहीनें मेह ॥ मो० ॥ ४ ॥ वरसालाना ज्युं वहे वायरा, योबाना ज्यं नेह ॥ एहनी पण ले पर संपदा, ऊटक दिखाडे बेह ॥ मो० ॥ ५ ॥ याज न कोइ तुक जोडें खडे, सुरपति नरपति जोय ॥ संसारी प्रभुता पूरी नही, तुऊ सम तुंहीज होय ॥ मो० ॥ ६ ॥ हेला खेलामां जग जीपीयो, तुं गिरुन गंजीर ॥ नहाना थें युद्ध करो नहिं, सरिखा सरिखी जीर ||मो० ॥ ७ ॥ ज न काय घरी एहने, फरियो देश विदेश | अरिहंत नृप सेवाथी इले लह्यो, ऋद्धितो लवलेश ॥ मो० ॥ ८ ॥ एहनी चिन्ता मनमां मत धरो, मत व्यो एहनुं नाम ॥ चणक नबलियो नावि न जांजशे, लोक कखाणो श्राम || मो० ॥ ए ॥ इम सुपी मोह महिपति बोलियो, मलकीने मन मांही ॥ हाथ न देख्या बे तें एहना, तो वडो मद कांही ॥ मो० ॥ १० ॥
गणना एहवी नवि कीजियें, ए कंमा असराल || वैरी व्याधि न नहा ना जालिये, दुःख सरोवरनी पाल || मो० ॥ ११ ॥ मोह नहीं के एह नहिं दुवे, वेदुमां एक वात ॥ यवसर खाव्यां टालो किम दुवे, ताप मुखें गजे धात || मो० ॥ १२॥ युद्ध करया पण दत्री धर्म नवि रहे, न धरूं ममता एह ॥ धर्ममंदिर कहे मोह महा बली, हुकम कीयो सुणो तेह || मो० ॥ १३॥ ॥ दोहा ॥
॥ पाखंमी सेवक जली, कहेवे बे वड वीर ॥ मिथ्यावाली मेरी ए, व जडावो धरि धीर ॥ १ ॥ नेरी शब्द सुली करी, सऊ हुखा नट वृंद ॥ ज य लक्ष्मी वरवा नली, मन खाणे खानंद ॥ २ ॥ मन्मथ सुत यादें करी, वड वड वीर नरिंद॥ सकाइ सबली करे, नांजण अरिदल फन्द || ३ | ॥ ढाल बीजी ॥
॥ राग मारु अथवा कूपन देव मोरा हो ।ए देशी ॥ अभिमानी हो राजा अभिमानी हो || मोह महिपति कोपियो, मनमां रूप ध्यानी हो ॥ राजा निमानी || हो० ॥ १ ॥ जडता नारी तिले समे, श्रृंगार बणावे हो ॥ मांगलि क मुख च्चरे, घ तिलक करावे हो ॥ रा० ॥ २ ॥ हिंसा हरिणाही म ली, जय मंगल गावे हो । बाल गोपाल सदु नणे, मोह चढते दावे हो ॥ रा० ॥ ३ ॥ पाप शास्त्र जट बोलियो, बिरुदावली नीकी हो ॥ विवेक वीर नी होय जो, सेना सब फीकी हो ॥ रा० ॥ ४॥ अनरथ दंम कबाण लेई,
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. वांकी अति तीखी हो ॥ मति अज्ञान नाथडा नया,बाणावलि शीखी हो ॥ रा० ॥ ५॥ ताप स्वनाव ते टोपले, तर्जन अति लीधी हो ॥ मद सन्नाह ते पहेरियं, जिनशाली कीधी हो ॥ रा० ॥ ६ ॥ मिथ्यावाद वा जित्र घणां, वाजे तिण वेला हो ॥ वज थइ शूरा सदु,तब दूया नेला हो ॥ रा०॥ ७ ॥ नारी कर्मतणो उदे, मुहूर्त तिहां साध्यो हो॥ नीच संग गज पर चढी, जाणे जय वाध्यो हो ॥रा ॥ ७ ॥ पाप विकार प्यादा घणा,मुख आगे कीधा हो॥आर्त ध्यान बंधूक लेई, हवे वंबित सीधां हो। रा० ॥ ए ॥ पाप मनोरथ रथ जला, सजिया रण सारु हो॥ काम विका र तुरंगमां, वायु वेग ज्युं वारु हो ॥ रा० ॥१०॥ अति अनिमान ते हाथि या, पर्वत सम दीसे हो ॥ मेघतणी परें गाजता, मोह देखी हीसे हो॥ रा० ॥ ११ ॥ प्रमाद सेनानी कियो, आप मोहें मान्यो हो ॥ चतुरंग सेनायें परवयो, अब नायक जाण्यो हो ॥रा ॥१२॥ नरपति तेडीने कहे, होजे हवे शूरो हो ॥ तें श्रुतज्ञानी पाडिया, परतो तुज पूरी हो ॥ रा० ॥१३॥ मेरुथकी दक्षिण दिशे, प्रायें परमादो हो ॥ बांध्यो मोहप्रसादथी, अधि को उन्मादो हो । रा॥ १४ ॥
॥दोहा॥ ॥णपरें जोरो मोहनो, सुणियो वीर विवेक ॥ सऊ दुवे शक ताना, जूझणनी धरि टेक ॥ १॥ दृग्गोचर दल मोहना, इक दिन मलियां आ य ॥ पर दल दरियावेल ज्युं, कायरने मन थाय ॥ २ ॥ यानंद अधि को शूर मन, जाणे आज विवाह ॥ आरण नेलणरो करे, मनमांहे न त्साह ॥ ३ ॥ जबके दामिनीनी परें, कूदावे हथियार ॥ उन्नमिया थाषाढ ज्यु, घोरघटा जलधार ॥ ४॥ समरावे रणनूमिका, विषम विदारे दूर ॥ वी र विवेकतणो नलो, राजनीति अंकूर ॥ ५॥ हवे मनमंत्री पण तिहां,
आवे सुतने प्रेम ॥ क्षण विवेक क्षण मोहा, जाय मले जे एम ॥ ६ ॥ तिहां जाये तब तेहनो, जय वं मन एह ॥ इण अवसर विच थावि या, संधिपाल सुसनेह ॥७॥ इहां के अध्यवसाय ते, संधिपाल सुखदाय॥ पहेली वीर विवेकने, अरज करे मन लाय ॥ ॥
॥ढाल त्रीजी॥ ॥ उठ कलालणी जर घडो हे, नयणे नींद निवार ॥ ए देशी ॥ सुण
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
द
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
साहिब म वीनति हो, मन देइने खाज ॥ सेवक में नहिं केहनो हो, साधुं अवसर काज ॥ रायजादा वीरा हो, थें राजन बो रढीयाल ॥ रा० ॥ १ ॥ एकली ॥ हित वाली बेमतली हो, हृदय कमल सुविचार ॥ तुं प्रभु याहु सही हो, नाग्यत अनुसार ॥ रा० ॥ २ ॥ पण ए मोह नृप यावियो हो, जूनो राजा तेह || अवगणियें क्युं एहने हो, अनंत युगारो जेह ॥ ० ॥ ३ ॥ कटक विकट सबलो घणो हो, वली पूरो परिवार ॥ वड शाखा ज्युं विष नयो हो, व्यापि रह्यो संसार ॥ रा० ॥ ४ ॥ को ट खजीनो कां नहीं हो, ज्युं मानस नोज ॥ सकल क्रिया में सुंदरु हो, कु जे इरो खोज ॥ रा० ॥ ५ ॥ इन्ड् चन्द्र नागेन्ड् जे हो, माने ए हनी प्राण ॥ अवर न को एहवो अबे हो, इयुं साधे बाग ॥ रा० ॥ ६ ॥ जो थें मोह न मानियो हो, एने दोष न कोय ॥ हंस जणी वहा लो नहिं हो, मेह क्युं नूंमो होय ॥ रा० ॥ ७ ॥ बहु जनने जे वालहो हो, तिj क्युं रीसाय ॥ अन्न अधिक प्यारो सहु हो, अंत समे न सु हाय ॥ ० ॥ ८ ॥ पग पग देखूं एहनो हो, लश्कर लांगर जोर ॥ मोह सेना सागर जिसी हो, तुम दल एको कोर ॥ रा० ॥ ए ॥ तीन वन मां ए हो, तुं इक नरमें होय ॥ ते पण खारजमां वसे हो, तिहां पण जविजीव कोय ॥ रा० ॥ १० ॥ तिहां पण गुन मतिमां वसे हो, वली रुचि शुद्ध प्रतीत ॥ ते लोकोनो राजियो हो, तुं बे लोकातीत ॥ रा० ॥ ११ ॥ ताह सेना पण सदु हो, तेहने मिलशे जाय ॥ ते मुख वि रोयोनो हो, अर्क तूल करे न्याय ॥ रा० १२ ॥ कुण न सेवे तेहने हो, नव्य नव्य पार || कोइक विरलो थोनशे हो, तुम वेला निरधा र ॥ ० ॥ १३ ॥ तुं हमणां वाध्यो अबे हो, घटतां नहिं बे वार ॥3 अनादि वाध्यो रहे हो, अमर कीधो अवतार ॥ रा० ॥ १४ ॥ तुं सेवक ने सुख दिये हो, प्रखय गोचर जेह || इन्डियने सुख दिये हो, मुख मी बे तेह ॥ ० ॥ १५ ॥ तुं सेवकने दाखवे हो, गिरि कंदर वन वा स ॥ उयापे सेवक जणी हो, मंदिर नारी विलास ॥ रा० ॥ १६ ॥ तुं परिवारने बोडवे हो, एकाकी ठहराय ॥ उ मेजे पुत्र मित्रने हो, लोकोने मन नाव ॥रा० ॥ १७ ॥ बूढा सेवक ताहरा हो, जूना जर्जर तेह || रण तरुण तीखा घयूं हो, तसु सेवक सुसनेह ॥ रा० ॥ १८ ॥ तेह
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
श्रीमोदविवेकनो रास. जणी ते सेंती कीसी हो, खस खूटणनी वात ॥ फिरजावो निज घर जणी हो, अम मन एह सुहात ॥रा॥१५॥
॥दोहा॥ ॥ म कहीने चूप करि रह्या, संधिपाल तिणवार ॥ हसी करी वीर व दे तिहां, वाह वाह मतिसार ॥ १ ॥ मोहतको महिमा कही, जाण्यां व चन विशाल ॥ क्युं कर बानो होयशे, मा आगे मोशाल ॥ २ ॥ में जा एयो प्रीब्यो बजे, बल बल एहनुं दीठ ॥ व्याघ्रमुखें ए शियाल , तुमने लागे मीठ ॥३॥
॥ ढाल चोथी ॥ ॥ वीर वखाणी राणी चेलणा जी ॥ ए देशी ॥ वीर विवेक वलतोक हे जी,सांनलो थे संधिपाल ।। वीच करो नल माणसां जी,गुण कह्या या लपंपाल ॥ वी० ॥ १ ॥ मेह वहालो सहुने दुवे जी, हंसने न्याय सुहा य॥ पंख करे दिन तम करे जी, श्याम कब उज्ज्वल थाय ॥ वी० ॥२॥ मानसवाही हंस ने जी, उज्ज्वल मोति थाहार ॥ पंख वेदु धवली करे जी, दूध पाणी करे सार ॥ वी० ॥३॥ कटक घणुं तसु आरिखयुं जी, नुं गर तूस सम तेह ॥ त्यां लगी धूली नमे घणी जी, ज्यां लगी वूठो न मेह ॥वी०॥४॥ लोह सम ते जगमें घणा जी, हेम ते अल्प तुं जोय ॥चं दन वन वन नवि दुवे जी, गज गज मोती न कोय ॥ वी० ॥ ५॥ तिमि रतणी परें ते घणा जी,सूरज एकज थाय ॥अंकुश केवडो गज किहां जी, शंकुनी वात ठहराय ॥ वी० ॥६॥रंकनां वृंद श्यां कामनां जी, एकज श्रीमंत सार ॥ सिंह एको बदु त्रास जी, शियालनी कांइ नहिं कार ॥ वी०॥ ७ ॥ अमर थे एहने आखियो जी, देखश्यां ते हवे आज । कस वटी आपथी आखशे जी, जूठी ए शरदनी गाज ॥ वी० ॥ ७ ॥ बाह्य सु ख देखिने राचिया जी, एहना सेवक नूर ॥ अन्तर सुख नवि अनुजव्यो जी, आतम अनुनव नूर ॥ वी०॥ ए॥ लोग संयोग जे ए दिये जी,तिहां पण महारुं सुख ॥ एहथी निःकेवल नरक ने जी, घोर अति जोर दे दुःख ॥ वी० ॥ १०॥ नव जल तारण एकला जी, कुटुंबनुं त्यां नहिं काम ॥ राग करी मोहिया मोहगुंजी, जाणियुं नहिं निज धाम ॥वी० ॥११॥ था हरो वांक इहां को नहिं जी,वड वडा नोलव्या धीर ॥ कृष्ण कलेवर ले
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
G४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नम्यो जी,बलन मोह करी वीर ॥वी॥१२॥ क्रोधथी कंस चूक्यो सही जी, मान उर्योधन देख ॥ दंन उदायन नृप मारियो जी, लोन संनूम विशेष ॥ वी० ॥ १३ ॥ कंमरिक प्रमादें पाडियो जी, चंप्रद्योतन काम ॥ राग थी ब्रह्मदत्त दुःख लह्यां जी, क्षेषथी कोणिक आम ॥ वी० ॥१४॥ व्यस नथी कीचक चूकियो जी, कपिल मिथ्यात्वथी जेम ॥ पारवंम संग कुसंग थी जी, बहु नर चूकिया एम ॥ वी०॥ १५ ॥ जगत जन पीडिया बदु परें जी, मोह निःकारण शत्रु ॥ तेह अन्याय हुं केम सर्दु जी, थें सुणो महा रा मित्र ॥ वी० ॥ १६ ॥ माहरे सेवकें को कर्दे जी, आचस्यो होय अन्या य ॥ तेहy नाम लेइ दाखवो जी,शीख देवं सुखदाय ॥ वी० ॥ १७ ॥ध मथी जय दुवे जगतमें जी, पापथी क्य कहेवाय ॥ एह बेदु वातां अ जी, आदरो मन तणी दाय ॥ वी० ॥ १७ ॥ जिम जिम खुद खमे एहना जी, वली कीयां वचन प्रमाण ॥ तेम तेम ए शिर चढि गयो जी, शीख देकं अनिराम ॥ वी० ॥१॥
॥दोहा॥ ॥ एह वचन सुणि वीरनां, संधिपाल गया धाम ॥ हवे श्री वीर विवेक नृप, योहाने कहे ग्राम ॥ ॥ शूरा पूरा सांजलो, आयो ले रण एह॥ हाथ तमारा देखस्यां, अरि दल कादिम एह ॥ २ ॥ साथी हाथी दो तमें, अरिदल एह करीर ॥ जयलक्ष्मी वरस्यां हवे, जो करशो थें नीर ॥ ३ ॥ हार मुकुट केयूरें करी, शोना शूरा नांहि ॥ रिपु सन्मुख घायें करी, यश पसरे जगमांहि ॥ ४ ॥ असि धारा तीरथ अजे, देवतणी गति देय ॥ निज नुज बल संजारिनें,साम धर्म धरि धेय ॥५॥ अंगज अंग ने अंगना,राज का ज जीव प्राण ॥ त्यांलगी सघला वनहा, ज्यां न मिले अरि बाण ॥६॥ वाहन कवचे शस्त्र नरि,वहे याम्बर एम ॥ अंतरंग साहस विना, जय प द प्राप्ति केम ॥ ७ ॥ बोलो कुण क्यां थोनशे, निज निज ले परिवार ॥ कोण कोण केहने जीपशे तब बोल्यो सुत सार ॥ ७ ॥
॥ ढाल पांचमी॥ ॥ राग सोरत ॥ सेवा बाहिरो कहियें को सेवक ॥ए देशी ॥ नंदन नव वैराग वदे तब, विनयवंत वरदाय ॥ साहिब आगे निज गुण वर्णन, कही किण कीधो जाई ॥ नं० ॥१॥ पण साहिब जे पूर्वी वाणी, तसु उत्त
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
नए
श्रीमोदविवेकनो रास. र ढुं पाखं ॥ अरि मुख कालुं पहेली अणिये, टेक नली परें राखुं ॥ नं० ॥२॥ चक्रतणी परें नव नव फेरे, नूर नविकने जेह ॥ विपरित नाव अ नाव वडो अरि, हुं वश करशुं तेह ॥ नं ॥३॥ शमरस रस यादि क रीने महारा, अंतर सेवक ताजा ॥ करकंकू आदिक देईने, बाहिज सेवक साजा ॥ नं० ॥ ४ ॥ पंचम गुण गणकनी धरती, देश विरति जयदाई॥ देशे नंगी पूरव कोडी, मान्य कहुँ मन लाइ ॥ नं॥५॥ धर्म ध्यान म ध्यम त्यां जाणो, प्रतिमा श्रावक केरी॥ खट आवश्यक किरिया कीजें,व्रत लघु गु६ विहारी ॥ नं ॥ ६॥ सडशठ प्रकृतितणो तिहां बांधी, मोहत यो मद गाठू ॥ अप्रत्याख्यानतणो दय कीधो, वैरकदमी वाचु ॥नं॥ ७॥ आनंद ने कामदेव कहीजें, ते मुफ सेवक सारो ॥ खट आवश्यक पु रोहित केरो, ए रणखेत विचारो ॥ नं० ॥ ७ ॥ हवे संवेग ने निर्वेद वेत, लघु सुत नोला शूरा ॥ मोह महिपतिनुं दल मोडं, नुजबली नीम स नूरा ॥ नं० ॥ ॥ बहो सत्तम गुणगाण धरती,ते रण खेत बुहास्यो॥ अन्तर मुहूर्त स्थिति मति बेहु, चढी उतार निहास्यो ॥ नं ॥१॥ त्रेसठ प्रकृति प्रमत्तें बांधे, सत्तर अहवन्ना ॥ मोहतणुं बल पल पल बीजे, सद् वदे धनधन्ना ॥नं०॥११॥ निरालंब धर्म ध्यान विशुमा,तेहिज अंतर वेली॥ पां चे पांव बाहिज सेवक, काढे मोहने तेली ॥ नं० ॥१२॥ अप्रमत्त गुण ठाणथी करसुं, अपूर्वध्यान विचारी॥ गुणश्रेणीयें गुण निज संक्रम,क्रिया दूर निवारी ॥ नं ॥ १३ ॥ सत्तम अंतें गुक्त ध्याना, सामो यावे यूरो॥ मोह महीपतिनुं बल बूटे, अनुनव होय सनूरो॥ नं०॥१४॥ इणि परें पुत्रं फोजां जाल्या, हवे समकित मंत्री बोले ॥ नवजल तारण पोत प्रवी गो, कुण आवे मुफ तोलें ॥ नं ॥ १५ ॥ ए संसार आदि अपारा, मि थ्यानूषण नारी॥ त्यां नविजनने हाथ ग्रहीने, हुँ ऊतारूं पारी ॥ना ॥१६॥ देव गुरु धर्म तत्त्व देखावं, नाजुं कर्म विकारा॥श्रा करुणाया त्मक माहरा, अंतर सेवक सारा ॥ नं ॥ १७ ॥ बाहिज सेवक श्रेणिक केशव, इत्यादिक बहु लहिजें॥दायिक नाव खजीनो पामी, विरति क्रिया न वहीजें ॥नं० ॥ १७ ॥ तेत्रीश सागर किंचित्यधिको, मान कहीजें एही॥ चोथे गुणगणे बदु लाने, धर्मरागी गुण गेही ॥ नं ॥ १५ ॥ प्रकति सत्त्योत्तेर चोथे बांधे, जूमी प्रकृति निवारे ॥ धर्म ध्यान मंदो सदु दीसे,
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
G६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. भारत रोइ विचारे ॥नं ॥ २० ॥ मोहतणो मंत्री मिथ्याग, ते ढुं जीपन जोरें ॥ मोहतगुं दल मुडशे तबही, देखाडे निज तोरें॥॥१॥ इणिपरें समकित मंत्री आख्यो, नुज बल कीध प्रकाशा ॥ धर्ममंदिर कहे अधिको कीयो, वीर विवेक ननासा ।। नं० ॥२२॥
॥दोहा॥ ॥ नपशम शूरो बोलियो, सुण स्वामी मुफ वाण ॥ श्रेणिसुथिर रण आठमो, गुणगाणे गुण खाण ॥१॥ आलस निश नय सकल, दूर निवारूं संग ॥ क्रोध जोधने जीप', नव गुणगणे रंग ॥२॥ क्रोध दावानल क्रूर , संताप्यो संसार ॥ हुँ सघलाने सुखकरूं, निज गुण अमृत धार ॥ ३ ॥ शत्रु मित्र सम नावने, अन्तर मुफ परिवार ॥ सागरचंद नाग दत्त बडु, बाहिज सेवक सार ॥ ४ ॥
॥ ढाल बही॥ ॥ वेडले नार घणो ने राज, वातां केम करो बो॥ ए देशी ॥ नवमे गुणठाणे वली ऊना, शूरा पूरा सारा ॥ मोहतगो हवे मद नतारूं, शुक्त ध्यान हथियारा ॥ महोटो मार्दव शूर सुजाण, अरज करे कर जोडी ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ गाढो अनमी मान जे वैरी, जीपीश हूं रिपु तेहो ॥ प्राणायाम ते अंतर सेवक, अति बल मन वच देहो ॥ म०॥ २ ॥ बा दुबली गणधर जूता, ए मुफ बाहिर शूरा ॥ अहंकार बोडीने दीधो, अनुनव लीध सनूरा ॥म ॥३॥ आर्जव सामंत तिहां किणे बोल्यो. माया जीपणहारो ॥ शरणस्वरूपी शान्ति शिरोमणि, अंतरंग परिवारो ॥ म॥४॥ राजा पूब्यो तेणे प्रकाश्यो, माया वचन अबोला ॥ दुन क कुंवर प्रमुख मुज बाहिज, सेवक राख अमोला ॥ म० ॥ ५ ॥ मोहत यो जे महोटो सेवक, दंन कहीजें दरियो॥ ते पण दुं नवमे गुणठाणे, जीपण बीडो धरियो । म ॥ ६ ॥ संतोष महोटो सामंत कहीजें, ते हवे बोले एमो ॥ तृष्णा तरल तरंगिणी तरयु, धरशुं धृति रति देमो । म० ॥ ७ ॥ परम समाधि तणो अंकूरो, ते मुफ वहालो जोधो ॥ कपि लादिक मुफ सेवक सारा, त्यागी अंतर सोधो ॥ म ॥ ७ ॥ दशम गुणा ण गम लहीने, सूक्ष्म लोनने जीती॥ संपरायकी कीरिया सघली, तब थें होय वितीति ॥ म० ॥ ए ॥ उहाह सेनानी तिहांकणे बोल्यो, सुण
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
GI
श्रीमोहविवेकनो रास. स्वामी मुझ वातां ॥ सघली फोजामें दुं फिरगुं, में लाधी तुम धातां ॥ म ॥ १० ॥ सघला शूराने उपकारु, वड वड बिरुद संजालं ॥ वेद वि कार निवारण अंतर, सेवक सखरा धारूं ॥ म० ॥ ११ ॥ ज्ञानुज ने म हागिरि मुनिवर,वाहिज सेवक शूरा ॥ सघला गुन गुणताणामांहे, वजडा → जयतूरा ॥ म० ॥ १२ ॥ विमलबोध कोटवाल कहे इम, सुण स्वामी मुफ वाणी ॥ मोहमहिपतिना चर कालूं, निर्णय तुरत पिडाणी ॥ म ॥ १३ ॥ चर्चन अर्चन अंतर सेवक, दृढमति दृढ धर्म धारा ॥ बाहिज से वक धर्म रुचि प्रमुखा, बहुविध नक्ति विचारा ॥ म० ॥१४॥
॥ दोहा ॥ ॥ इणि परें बीजो पण तिहां, निज निज बल परकाश ॥ मोहरायने जीपवा, आणे अधिक ननास ॥ १ ॥ वनिता पण सुनटां तणी, हरखी बोले एम॥ जिण विध प्रीतम जूऊशे, में पण जूफां तेम ॥२॥ निज प्रीत म पासें रहि, करश्यां शस्त्र प्रहार ॥ अबला सबला काम में, करश्यां स्वामी तिवार ॥३॥ण परें सघला साथरो, साहस सबलो जोय ॥ रा जा वीर विवेक तब, अधिको हर्षित होय ॥४॥ अधिकाधिक परिणाममु, पर्यालोचन सार ॥ तेहिज वाजां वाजियां, शिवपद मंगलसार ॥ ५ ॥ इणि अवसर हवे मोह नृप, सऊ दुई सुविचार ॥ सघला जोधाने कहे, सु गजो ए निर्धार ॥ ६ ॥ चढशे वीर विवेक हवे, रण करवाने काज ॥ ढी ल न कीजें तो जलो, मुजरो यो मुफ आज ॥ ७ ॥ कुण केही फोजें ख डो, माजी होशे तेह ॥ नाम लेइने दाखवो, अरि मुफ काले जेह ॥ ७ ॥
॥ ढाल सातमी ।। ॥ देशी विंबीयानी ॥ मयण वयण तब उच्चरे, सुण तातजी साहिब आज रे लाल ॥ आप मुखें करी आपणी, कीर्ति करतां दुवे लाज रे ला ल ॥ म० ॥ १॥ तृणसम अरिदल जाणजो, दावानल सम मुफ जोर रे लाल ॥ नासोकड हवे न्हासशे, मुफ आगल ए चार रेलाल ॥ म० ॥ २ ॥ लघु नाश् श्रीनेमरो, वली आषाढ कृषि नंदिषेण रे लाल ॥ आईकुम र कुलवातून, में जीत्या मन हरखेण रे लाल ॥ म० ॥ ३ ॥ वड वडा शू रा एहना, जीत्या कहूं केतां नाम रे लाल ॥ बल बल करीने तस्या, मु ऊ साथी अनिराम रेलाल ॥म०॥४॥मगिरथचं प्रद्योतना, म
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
GG जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. धु कुमर अने गर्दनिन्न राय रे लाल ॥ नाम ले केता गणुं, सेवक बाहि ज कहेवाय रे लाल ॥ म० ॥ ५ ॥ फूल वसंत अंबुद घटा, कोकशास्त्र शृं गार संजोग रे लाल ॥ स्नान अने मद पान ते, मुफ अंतर सेवक जोग रे लाल ॥म० ॥ ६ ॥ राग वदे हवे सांनलो, ढुं जतन करुं रागंध रे ला ल ॥ मयण तणो पण मित्र बुं, जोडं दुं सघली संध रे लाल ॥ म ॥७॥ किहां किहां यांख , किहां चं५ अ किहां मुख मुह रे लाल ॥ पर वाला किहां अधर , ए उपमा राग निरु रे लाल ॥ म० ॥॥ किहां हीरा किहां दशन , किहां कनककलश मांसग्रंथ रे लाल ॥ किहां वापी किहां नानि , पण रागवशे ए संथ रे लाल ॥ म ॥ ए॥ सडण पडण विध्वंस बे, अंग अशुजतणो नंमार रे लाल ॥ ते देखाडी नोलवं, जोराव र राग अपार रे लाल ॥ म॥ १० ॥ मीठा मन्मथ बोलडा, मिलवो नि लवो बहु प्रेम रे लाल ॥ अंतर सेवक डे बदु, माहरे जोरावर एम रेला ल ॥ म० ॥११॥ इन्डुपेण विन्छुपेण जे, चिलाती चोर इलापुत्र रेलाल॥ बाहिज सेवक माहरा, पहेलाथी महारा मित्र रे लाल ॥ म ॥ १२ ॥ प वदे हवे सांजलो, ढुं करडो शूरो तुज रे लाल ॥ कुण अडे जगमें तिको, जे करशे मुफझुं जुऊ रे लाल ॥ म० ॥ १३ ॥ चम रुक्ष बिनत्समां, दर्शन अति जयनो हेत रे लाल ॥ सन्मुख कुण जोई शके, रिपु जिपुंउने खेत रे लाल ॥ म० ॥ १४ ॥ मत्सर निंदा पिशुनता, संग्राम शराप ने मर्म रेला ल॥ आक्रोशन अति चमता, अंतरसेवक धर्म रे लाल ॥ म० ॥ १५॥ कौरव ने चमकोशियो, पालक ने संगदेव रे लाल ॥ कमतादिक बहुप्राणि या, साचवे माहरी सेव रे लाल ॥ म० ॥ १६॥ हवे मिथ्यामंत्री बोलि यो. सुण मारी शक्ति अनंत रे लाल ॥ तीन नुवनमां प्राणिया, मुक सा निध्यथी नामंत रे लाल ॥ म० ॥ १७ ॥ जाति योनि कुल कोडी ए, नहिं कोइ ले ते नाम रे लाल ॥ सेवक वीर विवेकना, बहु काली पीच्या आम रेलाल ॥ म० ॥ १७ ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्मने, वश पड्यां प्राणी जेम रे लाल ॥ अंतरंग मुफ कामना, किंकर सघलाये तेह रे लाल ॥ म० ॥१॥ मति विपरीत तणा धणी, पालक कपिलादिक तेम रे लाल ॥ बाहिज सेव क बदु अडे, पार नावे गणतां एम रे लाल ॥ म० ॥ २० ॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोहविवेकनो रास.
नए ॥दोहा॥ ॥ श्याम शरीरी दूबलो, मींघो जोर अनंत ॥ लाल रंग लोचनधरु, त्रासे तेहथी संत ॥१॥ क्रोध जोध के एहवो, ते बोल्यो सुण स्वामि ॥ कु ण मुफ होड करे इहां, ते दाखे तसु नाम ॥ २ ॥ नयण वयण करी हो तबदु, धूजा बुं जोर ॥ नरक नुजंगें बद वसुं, थोडो बीजी ठोर ॥३॥ चंझनाव उर्वचनता, तामस वैर सराप ॥ ए मुफ सेवक शाश्वता, कुण सहे एहनो ताप ॥४॥ संन्यासी शिशुपाल नृप, कुरुड दीपायन जोय ॥ ब्रह्मदत्त आदें करी, बहु सेवक मुफ होय ॥ ५ ॥
॥ ढाल आगमी ॥ ॥ राजीमती राणी इणिपरें बोले ॥ ए देशी ॥ सुजो स्वामी अंतरजा मी, हवे अहंकार कहे शिर नामी ॥ सु० ॥ तीन नुवनमां वासो मेरो,मा नवमांहे देखो घणेरो ॥ सु० ॥१॥ विद्या झान तणो फल हारे,जे नर होवे माहरे सारे ॥ सु०॥ गुरुजननो पण माहरे लेखो, मयमत्त हाथीनी परें देखो ॥सु॥२॥ चक्रवर्ति आप तप चाख्यो,मेरो स्वरूप इणीपरें जाख्यो।सु० ॥ दूर विनीत मुफ नाव सदाइ, सेवक सेवे चित्त लगाइ ॥ सु० ॥ ३ ॥ च मर दानव ने प्रतिवासुदेवा,लाखे ज्ञानें करे मुझ सेवा ॥सु०॥ दंन कहे मु क वातां महोटी, अवसर नावे एह हथोटी ॥ सु० ॥ ४ ॥ पीणा सर्पत पी मुफ करणी, अंतरमां कातर अनुसरणी॥सु०॥ मीतुं बोलुं पाशमां पाडूं, सूक्ष्म बादर निगोद देखा९॥ सु० ॥ ५ ॥ जूटुं बोलु बल बल साधूं, वेश्या संघाती शेह आराधं ॥ सु० ॥ अंगारमर्दक आषाढनूता, कपट करा मुनि नारे जूता ॥ सु०॥ ६ ॥ महाबल वनिता गोत्र जे धरियो, पीठ म हापीठ तेहिज वरियो ॥ सु०॥ सेवक सखरा तिर्यंच मांहे,संसार फेलं जाली बांहे ॥ सु० ॥ ७॥ लोन बोल्यो हुँ महोटो वीरो,हुँ संसारें जाचो हीरो॥ सु० ॥ आदर मान दीये मुफ देवा, नरवर पन्नग सारे सेवा ॥ सु०॥॥ जल थल गिरिवर नूमि पराइ, ते अवगाडं दणमें जाइ ॥ सु० ॥ नूरख तृ षा तप शीत न जाएं,लालच ने मुख सब लोनाj ॥सु० ॥ ए॥ ममता आरंज मूळ महोटी, कृपण साहस ए सेवक कोटी॥ सु० ॥ सुनूम चकी अने नृपनंदा, लोननदय केशरी मुनिचंदा ॥ सु०॥ १० ॥ अंतर वाहिज सेवक जाजा, कोइ न लाने अमची माजा ॥ सु० ॥ हवे प्रमाद ते शूर
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
סי
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. सवाइ, राजा आगे बोल्यो धाई ॥ सु० ॥११॥ वंची पदवी कोइक चढियो, माहरी शक्ति तुरत ते पडियो ।। सु० ॥ चनदे पूर्वधरे के मुनीशा, उपशा न्तमोही जेह जोगीशा ॥ सु० ॥ १॥ तेह निगोदें जाये सीधा, प्रमादना संग जेणें लीधा ॥ सु० ॥ स्नान मऊन जलकेलि शिखा, नाटक चेटक बार देखा ॥ सु० ॥ १३ ॥ पासें खेलुं विकथा नाखू, परनी निंदा ते पण दा ॥ सु० ॥ वैर विरोधना वंश वधारूं, बालस उघ घणेरी धारुं ॥सु॥ १४ ॥ तेरे काठिया व्यसन जे साते, तिणसुं मेरे मिलती धाते ॥ सु० ॥ नट विट संगति विषया अंशा, अंतर सेवक मुफ अवतंसा ॥ सु० ॥१५॥ मंगू शैलक मरीच वदीतो,कुंमरीक सौदास में जीत्यो ॥सु॥ बाह्य सेवक इम केता दाखं, मुफ गुण निज मुख केता नांर्खा ॥ सु० ॥१६॥ धर्ममंदिर कहे प्रमाद घोरा, वीर विवेकशुं न चले जोरा ॥ सु० ॥
॥ दोहा ॥ ॥ इणिपरें सामंत बोलिया,यूरा पूरा साथ ॥ मोह शील हवे पाखस्यो, नावे केहने हाथ ॥ १॥ जूठी ने सत्यामृषा, उंद दमामा दीध ॥ हलका रे रण जीपवा, अमलकराए कीध ॥ २ ॥ गुजध्यान अपध्यान वे, आमा साहामा होय ॥ शुभाशु६ उपयोग असि,महिप वृषन यु६ जोय ॥ ३ ॥ अपध्यान नर बोलियो, करि पहिलो हथियार ॥ जोरावर मुफ शस्त्र , गसुं जीत अपार ॥ ४ ॥ रहनेमी नल राय बहु, चूकायां नर नार ॥ मु ऊ आगें तूं नां टके,नाश मूक हथियार ॥ ५ ॥ शुरुध्यान बोल्यो हवे, तुं महेलो मनमांहि ॥ शीख इसी शूरा कहे, तुं कायरनी बांहि ॥६॥ दृढ प्र हारी चिलातीयसुत, हत्याकारक जेह ॥ में तास्या एक पलकमें, बांह ग्रहीने तेह ॥ ७ ॥ बदुकालें तुं धावियो, सांकडे माहारे साथ ॥ हवे जीपीने मू करां, जो करशे जगनाथ ॥ ॥ इणिपरें वेदु कटकमां, सऊ थई तिण वार ॥ निज निज बल परकाशता, वदे ते वारो वार ॥ ए॥
॥ढाल नवमी॥ ॥ तुंगिया गिरि शिखर सोहे ॥ ए देशी ॥ ब्रूजनो हवे जूज सुणजो, न विक जन मन लाय रे ॥ अवर जूफे नरक जयें, एहथी शिव थाय रे ॥ ॥ १॥ मिथ्यात्व तेहिज राति बदुली, ज्ञान जानु प्रकाश रे ॥ तिण समे मांहो मांहि अडिया, नीडिया धरिय उनास रे॥॥ ॥॥ जोध
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. शूरो क्रोधसेंती, जूके वीर प्रसिह रे ॥ आवश्यक पुरोहित जूके, जय प्र तिज्ञा कीध रे॥ बू० ॥ ३ ॥ नर नाव ते तुरंग बेसी, जूके मार्दव रुह रे ॥ सरल असि हथियार लेश, धायो मानने पूत रे ॥ ७० ॥४॥ आर्जव ने संतोष बेदु, विवेकना वड वीर रे॥ माया लोना सबल जके, कां न करे तकसीर रे ॥ बू० ॥ ५ ॥ अतिघोर पहिला रूप जाणो, अनंतानुबंधि या चार रे ॥ दवा अपूर्व करणें, दु देमाचार रे ॥ ० ॥ ६ ॥ स्याा द सिंधुर बेसि यावे, मंत्री सम्यक् दृष्टि रे ॥ आस्तिक्य आयुध हाथ लेश, बोलावे रिपुदृष्टि रे ॥ 5 ॥ ७॥ मिथ्यात्व मोहनो मंत्री आयो, पंच रूप विकार रे ॥ एक घायें हण्या पांचे, समकित जोर अपार रे ॥ बू ॥ ॥ उपशमादिक वीर संग लइ,अप्रत्याख्यानी शत्रु रे ॥ गुणगण च ढतां नूमि चांपी, अरण्या हरव्या मित्र रे ॥ बू० ॥ ए ॥ हवे तिहां जय वैराग्य वीरें, वही आयो ज्यां मयण रे॥ सऊ दूई मदन वोल्यो, सांजल मोरां वयण रे॥ बू ॥१०॥ विषमशर ढुं जगतजीता, तें सुण्यो नहिं कान रे ॥ माहरां बाण ते नरग सरिखां, उतारूं तुझ मान रे ॥ ० ॥ ११ ॥ नासवानी कला ताहारी, तातनीशरे थित्त रे ॥तुं नाश हवणां कहूँ तुमने, पस्ताइश तुं चित्त रे ॥ बू० ॥ १२ ॥ पुरुष नारी पंढ वेदें, रूप कीधां म यण रे ॥ वचन ए वैराग सुगिने, कोपियो कहे वयण रे॥ब० ॥१३॥ तीन रूपें दुं न बीढुं, सांजलजे तुं काम रे ॥ प्रबल पायक ताम दीसे, ज लद नावे जाम रे ॥ ॥१॥ इम कहीने पेहेला, तिणे ते पंझनारी वेद रे॥ शूर था वैराग्य वीरें, अरितणो कियो बेद रे ॥ 5 ॥ १५ ॥ उदासी नता गज राज चढिया, बरबी अनित्यता नाव रे ॥ संवेग ने निर्वेद नाइ,
आया तिण प्रस्ताव रे ।। ब० ॥ १६ ॥ हाम्य ने रति अरति शोकां, बेदि या तिण वार रे ॥पले तिणे पुवेद वेद्यो, नाग विषय विकार रे॥॥१७॥
॥ दोहा ॥ ॥ हवे वलि सम संतोष जट, रणखेत खंदे जोर ॥ संजलना क्रोधादि सब, बेदें निज बल फोर ॥ १ ॥ विकट कटक नासी गयो, मोहतरा बल वीण ॥ जीपे धीर विवेकना, सबल शूर परवीण ॥॥ उर्नर संजलना न पी, खेम खंम बहु कीध ॥ दशमे गुणगाणे पक, संतोषे यश लीध ॥३॥ यातम उद्यम जागियो, ज्ञान ध्यान जरपूर ॥ हरख्या वीर विवेक जट, मो
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
ह सुनट चकचूर ॥ ४ ॥ मोहकटकनी योषिता, निजपति पडिया देख ॥ ज कांज्यं कमलिनी, जीवन विण तनु शेष ॥ ५ ॥ मोहराय मन चिन्त वे, मुऊ नट पडिया नूर ॥ नोंय नारी हवे नासतां, सन्मुख हो तुं शूर ॥ ॥ ६ ॥ शूर जणी दोय गति कही, जय अथवा बे नाश || पक श्रेणी र भूमिमां, वे अधिक उल्लास ॥ ७ ॥
॥ ढाल दशमी ॥
[VI
|| देशी बना गीतनी ॥ श्रथवा ॥ लागो सबल संग्राम, लागो सबल संग्राम, वे दल जू नगरी बाहिरें हो ॥ ए देशी ॥ मोह महीपति थाप, मोह महीपति प ॥ यावे हो यावे हो, गज पर बेसी जूऊमें हो ॥ स बला करतो नाद ॥ ० ॥ नासो हो नासो हो, अध्यातम मूकी बूऊने हो ॥ १ ॥ देव दानव कुण होड || दे० ॥ खागें हो यागें हो, नाग जय खमियो नहिं हो | बीवरावे यति घोर ॥ बीव० ॥ वड वड हो वड वड उप शम शूरा जणी सही हो || २ || धूज्या कायर प्राणी ॥ज्या०॥ खायो हो प्रायो हो, मोह महीपति याकरो हो । पीपल पान समान ॥ पी० ॥ धीरज हो धीरज, न रहे कोई वातरो हो ॥ ३ ॥ अंधारुं श्राकाश ॥ खं० ॥ बाई हो बाई हो, रजें करी सघली दशे दिशा हो | हाक अधिक हूंकार ॥ ॥ हाक० ॥ सुनटां हो सुनटां हो, उपर शूर पडे धसी हो ॥ ४॥ लागे सबल संग्राम | लागे। वे दल हो वे दल हो, जूजे बूजे कोविदा हो || घोडा घो डे घेर ॥घो० ॥ हाथी हो हाथी हो, हाथीगुं जूजे तदा हो ॥ ५ ॥ पायक पायक लाग ॥ पाय॥ माजी हो माजी हो, माजीगुं जीडीया जला हो ॥ यावे राय विवेक || वे० ॥ हाथी हो हाथी हो, बेसी चढती कला हो ॥ ६ ॥ बरी शुकलध्यान ॥ ब० ॥ ऊगमग हो ऊगमग हो, सोहे हाथे जेहने हो । नव वधूनो परिवार ॥ नव० ॥ साधें हो सायें हो, वपुकारे सहु तेहने हो ॥ ७ ॥ मोह वदे तब प्राय ॥ मोह० ॥ वीरा हो वीरा हो, धीरा हवे होशो नहिं हो || नाश तुं चतुर सुजाण ॥ नाश० || थारी हो यारी हो, मूलगी वातां ए सही हो ॥ ८ ॥ धर्म धार तुं माग ॥ धर्म०॥ मूको हो मूको हो, जीवतो तुमने जाते हो ॥ सुनट पड्या मन जाए ॥ ० ॥ बेठा हो बेठा हो, करणुं अमृत खाने हो || || मो ढुंते सब कोय ॥ मो ढुं० ॥ जीवे हो जीवे हो, जोधा सघला माहरा हो ॥ हर व
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
(३
उनी न्याय ॥ ० ॥ शाखा हो शाखा हो, बेद्यां फिर पल्लवधरा हो ॥ १० ॥ जीत्या हो त्रणे लोक ॥ जीत्या० ॥ एहवो हो एहवो हो, मन्मथ तें सुलियो दशे हो | तेहनो गुरु हुं तात ॥ ते ॥ जाणे हो जाये हो, जूठो क्युं या तम कसे हो ॥ ११ ॥ वज्र गदा हथियार ॥ वज्र० ॥ मुऊने हो मुकने हो लागे नहिं ए सदा हो ॥ मंत्र तंत्र विष व्याल ॥ मंत्र ॥ नावे हो नावे हो, मुफ नेडा कोविदा हो ॥ १२ ॥ में बहुलां रण कीध ॥ में० ॥ काri हो काri हो, तरकस हाथ बे माहरा हो ॥ तुं शीलो सुखकार ॥ तुं० ॥ कोमल हो कोमल हो, पुजल तन ने ताहरां हो ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥
०
॥ मोह राय गर्दै चढ्यो, वली बोले सुण वीर ॥ बहु वेला तुम हाथ मां, पहिराया जंजीर ॥ १ ॥ श्रादिम चक्री सुत जलो, नाम मरीच विख्या त ॥ सागर कोडाको डिमें, फेयो एम कहात ॥ २ ॥ रसनेन्द्रिय मुक सेव कें, कंमरीक तुम वीर ॥ कृणमांहे बांधी करी सातमी मूक्यो मीर ॥ ३ ॥ सत्यकी श्रेणिक यदि दे, तुम सेवक यति सार || अविरति माहरी नारि यें, बांधी लिया तेवार ॥ ४ ॥ जीत्या केता यखियें, तुं पण नागे तेथ ॥ लाज तजी खायो वली, इयुं खाटिश तुं एथ ॥ ५ ॥ इम सुणी वीर विवे क हवे, उत्तर या एम ॥ निज मुख इंड् प्रशंसतो, लघुता न लहे केम ॥६॥ ॥ ढाल ग्यारमी ॥
॥ प्रभु नरक पडतो राखी, वाणी जाली ॥ ए देशी || राजा एसा वच नन बोलिश, गर्वतं तुं गेह हो ॥ शारद जलदनी गाज सरिखी, वाणी जाली एह हो ॥ रा० ॥ १ ॥ मादल महोटा नाद करे बहु, अंतर पोला जाण हो ॥ तें साचा ते नहीं काचा, एह वडानी वास हो ॥रा० ॥२॥ पूर्ण कलश नां बलके जरियो, गला ठींकर जोइ हो || उबले तोय अल्प पामीने, ए उत्तम तुक होइ हो ॥ रा० ॥ ३ ॥ पाकां पीपल पानतली प रें, खड खड करे तुं खाज हो ॥ ते खडखड हुं खाज उतारुं, जो करशे जि नराज हो ॥ ० ॥ ४ ॥ मत मुने तुं शीलो जाणे, धूरथकी हूं क्रूर हो ॥ अनि जाल उपरथी बाले, मूल हो जलपूर हो ॥ रा० ॥ ५ ॥ हुं हिम नी परें वाढो गाढो, तुम दल वृद्ध अपार हो ॥ कांखर कीधा पल नरमाहे, हवे तहारी बे वार हो ॥ रा० ॥ ६ ॥ हय गय सेवक सघला नावा, खोइश
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. खजानो तुऊ हो ॥ धिक् धिक तुमने धीठ दूश्ने, करवा आव्यो जूफ हो ॥रा० ॥ ७ ॥ नाश तुं हमणां जीवतो मूकुं, खोटी कां धरे धीर हो ॥ पा ल तटी तो किण परें रहेशे, सरवरकेरो नीर हो ॥रा० ॥७॥चेतन वृंदें गरे संते, जीपी मूक्यो तेह हो । निर्लकनी परें आवे दोडी, एहवी ता हरी सोह हो ॥ रा० ॥॥ माहरा सेवक मुफ\ रुशी, कोश्क तुफ आय हो ॥ पण ते अंतर सेवक महारो, स्वामी धर्म सुखदाय हो ॥ रा॥१॥ नोलवियो तें जरतनगी बदु, पण नूलो नहिं तेह हो ॥ अनुनव रसियो सेवक मेरो, परम अध्यातम गेह हो ॥ रा० ॥ ११ ॥ पांचे पांमवें वे ना ६ हणिया, ते सहु कर्त्तव्य तुम हो ॥ उत्तम जाणी में उमरिया, होड करिश क्युं मुफ हो ॥ रा० ॥ १५ ॥ हत्याकारक अर्जुनमाली, दृढप्र हारी वलि देख हो ॥ तें अधिकारी नरकना कीधा, में सुख दीधां अलेख हो ॥ राम् ॥ १३ ॥ तें कन्यानो शिर दायो, मनमें न करी लाज हो । तेह चिलातीने में दीधो, स्वर्गतणो सुखसाज हो ॥रा ॥ १४ ॥ जूनो जर्जर देह देखीने,करुणा आवे मुफ हो ॥निला वृदने अनि प्रजाले,तोश्ये नीरस गुफ हो ॥रा० ॥१५॥
॥दोहा॥ ॥ इणि परें वीर विवेकनी, वाणि सुणी नृप मोह ॥ वृक्ष हून पण तरु ए दुश्, कोप्यो अधिक बोह ॥ १ ॥ निज हथियारें वरसतो, हणवा वीर विवेक ॥ वहि आयो तिहां वाघ ज्युं, बे जूण्याअतिरेक ॥ २॥ मनतणी परें बे जगा, जूफे मांहोमांहि ॥ अंजनगिरि हिमगिरि मल्या, सुर सा खी रह्या तांहि ॥३॥ वीर विवेके मोहने, नपाडियो ग्रहि पाय ॥ नाल्यो धरणी ऊपरें, दीण दून स सकाय ॥४॥ शेही तुं सब जगतनो, पापी पा प निवास ॥ विरुइ विप वेली हती, ते जणी कीजें नाश ॥ ५॥ देव सम र तुं बापणो, जे सारे तुम काज ॥ नवि लूटे तुं जालियो, यइतणो अज
आज ॥ ६ ॥ सुत सहोदर कोई अवर, कवट चालणहार ॥ नरपति तसु राखे नहिं, ए नृपनीति विचार ॥ ७ ॥ जननी जनक न को इहां, राखि शके नहिं तोहि ॥ पापतणां फल आश्यां, दोष नहिं ने मोहि ॥ ७ ॥ सा दवीधर बुं हुं सही, किंचित कारण होय ॥ पाप फल अघ वृदना, ते मारे डेतोय ॥ ए॥ श्म कही वीर विवेक तब, ब्रह्मशस्त्रशुं मोह ॥ हणियो
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
ए
3
सुर नर देखतां खातम अनुबल सोह ॥ १० ॥ ज्ञानावरस्यादिक प्रकृति, सेवक नाता शेष ॥ जय जय शब्द कराइया, जीत्यो वीर विशेष ॥ ११ ॥ ॥ ढाल बारमी ॥
॥ नयन निहालो रे नाहला ॥ ए देशी ॥ जडता फूरे रे योषिता, फूरे माया रे मात ॥ ए अवस्था रे क्युं य, तुं जग अमर कहात ॥ ज० ॥ १ ॥ तुं जगजीवन वालहो, तुं श्रम प्राणाधार ॥ जे वृक्ष वलगी रे वेलडी, ते वृक्ष पाम्यो संहार ॥ ज० ॥ २॥ आश घणी मनमां हती, ते रही दीसे रे आज ॥ वल्लन तुं डरलंन बे, मन मान्यो महाराज ॥ ज० ॥ ३ ॥ तुं सम
वर न कोय बे, पूरण मननी खाश || तु गुण केता रे द्वाखवू, तों वि यो घरवास ॥ ज० ॥ ४ ॥ ए तनु दीपकवाट बे, तुं वहालो तेल पूर ॥ तुं सरवर में माबली, में कमलिनी तुं सूर ॥ ज० ॥ ५ ॥ तुं वादल में दा मिनी, तुं तरुवर में पान ॥ तुं मानसर में हंसली, तुं उत्तमंग में कान ॥ ज० ॥ ६ ॥ दाडुर चातक मोर हे, तुं गिरुन घन मेह || दर्शन प्यास बु जाइयें, इम किम दीजें रे बेह ॥ ज० ॥ ७ ॥ कोमल कुमुदिनी मे बां, तुं
चन्द समान ॥ तुं तरुवर में पंखिया, कुण हवे देशे रे मान ॥ ज० ॥ ८ ॥ इा परें माया रे योषिता, फुरती धरती ढली ताम ॥ मोहतणो परि वारजे, बीजो पण गयो ग्राम ॥ ज० ॥ ए ॥ मोहतणुं मृत्यु देखीने, हर ख्या सुर नर राय ॥ फूलती वृष्टि वीरने, शिरपर कीधी रे याय ॥ ज० ॥ १० ॥ जय जय शब्द सहू कहे, यारी शक्ति अपार || हिमगिरि हीर त
परें, तुम गुण निर्मलहार ॥ ज० ॥ ११ ॥ ऐरवत जरत विदेहमें, तुं हिज सखरो हेत ॥ सकलशरीरी रे जीवने, तुं सुख बीजनो खेत ॥ ज० ॥ १२ ॥ तुं हितवचन मात ज्युं, विघ्न विदारण वीर ॥ कलियुग पावक जीपवा, अधिकुं निर्मल नीर ॥ ज० ॥ १३ ॥ तुं साहिब शिर सेहरो, नूर जविक सुखकार || नवजय हरण हरायवा, तुं पंचायण सार ॥ ज० ॥ १४॥ कऊल यमुनाजल कोकिला, एहो कालो रे पाप ॥ ते गयो दूरें या जयी, दूर गयो दुःख व्याप ॥ ज० ॥ १५ ॥ उदयाचल जिनशासनें, तुं न गो अब सूर || तिमिरपाखंम दूरें गयां, दिन दिन अधिक पंसूर ॥ ज० ॥ १६ ॥ रवि तो उगे यायमे, चन्द्र कलंकी रे होय ॥ मणि तो पवर या खियें, सुरतरुने वृक्ष जोय ॥ ज० ॥ १७ ॥ ताहरी उपम जे दुवे, ते जंग
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ए६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. में नहिं दीठ ॥ अधिकुं अमृत पानथी, तुफ दर्शन अम मीठ ॥ ज० ॥ १७ ॥ श्रीजिनराज मया करी,ए कति आश्रे तोहि ॥ वीरविबुध शिर से हरो, दिन दिन अधिकी रे सोह ॥ज॥१॥ इणि परें सुरनर किन्नरें,गुण गाया धर्म टेक ॥ धर्ममंदिर धन ते सही, सेवे वीर विवेक ॥ ज० ॥२०॥
॥दोहा ॥ ॥ जयत दूर जाणी करी, हरखी वीरनी मात ॥ पुत्र समीपें आइने, आखें मधुरी वात ॥ १ ॥ चिरंजीव जीवन जगत, तीन नुवन विख्यात ॥ सुत संगम शीतल इस्यो, चंदन चन्द्र कहात ॥२॥ साची धारा दूधनी, तें धावी छे मुत ॥ स्वन्न वत्स तुं हवे थयो,शोन वधी बदु तुऊ ॥३॥ चि त मनोरथ माहरा, जव्य जीव किध एह ॥ सिद्धि प्रतें पाम्या सही, एक पम सस्नेह ॥४॥ सिंह समा ढुं तुऊ सुतें, गंजि शके कुण मोह ॥ बीजा नी मा बापडी, कुण जणशे सम तोह ॥ ५ ॥ अविचल ऋदि होजो स दा, धर्म नीति आधार ॥ निज कुलदीपायो खरो, सकल जीव सुखकार ॥६॥ एह वचन निवृत्तिनां, सुणियां वीर विवेक ॥ मध्यनाव नावी र ह्यो, निजगुण निर्मल टेक ॥ ७ ॥रण खेतर रह्यो मोहनो, सघलोई परि वार ॥ एक तात मन तिहां किणे, जीवतो दीत तिवार ॥ ७ ॥
॥ ढाल तेरमी ॥ ॥ पियु चले परदेश, सबे गुण ले चले ॥ ए देशी ॥ तिण वेलां त्यां वीर विवेकें तातने, निरख्यो परख्यो दीण खरो तसु गातने ॥ नांहि वि लेपन कर्म तणो नहिं अति घणो, अति नहिं चंचल अंचल कपम कि म जपो ॥ १ ॥ मूके बदु निःश्वास आश मन संनरे, मोहयुं सबलो स्नेह मेह यांसू करे ॥ आथमियो मोह सूर निशि सहू को कहे, सिंह गयो जिम हरिण वनमां ावी रहे॥ ॥ राज काज सुख साज सदु मुफ हाथथो, रागादिक परिवार प्रवर्तनो नाथ थो॥ है है दोषी देव तें ए वडो झुं कियो, चिन्तामणि मोहराय ननासीने दीयो ॥ ३ ॥ नक्ति यु गति नरपूर नली परें मुफ हती,हवे कुण करशे सेव देव मन नावती ॥ विरह विलाप संताप तातने जाणीने, आयो राय विवेक नेक मन या एीने ॥ ४ ॥ वीर कहे सुण वात तात हवे माहरी, ए मास्यो जे मोह सोह सवि ताहरी ॥ तीन वन फुःखदाय राय मोह ए हतो, पाप ताप
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री मोदविवेकनो रास.
बहु व्याप कला गुरु ए उतो ॥ ५ ॥ जीव हणाय बलाय वहे जूतो सदा, पर धन हरण परदार सेवे बे ए मुदा ॥ मित्रशुं ोह विछोह करी धन मे लवे, निशिदिन मदिरा पान खान बाक्यो लवे ॥ ६ ॥ जीव जणी ए नर क निगोद लइ फेरवे, नूख तृषा तप शीत रीत पण जेरवे ॥ याधि व्याधि बहु साथ अगाध समुबे, ज्ञान ध्यान बुध पान जणी मुनि कुड् वे ॥ ७ ॥ कर stra कपूत कुकर्मणो धणी, एहना बहु अपराध सह्या में अवगणी ॥ धिक् धिक् तुने प्रेम जे मोह वधारियो, शान्ति प्रकृति मुक जाए तिहांथी वा रियो ॥ ८ ॥ निवृत्ति ताहरी नारी सारी पुत्र हूं बतो, वे मुफ घरमें श्रा are कर तुं मतो || लोक कथीरतणी भूषा तु तनु हती, हेमतणी हित सोह तोहि दूखही रही || || देवनिरंजन घ्यायो खायो मुफ गेहमें, यान पंपाल विचार विकारे कारमे ॥ लोक कहेशे वाह वाह मंत्री तो नली, नक्तिनाव भरपूर करश्यां तुम ती ॥ १० ॥ एह वचन सुखी मंत्री वि चारे मन करी, वीर विवेक विचार कहे बे हित धरी ॥ पण माही सुख वात धात मोहनुं मिलें, विरगुं नवली प्रीत रीत कहो किम जिले ॥ ११ ॥ एहनी माता ज्ञाता मुज्थी नवि नही, ते दुःख दियामांही नाहिं कहो किम सही ॥ पुत्रवधूने हाथ साथ जीमण हूशे, यांगुलियानीशान तान मन ने कशे ॥ १२ ॥ नववैराग्य प्रमुख एकदेशे मो नली, तात तो नहीं बाप साप ए घरी ॥ पुत्रतणे बहु मान न कोई विचरशे, तो पण नय गां शान वान उतारशे ॥ १३ ॥ रत्नराय मन जंग मिले कहो किलि परें, शीलनी कोपाय वास नेलो वसे ॥ साप शीशें धार कहो कुण नर र हे, ए कपम अवधार विचार मंत्री कहे ॥ १४ मोह दशा विपरीत जी तनविसरी, तो क्युं रहियें नेह गेह किए धरी ॥ मनमेनुं परि वार सार वि रस नहिं, तोशुं ए घर वास दास परनारही ॥ १५ ॥ ॥ दोहा ॥
॥
॥ इम थालोची मंत्रवी, दीरघदर्शी एह ॥ वीर विवेक जणी कहे, सु सुपूत सस्नेह ॥ १ ॥ तुऊ वाणी हितकारिण, मीठी अमृत धार ॥ पण परचित्त चिर कालनो, मोह दूतो मनोहार ॥ २ ॥ एह गये थइ ना रहे, मन मंत्री निर्धार ॥ इागुं वाचा में करी, हुं यारी बुं जार ॥ ३ ॥ बोल कोल किम पलटियें, उत्तम ए प्रचार ॥ ते संबल सखरो दियो, हित शे
१३
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
एन
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. दा सुविचार ॥ ४ ॥ तुं आज्ञा दे मंत्रीने, ज्युं करे अनि प्रवेश ॥ अति आ ग्रह कीधां थकां, वींददीयो आदेश ॥ ५ ॥ चढी गुणगाणे बारमे, नाव तीर्थ जल स्नान ॥ स्नातक दायिक कुंकमां, शुरू यो बद्ध मान ॥६॥ अंतराय प्रचला प्रमुख, इंधण कर्म विशेष ॥ गुक्त ध्यान पायक प्रबल,मन मंत्री शुक्ष शेष ॥ ७ ॥ सारखी वीर विवेक दुय,वली बीजो परिवार ॥ गत वीर जग तीवेद दुय, जस्म थयो तिणवार ॥ ७ ॥ मूल ज्योति परगट नइ, प्रगट्यो चेतन राय ॥ श्ण अवसर हवे मूलगी, चेतन राणी आय ॥ ए॥
॥ ढाल चौदमी ॥ ॥ थारो केशरियो कसनीनो ॥ ए देशी॥ अब चेतना श्री वीनवे राणी ॥ सुजो साहिब जी ॥आज अवसर पायो मनहर प्राणी ॥ सु० ॥ ढुं एटला दिन जे तुम ना ॥ सु० ॥ ते सब गुनहो बज्यो मन लाई ॥ सु० ॥ १ ॥ हुँ अविहड नेहो मनमां धरती ॥ सु०॥ हवे आप मिट्या ज्युं मेहने धरती ॥ सु० ॥ हवे जूया न दूया कबही वहाला ॥सु०॥ ऊरख मारो माया दोषी काहला ॥ सु० ॥ २॥ हवे हुँ तुम चरणनी दुइ दासी ॥ सु० ॥ ज्युं मानसरोवर हंसी वासी ॥ सु०॥ ए मोह अने मन मंत्री थारे ॥ सु० ॥ तब तां रुसणो दूतो मारे ॥ सु० ॥ ३ ॥ इतरा दिन माया जालें बांध्यो ॥ सु० ॥ हवे परमानंद पद पूरण लाध्यो ॥ सु० ॥ तरा दिन वयरी वश पडियो ॥ सु० ॥ तिहां बंधन संधन सबलो अडियो ॥ सु० ॥ ४ ॥ हवे ज्ञान गुलाब करी अंग नीनो ॥ सु० ॥ थारो मुलगा रूपरो मुफरो कीनो ॥ सु०॥ मार्नु वादल मूक्यो सूरज शोहे॥ सु० ॥मानुं राहें मूक्यो शशिधर मोहे ॥ सु० ॥ ५॥ मानुं निधूम पावक प्रबल सुहायो ॥ सु० ॥मानुं माटीथी ए कंचन पायो ॥ सु० ॥ जाणे खाण खणंतां माणक पायो ॥ सु॥ तुं अनुपम दीपक तेज सवायो ॥सु॥६॥ ए हेम तणो सिंहासन देवा ॥ सु० ॥ रचियो ने बेसो करशे सेवा ॥ सु० ॥ नप देश दियो हवे मनने रंगे ॥ सु० ॥ नवि लोक जणी सुख तुमचे संगें ॥सु ॥ ७ ॥ इम वयण सुणी पटराणी केरां ॥ सु० ॥ हंस राजाने मन हर्ष घ गेरा ॥ सु० ॥ हवे प्यारी केरो विरहो नांही ॥सु० ॥ निजरूप विराज्यो निज गुणमांही ॥ सु० ॥ ७ ॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
TOU
श्रीमोदविवेकनो रास.
॥दोहा॥ ॥ जय जय शब्द सदु नणे, धन धन तुं माहाराय ॥ न्यायधर्म दीपा वियो,तेरम गुणगाणां पाय ॥१॥ निज पद प्रनुता पद लह्यो, लाधो मूलगो राग ॥ बंधन अरि दूरें गया, परमहंस नृप राज ॥२॥ सुरपति नरपति नावगुं,मन मद मबर बोडि॥जवनय बंधन मकवा,सेवे ले कर जोड ॥३॥ वाणी इणि परें नांवशे, नविजनने नपकार ॥ निज गुण परगुण कर्म रिपु, विवरो धरजो सार ॥ ॥ मोहराय जीत्या विना, शिवपद लहियें केम ॥ जीपणनी विधि में कही, सघली मांमी एम ॥ ५ ॥ विनय विवेक विचार गा, आतमनो गुण एह ॥ वस्तुथकी जोतां थकां, उपावन धरी नेह ॥६॥
॥ढाल पन्नरम। ॥ ॥कपूर दवे अति जलो रे ॥ ए देशी ॥ ग्रामणी आगे ए कह्यो रे. सघलो ए विरतंत ॥ परम हंस ढुं की परें रे, दु निरख तुं संत रे प्राणी ॥ कर श्री आतमधर्म, जीपीजें ज्युं कर्म रे प्राणी ॥ क० ॥ ए आंकणी ॥१॥ हंस नाम ते माहरूं रे, मूल गुणें निर्धार ॥ रूढ नाम ते धर्मरुचि जी, एह अरथ अवधार रे प्राणी ॥ क ॥२॥ माया मोह ए में किया जी, नाना रूप प्रकार ॥ सुमति विवेक विना सहू जी, नरिया पाप नंमा र रे प्राणी ॥क०॥३॥ यापद संपद नविलहे जी, ज्ञानतणो कियो मान ॥ जूलो चामक नावगुं जी, न धस्यो निरंजन ध्यान रे प्राणी ॥ क ॥४॥ बहुविध जीवायोनिमें जी, बदविध धरियां नाम ॥ नानाविध त्यां मुःख सह्यां जी, सघनी फरसी नाम रे प्राणी ॥ क० ॥ ५ ॥ समयतणो बल साधीने जी, श्रीपरमेष्ठि पसाय ॥ मलिया विवेक वैराग्यशुं जी, में जी त्यो मोहराय रे प्राणी ॥क०॥ ६ ॥ मोह जीप्यो माया गई जी, नाना वि षय विकार ॥ निज गुण मणि करि शोनतो जी, परतिख देख तुं सार रे प्रा पी॥क०॥७॥चेतना पटराणी मली जी, नीके निर्मल नूर ॥ सतीय शिरोमणि शोजती जी, दीगो आनंदपूर रे प्राणी ॥ क० ॥ ॥ राणी गुण केता कहुँ जी, गणतां नावे पार ॥ अविचल पद हवे एहथी जी, ग्रामणी तुं अवधार रे प्राणी ॥ क०॥ए । कर्म नरम दूरे गया जी, आयो आप स्वजाव ॥ ज्ञान सूरज नग्यो सही जी, नाठो विकल विनाव रे प्राणी ॥ ॥क० ॥ १० ॥ श्म सुणी ग्रामणी आखशे जी, साची सघली वात ॥ ए
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नव मुफने तें दीयो जी, जेदाणी मुफ धात रे प्राणी ॥ क० ॥ ११॥ मो ह माया करी नवि लख्यो जी, एह स्वरूप विचार ॥ मिथ्या तिमिर दूरें गयां जी, स्वामी मुऊने तार रे प्राणी ॥ क० ॥ १५ ॥ नूर जरम नाशी गया जी, सूरज साचो दीठ ॥ ए विरतंत में अनुनव्यो जी, अमृतथी बदु मीठ रे प्रा एगी॥क० ॥१३॥ आप समोवड मुफ करो जी,अवधारो अरदास ॥ चर एए न बोडं ताहरांजी, बोडि विनवनो पास रेप्राणी ॥क०॥१४॥ सं वेग निर्वेद देखिने जी, धर्मरुचि अणगार ॥ देशे दीदा तेहने जी, आणी मन नपकार रे प्राणी ॥ क० ॥ १५॥ ग्रामणी दीदा लेश्ने जी, रहेशे गु रुनी साथ ॥ तप जप संयम खप करे जी, होशे सदुनो नाथ रे प्राणी ॥ क० ॥१६॥ ग्रामणी कर्म खपाइने जी, लेहशे केवल ज्ञान ॥ लोकालो क विलोकशे जी. अनुपम रूप निधान रे प्राणी ॥ क० ॥ १७ ॥ मुक्त जाशे मुनिवरु जी, ए जिनधर्म पसाय ॥ धर्ममंदिर गणि तेहनां जी, चरण नमे चित्त लाय रे प्राणी ॥क० ॥ १७ ॥
॥दोहा॥ ॥ चेतना राणी एकदा, अवसर समयो देख ॥ हंसरायने वीनवे, वारू वात विशेष ॥१॥ ज्ञान अंतर दर्शन वली, अनंत वीर्य सुखकार ॥ अवि चल पद पुर परगडो, तिहां जश्ये अवधार ॥ ५ ॥
॥ढाल शोलमी॥ ॥ अस्थिर आ संपदा रे ॥ ए देशी ॥ काया नगरी कारमी रे, अशुचि तणो नंमार ॥ सात धात नव बारणांरे, मांस रुधिर विस्तार ॥ वालेसर वी नवो रे आतम तुं अवधार ॥वा॥ ए आंकणी ॥१॥ चर्म मांस अांता शिरा हाडें करी रे, बंधाणो जस बंध ॥ लाल सिंहासन मल मूत्रा रे, वास रह्यो मुर्गध ॥ वा ॥ ५ ॥ दमक चमक कंचन जिसी रे, परि पुजल परसंग ॥सु रति मूरति सोहिणी रे, हणमें पामे नंग॥वा॥३॥मणिमुक्ताफल ए नहिं रे, कंचन रंग नहोय ॥मोही जन मोही रह्या रे, वार वार मुख जोय॥वाण॥४॥
अन्न पान धृत गोल जे रे, सखरां फल फूल पान ॥ चूया चंदन अरगजा रे, तनु संगें मणि जाण ॥ वा० ॥ ५ ॥ नक चक्र म कनपा रे, नकुल नंदर सिंह साप ॥ नृत प्रेत मंत्र शाकिनी रे, गुल्म ग्रंथि वात ताप ॥वा० ॥६॥ चक्र धनुष बाण खड्ग जे रे, बरबी तुंब बंदूक प्रहार ॥ इत्यादिकथी
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
२०१ जय धरे रे, पग पग विघ्न विकार रे प्राणी ॥ वा ॥ ७ ॥ रोग शोक रिपु रोषथी रे, सबलो तनु सूकाय ॥ उष्ट दृष्टि ऋषि कोपथी रे,जस्म समोवड थाय रे प्राणी ॥वा॥॥ स्नेह राग शोष नयथकी रे,कोमल तनु कुमलाय ॥ अति आहार शीत तापथी रे,घात पात वश थाय रे प्राणी ॥वा॥णा अंग संग पंक नीरमें रे, वसीयो कमल समान ॥सर्प शिरें ज्युं मणि रहे रे,
आप अलेप सुजाण रे प्राणी ॥ वा०॥ १०॥ पांच नूत जड एक मिल्या रे, नाम कर्म संयोग॥ तुं पवन प्रकार लही करी रे, ज्युं वादल जोर रे प्राणी ॥ वा० ॥ ११ ॥ चिदानंद तुं ज्योति ने रे, अविनाशी अविकार ॥ शहां रहेवं तुऊने नहिं रे,आपोआप विचार रे प्राणी ॥ वा॥१२॥अनं त वार लेश मूकियां रे,एहवा देहस्वरूप ॥ हवे कांहीं धरवू नहिं रे, स्वयंरूप चिप रे प्राणी ॥ वा०॥ १३ ॥ एह वचन निज नारी रे, मान्यूं बातम राय ॥ परम ब्रह्म पद पामवा रे, कीधो एह उपाय रे प्राणी ॥ वा० ॥१४॥ जोग निरंधन साचवे रे, तन मन वचन प्रकार ॥ प्रकृति पञ्चासी बोडवे रे, लागीथी ज्युं बार रे प्राणी ॥ वा ॥ १५॥ गुणताण चौदमे स्थिर र हे रे, लघु अदर पंच सार ॥ चेतना राणी परवस्यो रे, जाये मुक्ति मका र रे प्राणी ॥ वा ॥ १६ ॥ बाण बुटो जिम धनुषथी रे, निर्लेप तुंबी देख ॥ दीप शिखा नंची धसे रे, युगतें की विशेष रे प्राणी ॥ वा ॥ १७ ॥ अतुली बल ए आतमा रे, एक समयमां जाय ॥ रिजुगति समश्रेणें करी रे, परमानंद पद थाय रे प्राणी ॥ वा० ॥ १७ ॥ परम ध्यान पद पामियो रे, परम मंगल परकाश ॥ धर्ममंदिर कहे ए सुण्यां रे, थाये अधिक उन्ना स रे प्राणी ॥ वा० ॥१७॥
॥ ढाल सत्तरमी ॥ ॥ प्रणमी पास जिनेसर केरा ॥ ए देशी ॥ हवे शिवपद गुण स्थानकगुण थुणिये,आगम अर्थथकी ज्युं सुणियें ॥अचल अक्ष्य पद एहज कहियें, चौ दे राज शिरोपर वहियें ॥ १ ॥ नर लोक जेती लांबी पहोली, बत्राकारें अतिही धवली ॥ सिम शिला उपर थाकारों, निज निज अवगाहन करी जासे॥॥ज्ञानावरण गयाथी पायो, केवल ज्ञान अनंत समायो॥ दर्शनावर ण गयाथी आयो, दर्शन अनंततणो सुख नायो ॥३॥ चारित्र दायिक
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. समकित लीधो,बेतु मोहतणो दय कीधो॥ वेदनी जातां अनंत सुख सारा, अनंत वीर्य ह्या विघ्न निवारा ॥ ४॥ अदय स्थिति दूइ आयु खपाया, दायिक पारिणामिक तसु नाया ॥ नाम कर्म गया ते अशरीरी,गोत्र गया अवगाहन धीरी ॥ ५ ॥ गर्न प्रसवनी वेद न गंही, वेदनी कर्मतणो बल नांहि ॥ विषय कषायतणा नय नावे, योग वियोगनो दुःख न पावे ॥६॥ लेवा देवा न करे सेवा, धन वन मनरी ममता न धरेवा ॥ जल थल जावं आवू जोरा, तिहांकिणे केहनो न चले तोरा ॥ ७ ॥ मंस मसक दुइ जी वनी पीडा, माखी नमरी कीडी तीडा ॥ वींनु शाप विरोधी जीवा, नाहीं अंधारो नांही दीवा ॥ ७ ॥ साते नयनी का नहिं नीति, रितुपालटणरी का नहीं रीति ॥ मंत्र यंत्र को जाणां जोशी, नहीं को गायां सां घोसी ॥॥ राजा रंक न कोइ लोका, आधि व्याधि नहिं कोई शोका ॥ माकिनी शाकीनी व्यंतर दोषा,आशा पाशा नहीं को शोषा ॥१०॥ अशन वसन नहीं रमणी रंगा, हास विलास तणी नहीं संगा॥ खाट पाट नहीं पोढी सेजा, रुसे तूसे नहीं को हेजा ॥११॥ नूख तृषा तप शीत न बाधा,कोइ न बोला घाट न वाधा ॥ मंदिर महिल न कोई विमाना, कोई न करे आदर माना ॥१॥ तप जप किरिया शील न पाले. दान दया वलीकोन निहाले ॥ ध्यान नहिं को धर्मनी चर्चा, देवतणी नहिं सेवा अर्चा ॥ १३ ॥ पाप ने पुण्यतणा नहिं बंधा, आश्रव संवरनो नहिं संधा॥ गुणताणा नहिं च ढण उतारा, ए साधकता नहिंय लगारा ॥११॥ बेदन नेदन नहिं को खेदा, शोषण तोषण वर्णन वेदा ॥ शब्द रूप रस फरस न गंधा, स्थिति गति सुख दुःख गही प्रतिबंधा ॥ १५॥ ऊपम दीजें एहनी जीकाइ, ते ज गमाहे वस्तु न कां॥ ज्योति रूप तणे अनुसारें, पंमित नर मनमें अव धारे ॥ १६॥ सुरपति नरपतिनां सुख जेतां, सघलां नेलां कीजें तेतां ॥ तेहथकी अनंत कहीजें, संपूरण सुख ते नवि बीजे ॥ १७ ॥ केवल झा नी शिव सुख देखे, कही न शके ते सुख सुविशेषे ॥ इन्झ्यिनां सुख ते दुः ख लेखे, संसारी मीठां करि देखे ॥ १७॥ स्थिर पद स्थानक इणि परें पा यो, नविजन सुणतां सुख सवायो॥ धर्ममंदिर कहे धन धन तेहा, ए पद पामे पूरण जेहा ॥१॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास. १०३
॥दोहा॥ ॥ परम हंस राजा तिहां, राज करे नितमेव ॥ प्रह उठीने प्रणमतां, मन वंडित ततखेव ॥१॥
॥ ढाल अढारमी॥ ॥ देशी हंसलानी ॥ निश्चे गुण हंस रायना, ते सुणजो दो नविजन मन लाय के ॥ हंस जी नलो जलो ॥ हंस राजा हो अति धवल सुहाय के ॥ हं० ॥ लोकालोक विलोकिने, सुख माने हो निजपद सुपसाय के ॥ हं॥१॥ बंधन सवि दरें गयां, ज्योति प्रगटी हो अतिही नदार के ॥ हं० ॥ अलख अरूपी अातमा, अविनाशी हो परब्रह्म प्रकार के ॥ हंग ॥ ५॥ अकथ अकर्ता ए सही, चिपी हो चिदानंद विलास के ॥ हं॥ विषयातीत अजीत ए, चिन्मूरति हो चिन्मय सुप्रकाश के ॥ हं० ॥३॥ अगुरु लघु गुण शोनतो, खेम रूपी हो माहाधाम निधान के॥हं॥ परम प्रबोध प्रकाश ए, संघाती हो शिवरूप प्रधान के ॥ हं० ॥ ४ ॥ ज्ञानादि क गुण शोजता, ज्ञानदृष्टि हो निज सकल स्वरूप के ॥ हं० ॥ निष्कलंकी निर्लेप ए, निःसंगी हो निनोंगी नूप के ॥ हं० ॥ ५ ॥ इव्य गुणें करी ए क, झान दर्शन हो चारित्र अनंत के ॥ हं०॥ संसारी सुख जे धरे, तो तेहने हो कुःख माने संत के ॥ हं० ॥ ६ ॥ अविकारी अविकारनु, सुख माणे हो निज गुण निर्माय के ॥ हं० ॥ वचन अगोचर एहनां, गुण व
न हो केवली न कहाय के ॥ हं ॥ ७ ॥ संसारी सुख एकठो, सदु की जे हो मन बुद्धि विज्ञान के ॥ हं० ॥ एहयकी अधिको सही, लवें सत हो सुर सुख निधान के ॥ हंगा॥ हंस राजा सुख अगलें,अनंत नागें हो हीणो सुख तेह के ॥ हं० ॥ सदा विराजित एहवा, गुण प्रगट्या हो ना वे तसु बेह के ॥ हं ॥ ए॥ किण इक नृप ज्युं आणियो, निन्न वननो हो उपकारी जाण के ॥ हं० ॥ सघलां सुख तेहने दियां, नव नवला हो दियां खान ने पान के ॥ हं० ॥ १० ॥ फिरी ते अटवीमां गयो, आवी मीलियो हो सघलो परिवार के ॥६॥ पूजी वातां सुखतणी, कही न श के हो सघलो विस्तार के ॥ हं० ॥११॥ सरखां करीने दाखवे, ते वनमां हो नहिं कां वात के ॥ हं० ॥णी परें सुरव हंस राजनां,कही न शकुं हो सघलां विख्यात के ॥ हं० ॥ १२ ॥ कारमुं सुख संसारनु, रोग शो
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ जैनकथा रत्नकोष नागत्रीजो. के हो नरियुं जरपूर के ।। हं० ॥ परम पवित्र प्रधान ए, अघनंजन दो रं जन बहु नूर के ॥ हं० ॥ १३ ॥ महिमा ब्रह्म विलासनी, कही न शके हो सुरगुरु पण एह के ॥ हं० ॥ धर्ममंदिर कहे वंदणा, कर जोडी हो धरि धर्म सनेह के ॥ हं० ॥ १४ ॥
॥दोहा॥ ॥ मंगल कारण ए सही, मांगलीक मुखरूप ॥ ज्ञेय ध्येय करी धवल पद, आतम बाप स्वरूप ॥ १ ॥ परम देव पण ए सही, तारण तरण सु एह ॥ परम समाधि स्वरूप ए, झानरतन गुणगेह ॥॥ ब्रह्मरसायण संग थी, हेम कुधातु विकार ॥ तिम ए अंतर यातमा, परमातमता सार ॥ ३ ॥ त्यां लगि मीठा अवर रस, ज्यां लग ए नव दीठ ॥ ज्यां अमृत चा रव्युं नहिं, त्यां जल स्वादो मीठ ॥४॥ खट् दर्शन नदीयां समां, निज निज नय विस्तार ॥ सघला नय समवायधर, जिन मत सागर सार ॥ ५॥ स्याहाद मति अनुसरे, ते पामे ब्रह्मरूप ॥ एह विना सघलां गणो, नव संसार स्वरूप ॥ ६ ॥ उद्यम संसारी सकल, सफल निष्फल पण हो य ॥ ए अमोघ फल व्यो सदा, इहां संदेह न कोय ॥ ७ ॥ ज्ञानी ज्ञानें रा चशे,अज्ञानी अज्ञान ॥ ज्ञानतणा गुण सेवतां,झान ध्यान बहु वान ॥७॥
॥ढाल गणीशमी॥ ॥ इणिपरें नाव नक्ति मन थाणी ॥ ए देशी ॥ धन धन धर्मरुचि श्रीशषिराया, यात्म धर्म बताया जी ॥ ग्रामिणी प्रमुख नविक जन ता ख्या, पातम काम समास्या जी॥ध ॥ ए आंकणी॥१॥ आतम सुर तरु कामित दाता, काम धेनु विख्याता जी ॥ रत्न चिंतामणि कामित कुंना,
आत्म महिमा अचंना जी॥ध० ॥ २ ॥ परमातम सेवो नवि प्राणी, ए शिवपद सहि नाणी जी ॥ रसना पामी सफली गणियें, जो जिनधर्म गुण थुपीयें जी ॥ध० ॥३॥ पुण्य पाप बेदुए जवासी, इणथी होय उदासी जी॥ प्रातम केलं रूप निहालो, विषयथकी मन वालो जी॥ध०॥४॥ निजगुण परगुण बेतू जूके, अंतर गति तसु सूफे जी॥ बाहिज तप जप बहुलां साधे, विरला झान आराधे जी ॥ ध० ॥ ५॥ देश विराधक ज्ञानी होवे, जो प्रमादने सेवे जी ॥ अज्ञानी किरिया गुण नरियो, देशे आराधक वरियो जी ॥ध० ॥ ६ ॥ आराधक ज्ञानी आगममें, साचो शुद्ध शम दम
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमोदविवेकनो रास.
१०५ में जो ॥ अज्ञानी आराधक नांहिं, जो तप जप खपमांही जी ॥ध०॥७॥ मांगलीक महोटो धर्म जाणो,मंत्र महा मन आयो जी ॥ नावना सूधी आतम नावो, परमानंद सुख पावो जी ॥ध० ॥ ॥ ध्येय न गेय न हेय न को, अंतर ज्ञानें जोई जी ॥ प्रह नतीने कीजें प्रणामा, फले मनोरथ कामा जी ॥ध० ॥ ए॥ प्रबोधचिंतामणि ग्रंथ प्रसिको, श्रीजयशेखर की धो जी ॥ मोह विवेकतणा अधिकारा, गिर्वाण वाणी सारा जी ॥ध॥१०॥ मंदमति जे मनमें आणे, बालस पण अंग आणे जी ॥ तिणे ए ढाला ना षा प्रबंधे, नविजनने सुख संधे जी ॥ध० ॥ ११॥ श्रीजिनधर्म सूरीश्वर राजे, दिन दिन अधिक दिवाजे जी ॥ आदेश तास लही चोमासा, की धी धर्म ननासा जी ॥ध० ॥ १२ ॥ श्री मुलतान नगरमें सोहे, पार्श्वना थ मन मोहे जी ॥ तासु पसायें चोपाई कीधी, मंगलमाल प्रसिधी जी ॥ ध० ॥ १३ ॥ अध्यातम शैली मन लाइ, सुखानंद सुखदायी जी ॥धर्म धु रंधर श्रावक संगें, वाधे शान सुरंगें जी॥ध०॥ १३ ॥ उद्यम आदर एह नो जाणी, ए रचना मन आणी जी ॥ लान थयो मुजने धर्म ध्याना, न विजनने वध्यो ज्ञाना जी॥ध०॥ १५ ॥ सतरेशें इकताले वर्षे, उज्ज्वल प द गुन दिवसें जी ॥ मागशिर दशमी स्थिर गुनयोगा, चौपाइ थइ सुप्र योगा जी ॥ध ॥ १६ ॥ वडवखती खडतरगण इंदा, युगवर श्रीजि नचंदा जी ॥ नुवनमेरु गणि सुमति सुरंगा, पूज्यतणा शिष्य चंगा जी ॥ ध० ॥१७॥ पुण्य रत्न वाचक परधाना, तासु शिष्य बदु माना जी ॥द याकुशल पाठक पद धारी, सुविहित साधु विहारी जी ॥ध० ॥१७॥ तस शिष्य धर्ममंदिर गुण गावे, चढती दोलत पावे जी ॥ रूपरत्न सुख संपति वाधे, जो जिनधर्म आराधे जी॥ध० ॥ १५॥ सुगतां नातां पाप पला वे, झान कलादिक पावे जी ॥ जे नर होशे जाण प्रवीणा, ते इण अधि कारें लीणा जी ॥ ध० ॥ २० ॥ मोहतणा जे मेज़ होश, ते ण साहमो न जोइ जी॥ कहेशे कल्पना कूडी पाखी, किण दीठी कुण साखी जी॥ ध० ॥ २१॥ वार विवेकतणा जे नाई, करशे प्रीति सवाइ जी ॥ आत्म झानतणा जे रसिया, तसु मन वचन ए वसिया जी ॥ध० ॥ १२ ॥ प रमादी प्रायें संसारी, गुरु उपयोग विसारी जी ॥ आगमथी नपरांठगे जे हो, मिहामि उक्कड तेहो जी ॥ ध०॥ १३ ॥ ज्ञानतणी ए मंजरी महके;
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नव नव ढाले लहके जी ॥ चतुराने ए कंठे बाजे, आतमगुण धरी राजे जी ॥ध० ॥ २४॥ खमें करी चोपाइ दीपे, मिथ्यानावने जीपे जी॥ बातमदर्शी अर्थ करेशी, आनंद अंग महेसी जी ॥ध० ॥ २५॥ नाव नक्ति करीनविजन नशे, जे को यावी सुणशे जी ॥ धर्ममंदिर कहे ए परधाना, यापे नवे निधाना जी ॥ध ॥ २६ ॥ इतिश्रीप्रबोधचिंता मणौ ढालनाषाप्रबंधे पंमितश्रीधर्ममंदिरगणिविरचिते मोहविवेकसंग्राम हंस राजपरमपदप्राप्ति ब्रह्मस्वरूपवर्णननामा षष्ठः खमः समाप्तोयम् ॥६॥ अस्मि न्यंथे खंम ६, तन्मध्ये प्रथम खंभे ढाल ,हितीय खंभे ढाल ११, तृतीय खं में ढाल १६, चतुर्थ खमे ढाल १३, पंचम खंमे ढाल १०, षष्ठखेमे ढाल १ए, सर्व संख्या ढाल ७६. अस्मिन् ग्रंथे सर्व गाथा संख्या १७१२, श्लोक संख्या २३२५॥इति श्रीपंमितधर्ममंदिर विरचित मोहविवेकरासः समाप्तः॥
॥अथ ॥ ॥श्रीनपमिति नवप्रपंच आश्रयी धर्मनाथजीनी विनति
रूप स्तवन प्रारंनः॥
॥दोहा॥ ॥चिदानंद चित्तव, चिंततीर्थकर चोवीश ॥ जगनपगारी जगतगुरु, ज्यो तिरूप जगदीश ॥१॥ आपे आप विचारतां, सहियें आपस्वरूप ॥ प्रगटे ममतातृण बिपे, समता अमृतकूप ॥ २ ॥ जब लग जग नूलो जमे, तब लग शिवपुर दूर ॥ जब लग हृदय न ऊगमे, बातम अनुनव सूर ॥३॥ मनबंधव विनति करूं, बोडी चपल खनाव ॥ सज थइ संनालिये, यावि ये बातम नाव ॥४॥ केवल चिन्मय चतुर तुं, तूं होंसी तूं हंस ॥ अल ख अरूपी अकल गति, अविनाशी अवतंस ॥ ५ ॥ लब्धि सिदि लहरी जलधि, महिमानिधि महाराज ॥ मोहादिक वयरी विकट,तिणे लोपी तुज लाज ॥६॥ राजदि तुज सवि हरी, दारख्यां दुःख अनेक ॥ अब आतम यालस तजी,चेत चेत धरि टेक॥७॥नाम गम तस दाखवे, नपगारीय रिहंत ॥ आपबलें अरि जीतिये, साहज दे जगवंत ॥ ७॥ आराधो श्रादर केरी, अडवडियां आधार ॥ विनय करीने वीनवो, शरणागत साधार॥ए॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनपमिति नवप्रपंचनुं स्तवन. ॥ चोपा ॥ पाटणएक अनोपम वसे, नवचकज नामें उल्हमे ॥ नयरतणो महोटो विस्तार, आदि नहीं जस अंत न पार ॥ १० ॥ चो विश मारग पोढी पोल, लाख चोरासी चौटां उल ॥ चौटे चौटे हाट अनेक, वाणिक व्यवहारी नहिं ब्रेक ॥११॥ व्होरे वणजे वस्तु अनंत, वसे घणा त्यां संत असंत ॥ बहु धनपति निर्धन पण घणा, नाटक कौतुक नी नहिं मणा ॥१२॥ कोइ उपराजे कोइ निर्गमे, नला चतुर त्यां नूला नमे ॥ शेरी शेरी नव नव साथ,विबड्यां साजन नावे हाथ ॥ १३॥ थो क थोक जन जोई नाट, जो जो जाये जुश् जुइ वाट ॥ उपजे विणसे व स्तु असंख्य, तेहतणी कुण जाणे संख्य ॥ १४ ॥ चार नयर ते माहे रहे, पार एक एकनो कुण लहे॥ पापी पिंजर पशु संस्थान, मानव वास ने बु विनिधान ॥ १५॥ रायाराय करम परिणाम,राज करे त्यां अति नहाम ॥ जगमा जस परताप प्रचंम,सबल निबल शिर पाडे दंग ॥ १६॥ सेव करे जस राणो राण, त्रिनुवन कोइ न लोपे आण ॥ सूरज शशी करे जस चा करी, आश आशंक जेनी आकरी ॥ १७॥ जे कीडीने कुंजर करे, कीडी कुंजर थश्ने फरे॥ करें रांक राजाने धसी,राज दीये निर्धनने हसी॥१॥ जन परमेश्वर एहने कहे, कृष्ण विधाता करि सईहे । जाग्य देव खुदा ए होय, अवर न करता हरता कोय ॥ १५॥ यात बंधवे ने जपाल. तेमां चार महाविकराल ॥ नाण देसण आवरण अनंत, विघ्नमोहनी अति ब लवंत ॥ २० ॥ ए चारे घनघाती कह्या, आतमरूप रोकीने रह्या ॥ वाद ल विंट्यो दिनकर जिस्यो, राहें जिम पूनिम शशि ग्रस्यो ॥ २१ ॥ जलमां हे कादव जिम मल्यो, लोहमांहे विश्वानल नव्यो ॥ मणिवैमूर्यज मेलो थयो, गइ ज्योती दर्पण काटयो ॥ २२॥ इणिपरें रोकी आतम रूप, उपा डी नारख्यो नवकूप ॥ नाण दंसणावरणे आवस्यो, आतम अज्ञानी थ फस्यो ॥ २३ ॥ जे अनंतबल ते बल हीन, विघनराय कियो जीव आधी न ॥ मोहनीय तो फुरदंत, ते आगल कहियुं विरतंत ॥२४॥ नाम गोत्र घायुष वेदनी, एह वात समजे नेदनी ॥ पुण्य पाप सुख सुःख थइ मले, पिंजरमा प्रजुने सांकले ॥ २५॥ त्रस थावर अति सुक्ष्म थल, पृथ्वी पा णी वन तरु मूल ॥ अग्निवाय कीडी कंथुन, नामकर्मथी चेतन दु॥ २६ ॥ माखी मधुकर काबब मीन, गोह जुजंगम वंदर दीन ॥ गाय तुरंग
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
२त जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. म लंट गयंद, हरिण रोऊ शीयाल मयंद ॥ २७ ॥ चातक चकवा चास चकोर, नाम नरेसर अतिहि कठोर ॥ पशुसंस्थान नयर मांहिं नस्या,एम प्राणी बहु रूपें कस्या ॥॥ निखररूप कीधा नारकी, नामकरम आज्ञा मारकी ॥ विबुध निधान नयर जनघणा, कीधा सुंदर सोहामणा ॥२॥ मानववास वसे मानवी,तेहनीपेर किधी नवनवी॥ को सुंदर कोई कुत्सि त अंग, कोइ गोरा को काजल रंग ॥३०॥ कोई उंचा कोई अतिवामणा, कोइ सुखिया को उखी दूमणा ॥ कोई सुसर को दूसर हुआ, सकल लोक गुण श्म जूजुथा ॥३१॥ गोत्रकर्मनो जुनविशेक, निर्मलवंश किया नर एक ॥ एक कीया माणस कुलहीन,निर्बल निर्धन निर्गुण दीन ॥३॥ आयुरायनो ए अधिकार, हडिबंधन बांध्यो संसार॥ तेहना हुकम थयाविण सरे, कोइ नवांतर नवि संचरे ॥३३॥ रायवेदनी रंगे रमे,सुख असुख थश्ने परिणमे ॥ ए चारे नवना थिर थोन, जिम मंदिरना मंमन मोन ॥३४॥ हवे कहिगुं मोहनीय नरेश,जिणे जीत्या सवि देशविदेश ॥ जिणे जीत्या स वि सुर नर राय, मुनि केता लगाव्या पाय ॥३५॥ एहतणो पोढो परिवा र, नाना महोटा सवि कुंजार ॥ एहनुं मन अटवीमां वास, इंशदिक सेवे जिम दास ॥३६॥ नदी प्रमत्तता कुर्मति नीर, चित्तविदेश मंझप तस तीर ॥ वेसे चतुर तृमा चोतरे, विपर्यास आसन ऊपरें ॥३७॥ बल साते बं धवनुं एह,पुष्ट करे आणी मन नेह ॥ एहथी राय कर्म परिणाम, राज्य क रे अविचल अनिराम ॥३॥ मोह तपी पटराणी सार,माहा मूढता नामें नार ॥ कंत कामिनी सबल सनेह,एक जीव दीसे दोश् देह ॥३॥ मिथ्या द शन महेंतो तास, सदा रहे नरपतिने पास ॥ स्वामिनक्त सबलो बुधिवंत, राजकाज सवि चलवे तंत ॥ ४० ॥ त्रण जग वरते जेहनी आण, वश की धा सवि जाण अजाण ॥ मोहरायना सवि आरंन, थोनावण जाणे थिर थंन ॥४१॥ जे अधीगे राखे नार, करे जपमाला कर हथियार ॥ हसे रुवे तुसे दे श्राप, तेवा देव मनाव्या आप ॥४२॥ जे आरंनी जे परिय ही, जस बहु तृमा तृप्ति नहीं ॥ घरबारी जे गुरु पूजाय, ए सवि महेंता त यो उपाय ॥४३॥ होम हवन हिंसा ज्यां घणी, दया दान मूक्या अव गणी ॥ जिम जग एवे धर्मे धसे, तिम मिथ्यामति महेंतो हसे ॥ ४ ॥ वीतराग जे निर्मलदेव, तेहनी न करे नावे सेव ॥ ब्रह्मचारी विरति गुणवं
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनपमिति नवप्रपंचनुं स्तवन. . १० त, ते ज्ञानी गुरु नावे चित ॥४५॥ दयामूल जिन नाषित धर्म,तेहने जा ऐ ए सवि नर्म ॥ मिथ्यादर्शन महेंता तणा, ए करतूत अबे अतिघणा ॥ ४६॥ कुदृष्टिनामें तरुणी तास, सदा रहे जे पियुनी पास ॥ सकल च लावे घरनो नार, रमे निचिंतो तस जरथार ॥४७॥ केतेश्क जिनशास न लही, महेंतानीआज्ञा शिर वही ॥ सूत्र तजी उत्सूत्रे पड्या, मत वाह्या ते मोहें नड्या ॥ ४ ॥ कोई जटाला कोई शिरमुंम, कोइ रक्तांबर को क रदंग ॥ बार लगावे मागे जीव,ए सवि महेंता केरी शीख ॥४॥ मोहराय नो कूवर वडो, राग केशरी अति वांकडो ॥ सबल प्रतापी शक्ति अनंत, राणी मूढतानो जे कंत ॥५०॥ त्रण रूप ए नरपति तणां, एक ए कथी बीहामणां ॥ काम स्नेह राग ए दोय, त्रीजो रागदृष्टि तिम जोय ॥ ५१ ॥ विषयतणा रस जे विष जिस्या, ते पहेले रूपें मन वस्या ॥बीजे रूपें धन परिवार, ते ऊपर प्रतिबंध अपार ॥ ५५ ॥त्रीजे रूपें आपथाप गा, महंत सदुमां सोह्यामणा ॥ एत्रण रूपें राजकुमार, जेर करी मूक्यो संसार ॥५३॥ मोहरायनो बीजो पूत,क्षेष गयंद ले नांगडनूत ॥ वांकूमुख लोचन विकराल, फलहलती जाणे दव काल ॥ ५५ ॥ निर्विवेकता एनी नार, धरे अंगगुण पियु अनुसार ॥णे रुंध्यो जब हृदय उवार, तव न विआवे विनय विचार ॥ ५५ ॥ रागकेशरीनो विस्तार, चारसुता वलि नंद न चार ॥ अनंतानुबंधी अपञ्चरकाण, पञ्चरकाण संजल परमाण ॥ ५६ ॥ पहेली दृढ घनवंशी जिसी, मींढसींग सम बीजी कशी ॥ त्रीजि गोमूत्रिका सम होय, चोथी बोई सरखी जोय ॥ ५७ ॥ ए चारे वहे नर बलवंत, जा खें बांध्या जीव अनंत ॥ कूडकपट बदु परें केलवे, नरय तिरयगतिरां मेल वे ॥ ५७ ॥ माया चारे ए दीकरी, जिस्यो कुंन तिसी तीकरी ॥ पुत्र लोन ना एनां नाम, पिता सरीखा सत परिणाम ॥ एए ॥ पहेलोपुत्र रंग करम जी, बीजो कादव समगत नजी॥त्रीजो दीप मली सम कह्यो, चोथो हलइ रंग सम लह्यो । ६० ॥ षगजें तणा सुत आठ, जेवो तरुथर तेवो काठ ॥ क्रोध मान ए दो चार चार, अनंतानुबंधादिक धार ॥ ६१॥ अनंतानुबंधी जे क्रोध, मोहरायनो सबलो जोध ॥ जाव जीव साधे संग्राम, गिरिरेखा जिम नावे वाम ॥६॥ बीजो वरस लगें नवि मले, शररेखा व रसालें जले ॥त्रीजो रजरेखा सम होय, चोथो जलरेखा सम जोय ॥
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥ ६३ ॥ शैलन सम पेहेलो माणं, अस्थिर्थन सम बीजो जाण ॥त्रीजो काठ सरिखो धीत, चोथो नेत्रलता जिम ईव ॥ ६ ॥ मोहरायना ए पोत रा, सोले नीच जिस्या कूतरा ॥ समकित देशविरति चारित्र, वीतराग पद वीना सत्र ॥ ६५ ॥ फोजदार मोहरायनो, कोइ न कले जेनो मायनो ॥ मदनराय महोटो मूगल, जिणे जीत्या सुर नर नूपाल ॥६६॥ राखे पंच कुसुमनां बाण, कंपावे तिथणनां प्राण ॥ योध जुवान वडो जग जेठ, दानव देव करावे वेठ ॥ ६७ ॥ रति प्रिती धरणी दोइ तास, जे सा थें अविहड घरवास ॥ खटकतु सेवे जेना पाय, विधु वसंत सुरिजन सुख दाय ॥ ६ ॥ ब्रह्मा निज पुत्रीगुं रम्यो, इंऽ अहव्या चरणे नम्यो ॥ कृष्ण थया गोपीना दास, ए सवि मन्मथ तणा विलास ॥ ६ए ॥ त्रिनुवन नूप धरे त्रण रूप,पुरुष नपुंसक नारि अनूप ॥ त्रिहूं रूपें त्रण जगने दमे,ए व श लोक घणां मुख खमे ॥७॥ अरति हास्य जय शोक अगंड, रति बए सुनट मरोडे मूड ॥ इणिपरें कामतणो परिवार, करे रणांगण रिपुसंहार ॥ ॥७१॥ राग कुंवरनी सबल जगीश,विषयानिलाष वडो मंत्रीश ॥ पांचे इंडि य जास आधीन, सवि जग जीव कया जिणे दीन ॥ ७२ ॥ कृष्ण नील कापोती लेश, त्रए साहेली नवनव वेश ॥ संख्या रहित अगुन पारणाम, सबल शिपाइ करे संग्राम ॥ ७३ ॥ हास्यतणी नारी तुडता,नय जायों ही ण सत्त्वता ॥ नव आस्था के घरणी शोक, ए त्रिहुँ निर्लज कीघां लोक ॥ ७ ॥ हरख विषाद वडा जूकार, मोहरायना चामरधार ॥ वलि धनगर्व धरे शिर बत्र, मुखरनाव दे बीडीपत्र ॥ ७५ ॥ विकथा वात सुणा वे घणी, चारे चतुरा चिहुँदिशि तणी ॥ अविरति रांधण रांधे अन्न, निज्ञ पोलण करे जतन ॥ ७६ ॥ परनिंदा चमालिणी नार, सदा बुहारे नव दर बार ॥ खासां साते व्यसन खवास, मोहरायने सोहे पास ॥ ७७ ॥प्रौढा पापस्थान अढार, अटल उमराव वडा जूकार ॥ इणिपरें सुनट तणी बदु कोड, सेवे मोहनृपति कर जोड ॥ ७० ॥ इणिपरें अल्प कह्यो अधिकार, मोहनरेश्वरनो विस्तार ॥ हवे वर्णवं धर्मनरिंद, राज करे जग सुरतरु कंद ॥ ७॥ सात्त्विक मानस नामें नगर,अति सुवास जिम महके अगर ॥ ज्यां दानादिक गुणनो वास, ज्यां सहजें गुनमति अन्यास ॥ ७० ॥ गिरिविवे क सोहे तस पास, अति उत्तंग जिस्यो कैलास ॥ ज्यां चढतां लहियें निर
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनपमिति नवप्रंपचनुं स्तवन. १११ धार, जगत त्रण केरो विस्तार ॥ ७१ ॥ गिरिविवेक ऊपर अति सखर, अ प्रमत्तता नामें शिखर, नगर जैनपुर त्यां नल्हसे, सदा सुखी त्यां नविज न वसे ॥॥ तेह नयरमांहे क चित्त, समाधान मंझप सुपवित्त ॥ ते ह तले रहेतां संताप, सवि जाये प्रगटे सुख व्याप ॥७३॥ निःस्टहता नामें वेदिका, तिहां विराजे उख नेदिका ॥ ज्यां बेठा विषयादिक नोग, व स न करे न होये सुख सोग ॥ ४॥ जीव वीर्य त्यां शासन चंग, ज्यां उपजे समरंग अनंग ॥ जस अनुनावें चेतन कला, प्रगटे चिदुदिशि य ति निर्मला ॥ ७५ ॥ चारित्रधर्म तिहां माहाराज,राज्य करे अति सुंदर सा ज ॥ वदन अनोपम जेनां चार, दान शील तप नाव उदार ॥७६ ॥ण रूपें ए जग नहरे, सकल जीवने आनंद करे ॥ कतारे नवसायर पार,पो होंचाडे शिवनयर मकार ॥७॥ विरतिनाम जस नारि अनूप, पियुसरखं जस सकल स्वरूप ॥ मुक्तिपंथ देखाडे हसी,तेहने धन जस हैडे वसी ॥७॥ वडो कुंवर तेनो यतिधर्म, जे सेहजें यापे शिवशमें॥लघुनंदन श्रावक या चार, अंग तुंग सोहे जस बार ॥ नए ॥ सामायिक वहाव, परीहार सु विसुझ सहाव ॥ सुदुम संपराय अहरकाय, पंचरूप वड कुंवर राय ॥ए॥ अवर रूप वलि दश एहनां, नाम सुणो कहियें तेहनां ॥ खंती अऊव म हव मुत्ति, सत्य शौच तप संयम युत्ति ॥ ए१ ॥ ब्रह्मचर्यने अकिंचन्य, ए ह रूप सेवे ते धन्य ॥ रूप एकमांहे प्रतिरूप, तेह अनेक धरे वररूप ॥ ॥ ए२ ॥ रूप बार सुणियें तपतणां, सतर संयमनां सोहामणां ॥ इणिपरें कहेतां नावे पार ॥ चारित्रधर्म तणो विस्तार ॥ए३॥ तिम सन्नाव सरलता नार ॥ यतिधर्म घरणी मनुहार ॥ एक एक विना नवि रहे, स्त्रीनरतार स बल सुख लहे॥ ए॥ ॥ श्रावकधर्म तणी पतिव्रता, जे नारी सशुण रक्तता ॥ सम्यगदर्शन महेंतो धीर ॥ धर्मरायनो वडो वजीर ॥ए५॥ सप्ततत्त्व मंदिर मां रमे, शमसंवेग दया परिणमे ॥ गुन आस्था वलि नवनिर्वेद, इष्ट मित्र जसु टाले खेद ॥ ए६ ॥ मैत्री मुदिता करुणा सार, मध्यस्थता सहियर प रिवार ॥ सुदृष्टिनाम गुणरयणे जरी, महेंताने घर अंतेरी ॥ ए७ ॥ सारे सवि नविजननां काज, सदा संजाले नरपति राज ॥ देखाडे शिवमा रग जोग, तेहथी रहियें गुन संयोग ॥ए ॥ विमलबोध मंत्रीसर वीर, च तुर विचरण साहस धीर ॥ जाणे सकल लोकनी वात, पार नही
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जस मति अवदात ।। एए ॥ अतीत अनागत ने वर्तमान, मंत्री जाणे सवि विज्ञान ॥ काल सनाव सवि जाणे सोय, इस्यो चतुर नहिं बीजो कोय ॥१०॥ पांच रूप धरे ते वली, श्रुत मति अवधि मनस केवली॥पांचे रूपं प्रगट प्रताप, धर्म कर्म सवि दाखे आप ॥ ११॥ अधिगति नामें त स कामिनी, गुन परिणाम तणी सामिनी ॥ निज पियु तणी वधारे लाज, सारे धरमरायनां काज ॥ १०५ ॥ सेनापति साचो संतोष, जेह निवा रे सघला दोष ॥ इणिपरें धर्म रायनी फोज, करे नविक मनमांहे सोज ॥ १०३ ॥ कबहिक जोर करे मोहराय, धर्मरायनो टाले गय ॥ धर्मराय जब करे संग्राम, मोहतणो तव टाले ग्राम ॥ १०॥ ॥ इणिपरे दोय कट क करे जूझ, नविकलोक मन अहनिशि गूळ ॥ कोश्हारे को जीते कदा, ए रीते वर्ते वे सदा ॥ १०५ ॥ नत्कट कर्मी केरे चित्त, मोहराय व्यापी र ह्यो नित्त ॥ धर्मराय त्यांथी रह्यो दूर, जिम रजनी मुख नागे सूर ॥१६॥ दुए अनुकूल करम परिणाम, नवस्थिति केरो दुए विराम ॥ नियति काल जब मिले स्वनाव, नद्यम उपजावे सन्नाव ॥१०७॥ ए पांचे जन टोलें मली, आतम शक्ति करे निर्मली। तब चेतन मन चिंता थई. है है ए ग ति मुजशी नई ॥ १७ ॥ ढुं पुरुषोत्तम परम स्वरूप, नाथ निरंजन त्रिव न जप ॥ कीधो करमें हं सांकडो, मोह महा मुशमन वांकडो॥ १० ॥ राख्यो काल अनंत निगोद, कुगति नमाडी कीधो खोद ॥ रांक तणीपरें जग रोलव्यो ॥ जले धुतारे हूं जोलव्यो ॥ ११० ॥ समजी आव्यो सद गुरु पाय, पूज्यो शिवपुर तणो उपाय ॥ तब सदगुरु शिव मारग कह्यो, झान दर्शन चारित्र सह्यो ॥ १११ ॥ देखाड्या मोहादिक दोष, कर्ता क म मरमना पोष ॥ तेह तणी देखाडी रीत, लहे राज महोटा रिपु जीत ॥११॥ चारित्र धर्म कियो अनुकूल ॥ मोहतगुं नखेडयूं मूल, धर्म न रेशरनो परिवार ॥ रमे रंग जर हृदय मकार ॥११३॥ दोहा ॥ जब उश्मन दूरे गया, विरसा विषयकषाय ॥ राज लहे तब आपणुं, उत्तम आतम रा य॥११॥ संतोषी सुखियो रहे, सदा सुधारस लीन ॥ इंसादिक तसुं या गलें, दीसे कुःखिया दीन ॥ ११५॥ ते सुख नहिं सुररायने, ते नहिं रायां राय ॥ जे आतम सुख अनुनवे, सम संतोष पसाय ॥ ११६ ॥ परवशता पाली वली, गई दीनता दूर ।। आश पराई जब तजी, जीन जीले सुख
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनपमिति नवप्रंपचनुं स्तवन. पूर ॥ ११७ ॥ पूरीने ऊंखर थया, मुख मूके निःश्वास ॥ कामी कामिनी पग पडे, प्राश करे श्म दास ॥११७॥ अग्नि आपथी ऊपजे,तृमा आप जलाय ॥ आ थाप विचारतां, आपहि आप बुझाय ॥ ११॥ आशा बंधन बांधियो, जग सघलो मूंकाय ॥ रहे उदास जे आश तजि, जीव न्मुक्त कहाय ॥१२० ॥ श्राश करो अरिहंतनी,जग थई रहो उदास ॥ वि नय अनोपम एह सुख, अनुनय लीलविलास ॥ ११ ॥ शी पारागो टको, तापें फाटी जाय ॥ तिम याशा मन मानवी, न लहे मुक्ति उपाय ॥१२॥जेह निराशी गोटको, ते होय सहज अनंग ॥ तरुथानो मल अप हरी, रूपूं करे सुरंग ॥ १२३ ॥ तेम निराशी मन हरे, सवि आतम सं ताप ॥ बातम परमातम हुए, विनय विचारो आप ॥ १२ ॥ विनय वि चारी आदरो, समता शिवपुर वाट ॥आरति नावे आशनी, उपजे नहीं नच्चाट ॥ १२५॥ विरुई याशा विषयनी, खेडो विष वेल ॥ रोपो सम ता सुरलता, विनय रमो रस खेल ॥ १२६ ॥ काट न लागे कनकने, जि म रहेतां रज पास ॥ तिम कर्मै नवि नेदियें,तम राम उदास ॥१२॥ श्म उदास रस चाखतां ॥ शिथिल होय नव बंध ॥ शुकल ध्यान तब क पजे, पावन परम सुगंध ॥ १२ ॥ शुकलध्यान जब थिर करी, चंचल मन कलोल ॥ केवल झान तरंगमां, आतम करे ऊकोल ॥ १२ए ॥ कर्म घनघाति दय गयां, तब प्रगटी निज ज्योत ॥ तिम वादल विघटी गया, न दयो रवि उद्योत ॥१३०॥ माखणथी जब जल बल्यूं, तब प्रगटयूं घृत रूप ॥ तिम घनघाती मल बले,प्रगटे ज्ञान अनूप ॥१३१॥ मन वच काया थिर करी,परम शुकल धरि ध्यान ॥ चारे कर्म दही लहे,परमानंद निधान॥१३॥ सिम सदा सुख अनुनवे, अनुपम काल अनंत ॥ अजरामर अविचल रहे, प्रणमूं ते नगवंत॥१३३॥धरमनाथ आराधतां,ए सवि सीके काज ॥अंत रंग रिपु जीतियें, लहियें अविचल राज ॥१३॥ धर्मनाथ अवधारियें,सेव कनी अरदास ॥ दया करीने दीजीयें,मुक्ति महोदयवास ।।१३५॥ वास न यो जो मुक्तिनो,तो द्यो सहज उदास ।। तेह लही अमें साधशू,सहेजें शिव अन्यास ॥१३६॥ सत्तरशें सोलोत्तरे,सुरत रही चोमास ॥ स्तवन रच्यूं में अ ल्पमति, आतम ज्ञान प्रकाश ॥१३॥ श्रीविजयदेव सूरि पटें, श्रीविजय प्रन सूरि ॥श्रीकीर्तिविय वाचक तणो, विनय विनय रसपूरि ॥१३७ ॥ इति ॥
१५
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.१४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥ श्री चरमजिनेश्वराय नमः ॥
अथ
॥ बालावबोधसहिता श्री सम्यक्त्वसित्तरी प्रारंभः ॥
तत्र प्रथम
॥ बालावबोध कर्त्तानुं मंगलाचरण ॥
॥ अनुष्टुब्वृत्तम् ॥
"
"
॥ नत्वा श्रीपार्श्वमतं स्मृत्वा च श्रुतदेवताम् ॥ श्रीमत्सम्यक्त्वसप्त त्याः कुर्वे बालावबोधनम् ॥ १ ॥ श्रर्थः - त्रेवीशमा तीर्थंकर श्रीपार्श्व नाथ अरिहंतने नमस्कार करीने तथा श्रुतदेवतानुं स्मरण करीने श्रीमत्स म्यक्त्व सप्ततिका ग्रंथना बालावबोधने हुं करूं बुं ॥ १ ॥ मूल गाथा ॥ दं सण सुद्धि पयासं, तिबयरमपविमं नमसिना ॥ दंसणसुद्धि सरूवं, कित्ते मि सुसारेण ॥ १ ॥ अर्थः- दर्शन जे सम्यक्त्व, तेनी शुद्धि जे निर्मल पणुं, तेथी जेने केवलज्ञानरूप प्रकाश एटले जवालुं ययुं बे, एवा अप श्चिम एटले बेल्ला चोवीशमा तीर्थकर जे श्रीमहावीरस्वामी तेमने नमस्कार करीने दर्शनशुद्धि जे सम्यक्त्वशुद्धि तेनुं स्वरूप जे लक्षण तेने श्रुतानुसारें एटले यागमने अनुसारें हुं कहुं बुं. अर्थात् हुं मारी मतिथीज कहेतो नथी, किंतु श्रागमनो नाव लड़ने हुं कहुं बुं. ए खनिप्रायणी ग्रंथकर्त्तायें पो ताने ग्रंथकर्त्तापानुं निमान नथी. एवं सूचन करूं बे
I
हवे सम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे बे:
"
॥ दंसणमिह सम्मत्तं तं पुरा तत्तव सद्दहरूवं ॥ खइये खवसमियं, तहो वस मियं च नावं ॥ १ ॥ अर्थः - इह एटले या शास्त्रने विषे अथवा जि नशासनने विषे दर्शन जे बे, तेने सम्यक्त्व कहियें तं पुरा एटले ते वली ततसदहरूवं एटले ते तत्त्वार्थश्रद्धानरूप बे. एटले या पढ़ें करी अन्य तीर्थीना दर्शनने सम्यक्त्व न कहियें. एम ग्रंथकारें जलाव्युं, केम के ते अन्य तीर्थमां तत्त्वार्थ श्रद्धान नथी.
हवे ते सम्यक्त्वना घणा प्रकार बे, तेमां पण मुख्य त्रण प्रकार बे, ते कहे ः- एक दायिक, बीजुं क्षायोपशमिक, तथा त्रीजुं खौपशमिक, एम ( मायत्रं के० ) जाणं ॥ २ ॥
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
१२५ आ गाथामा पहेलुं दायिकसम्यक्त्व कह्यं . परंतु पहेलुं जीव, औ पशमिक सम्यक्त्व पामे . ए औपशमिकसम्यक्त्वना बे प्रकार :-तेमां एक नैसर्गिक तथा बीजुं आधिगमिक. तिहां जे गुरुना उपदेश प्रमुखनी अपेदा विना जातिस्मरण झानने बलें पूर्वनवना स्मरणादिकें करी प्राप्त थाय , तेने नैःसर्गिक औपशमिकसम्यक्त्व कहियें; अने जे गुरुना उप देशे करी प्राप्त थाय तेने आगमिक औपश मिकसम्यक्त्व कहियें.
ए औपशमिकसम्यक्त्वनी उत्पत्ति आवी रीतें थाय ः-कोई जीव चारे गतिमांनी कोई पण गतिमां फरतो बतो अकामनिर्जरायें करी यथाप्रवृत्ति करणें करी झानावरणादि सात कर्मनी एक कोडाकोडी सागरोपमनी मांहे स्थिति करे;जेम नदीनी पासेंना अथवा नदीमां आवेला पर्वतना पापाण एक बीजा साथें घसातां घसातां सहजेंज गोलाकार बनी जाय , तेम ते पण जाणवू. ते समय ग्रंथिनेदी अंतरकरण करतोज औपशमिकसम्यक्त्वनु उपा जन करे, तेवारें अईपुजलपरावर्तनीमांहे शेष संसार करे॥ यमुक्तं ॥ “अं तो मुदुत्तमित्तं, पिफासिथं जेहिं दुऊ सम्मत्तं ॥ तेसिं अवढपुग्गल, परिय हो चेव संसारो” एम ए औपशमिकसम्यक्त्वनो काल अंतर्मुहूर्त्तनो होय ॥
हवे दायोपश मिकसम्यक्त्वनुं स्वरूप कहे जेः-के जे जीव, अंतरकरण करे नहिं, ते यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण, एत्रण करणे करी मिणाला कोश्वना दृष्टांतें मिथ्यात्वदलिकना त्रण पुंज करे. तेमां एक शुद्ध पुंज, बीजो मिश्रपुंज अने त्रीजो अशुभपुंज; तिहां जेम मीणा ला कोवाने धो करी उपरथी मीण कृतारी चोखा करीने एक ढगलो करिये, तेम जे मिथ्यात्वना पुजलने चोखा करी ढगलो करे, ते शुद्ध पुंज कहिये; तथा वली कांक धोया कांक अणधोया रहे, तेवा पुजलने मिश्र पुंज कहियें, अने जे सर्वथा अणधोयाज होय, तेने अशुभ पुंज कहियें.ए कोवाना दृष्टांतें मिथ्यात्वना दलिक पण जाणी लेवां. ते त्रण पुंज माहे ला शुरू पुंजनो वेदनार जीव, दायिकोपशमिकसम्यक्त्व पामे.
॥ हवे दायिकसम्यक्त्वनुं स्वरूप कहीयें बैयें:-जे जीव, अनंतानुबंधीया क्रोध, मान, माया, लोन तथा मिथ्यामोहनीय, मिश्रमोहनीय अने दर्शन मोहनीय, ए सात प्रकृतिनो क्ष्य करे, ते जीवने दायिकसम्यक्त्व प्राप्त था य. दायिकसम्यक्त्व पाम्या पनी तेज नवमां, अथवा बीजा नवमांश
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. थवा त्रीजा नवमां अथवा चोथा नवमां ते जीव, मोदें जाय . पांचमो जव सर्वथा थायज नहीं ॥ यउक्तं पंचसंग्रहे ॥ " तश्य चग्ने तमिल, नवंमि सिनति दसणे खीणे ॥ जे देव निरयसंखा, न चरमदेहेसुते हंति" ए दायिकसम्यक्त्व अपौलिक होय जे अने औपश मिकसम्यक्त्व तथा का योपशमिकसम्यक्त्व ए पौलिक होय . केम के, ए बन्ने सम्यक्त मिथ्यात्व पुजल चोखा कस्याथी उत्पन्न थाय , माटें पोजलिक कह्या बे. वली का यिकसम्यक्त्व मुक्तिने विषे सिपना जीवोमां पण पामीयें. ए संदेपथी बी जी गाथानो अर्थ कह्यो ॥ ५ ॥
॥ हवे एसम्यक्त्वनेविषे अन्यतर सम्यक्त्व कहेवा गुण संयुक्त नव्यप्राणी पामे, ते कहे जेः-अवउनियं मिहत्तो, जिणचेश्य सादुपूयणुजुत्तो ॥ आया रम मेयं, जो पालश तस्स सम्मत्तं ॥ ३ ॥ अर्थः-जेणे मिथ्यात्व बां मथु , एवो नव्य जीव सम्यक्त्वने पामे, ते मिथ्यात्वना पांच प्रकार :एक आनियहिक, बीजो अननियहिक, त्रीजो आनिनिवेशिक, चोथो सां शयिक, अने पांचमो अनाजोगिक. ए पांच प्रकारना मिथ्यात्वनो सर्वथा त्या ग करे. तेवारें जीवने शु६ देव, गुरु गुरु तथा शुभ धर्मनी सहहणारूप सम्यक्त्वनी प्राप्ति थाय.
तेमां गुम देव, ते जिन वीतराग जे अढार दोष रहित ले. अने चैत्य ते देव, गृहप्रतिमा स्थापना जिन जाणवा. तथा शुद्ध गुरु ते सुसाधु सु विहित शुद्ध प्ररूपक, दश विध यतिधर्म संयुक्त होय ते साधु जाणवा. ते उनी पूजाने विषे जे उद्युक्त उजमाल तत्पर होय तथा निःशंकितादिक था न प्रकारना आचारने पाले, तेने सम्यक्त्व होय ॥३॥
हवे ते सम्यक्त्व गुञ्जिनेविषे दृष्टांतगत आरामनंदननी कथा कहे :आ जंबुद्दीपने विषे अईचंशकार जरत क्षेत्र बे. तेमां लक्ष्मीपुर नामर्नु न गर बे, ते एवं तो सुशोनित ले के, जाणे लक्ष्मीनु रमण करवाज स्थान होय नहिं ! तेमां विक्रम एवे नामें राजा राज्य करतो हतो. एना चार नाश्यो हता. तेउनां नामः-विमलबुद्धि, बुद्धिसागर, सुबुदि, तथा विशाल बुदि. ए चारे, पोताना नाम जेवाज परिणाम वाला हता. तेमांना वि शालबुधिने पद्मश्री नामनी स्त्री हती. तेमां पण पोताना नामना जेवाज परिणाम हता. कोइ कालें तेना जेहोनी स्वीना उदरथी पुत्र पुत्रीयोनो
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. जन्म थयो. तेना निशाल घरेणां, तथा पाणिग्रहण प्रमुख महोत्सव जो श्ने मनमा अत्यंत दुःखने पामी. अने घरनी वाडीमां जश्ने रोती थकी कहेवा लागी के हा दैव !!! मारी जेगणीयोने पुत्र तथा पुत्रीयो ने तेना पाणिग्रहण वगेरेना महोत्सव थाय बे. अने हुँ अधन्य तथा अनागिणी बं के जेथी मने एक पुत्र के पुत्री कांड पण नथी,एवा खेदने पामवा ला गी. एम तेने रोती जोइने एक वांदरी पासें यावीने कहेवा लागी के, हे सखि ! तुने एवडं गुं कुःख थयुं ले के जेथी तुंरडे जे ? ते मने कहे. हुं तारूं पुःख मटाडं ॥ यतः ॥ कुरकं तासु कहिऊर, जो हो। उरक फेडण सम बो ॥ जो नवि उहिए उहि, तासी किस कहिजए उरकं ॥ त्यारें पद्मश्री बोली के मारी बधी जेठाणीने बेटा बेटीले. तेन्ना जन्मादिकना महो त्सवो थाय बे. अने मारे पुत्री पुत्रादिक कांश नथी तेथी ढुं रडुं . ए दुःख जो ताराथी टली शके तो टाल. एवं सांजली ते वानरी तरत वनमा जा ने एक औषधि लावी. ते तेने आपीने कहेवा लागी के हे सखि ! ऋतु स्नानने दिवसें ए औषधिने पाणीमां घसीने पीजे. तो तेज रात्रं तने पुत्र गर्न थशे. एवां तेनां वचन सांजलीने ते संतोष पामी अने वानरीने कहे वा लागी के जो मने गर्न थशे. तो तने आ लाख टकानो हार थापीश! पण तुं वांदरी बतां माणसनी नाषा केम बोले ? तेवारें वांदरी बोली के, मारी पासें विद्या , तेने योगें मनुष्य नाषा पण जाणुं बुं अने वां दरी नाषा पण जाणुं . एम कहीने ते वांदरी जती रही. __पडी पद्मश्री ऋतु स्नान करी ते औषधि निर्मल पाणीथी घसीने तेनुं पाणी पीएं. तेज रात्रिनेविषे तेने पुत्र गर्न रह्यो. अनुक्रमें गर्ननी वृक्ष थतां दिन पूर्ण थएथी वानरनी कतिवाला पुत्रनो जन्म थयो. एवं एक परिचारिकाना मुखथी सांजलीने ते घणुं कुःखने पामी. ने विचारवा लागी के अरे!!! वानर पुत्र थएलो शे अर्थ आवशे ! एथी तो उलटी लो कोमा हांसी थशे. एवो विचार करीने पोतानी दासीना हाथे घरनी पासेना बाराममां तेने मूकावी दीधो. तेने पेली वानरी आवीने लइ गई अने पो ताना स्थानमां जा पोताना पतिने कहेवा लागी के ढुं गूढगर्ना हती तेथी मारो गर्न कोइने जणायो नही. हाल मास पूरा थयेथी में पुत्र प्रस व्यो के. एम पोताना पति यूथाधिप वानरने समजाव्यो. पडी ते वांदर कु
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
११७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. मार स्तनपानविना कुःखी थवा लाग्यो. तेने जोस्ने वांदरी पोतानी एक सखीने कहेवा लागी. के मारा स्तनोमां दूध यावतुं नथी. माटें तुं आ बालकने धवराव. एवं तेनुं बोल मानीने ते बीजी वांदरीयें धवराववा मांमयो, तेथी ते पुष्ट थयों. पली कोश्क समयने विषे फरी ते पद्मश्री पूर्वो क्त बागमां जश्ने करुणस्वरें रोवा लागी. - अहो नवि जीवो,ए दाखला उपरथी संसारना जीवोने केहेवांपुःख ,ते तमारा ध्यानमां आव्यां हशे ! संसारी जीव फुःखीज होय . अने जे सं सारसंबंधी सुख दीनामांबावे ते पण कुःखने सुख मानेखं . जुवो के,गर्न धारण करवो, ते प्रत्यद स्त्रीने सुःख दायक डे केम के, गर्नवती स्त्रीने सु खें कंघ आवती नथी, पेट जरी खवातुं नथी. पोतानी श्वाप्रमाणे चा ली शकातुं नथी, अने वधारे मनने चेन पडतुं नथी वगैरे फुःख थाय . तेने सुख मानीने ते स्त्री मनमां फूलाय , अने ज्यारें गर्न धारण करे लो नथी होतो, त्यारें कंघ सारी रीतें आवे , पेट जरी खवाय डे, पोता नीबा प्रमाणे गमे त्यां जवाइ अवाशकाय ले तथा मनमां चेन रहे बे, एवं सुख बतां तेने फुःख मानीने चिंता करयां करे के मने गर्न रहे तो सारूं ! एव। रीतें रखने सुख मानी लेवु ए संसारनुं स्वरूप जे. एनो विचार चतुर नरोयें सारी रीतें करी लेवो जोश्ये. हवे ते वांदरीयें पद्मश्रीने रोती सांजली तेथी तेनी पासें आवीने कहेवा लागी के बाई! मारी वात सांजल.हूं वांजणीहती.अने संतान नहीं होवाना दुःखथी महा पीडा पामती हती. तेथी गमे तेम करीने मने संताननी प्राप्ति थाय तो वांजी यार्नु मेणुं टले, एवो विचार करतां अचानक ते दिवस में तने एज कार पसर रोती जो ते संधियें मारुं कार्य साधी लेवानी बाथी तने में एवी औषधि आपके जेथी वानर पुत्रनोज जन्म थाय. तेम थयाथी मारी बा में पूर्ण करी लीधी बे. हवे बीजी औषधि हुँ तने आपुं ते पूर्वनी पढ़ें घसीने पान करजे, जेथी तुने मनुष्य पुत्र थशे. एमां संशय आणवो न ही. ए बोलवा उपर पद्मश्री विश्वास करीने ऋतुस्नानने दिवसें तेम की धुं. तेथी गर्न रह्यो ने मास पूरा थयेथी तेने गुन दिवस शुन वार तथा शुन मुहूर्त्तना समयें एक पुत्रनो जन्म थयो. त्यारें विशालबुधिय महोटो महोत्सव कस्यो. पुत्र जन्मथी आखा कुटुंबने आनंद थयो. ते पुत्रनुं नाम
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
११
रामनंदन एवं राख्युं तेना पालन पोषणने खर्थे सारी सारी धाव राखी, तेथी जेम नंदनवनमां कल्पवृक्ष वृद्धिने पामे, तेम तेपुत्र करवा लाग्यो. एम अनुक्रमें या वर्षनो थयो, त्यारें नीशाले नलवानेमाटे मोकल्यो. केम के, पुत्रनी लालना पांच वर्ष सुधीज करवी, त्यार पढी ते ताडना करवा लायक थाय बे, माटे जालना करवी नहीं. तेम करणाथी ते बगडी जाय बे ने खराब ठेववालो थाय बे, तेथी ताडनाज करवी जोइयें बै यें. तेम शोल वर्ष सुधी करियें पढी पुत्रने मित्र जेवो गलियें. कयुं बे के, "लालयेत् पंचवर्षाणि दर्शवर्षाणि ताडयेत् ॥ प्राप्ते तु षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रवस्तमाचरेत् " ॥
पी रामनंदन, निशालमां जणीने बहोंतेर कलानो पारंगामी थयो. एम करतां ते यौवन अवस्थाने पाम्यो. त्यारें मातापितायें महोटा उत्सवथी एक पद्मावती नामनी राजकन्यानी सार्थे तेनुं लग्न कस्युं पढी जेम धरणें
पद्मावती खानंदथी रमण करे, तेम ते बेदु सुखविलासमा रमवा लाग्या तेथी काल यतीत थवानी पण तेनें खबर पडती नथी. केम के, सुखना दिवस गयेला जगाता नथी. यडुक्तं - " तहिं देवा वंतरिया, वर तरुणी गी यवाय वेणं ॥ निच्च सुहिया पमुश्या, गयंपि कालं न जाणंति.” कोई ए क समयने विषे ग्रीष्म ऋतु यावी, त्यारें एवो तो ताप पडवा लाग्यो के, तेथी लोकने महा संताप उत्पन्न थयो. तेथी खारामनंदन ने पद्मावती ए ने सायें नर्मदादी मां जलक्रीडा करवा गयां. त्यां क्रीडा करतां पद्मा वतीयें नदीमां तरती एक फूलनी कंचुक दीवी. त्यारें यारामनंदनने क
वालागी के हे प्राणप्रिय ! पेली, फूलनी कंचुकी तरती जाय बे, ते मने आणी आपो ए पहेरवानी मने होंश यई बे ? ते पूरी करो. रामनंद न बोल्यो के, गाध जलमां हुं केम जई शकुं ? अने ते कंचुक तने केम लावी खाएं ? एवो हह तुने करवो जो तो नथी माटे ए वातने तुं मूकी दे, तेवारें पद्मावती बोली के, जो ए कंचुक मने मजे तोज हुं जीवुं, न्यथा हुं मरण शरण थाइश ! कह्युं बे के " बालानामबलानां च नृपा यां च विशेषतः ॥ तथा च पापसक्तानां, दुर्निवार्यः कदाग्रहः " एटने बा लक, अबला, राजा ने पापासक्त मनुष्यनो कदाग्रह दुःखें करी पण निवारण थाय नहीं. जुवो के, सीताना कदाग्रहथी राम सुवर्णना मृग
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. पाउल दोड्यो, तेम पद्मावतीना कदायहथी धारामनंदन पद्मावतीने त्यांज मकीने एक नावडीना हाथे प्रवहण सऊ करावी तेने साथें लई तेणें अगाध जलमा प्रवेश करो. कंचुक आगल तरतुं जाय अने तेनी पाबल नाविका चाली जाय. एम करतां रात्रि पडवा मांझी पण पेलं कंचुक हाथमांाव्यु नहीं. एटलामा जेम कोई माणस पाणीमांतरतां थाकी गयाथी विशामो लेवाने एक तेकाणे स्थिर थई रहे, तेम ते कंचुक थंनी रघु, त्यारे आराम नंदने ते उचकी लेवाने हाथ घाव्यो एटले ते कंचुक जेना माथामां ने, एवी एक दिव्य स्वरूप हार कुंमलादि आजूषणें मंमित एवी एक स्त्रीपेदा थई. तेने जोईने ते. कुमार विस्मय पाम्यो. अने पेला ना विकने तथा नावडीने एक कोरें मूकी दर्शने कौतुक जोवाने अर्थे पेली स्त्रीनी पाउल लाग्यो. कह्यु ने के,:- “विद्यार्थी च धनार्थीच, स्त्रीयार्थी चैव विशेषतः ॥ अलसा न नवंत्येते, तथैवं कौतुकप्रियाः ” नावार्थः-विद्यार्थी, धनार्थी, तथा स्त्रीयार्थी एत्रणे ने आलस थतुं नथी, केम के,तेने ते नद्योगकौतुकनी जेवो लागे जे.
पली ते स्त्री ते नदीमाथी निकलीने, ते नदीने किनारे एक कालिका देवीनें देहेरं हतुं तेमां जइ, श्रीकालिकानी प्रतिमा हती तेने पेलं पुष्पy कंचुक पहेरावीने कहेवा लागी के हे स्वामिनि ! तुं घणा कल्याणनी करना री थजे. एवी प्रार्थना करी, बाहेर नीकलीने अदृष्ट थइ गई. आरामनंदन ते देवीने निर्माल्य थयेलु कंचुक लइ हर्षने पामीने नदीने किनारे बायो. त्यां जुए ले तो नाविक तथा नावडी ए बेमांनुं एके देखायुं नही. त्यारे तेनुं नाम ल महोटे सादें दाको मारतो थको त्यां नटकवा लाग्यो. ना विक गुम थ गयो जाणीने नयने पामवा लाग्यो. तेथी एक पाणीनी प रव दती, तेमां जश्ने सूतो. कयुं के “अतिनुक्तवतां पुंसां, चिंतार हितचेतसां ॥ अति प्रवासश्रांतानां, निाहि सुलना मता" नावार्थ:जेणें अति नोजन कयुं होय, जेनुं चिंतारहित चित्त होय, अने जे अति थाकेलो होय तेने सहज निज्ञ यावी जाय जे. पड़ी ते परबनी ऊपर फ रता फरता केटलाएक चोरो यावी चड्या. त्यां पेला पुष्पना कंचुकनो सु वास फेली रह्यो हतो तेथी ते चोरोयें विचायु. के अाही कोइ जोगी पुरुष होवो जोश्ये, एवं अनुमान करीने ते परबमां पेना. त्यां बारामनंदनने 'लूटी लेवाना निमित्तें तेनो जाडो लीधो, पण पेला पुष्पना कंचुक विना
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१२१ बीजुं कांई तेनी पासेंथी मल्युं नही. तेथी तेज कंचुक लइने पेला चोरो वा हेर नीकली चालता थया. कुमर प्रति थाकेलो होवाथी सूतो तेवोज घोर निशने वश यई जवाने लीधे रातनी चोरोनी हकीगतविषे तेने कांइ पण खबर पड़ी नही. सवारनो की जुवे ने तो ते कंचुक देखायुं नहीं, तेथी ते प्रति खेद ने पाम्यो. ने विचारवा लाग्यो के हुं कंचुकविना पद्मावतीने मुख केम देखाडी शकीश ! एवी चिंतवना करतो शून्य चित्तें जमवा लाग्यो. नम तां मतां एक लक्ष्मीना निवास जेवा पाटण नामना नगरनी पासें या वी होतो. तेनी मांहिलीकोरें चाल्यो, नगरना चट्टामां श्रावी जुवे ले तो एक शिखरबंध प्रासाद दीवामां आव्युं तेमां जिनप्रतिमा जाली, शुद्धसम्यक्त्वधारी बे माटे हर्षने पाम्यो अने प्राकस्मिक महान लान थयो. एम जाणीने देव जुहारवाने प्रवेश कस्यो. मांहे जइने चैत्यवंदन कीधुं. ते समयें एक सागर नामना श्रेष्ठीयें तेने दीठो अने परदेशी जाणीने तेने पोतानी पासें बोलाव्यो. तेनां वचन तथा सौभाग्य जोइने अति खुशी थयो. तेथी याग्रह करीने घेर तेडी गयो ने स्नान वगेरे करावी सारी सामग्री सहित जोजन कराव्यं. पढी सागर श्रेष्ठीना श्राग्रहयी जेम पिताने घेर पुत्र रहे, ते त्यां ते रह्यो केटला एक दहाडा रह्या पढी वर्षाकाल या व्यो. सारी पढें वर्षा थइ. समस्त पृथ्वीरूपिणी स्त्रीयें नीलां तृणोरूपी नीलां कंचुक पां. सर्व नदी नवाण प्रमुख पाणीथी जरायां.
ca को एक समय विषे लक्ष्मीधर राजानो मुख्य हस्ती पाणी पी नेपाढो वक्यो, त्यारे एक स्थलने विषे कादवमां खूची गयो तेने को ई कहाड़ी शके नही. कहाडवाना घणा उपायो कस्या, पण ते बधा निष्फ ल थया. ते जोइने राजा कहेवा लाग्यो के, या हाथीने जे कोई पुरुष कादवांथी कहाढे, तेने वांवित दान खाएं. एवो शहरमां पटह पीटा व्यो. ते पटहनो शब्द सांजली ते वातनो आरामनंदनें अंगीकार कस्यो. त्यारे तेनें राजाना नफरो राजानी पासें तेडी गया. घने तेनुं रूप देखीने राजा खुशी थयो. पठी ते कुमार राजाने कहेवा लाग्यो के, तमारा मंत्री प्रमुखजो मने साहाय्य यापे, तो हुं कादवमांथी हाथीने कहाडुं. ते सां
लीने राजायें मंत्रीयोने साथै मोकल्या. तेमनी सार्थे ते हाथीनी समीप गयो ने मंत्रीयोने कयुं के सो हाथसुधी या भूमिकाने इष्टिका ( ईंट )
१६
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. थी बंधावो. मंत्री तत्काल टिका मंगावी अने ते नूमिका बंधावी. त्या रें कुमारें हाथीने खावाने शेरडी मंगावीने हाथीनी पासें नाखतांज तेणे ते यथेष्ट खाधी. तेथी हाथीना अंगमा बल प्राव्यु. पनी ते तलावमाथी नीक करावीने जे ठेकाणे हाथी खूची गयो हतोते तेकाएं पाणीथी नरावी नारव्यु. अने एक हाथणीने त्यां मंगावीने हाथीनी पासें कनी करी. तेने जोई हाथी पोताना गुंढादंम वडे तेनी योनिनो स्पर्श करतो तो महाका मातुर थयो. त्यारें बारामनंदने मावतने कयुं के, या हाथणीने हवे ह लवे हलवे दूर खसेडो. त्यारें मावतें पेली हाथणीने त्यां खसेडी कांइक दूर करी. तेनी पाउल हाथी पण बल करीने ते कादवमाथी नीकलवा लाग्यो. एम कमें करी ते हाथी आखो नीकलीने हाथणीनी पाउल दो डवा लाग्यो. दोडतो दोडतो गजशालामा ज्यां हाथणी यावी ले तेनी प्रवें ते हाथी पण आव्यो. तेने हाथीना सेवकें बालानस्तंनने वि पे बांध्यो. आखा नगरमां जय जयकार थयो. राजा कुमारनी बुद्धि दे खीने खुशी थयो. पनी तेने पोतानी पासें तेडीने स्वादिष्ठ नोजन करा व्यु, अने कह्यु के वर माग. ते सांजलीने कतझोनेविषे शिरोमणि जे आ रामनंदन ते कहेवा लाग्यो के, महारी तरफथी सागर श्रेष्ठीने तेडावी ने नगर शेनी पदवी थापी महत्त्वपणुं यापो. राजायें सागर श्रेष्ठीने तेडावीने तेने श्रेष्ठिपद प्राप्युं. श्रारखा नगरमा मुख्य कीधो तेथी सागर श्रेष्ठी आनंदने पाम्यो. खुशी थयो थको पोतानी पुत्री कुमरने देवा ला ग्यो कुमरें कह्यु के, मारे एक स्त्री पद्मावती . तेम बतां बीजीने हुँ गुं करूं! तेमां वली में तमने पिता करी मान्या , तेथी तमारी पुत्री ते मा री बहेन थइ, तेनी साथै ढुं पाणिग्रहण केम करूं ? ।
एवी रीतें आरामनंदन सागर श्रेष्ठीने घेर रहेतां थकां केटलोएक का ल वीती गया पनी एक दिवसें ते सागर श्रेष्ठीने कहेवा लाग्यो के, मारे अन्य देशमा व्यापारने अर्थ जवानी मरजी थाय , माटें इव्य आपो तो माल लई वहाणोमां नरीने मारी बा ढुंपूर्ण करूं! व्यापारमांजे लान थशे, ते दुं तमने आपीश. मारे तेमांथी कांई पण राखवू नथी. हूं तो मात्र देशाटन करीने कौतुक जोईश. एवं तेनुं बोलवू सांजली अने तेने नाग्य शाली जागीने ते वात कबूल करी, पडी कुमारे वहाणोमां चोखा नख्या,
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. था दूजणी मेंपो चढावी. साकर, सोपारी तथा नागरवेल प्रमुख केट लाएक नोग्य पदार्थो नया. मुशल, ऊखल, घरंट, प्रमुख उपयोगी पदा र्थो साथें लीधा. रांधवासारु गमडां, सारां सारां वस्त्रो तथा शस्त्रो पण साथें लीधां. एक अर्का स्त्री साथें रसोई करवाने लीधी. एवी बधी सामग्री एकज वहाणमां नरी ते वहाण एटयूँ तो महोटुं हतुं के तेनी कप सात तो सढ चडता हता,ते वहाणनामालेकने मन मानतुं नाणुं यापीने जाडे बांधीलीधुं. पनी गुन दिवस, गुन वार तथा गुन लग्न प्रमुख जो ने ते कुमार प्रवहणनी ऊपर चढयो. कर्वा डे के, “न निमित्तं हिषां दे मो, नायुर्वैद्यकविहिषाम् ।। गुरुहिषां नहि ज्ञानं, न मुक्तिर्दैवविहिषां" नावा र्थः-ज्योतिषना क्षेष करनाराने देम न होय, वैद्यकना देष करनारने आ यु न होय, गुरुना देष करनारने ज्ञान न होय, अने देवनो क्षेष करनार ने मुक्ति न होय. पडी शुभ मुहूर्ते वहाण दरियामां हंकारी दी. देवयो में पवन सारो लाग्यो तेथी सारी रीतें पंथनुं ननंघन थवा मांमयु. वहाण मां सर्व नोग्यपदार्थो होवाथी घरनी पवेंज निशान, शरणाई प्रमुख वा य वागी रह्यांचे, गणिका नाची रही , तेनी साथें मधुर गायन थ रह्यु जे, अने नाना प्रकारे समुश्ना मोजानी गर्जना थई रही , तेथी अति थानंद थइरह्यो . एम करतां कोइक कालें ते वहाण एक हीपमा जई प होतुं. रस्तामां मीता पाणीनी कांक ताण थइ जवाथी त्यां जमीन ऊपर
तरीने लोको पाणी जरवा लाग्यां. पण बारामनंदने तेम न करतां पो तानुं वहाण त्यांज राखवानो निश्चय कस्यो. त्यारे बीजा सार्थेनां वहाणो वाला तेने कहेवा लाग्या के, आगल कोण जाणे क्यां पाणी मल माटे यांही पाणी जरी लश्ने अमारा वहाणोनी साथै वहाणने हकारो, तो सालं. अहीं अमस्तो काल गमाववो ते सारं नथी. ते सांजलीने ते कुमा र कहेवा लाग्यो के, मारे तो आहींज रहे, जे, तमारे जq होय तो सुखें थी जाउ. त्यारे ते बोल्या के, झुं तमारे अहीं समाधि करवी ? कुमार की के मारा शरीरनीप्रकृति सारी नथी तेथी ढुं थोडोएक काल आहींज कहाडीश. पड़ी ज्यारें तबीयत सुधरशे, त्यारें आवीश; अथवा तमें ज्यारें पाबा फरशो, त्यारें दुं तमारी साथें चालीश. एवी रीतें सघलाने समजावी ने विदाय कस्या. ते वहाणो हकारीने चालता थया.
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कुमारें पोतानुं वहाण त्यांज राख्युं. पड़ी पोताना माणसो पासेंथी चावल प्रमुख जे वस्तु साथें लीधेली हती, ते नीचें किनाराकपर उत रावी. चोखा सारी रीतें साफ कराव्या. जेंषो दोवरावीने दूध कढाव्युं. अने तेने जमावीने दही कीधुं. तेना करंबा कीधा. ते ज्यारे समुनी रेल आववानो समय थाय, त्यारें पोताना दासोनी मारफतें केटलीएक बाणा नी करेली गरम राख त्यां दिये, तेनी वासथी त्यांना मत्स्य त्यां प्रावे, अने पोताना देहनी खरज टालवाने अर्थ आलोटवा लागे, ते समय ते कर्पूरवासित करंब नारखी दिये, तेने खावानेमाटे रसनाना स्वादी जलना जीवो संख्याब. त्यां आवे. एम करतां केटलाएक दिवसो वीती गया. दररोजना सहवासथी ते जलचरो निर्नय थ गया. अने जेम कमलना गंध ऊपर चमरो यावी मले, तेम ते जलजंतु विश्वास राखीने यावी एकता थाय, अने ते करंबा खावा लाग्या. ते जंतु वास्ते आस्ते मनुष्योनो एवो विश्वास करवा लाग्या के, कोश्नो नय न राखतां नियम समयें आवीने पोतपोताने ठेकाणे खावा मंमी जाय. एक दिवसें सर्वथी
आगल एक जलजंतु ावीने पोतानो आहार खाइ ते काणें एक रत्न नावीने चालतो थयो. कुमारे ते रत्न ल लीधुं, ने मनमां घणो हर्ष पा म्यो. ते दिवस बीजा सर्व जलजंतुयें पोतपोताना करंबा खाईने ते स्थल मां रत्न नाखी जवानो चाल कस्यो. एम दररोज जेटलां रत्नो एकां थाय तेटलां रत्नो षोनां बाणनां बाणां थापी तेमां नारखी दिये. तेनी चाकरोने पण खबर पडे नहीं. कर्वा ने के, “अपरीक्ष्य न कुर्वीत,मर्मज्ञःस्वानुजीवि तम् ॥ मर्मज्ञोऽर्जनोलोकः, संतापयति सहानं" नावार्थः-पोताना चाकर नी परीक्षा लीधा विना तेने पोतानो मर्म कहेवो नहीं; केम के, कोई 5 जन मनुष्य होय तो सहनने पीडा करी दिये . पेलां रत्न घालीने बा पां करेलां जूदां राखतो जाय, अने रत्न विनानां जे बाणां करे, ते जुदां राखे. एवी रीतें बुद्धियें करी घणां रत्नो एकतां करीने गुप्त राख्यां. __ हवे पूर्व कंचुको लेवा माटे स्त्रीनी केडे लाग्यो हतो तेवारें पोतानी नाव नावडोयान नलावी हती तिहां ते नावडीयो नाव बांधीने निश्चित सूतो तेने निश आवी गई एवामां समुनी वेलना जोरथी नावना बंधन बेटां पाणीना कनोलनी प्रेरणायें नाव समुश्मा पड्युं पड़ी ते कनोलें हणा
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२७५ तुं हणातुं फरतुं फरतुं कुमरना प्रारब्धना योगें पालुं तेज दीपने विपे आव्युं तेने कुमार जोड्ने खुशी थयो. नाविक कतरी यावीने पोताना ध गीने पगे लागो. अने सर्व हकीगत कही संनलावी. जावी पदार्थ को इनाथी टलतो नथी. एम तेनुं समाधान करीने मत्स्यो माटें तैयार करे ला करंबा जमवाने आप्या. नाविक घणा दिवसोनो नूरव्यो हतो तेथी सारी रीतें खा धरायो. कुमार पण पोताने थएनी रत्नप्राप्ति विना बाकी नी सघली हकीगत तेने कही संनलावी.
पेला साथेनां वहाणो जे देशांतरें गयां दतां, तेउना मालेको पोतानो माल वेचीने प्रारब्धानुसार लान मेलवी पाना ए छीपने विपे आव्या. प्रथ मनी पेठे वली पण पाणी नरवाने नीचें तस्या. पोताना साथीने श्रावी मल्या. पनी कहेवा लाग्या के, हवे तो तमें अमारी साथें चालशो के नहीं? कुमर बोल्यो के, हा हवे हुँ तमारी साथें श्राववानें तैय्यार बूं. पनी पोता नी सर्व तैय्यारी करवा लाग्यो. बे जातिनां बाणां कस्यांहतां, ते पोताना वहाणमां नयां ते जोईने पेला व्यापार करी आवेला वाणीया मश्करी करवा लाग्या, ने कहेवा लाग्या के,या बाणां वहाणमां शा सारु नरो बो? तेना करतां अमारो माल जरो, तो अमें तमने जाडं आपीयें. एटली तो पेदाश करी चालो. कुमर बोल्यो के, नाई अमारे एटलुंज घणुं जे पोताने गमे, ते सारूं कहेवाय. कडुं के, “कोईने कांई गमे,कोइने कांई सुहाय॥ गाडूं नयुं सोपारिये,सेव बहेडां खाय." पड़ी संकेत प्रमाणे बधां वहाणो साथै हकारयां. चालता चालतां ज्यारे मध्य पंथें याव्यां, एटले पुर्वात व हावा लाग्यो. वहाणो माहादरियामां कुर्वाटें पड्यां.तेथी घणा दिवसो नीक ली गया. त्यारे इंधणां खूट्यां. एटले बधानी नजर पेला बाणां ऊपर गई. अने कुंवरने पूवा लाग्या के,नाई बाणां अमने आपशो के? कुमर बोल्यो के, नाई एम ते कांई थतुं दशे! पोतानो माल बीजाने कोइ रीतें अपाय नहीं. त्यारे ते बिचारा निराश थया, अने काचुं धान्य खावा लाग्या. ते थी पेटमां दुःखवा मांमयु. अने रोग उत्पन्न थवानो संनव थयो. त्यारें फ री पूजवा लाग्या के, नाई! थोडाक गणां वेचातां आपशो ? जे कीम्मत मागो, ते अमें थापीयें. कुमर बोल्यो के, एक सरतथी हुँ बाणां आपुं. जे वां गणां ढुं तमने था', तेवां पाबां दुं ले ! ते तेमणे कबूल क ,अन
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६ जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. ते प्रमाणे खत लखी आप्यु. तेमां सार्थेना बीजा माणसोनी सादीयो न खावी. पडी जे न्हाना नावमां रत्नरहित बाणां हतां ते गणी आप्या. तेथी वाणीया खुशी थया. अने कहेवा लाग्या के,जो डाणां हतां तो यमें जीवता रह्या, नहिं तो मरी जात.माटें तमो अमारा उपगारी थया बो. कुमार कह्यु के, नाई उपकार शानो ! जेवां दीधां तेवां ले'. पडी देवयागे सारो पवन नीकट्यो, तेथी वहाणो रस्ते चहड्यां. केटलाएक दिवसें देमकुशलें पोताना नगरमा आवी पहोता. वहाणोथी नतरी वधामणीये वधामणी दीधी. व्य वहारीया सामे याव्या. तेमने सारी रीतें मल्या. सागरश्रेष्ठीने वधामणी दी धी. ने कह्यु के, तमारां वहाणे अमारा जीवो बचाव्या . जो तमारा वहा णमां बाणां नरेला न होत तो अमें बधा मरीजात. रस्तामांज आडबंदरें वहाण नांगरी, त्यांज तरी बाणां थापीने नरी लाव्यानुं अमारा प्रार ब्धेज आरामनंदनने सूचव्युं होय नहिं ? एम नासे .बीजुं कांई कमायो नहीं तो गुं थयु ! क्यां तमारा घरमांकाई को वस्तुनी कमती ! एवां मर्मनां तथा चानकनां तेनां वचनो सांजलीने सागरश्रेष्ठी मनमां काईक खिन्न थयो. तेथी ते कुमरनी सामे आव्यो नहीं.
पबी बधा सफर करी आवेला वाणीया पोतपोताना सामर्थ्य प्रमा में नेट लईने प्रथम लक्ष्मीधर राजाने मलवा गया. तेउनी साथें आराम नंदन आव्यो नहीं, पाउल रही गयो. बधा नेट मूकीने राजाने मव्या ते थी राजा अति हर्षित थयो. अने तेना माल, दाण उडं कह्यु. एटलामां पेलो कुमार पण एक अति उत्तम रूमालमां गणां नाखीने राजाने नेट देवा आव्यो. तेवारें बाहेर पोलीयाने कमु के, राजाने खबर करो के, आ रामनंदन आपने मलवानी चाहना करे ? ते वात पोलीयायें राजाने जश कही. राजायें तुरत तेडावी लीधो. त्यारे तुरत आवीने प्रथम पहेला बाणांनी चंगेरी राजानी पासें नेट दाखल राखी. राजायें पासें लेई जोई तो मांही बाणां दीवामां आव्यां. ते जोस्ने लोक सर्व हसवा लाग्यां अने राजायें विचार कस्यो के ए पोतें माहाबुद्धिमान् .माटें नेट दाखल गणां मू कवानुं कांप्रयोजन होवु जोश्यें. कह्यु डे के, “निरर्थन प्रवर्त्तत,जनो बुद्धि मतांवरः ॥ प्रदोहको नृपस्याये, मृउपायनमातनोत् ” नावार्थः-श्रेष्ठि बु धिमान् पुरुष जे डे, तेउनी प्रवृत्ति प्रयोजन विना होतीनथी. एवो विचार
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२७७ करीने राजायें पेली रूमालनी गांसडीमांथी एक गणुं काहाडयु, अने ते कुमारनेज आप्युं, कुमार राजी थश्लश्ने ते बाणुं नांग्युं. तेमांथी एक रत्न नीकल्यु. ते अमूल्य रत्न जोड्ने राजा चमत्कार पाम्यो कुमरने घणु सन्मा न दीधुं अने कह्यु के हे कुमरजी महारी पुत्री तमें परणो. कुमरें कह्यु हवे परणीश. एम कही पनी अनुक्रमें सर्व बाणां नांगी देखाड्यां. ते प्रत्येकमां एक एकथी अधिक किम्मतनां रत्नो नीकल्यां. ते बधां राजाने अर्पण क रीने कुमर बोल्यो के, महाराजा महारी ऊपर कृपा करीने मारो माल जो वाने मारी साथें दरियाना कांठा ऊपर पधारो. ए बोलवू मान्य करीने राजा समुना किनारापर गयो. त्यां बाणानी राशिमाथी घणांक बाणां नांगी देखाज्यां,तेउमा एक एकथी अधिक किम्मतवालां एवां रत्नो नीकल वा लाग्यां. एम बधां बाणां रत्नोवाला देखीन राजा अति अजायब थयो. अने तेनी साथे पेला वापीया पण चक्क बनी गया. तेउनां मुख कालां थइ गयां. मनमां चिंता करवा लाग्या के, आवां गणां ते आपणे क्याथी आपणुं ! आपणे जे यानी मश्करी करता हता,ते एक कोरें रही अने नल टी आपणी मश्करी थइ. माह्या माणसें कडं ले के कोश्नी ऊपर हसवू न ही, ते शीखामण आपणे प्रत्यद पाम्या ये, हवे आपणी गुंवले थशे?
पबी पेला कुमरें राजानी आझा मागीने ते बधां गणामांथी रत्नो क हाडीने सागरश्रेष्ठीने घेर मोकलावी दीधां. ते जो सागरश्रेष्ठी अति प्रा नंदित थयो. कडं ने के, 'जरथी जबर पण जीताय' तेम राजा तथा सा गरश्रेष्ठी ए बन्ने वश थ६ गया. गाममा महोटो अधिकारी सागरश्रेष्ठी जाणी वाणीयानां पोतीयां नीकली जवा लाग्यां,अने घेलाना जेवा बनी गया. वट ना इलाज थइ सर्व मलीने सागरश्रेष्ठीने घेर आव्या. अने अ ति करगरीने कहेवा लाग्या के, अमें धारामनंदन पासेंयी बाणां लश्ने तेथी रसोई करीने बाली नारख्या अने जे राख थइ ते समुश्मा नारखी दीधी. तेमां कां रत्नो अमने दीवामां आव्यां नहिं. तेंम बतां अमें लखी थाप्यु डे के,तमारां बीजां बाणांनां जेवांज बाणां पाबां आपवां, ते पाल, जो ये. अने एटली अमारी शक्ति नथी. बीजो अमारो को इलाज चालनार नथी,मात्र थमारूं जे काश्माल मता वगेरे , ते जोश्यें तो तमें ला लियो. अमें राजी खुशीथी आपवाने तैय्यार बैये. पण तेवां गणां अमें क्याथी
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
आपीयें ? तेम बतां जेम आपनी मरजी होय तेम करवाने अमें हाजर बैयें. एवां अति दीनतानां वचन सांजलीने कुमर बोल्यो के,नाइयो ढुं तमने म हाहं लेणुं माफ करूं .हवे सुखें जश्ने तमे तमारो माल तारो,अने तेनो विक्रय वगेरे करीने पोताना कृत्यमांलागो. ढुंमारु लेणुं को दहाडे तमा रीपासें मागनार नथी, तमें जीवता रह्या, तेथी जे पुण्य कर्म बंधायु, तेज मारा लेणामां मने मन्यु. एम ढुं मानी लश्श. एम कहीने पेलुं लखत फाडी नारख्यु. पान सोपारी मंगावी बधाने आपीने विदाय कस्या. तेथी व धा हर्षित थ कुमारनी कीर्ति गाइने पोत पोताने घेर गया. ___ बारामनंदन विचार करवा लाग्यो के, आजे घणुं इव्य मने मल्युं , तेनुं मारे गुं करवू ! कह्यु के, “दानं नोगोनाश,स्तिस्रोगतयो नवंति वित्त स्य ॥ यो न ददाति न जुंक्ते, तस्य तृतीया गतिर्नवति.” नावार्थ:-वित्त एटले धन तेनी त्रण गति थइ शके . दान, नोग अथवा नाश. तेमां पे हेला बे प्रकार नहीं कस्याथी त्रीजो नाश नामनो प्रकार थाय छे. माटे गुजकार्यने अर्थे इव्य खरचवू, तेज योग्य वे. पनी चैत्योपाश्रय, साधर्मि वात्सल्य, साधुजन पोषण, बंदीजनमोचन, दीनोदार, तथा याचक जन संतोष, इत्यादिकने विषे लक्ष्मीनो नपयोग करवा लाग्यो. चलें दिवसें घणो महोत्सव करी राजकन्या परण्यो, तेनीसाथें सात नूमिना आवास मांहे क्रीडा करतो रहे ने अमुलिक रत्न वटावी खरचीने यश लीये .
एम करतां को एक समयें अईरात्रिने विपे निशमां सूतो हतो तेमां तेने एक स्वप्न लाईं, तेमां तेणें एवं जोयुं के,लक्ष्मीपुर नामना नगरमां न मदा नदीना तटनी कपर पद्मावतीयें अमिनी चिता करावी अने तेमां पेस वानी तैय्यारी करी जे. एटलामा जागी कठ्यो. तेवारें माहा दुःखने पामी ने चिंतवना करवा लाग्यो के,मुमने पुष्पy कंचुक मन्युं नहीं, ते तो रह्यु, पण उलटो पद्मावतीनो वियोग थयो. ते विरहथी पुरवी या थकी तेणें थ निमा प्रवेश तो नहिं कस्यो होय ? जो एमज थयुं होय तो महालं जीवि तव्य शा कामर्नु बे ? आटला दिवस सुधी ते खचित जीवती रही नहिंज होय ! तेणें अमिनी चितामां पडीनेज प्राण खोयां हशे, एमां संशय नथी! मनें स्वप्न साधुं ते खरुंज होवू जोयें. जो एम थयुं होय तो ढुंज खरेख री स्त्रीघात। थयो बु. तेनुं मने पाप लागुं ! हवे मने पण शरीर राखीने गुं
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
२०७
कर बे ? तेथी कोई पर्वतने विषे अनशन व्रत लइने प्राणनो त्याग करवो. एवं चिंतवी राजा ने पोतानी स्त्री तथा सर्व परिवार पासेंथी शीख मा गी, राजायें कयुं इहां सुख मूकीने केम जाने बे ? तमें कहो ते में खा पीयें ! कुमरें कयुं के हाल महारे घेर जवानी उत्कंग बे माटे रजा यापो डुं फरीने तरत इहां आवीश. पढी सागर श्रेष्ठीनी पासें घेर जवानी रजा as विदाय ने एक पर्वत ऊपर गयो. त्यां एक योगी मंत्र साधना क रतो वेठेलो दीठो. तेम योगी पण कुमरने जोइने विनय प्रतिपत्ति करीने क देवा लाग्यो के मारा नाग्यने लीज तुं यहीं श्राव्यो बो में पूर्व मंत्रसा धना करी पण उत्तरसाधक विना सर्वे निःफलथई हवे जो उत्तर साधना तुं करे, तो महारो मंत्र, साध्य थाय.
एवं ते योगीनुं बोलवं सांजलीने कुमारें विचार कस्यो के, मरवाने श्र मैं तो हुं यहीं प्राव्योज बुं, तेम करतां परोपकार कांइ थाय तो सारुं बे. परोपकार करवो ए मनुष्य मात्रनो धर्म बे पढी योगीना कहेवा प्रमाणें तरसाधकपणुं कबूल करयुं. त्यारें योगी एक अग्निकुंरुमां होम करवा ला यो कुमारने युं के जो नूत, प्रेत, पिशाच तथा वेतालादिक कोई विघ्न करवा याही यावे, तो तेनुं तुं निवारण करजे. कुमार हाथमां खड्ग लईने चोकी करतो रह्यो एटलामां एक वेताल त्यां खाव्यो, तेनी सामें कुमार खड्ग लईने दोड्यो बन्ने बाथोबाथ याव्या. कुमारें वेतालने नीचें नाखी दीघो. ने साहसिक थइ वेतालनी ऊपर चढी वेगे वेताल वश थई रह्यो खाने कहेवा लाग्यो के, हुं ताहारुं पराक्रम जोईने राजी थयो बुं. माटें कांई वर माग, कुमर बोल्यो के ज्यारें हुं तने संजालं, त्याऐं यावजे ते वात कबूल करीने वेताल जतो रह्यो पढी कुमर योगीनी पासें जई कनो रह्यो. ते समयमां योगीनी पासें मंत्राधिष्ठायक देव यावी कहेवा लाग्यो के, जे तुं कहे, ते करूं ! योगी बोल्यो के, जे पुरुष या अमिना कुंम मां प्रवेश करे, तेने सोनानो करो. ते तेणें कबूल कस्युं. त्यारें रातां कणे रनां फूलोनी माला ते कुमरना गलामां घाली तथा रतांजलिना रसना dict नाख्या. ने कहेवा लाग्यो के, या कुंमने तुं प्रदक्षिणा कर. त्यारें शुद्धसम्यक्तवान जे पेलो यारामनंदन, ते नवकार मंत्रनुं स्मरण करतो थ को प्रदक्षिणा देवा लाग्यो. तेनी पाउल योगी पण प्रदक्षिणा देतो चाल्यो..
१७
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
लाग फाव्याथी योगी यें कुमरने कपाडीने पेला कुंममां नाखी दीघो. तेवोज पोताना साहसपणाथी ते फाल देतो बाहिर थावी पढ्यो अने ते यो गीने कालीने मिना कुंममां नाखी दीधो के तत्काल ते योगी सोनानो पुरुष बनी गयो. कुमारें सम्यक्त्व अने नवकार, जापनुं महात्म्य देखीने धर्म ऊपर यति यास्ता करी. कत्युं वे के, " वने रणे शत्रुजला निमध्ये, म हार्णवे पर्वतमस्तके वा ॥ सुप्तं प्रमत्तं विषम स्थितं वा, रति पुण्यानि पुरा कृतानि " नावार्थ:- वनमां, युद्धमां, शत्रु मां, जलमां, अग्निमां, महार्णव मां, पर्वतना मस्तकने विषे, निझामां, प्रमत्त व्यवस्थाने विषे महासंकटनी थ वस्थामां, पूर्वे करेलां कर्मो रक्षा करे बे. पठी ते कुमार सुवर्णना पुरुषने त्यांज दाटीने त्यां निशानी करीने दक्षिण दिशा तरफ चालतो थयो. रस्तामां जतां एक ठेका एक योगीनी चेली, पोतानी बीजी चेलीयोने कहे बे के, तमने वाली बधी वार क्यां लागी ? ते चेलीयो बोली के स्वामिनि ! अमें रस्तामां एक कौतुक दीतुं, त्यां अमने वार लागी. वली ए वात पण आपने सांजलवा जेवी बे. कयुं वे के, “ वार्त्ता च कौतुकवती विषदा च विद्या, लोकोत्तरः परिमलश्च कुरंगनानेः ॥ तैलस्य बिंदुरिव वारिणि डुर्निवा र, एतत्रयं प्रसरतीति किमत्र चित्रम्" पढ़ी पेली गुराली योगिली तथा एक कोरें को रहेलो कुमर ए बन्ने सांजवे बे, घने पेली चेलीयोमांनी एक चेली बोले :-के या जंबुद्धीपमांना जरतक्षेत्रमां वैताढ्य नामनो पर्वत बे. तेनी दक्षिण श्रेणीयें एक मंगलावती नगरी बे तेनो विद्युन्माली नामनो विद्याधर राजा अष्टापद पर्वत तरफ जतो हतो. चालतां चालतां हीपुर नामना नगरमा जई पहोतो. त्यां एक उद्यानने विषे महेंड्राजानी स्त्री रतिसुंदरी पोतानी सखीयोनी साधें जलक्रीडा करती हती, तेने जोवा सारु विद्युन्माली विद्याधर एक महोटा वृक्ष ऊपर चडीने बेठो खने तेनी सर्व रमत जोया करे बे, एटलामां रतिसुंदरी पोतानी क्षेमकरी सखी प्रत्यें पूढवा लागी के, मारा घणीने फूलनुं कंचुक मल्युं के नहीं ? क्षेमकरी बोली के तारा पुष्यना योगें मल्युं. रतिसुंदरी बोली के, केम प्राप्त थयुं ? देमकरी बोली के, चोरोयें नगरमां चोरी करी, ते बधा पकडाया. तेजने बांधीने कोटवाल रा जानी पासें लई गयो. राजायें न्याय करीने तेज॑नां घर लूटी लेवानुं ठराव्युं. अ 'ने कह्युं के, जे माल नीकले ते माल धीयोने खापो, तेजयें पोतपोतानो
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१३१ माल उलखीने लश् लेवो. एवी राजानी बाझाथी ते चोरोनां घर लूंटतां तेमां पुष्पy कंचुक नीकल्यु. ते सेवकें राजाने पाणी आप्यु. राजा जोड्ने राजी थयो. ते कंचुक राजायें तारा सारु राख्युं . बीजी कोई स्त्रीने या प्यु नथी. एवी वात सांजलीने रतिसुंदरी कहेवा लागी के, देमंकरी सखी तुं जश्ने राजानी पासेंथी ते कंचुक लश् बाव. जेथी ते कंचुक पहेरीने ढुं राजानी पासें जाऊं, अने तेना असिने जर बेसुं. ए वात मानी, ते देमंकरी राजानी पासें गइ अने जश्ने तेनी पासेंथी पेखें कंचुक मागी लई राजी थती पाडी आवे . एटलामा विद्युन्माली विद्याधरें ते कंचु कने अधर हाथमाथी उचकी लीधुं. अने पोताना घेर लइ ज पोतानी मानीती स्त्रीने देवा लाग्यो. ते जोश्ने बीजी स्त्री बोली के, ए कंचुक जो एने आपशो,तो हुँ अनिमा बलीने मरीश. पन ते बन्ने शोक्यो कंचुक सा रु वढवा लागी. त्यारें पेला विद्याधरें विचाडं के हमणां ए बन्नेमांनी ए केने कंचुक मलq जोश्तुं नथी. एम कस्याथी कजीयो मटशे. एवो संकेत करी ते कंचुक लश् कोइ बाने ठेकाणे राखीने पोतें अष्टापद पर्वत तरफ ती र्थयात्रा करवा गयो. ए आश्चर्य जोवाने अमें ऊनी रहीयो हती. तेथी वा र लागी. ए अमारो अपराध थयो ते क्षमा करो. एटली वात पेली चेली यें कही ते बारामनंदन कुमरें सांजली लीधी. अने कंचुकनी खबर मली तेथी खुशी थयो. पण मनमा तर्क थयो के मारी स्त्री अग्रिमा प्रवेश क यो होय तो कंचुकनी शोध मलेली शे कामें आवे !! पनी मनमां निश्चय कस्यो के जो एम थयुं हशे तो मारे पण योगीना कुंममां बली मरवू. हवे शोध केम मले के, पद्मश्री बली मुई के जीवती ! एनी शोध करवा नग रमां तो जवु न जोयें. केम के, त्यां गयाथी जो जीवती होय, तो तो ती क, पण जो मरण पामी गइ होय तो पाडा फरवू मुश्कील थाय. अने त्यां प्राण त्याग पण थाय नहीं. ने घाखो जन्म कुःखमां कहाडवो पडे, ते वार्तध्यानथी धर्मनी साधना पण थाय नहीं, ने पनी अतोन्रष्ट ने ततो भ्रष्ट थया जेवू बने. माटे मने जे स्वप्न लाधुं, ते खलं होवू जोश्यें. नहिं तो एवं स्वप्न केम लाधे. मारी स्त्रीनी साथें मारी तीव्र प्रीति हती, तेम तेनी पण माराविषे तीव्र प्रीति हती, तेथीज तेनी प्रीतिना पुजल मारा अंतःक रणमा प्रवेश करीने स्वप्न रूपें थया. एवं खचीत मानवं जोश्यें बैयें.
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
एवो निश्चय करीने अमिना कुंमनी पासें ते कुमर आव्यो, अने नवका र मंत्र जपवा लाग्यो. एटलामा एक पासेंना वृदमांथी एक लेख ते कुम रनी पासें आवी पज्यो. ते लश्ने वाचवा लाग्यो. स्वस्तिश्री लक्ष्मीपुरथकी श्रीविक्रमराजा यथास्थाने आरामनंदनप्रति आलिंगन होजो. तारी स्त्री प प्रावती तारा वियोगथी अग्निमां प्रवेश करतां बतां में आठ वर्षनो अव धि करीने जीवती राखी ने. त्यारथी तारी शोध करवाने ठेकाणे ठेकाणे गुक तथा वानरादिकोने मोकल्या बे. माटें जो आठ वर्षमां तुं आवी पो होंचीश नहीं, तो तारी स्त्री अग्निमां प्रवेश करशे. तेनो दोष अमारे माथे नथी. तेथी जेम बने तेम जलदी घेर आव” ए प्रमाणे वांचीने कुमर म नमा विचार करवा लाग्यो के, स्वप्ननो अर्थ अने आ पत्रनो अर्थ मलतो याव्यो खरो, पण आकाशमांथी लेख केम पड्यो ! एवी आशंकाथी कप र जोवा लाग्यो, एटले एक वानर दीवामां आव्यो. त्यारे ते नीचें यावी ने पगे लाग्यो, अने सघलो समाचार मुखथी कही संनलाव्यो. त्यारे तेनी पाकी खात्री थइ, पण कंचुक विना वाले हाथे जर्बु ते सारं नहीं. जो कं चुक साथें लइ जावं, तोज खरी खूबी कहेवाय ! एवो निर्धार करी एक र दनुं पत्र लइने तेनी ऊपर एक वनीना रसवडे लरव्यु के, “मने तमारु पत्र पहोच्युं. ते वांचीने घणो संतोष थयो . हवे ढुं शीघ्रज घावी पहो चीश. पद्मावतीने स्वस्थ करी राखजो. अने महारा प्रेमें करी जुहार अंगी कार करजो” एबुं लखी ते पत्र पेला वानरने आपीने विदाय कस्यो, अ ने पोतें कंचुक लेवाना हेतुथी त्यांथी चालतो थयो. ___ मार्गमा जतां एक ठेकाणे केटलाएक व्यंतरो वानरान्नां रूप धारण करीने रमता हता, ते तेणें दीना. तेउमां को राजा थयो , कोई मंत्री ब न्यो के, कोइ आमात्य थयो , को सचिव थयो , कोइ सेनाधिपति थ यो , कोइ स्वार थया ने, कोई पदाति थया , तथा कोइ जासूद प्रमुख राज्य चर्या करी रह्या जे. एवा समयमा एक अनुचरने राजायें बाझा क री के सूतारनी पासें जश्ने काष्ठना मयूरो घडावी लाव. ते काम ते त्वरा थी जइ करी आव्यो, अने राजाने जणाव्यु के माहराज! आपनी आज्ञा प्रमाणे मयूरो सर्व तैय्यार . राजायें तरत सर्व मयूरोपोताना मंत्री प्रमुख ने वेहेंची याप्या अने एक सारो मोर जोश्ने पोतें राख्यो. पड़ी ते मोर क
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२३३ पर बेसीने पोताना सैन्य सहित वैरीने जीतवाने चाल्यो. तेउनी साथें आ रामनंदन पण कौतुक जोवाने नीकल्यो. चालतां चालतां नीलमुख वान रना वननी पासें आवी पहोच्या. त्यारें मोरनी स्वारी जे कालमुख वानर चडी श्राव्यो हतो, ते पोताना सैन्यसहित वाहनथी नीचें कतरी पाय दलरूप तैय्यार थयो भने पेला काष्ठना मोरो एक कोरें राखी मूक्या. ए लश्करने जोईने नीलमुख वानर सामे चडी आव्यो. अने पोतानी सार्थेना सैन्यने व्यूहरचनायें करी सङ करि राख्यु. पडी परस्पर यु६ थवा मांमयु. वानराउ चीचीरीयो करी करी तथा दांत घसी घसीने एकबीजाने मारवा लाग्या. तेउने सेनाधिपतियो हिम्मत देवा लाग्या. एम घणा कालसुधी यु ६ थयु, त्यारें बन्ने सैन्योना वानरा अति थाकी गया. तेथी केटलाएक नासवा लाग्या, अने केटलाएक शिथिल थई गया. एवं जोईने कालमुख त था नीलमुख ए बन्ने शत्रु सामसामे यावी गया, अने यापसमां लडवा लाग्या. तेमां कालमुख वानर जे प्रथम घणुंज अनिमान करीने सामे चा लीआव्यो हतो, तेने नालमुख वानरें युहमा पराजय कस्यो. त्यारें जेम वायुयें करी तृणो विखरा जाय, तेम कालमुखनुं लश्कर वीखराई गयु.ब धा वानरा ज्यां त्यां नासवा लाग्या. एवा टांकणामां कुमर, पेला मोरो मांथी एक मोर लईने तेनी उपर बेशी आकाशमार्गे करी वैताढ्य पर्वतनी कपर मंगलावती नगरी प्रत्ये गयो. त्यां अवसर जोईने विद्युन्माली विद्या धरना मालीयामां चोथीनमिना गवाहें सुवर्णमय पर्यक कपर पडेलु कंचुक दीतुं, ते नपाडी चालती वखतें महोटे सादें पोकार करी कहेवा लाग्यो के, ढुं आरामनंदन था महेलमांथी पुष्पy कंचुक लई जाऊं बुं. जे वीर सुनट होय ते मारी पाउल बेशक यावे. एम कही मयूर वाहन उपर चडीने पोताना नगर तरफ जवा नीकट्यो. एटलामा विद्युन्माली विद्याध रनी स्त्रीयोयें बुंब करी के, घरमांथी कोई चोर पुष्पनु कंचुक चोरी लेई जाय . तेने पकडीने तेनी पासेंथी ते कंचुक लई लियो. ते सांजलीने कट क एक थयु, तेने साथें लईने ते बन्ने स्त्रीयो कुमरनी पाबल लागीयो. कुं वरने यावी घेखो, त्यारे कुमरें विचार कयो के हवे झुं करवू ! पोतानां क स्यां पोताने नड्यां. जो में जाण कयुं न होत तो आबु बन्युं न होत. पण ते सारं कहेवाय नहीं, ने चोरमां खपीयें. मा. जे थयुं ते तीकज . सारं
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नरसुं थQ कर्मना हाथमां ने ! एटलामां पेला वेतालनी वात याद आवी. तेथी तेनुं स्मरण कयुं के, ते आवी पासें उनो रह्यो, अने पूजवा लाग्यो के { आशा छ ? ते फरमावो. त्यारें बारामनंदने पोतानी बधी हकीगत संन लावीने कह्यु के, जो या कंचुक हवे जलदी मारी स्त्रीने जर नहीं आपुं,तो ते चितामां पडीने पोताना प्राणनो त्याग करशे. माटें हुं था यापी आकुंति हांसुधी था लश्करने अटकावी राख. एवं सांजलीने वेतालें कयुं के, में पण आवतां मार्गमा एक नगरनी बाहेर चिता खडकेली जोइ ते ए कारण सरज हशे माटें तमें जलदी जा. ढुं लश्करने अटकावी राखं बुं. ___ एवं वेतालनुं बोल सांजलीने कुमारने वधारे चिंता उत्पन्न थई, केम के, बाठ वर्षनो अवधि पूरो थवा आव्यो हतो. पनी कुमर तावलो चालतो थयो, हवे त्यां पद्मावती पणराजाने कहे ले के आठ वर्ष पूरां थयां तो पण मारो पति आव्यो नहीं,हवे चितामां दुं प्रवेश करीश. एम कही सर्व जनोने यथायोग्य रीतें मलीने तथा पंचपरमेष्ठितुं स्मरण करीने ते चितामां आवी पडी. एटलामां आकाश मार्गे मयूरना वाहन कपर बेठेलो कुमर ावी पहोतो, अने ते मयूर तथा कंचुकने एक कोरें मू की नमस्कार मंत्र जणी कहेवा लाग्यो के, मारी स्त्री पद्मावती जो सुशी ल होय अने जो शीलनो महिमा होय तो अमे बन्नेने कव्याणनी प्राप्ति थजो. एम कही तेणे चितामा प्रवेश कस्यो. ते समयें देव सहायथा ते प्रज्वलित अनि शीतल पाणीना जेवो थई गयो. त्यारें जेम पाणीमाथी माणस बाहिर नीकले,तेम ते बन्ने स्त्रीपुरुष, बाहेर नीकल्या. एवं कौतुक जोश्ने रा जा प्रमुख सर्व नगरनां लोको अति हर्षने पाम्यां; अने आनंदना निशाण वाग्यां. हवे एज समयमांपेढें कटक वेतालनी साथै यु८ करतुं करतुं,ए नगर पासे आव्युं. तेने जोतां कुमरें अनिमा प्रवेश कस्यो तेथी तेथे जाण्यु के अ माराथी मरीने आम कयुंजणाय जे. तेथी त्यां पडेलु ते कंचुक ते विद्याधर नीस्त्री-यें नपाडीली, पण एटलामां तोअग्नि शीतल थई गयो ने ते बाहेर जेमना तेम नीकटयां,ते जोईने ते विस्मय थया. एवो शीलनो महिमा जोई बधा विद्याधरो तथा मनुष्यो आश्चर्यने पाम्या. कुमरें राजाने आवी नम स्कार कस्यो. माता पिताने यावी पगे लागो. पद्मावती पण सासु ससराने
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१३५ पगे लागी. तेथे कयुं के “हेवधू ! पुत्रवती नव” एवो आशीर्वाद दीधो. सर्व लोकोने अति हर्ष थयो, जिनधर्मनो महिमा प्रगट थयो.
पड़ी ते विद्याधरीयोयें कुमरने सर्व वृत्तांत पूब्याथी तेणें अथथी ते इति सुधी सर्व वृत्तांत कही संनलाव्यु, तेथी ते कंचुकविषे कदाग्रह मू की दश्ने पोताने हाथे पद्मावतीने ते कंचुक पहेराव्यु. पनी राजा, राणी, कुमर तथा पद्मावती प्रमुख सर्व नगरमां गया. याचक लोकोने घणां दान दीधां. परिजन प्रमुख सर्व जनोने यथायोग्य पहेरामणी प्रमुख प्राप्यां. बन्ने विद्याधरीनयें पद्मावतीने बेन करी मानी. ते विद्याधरीयोने तेना लश्कर सहित केटलाएक दिवस सुधी राखी, सारी रीतें मिजमानी प्रमुख करीने जेम बेनने सासरे मोकलीये, तेम विदाय करी. पडी बारामनंदने वेतालने हाथे पेलुं सोनानुं पुतलुं मंगाव्युं. ते गुजमुहूर्ते गृहने विषे लावीने राख्यु, ने पेला वेतालने रजा आपी. हवे ते सोनाना पुतलानो उपयोग एवो कस्यो के, जिननुवन, जिनबिंब, बिंबप्रतिष्ठा, जीर्णोधार, साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका लाण चतुर्विध संघy पोषण, साधर्मिक वात्सल्य, प्रमुख श्रेष्ठ कार्यमा व्यनो खर्च कस्यो.
हवे को एक समयने विषे ते नगरनी बाहिर उद्यानमां ज्ञाननानु ना मना प्राचार्य यावी समवसस्या. तेनी उद्यान पालकें आवी वधामणी दीधी. तेने राजायें पोताना राज्य चिन्ह राखीने बाकीनां जे अंग ऊपर यानूषण पहेयां हतां,ते सर्व वधामणी देवा बद्दल आपी दीधां. पनी राजा, राणी, कुमर, तथा पद्मावती प्रमुख सर्व जन महा आमंबरथी वांदवा ग यां. पंचानिगम साचव्या, गुरुने वांदी करीने यथा स्थानकें बेग. याचा ये धर्मदेशना देवा मांमी. ते सांजलीने राजा अने राणी प्रतिबोधने पाम्यां यने महोटे बाबरें दीक्षा लीधी. बारामनंदनने राज्य दीधुं पली कुमार, पेला सोनाना पुतलाना योगथी जिनशासननी उन्नति करवा लाग्यो.
एकदा समयें पद्मावतीयें स्वप्नमां पूर्ण कलशदीतो. ते वृत्तांत धारामनंद नने तेणें कयुं. त्यारें तेणे कयुं के हे चतुरा ! तुने पुण्यवान पुत्र थशे. अ नुक्रमें दिन पूरा थयाथी पुत्रनो जन्म थयो. ते समयें जन्ममहोत्सव कस्यो. अने तेनुं नाम पूर्णकलश राख्युं. वली कोइएक समयें आरामनंदनना सम्यक्त्वनी परीक्षा लेवाने अर्थे कोइएक देवांगनायें पूर्णकलशना अंगमा
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ज्वर उत्पन्न कस्यो. तेथी ते माहापीडाने पामीने व्याकुल थयो. तेने जो ने कुमर तथा पद्मावती अति उःख करवा लाग्यां. ज्वरनिवृत्तिना घणा उपाय करखा, पण कोइ नपाय लागे नहीं. एवामां एक मंत्री आव्यो, ते ऐं एक मंगल मांमयुं. अने एक कन्याने बेसाडी पूडवा लाग्यो. ते कन्या ना मुखधारा ते देवता कहेवा लाग्यो जो आरामनंदन निष्कपट नावें यद नी पूजा करे, तो आ बालकने समाधानी थाय. नहीं तो कुमरनुं मरण थशे. त्यारे आरामनंदन बोल्यो के, गमे तेम थाय, पण ढुं तो सर्वथा श्री वीतरागदेवनी प्रतिमा विना को बीजी प्रतिमानी पूजा करूं नहिं. देव अरिहंत अने गुरु सुसाधु जे अर्हतनी आज्ञापाले लेते,तथा धर्म अर्हतनो नांखेलो. एत्रण तत्त्वनी ढुं सदेहणा करूं. जो सारु थवानुं हशे,तो एथी ज थशे. नहीं तो देव करे ते खरं! एवं तेनुं बोल सांजली सर्व लोक क हेवा लाग्यां के, एवो हठ करवो जोश्तो नथी. अने यदनी पूजा करवी जोश्य के जेथी पुत्र जीवतो रहे. बारामनंदन बोल्यो के सम्यक्त्वना प्रसा दें तथा पद्मावतीना शीलना प्रनावथी सर्व सारुंज थशे. एवं तमारे निश्चे करी जाणवू. एवी तेनी सम्यक्त्व ऊपर दृढता जोश्ने ते देवांगना राजी थाने कहेवा लागी के, हे आरामनंदन! तुं धन्य ने. के जेणें सम्यक्त्व नेवि भावी दृढता करी. आटली बधी खटपट तारा सम्यक्त्वनीप रीका जोवा सारु मेंज करी. बीजो कोइ नाव मनमां आवो नहिं. एवं कही ते देवता अदृश्य थइ गयो. ते जाणे पोतानी साथें ते ज्वरने प ण लइ गयो होय नहिं ? एटले पूर्ण कलशने तरत समाधि थइ. पनी ते पुत्र कमें करी महोटो थयो, घणी राजकन्याउने परण्यो, तेनी साथें ना ना प्रकारना सुखलोग नोगववा लाग्यो. त्यारें धारामनंदन तथा पद्मावती ए बेदु साथें त्रिकरण शुद्धे सम्यक्त्व सहित श्रावकनो धर्म पालीने स्वर्गे गयां. एवी रीतें सम्यक्त्व ऊपर आरामनंदननी कथा युक्त सम्यक्त्वन स्वरूप कहीने त्रीजी गाथानो अर्थ पूरो कस्यो ॥३॥
हवे सम्यक्त्वनी शुदि केम थाय ? ते कहे जे. ॥ तस्स विसुनिमित्तं,नाकणं सत्तसहि ठाणाई॥ पालिङ परिहरिङच, जहारिहं इब गाहा ॥॥ अर्थः-ते सम्यक्त्वनी विशुधिने निमितें तेना (सतसािणाई के०) सडशन स्थानक नाकणं एटले जाणीने तेमां जे पा
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१३० लवा योग्य होय ते पालवां, अने जे त्याग करवा योग्य होय ते त्यागवां. जगतमां जीवादिक सर्व पदार्थ मध्ये केटलाएक झय एटले जाणवा यो ग्य . तथा केटलाएक उपादेय एटले ग्रहण करवा योग्य , अने केटला एक हेय एटले त्याग करवा योग्य जे. एम इहां ए गाथामां यथायोग्य छे.
हवे ते सडसठ बोल वे गाथायें करी कहे जेः॥ चन सदहण तिलिंगं, दस विणय तिसुदि पंचगय दोसं ॥ अपना वण नसण, लरकण पंचविह संजुत्तं ॥५॥ नविह जयणागारं, बनाव ए नावियं च सम्मत्तं ॥ बहाणा श्य सतस, 6ि दसण नेयं विसुदं च ॥६॥ अर्थः-चार वस्तुने विषे सदहणा राखवी,तथा सम्यक्त्वना त्रण लिंग जा गवां, दश प्रकारे विनय जाणवो,सम्यक्त्वनीत्रण प्रकारनी शुद्धि एटले नि मैलता जाणवी तथा (पंचगयदोसं के०) पांच दूषण जेने विषे नित त थएलां , एवं सम्यक्त्व जाणवू, आठ प्रकारनी सम्यक्त्वनी प्रनाव ना जागवी,एटले आठ प्रकारे सम्यक्त्वनुं नावन दीपन एटले आठ प्रका रेसम्यक्त्व दीपावीयें. तथा सम्यक्त्वना पांच नपण एटले यानरण जाण वां; जेम घरेणायें करी पुरुष तथा स्त्रीप्रमुख शोने , तेम ए पांच आजरणे करी सम्यक्त्व शोने दे. तथा सम्यक्त्वनां पांच लदगोयें करी युक्त थर्बु ॥५॥
॥ सम्यक्त्वनी प्रकारनी जयणा ,सम्यक्त्वने विषे आगार ; ते अपवादस्थानक जाणवां. सम्यक्त्व नावनायें करीनावित बे: जेम फूलें करी तिल वासित होय ले तेम नावनायें करी सम्यक्त्व वासित क रीयें. तथा सम्यक्त्वनां ब स्थानक . ए सडसड लक्षणयुक्त नेदें करीने सम्यक्त्वनी विशुदि एटले निर्मलता थाय . एवा सम्यक्त्ववान ते शुद्ध सम्यक्त्वी कहेवाय . ते जेम श्रेष्ठ पुरुषने विषे बहोंतेर कला,तथा रु डी स्त्रीनेविषे चोशठ कला दीवामां आवे , तेम शुद्ध सम्यक्त्वीमा यथा योग्य रीतें हेयोपादेयपणे ए सडसठ प्रकार दीवामां आवे रे ॥६॥
हवे प्रकरण कर्ता, निष्कपट वृत्तिथी कहे जेः॥ पुवमुणीण कयाणं, गाहाणमिमाण किंपिनावबं ॥ थोवरकरहिं प यडं, वुद्धं संखेवरु पबं ॥ ७ ॥ अर्थः-पूर्व मुनियें एटले पूर्वाचार्योयें करेली ए बे गाथाउनो किंपि एटले कांक संदेपें करी नावार्थ एटले रह स्य, जेमां थोडा अदरो अने अर्थ घणो ए प्रकारे जेम प्रगट थाय एटले.
१८
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
आगलो सोनलनारो वांचनारो नव्यं प्राणी जेम समजे. तेवी रीतें कहुँ . एनो हेतु ए के, सांप्रतकालना मनुष्योनी घणा विस्तृत अर्थ ऊपर रु चि होती नथी; किंतु संदेप अर्थना सचिवाला घणा . तेउने जेवी रीतें पथ्यनी पढ़ें हितकारी थाय, तेवी रीतें नावार्थ हुँ कहुं बुं ॥ ॥
हवे एसडस नेदमांथीचार सदहणाने विवरी देखाडे :॥ परमब संथवो खलु, सुमुणिय परम जइ जण निसेवा ॥ वावस्मक दिहीण य, वळण मिह चनह सहहणं ॥ ७॥ अर्थः-प्रथम परमार्थसं स्तव, ते रहस्यार्थनो तत्त्वजूत जे अर्थ तेनुं ग्रहण करवं संस्तव परिचय करवो. प्रतिदिन तत्त्वज्ञाननो अन्यास करवो; तेना ऊपर प्रीति राखवी; तथा विरस अर्थनो त्याग करवो; अतत्त्वनो परिचय करवो नहीं. अने ते नी ऊपर रुचि पण राखवी नहीं एटले हंसना जेवी बुद्धि राखवी. जेम दीर अने नीर एकता थई गयेला होय तेमांथी नीर नाखी दश्ने हंस दीरनुं य हण करे बे; तेम असारने मूकीने सारनुं ग्रहण करवू. माटे हंसना जेवू थवू पण नूंम तथा कागडाना जेवू न थर्बु, केम के जूम तथा कागडानो एवो स्वनाव होय जे के, सार वस्तुनो त्याग करीने असार वस्तुनुं ग्रहण करे . तेम जे प्राणी श्रीवीतरागदेवने मूकीने सरागी देवनी पूजा प्रमु ख करे, तथा सुगुरु मूकीने कुगुरुनी सेवा करे, विनयमूल तथा दयामूल धर्म मूकीने अविनयमूल तथा हिंसामूल धर्मनोआदर करे, ते पुरुष जुम तथा कागडाना जेवा जाणवा. माटे तेवा न थतां हंसना जेतुं थवं.
हवे ते परमार्थ संस्तव केवी रीतें प्राप्त थाय? ते कहे :(सुमुणिय के० ) जला जाण्या ने (परमब के०) परमार्थ जेणे एवा जे (जजणनिसेवा के०) यतिजन तेनी निरंतर सेवा करवी यमुक्तं, “ते एं समएणं पासासव विजा मुणीपवरा थेरा जगवंतो नाइ संपन्ना कुल संपन्ना बलसंपन्ना रुवसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लजासंपन्ना लाघवसंपन्ना 3 यसी तेअसी वच्चंसी जिअकोहा जियमाणा जियमाया जियलोहा जिय निदा जियइंदिया जियपरिसहा जीवियास मरण जय विमुक्का जावकुं तियावरण नूया विहरंति तहारुवाणं नंते समयाणं माहणाणं पकुवा समाणस्स किंफला पजुवासणा परमत्ता, गोयमा, सवणफला सेणं नंते सवणे किंफले नाण फले. नाणे किंफले विनाणे फले. विन्नाणे किंफले प
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१३ए चरकाण फले पञ्चरकाणे किंफले संजम फले संजमे किंफले अणेहाय फले अणेहाय किं फले, तव फले, तवे किं फले वोदाण फले, वोदाणे किं फले अकिरियाफले, अकिरिया किं फला सिदि पङवसाण फला." माटें एवा यति जननी सेवा करवी.
हवे एवा यति जननी सेवा करवानी नावना केम उत्पन्न थाय? तेनो हेतु कहे (वावप्लवजाणं के०) विहानुं तथाकुदृष्टिनुं वर्जन एटले त्याग कस्याथी एवो नाव उत्पन्न थाय . एटले सम्यक्त्व तथा चारित्रथी भ्रष्ट थयेला एवा जे कुमत्यादिक ने तेने विणता कहीये, ते नो त्याग करवो. यतः “नहो देवायबो, वसही आसन्न असइ पुत्तोय ॥ गुरुदेवाय कुछो, निम्मा पंच परमत्ता." नावार्थः-एमनो संग करवाथी सम्यक्त्व मलिन थाय ने, माटें एनुं वर्जन करवू जोश्ये, जेम काजलना संगथी सारं उ ज्ज्वल वस्त्र पण कालु थाय, ते पाचुं टले नहीं तेम कुमत्यादिकनी सा थे व्यापार, सेठ वाणोत्तरी, विवाह, उजाणी, प्रमुख परिचय करवो नहीं, एकता साथै बेस नहीं, साथें जq बावq नही, तेनी साथे लेण देण. करवी नहिं इत्यादिक बीजो पण को प्रकारनो व्यवहार तेनी साथे क रवो नहिं. यउक्तं “त्यज उजेन संसर्ग, जज साधु समागमम्॥ कुरु पुण्य महोरात्रं, स्मर नित्य मनित्यताम् ॥ जावार्थः-उर्जनना संसर्गनो त्याग कर, साधुनो समागम कर, रात्रि दिवस पुण्य कर, अने सारासारनो विवेक कर. एटलाज कारणमाटें शास्त्रमा कयुं के, जे कुमत्यादिकनी धर्मकरणीनी प्रशंसा कस्याथी तेउनी वृद्धि कस्या जेवू थाय ने, अने तेउनी साथे परिचय कस्याथी तेउनी धर्म करणीनुं अनुमोदन कस्या जेवू थाय बे;माटे कोई प्रकारे तेउनो परिचयज न करवो. कडे जे के, “अंबस्सय निंबस्सय रुपहवि समागया मुनाइं॥ संसग्गीय विणतो. अंबो लिंबत्तणं पत्तो” जेम लींबडाना काडना संसर्गथी आंबानो विनाश थाय , ते म नरसी संगतिथी बुदिभ्रंश थाय जे. जेम कांजीथी दूध फाटीने विण सी जाय बे, पण कांजीमां काई वणसवुज नथी. केम के, ते तो प्रथमथी ज वणसेली . तेम नरशी संगतिथी साराने माघ लागे जे, पण नरसाने कांई थतुं नथी. केम के,ते तो प्रथमथीज नरसो होय . माटें चतुर लोको विचारी जो जो.
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४० - जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
चोथी सदहणा, ते (कुदिक्षिणय के० ) कुदृष्टि जे मिथ्यादृष्टि जीवो ते नी संगतिनो त्याग करवो. जेम कुमत्यादिकना संगतिनां दूषण कयां, ते मज मिथ्यादृष्टिन। संगतिनां पण दूषणो जागी लेवां. यहीं कोई आशंका करने के बन्ने सरखी रीतें त्याग करवा योग्य वे, अने बन्नेनां दूषणो पण सरखां ने त्यारे पासला अने मिथ्यादृष्टिने जुदा जुदा कहेवार्नु कारण गुं? तेनो उत्तर आवी रीतें :-के अनिनिवेश मिथ्यात्वनो धणी कुमति होय ते कुमतिनो उपदेश देतो थको अनंत संसारनी वृद्धि करे. तथा श्रीतीर्थ कर देव अने सुविहित बाचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्रा विका प्रमुखनी आशातना करे , वली वखाण करतां रोश्यध्यवसायी थाय ने.केम के, ते व्याख्यान करतां प्रसंगें जेथी पोताना मतनुं स्थापन थतुं होय, तेनी अधिक प्रशंसा करे तेथी अनादि कालनो परंपरायें चा व्यो आवेलो जे सुमतिमार्ग, तेनी उत्थापना थाय, इत्यादि अध्यवसायवा लो अनंत संसार वधारे . एमां कांई आश्चर्य नथी. अने मिथ्यादृष्टिने तो श्रीतीर्थकर, आचार्य, नपाध्याय, साधु, साध्वी,श्रावक, श्राविका प्रमु खनी आशातना करवानो प्रसंग आवतो नथी. तेम बतां जो मिथ्या टियें करीने आशातना करे, तो पण कुमतिमांज खपे. अने तेनीज पंक्तिमां गणाय. तेमज मिथ्यादृष्टिने उत्सूत्र नाषानो पण प्रसंग आवतो नथी, केम के, ते सूत्रोने जाणतो होय तो तेने विषे उत्सूत्र नाषणनो संनव थाय; पण ते श्रीजिनशासनमांहे प्रवीण नथी माटे प्रतिमादिकनी नत्थापना कस्याथी ते रौ अध्यवसायवाला थता नथी. माटे वावरम एटले मि थ्यात्वमा व्यापन्न अने कुदृष्टि ए बे जुदा कह्या. ए चार बोलने विषे सद हणा राखे, एटले जे करवा योग्य होय ते करे अने जे बांमवा योग्य अ र्थात् न करवा योग्य होय तेनो त्याग करे ॥ ७ ॥ हवे फरी एहिज परमसंथवो एटले परमार्थ संस्तवनुं वर्णन करे :
॥ जीवाइ पयवाणं, संतपयाईहिं सत्तहिं पएहिं ॥ बुझाणवि पुणस्तव एं, चित्तणं संथवो हो ॥ ए॥ अर्थः-(जीवाश् पयबाणं संत पयाहिं पएहिं के० ) संतपदयादि दई सात पदें करी जीवादिक ब पदार्थोनुं स्वरू प जाणवा माटे (पुणस्सवणं के०) पुनः पुनः तेनुं श्रवण करवं, (बुदाण वि के०) बुझजे पंमितो होयते पण नवा नवा गीतार्थना मुखथी सांजव्या
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१४१ करे ते श्रवण करीने तेनुं (चित्तणं के) चिंतवq चिंतन अथवा मनन करवू, अने पड़ी तेने दृढ धारी राखq. एटले फरी ते वीसरी जाय नहीं एवो पाको निदध्यास करवो. बुद्धिमां सारी रीतें उसावी राखवं, तेम न कस्या थी ते निष्फल थाय डे,जेम पर्वत ऊपर वर्षा थयाथी ते पाणी तरत सूका 5 जाय , तेथी कांश फलनी उत्पत्ति थती नथी,अने मालवानी स्निग्ध चीकणी नूमिने विषे वर्षाद थइ उतां त्यां पाणी तरत सूका जतुं नथी, तेथी गोधूम, चणक, तथा शेलडी प्रमुख नाना प्रकारनी नली नली वस्तु उनीपजे, माटें श्रोतायें मुंगरनी जमीन जेवू न थर्बु, किंतु मालवानी ज मिन जेवू थर्बु. के जेथी श्रोताजनने सम्यक्त्वनी नत्पत्ति थाय. पनी ते स म्यक्त्वनी वृद्धि थयाथी देश विरति, सर्व विरति, उपशमश्रेणी, दपक श्रेणी तथा केवलज्ञानादिकनी निष्पत्ति थाय. एवी रीतें (संथवो होइ के ) संस्तव थाय . हवे मूलमां कडं जे के, संत पदादिकें करी जीवादिक न पदार्थो जाणवा. ते कहे जेः- " संतपय परूवणया, दवपमाणं च खित्त फुसणा य ॥ कालो य अंतरं चेव, नावे अप्पाबडं तहा.” एनो अर्थक हीयें बैयें. प्रथम सत्यपदनी एटले बतापदनी प्ररूपणा करवी; त्यां जीव इव्य तुं ले केम के ए शुक्ष पद माटे सत्य . जे शुक्ष पद होय , ते सत्य होय . जेम घट पद शुरू डे एक पदपणामाटे ते सत्य जे. जे एक पद होय ते सत्य होय , एटले जेनी साथें बीजुं पद मलीने समा सांत थयेलुं न होय ते एकाकी पद कहेवाय , ते सत्य होय . जेम 'घट' ए पद एकाकीने एटले समास वगरनु , माटे सत्य जे. केम के, ए पद सत्य पदार्थने विषय करे , अने जे संयोगी पद होय ते सत्य.प । होय ने असत्य पण होय . जेम के, 'आकाशकुसुम' ए पद प्रा काश अने कुसुम ए वे पदोना संयोगथी थयुं , माटे असत्य , तेमज गर्दनशृंग प्रमुख असत्य पदार्थोने विषय करनारां जे पद होय ते सर्व अ सत्य एटले अबतांज जाणवां, अने राजपुत्र प्रमुख सत्य वस्तुने विषय करवावाखं संयोगी पद पण सत्यज होय . परंतु वस्तुने विषय करनारूं ए क. पद तो नियमथी सत्यज होय . ए युक्तिथी जीवपद एकाकी होवाथी सत्य ,एवी रीतें अस्तित्व पदनी जे प्ररूपणा करवी ते प्रथम पद जाणवू.
बीजुं दवपमाणं एटले इव्यनुं प्रमाण करवू त्यां जीवश्व्य अनंत ,
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४३
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. ते प्रत्येक जीवश्व्यना लोकाकाश प्रदेशना प्रमाणनी पत्रे असंख्यात प्रदे श, एटले जीवश्व्य अनंत मली अनंत प्रदेशमय बे, एवी रीतें जीव इव्यनुं जे प्रमाण करवू, ते बीजुं इव्य प्रमाण पद जाणQ.
त्रीजो खित्तफुसणाय एटले देवस्पर्शना चौद ते रज्ज्वात्मक जीव लोक नी जे.एटले जीवश्व्य मात्र चौद रज्ज्वात्मक लोकमां ,पण अलोकमां जी वश्व्य नथी. अथवा ज्यारें केवली नगवान् केवल समुद्घात करे , त्या रें आत्मप्रदेशे करी चौद रज्ज्वात्मक जीवलोकनेज स्पर्श बे, पण अलो कनेविषे स्पर्शना करे नहिं. केम के,आत्माना प्रदेश लोकाकाशना प्रदेशोजे टलाज ,माटें तेटलीज स्पर्शना थश्शके डे,ए रीतें त्रीजुं देवस्पर्शन जाणq.
चोथो कालोय एटले कालथी जीवनी आदि नथी, तेम अंत पण नथी, माटे अनादि अनंत . ए रीतें चोथु कालपद जाणवू.
पांचमो अंतरचार ते सर्व जीवश्व्य असंख्यात प्रदेशवाला ने, माटें तुल्य ले. अने तेना ज्ञानादिक पर्यायो प्रत्येक जीवना जुदा जुदा ने एम व्यन अपेक्षायें सर्व जीवश्व्य अंतर रहित , अने पर्यायोनी अपेक्षायें अंतर सहित बे. तथा बीजे प्रकारें अंतर विचारीयें तो पृथ्वीकाय, अप काय, तेनकाय, वायुकाय, तथा त्रसकाय. ए चारे कायना जीवो असंख्या ता उत्पन्न थाय बे, अने चवे तो पण असंख्याता चवे ,तेमज वनस्पति कायमां एक समयमां अनंत जीव कपजे ने चवे . तथा त्रसकायमां एक समयमां असंख्याता जीव उपजे तथा असंख्याता चवे, पण जीव को एक समयमां उपजे चवे नहीं एवो अांतरो नथी एटले विरह काल नथा॥ यतः ॥ "अजी अनंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसा परिणामो ॥ नववऊंति चयंति य, पुणोवि तव तव” ए पांचमुं अंतरघार जाणQ.
हवे बहुं नावहार कहे . ते नाव ब प्रकारनो बेः-औदयिक, औपश मिक, दायोपशमिक, दायिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक, एवं ब. तेमां जीवने जीवत्व ले ते पारिणामिक नावे .केम के,नव्यजीवो जे जे ते नव्यज डे अने अनव्य ते अनव्यज . परंतु नव्य ते अनव्य थाय न हीं,अने अनव्य ते नव्य थाय नहिं. माटें पारिणामिक नावें कहेवाय ने, ए बहुं नावपद जाणवु. तथा सातमुं अल्पबदुत्वछार ते पृथ्वीकायथी अपूकाय जीवो अधिक,
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१४३ अप्कायथी ते काय जीवो अधिक, ते कायथी वायुकाय जीवो अधिक, तथा वायुकाथी वनस्पतिकाय जीवो अधिक बे. एम जीवनुं अल्प तथा बहुत्व जाणवुं. एवी रीतें जीवादिक पदार्थो बधा पदो सायें विचारवा अ ने तेनो पुनः पुनः जे विचार करवो, तेने परमार्थ संस्तव कहियें ॥ ॥ हवे उपर जिनदास श्रावकनुं उदाहरण कहे बेः
॥ या जंबुद्दीपमांना जरत क्षेत्रमां एक मथुरा नामनी नगरी बे. तेमां जि नदास नामनो एक श्रावक हतो. ते शेठ श्रावकना एकवीशे गुणोयें क री संयुक्त हतो. ग्राम प्रमुख पाखीने दिवसें पौषध करवामां तत्पर रहेतो. ए शिवाय सर्व प्रकारें धर्मनो एवो तो रागी हतो के, जेवा श्री जगवती सू नेविषे तुंगीया नगरीना श्रावको वखाएया बे तेना जेवी योग्यता वालो हतो, तेवनी तुल्यना करनारो हतो. तेनी साधुदासी नामनी स्त्री हती, ते मां पण नामना जेवाज गुणो हता. अने तेवाज परिणामो पण हता. ते स्त्रीपुरुष बन्नेयें गुरुना मुखें बार व्रत उच्चारतां घरे चतुःपद बांध्याथी घ यो प्रारंभ थाय बे. तेथी तेनां पञ्चरकाण लीधां हतां. एवी रीतें शुद्ध स म्यक्त्वनुं मूल बार व्रत तेने पालतां बतां सुखें कालक्रमण करे बे. हवे तेने घेर प्रतिदिवस एक बाहिरणी, दहीं, दूध तथा घृत, देवाने श्रावती दती, तेनी साथ लेवड देवडनो संबंध थयो. कोइएक समयें ते या हिरीणीनी बोकरीना विवाहनो अवसर याव्या, त्यारें तेने घेर जिनदासें पापड, वडी, फाफडा, सेव, तथा खारां सालणां प्रमुख वस्तु मोकली दीधी.
वस्तु तेने विवाहमा घणी उपयोगमां यावी तेथी विवाह दीप्त थयो खने ते खानीरी पण मनमां घणी संतोषने पामी विवाह वीती गया पढ़ी पोतानी उपर थलो उपकार फेडवाने यर्थे कजला दूध जेवा त्रण त्रण वर्षा वाasi लईने जिनदासने न कलवा देतां प्रांगणामां आवी बांधी गइ. पडी ते अत्यंत उज्ज्वल खने गंगाजल जेवा निर्मल वाढडां जिनदास ना जोवामां याव्यां घने मनमां जाएयुं के, पेली हिरिणी प्रत्युपकार करवाने या बांधी गई बे. हवे एनुं करवुं शुं ! जो ए पशुउने पालुं, तो व्रत जंग था, ने जो मूकी देनं तो ए बेदु जीव हलादिकमां जोडाइने दुःखी थाय, तेनुं पाप मने लागे “ इतो व्याघ्र इतस्तटी " ए न्यायप्रमाणें मने
युं छे. त्या तेन । स्त्रीयें कयुं के, आपणो नियम जंग तो थाय के जो पो
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ताना स्वार्थे एनने वहेल गाडा प्रमुखमां जोतरीयें ? परंतु अनुकंपा बुध्येि पालतां नियम नंग थतो नथी.माटें मूकी देवा करतां दयाबुदिये पाव्याथी कांश दोष नथी. एम तेणे गुरु लाघव विचार करीने बेहु वाबडां राखी ली धां. तेने पोषवा सारु खावा पीवाने फासु पाणी तथा फासु चारो आपे. एम करतां अनुक्रमें ते अत्यंत श्रेष्ठ बलद थया. जिनदास श्रावक थाम पाखीना चोविहार पोसह प्रमुख करे, धर्मशास्त्र वांचे, तेनी संगतिथी ते बलदो पण श्रावक थया. पोताना धणीनी साथै आतम पारखी प्रमु खना चोविहार उपवास करवा लाग्या. कह्यु के के, संगत ले ते, महोटी वस्तु , यतः ॥ अंजणचस्कु संगेण, मालासंगेण सुत्त हियएणं ॥ तदा सऊणसंगणं, सबवतुण गोरवं” जेम चढुनी संगतिथी अंजन नेत्रमा वास करी शके , मालानी संगतथी सूत्र हृदय कपर रही शके ले, तेम सऊनन। संगतिथी सर्व वस्तुने गौरव आवे . पड़ी ते बलदोनु एवं स्व रूप जाणीने जिनदास शेत तेउनु पुत्रनी पहें वधारे पालण पोषण करवा लाग्यो. कोइएक समयें निंमीरमण नामना यदनी यात्रा आवी, त्यांलो को पोतपोतानी वहेलोमां बेशीने जवा लाग्या. ते अवसरें जिनदासनो एक मित्र हतो, ते तेने पूब्याविना वाडा बोडी गयो. अने तेने पो तानी वहेलमा जोडीने चोगानमांहे घणा दोडाव्यां. लाकडीथी घणो मार मास्यो, परोणाना प्रहार दीधा, एम निर्दयपणे तेने घणो संताप कस्यो. तेथी त्रट पड्या, पनी तेणें पाना आवी प्रांगणे गमाणमां बांधी मूक्या, अने पोतें चालतो थयो. जिनदास शेठ आवी जूवे ने तो बलदोना अंग कपर रुधिर वही रह्यु बे; अने अति वेदना पामी रह्या . तेथी ते घj पुःख पाम्यो. ते बलदोनी बागल चारो पाणी मूक्यु, पण तेउनाथी कांड खवायं पीवायं नहीं. त्यारें दूध तथा साकर प्रमुखy पाणीपीवराववाला ग्या, पण तेने तेन, सामे पण जुए शेना! त्यारें शेठे जाण्यु के ए हवे जीव वाना नथी पड़ी तेमनी अनशननी मनसा जाणीने अनशन व्रत कराव्युं, नमस्कारमंत्र दीधा, ते तेथे सदह्या. एम मननी समाधिसहित काल क रीने ते नागकुमारनी जातिमां देवो थया. पनी जेम पुत्रना मरणथी फुःख थाय तेनी पेठे ते शेठ अने शेवाणी बन्नेने अति मा लाग्युं. ते बन्ने ब लद कंबल अने शंबल एवां नामे नागकुमार देवो थया. कोइ एक समयें
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४५
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. श्रीमाहावीर नगवान नावमां बेला बतां कोई सुदास नामना मिथ्यात्व दृष्टि देवें तेमने मरणांत उपसर्ग करवा मांम्यो. ते वखतें कंबल आवी ने ते मिथ्यादृष्टि देवनी साथें लड़वा लाग्यो, अने संबलें ते नाव सुखें थी पहेले पार पहोचाडयु. सुदाढदेव हारीने नाशी गयो. अने जगवंतनो मरणांत उपसर्ग तेणें टाल्यो. पत्री श्री नगवंतने वंदना करीने कंबल अ ने शंबल पोताने ठेकाणे गया. पणे जिणदासश्रेष्ठी तथा तेनी स्त्री साधु दासी श्राविका बेदु जण पनना विरहें करी अति दुःखित थयां थकां वैराग्यने पाम्यां. अने विशेषथी श्राधर्म आराधी भागमार्थनो परिचय करतां मरण पामीने स्वर्गनेविपे गया. त्यार पली अनुक्रमें मोद पामशे. ए चार सदहणामांहेली पहेली सदहणानुं स्वरूप कडुं ॥
हवे सदहणानो बीजो नेद कहे :॥ गीयलियं चरित्तय, सेवा बद्माण विणय परिसुदी॥ तत्तावबोह जो गा, सम्मत्तं निम्मलं कुण ॥ १७ ॥ अर्थः-गीतार्थ तिहां गीत एटले सूत्र अने अब एटले तेनी वृत्ति, नाष्य, नियुक्ति तथा चूर्णि प्रमुख पंचांगीरूप अर्थना जागनारा जे होय तेने गीतार्थ कहीयें ॥ यतः ॥ गीयं जन्नसु तं, अबो तस्सेव होवरकाणं ॥ ननएणय संजुत्तो,सो गीयत्रो मुणेयवो ॥
तथा (चरित्तय के० ) सर्व विरतिरूप चारित्र जाणवू. ए बन्ने ए टले गीतार्थ बतां चारित्रवंत जे होय, तेने सुविहित गुरू प्ररूपक कहिये. मात्र जे ज्ञानवान होय ते सुविहित कहेवाय नहिं, तेम मात्र क्रियावान् पण शुभ प्ररूपक न होय: माटें ज्ञान अने किया ए बन्ने सा थें मले, तोज सुविहित गुरु प्ररूपक कहेवाय. कह्यु बे के, “ हेयं नाण कियाहीणं, हेया अन्नाण किया ॥ पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो य अं ध ॥ १ ॥ संजोगसिदीई फलं वयंति, न एगचक्केण रहो पया॥ अंधोय पंगृयवणेसमिच्चा, ते संपता नयरं पविता ॥२॥ कियाहीन झानी त्याग करवा योग्य बे, अने ज्ञान विना मात्र क्रियावंत पण त्याग करवा योग्य बे, केम के ज्ञान पांगला जेवू , अने क्रिया आंधला जेवी जे. ज्ञानवा नने बळू जाण्यामां यावे. पण क्रिया विना कार्य सिह करी शके नहीं: अने क्रियावान कार्य सिह करवाने समर्थ जे. पण अज्ञानी होवाथी तेने मार्गने मार्गनी खबर नथी. जेम आंधलो चासवा समर्थ वे अने पांगलो
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
मार्ग देखाडवा समर्थ बे. एम बेदु मव्यां वांबित नगरें पहोंचे. तेम जे ज्ञा क्रिया बन्नेयें करी युक्त होय, तेज सुविहित गीतार्थ कहेवाय. तेनी सेवा करवी एटले परिचर्या करवी; ते सेवा बहु मानें करी अंतर्गत बहु प्रीतियें करी करवी. विनय एटले मन, वचन, तथा कायायें करी खानंदें की स्तुति तथा युवान प्रमुख कर. ए बन्ने प्रकारें निर्मल सेवा था बे. ते यागमना रहस्य जाणनाराने योग्य बे. एथी सम्यक्त्वनी निर्म लता थाय बे, माटें सुविहित गीतार्थ होय तेनांज सेवा तथा विनय प्र मुख करवां; एना योगथकीज निर्मल सम्यक्त्व थाय बे ॥ १० ॥
|| एनी उपर पुष्पचूला साध्वीनुं उदाहरण कहे बेः- या लाख योजन प्रमाणवाला पूर्णचंशकार जंबुद्वीपमां तेना एकशो ने नेवुंमा नाग जेटलुं या भरत क्षेत्र बे. तेमां एक पुष्पन कििा नामनी नगरी बे. ते गंगाना तट उपर बे. तेमां पुष्पकेतु नामनो राजा राज्य करतो हवो. तेनी पुष्पवती नामनी राणी विनयवंत तथा शीलवान् होती हवी; तेनी साथै विषय सु ख जोगवतां एक पुत्र ने एक पुत्रीनो जन्म थयो. तेनां नाम पुष्पचू ल तथा पुष्पचूला राख्यां. ए नाई बेन बन्ने रूपें सरखां, शरीरें सरखां, त थागु करी सरखां हतां. ते कालांतरें तरुण अवस्थाने पाम्यां एटले तेनां न करवानो विचार चाल्यो. राणी प्रमुख सर्व स्वजनोयें संसारनी रीति प्रमाणें पोतपोताना अभिप्रायो जणाव्या. ते योग्य बतां राजा पापबु दिने वश थई सर्वने लोपीने जाइ वेनने परगावी दीघां. कह्युं बे के "न गु पंति कुलं न गुणं, ति पावयं पुणमविय न गुणंति ॥ इस्स रिएहि मत्ता, तहेव परलोय मिह लोयं " जे स्त्रीने विषे मत्त थएला पुरुषो बे ते, कुल, पाप, तथा पुण्य, कांगता नथी. तेमज तेने या लोक खने परलोक सरखाज बे. हवे पुष्पचू ल ने पुष्पचूला बेहु धणी धणीयाली विषय जोगवतां जोइ पुष्पवती राणी ये राजाने अन्याय करतो वास्यो, पण राजायें कांहिं मान्युं नहिं. त्यारें तेणें वै राग्य पामी दीक्षा लोधी. पढी अनुक्रमें सारी रीतें दीक्षा पाली स्त्रीवेद बेदीने देवनी गतिने प्राप्त य. त्यां अवधिज्ञान प्रयुंज्युं. ते समर्ये ते जाइ त या वेननो संजोग देखीने तेउने प्रतिबोध करवाना हेतुथी पुष्पचूलाने स्व मां नरकनुं दुःख देखाडवा लागी. एटले ते साते नरकष्टथ्वीनां दुःख दे खीने महा जयने पामवा लागी. जाग्या पढी पण जेनुं शरीर कंपवा ला
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
२४७ ग्युं. ते सर्व दुःख पोताना पति पुष्पचूलनी पासें कहेवा लागी. एवं प्रति दिने थवा लाग्युं. त्यारें पुष्पचूलें सर्व अन्य दर्शनीयोने तेडावीने ते स्वप्न नो खुलासो पूबयो, त्यारे ते सर्व पोतपोताना मत प्रमाणे नरकनां दुःख कहेवा लाग्यां. पण तेमांनुं एके स्वप्नना अनुसारें मले नहीं, तेथी पुष्प चूलानुं मन माने नहीं. पनीराजायें अनिका पुत्र नामना जैन याचार्यने तेडावीने प्रन्यं, के तमारा दर्शनमां नरकनां पुःख कहेवां कह्यां? त्या रें आचार्य निःशंकपणे जैनमतमां जेवां साते नरकनां दुःख कह्यां . ते विस्तारें कही देखाड्यां, ते सांजलीने राणी कहेवा लागी के मारी पहें तमें पण स्वप्नमां दुःख देखो बो, एवं जणाय ! आचार्य कह्यु के, अमें स्वप्न मां नरकनां सुःख देखता नथी, पण अमारा जैनशास्त्रना अंनुसारें जाणी ये बैयें. राणीयें कह्यु,के ते शास्त्र कयां छे ? ते कहो. तेवारें आचार्य निरया वलिका नामना उपांगना आलावा कही संजलाव्या. त्यारे राणीयें पूबथु के, एवां नरकनां दुःख कोण पामे ? आचार्य बोल्या,सांनलोः- “कहणं नं ते जीवा नेरश्यान अत्ताए कम्मं पक्करंति,गोयमा महारंजयाए महापरिग्ग हयाए कुणिमाहारेणं पंचिंदिय वहेणं इच्चेएहिं हाणेहिं जीवा नेरझ्याउ अ ताए कम्मं पक्करंति” एवं सांजलीने राणी कहेवा लागी के, तमें मारो सं शय निवृत्त कस्यो. तमारी वार्ता मारा स्वप्नने मलती आवी. पली राणीयें घणा श्रादरें करीने ते गुरुनी वंदना करी, अने तेमने उपाश्रये पहोंचता कीधा. त्यार पड़ी वली कोइएक समयें पेलो पुष्पावतीनो जीव थएलो देव, ते पुष्पचूलाने स्वप्नमां बार देव लोकनां सुख देखाडवा लाग्यो. ते वा त पण ते पोताना पतिने कहेवा लागी. तेथी फरी तेणें अन्यदर्शनीयोने तेडाव्या, ने तेउने स्वर्गनां सुख केहवां ? एम पूज्युं. त्यारे तेयें कह्यु के रूडं खावं,सारं पीवं, स्त्रीविलास प्रमुख सुख जोगवियें, आनंदमां रहि ये, एज स्वर्गनां सुख दे. एवी वातो पुष्पचूलाना मनमां बेसे नहीं. त्यारे राजायें अनिकापुत्र आचार्यने तेडीने पूज्यु. के तमारा शास्त्रमा स्व गैनां सुख विषे केवी रीतें कर्तुं ? त्यारे तेमणे शास्त्रने अनुसारें बार देव लोकनो विचार, नव ग्रैवयेक पांच अनुत्तर विमाननो विचार कहेवानो
आरंन कस्यो. ते पेली राणी लक्ष् दश्ने सांजलवा लागी. तो पोताना व ननी साथें बधी वातो मलती आवे . एम जाणीने ते अति राजी थइ.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.४८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
66
नेते याचार्यने धुं के एवा सुखनी प्राप्ति केम थाय ? प्राचार्यै कयुं के सांजलो:- कहणं नंते जीवा सुहं कम्मं बंधंति, गोयमा सम्महंस सु श्री सब मा वयण काय जोगेणं इंदिय निग्गहे कोह विजएणं धम्म सुकना प्रायरिय नवनायाणं साहु साहम्मियाण नत्तीए दारा सी ल तव जावल पनावणाए वेराग्गेणं निस्संगयाए संविभागेणं इच्चेए हिं दसहिं गणेहिं जीवा सुहं कम्मं बंधंति ” ए शुभ कर्म बंधयकी जी व स्वर्गनां या बांधे, काल करी स्वर्गे जाय. तथा एग दिवसंपि जी वो, पवऊ मुद्दाग प्रममणो ॥ जइवि न पावर मुरकं, अवस्स मालि होई. " एवी रीतें जीव स्वर्गनां सुख पामे बे. एवं सांजलीने पुष्पचूला कवा लागी के, स्वामी ! याप उपाश्रयनविषे पधारो दुं मारा धणीने समजावीने त्यां यावी दीक्षा लईश मारा धर्माचार्य आप बो, माटें मा रेापनी पासेंज दीक्षा लेवी बे. कयुं ने के, “सम्मत्तदायगाणं, डुप्पडि यारं नवे बहुसु ॥ सवगुण मेलियाहिवि, उवयार सहस्स कोडी हिं. " ए
कही गुरुने वांदीने उपाश्रयें विदाय करुया. पढी पुष्पचूल राजाने सारी रीतें समजावीने पुष्पचूला राणीयें तेज याचार्यनी कने महामहोत्सव सहित दीक्षा लीधी. अने राजाना आग्रहथी त्यांज गुरु रह्या. अन्यदा प्रस्तावें गल बार वर्षनो दुष्काल पडशे, एवं ज्ञानवडे जालीने ते आचार्य सर्व साधुने सुनिन्छ देशनेविषे विहार कराववा लाग्या, त्या रें पुष्पचला साध्वीयें कयुं के, सुखें करी समस्त यतिने देशांतरने विषे विहार करावो. हुं यापनुं वेयावच्च करीश. ते सांजली तथा लान जाएगी ने पडिवज्ज्युं पढी पुष्पचूला घणी नक्तियें करी सेवा प्रमुख करवा ला गी. प्रतिदिन मनोज्ञ याहार पाणी लावी आपे अने गुरुने सारी रीतें साचवे. यतः " पुमेहि चोइया पुरकडेहिं, सिरि जायलं नविय सत्ता ॥ गु समागमेसिनदा, देवयमिव पकुवासंति. "एम करतां सदैव गुरुनक्तिना अध्यवसायें करी ते पुष्पचूना साध्वी, गुन नावनायें करी पक श्रे लि पामी; अनुक्रमें केवल ज्ञान कपन्युं तो पण तेविषे गुरुने कांई न जणावतां प्रथमनी पठेंज गुरुनक्तिमां तत्पर रही. यतः " जो जस्स य जा रिसयं, पुर्वि नत्तिं कुतिन होइ ॥ सो तस्स तारिसियं, कुणेइ जानक इन नाणी.” ते साध्वी गुरुना मननो अभिप्राय जाणीने जे वस्तुनी ते
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
१४॥ मने इजा होय, ते लावी यापे. ते जोईने गुरुने आश्चर्य थाय. तेथी पूले के, मारी बाप्रमाणेज तुने क्रिया करवान केम सूके ले ? त्यारे ते सा ध्वी कहे के जे जेनी सदैव सेवा करे, ते तेनी प्रकृति स्वनाव जाणी लिये जे. एक समयने विपे मेघ, सृष्टि करतां बतां ते साध्वीयें गुरुनी हा ने अनुकूल बाहार आणी आप्यो. गुरुयें पूज्युं के, वर्षा उतां केम
आहार आण्यो ? साध्वीयें कह्यु के, स्वामी ! अचित्त अपकायना मार्गे हीमतां आहार मल्यो, ते पाण्यो . ए निर्दोष बे. गुरुयें पूज्युं के, अचि त अपकायनो मार्ग तें केम जाण्यो ? साध्वीयें कह्यु के, आपना प्रसादें करी जाण्यो. गुरुयें कर्तुं कांई ज्ञान ? साध्वीयें कह्यु, आपना प्रसादें. गु रुयें पूब्युं, प्रतिपाति के अप्रतिपाति ? साध्वीयें कह्यु, अप्रतिपाति. गुरुयें पूज्युं, केवलझान? साध्वीयें कह्यु, आपना प्रसादें. त्यारे ते आचार्ये कह्यु के. में केवलीनी अाशातना करी. केम के केवली पासेंथी विनयवेयावच प्रमुख कराव्यां. एवी रीतें पोताने निंदवा लाग्या. घणी चिंता करवा ला ग्या. जे मने हजी केवलज्ञान उत्पन्न थयुं नथी. अने ए साध्वी धन्य ने, के एने थोडा कालमां केवलज्ञान ऊपy! एवो ते आचार्यना मननो आश य साध्वी केवलझानथी जाणीने कहेवा लागी के, हे गुरुजी ! आप खेद नहिं करो, आपने गंगानदी ऊतरतां केवलज्ञान ऊपजशे. हवे आचार्य गंगानदीना तीर ऊपर जई पेने पार कतरवामाटे एक नावमां बेठा, तेमां बीजा पण केटलाएक लोक बेठा हता, जे बाजु आचार्य बेला हता, ते बाजुयें एक मिथ्यादृष्टि देवांगना यावी नावने मूबाडवा लागी अने नाव मां पाणी जरावा लाग्युं,त्यारें लोकोयें ते आचार्यने त्यांथी कगाडीने बीजे काणे बेसाड्या. त्यारे ते ठेकाणे पाणी जरावा लाग्यु;अने ते ठेकाणेथी ना व बूडवा लाग्यु. एवी रीतें लोको जुदे जुदे ठेकाणे ते याचार्यने बेसाडे, ते ठेकाणें नाव बडवा लागे,एम थवा लाग्यु. तेथीलोकोयें आचार्यने कपाडीने पाणीमां नाखी दीधा. त्यारे पेली देवागनायें नीचे त्रिशूल धयुं. ते शरीर मां नोकायाथी त्रिशूल लोहीयें नराई गयु, तेथी अपकायनी विराधना थवा लागी. ते पापनी ते गुरुनिंदा करवा लाग्या. एटले मारा रुधिरथी अपकाय नी विराधना थाय ने ! तेथी ढुं हिंसक रूं .एवी रीतें जीवदयाना शुन अध्यवसायने लीधे पकश्रेणि आरोहीने अंतगड केवली थया. ते स
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. मयें देवोयें केवल ज्ञाननो महोत्सव कस्यो. त्यां प्रयाग एवे नामें तीर्थ थयुं. ते लोकने कामित दानथकी ते तीर्थनो महिमा वध्यो. हवे पुष्पचू ला साध्वी पण अनुक्रमें वेदनीय, नाम, गोत्र अने आयु, ए चार कर्म क्ष्य करीने मोदें पहोती. एवी रीतें “सुमुणिय परमन जई जण निसेवा, ए सदहणानो बीजो नेद उक्त दृष्टांत सहित जाणवो.” । ___ हवे वावरम वळणं, ए सहहणानो त्रीजो नेद कहे जेः
॥ वावरम दसणाणं, निएहव हाबंद कुग्गह हयाणं ॥ नम्मग्गु वएसे हिं, बलावि मलिज ए सम्मं ॥ ११॥ अर्थः-मिथ्यात्वें करी व्यापन्न एट ले नष्ट,दर्शन अर्थात् मिथ्यात्वें करी व्याप्त ने सम्यक्त्व जेनुं तेने वावरम दं सण एटले व्यापनदर्शन कहिये. तेना धरनारा एवा निन्दव एटले जगवंत श्रीवीतराग देवनां वचनोना नापनार. यथाबंद एटले पोतानी इलायें प्रवर्ने, गुरुनी बाप्रमाणे चाले नहीं ते. एविषे श्रीप्रवचनसारोबार सू त्रमा कह्यु डे के, " पासबो उस्सन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो॥ यह बंदोवि य एवं, अवंदपिका जिमयंमि" तेमां पासबाना वे प्रकार :- एक देशपासबो, बीजो सर्वपासबो, तेमां जे शय्यातर पिंम सामे आवेलो पिंम, नित्यपिंम तथा अयपिंम कारण विना लिये, ते देशथी पासबो कहेवाय. अने केवल लिंगधारी होय ते सर्वथी पासबो जाणवो.
नत्सनना पण बे प्रकार :- एक देशोत्सन्न बीजो सर्वोत्सन्न. तेमां "अावस्सय सनाए, पडिलेहण जाण निरक अनत्तहे॥ आगमणे निग्गम णे, हाणे निस्सीयण तुय?” नावार्थः-यावश्यक सद्यायादिक करे नहीं, अने जो करे तो अधिका उना करे. तेने देशथकी नस्सन्नो कहिये. अनेक तुबह कालनेविष पीढ फलग निःकारण वावरे, तथा स्थापनापि नोग वे, संथारो पाथस्यो राखे, तेने सर्वथकी सन्नो कहियें.
कुशीलीयाना त्रण प्रकार :- झानकुशील, दर्शनकुशील, तथा चारि त्रकुशील. तेमां जे “कालें विषये बहुमाणे” इत्यादिक आठ प्रकारे झा नाचार विराधे, तेने ज्ञानकुशीत कहिये, “निस्संकिय निकंखिय” इत्या दिक आठ प्रकारे दर्शनाचार जे विराधे, तेने दर्शन कुशील कहिये, अने “ पणिहाण जोगजुत्ता" इत्यादिक आउ चारित्राचार विराधे, तथा
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१५१ कारण विना मंत्र, यंत्र ने तंत्र प्रमुख कोइने करी थापे, निमित्त कहे, तथा औषधादिक उपचार करे, तेने चारित्र कुशील कहियें.
संसक्त एटले जेम बलदनी खागल तेना खाणनो सुंडलो राख्यो होय, ते खाल ते बलदें खाधुं होय, तेथी ते सुंडलो कांइक बिष्ट खाल श्री खरडायेलो होय, ने कांइ अनुतिष्टथी खरड्यो होय. तेम जे कांइक मूलगुण तथा उत्तरगुणनो विराधक होय ने कांइक व्यविराधक होय. तेने संसत्तो जावो. तेना वे नेद बे:- एक संक्लिष्ट ने बीजो संक्लिष्ट. मां जे पांच श्रवनेविषे प्रसक्त होय, त्रण गारवें करी प्रतिबद्ध होय, कोई गृहस्थ तथा गृहस्थिलीना बोकरा डोकरीनी चिंता करे, खाने तेना दुःखें डुःखी ने तेना सुखें सुखी थाय तेने संक्लिष्ट संसक्त कहियें, तथा कोइ पास मले तो पोतें पण तेनी सायें पासो बनी जाय, संवेगी मले तो संवेगी जेवो थइ जाय, एवी रीतें जे जेवो मले तेनी साथै स्फटिक मणि नी पढें अथवा तेलनी पठें तेवो यह जाय. तेने संक्लिष्ट संसक्त कहियें. हादवि कहे बेः- “ नस्सत्त मायरंतो, वस्तुत्तं चैव पसवेमाणं ॥ एसोहु प्रहानंदो, इवाबंदोत्ति एगठा " नावार्थ:- जे पोतानी इब्बायें चाले, तेनेवा बंद कहियें. हवे 'कुग्गह हयाणं ' खोटे हवे करी हणायेला, जे कदाग्रहनी शास्त्र साख दिये नहिं, तथा सुविहित शुद्ध प्ररूपक याचा ये पण साख दिये नहीं एवो हठ पकडीने बेसी रहे, पोतानो हठ मूके नहीं, तेने कुग्रह हत कहियें. एवाना 'नम्मग्गुवएसेहिं ' एटले उन्मार्गना उपदेशें कर (बलाव के ० ) बलात्कारपणे प्रथमथीज ( ए सम्मं के० ) ए स म्यक्त्व ( मलिक के ० ) मलिन थाय बे, माटे तेवानी देशना प्रमुख पण सांजली नहीं. केम के, नरसी वात सांनव्याथी पण पाप लागे बे. जेम मशिनो घणो संग करनारना कपडां कालां थायले. तथा लशण खाधाथी मुख गंधाय बे, तेम एवानी संगत करवाथी सम्यक्त्व मलीन थाय बे ॥११॥
:
॥ एनी ऊपर जमालीनुं दृष्टांत कहे बेः- “खाजी वगगणनेया, रक्त सिरिं पयहि काय जमाली ॥ हियमप्पणी करितो, नयवय पिके इह पडतो " ३ ति उपदेशमालायां ब्राह्मणकुंम गामनी पश्चिम दिशाने विषे एक क्षत्रियकुंम ना गाम बे. त्यां जमाली नामनो छत्रिय प्रति ऋद्धिमान होतो ह वो. ते जगवंत श्रीमहावीरस्वामीनी पुत्रीने परस्यो. तेनी सायें पांचे इं
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
यिोनां विषयसुख जोगववा लाग्यो, हवे कोई एक समये त्यां श्रीम हावीरस्वामी पधाया. तेमने नंदीवर्धन राजा प्रमुख वांदवा याव्या; त्या रें जमाली क्षत्रिय पण वांदवा श्राव्यो, ने धर्मदेशना सांजलीने प्रतिबोध पाम्यो. पठी घेर जर पोताना माता पिताने समजावी पोतानी स्त्री सहि त महोटा महोत्सवें करी। दीक्षा लीधी. तेनी सायें बीजा पांचों त्रिकु मरें दीक्षा लीधी. अनुक्रमें अग्यार अंग नस्यो. एक दहाडे श्रीभगवंत प्र त्यें पूयं के स्वामी ! पनी खाज्ञा होय, तो हुं या पांचों यतिनी सा थें देशमां विहार करूं ? ते सांजलीने जगवान् मौन धारण करी रही गया. कां जबाव वाव्यो नहिं. फरी बीजी वार पूजयं तेनो पण उत्तर वाल्यो नहिं; तेमज त्रीजी वार पूब्धुं तो पण तेमज मौनपणे रह्या. केम के, के वली जे वातमां लान जाणे, तेनीज खाज्ञा प्रापे. अने जेने खाज्ञा मा नतो जाणे, तेनेज निवारे. जगवंतें जाएयुं के मारो वास्खो रहेशे नहिं. एवि हार करवाने प्रति उत्सुक थयो छे तेने हुं शा सारु वारुं ? माटें जगवंतें मौन धारण करूं. त्यारें श्राज्ञा लीधा विनाज जमालीयें नगवंतथी जुदो विहार करो. ते फरतो फरतो सावळी नगरीमां श्रावी पहोतो. त्यां कोष्ट क चैत्यमां पांचों यतियोनी साथै यावी कतो. खने भगवान् श्रीमहा वीर, चंपानगरीमां पधाया. जमालीने अरसाहार, विरसाहार, अंताहा र, पंताहार तथा तुम्बाहारें करी शरीरने विषे तीव्र दाहज्वर उत्पन्न थयो. तेनी वेदना खमाय नहिं. त्याऐं एक वेयावच्च करनार यतिने कयुं के हुं बेशी शकतो नथी, माटे एक संथारं पाथरो. ते सांजली यति संथारुं पाथरवा गयो. त्यां कांइक वार लागी. तिहां सुधी जमालीथी वेदनाने लीधे बेसा युं नहिं. तेथी वारंवार पूढवा लाग्यो के, खरे संथारुं पाथखं के नहिं ? यति यें कयुं के, हा पाथ. त्यारे ते त्यांथी कठीने ज्यां पेलो यति संथारुं पा थरतो हतो, त्यां गयो जुवे बे तो हजी संथारं पथराय बे. तेथी पेला यति कयुंके, तें केम कयुं जे में संथारुं पाथयुं ? यतियें कयुं के, पाथरवा मांnj, ते पाथ कहेवाय ते समयें जमालीना मनमां एवो संकल्प क पनो के, श्रीभगवान् महावीरस्वामीयें जे करवा मांमधुं ते कीधुं, एवं जे वचन कहेनुंबे, ते खोदुं बे. जे कीधुं तेज कीधुं कहेवाय. माटे चलमा चलिए, नदीरितमाणे नदीरिए, वेदिकमाणे वेदिए, पहिऊमाणे पहि
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रसम्यक्त्वसित्तरी.
१८३
ऐ, बिक्रमा बिस्मे, निक्रमाणे निन्ने, दनमाणे दो, मेघमाणे मेए, तथा निरिक्रमाणे निकरणे. ए नवे पद असत्य बे. केम के, जे चाल्युं तेज चाल्युं कहेवाय: एमज नवे पद जाणी लेवां.
पढी ते पोतानुं मत यतियोने समजाववा लाग्यो. तेमां केटलाएक जे मुग्ध यतियो हता, तेयें तो तेनुं मत मानी लीधुं. खने केटलाएक जे समजु हता तेयें मान्युं नहिं. ते मनमां विचार करवा लाग्या के, नग वान् श्रीमहावीर केवलज्ञानभास्कर तेमनां वचन खोटां केम थाय ? एम जाली पोतानी सद्दहणाथी चव्या नहिं. केटला एक दिवस पढी जमालीने समाधि य. त्या फरी विहार करवा लाग्यो. तेनी साथै जे तेना मतने मलता यति हता, तेरह्या ने जे यणमलता हता, ते त्यांथी नीक ली जइने चंपानगरीमां ज्यां जगवंत हता, त्यां यावी प्रजुने वांदीने रह्या. केटला एक दिवस पबी जमाली पण चंपानगरीमां श्रीवीरजगवंतनी पासें याव्या. यने यति दूर पण नहिं तेम प्रति पासें पण नहिं एवा मेलमां रहने पूब्वा लाग्यो के, जेम तमारा बीजा यतियो बद्मस्थपणे विहार करीने द्मस्थपणेज रह्या बे. तेवो हुं नथी. हुं तो बद्मस्थपणे विहार क रीने केवल पणे विचरुं बुं, जेम तमें केवली हो, तेम ढुं पण केवली बुं. एवी रीतें बराबरी करवा लाग्यो, ते वात गौतमस्वामी सांखी शक्या न हिं.ने मनमा विचारवा लाग्या के, महोढुं श्राश्वर्य बे. उस, जे सूर्यनी बराबरी करे ? गरुड, शेषनागनी बराबरी करे ? तेम ए नगवाननी बराबरी करे बे. एम जाणी गौतम तेने पूढवा लाग्या. घरे जमाली ! जोतुं केवली हो तो मारा प्रश्ननो उत्तर व्याप. लोक शाश्वत बे के प्रशाश्वत बे ? अने जीव शाश्वत बेके, शाश्वत बे ? एवं सांजलीने जेम मंत्रथी वश थएलो साप हाली शके नहीं. जेम खीव्यो अनि श्राघो चाली न शके तेम ते गौतमना प्रताप नामकर्मने लीधे तेनी खागल जमाली मूकनी पठें बनी गयो. कांदि जबाप देवाय नहीं. बोल्या विना एमने एम रही गयो. कांई प्रत्युत्तर देवानुं सूजे नहीं एम जाणीने तेने जगवंत कहेवा लाग्या के, ए प्रश्ननो उत्तर तो मारा बनस्थ शिष्यो पण दइ शके. तो तुं केवली बतां केम ताराथी उत्तर देवातो नथी ? एवं सांजलीने जमालीने घणुं मातुं लाग्युं, तेथी भगवाननी खाज्ञा नंघी त्यांथी नीकलीने निन्द्रवपणे विचरवा लाग्यो. ने केट
२०
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. लाएक मुग्ध पुरुषोने पोताना कुमतमा आणवा लाग्यो. एम घणा वर्ष सुधी निन्हवपणुं नोगवीने अंतसमय जाणीअगसण करा. पंदर दिवसनु अणसण पालीने पापने अणालोए अपडिक्कमे थके काल करीने बहा लांतक देवलोकनेविषे तेर सागरोपमने आनखे समस्त देवोमांहे ढेडनी बराबर किल्बिषी देवोमां जा देवपणे नपनो. ___ गौतमस्वामीयें जमालीन मरण सांगली श्रीनगवान प्रत्ये पूब्युं के, हे जगवन् ! जमाली काल करीने क्यां गयो ? लगवाने कह्यु, महारो कुशिष्य जमाती लांतक देवलोकें किल्बीषी देव थयो . नक्तंच ॥ जमालिणाम कु सिस्से आयरिय पडणिए, उवद्यायपडणिए, कुलपडपिए, गणपडणिए, सं घपडगिए, आयरिय उवद्यायाणं अजसकारए, अवलकारए, अप्पाणं च परंच तनयं च बुग्याएमाणे, वुप्पायमाणे, बदुई वासाइं समणं परियायं पानणंति, पाउणित्ता, अक्ष्मासिघाए संलेहणाए, तेसिं नत्ता, अणसणा ए दित्ता,तस्स गणस्स अणालोश्य, अप्पडिकंते, कालमासे, काले किच्चा संतए कप्पे नववस्म, जमालिणं नंते ताउ देवलोगाउँ आउरकएणं नवरक एणं विश्कएणं कहिनववाहिहंति गोयमा चत्तारि पंच तरिरक जोणिय मस्त देवनवग्गहणाई संसारं अणुपरियष्टित्ता त पन्ना सिङहंति जाव अंतकरिति ॥ इति नगवतीसूत्रे ॥
हवे जमालीना नव आश्रयी ग्रंथांतरथी लखीये बैयें. "आयरियपरं परए,ण थायगजोउ आणुपुबीए ॥ कोवे बेयवार,जमालिमांसं स नासिहिं ॥ १ ॥ व्याख्याः- आचार्यनी परंपरायें अनुक्रमें श्राव्यो जे अर्थ ते प्रत्ये (कोवेश के० ) कूप्यति दूषयति एटले कोपतो दूपवतो कहेवो थको? तोके (बेयवाई के०) छेकवादी एटले ढुं माह्यो , एवं अनिमान धरतो थको एवो जमाली नामा निन्हव ते नासनी पेरें कयमाणेकडे इत्यादि जगवंत ना वचन नन्हापन करतो थको ते नाठो एटले संसारचक्रवालमांहे परि चमण करवे करी अदृश्य थयो. एना दृष्टांते जे प्राणी स्वमत कदायहें करी एके वचन, नत्सूत्र नाषण करशे (सनासिहिं के०) ते नासशे. एटले सं सारचक्रवालमांहे नमशे अदृश्य थशे. इति सूयगडांगनियुक्तौ ॥
इव्यलिंगें करी निन्दवना गणनो स्वामी पोतानी राज्यश्री प्रत्ये बांझीने माहामहोत्सव सहित दीक्षा लीधी. एवो जे जमाली ते जो आपणा आ
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२५५ त्मानो हितवंडक थयो होत, तो नगवानना " कयमाणेकडे” इत्यादिक वचन बापत नहीं, तो इहलोकें लोकनिंदाने विपे पडत नहीं अने नि न्हव कहीने लोक वगोj करत नहिं. पण नगवंतनां वचन महापीने निन्हव थयो,लोकोमा निंदा पाम्यो, वगोवाणो अने जगवाने कुशिष्य करी बोलाव्यो, वली संसारमा अनंता नव करशे. ए उपदेशमालानी हेयोपा देय वृत्तिमां तथा उपदेशमालानी सिझर्षिकत वृत्तिमा कडं .
ते जमालीनो जीव तिर्यंच तथा मनुष्य तथा देवताने विषे केटलाएक नवन्रमण करीने फुरंत घणाकालें श्रीमाहाविदेहने विषे मनुष्य जन्म पा मी मोदनगरें जाशे. ए उपदेशमालानी कर्णिकामां कयुं .
हमणां लांतकदेवलोकथी चवीने पनी तिर्यंच तथा मनुष्यने विषे पां चवार जमीने हडे सम्यक्त्व पामी मोदप्रत्ये पामशे. इति वीरचरित्रे॥
तथा वीरजगवाननी पुत्री महासती साधवी हती, तेणें जश्ने जमाली ने प्रतिबोध्यो पण बज्यो नहीं, निन्दव थयो घणीज तपस्या करी तो पण अनंतसंसार उपायो, ए वात श्रीसोमसुंदर सूरिक्त उपदेशमालाना बालावबोधमां तथा श्रीहरि विजयसूरिप्रसादें करेला प्रश्नोत्तरसमुच्चय ग्रं थमाहे कही . तथा श्रीनगवतीसूत्रानुसारें पन्नरनव संसारमा करवा क ह्या . इत्यादिक घणा ग्रंथोनी जूदी जूदी साख जोड्ने जमालीना नव आश्रयी को हठ करशो मां. ज्यां जेहवो पाठ देखो,त्यां तेहबुं व्याख्यान करजो. तत्त्व तो केवलीगम्य ले. जेवट केवलीयें दी होय अने जे केवली ये कह्यु होय, तेज प्रमाण ले, एम कहेजो. जेथीलूटकबारो थाय पण पो ताना हल्थी नवा अर्थ करशो नहीं, जे ए वातने विषे हो करीने स्वम त कदाग्रह पोषशे, ते जमालीनी पेठे दीर्घसंसार परिचमण करशे. अने ते जमालीनीज पंक्तिमां बेठो गणाशे. एत्रीजी सदहणानुं स्वरूप कडुं.
हवे कुदृष्टि वर्जन रूप सदहणानो चोथो नेद वखाणे :॥ मोहिऊ मंदमई, कुहिहि पयणेहिं गुविल ढंढेहिं ॥ दूरेण वङियवा, तेण में सु६ बुद्धीहिं ॥ १२॥ अर्थः-(मोहिजर के०) मोह पमाडी ये अज्ञान मांहे पाडीयें (मंदमई के०) मंदमति एटले तुब बुद्धिवाला जीवो प्रत्ये जे कारणमाटे जे उत्तम बुद्धिवाला जीवो ले तेमने तो मि थ्यात्वीनी संगति लागेज नहीं जेम सर्पना मणिने सर्पनी दाढा संबंधी
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
- जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जे विष , तेनी संगति लागेज नहिं. सहामुं विषने उतारी नाखे, परंतु के टला एक जीव वस्त्र सरिखा २ ते जेम वस्त्रने जेहवा रंगमां नारखीयें ते वो रंग लागी जाय, तेम केटला एक मनुष्यो पण वस्त्रनी पेवेंज " जब गया तब रंगिका” एटले ज्यां गया त्यां रंगा जाय, एवा . तेमने मो ह पमाडीयें, ते शेणे करी मोह पमाडीयें ? तो के (कुदिहिवयणे हिं के०) कुदृष्टि जे मिथ्यादृष्टि त्रणशे त्रेशन पाखंमीयो , तेमने वचनें करी ॥ य तः ॥ असिश्सयं किरियाणं, अकिरिय वाईण हो चुलसीई ॥ अन्नाणिय सत्तही, वेश्यावं तु बत्तीसा ॥१॥ अथवा कुदृष्टिनां वचन जे रामायण नारतादिक शास्त्रे करी मुग्धमति जीवोने मोह पमाडीयें, तेने आगम शास्त्र सांजलतां मीठां न लागे अने कुशास्त्र सांजलवाने उजाता जाय.
हवे ते कुदृष्टिनां वचन कहेवां ? तो के (गुविलढंढेहिं के) गहन गहनांतर कपटनां प्रतिपादक बे, जे शास्त्रोमा पूर्वापर संबंध मले नहिं एवा वचनोनी रचना करेली , एवां वे माटे ते जीवने मिथ्यात्वमा पा डे, तेथी ते कुदृष्टिनां वचन (दूरेण वलियबा के० ) दूरथी वर्जवां. अर्थात् सांजलवां नहीं. उक्तं च उपदेशमालायां ॥ आलावा संलावा, विसंनो सं थवो पसंगो य ॥ हीणायारेहि समं, सबजिणंदेहि पडिकुछो ॥ १ ॥ (तेण के०) ते कारणमाटे ( इमे के० ) ए कुदृष्टिनां वचन जे , तेने (सुम बुझीहिं के० ) शुभ एटले निर्मल बुद्धिवाला जीवें, सांजलवां नहिं ए सद हणानो चोथो नेद कह्यो ॥ १२ ॥
हवे एनी उपर गिरिशुक अने पुष्प शुकनो दृष्टांत कहे :॥ कादंबरी अटवीमां वटवृद्ध ऊपर सूडानां बे बच्चा हतां,ते वेदु सहो दर हतां, तेमांथी एक बच्चांने निन्न लइ गयो ते पर्वतनी पालीमां वध्युं. ते नणी तेनुं गिरिशुक नाम थयु. अने बीजुं तापसें लीधुं ते तापसोनी पुष्प वाडीमां महोटें थयुं तेथी तेनुं नाम पुष्पगुक पाडयु. एकदा वसंत पुरनो स्वामी वक्रशिक्षित घोडायें अपहस्यो थको अटवीमां आव्यो, ते राजाने देखी निन्ननो पालेलो शुक बोल्यो के, अरे निन्नो दुसीयार था. कोक असवार रूडा आनरणे अलंकृत थको एकलो जाय , माटे तेने लूंटो, मारो, फाडो. ते वचन सांजली राजा जयनांत थयो थको घोडाने उतावलो चलावतो पागल तापसोने आश्रमें आव्यो, तेने दूरथी श्राव
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसमम्यक्त्वसित्तरी. तो देखी पुष्पगुक कुलपतिने कहेवा लाग्यो के, हे स्वामिन् ! कोई एक रू डो असवार अतिथि प्रापगी पासें आवेने, माटे यासन यापो. खान पान तैय्यार करी एनी परोणागत करो. ते सांजली तापस सावधान थ या. राजाने आसन आपीआगल वनफलादिक मूक्यां. राजा वनफल था रोगी स्वस्थ थइ पनी वेदु सूडाना बोलवामां महोटो तफावत जाणी श्रा श्चर्य पाम्यो थको पूबवा लाग्यो. के तमें बेदु सूडा सरखा देखा डो. तेम बतां गुण दोषमां एवडो श्यो अंतर पड्यो ? ते सांजली पुष्पगुक कहेवा लाग्यो के हे राजन् ! अमारा माता पिता एकज , साथेंज जन्म्या बैयें, पण तेणे रात्रिदिवस चोरोनी संगति करी ,अने मने तापसोनी संगत जे. माटे जेवी संगत तेवी बुद्धि थाय ,ते वचन सांजली राजा हर्ष पाम्यो,ए टलामां राजानुं लश्कर पण त्यां आवी पहोच्युं, पनी राजा तापसो पा सेंथी रजा मागी पोतानी नगरीये आव्यो, अने संगतने लीधे दोप गुण प्राप्तिनी प्रशंसा करवा लाग्यो. इति कथा ॥ ए सुविहित शुद्ध प्ररूपकना मुखथी शास्त्र सांजलवां पण अन्य दर्शनीना कुशास्त्र सनिलवां नहिं. एवो सदहणानो चोथो नेद दृष्टांतसहित कह्यो॥
इतिश्रीतपागजालंकार नट्टारक श्रीहरि विजयसूरीश्वर पट्टालंकार श्रीवि जयसेनसूरीश्वर पट्टप्रानाविक श्रीविजयदेवसूरि विजयमानराज्ये महो पाध्याय श्रीसकलचंगणिशिष्य श्रीजंबूदीप प्रज्ञप्तिनपांगवृत्तिकारक महो पाध्याय श्रीशांतिचंगणि शिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिनिः श्रीसम्यक्त्व रत्नाधिष्ठान श्रीसूर्यपुरादि चतुर्विधसंघस्य चतुर्दशाष्टम्यादिपर्वसु अप्रमत्त तपपौषध प्रतिपालनार्थ विरचिते श्रीसम्यक्रत्नप्रकाशिनामनि श्रीसम्य क सप्ततिप्रकरणबालावबोधे चतुर्नेदश्रदानस्वरूपनिरूपणनामा प्रथमोऽ धिकारः संपूर्णः ॥ १ ॥
हवे समकेतना त्रण लिंग कहे :॥ परमागम सुस्सूसा,अपुरा धम्म साहणे परमो जिव गुरु वेया वच्चे, नियमो सम्मत लिंगाइ ॥ १३ ॥ अर्थः-प्रथम (परमागम सुस्त सा के०) परम प्ररुष्ट आगमने विषे शुश्रूषा एटले सांजलवानी वांबा होय यतः ॥ सुस्सूसइ पडिपुलर, सुणे गिएहश्य एयावि ॥ तत्तो अपोह एवा, धारे करे वा सम्मं ॥ यदागमः ॥ सवणे नाणेय विनाणे,पञ्चरकाणेय सं
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
जमे ॥ निहए तवे चैव, बोदाणे व्यकिरिय निवाणे ॥ १॥ समकेत धारी होय ते यागम सांजलवा वांबे. ए सम्यक्त्वनुं पहेलुं लिंग एटले चिन्ह जाणवुं.
बीजं (पुराधम्मसाहले परमो के० ) धर्मसाधनने विषे मननी प रमप्रीतिपूर्वक परम अनुराग दोय, एटले धर्म करवाने विषे उत्कृष्ट नज माल होय, धर्मकार्यमा अंतराय न करे, जे धर्म करतो होय तेहने सहा यापे, ए बीजुं धर्म साधनने विषे अनुराग रूप लिंग जाणवुं ॥
त्रीजुं ( जिव के० ) रागादिक अढारदोषें रहित एवा जिनेश्वर देव च तां वली (गुरु के० ) पंचाचारना प्रतिपालक गुरु, तेमना ( वे याचे के०) वेयावच्च करवाने विषे ( नियमो के ० ) नियमवंत होय एटले म हारे या अमुक वेयावच्च अवश्य करवुंज. ए रीतें सम्यक्त्व धारीने श्रीजिनदेव तथा गुरु जे सुसाधु तेनावेयावच्चने विषे राग होय. ते त्रीजुं लिंग जाणवुं ॥ उक्तं च ॥ दसविहे वेयावच्चे पत्ते तं जहा खायरिय वेयावच्चे, उवद्याय वेयाव चे, थेर, तवस्सि, सेह, गिलाण, कुल, गण, संघ, साहम्मिय वेयावच्चे ॥ इति स्थानांगसूत्रे ॥ वेयावच्चेणं नंते जीवे किं जाइ, वेयावच्चेणं तिलयर नाम गोय कम्म निबंध || इति उत्तराध्ययन सूत्रे ॥ एत्रण (समत्तलिंगाई के ० ) सम्यकदृष्टिनां लिंग एटले चिन्ह जाएवां ॥
हवे एज त्रण लिंगनुं विशेष स्वरूप कहे बे:
॥ तरुणो सुही विट्ठो, रागी पियपयिणीकुन सोनं ॥ ३४६ जह सुरगी यं, तहिया समय सुस्सा ॥ १४ ॥ अर्थः - ( तरुण के० ) युवान वय वालो वली (सुही के०) सुखी होय तेवा पुरुषने स्वनावेंज गीत नाट्या दिक वल्लन होय यतः ॥ नवि वि नवि होहि पाए तिमि सो जीवो ॥ जो जुवण मणुयत्तो, विचारही सया होई ॥ इति ॥ १ ॥ तथा ( fast ho ) विदग्ध एटजे दक्ष होय एटले तरुण तथा सुखी होय परं तु जो विदग्ध एटले दक्ष चतुर न होय तो तेने गीतादिक वल्लन न होय माटे जे तरुण तथा सुखी कह्यो तेम वली माह्यो चतुर पण कह्यो ॥ यतः ॥ जली न जाणे गणी न जाणे, उंचो बेठो माले ॥ महीपी आागल किन्नर गाये, बंधे ने गाजे ॥ १ ॥ तेमाटे विदग्ध पण कह्यो वली कहेवो होय ? तोके (रागी के०) वसंत भैरवादिक बत्रीश राग तथा ते रागनी मूर्छना त था कषन प्रमुख सात स्वर, त्रण ग्राम, त्रण मात्रा प्रमुखनो जाएंग होय,
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२५ तेने रागी कहीयें जेमाटे को विदग्ध होय पण जोराग रागणीनो जाण न होय तोपण तेटली तेमां चतुराई न्यून कहेवाय. केम के सर्व चातुर्यमां रा गर्नु चातुर्य आवडवं ते अत्यंत दुष्कर ,तेमाटे ते रागनो जागनारो पण होय ए पण विशेषण लीधुं,वली कहेवो होय ? तोके जेम श्रीरामचंइने सी ता वल्लन हती, पांमवोने ौपदी वन्नन हती, श्रीकृष्णने राधा, ईश्वरने पार्वती, इंश्ने इंशणी, नल राजाने दमयंती राणी, अत्यंत वजन हती ते म ते पण (पियपणयिणी के० ) अत्यंत प्रिय एवी प्रणयिनी एटले स्त्री तेणे करी (कुन के०) युक्त होय एटले मुख तो पूर्णचंशकार होय, ना ल अईचं समान होय, होठ प्रवालाना रंग जेवा होय, नासिका दीप शिखा समान होय, तथा मुखमांहे जाणे हंसनी पंक्तिज वेठी होय नहिं? एवा दांत होय, विशाल नीलोत्पल समान नेत्र होय, कामराजाने हिंचक वाना हिंमोला सरखा कान होय, तेमज हार, अबहार, कुंमल, बाजुबं ध, कटिमेखला, कंकण, मुश्किा , नेपुर आदिक अनेक आनरणें करी अ संकत होय,एवी स्त्री ते पूर्वोक्त पुरुषनी पासें बेठी थकी पाननी बीडी करी थापती होय. कटाक्ष बाणे करी मारती होय, एवो पुरुष (जह के जे म ( सुरगीयं के ) सुर जे देवता तेहना गीत प्रत्ये (सोनं के० ) सांन लवाने (श्व के०) ने एटले मनुष्यने देवतानां गीत क्याथी सांजल वामां आवे तेमाटे जेवा देवतानां गीत होय तेवां गीत सांजलवानी हा करे. एवो अर्थ करवो ए जेम पूर्वोक्त तरुणादि गुणवालो ते देवता संबंधी गीत सांनलवानी ला करे तेम उत्तम श्रावकने (तहिया के ) तेथकी पण अधिक (समय के० ) सूत्र सिक्षांत तेने विपे (सुस्सूसा के० ) गु श्रूषा एटजे सांजलवानी श्वा होय ॥ १४ ॥
हवे ए शुश्रूषा धर्म नपरें सुदर्शनशेठ अने अर्कुनमालीनो दृष्टांत कहे बेः- एहज जंबूही दहिणजरतत्रने विषे मगधदेशे राजगृही नगरीमां श्रेणिकराजा राज्य करे , तेनो अनयकुमार मंत्रीश्वर , ते राज्यनीति चलावे . तिहां अर्जुन नामें एक महर्दिक माली वसे ले. ते प्रतिदिन जलपानानिग्रह संयुक्त पोतानो कुलदेवता मुजरपाणि नामें यद ने, तेनी पूजा करे . एकदा प्रस्तावें ते माली हाथमां करंमीयो लइ पोतानी ना यो सहित फूल लेवाने माटे उद्यानमां गयो, तिहां फूल लइ यह प्रत्येपू
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
जवा निमित्ते देवगृहमांहे पेठगे, एनी बंधुमती नामें स्त्री अत्यंत रूपें करी सुंदर बे.
एवामां राजगृहनगरीने विषे व गोष्ठील पुरुष वसे बे. ते सात व्यसनना सेवनारा, ते अर्जुनमालीनी स्त्रीने घणा दिवसथी ताके बे, पण वसर पामता नथी. ते याजे अवसर पामी मुङ्गरपाणि यदना देरासरमां हे बना रह्या बे, ते जेवो अर्जुनमालीयें देरासरमां प्रवेश कस्यो, तेवोज ते पुरुष तेने हालचाली शके नहिं. एवा खाकरा बंधने बांध्यो, अने तेमालीने देखतां तेनी स्त्री बंधुमती साथै जोग जोगवा लाग्या, ते देखी मालीने घणो क्रोध चड्यो, पण करे गुं? जे पोतें बांध्यो पड्यो वे उठी शक्तो नथी ॥ यतः ॥ सह्यंते प्राणिनिः सर्वैः, पितृमातृपरानवाः ॥ नार्यापराजवं सोढुं तिर्यचोऽपि नहि क्षमाः ॥ १ ॥
पढी ते माली, यक्षप्रत्यें उलंनो देवालाग्यो के हे यक्ष ! तुं महारो कुलदेवता बो, तहारी प्रतिदिवस हुं पूजा करूं बुं. तेम बतां तहारा देखतां मुक बंधने बांधीने महारी स्त्रीनी साथै स्वेच्छायें रमे बे, तेथी हुं जाएं बुं जे तुक्रमांकां शक्तिज नथी निरर्थक हुं पापाराज पूजुंबुं. एवं सांजलतां जय कोपायमान थयो थको मालीना शरीरमांहे संक्रम्यो तेवारें जेम सडेली दो जोडी नाखीयें तेम ते बंधन त्रोडी नाख्यां ने पव्यसहस्र प्रमाण लोहनो मुजर यन। प्रतिमाना हाथमां हतो ते एणे हाथमां ली धो, ते मुजरें करी बंधुमती सहित व गोष्ठीलपुरुषने मारी नाख्या, पबी प्र ति दिवस व पुरुष ने एक स्त्री एम सात माणसने मारे, तेवारें क्रोध उपशमे, तेथी खाखी राजगृही नगरीमां हाहाकार थयो. राजायें पढ़ वजडाव्यों के ज्यांसुधी अर्जुन माली सात माणसने मारीने पोताने स्थानकें न गयो होय, तिहांसुधी कोई माणसे बाहिर निकल नहीं. एम ब महीना वीत्या.
एवामां नामे पण सुदर्शन खने परिणामें पण सुदर्शन एवो सुदर्शन नामे शेठ तिहां से बे. ते धर्मने विषे परमरागी बे खागम सुणवाने रुचि वंत बे, दश प्रकारना मिथ्यात्वनो बांमनार बे, हवे ते सुदर्शनशेठ जगवं तान्या सांजली मातपिता प्रत्यें महाकष्टें समजावीने प्रजुने वांदवा नि कल्यो. तेवामां यक्षावेशें अर्जुनमाली पण हाथमां मुजर उपाडीने सुदर्शन शेठने मारवा दोड्यो तेने श्रावतो देखी उत्तरासंगें भूमिका पूंजी भगवंत
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२६१ ने नमस्कार करी,अरिहंतादिक चारनुं शरण करी चोराशी लाख जीवायो नि खमावी, अढार पापस्थानक आलोइ, नंदी, सागारिक घणसण करी, महासमाधिवंत थको उपशमनो आगार, सकलगुणसागर एवो थको कान स्सग्गें कनो रह्यो. तेना महिमायकी ते यद मुजर ले मालीना शरीरमां थी निकली पोताने स्थानकें गयो, तेथी ते माली अचेतन काष्ठनी पेठे निःसत्त्व थइ धरतीय पड्यो, तेवारें सुदर्शनशेठ काउस्सग्ग पारी माली पासें जश् तेने शीतलोपचारें करी सावधान कस्यो, तेथी माली ऊती उनो थयो अने कहेवा लाग्यो के, हे शेव ! तमें क्यां जा बो? शेवें कह्यु के, हुँ उद्यानने विपे श्रीमहावीर देव पधाया में तेने वांदवा तथा तेनी पासें धर्म सांजलवा जानं बं. माली कहेवा लाग्यो मुफने पण धर्म सांजलवानी अने जगवंतनां दर्शन करवानी शहा , माटे मने पण तेडी जा. तेवा रें सुदर्शन शेठ तथा माली बेदु जण समवसरणे गया. तिहां प्रनुने वांदी ने ययायोग्य स्थानकें बेठा,बार पर्षदा मली. नगवान् पण देशना वचना मृतसुधारस वरसाववा लाग्या. मालीने वैराग्य उपन्यो अने सोचना कर वा लाग्यो. जे एवडं में पाप कयुं, माटे हा हा इति खेदे ढुं नरकें जश्श !!!
यतः॥ जय के जिवा सोयणिया,नवंति गोयमा अपामिय जिगदिरका , असुअसित वयणा, अबोहिलाना, अकयधम्मा, अगहियथषु वया. यह मय पंच पमाय चनक्कसाय संजुत्ता,अखामिय सत्वजीवाउ, गालोश्य सब पावा, जे जीवा परलोयं गडंति, ते सोयलिया हवंति, ज उ अणंत संसारे सयल उहनिदाणे, निचं हं अणुहवंता चिति.
हवे जगवंत अर्जुनमाली प्रत्ये कहे जे के, हे अर्जुन ! तुं शोच म कर. हजी सावधान था. यतः ॥ पहावि ते पयाया, खिप्पं गढ़ति अमर नव पाई॥ जेसिपिठनवोसं,जमोय खंतिय बंनचेरं च ॥१॥ जेमाटे दीदा ल
तप करीने कर्मक्ष्य करवाने तुं समर्थ डे, एवं जगवंतनुं वचन सांगली अर्जुनमालीयें दीक्षा लीधी, बह अहम दशम उवालसादिक तप करी, लो कना थाक्रोश निंदा, प्रहारादिकनी कदर्थना प्रमुख खमतो थको ब मही नामां बे महीनानुं अनशन करी शुक्त ध्यानरूप अनियें करी आठ कर्म रूप काष्ठने बाली मोद नगरें पहोतो.
सुदर्शन शेठ पण प्रतिदिन आगम श्रवण करतो साधु साध्वीने अश
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. न, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, औषध, नेषजादिक प्रति लानतो थको श्रावकनां बार व्रत पालीने स्वर्ग गयो. ए आगम शुश्रूषाने वषे सुदर्शन शेठनो संबंध कह्यो ॥ १४ ॥ हवे अपुराहोधम्मसाहणे परमो, ए सम्यक्त्वनुं बीजं लिंग वरखापीयें बैयें.
॥ तारुत्तिण दी, घयपुस्मे नुत्तुमिब बुदिन ॥ जह तह सद्दपुणे, अणुरागो धम्मराउत्ति ॥१५॥ अर्थः-(कंतारुत्तिण के) कांतार जे य टवी तेने उतरी आव्यो एवो ( दीन के०) हिज जे ब्राह्मण तेने प्रायें जोजन वाहालुं होय यतः ॥ वाटिका यत्र लन्यंते, न दूरं पंचयोजनं ॥ मोदका यत्र लन्यंते, न दूरं दशयोजनं ॥ ते माटे ब्राह्मण कह्यो, हवे ते ब्राह्मण (घयपुरले के० ) घृतें करीने पूर्ण जेनी ऊपर एक आंगुलनो उत्त म साकरनो नुको होय,एवा घेवर प्रत्ये (जुत्तुं के०) जोक्तुं एटले जमवाने (इव के) . वली ते ब्राह्मण कहेवो होय? तो के (कुहिन के) दुधितो एटले नूरव्यो होय जे कारण मात्रै धरायाने कोई खावानी वस्तु वनन न होय अने नूरख्याने विशेषे वन्नन होयज. माटे नूख्यो कह्यो (ज ह के०) जेम ए अटवीथी उतरेलो अने नूरव्यो एवो ब्राह्मण ते घेवर ज मवानी ना करे ( तह के० ) तेम एज दृष्टांतें श्रावकने (सदहाणे के०) जला अनुष्ठान एवा जे पडिक्कमण, पोसह, सामायिक, देवनक्ति, गु रुनक्ति, साधर्मिकनी नक्ति प्रमुख जला कार्य तेने विषे ( अपुरागो के०) अनुराग होय चित्त संबंधिनी अंतरंग प्रीति होय. तेने (धम्मरानत्ति के०) धर्मराग कहीयें तिहां जे दृष्टिरागथी तथा लोकदेखामणीये करे. ते लेखा मां गणाय नहीं ॥ यतः॥ गुणाः सर्वत्रमान्याः स्युः,किंतु नामंबरो महान् ॥ विक्रियते न घंटानि, गैविः दिर विवर्जिता ॥ १ ॥ किंपरजणबदुजाणा, व पाहिं वरमप्प सस्कियं सुकयं ॥श्य नरह चक्कवट्टी,पसन्नचंदो य दिलंता॥१॥ तया धम्मासमाएणं नंते जीवे किं जण, गोयमा धम्मासमाएणं सातासु स्केसुविरऊमाणे विहर ॥ आगारधम्मंचणं चयति, अणगारेणं जीवे स रीरमाणसाणं उरकाणं छेदण नेदण संजोगादिणं वोडेय करे. अबाबाई चणं सुहं निवत्तेति ॥ १५ ॥
हवे एने विपे बारोग्यधिजनो दृष्टांत कहे जेः-उऊयणी नगरीयें देव गुप्त नामा ब्राह्मण तेने घेर जगतने आनंदनी करनारी एवी नंदा नामें ना
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्तवसित्तरी.
१६३
कृत
बे, ते स्त्री जरतारने विषय सुख जोगवतां एक पुत्र थयो, पण ते पूर्व कर्म योगें रोगीयो थयो, तेना शरीरमांथी एके रोग जाय न हिं. तेथी लोकोयें तेनो रोगी ब्राह्मण एवं नाम दीधुं ॥ यतः ॥ टुंटत्तं मूत्र तं वहिरंते चैव चरकु हीणत्तं ॥ डुहियत्त प्नगत्तं, जीवहिं साफलं नेयं ॥ १ ॥ तथा ॥ तिहिाणेहिं जीवा, सुनदाहान यत्ताए कम्मं पकरेंति तं जहा पाले श्वाइता नवर, सुसंवाइता नवइ, तहारूवं समणं वा माहणं वा हिलित्ता, नंदित्ता, खिंसित्ता, गरहिता, अविमन्नित्ता, मणुन्नेणं, अपी कारगेणं, सपा खाइमं साइमेणं पडिलानेता जवइ ॥ इच्चेहि गणेहिं जीवा श्र सुनदीहा अत्ताए कम्मं पकरेंति ॥
हवे एकदा प्रस्तावें तेहने घेर साधु वहोरवा खाव्या. तेवारें ब्राह्मणें पोतें नवीने रुडे अन्नपानें करी तेनी पडिलाचना करी ॥ यतः ॥ दानं स्यानि जहस्तेन, मातृहस्तेन जोजनम् ॥ तिलकं गुरुहस्तेन, परहस्तेन मर्द्दन म् ॥ १ ॥ ते साधुने अन्न पान देइने पोताना रोगीपुत्रने तेडी साधुने वं दाव्यो, पगे लागाड्यो ने पूढवा लाग्यो के, स्वामी ! एवो कोई औषध प्र साद करो के जेथकी या महारा पुत्रने समाधि थाय. साधु बोल्या के गो चरी खाव्या कां पण कहीयें नहीं. माटें में जिहां उतस्था बैयें. तिहां प्रस्तावें श्रावो. तो वांदजो.
वली ते ब्राह्मण वे पहोर पछी पुत्रने लइ साधुनी पासें गयो. तेमने साधुयें कयुं के, एणे पाबले नवें प्राणिवध कीधो ले, तेनुं ए फल पाम्यो बे. जेमा | वह मारण नरकाणं, वाणं परधण विलोवलाई || सब जहणो दर्ज, दसगुणिन इक्क सिकयाणं ॥ १ ॥ तेमाटे तमें हवे धर्म क रो, के जेना पसायथी रोग नाश पामे. एम कही ते साधुयें एक साधुनो धर्म ने बीजो श्रावकनो धर्म एम वे प्रकारनो धर्म कह्यो. ते सांजलीने पिता पुत्र बेज श्रावकधर्म अंगीकार करी बार व्रत उच्चरी साधुने वांदी, बेहु घेर याव्या. पबी जेम चिंतामणि रत्न पामीने तेनो यदर करियें, तेम ते बेदु समतरत्न पामीने आदर सहित धर्म प्राराधन करता हवा.
वे एकदा प्रस्तावे महाराज सनामांहे ते ब्राह्मणोनी एवी प्रशंसा करवा लाग्यो के एमने कोइ पण धर्मथकी चलावी शके नहीं. एवा ते ह धर्मी बे. ते सांजली वे देवता ते रोगीया ब्राह्मणनी परीक्षा करवा माटें
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वैद्यनुं रूप धारण करी तेना घर आगल आव्या, अने कहेवा लाग्या के अमारं औषध ले, तो तुमने समाधि थाय. तेने ब्राह्मणें पूयुं के, कयु
औषध खवरावो के ? तेवारे वैद्य बोल्या के, प्रथम प्रहरें मध खावू, अने पाबले प्रहरें मद्यपान करवू, तथा रात्रियें माखणमिश्रित कूरनो करंबो खावो, तेनी नपर वली मांस खावं. एवा चारे अनक्ष्य विगयनां औषधो सांजलीने ब्राह्मण पोताना मनमां 5ज्यो अने विचाखु जे एवडं महोटुं पाप करीने पनी नरकमां जर पडq , जे माटे ॥ मद्ये महंमि मसंमि, नवणीयं चम्बए ॥ उवऊंति असंरका, तवणा तब जंतुणो ॥ १ ॥ ते मा टें ए सावध औषध न करवू. ए मने जे रोग थयो , ते तो एकज नव मां दुःख आपनारो बे, पण व्रतनंग करवानां माहापाप शास्त्रमा कह्यां
॥ यतः ॥ वयनंगे गुरुदोसो, थोवस्सवि पालणं गुणकरिय ॥ गुरुलाघ वं च नेयं, धम्ममि अय आगारा ॥ १ ॥ इति पंचाशकसूत्रे॥ते माटें स वथा व्रतनंग नहींज करूं. एवो तेनो हन जोश्ने माता, पिता तथा राजा प्रमुख वडेरा लोको कहेवालाग्या के, तुं ए औषध कर के जेथी घणा का लना रोगनी समाधि थशे तो पड़ी नीरोगी शरीरथी घणा प्रकारना धर्म कार्य करीश, अने व्रतनंग थशे तेनुं प्रायश्चित्त लेंजे. तेवारें ब्राह्मण बो त्यो ॥ यतः ॥ जइ जीवियस्स कस्स, कारणे हण जीव कोडी ॥ ता की सासयनावं, तमिबपडिवएकहवि ॥१॥ माटे जो एम करवाथी लान थतो होय तो सनत्कुमार नामा चोथो चक्रवर्ती हतो, तेणें शा मा टें औषध कयुं नहीं? पण तेणें एQज विचाखु जे आ रणीयुं आव्यु ले तेनो रण थापी समजावीने उठाडी मूकीयें ? तों रूडं थाय. तेम मुझने पण ए रोग वेदवाथी पूर्वस्त कर्म क्ष्य थाय , माटे सर्वथा सावद्य न करूं. पण रीश करी हांकी काहाढीये, तो माटु लागे, ते माटें ए कर्मनुं रुण आपी दश्यें, तो रूंडं देखाय. एम कह्या नंतर वली पण देवोयें घ पोये चलाववा ममियो पण सर्वथा रंचमात्र चलाय मान थयो नहीं. तेवारें देवो प्रगट थ पगे लागी कहेवा लाग्या के, धन्य ने तुमने अने ध न्य ने तहारा दृढधर्मने, जेवीमहाराजें तहारी प्रशंसा कीधी तेवोज तुं बो. एवं कही तेना शरीरसंबंधी सर्व रोग मटाडी तेना घरने विषे रत्ननी राष्टिकरी देवता पोताने स्थानकें गया. नगरमांहे श्रीजिनधर्मनी प्रशंसा
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२६५ थइ. लोकोयें तेनुं आरोग्यधिज एवं नाम पाडयुं, ते ब्राह्मण घणा वर्ष प यंत श्रावकधर्म पाली स्वर्गे पहोतो. अनुक्रमें मोदमां पण जाशे. ए धर्म रागनी उपर आरोग्यहिजनी कथा कही।
हवे देवगुवरुनु वेयावच्च रूप समकेतनुं त्रीचं लिंग कहे :॥ पूयाइए जिणाणं, गुरुणा विसमणाइए विविहे ॥ अंगीकारो निय मो ,वेयावच्चे जहा सत्ती ॥ १६॥ अर्थः-( जिणाएं के) श्रीजिनेश्व रनी (पूयाइए के०) पूजा ते बे प्रकार के एक व्यस्तवरूप अने बीजी जावस्तव रूप, तिहां श्रावकने तो इव्यस्तव अने नावस्तव ए बेदु उचित डे अने साधुने तो एकज जावस्तव नचित . इहां अष्टप्रकारी, सत्तर प्र कारी अने एकवीश प्रकारी पूजा आदिक ए सर्व इव्यस्तव कहीयें. यतः ॥ नकोसं दवथयं, बाराहिय जाइ बावुधे जाव ॥ नावबएण पावर, अं तमुहूत्तेण निवाणं ॥ १ ॥ तथापि इव्यस्तव जे जे, ते नावस्तवतुं कारण ३. ॥ यतः ॥ समयंमि दवसञ्चो, पायंसोजो गया ए रूढो तिणि, रुवम च रित्तो बदहा, पग नेपलंना ॥१॥ मिनपिंमो दवघडो, सुसावगो तय दवसादुत्ति ॥ सादुय दवदेवो, ए माइज सुए नणियं ॥ १ ॥ ता नावन पहेज, जो सो दवब हं हो ॥ जो पुणगेवं नून, सअप्पहाणो परं होति ॥ १ ॥ इति पृष्ठे इव्यस्तव नावस्तव नामा पंचाशके ॥
जे साधु थइने व्यस्तव करे, ते आझा विराधक थाय ॥ यतः ॥ न यवं जेणं केश साहू वा सादुणीवा, निग्गंथे अणगारे दवइयं कुजा तेणं किं आलोवेजा ॥ गोयमा सेणं अजएवा, असंजए वा, देवनोश्वा,देव गा चगे वा, जावणं उमग्गपए श्वा, उस प्निय सीलेश्वा, कुसीलेवा, सबंदचा रिएवा,बालो वेळा ॥ इति माहानिशीथे ॥ तेमाटें साधुने व्यस्तव न कर बुं अने श्रावकने इव्यस्तव कीधा पनी नावस्तव करवू. ए देव बाश्रयी कह्यु.
हवे (गुरुणाविसामगाइए के० )गुरुनो विश्रामणादिक ( विवि के) विविध प्रकारचें वेयावचनो अंगीकार करे, तेने विषे निश्चल होय एटले गु रुने यथाशक्तियें शुक्ष्मान अशनादिक आपवा तथा कारणे इव्य, क्षेत्र, काल, नाव, विचारीने तेमज पात्र, अपात्र, गीतार्थ, अगीतार्थ, प्रमुख उत्सर्ग अपवाद विचारीने जो सर्वथा शुभमान वस्तुनी अप्राप्ति देखाय, तो अगुआमान पण आणी आपे ॥ यतः ॥ संघरणंमि असुई, उपहंवि
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
- जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. गिएहं तदित पाणहियं ॥ आनर दिहं तेणे, ते चेवहिय असंघरणे ॥ १॥ तेने गुरुसंबंधि वेयावच कहीयें, तेने विषे (नियमो के) नियम होय, एटले बाटलुं वैयावच्च करबुज एवो होय पण यथाशक्तियें नियम करे, केम के केटलाएकने व्यनी शक्ति होय पण कायानी शक्ति न होय, त था केटलाएकने कायशक्ति होय, पण इव्यनी शक्ति न होय. तेमज केटला एकने इव्य अने काय वेदु शक्ति होय अने केटलाएकने बेदुमांहेली एके शक्ति न होय, तेमाटे यथाशक्तिये वेयावच्च करवू कह्यु, पण यथा शक्तियें न करे तो तेने दोष लागे ॥ १६ ॥
ए उपर दृष्टांतरूप कथा कहे जेः- माहाविदेहदेवें वजनान राजा च क्रवर्ती पदवी नोगवी वैराग्य पामी दीक्षा लश् चौद पूर्व जणी आचार्य प दवी पामी विहार करता हवा. तेना बाहु, सुबादु, पीठ अने महापीठ, ए चार लघु ना, तेमणे पण दीक्षा लीधेली . अगीयार अंगना जण नारा बे. ते चारमा बादुमुनीश्वर , ते पांचशे साधुनुं वेयावच्च करे, नि त्यप्रत्ये यथेष्ट शुभमान अशनादिक गृहस्थनाघरथी लावी आपे,लगारमा त्र रीश न करे, अनिमान न करे, कोइने तुं कार रेकार न करे, देइने पश्चा ताप न करे, ईर्ष्या न करे, पांचशे साधुने रूडां मिष्ट वचने बोलावी रूडा मिष्ट नातपाणी आपी संतोष पमाडे, अने सुबाहुमुनि महानक्तिपूर्वक पां चशे साधुने विश्रामण करे.
अने पीठ तथा महापीत एवे साधु सद्यायध्यान कास्सग्गादिक क्रिया करता थका सुखें चारित्र पाले, एकदा वजनान आचार्य बाहु अने सुबा दु ए वेदु साधुना साचा गुणनी प्रशंसा करता थका कहेवा लाग्या के, माहारा गबने विषे ए वे साधु धोरी , जेमाटे बादुसाधु तो पांचशे सा धुने अशनादिक शुक्ष्मान आहारें करी पोषे , अने सुबाहुमुनि पांच शें साधुनुं वेयावच्च करे जे. एवी गुरुना मुखथी यती प्रशंसा सांजलीने पी
अने महापीठ, ए बे साधु मत्सर धरवा लाग्या जे आपना गुरु ए सा धुउनाज गुणनुं वर्णन झुं करे ? एवी ईर्ष्या करता हवा. अने माया के पटथी वधारे तप करवा लाग्या. अंते आचार्यसहित पांचे जण चारित्र पाली तपस्याकरी हेले अनशन करी सर्वार्थसिदि विमाने पहोता. ति हाथी चवीने वजनाननो जीव, श्रीयादिनाथ प्रथम तीर्थकर थया अने
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१६७ बाहुनो जीव चवी जरतचक्रवर्ती थयो. तथा सुबाहुनो जीव चवी बाहुब जी थयो. तथा पीठनो जीव चवी नरतचक्रवर्तीनी सुंदरी नामें जगिनी थ २. तथा महापीठनो जीव बाहुबलीनी नगिनी थइ. ईर्ष्या करया माटे मा यातपना प्रजावें स्त्रीवेद पाम्या ॥
नरतनो जीव, पांचों साधुनी नक्ति करवाथी चक्रवर्त्तीनी पदवी पा म्यो. ने या अवसर्पिणीमां प्रसादप्रतिष्ठा बिंबप्रतिष्ठाने विषे तथा संघ atri तिलकने विषे यादि करी ने बाहुबल पांचों साधुनुं वेयावच्च कर वाथी अतुल पराक्रमी थयो. संग्राम करतां जरतचक्रवर्तीने पण हरायो, अने तेणें वैराग्य पामी दीक्षा लोधी. तेमज ब्राह्मीयें पण श्री रूपनदेव पासेंथी दीक्षा लीधी ने सुंदरी दीक्षा लेती हती. तेने चरतचक्रवर्त्तीयें रू पसुंदर जाणी स्त्रीरत्न करवा माटें दीक्षा लेवा न दीधी पण नरतदिग्वि जय करवा गया पठी सुंदरीयें श्रीकृषनदेवने पूब्युं जे, स्त्रीरत्न मरीने क्यां जाय ? भगवानें कह्युं के, बही नरकें जाय ते सांगली खेद पामी थकी साठ हजार वर्षपर्यंत बिल तप कस्युं तेथी शरीर दुर्बल थइ गयुं, नरत याव्यापी दुर्बलतानुं कारण कुटुंबीयांना मुखथी सांजली सुंदरीने दीक्षा जेवानी वा जाणी याज्ञा यापी, पोतें वैताढ्यथी स्त्रीरत्न लाव्या. अनु क्रमें पांचे जीव मोछें पहोता माटे वेयावच्चना एवां फल जाणी गुरुनुं वे यावच्च करवुं. ए सम्यक्त्वना त्रण लिंगनो बीजो अधिकार कह्यो.
इति श्रीतपागीय शांतिचंगलिशिष्य रत्नचंग णिविरचित श्री सम्यक्त्व रत्नप्रकाश नामनि श्री सम्यक्त्वसप्ततिकाप्रकरणबालावबोधे सम्यक्त्वलिंगत्र यस्वरूपनिरूपणनामा द्वितीयोऽधिकारः संपूर्णः ॥ २ ॥
हवे दशप्रकारमा विनय करवारूप त्रीजो अधिकार कहीयें ढैयें. ॥ अरिहंत सिद्ध चैश्य, सूएय धम्मेय साहुवग्गेय ॥ श्रायरिय उवद्याए eard दंसणे वि ॥ १७ ॥ अर्थः- एक अरिहंतनो विनय, बीजो सिनो विनय, त्रीजो चैत्यनो विनय, चोथो ( सूएय के० ) द्वादशांगी रूप श्रुतनो विनय, पांचमो धर्मनो विनय बहो ( सादुवग्गेय के० ) सा धुवर्गनो विनय, सातमो श्राचार्यनो विनय, याठमो उपाध्यायनो विनय, rant प्रवचनो विनय ने दशमो ( दंसणे के० ) दर्शन एटले सम्यक् दर्शन तेनो (ard के० ) विनय जाणवो ॥ १७ ॥
0
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६७
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. १ श्रीसीमंधरादिक वीश विहारमान तीर्थकरनां नामस्मरणादिकें करी, तेमना चरित्र वांचवे करी, गुणस्तुति करवे करी, जे नक्ति करवी ते अरि हंतनो विनय जाणवो.
५ नमो सिक्षाएं ए पद गणवे करी सिधनी अवस्था ध्यायी पूजा क रवे करी सिनो विनय थाय.
३ चैत्योहार करवे करी,प्रसाद कराववे करी, बिंबप्रतिष्ठा,बिंबपूजा, बि बने मल टालवे करी, सत्तरनेदें पूजा करवे करी, बिंबने राज्यनय, अनि जय, जलनयादिकथी राखवे करी, चैत्यपुंजवे करी, चैत्यने चुनादिकथी घोलवे करी एम अनेक प्रकारे चैत्यनो विनय जाणवो ॥
४ श्रुतलखाववे करी, पुस्तक साचववे करी,पुस्तकने शोधवे करी, ज्ञान जगवे नणाववे करी, पाठां पूंजणी रुमाल विटांगणा प्रमुख पुस्तकना न पकरण करवे करी, पुस्तकने अग्निनय जलजयादिकथी राखवे करी इत्या दिक अनेक प्रकारे श्रुतनो विनय थाय. __५ धर्मनी प्रशंसा करवे करी, मुग्धजनने धर्म पमाडवे करी, धर्मनी स्थापना करवे करी, पौषध सामायिक प्रमुख धर्म करवे करी, श्रावकना छादश व्रत पालवे करी, दशविध यतिधर्म पालवे करीधर्मनो विनय जाणवो. ___६ साधुवर्गने अशनादिक आपवे करी,वातादिक विकारें तेलमर्दनादिक करवे करी,रोग उपने थके वैद्य तेडी लावी औषध कराववे करी,सन्निपाता दिक रोगविशेष आकरी चिकित्सा कराववे करी,परिश्रांत साधुने विश्रामण करवे करी,कांटा काढवे करी,ए रीतें विचित्र प्रकारें साधुवर्गनो विनय जावो. ___ आचार्य श्रावते थके तेमनी साहामा जाववे करी, कर्पूर तथा सुवर्णा दिकना पुष्पोथी पूजवे करी, ग्रीष्मरुतुने विषे विलेपन करवे करी, आचा येने योग्य एवा गुआमान वस्त्रादिक वहोराववे करी, आचार्य श्रावे थके उना थावे करी, पुस्तक लखावीने आपवे करी, गुणप्रशंसा करवे करी त्यादि अनेक प्रकारें आचार्यनो विनय जाणवो ॥
G उपाध्यायनो विनय पण आचार्यनी पेठेज जाणवो.
ए प्रवचननी प्रशंसा करवे करी, प्रवचननो उफाड टालवे करी, प्रति छादिक महोटा कार्य करवे करी, प्रवचनने दीपाववे करी, राजा तथा मह न्यने प्रतिबोधवे करी इत्यादि अनेक प्रकारे प्रवचननो विनय थाय.
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
२६॥ १० निःशंकितादिक गुणें करी शुक्समकित पालवाथी, नवा व्यवहा रीयाने प्रतिबोधी तेने समकेत आपवे करी,सम्यक्त्वना नूषण, स्वरूप जा पीने तेने आदरवे करी तथा सम्यक्त्वना दूषण, स्वरूप जाणी तेने परि हरवे करी दर्शननो विनय जाणवो. ए दश प्रकारनो विनय जाणवो ॥
हवे चार गाथायें करी ए दशर्नु स्वरूप समजावे . ॥अरिहंता विहरंता, सिदा कम्मरकया सिवं पत्ता॥पडिमा चेश्या, सुयं तु सामाश्या इयं ॥ १७ ॥ धम्मोचरित्त धम्मो, आहारो तस्स सादुव ग्गत्ति ॥ आयरिय उवजाया, विसेस गुणसंपया तब ॥ १५ ॥ पवयणम सेस संघो, दंसण मिळति ब सम्मत्तं ॥ वि दस्सएहिमे सि, कायद्यो होइ एवं न ॥ २० ॥ जत्तिबहुमागोवन्न ,जाण नासण मवमवायस्सं ॥ थासायण परिहारो, विण संखेव एसो ॥ २१॥ अर्थः-(अरिहंना के ) अरिहंत ते कोने कहीये जे ( विहरंता के०) विहरमान तीर्थकर सीमंधर प्रमुख जे कालें जे विचरता होय,तीर्थकर नामकर्म उदय प्राप्त थ युं होय, समवसरणादिक ऋदिनोगवता होय, तेने अरिहंत कहीये. य तः ॥ सत्तरिसयमुक्कोसं, जहन्न वीसम्मदस विहरंति ॥ जम्मंप नकोसं.वी स दस हुँति दु जहन्ना ॥ १ ॥ इति ॥
(सिक्षा के) सिम कोने कहीयें ? के जे (कम्मरकथा के० ) अष्ट कर्मनो सर्वथा क्ष्य करीने ( सिवंपत्ता के०) मोद नगरें पहोता तेने सि ६ कही ते " जिणअजिणतिबतिबा" ए गाथाथी पन्नर ने जाणवा.
३ (पडिमा चेश्याइं के ) चैत्य ते प्रतिमा जाणवी, ते प्रतिमाने बेसवानां जे घर तेने पण चैत्य कहीयें ॥ यतः॥ देवेसु कोडिसयं, कोडी बावल लरक चनणव ॥ सह चन्यालीसं,स तसया सिदि अप्नहिया ॥१॥ लरकतिगं एगननइंसहस्स विसाहिया य तिन्निसया ॥ जोइसिय वळिकणं, तिरिय जिणबिंब संखश्मा ॥ २ ॥ तेरस कोडि सयाई, गुण नन कोडि सहि लरकाई ॥ जवणपईणं मये, जोसिएसु य असंखा ॥ ३ ॥ कोडि स या पनरस, कोडी बायाल लरक अडवना ॥ लरका बत्तीसंपुरा, असी अहियान सबग्गं ॥ ४ ॥ ए शाश्वती प्रतिमानुं मान जागवू. ज्योतिषना विमानो असंख्यातां ने, तिहां चैत्य तथा जिनप्रतिमा पण असंख्याती .
४ (सुयंतु के०) श्रुत ते वली (सामाश्यं यं के०) करेमि नंते सामाश्यं
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. थी मांझीने यावत् दृष्टिथी वाद पर्यंत जाणवू. आचारांगादिक अगीयार अंग अने बारमो दृष्टि वाद, ए सर्व श्रुत जाणवू ॥ १७ ॥ ___५-६ ( धम्मो के ) धर्म ते (चरित्तधम्मो के० ) चारित्रधर्म जाण वो बहो ( तस्स के ) ते चारित्रधर्मनो (थाहारो के०) आधार ते (सा दुवग्गत्ति के० ) साधुनो वर्ग के इति एटले एम जाणवो. जे कारण माटें जेवारें कोई पण साधु न पामीयें, तेवारें चारित्रधर्म पण न पामी, अने जेवारें साधु पामीयें, तेवारें चारित्रधर्म पण पामीयें ॥ यतः॥ पुरिमंतिम य, तरेसु तिबस्स नलि वुबे ॥ मधिवएसु सत्तसु, इतिय कालं तु वुडे J॥ १॥ चननागं चननागो, तिन्निय चउनाग पलिय चननागो ॥ तिने व य चननागो, चनबनागोय चननागो ॥ २ ॥ इति प्रवचनसारोबारे ॥ __७ (आयरिय के० ) आचार्य ते जे ज्ञानाचारादिक पंचाचार पालवा ने विषे तत्पर होय, बत्रीश गुणें करी बिराजमान सुविहित शुक्ष्प्ररूपक, सारणा, वारणा चोयणा पडिचोयणाने विषे तत्पर सांप्रत विजयमान,त पागबाधिराज श्रीविजयसेनसूरि पट्टालंकारहार हीर श्रीविजयदेवसूरीश्वर प्रमुख जागवा ॥ यतः॥ सम्मत्त नाण चरणा, पत्तेयं अध्यनेजा ॥ बारस्स ने य तवो, सूरि गुणा कुँति बत्तीसा ॥१॥ अथवा ॥ आचारा य अठ,तहचेव दस विहो न ठियकप्पो ॥ बारस तव बावस्सग, सरिगुणा हुँति बत्तिसं ॥ २ ॥ इति प्रवचनसारोवारे. ए त्रीशीयो घणा प्रकारें बे.
G ( उवद्याया के०) उपाध्याय ते जेनी पासें आवीने सूत्र जपीयें, ते जाणवा. ( तब के०) तिहां आचार्य अने उपाध्यायने विषे साधु थ की ( विसेसगुणसंपया के ) विशेष गुण संपदा डे, माटें साधुथकी जूदा कह्या २ ॥ यतः ॥ पडिरूवो तेयस्सी, जुगप्पहाणंगमो मदुरवक्को ॥ गंनी रो धीमंतो, उवएसपरो य थायरी ॥१॥ अपरिस्सावि सोमो, संगह सीलो अनिग्गह मईय ॥ अविकंचणो अचवलो, संपंत हिय गुरू होई ॥३॥ एवा श्रीआचार्य नगवान् तेना पदने जे योग्य होय,तेहने उपाध्या य पद देवाय. तेमाटें उपाध्याय पण एवाज गुणवंत जोये ॥१५॥
ए (पवयण के०) प्रवचन ते (असेससंघो के० ) अशेष एटले सम स्त श्रीसंघनें कहीयें जेमाटें साधु, साध्वी, श्रावक, अने श्राविका, ए चा रे श्रीतीर्थकरनी आज्ञा पाले अाज्ञायुक्त होय ते प्रवचन कहीयें ॥ यतः
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
१७१ ॥ एगो सादु एगा, य साहणी सावउ य सढीवा ॥ आणाजुत्तो संघो, सेतो पुण अहि संघाउ ॥१॥ तो सगचू सूरि, उप्पसहा सादुणीय फग्गुसिरी ॥ नाश्लसो सट्ठी, सबसिरी अंतिमो संघो ॥ २॥ दसपालिय जियकप्पा, वस्सय अणुउंगदार नंदिधरो ॥ सययं श्दाश्नन, बहुग्ग तवो 5 हब त ॥३॥ गिहिवय गुरुत्त बारस्स, चन चन वरिसोकयमो अंते ॥ सोहम्मि सागराक, होई त सिधिहि नरहे ॥ ४ ॥ सुयसार संघ धम्मो, पुवण्हे बिहीय गणिसायं ॥ निव विमलवाहणो सुदु,म मंति नयधम्म मद्यएहे ॥ ५॥ वीसाणवास सहसा, नवसय तिमास पंचदिए पहरा ॥ का घ डिया दो पल, अरकर गुयाल जिणधम्मो ॥ ६ ॥ वं उस्सम कालो, हो गवीस वास सहसेहिं । उस्सम उस्सम कालो, एव माणोय ना यवो ॥ ७ ॥ इति दीवालीकल्पे ॥ तेमाटें तीर्थकरनी आज्ञा रहित जो घ पोए संघ होय, तो पण तेने असंघ कहीयें. एटले टोलुं कहीयें.
१० (इबं के०) ए श्रीजिनशासनने विषे सिद्धांतना जाए पुरुषोले, ते (दसणमितिसम्मत्तं के ) समकेतदर्शनने खंति एटले वांडे ,ते समके त दायिकादिक पांच नेर्दे जाणवू. जेमाटें जे गुरुदेवने देवबुधियें, गुरुने गुरुबुध्येि अने धर्मने धर्मबुद्धिय ग्रहण करे, तेने सूधुं समकेत कहीयें ॥
(विपदस्सएहिमे सि के०) दशनो विनय यथायोग्य पणे जेहनो जेम करवो घटे, तेनो तेम विनय (कायबोहोइ के० ) करवो दोय ते ( एवंतु के) ए बागल कहेशे ते चार प्रकारें विनय करवो ॥ २० ॥
हवे चार प्रकारे विनयकरवो कह्यो, ते चार प्रकार कहे :एक (नत्ति के०) नक्ति करवे करी, बीजो (बहुमायो के) बहुमान करवे करी, त्रीजो (वरमजणण के ) वर्णजनन ते प्रशंसा करवे करी,अने (नासमवमवायस्स के०) अवर्णवादनुं नासण एटले टालबुं ते करवे करी एटले अवर्णवादने अणबोलवे करी,चोथो (थासायणपरिहारो के०) आशातनाना परिहारने करवे करी, (
विसंखेवएसो के०) ए विनय में शंदेपथकी कह्यो. बीजा ग्रंथोने विषे विस्तारें ले पण शहां अल्पमति तुब मति जीवोने संदेपें कहीयें तो समजे माटे संदेपें कह्यो ॥१॥
हवे ए चार नेदनां लक्षण कहे :जत्ति बहि पडिवत्ति, बहुमाणो मणसि नितरापिई ॥ वमजणणं तु तेसिं,
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७३ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. अश्सयगुण कित्तणाईहिं ॥ २२ ॥ उमाह गोवणाई, नणियं नासण मवरम वायस्स ॥ आसायण परिहारो, उचियासण सेवणाईहिं॥२३॥ अर्थः(नत्तिबहिंपडिवत्ति के०) जे बाह्यप्रतिपत्ति करवी ते नक्ति कही. जेम के नती उना था. अशन,पान,खादिम,स्वादिमनो खप करी आणी बाप, पग धोवा, विश्रामणा करवी, तैलमर्दनादिक करवू, औषध नैषज्य आणी
आप. इत्यादिक जेहने जे योग्य होय तेनी तेप्रमाणे नक्ति करवी. ते बाह्यप्रतिपत्ति नक्ति कहीयें ॥ यतः ॥ न देवपूजा न च पात्रदानं, न श्रा
धर्मश्च न साधुधर्मः ॥ लब्ध्वापि मानुष्यमिदं समस्तं, कृतं मयारण्यवि लापतुल्यम् ॥ १ ॥ इति ॥
बीजो (बदुमाणोमणसिनिनरापीई के०) बदु मान ते मनसि एटले म नने विषे निर्जर अंतरंग प्रीति राखवी केम के बहुमान विना जे कांश कर ते सर्व निरर्थक जाणवू ॥ यतः ॥ आकर्णितोपि महितोपि निरीदि तोपि, नूनं न चेतसि मया विकृतोसि नक्त्या ॥ यातोस्मि तेन जनबांधव पुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलति न नावशून्याः ॥१॥
३ (तु के० ) वली (तेसिं के०) तेनुं एटले पूर्वोक्त अरिहंतादिक दशे नुं ( वमजणणंतु के०) वर्ण जनन एटले प्रशंसा करवे करी,श्रीजिन शा सननी दीप्ति करवी (अश्सयगुण कित्तणाहिं के० ) अतिशय गुणते जे माहे जे दीप्ता गुण होय तेना कीर्तनादिकें करी दीपावी देखाडवा ॥यतः॥ पंचहिं गणेहिं जीवा सुलनबोहियत्ताए कम्म पकरेंति तं जहा ॥ अरिहंता णं वनवयमाणे, अरिहंत पन्नत्तस्स धम्मस्स वनवयमाणे, आयरिय उव बायाणं वन्नवयमाणे, चामवनस्स संघस्स वन्नवयमाणे, विवक्क तव बंन चेराणे देवाणं वन्नवयमाणे ॥ २२ ॥ तथा
(नाहगोवणाई के०) उमाहने गोपवादिकें करी विनय थाय एम (न णियं के०) कह्यु डे एटले श्रीजिनशासननो माह सर्वथा ढाकवो पण प्र गट न करवो कदापि कोश्वारें प्रगट थयो होय तो पण टालवो ॥ यतः ॥ चेश्य दव विणासे. इसिघाय पवयणस्स नफाहे ॥ संजश् चम्बनंगे, मूलग्गी बोहिलानस्स ॥१॥ तथा (नासण मवमवायरस के०) अव
वादनुं नासण एटले टालबुं सर्वथा अवर्णवाद न बोलवो ॥ यतः॥ किंजीवा देवकिबिसियत्ताए उघवत्तारो नवंति. गोयमा जे श्मे आयरि
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२७३ य पडिणिया, उवद्याय पडिणिया, गण पडिणिया, संघ पडिणिया, श्रा यरिय उवद्यायाएं अयसकरा, अवस्मकरा, अकित्तिकरा, बदुहे असना वुनावणाहि मिहत्तानिणिवेसे हिय आप्पाणं वा परं वा तनयं वा चु ग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा, बदुहि वासाइं सामणपरियाय पानणंति पाउ णित्ता तस्स गणस्स अणालोश्य अपडिक्कमितिए सुवा तिसागरोवम 6ि तिएसुवा तेरससागरोवम जितिएसु वा ॥ इति नगवत्यंगे ॥ ___४ (आसायणपरिहारो के० ) याशातनानो परिहार करवो, पूर्वोक्त अरिहंतादिक दशनी अाशातना न करवी, तेमां जेहनी जेवी रीतें आशा तना लागती होय तेनी तेवीरीतें आशातना करवानो परिहार एटले त्याग करवो. जेम जिनमंदिरनी जघन्यथी तांबूलादिक दशाशातना त था उत्कृष्टी खेल बादिक चोराशी बाशातना टालवी, तथा १ अ रिहंताणं आसायणाए २ सिक्षाणं आसायणाए ३ आयरियाणं आ ४ उवद्यायाणं या० ५ सादणं आ० ६ सादगीणं आ० ७ साव याणं आ० सावियाणं पा० ए देवाएं प्रा० १० देविणं या० ११ इहलोगस्स आ० १२ परलोगस्स या० १३ केवलिपस्मत्त धम्मस्स था १४ सदेव मण्या सुरलोगस्स था० १५ सव्व पागनूय जीव सत्ताणं
आ० १६ कालस्स या० १७ सुयस्स आ० १० सुयदेवयाए आo १ए वायणायरियस्स या० ॥ २० जंवाश्म था० २१ वच्चामेलियं
आ० २२ हीगरकर या० २३ अच्चरकर या० २४ पयहीणं आ० २५ विणयहीणं आ० २६ जोगहीणं आ० २७ घोसहीणं आ० २७ सु हुदिन्नं आ० २ए पडिबियं आ० ३० अकाले कठ सद्या आ० ३१ काले न क सबा आ० ३१ असबाए सवायं मा० ३३ सघाए न सद्यायं आ० ए तेत्रीश आशातना जागवी. तथा गुरु संबंधिनी तेत्रीश याशातना जे नाष्य सूत्रादिकने विषे कही डे, ते पण त्यागवी॥ यतः॥ आसायण मिहत्तं, यासायण वाणा सम्मत्तं ॥ आसायणा निमित्तं, कुवर दीहं च संसारे ॥१॥
हवे ए आशातनानो परिहार केम करवो? ते कहे :-(नचियासणसे वणाईहिं के० ) उचित एटले योग्य एवा आसनने सेवनादिकें करी करवो यतः ॥ वंदंतिजिए दाहिए, दिसिध्यिा वाम पुरिस दिसि नारी ॥ नवकर
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जहन्नु सहि,कर जिहमकुग्गहो सेसो ॥तथा॥चनदिसि गुरुग्गहो ह,अदु 5 तेरस करे सपर परके ॥ अणनुन्नाय ससबा,न कप्पए तब पविसे॥२३॥
॥दसनेय विषय मेयं, कुणमाणो मणुवोवि गयमाणो ॥ सहह विणय मूलं, धम्मति विसोहए सम्मं ॥ २४ ॥ अर्थः-(दसनेयविणयमेयं के०) ए दश नेदनो विनय ते प्रत्ये (कुणमाणो के० ) करतो थको एवो (म पुवो के० ) मनुष्य उत्तम नव्यजीव ते कहेवो होय? तोके ( विगयमाणो के०) विगतमान एटले गयुं ने अनिमान जेनाथकी एवो होय ॥ यतः ॥ कोहो पीई पणासेश, माणो विषय नासणे ॥ मायामित्तिणि नासेश, लोदो सबविणासणो ॥ १ ॥ तथा ॥ मर्दयमानमत्तगजदप्पी, विनयसरीरविना शनसप्पी ॥ विगोदर्पषवादनोपी, यस्य न तुल्यो नुवनेऽकोपि ॥२॥ ए थामराजाने अनिमान टालवा माटे बप्पनट्टसूरिनुं कहेढुं वाक्य ले ते संबंध बप्पनसरिना प्रबंधथकी जावो ॥
ते पुरुष ( विणयमूलधम्मं के) विनय ले मूल जेनुं एवो जे धर्म तेने (सदहर के ) सईहे (इति के ) ए प्रकारे ( सम्मं के०) समकेत प्र त्ये (विसोहए के०) विशु६ करे निर्मल करे ॥ यतः॥ इणमेव निग्गंथ पा वयणं सचं अणुत्तरं केवलियं पडिपुमं नेया असंसई सनकत्तमं सिदिम ग्गं मुत्तिमग्गं निजाणमग्गं निवाणमग्गं अवितह मवि संधिसबउरकपहीणम ग्गं बतिया जीवा सियंति बुचंति मुचंति परिनिग्घायंति सवरकाणमंतं कर ति. एम सम्यक्तत्व गुड़ करे. श्रीजिनशासननेविषे विन यमूलधर्म जाणवो. __ग्रंथांतरें बावन प्रकारे विनय कह्यो २ ॥ यतः ॥ तिबयर सिह कुलग ण, संघ किरिय धम्म नाण नाणी ॥ आयरिय गुरुवळाय, गणीणं तेर स पयाई ॥ १॥ अगसायणाय नत्ति, बहुमायो तहय वएम संजलणा ॥ तिबयराइ तेरस, चनगुणा कुँति बावन्ना ॥२॥इति प्रवचनसारोबारे॥२॥
हवे विनय उपर कथा कहे . या जरतदेत्रने विषे कुसुमनामा नग र , तिहां जेम अलका नगरीने विषे धनद तथा जेम देवलोकने विषे ६६ अने आकाराने विपे चश्मा शोने,तेम ते नगरीने विषे धनद एवे ना में राजा राज्य करे ले. तेने पद्मावती एवे नामें स्त्रीने, ते स्त्रीजार सं सार संबंधी सुख जोगवतां घणे मनोरथें तेमने घेर पुत्रनो जन्म थयो, ते नुं नुवनतिलक एवं नाम दीधुं. पढ़ी ते कुमर अनुक्रमें जेम शुक्लपक्ष्नो
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१७५ चश्मा वधे,तेम महोटो थयो. तेने निशालें जणवा मोकल्यो ते सर्व. क लामा प्रवीण थयो, राजधुरंधर थयो.
एकदा प्रस्तावें राजा राज्यसना जरी बेगे . एवामां सुवर्णदंम हस्त धार पोलीयो आवी विनति करवा लाग्यो के हे स्वामिन् ! रत्नस्थलपुर नो स्वामी अमरचंद्राजा तेनो प्रधान आव्यो बे, ते तमारा दर्शन वां ले ले माटें शी आशा आपो हो ? राजायें कह्यु एने तेडी लावो. प्रतिहा र तेडी आव्यो. प्रधानें प्रणाम करी विनति करी के हे स्वामी ! रत्नस्थल पुरनो स्वामी अमरचंराजा तेहने यशोमती एवे नामें पुत्री , ते तमारा पुत्र नुवनतिलक कुमरना गुण सांजली तेनी ऊपर गुणानुरागिणी थ. अने कहे के पर| तो नुवनतिलक कुमरनेज पर| अन्यथा बीजाने पर गुं नहीं मानें तमने अमरचंराजायें विवाहनी विनति करवा मुझने मो कल्यो , ते वात सांजली राजा हर्ष पाम्यो अने चतुरंगिणी सेना सहित तथा कंवरव एवे नामें सामंतसहित जुवनतिलककुमरने अमरचंडाजाना प्रधानपुरुपनी साथें मोकलतो हवो. ते अनुक्रमें सिपुरनगरनी नजीक ज उतस्या, लोक मेरा तंबु दीये डे, जमवानी सकाइ करे , एवामां अकस्मात् ते कुमर पोताना रथ नपरथी ढली पड्यो अने मूळ घाव गइ. पाषाण शिलानी पेठें अचेतन थ पज्यो. तेवारे त्यां हाहाकार था रह्यो. तिहां अनेक वैद्य मांत्रिक तांत्रिक मल्या, तेणें घणा उपचारो कीधा, पण ते सर्व उपर नूमिकायें जेम वर्षाद निःफल थाय, तेनी पेरें निःफल थया. कंठरव सामंत घगुंज कुःख धरवा लाग्यो ।यतः॥ कम्माविश्जीवा, ग गई तह पुग्गलाण परिणामं ॥ सवणु चेव जाण, अहवा सवणुसरि सावि ॥१॥ नचंता कीडंता, कम्मं कुवंति निग्यणा जीवा ॥ पहा तस्स वि वागा, रुवंति कलुणं महा उरका ॥ २ ॥
एवामां जाग्ययोगें ते उद्यानने विषे कोइ केवलज्ञानी साधु पधास्या, दे वतायें सुवर्णकमल रच्यु, तेनी ऊपर बेसी धर्मदेशना आपे बे. ते सांजली राजा प्रमुख सर्वलोक तेमने वांदवा गया अने कंतरव सामंतपण कुमरने तेडी तिहां केवली पासें आव्यो. पंचानिगम साचवी देशना सांजलवा वे ग. देशनामां केवलीयें कर्मस्थितिनो विचार कह्यो, तेवारें कंठरव सामंतें
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. पूज्यु के हे नगवन् ! था जुवनतिलककुमरें श्यां कर्मकीधां जे ? के जेने योगें एने अकस्मात् महारोग उपनो ?
तेवारें केवलीनगवान ते कुमरना पाउला नवनी कथा कहेवा लाग्या धातकीखमना जरतदेवने विर्षे नुवनागार नामें नगर .तिहां एकदा प्रस्ता वें आचार्य घणा साधुना परिवारें परवस्या थका पधास्या. ते गहमांहे वासव एवे नामें शिष्य घणो अविनीत ,मुनिराजरूप हंसनी मांहे बगला सरखो बे, संक्लिष्ट अध्यवसायवालो महाकषायी विपरीत शिदित अश्वनी पेठे बे,तेने एकवार गुरुये कह्यु के हे महानुनाव ! तमें साधुननो विनय करो, जेथी तमने रुडं थाय ॥ यतः ॥ विण श्रावह सिरी, लह विण ज सं च कित्तिं च ॥ न कयाई उविणीन, सुकऊ सिंधि वियाणाई ॥ मुलाउ खंधप्पनावो उमस्स, खंधा पहा समुवित्ति साहा ॥ साहप्पसाहा विरुहं ति पत्ता, तसे पुप्पं च फलं रसोय ॥१॥ एवं धम्मस्स विनमूलं परमो से मुखो ॥ जिकित्ति सूचं सिंधि, निस्सेसं चानिगढ॥ ॥
हवे ते शिष्य गुरुनी शिदा सांजली तेवारें को बलतो थको बोलवा लाग्यो, के तमें एकला मनेज गुं कहो बो? बीजा अटला बेग डे. तेने केम नथी कहेता ? एकला महारी पनवाडेज काबडो बांधी लाग्यो बो? त्यादि वचन बोलतो प्रक्षेष वहेवा लाग्यो. साधु ऊपर उष्टात्मा थको सा धुने मारवाने अर्थ उपयो, तेने बीजे साधुयें वारी राख्यो. पनी ते प्रथे करी पाणिपात्रमाहे तिलपुट विष नाखतो हवो. ते विष नाखीने वली बि हीतो थको उठीने नाशि गयो, मुग्ध यति पाणी पीवा लाग्यो,तेने शासन देवतायें वारी राख्यो, अने कह्यु के हे साधु! तमें ए पाणी म पीयो. एमां पहेला पापीयें विष नारव्युं , पनी साधुयें ते पाणी जयणायें परतव्युं.
हवे ते वासव नामें कुशिष्य जे पोतानी मेलेंज जय पाम्यो थको ना शी गयो हतो, ते अरण्यने विषे नख तृषा खमतो दावाग्निमांहे बल्यो,रौ ध्याने बाल मरण करी सातमी नरकप्टथ्वीने विषे तेत्रीश सागरोपमने या उखे नारकी थयो ॥ यतः ॥ संतिमेयं वेठाणं, अरकाया मारणंतिया ॥ अकाम मरणं चेव, सकाम मरणं तदा ॥ १ ॥ बालाणं बाकामं तुमा, मरणं असतीनवे ॥ पंमियाणं सकामं तु, उक्कोसेणं सतीनवे ॥ २ ॥ इति श्रीउत्तराध्ययनसूत्रे ॥
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१७७
हवें सातमी नरकयी चवी मत्स्यादिक तिर्यचादिकना मादा जंमा जव जोगवतो थको साधुघातनी मनसानुं कर्म जे तुं, तेने अकामनिर्जरायें दय प्राय करतो करतो हमणां धनदराजानो पुत्र भुवनतिलक एवे नामें यो बे. ऋषिघातनुं कांइक कर्म शेष रह्युं हतुं, ते हमणां उदय याव्युं. तेमाटें अकस्मात् रोग कपनो, जेमाटें कर्म तथा रा ए वे सरखांज वे. जे म मागनार प्रस्ताव पासे अवश्य रण मागे, तेम कर्म पण प्रस्ताव पामे अवश्य उदय यावेज. तेवारें कुमरें केवल प्रत्यें पूढ, के महाराज ! ए महारो रोग क्यारे उपशम याशे ? तेवारें केवलीयें कयुं के तें कर्मनो घणो नाग जोग व्यो, माटें हवे तरत दय थ जाशे, पण तहारें हजी बीजां कर्म घणां बे, माटेंते तो जो तुं दीक्षा ले, तोज दय याय. तिहां पूर्वजव सांजलवायी कुमरने जातिस्मरण ज्ञान उपनुं, तेथी वैराग्य पाम्यो. तेवारें कंठरवादिक सामंतोनी सार्थे दीक्षा नीधी. पहेले नवें अरिहंतादिक दर्शनी आशात ना करी हती, तेहनी थालोयणाने ययें श्री अरिहंतादिक दर्शनो विन करवो अंगीकार करखो.
हवे दीक्षा लीधी सांजलीने यशोमती मूर्छा खाइ भूमियें पडी तेने स खीयें शीतलोपचारें करी सावधान करी तेवारें विलाप करवा लागी, ते
सखीयें कत्युं के चिंता म कर. ए वर गयो तो जवा दे. में तुमने बीजो राजकुमर जोड़ने पाणिग्रहण करावी देचं. तेवारें यशोमती बोली के हे सखी यो ! तमें ए सन्य वचन म कहो. महारे तो या नवमां पति पण एज
ने गुरु पण एजबे, माटें जो महारो पति न थयो, तो हवे हुं एने म हारो गुरु करीश. एवं कही ते कुमरी, माता पितानी खाज्ञा मागी, दीक्षा as विष्ट तपश्चर्या करती विचरवा लागी.
हवे कुमरनो परिवार पाढो वली गयो, तेणें जइ कुमरना माता पितानी प्रागन सर्व वात कही, ते सांजली कुमरना विरहथी राजा दुःख पाम्यो, ने दीक्षा लोधी, तेमाटें हर्ष पण पाम्यो ॥ यतः ॥ ते धन्ना ते साहू, ते सिं पसंसा सुरेहिं किति ॥ जेसिं कुटुंब मधे, पुत्ताई लिंति पवऊं ॥ १ ॥ ते धन्ना ते साहु, पता पुत्रपुत्तीणं ॥ वीवाहम हंसमिवं, कुषंति पव महिमं जे ॥
हवे ते कृषि समस्तसाधुनुं एकाकीपणे वेयावच्च करवा लाग्यो, तेनी के वलज्ञानी साधु पण प्रशंसा करवा लाग्या. जेम नरतचक्री ने बाहुबली यें
२३
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. साधुना विनयवेयावच्च कीधां, तेम एवं दशेनुं वेयावच्च कयुं तेमां वली सा धुनुं विशेषयी विनय वेयावच करवा लाग्यो. तेम वली घणा नव्यजीवोने केवलकर्मनी निर्जरा थवाना कारण माटें पोतानाज पूर्वला नवना करेला कर्मनी धर्मकथा उपदेशमां संनलावीने प्रतिबोध देतो हवो.ते साधु जे कांश धर्मोपदेश आपे तथा तप,जप, विनय वेयावच्चादिक जे कांश करे, ते सर्व कर्म निर्जरा हेतुयें करे, परंतु कांश इह लोकना स्वार्थमाटें करे नहीं, जे माटें जे कोई साधु इह लोकना स्वार्थे धर्मोपदेश करे,ते गृहस्थें सांजलवा पण नहीं ॥ यतः ॥ से निस्कूधम्म किट्टेमाणे, जो अन्नस्स हेन धम्मं या
केजा. णो पाणस्स हेन धम्म थाइरकेजा. गो वनस्स हेन धम्म आइ रकेजा. यो लेखस्स हेन धम्म आइरकेजा. णो सयपस्त हेन धम्म आइ रकेजा. णो अन्नेसि विरुवाईणं कामनोगाणं हेन धम्म माइकेजा. णो अगिलाए धम्म माइकेजा. नन्न कम्मं निजारहियाए धम्म माश्रकेजा. शहखनु तस्स निस्कूस्स अंतिए धम्मं सोना निसम्म उहाय वीराअस्सि धम्मे समुध्यिा ते तस्स निरकुस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म नुहाणेणं नहाय ते वीराएवं सबोपगता ते एवं सबोविरता ते एवं सहोवसंता परिनि वुढा ॥ इति द्वितीयसूत्र कृतांगे ॥
हवे ते नुवनतिलक साधु निरपेक्षपणे दश प्रकारे विनय करी निरपेद पणे तप करी, निरपेपणे धर्मोपदेश आपी, पादोपगमन अणसण क री, सकलकर्म क्य करी. आठ लाख पूर्व गृहस्थपणे, बहोंतेर लाख पूर्व साधुपणे, सर्व एंशी लाख पूर्वनुं आयु पाली मोदें पहोता. ए दश विनय नी उपर नुवनतिलक साधुनो दृष्टांत सांजलीने नव्यजीवें पण दश प्रकार नो विनय करवो. एज सनिलवानो सार . इति श्रीतपोगनाधिराज वि जय देवसूरीश्वर विजयमान राज्ये महोपाध्याय श्रीसकलचंगणिविरचि ते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि श्रीसम्यक्त्वप्रकरणबालावबोधे दशप्रका रविनयस्वरूप वर्णननामा तृतीयोधिकारः संपूर्णः ॥३॥
हवे त्रण शुदिनुं हार कहे जे. ॥ मण वाया कायाणं, सुही सम्मत्त सोहिणी तब ॥ मण सुक्षि जिण जिणमय, वऊ मसारं मुण लोयं ॥ २५ ॥ अर्थः-प्रथम मन प्रशस्त गखवू अने दर्शनना निःशंकितादिक आठ आचार , ते मनें करी पाल
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१७ए वा. तेने (मण के०) मनःशुदि कहीये. अने एज आठ आचार जे प्रश स्त वचनें करी पाले, ते (वाया के ) वाचा एटले वचनशुद्धि जाणवी. तेमज प्रशस्त कायायें करी पाले, ते (कायाणं के०) कायसंबंधी (सुही के०) शुक्षि जाणवी ॥ यतः ॥ मनः संवृणु हे विध, नसंवृतमना यतः॥ याति तंमुस्लमत्स्योशक, सप्तमी नरकावनिम् ॥१॥ प्रसन्न चंराजर्षे, मनः प्रसरसंवरौ ॥ नरकस्य शिवस्यापि, हेतुनूतौ कणादपि ॥ २ ॥ साथै निर र्थकं वा यन्, मनः सुध्यानयंत्रितम् ॥ विरतं उर्विकल्पेन्यः, पारंगांस्तां स्तुवे यतीन् ॥३॥ इति अध्यात्मकल्पमे ।। __ एत्रणे शुदि कहेवी ? तोके (सम्मत्तसोहिणी के) सम्यक्त्वने शोधनारी जे. जो मनःशुद्धि होय तो समकेत शुक्षि थाय ते विना शुद्धि थाय नहीं. जेम के अनंतानुबंधीया चार कषाय दय थई जाय. तो जीव समकेत पामे, अने वली पा समकेत जाय, तेवा, पण अनंतानुबंधीया ना उदयथकी जाय, जेमाटें अनंतानुबंधीया चार कषाय, ते समकेतने घात करे, अने अप्रत्याख्यानीया चार कपाय ते देशविर तिने घात करे, तथा प्रत्यारव्यानीया चार कषाय ते चारित्रने घात करे, तथा संजलना चार कषाय ते यथाख्यात चारित्रने घात करे, तेमाटें जिहां अनंतानुबंधी या चार कपाय होय, तिहां समकेत न होय तेथी त्यां मनःशुदि कहेवा य नहीं. केम के मनःशुदि जे , ते समकेतनी शोधनारी जे.
(तब के०) तिहां ते सम्यकदृष्टि जीव (मणसुदि के०) मनःशुद्धि करीज (जिण के०) श्रीवीतरागदेव बने (जिणमय के०) जिनमत ते श्री वीतरागदेवें प्ररूप्यो जे धर्म ए वेदुने (वऊ के ) वर्जीने ते विना सर्व लोक प्रत्ये (मसारं के०) असार करी (मुण के० ) जाणे एटले जगत मांहे सार ते एक श्रीवीतरागदेव अने बीजो श्रीवीतरागनो प्ररूपेलो धर्म ए बे वानां ने बीजो सर्व बालपंपाल ॥ यतः॥ श्रीवीतरागान्नपरोस्ति देव, स्तधर्मतोनास्त्यपरोहि धर्मः ॥ सम्यक्त्वलानान्न परोस्ति लानो,मोदा जिलाषान्न परोनिलाषः॥१॥ तथा अयसाउसो एस अहे एसपरम एस्से अणहे । इति हीतियांगे ॥ २५ ॥
हवे मनःशुदि उपर नरवर्मराजानो दृष्टांत कहीयें बैयें. आ जंबूहीप मांहेला दक्षिणाई जरतने विषे विजयवती नामें नगरी तिहां नरवर्म नामें
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. राजा राज्य करे , तेने रतिसुंदरी नामें प्राणवलना स्त्री , तेनी साथें विषयसुख जोगवतां तेने हरिदत्त नामें पुत्र थयो. हवे राजाने महाबुद्धिमा न एवा मतिसागर प्रमुख घणा प्रधान , तेमने राजनार सोंपी राजा पो तें प्रतिदिन पंमितनी साथें गोष्टि करे ॥ यतः॥ गीतनाद विनोदेन, कालो गति धीमताम् ॥ व्यसनेन हि मूर्खण, निझ्या कलहेन वा ॥ १ ॥ ___ एकदा प्रस्तावें राजा सनानरी बेग ,घणा पंमितोाव्या ने तेनी सा थे मंत्रीश्वरो धर्मवाद करे . तेमां एक बोल्यो के, दाक्षिण्य औदार्यथी परो पकार करवो, लोक विरु६ वातनो त्याग करवो, ते धर्म जे. बीजो बोल्यो वेदमां कह्या प्रमाणे अग्रिहोत्रादिक कर्मोनुं अनुष्ठान करवू ते धर्म .त्रीजो बोल्यो जे,कुलक्रमागत चाल्यो यावे ,ते धर्म जाणवो.चोथो नास्तिक बोल्यो के,धर्म नथी, अधर्म नथी, स्वर्ग नथी, नरक नथी, परनव नथी, पुण्यपापनो जोक्ता नथी, स्वर्ग नरकनो नोक्ता कोइ नथी, एवी रीतें नाना प्रकारना वा द चाल्या, पण ते मांहेली एके वात राजाना चित्तने विपे वेती नहीं, जे कारणमाटें मिथ्यावाद चर्चा खमे नहीं. कोडवाना लोटना मांझा थाय नहिं. कहुं छे के ॥ ताएयूं जे खमे नहीं तापीयें तो त्रूटी जाय ॥ मामा थाय तो गोधूमना थाय केम के ते ताएयुं खमे. पडी राजा विचारे जे जे ए स ह कोई पोतपोताने मन मान्यो धर्म कहे . ए सर्व मिथ्यावाद ले. पण महाराचिने प्रतिजासतो नथी. ए सर्व कोश्वाना लोट सरखो .अने जे स म्यक् वाद ते गोधूमनी पडसूदी बराबर जे. एम राजा धर्मना संदेहमां हे पड्यो . पण तेमांनो को नासतो नथी. एहवी राजाने मार्गानुसारि पीमति यावी ले तेमतिथी तत्त्वानिनिवेश थाय,ते तत्त्वानिनिवेशथी रूडी चेष्टा थाय ॥ यतः ॥ मग्गाणुसारिणोखलु, तत्तानणिवेस सुहा चेव ॥ होइ सम्मता चेहा, असुहाविय निरणुबंधंति ॥ १ ॥ इति यात्रापंचाशके ॥
हवे राजा गुरुधर्मना कथकनी वांडा करे बे, एवामां प्रतिहारें आवी विनति करी के हे स्वामिन् ! तमारो या जन्मनो मित्र मदनदत्तशेठ , ते सिंहारें आवी उनो रह्यो , तमारा दर्शनने वां . राजायें कह्यु के तेने तेडी लावो. प्रतिहार तेडी श्राव्यो. शेठ पण राजाने प्रणाम करीरा जाना आपेला आसने बेगे. राजायें पूब्युं एटला वर्ष कया कया देशने विषे तमें परिचमण कीg ? अने केटलुं धन उपायु ? तेवारें मदनदत्त
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२१ बोल्यो के, ढुं घणा देशोने विषे जम्यो अने तमारे प्रसादें घणुं धन पण पे दा कीg, तथा वली आ एकावली हार पाम्यो बु, ते हे राजन् ! तमें जू उ. ते हारने देखी राजा चमत्कार पाम्यो, अने पूबतो हवो के, देव ताने पहेरवा योग्य ा हार तुजने केम मल्यो ? ए वात महारी आग ल कहे. तेवारें मदनदत्त कहेतो हवो के, वातनो रस ढुंकार अने व ढवाडनो रस तुंकार , तथा तिरस्कारनो रस थुकार , निंदानो रस र कार, मित्राश्नो रस देकार, वेदनो रस नैं कार, यंत्रनो रस कोंकार , माटें सावधान थइ हुंकार आपो, तो वात कढुं. ते प्रमाणे रामायें कबूल करवाथी मदनदत्त कहेवा लाग्यो. हे स्वामी! तमारी पासेंथी शीख मा गी चाल्यो, ते पृथ्वीमंगल जोतो पदिका नामें अटवीमा गयो, तिहां तृ पा लागी गर्बु तथा तालवं सूकावा लाग्युं, पण पाणी किहांय मट्युं नहिं. ___ एवामां सकलगुणना आगार, क्षमासागर, अनेक देवतायें परवस्या देश नामृतें करी जव्यवृदने सींचता एवा श्रीगणधरनामा सूरिने में दीठा, ति हां में एकावलीहार तथा बीजां पण केटलाएक दिव्यानूषणे शोनित अने पोतानी देवी सहित एवो एक देवताने धर्म श्रवण करतो दीगो,तेवारें दुं सूरि ने वांदी देशना सांजलवा वेगो. मने परम हर्ष ऊपनो. तिहां ते देवता पो ताना नाश्नी पेरें प्रीतियें करीने महारी साहामुं जो रह्यो, भने निर्मलबु दियें करी परमानंद पामीने आचार्यप्रत्यें पूबवा लाग्यो के, हे स्वामिन् ! आ पुरुष दीपाथी मुझने प्रीति उपजे , तेनुं कारण गुं ?
तेवारें आचार्य कहेवा लाग्या,के ढुं तुजने ए वात कहुं बुं ते तुं एकाय मनथी सानल. कोसंबी नगरीयें विजयनामें राजा राज्य करे ,तेने एक वि जय बीजो विजयंत, एवे नामे वे पुत्रो जे. तेमनी बालपणामांज जननी मृत्यु पामी डे तेथी बेहु नाई धावमातायें धवरावता थका महोटा थया. यौवन पाम्या, तेवारें राजायें युवराज पदवी प्रापवानी मरजी करी.
एकदा ते बेदु नाई कीडा करवाने उद्यानमां गया , एवामा रमान मातायें विचायुं जे आबे बोकराने मारी ना, तो महारा बोकराने राज मलशे. नहिंका ए महोटा , तेथी राजना मालेक थशे. एम विचारी बल पामीने लाडुआमां विष नेली धावनी साथें मोकव्या, ते लाडु निष्कपट पणे बेतु नाश्य खाधा, तेथी विषव्याप्त थया, तेने योगे मूळ आवी गइ,
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. परंतु एना नाग्यनेयोग्ये तिहां कोई दिवाकर नामा ऋषि निश्चल ध्यानक रीने अध्ययन करवा बेठा बे, तेना प्रनावथी जेनी ध्वजाने विष गरुड डे एवो गुरुडध्वज नामें देवता त्यां याव्यो, एकाग्रपणे अध्ययन सांजलता थकां ते गुरुड देवताना महिमाथी बेदुनाइने विष उतरी गयुं. वे ना सा वधान थया, तेवारें दिवाकर साधुने जइ वांद्या, तेमने गुरुडदेवतायें कह्यु के साधुयें गुरुडोपपात अध्ययन गण्युं तेना महात्म्यथी ढुं आव्यो,तेथी त मारुं विष उतरी गयुं, तमें जीवता रह्या. नहीकां उरमान मातायें आपेला विषयी मरण पामीने उर्गतियें जq पडत. माटेा साधुनो उपकार मानो. ते कुमरोने देवताना वचनथी अने साधुना उपदेशथी वैराग्य उपनो तेथीदी कालीधी. घणा वर्षपर्यंत चारित्र पाली तपश्चरणा करी अंतें समाधि मरण पामी सौधर्मदेवलोकने विषे विद्युत्प्रन अने विद्युत्सुंदर एवे नामे देवता थया.
विद्युत्प्रन तिहांथ। चवीने विजयवती नगरीने विष मदनदत्त एवे नामें व्यवहारीयानो पुत्र थयो, पूर्वनवना अन्यास माटें ए मदनदत्तने देखवा थी तुमने आनंद उपजे जे ॥ यतः॥ नयणे कहिऊ पेमं, नयणे दोसंपि परिफुडं कह ॥ नयणे कहिऊ कामं, नयणे वेरग्गमुव दिसइ ॥ १ ॥
पड़ी ते देवता ए वृत्तांत सांजलीने हर्ष पाम्यो थको एकावली हार म हारा कंठमां पहेरावतो हवो. वली ते देवता साधुप्रत्ये पूबतो हवो के, हे स्वामी! मुझने बालस घणुं आवे ने तेनुं हुं कारण हशे ? महारो कल्पट छ प्रकंपायमान थाय ,महारां वस्त्र रजें करी मलिन थाय . तेवारें सा धुयें कडं के तहारं आयुष्य हवे शेष अल्प रयुं जे. देवतायें पूब्यु के ढुंच वीने क्या उपजीश ? साधुयें कयुं तुं विजयवती नगरीयें नरवर्मराजाने घे र हरिदत्त एवे नामें पुत्र थाश्श. तिहां तुं मदनना कंठनेविषे एज हार दे खीने प्रतिबोध पामीश. एवं साधुनुं वचन सांजली देवता हर्षवंत थयो थको साधुने वांदीने स्वर्ग गयो. __ पालथी मदनदत्ने साधुने पूब्युं, कहो स्वामी ! ए हार देवता क्या थ की पाम्यो? तेवारें साधु कहेवा लाग्या के,पूर्व चमरचंचा राजधानीने विषे नवो चमरेंड नपनो, तेणें अवधिज्ञानें जोयुं, तो पोताना मस्तक नपर सौ धर्मेनुं सिंहासन दीतुं; तेवारें अमर्ष रुपनो जे महारा मस्तक पर को ण चढी बेगो जे? तेने लोकपालादिक कहेवा लाग्या के, स्वामी ! ए सौध
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१८३ मैं बे. अनादिकालनी ए स्थिति लें, कोइथी टली जाय नहीं. इवेंकयुं, पूर्वै सर्वसमर्थ थया. कोइ टाली शक्यो नहीं, पण हुं टालीश. एम कही ते रीशने व सर्वेनुं कहे अवगुणीने सुसीमार पुरना उद्यानने विषे श्रीमहावीरजगवान प्रतिमायें रह्या वे, तेनुं शरण करी चाल्यो | य तः ॥ किंनिस्साएणं नंते असुरकुमार देवा ड्डप्पयंति गोयमा ॥ अरिहं तेवा, अरिहंत चेश्याणि वा अणगारे वा जावियप्पालो निस्सियाए नह
पयत्तित्ति. ते समयने विषे श्रीमहावीर विद्यमान हता माटें तेमनुं शर एग करी चाल्यो. महानयंकररूप विकूर्वी सौधर्मदेवलोकने विषे गयो. तिहां जयंकररूप देखी देवांगना त्रास पामी सौधर्मदेवलोकने विषे हालकल्लो लई रह्यो, अवधिज्ञानें करी जोयुं तो चमरेंडने दीठो, तेने यावतो जाणी वज्र मूक्युं, ते देखी अधोमुख फरी नागे, तेवारें तेना कंठथकी या हार हांथी संख्यातमें दीपें धरती उपर जई पड्यो.
हवे यागल चमरेंड् नागे जाय, ते केडें वज्र चाल्यो जाय. एटले वि चायुं जे, चमरेंड् सौधर्मदेवलोकमां यावे तेवारें एक श्री अरिहंत, बीजुं अरिहंतनुं चैत्य, तथा त्रीजुं जावितात्मा अणगार. ए त्रणनी निश्रायें खावी शके, अन्यथा ते यावी शके नहिं. ए चमरें श्रीमहावीर विद्यमान अरिहंत नी नीश्रायें ग्राव्यो बे, तेमाटें रखे मारुं वज्र जगवंतनी खाशातना करे ! एह विचारी पण केडे थयो, तेथी चमरेंड् अत्यंत सूक्ष्मरूप करी न गवंतना पग वचें पेतो ने वज्र जेटले नगवंतना पानी ढूंकडं यान्युं, एट वे तो खावी लइ लीधुं. ते जगवंतना शरण कस्था, माटे चमरेंइने सौध मूक्यो. पढी नगवंतने नमस्कार करी खमावी सौधर्मे सौधर्मदेव लोकें गयो. चमरेंड् हास्यो तेथी श्याममुख थयो यको चमरचचा राजधानी ये व्यो. ते चमरेनो हार विद्युत्प्रनदेवता पाम्यो. तेणें नाइनो प्रेम माटे विद्युत्सुंदर लघुनाइने ते हार प्राप्यो ने ते लघुनाइयें वली तुमने खाप्यो, एवं सांजली गुरुने नमस्कार करी तिहांथी चाल्यो, ते पच्चीश वर्ष लग पृथ्वी पर पर्यटन करी घणुं धन कमाइने तमारी पासें श्राव्यो हूं. हवे ते विद्युत्सुंदरदेव देवलोकथी चवी ताहरे घेर पुत्र पणे थयो बे . के नथी थयो? एवं सांजली राजायें हरिदत्तकुमरने तेडावीने ते हार देखाड्यो ने तेने ते
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. हार देखतांज जातिस्मरण उपy. तेथी पूर्वनव स्वरूप दीतुं, ने जेहवु म दनदत्ते कडुं हतुं, तेवुज राजा आगल तेणें स्वरूप कडुं. ___ हवे राजा चिंतववा लाग्यो के, जे प्रथम धर्मनो विवाद थयो, ते पुत्र नुं वृत्तांत सांजलवाथी महारो सर्व संदेह पोतानी मेलें बेदाइ गयो. माटें श्रा त्रणे जगतमां एक श्रीअरिहंतनो धर्मज नव्यजीवोने संसारनी बीकने बेदनारो तथा स्वर्ग अने मोदना सुखनो दातार डे, एवो निश्चय कस्यो. एवा समयमां वनपालकें आवीने राजाने वधामणी आपी के, हे स्वामी !
आजे नगर बाहिर पुष्पावतंसक नामा वननेविषे घणा शिष्यना परिवारें परवस्या, चार ज्ञानना धारक, सुरासुरें सेवित एवा गणधर नामें गुरु स मवसस्या , एवं सांजलीने जेम मेघनो शब्द सांजली मोर हर्ष पामे, तेम राजा हर्ष पाम्यो थको वनपालकने वधामणी आपी संतोपित करी पोतें हस्ती नपर वेशी पुत्र, मित्रादिकेंसहित तेमज चतुरंगिणी सेना संघातेंला आचार्यने वांदवा गयो, आचार्य प्रति पंचालिगम साचवी वांदीने योग्य स्थानकें वेसी धर्मदेशना सांजलवा लाग्यो. तिहां गुरु कहेवा लाग्या के,हे जव्यजीवो! सर्वधर्मनुं मूल धार एटले बारणांरूप, धर्मनो आधार, धर्म नुं नाजन, धर्मनो निधान, ते समकितज डे, तिहां जे देवने विपे देवनी बुद्धि, अने गुरुने विपे गुरुनी बुद्धि तथा धर्मनेविपे धर्मनी बुदि, ते सम्य क्व जाणवू. अने जे तेथी विपरीत ते मिथ्यात्व जाणवू. ते माटें सम्यक्त्व विना मोदप्राप्ति नहिं, अने मिथ्यात्व विना संसारनी वृद्धि नहीं.
तिहां देव ते रागपरहित श्रीजिनेश्वर जाणवा, तथा जे पंचमहाव्रत धारी साधु ते गुरु जाणवा, अने श्री जगवंतनो कहेलो दयामूल धर्म ते धर्म जाणवो, एत्रण तत्त्वना आराधनरूप समकेत पाले बते, ते पुरु पने नरक अने तिर्यचनी गति केवारे पण प्राप्त न थाय, तथा देवगतिनां सुख, मनुष्यगतिनां सुख अने मोदनां सुरख वश थाय, जे प्राणी एक अंतर्मुहूर्त्तमात्र पण समकेतने फरसे, ते निश्चेथी अईपुगत परावर्तन मांहे सिदि पामे. एवो धर्म,गुरुपासेंथी सांजलीने राजा पोताना पुत्रसहित समकेतपूर्वक श्रावकनोधर्म अंगीकारकरी हर्षधरतो पोताने घेर आव्यो.
एकदा देवलोकमां इंश्महाराज नरवाराजानी प्रशंसा करी जे ए रा जा समकेतमां एवो दृढ थयेलो ,के देवताथी पण चलाव्यो चले नहिं,
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. तेवारें सुवेगनामें देवता ते वचन खमी शक्यो नहिं, ने विचास्युं के हुँ जइ तेने समकेतथकी चलावं,पढी त्यां यावी अनाचारी साधुन्नु टोलुं बना व्युं एहवे नरवर्माराजा अश्वक्रीडायें निसख्या, तेणे ते टोलुं दीतुं. तेमां एक साधु, मदिरापान करे , एक साधु वेश्या संघातें कीडा करे ,एक साधु उघो को बांधीधनुष तीर ताणी मृगकेडें थयो . एम विचित्र प्रकारे साधु नां मुश्चेष्टित दीनां, त्यारें राजायें पूब्यु के,ए तमारो शो व्यापार ? साधुन क हेवा लाग्या के, अमो जे लोकने धर्मोपदेश दहियें बैयें, ते धूतीय बैयें, परंतु अमें पोतें तो ए करणी करीयें बैयें. राजा चिंतवे ने जे, जिनशासन मार्ग विषम ,पण मोदनो मार्ग . ए मार्गथकी जे पज्यो तो तेहनुं अना ग्य,ने जे ए मार्ग पामी पाधरो चाल्यो,पड्यो नहिं,तेहनुं नाग्य समजq. एम उलटुं राजानुं सम्यक्त्व दीपतुं थयुं, पण लवलेशमात्र मलिन न थयु. जेम सुवर्ण अग्निमांहे घालीयें तो दीप्त थाय, तेम राजानुं सम्यक्त्व थयुं,पबीराजा ये ते यतियोने शिखामण दीधी, के बाईं चारित्र पामीने कांएवां नमां या चरण आचरो बो? तमें पुरंत नरक पामशो,एहवं कही पापथकी निवर्ताव तो हवो. देवता अवधि झाने करी जुवे ने तो राजानुं सम्यक्त्व चडतुं दीखें, पण लेशमात्र पडतो परिणाम न दीठो.तेथी हर्ष पामी रूप प्रगट करी या वी पगें लाग्यो, ने कहेवा लाग्यो के, धन्य तमारो अवतार, जेवी सना मां बेठा महाराजे तमारी प्रशंसा करी तेहथकी सवाई प्रशंसाने तमे यो ग्य बो, एहबुं कही माथानो मुकुट थापी राजानी गुणस्तुति करतो थको स्वर्गे गयो.ने इंश आगल जेहवी वात हती तेहवी कही. ते दिनथकी राजा निर्मल सम्यक्त्व पालतो हवो. हडे हरिदत्त कुमर संघातें दीक्षा ले। संय म पाली तप तपी स्वर्ग पहोतो, अनुक्रमें मोक्पद पामशे. ए सम्यक्त्वने विषे मनःशुक्षि उपर नरवर्माराजानुं चरित्र सांजली मनःशुद्धिकरवी.
हवे वचनशुदिनुं स्वरूप कहे . ॥ तिबंकर चलणारा, हणेण जं मद्य सिघश्न कङ॥ पडेमि तब नन्नं, देव विसेसेहिं वयणसुदि ॥ २६ ॥ अर्थः-( तिबंकरचलणाराहणेण के०) श्री तीर्थकरना चरण कमलने बाराधवे करीपूजवे करी (जं के०)जे (मय के०) महारा अंतराय कर्मने योगें करी पुत्र अथवा लक्ष्मी आदिक वस्तुसंबंधी कोइ पण (कऊं के०) कार्य ते (नसिब के०) सिम न थयुं.
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. तो ( तब के) ते कार्यनेविपे ( पजेमिनन्नं के०) अन्य देवप्रत्ये आराधन करवा जावं नहीं. ते अन्य देवनां नाम कहे . हरि, हर, ब्रह्मा, चंमी,चामुं मा, देवपासादिक (देव विसेसेहिं के०) देव विशेष जाणवा, एटले वचनथी एबुं बोठे, के नगवंतना पदकमल आराधतां अर्थसिदि था. अथवा म हारा पूर्वकत सबल अशुनकर्मने योगें ते अर्थसिदिन था. तथापि हुँ अ न्यदेवनी याचना करूं नहीं: ए (वयणसुदि के०) वचनशुदिजाणवी ॥२६॥
हवे ए वचनशुदि उपर धनपाल पंमितनो दृष्टांत कहियें बैये. सकल देशमंमन श्रीमालवदेश , तेमां नऊयणी नगरीयें नोजराजा राज्य करे बे. अने तेहज नगरीनेविषे वेदाध्यायी षट्कर्मनेविषे निरत एवो सोमचंद नामें ब्राह्मण रहे ले. तेने सोमश्री एवे नामें नार्या , ते जेम चंइमाने रोहिणी वनन , तेम ते ब्राह्मणने पण ते स्त्री अत्यंत वन्नन बे. सर्वगुण नी पात्र ,तेने एक धनपाल अने बीजो शोजन, ए वे पुत्र बे. ते बेतु म होटा पंमित, सर्वशास्त्रना पारंगामी अने जोजराजानी सनाना मंझन .
हवे मध्यदेशने विपे वाराणसी नगरीमां गौतमगोत्री कामगुप्त ब्राह्मण रहे , तेना के पुत्र , एक महोटो ना श्रीधर अने बीजो लघुनाश्री पति , ते बेदु नाइ परस्पर प्रेमवंत चौद विद्याना जाण, ते प्रतिदिवस गंगास्नान करी ईश्वरनी पूजा करे. एकदा प्रस्तावें तेमने सोमेश्वर महा देवनी यात्रा करवानी मनीषा थ. तेवारें बेदु नाश पोताना खनाने विषे प्रज्वलित दीवा मूकी सोमेश्वरनी यात्रायें चाव्या, अनुक्रमें गुजरात देशे वर्षमान नगरें थावी रात वासो वस्या, तिहां बे पहोर रात्रि वीत्या के. एक पुरुष दीठो, तेणे मस्तकें जटा मुकुटधारेलो में, सर्वांगने विषे विनूति लगाडी, गले वासुकी नागनो हार पहेरेलो ने, जालस्थलनेविषेत्रीजुं लो चन धरे बे, बागें पार्वती , हाथमा त्रिशूल , माहापुष्ट शरीर अने उज्ज्वल वृषननुं वाहन , एवो ते पुरुष पहेला बेनाश्योनी आगला वी उनो रह्यो. तेने देखतांज बेहु नाश्च चमत्कार पाम्या थका तेने दंग वत् नमस्कार करी नाना प्रकारना बंदजातिना नवा काव्य रची स्तववा लाग्या, तेवारें सोमेश्वर बोल्या के, तमें महारी यात्रा करवा व्या हो ? अने तमारो अत्यंतनाव महारा नपर ने, एवं जाणीने हूं तमारी साहामो थाव्यो बुं. हवे तमारी यात्रा फलीभूत थ३. हुं तुष्टमान थयो जे मागो ते
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तर।
१७ आपुं. ते वात सांजली बेदु नाश हर्ष पाम्या थका कहेवा लाग्या के, था कायायें अमोने शिववास आपो, तेवारें सोमेश्वरें कह्यु के, जो तमोने शि ववासनी ना होय, तो एहिज नगरमां श्रीवईमानसूरि ने जेमनी धर पी तथा पद्मावती सेवा करे . तेनी तमें पण सेवा करो अने तेना कहेवा प्रमाणे चालो,के जेथी अजरामर शिववास पामो. एवं कही माहा देव अदृश्य थया. प्रनात समये ते बेहु नाइ पूलता पूलता पौषधशालायें आव्या, तिहां साधुन्ने नाना प्रकारनां तप करता सद्याय करता दीठा, तथा केटलाएक साधु काउस्सग्ग धारी, एकादशांगी अध्ययन करता दीग, जेवारें पौषधशालाना मध्यनागें याव्या, तेवारें महोटा पादपीठ सहित सिंहासन पर बेठेला अने विद्यायें करी सादात् वृहस्पति समान एवा श्रीवर्षमान सूरीश्वर प्रत्ये देखीने वेढु नाइ आवी तेमने पगें लाग्या. द शन देखतांज हर्ष पाम्या. याचार्य पूज्युं तमें कोण बो ? तेवारें तेणें सर्व वात अथथी ते इति पर्यंत मांमीने कही, ते सांजली वर्षमानसूरि खुशी थया, अने कहेवा जाग्या के, प्रथम तमें श्रीजिनशासननो मार्ग समजीने पनी दीदा व्यो. एम कही बे नाइने गुरुवें विनयमूल एवो श्रीजिनशा सननो मार्ग समजाव्यो, तेथी जेम सूर्यनां किरण पसरवाथी अंधकारनो नाश थाय, तेम ते वे नानु अझान नाश पाम्युं अने सझाननो उद्योत थयो. तेवारें ते वेदु नाश्यें दीक्षा लीधी. आचार्ये एकनुं जिनेश्वर अने बी जानुं बुद्धिसागर एवांबे नामो पाड्यां. ते वे साधु सर्वत्र विख्याति पाम्या, अनुक्रमें जिनागमना पारंगामी थया. सूरिना बत्रीश गुणें बिराजमान जाण। बेदु नाइनने आचार्यपद दीघां. अने श्री वर्षमानसूरीश्वर कहे वा लाग्या के, हे वत्सो ! तमें अपहिलवाड पाटण जा. तिहां चैत्यवासी बे,ते सुविहित साधुने पेसवा देता नथी, माटें तमें राजाने प्रतिबोध आपी ने जेम सुविहित साधु तिहां सुखें विहार करी शके, तेम करो. एवी गुरुनी आज्ञा पामी पाटण गया पण तिहां रहेवाने को स्थानकज मले नहीं.
हवे तिहां उर्लनराजानो पुरोहित सोमेश्वर नट्ट ,तेने घेर गया. ते पो ताना पुत्रने वेद जगावे . पण वेदना अर्थ विषम , ते कहेता स्खलाय ले, तेवारें जिनेश्वरसूरिये ते वेदनी कांमीनो अर्थ अस्खलितपणे कह्यो, ते जो ब्राह्मण चमत्कार पामतो थको विचारवा लाग्यो के था को सा
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. छात्कार ब्रह्मान रूप लइनेज आव्यो . तेवारें आचार्यने पूबवा लाग्यो के, तमें आ वेदनी कांमीना विषम अर्थ केवी रीतें जाणो बो? तेने आचार्य कयुं, अमें ब्राह्मण हता हमणां जैनी दीक्षा लीधी ,तेवारें सोमेश्वर नट्टे कह्यु के, तमें इहां रहो आपणे शास्त्रनी गोष्टि करिये आचार्य कयुं, चैत्य वासी अमोने रहेवा दीये नहीं. माटे अमाराथी इहां केम रहेवाय तेवा रें ते नहें पोतानी वेदशालामां याचार्योने राख्या. शुक्ष्मान अशनादिक
आपी गोष्टि करतां सर्वशास्त्रोनेविषे दपणुं देखी सोमेश्वर खुशी थयो. __ एवामां चैत्यवासीना नफर आव्या ते आचार्यने काढवा लागा, तेवारें सोमेश्वरें उसनराजाने जश्कयुं के, तमारा राज्यने विषे तमो आम्रवृक्ष तो उन्मूली नाखो बो. अने अर्कतरु वावो बो. राजायें कडं ते केवी रीतें? सो मेश्वरें कह्यु के था सुविहित साधु सर्वशास्त्रना पारंगामी जे तेने गामथी बाहेर काहाडो बोअने चैत्यवासी जे सर्व वातें हीण ,तेने राखो बो,एविपरीत ले. • एवी वात सांजलीने राजायें सर्व चैत्यवासीयोने कहेवरावी मोकल्यु के, जे कोइ ए सुविहित साधुने परानव करशे, तेने दुं महारा नगरमांथी बाहिर काहाडी मूकाश ? एवी रीतें उसनराजानो आदेश पामी, ते बेतु थाचार्य तिहां पाटणमां चोमासुं रह्या, पडी बीजा पण घणा सुविहित तिहां याववा लाग्या. ते सांजली श्रीवईमानसूरि घणो हर्ष पाम्या.
हवे जिनेश्वरसूरि विहार करता उऊयणी नगरीनेविषे गया, तिहां सोमचंब्राह्मणनी साथै प्रीति थइ. तेमना मुखथी चार वेदनां व्याख्यान सांजली, सोमचंद खुशी थयो. प्रतिदिवस यावी ज्ञानगोष्ठि करवा लाग्यो. .एक दिवसें सोमचंई कह्यु के,तमारा जेवा महोटा पुरुषो साथै माहारे पी ति थयेली ने बतां जो तमें माहारा पूर्वजोयें निधान दाटेलुं बे, ते देखाडी नहीं आपो,तो ते प्रीति शा कामनी? वली जो आप महारा पूर्वजोयें दाटेलु निधान देखाडो ? तो तेमांथी अई नाग तमोने यापुं. एवं वचन सांजली गुरुयें तेमां लान जाणीने श्रुतझानने बलें निधाननुं स्थानक देखाड्युं, प्र माण पण कडुं. ब्राह्मणे ते निधान खोदावी तत्काल प्रगट कीg, हर्ष पा म्यो थको गुरुने कहेवा लाग्यो के,एनो अईनाग तमें व्यो. गुरुये कह्यु के, अमें तो निधान मूकीने दीक्षा लीधी . माटें एने लश्ने झुं करीयें ? सोम चंई कडं महारी प्रतिज्ञाना क्यारे पण नंग न थाय, माटे तमें व्यो.
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
ՀԿ लश्ने तमाझं मन माने तेम करजो. पण महारी प्रतिक्षा पूर्ण करो.
गुरुये कह्यु के,सर्वथा अमारे इव्यनो कां पण खप नथी. परंतु जो त हारे प्रतिझानो प्रतिबंध , तो तहारा बे पुत्रमांथी एक थमने वहोरावी
आप, के जेथी तहारी प्रतिज्ञा पूर्ण थाय. सोमचं विचार करीने ते वच न अंगीकार कस्यं. पनी विचारीने निधान बे पुत्रने समनागें वहेंची प्राप्यं. पण बेतु पुत्र महामिथ्याग्रस्त ने माटे तेनी बागल वात करी शके नहीं अने पुत्रो पण राज्यमानी, विद्या पारंगामी तथा धनाढय एत्रणे गुणेक रीअनिमानवंत , तेथी कहेवाय नहीं एम करतां सोमचं बेहली अव स्थायें जेवारें रोगें पीडित थयो, तेवारें बेदु पुत्र आवी कहेवा लाग्या के, हे तातजी ! तमारे जे कांश शहा होय, ते कहो, तो पूर्ण करीये. तेवारेंसो मचंई कह्यु के, महारी उपर रण बे,ते उपर राखीने मरूं बुं माटें तमें सुपु त्र बो, ते महारुं रण उतारो. पुत्रोयें पूब्युं के,तमारी उपर झुं रण ? को नुं कां लीधुं होय तो कहो अमें तेने यापीने रणथी बोडावी? पितायें सर्ववृत्तांत कह्यु. तेवारें पुत्रो बोव्या, अमें तमारं रण जरूर उतारयुं. तमें ते नी कां पण चिंता राखशो नहीं. एवं पुत्रोनुं वचन सांजली सोमचंद हर्ष पाम्यो, अनुक्रमें परलोकें पहोतो. तेनी उत्तरक्रिया सर्व बेदु पुत्रं करी.
हवे बे नाइ विचार करे , के महाधूर्त श्वेतांबरें आपणा पिताने तस्यो ने, धूत्यो बे, बलमांहे पाड्यो , एटलाजमाटें जो हाथी मारमार करतो साहामो आवे तो पण श्वेतांबरनी पोशालमांहे पेसवुज नहीं. हवे ए कार्य
आपणने करवू पडशे, नहीं कां पितानो बोल शीरीतें पले? पनी बे नाच मांथी धनपालें कां, पितानुं रण उतारवा माटें श्वेतांबर थाइश? अने तुं घरमां रहे, तेवारें शोजन बोल्यो, महाराथी घरनो नार उपडे नहीं. माटे तुं घरमा रहे अने दुं श्वेतांबरनुं वचन अंगीकार करीश. पनी समस्त स्वजन वर्गने पूबीने शोजन ब्राह्मण श्रीजिनेश्वरसूरि पासे आव्यो, तेने गुरुयें पू ब्युं. हे शोजन ! तुं केम आव्यो? तेवारें शोजनें कह्यु के, मुजने जैनदर्शन नी उपर श्रदा नथी. पण महारा बापर्नु रण उतारवा आव्यो ,माटें जे कहो, ते करूं. तेवारें गुरुयें कडं के, श्रदाविना अमें कोश्ने दीक्षा आपता नथी, मा. अमारी पासें रहीने अमारो मार्ग समजी ल पड़ी तहारूं म न माने, तो दीदा लेजे. एम कही तेने गुरुयें पोतानी पासे राख्यो. पनी
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
जेम जेम जिनशासननो मार्ग समजातो जाय तेम तेम मिथ्यात्व उबुं यतुं जाय. एम जैनशास्त्र जगतां जातां तेने जैनशासन उपर यास्था यावी, तेथ जेम सूर्य उग्याथी हिमनुं तेज गली जाय, तेम तेनुं मिथ्यात्व सर्व गली गयुं. तेवारें गुरुयें कयुं, हे शोजन ! हवे तहारी इच्छा होय, तेम कर. तहारुं मन माने, तो दीक्षा ले. शोजन बोल्यो, मुऊने दीक्षा यापो महारे कांइ संसारनी गरज नथी. गुरुयें पण तेने रूडो दिवस जोइने दीक्षा यापी. पी ते शोजन मुनि, शास्त्र जगतां जातां महाप्राज्ञ समस्त शास्त्रना पारं गामी था. पण धनपाल पंमितें काव्यशक्तियें राजा नोजने वश करी जा ना दुःख माटे बार वर्ष पर्यंत पोताना देशमां यतिनो विहार बंध कीधो.
एकदा प्रस्तावें शोननसाधु गोचरीयें गया बे, पण हजी गोचरीनो व खत थयो नथी, तेवामां देहरामां देव वांदवामाटे नवी थोड़ करीने देव वांद्या. तिहां चोवीश तीर्थकरनी स्तुति जोडवानुं ध्यान लाग्युं. हवे गोचरी पण करवी ने थो पण जोडवी. एम करतां को एक गृहस्थना घरने विषे गया, तिहां याहार जेवाने जोलीमांथी पातरां बाहेर काढ्यां, तेमां
हार लइने फरी पाठा पात्रां जोलीमां नाख्यां. तिहां एक पापापनी लोढी पडी हती, ते पण ते जोलीमांहे घालीने उपाश्रयें याव्या ने गुरु बागल गोचरी लोई पात्रां जोलीमांहेथी बाहिर काहाढ्यां तेवारें तें मांथी लोढी नीकली, गुरुयें पूढयं. हे वत्स ! या गुं लाव्यो ? तेवारें शोजन मुनि सावधान थयो, खने गुरु यागों कयुं के हुं थोयो जोडवाना ध्यान मां हतो तेथीलोढ़ी नाखवानुं ध्यान रह्युं नहीं. तेवारें गुरुयें पूब्धुं थोइ केवा प्रकारनी जोडी बे ते कही संजलावो. शोननें कयुं, "जव्यांनोज विबोधनै कतर विस्तारिकर्मावली " इत्यादि चोवीश जोडाना यमकबंध बन्नुं काव्य कही संजलाव्यां ते सांगली गुरु हर्ष पाम्या घणीक साबाशी दीधी.
एकदा गुरु कयुंके, हे शोननमुनि ! तमें मालवे जइ धारानगरीने विषे धनपाल पंमितने प्रतिबोधीने जेम मालवामां यतिनो विहार थाय, तेम करो. एवी गुरुनी खाज्ञा पामी शोननसाधु धारानगरीयें गया. ते वखत तिहां धनपाल पंमित तंबोल चावतो रक्त होतें अश्वक्रीडायें निकल्यो बे, ते मार्गमां सामो मल्यो . हवे शोजनसाधुना यागला दांत महोटा बे ते देखी ने ए शोजन बे एवं कांइ जाणतो नथी तेथी धनपाल हास्य करी कहेवा
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी
२५ लाग्यो के “गर्दनदंत! नमस्ते” ते सांजली शोनने विचाखु जे जो पालो उत्तर न आयें, तो महारी पंमिता शा कामनी ? एम चितवी शोनने कह्यु, “मर्कटास्य वयस्य सुखं” एवी रीतें पाली बराबरीनी गाल सांजली, वैरीनाघा सरखी हैये लागी, पण पंमित जाणीने हर्ष पाम्यो थको कहेवा लाग्यो, “कस्य गृहे वसतिस्तव साधो ?" तेवारें शोननें कह्यु, “यस्य ममोपरि रुचिस्तस्य गृहे” __एवं सांजली साधुनां वचन जाणीने धनपालें पोतानुं माणस साथै मो कलीने ते साधुने पोताना घरना उँटला उपर उतारो दीधो. अने केटलि एक वार पनीअश्वक्रीडा करी पोते पण घरें याव्यो. अने शोजननी साथें गोष्टि करवा बेठो. साधुने पूयुं जे तमें महारा नाश्ने उत्तखो बो? शोनने कडं “तमें दी। उलखो !” तेवारें चमत्कार पाम्यो थको कहेवा लाग्यो के, शोजनसाधु तमेज बो के ? शोजने कह्यु ढुंज j. अने तमने वंदाववा आव्यो वं. ते सांजली हर्षवंत थयो थको थाहारने अर्थ पोताने घेर तेडी गयो. तिहां ते साधु शुक्ष्मान याहार लीये,अने प्रतिदिन छाननी गोष्टि करे.
एकदिवस शोजनसाधु वहोरवा गया तेने वहोराववा माटे मश्करीमां त्रण दिवस, खाटुं दहीं थाण्यु. तेवारें साधुयें कह्यु, ए अमारे कल्पे नहीं. तेने धनपालें कडं तमे ए खटपट मूको. खरं कारण तो ए जे ए त्रण दिवसतुं दही खाटुं थइ गयुं डे,ते तमोने नावे नहीं तेमाटे ना कहो बो.
साधुयें कह्यु एमां जीवोत्पत्ति थ डे धनपालें कयुं जो एमां जीवो दे खाडो तो तमारी वात सत्य मानुं ? अन्यथा मानुं नहीं. तमें कपट करो डो.
साधु बोव्या,अमें कपट करता नथी व्यो तमोने परीक्षा करवी होय तो जीवो देखाडी आपुं . एम कही एक स्थालिकामां दधि लय तेमां अल ता पोथी पलाली नाखी अने ते स्थालिका तडके मूकी तेने योगें सूक्ष्म बें झ्यिजीव असता उपरें प्रगट दीसवा लाग्या. ते धनपालने देखाड्या धन पाल देखीने यतिनां वचन उपर आस्थावंत थयो. __ एम प्रतिदिन श्रीजिनधर्मना रहस्य समजावतां धनपालने धर्मनपर थास्था आवती गइ, अने मिथ्यात्व अंधकारदल टलतुं गयुं तेथी सम्य क्त्व नद्योत प्रगट थयो तेवारें पोते कुटुंबसहित गुरुपासें सम्यक्त्वमूल बार व्रत उच्चस्यां प्रतिदिवस प्रथम श्रीजिनबिंबनी पूजा करे, पनी पाणी
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
२॥
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. पीये. पूजा कस्याविना कांड पण चीज मुखमां प्रदेपे नहीं. एम समकेतनी दृढता थइ. तेथी तेने मिथ्यात्व, दीतुं पण रुचे नहीं एवो थयो.
हवे एकदा प्रस्तावें जोजराजा आहेडे चड्यो . ते महोटो आहेडो कस्या पडी परिश्रांत थयो एक वृदनी नीचें यावी बेगे, अने पंमितोने क हेवा लाग्यो के, आखेटकनुं वर्णन करो तेवारे सर्व पंमितोयें जेने जेवी रीतें मनमां युक्तियो आवी, तेणें तेवी रीतें आखेटकनुं वर्णन कयुं. पड़ी राजायें धनपालपंमितनी साहामुं जोयुं, पण धनपालपंमित तो शुरू स मकेत धारी नवतत्त्वनो जाण बे, ते याखेटकनुं केम वर्णन करे ? तेथी धन पालें विचार करीने नीचेंप्रमाणे काव्य कयुं.
॥ श्रीनोजे मृगयां गतेपि सहसा चापे समारोपिते, ऽप्याकीतगतेपिल दनिहिते प्येणांकलमेपि च ॥ न त्रस्तं न पलायितं न चलितं नोनितं नो त्प्लुतं, मृग्यां महशिनां करोति दयितां कामोऽयमित्याशया ॥१॥ अर्थःश्रीनोजराजा मृगया करवा गया त्यां तत्काल धनुष्य उपर बाण चढावी लद आपीने हरणनी पासें बाण आव्यो तो पण ते हरण जयने पाम्यो नहिं, तथा नासी पण न गयो, तथा ते स्थानक पण मूकी गयो नहिं, तथा शब्द पण बोल्यो नहिं, तथा उंची फाल पण मारी नहिं. कारण के ते मृगें एवो विचार कस्यो जे था राजा तेज एक कामदेव ने ते मने वाहाली एवी मारी हरणी वश करी आपशे? एवी बाथी त्यांज स्थिर थइ रह्यो.
॥ किं कारणं तुकविराज मृगा यदेते, व्योमोत्पति विलिखति नुवं वरा हाः ॥ देव त्वदस्त्रचकिताः श्रयितुं स्वजाति, मेके मृगांकमृगमादिवराहमन्ये ॥ ॥ अर्थः-राजायें प्रश्न कस्यो जे, हे कविराज ! हरणो आकाशमां स्फाल मारे जे,अने सूवरो नूमि विदारण करे ,एनुं गुं कारण हशे ? त्यारे धनपाल कवि तेनो उत्तर कहे जे के, हे राजन् ! तारा शस्त्रनुं अत्यंत ती दण तेज जोड्ने नयनीत थया थका स्वजातीय एटले ए मृगनी जातीनो जे चश्मामा रहेलो मृग, तेनो आश्रय लेवासारु मृगो आकाशमां गंची फालो मारे में, अने सुवरो ते पोतानी स्वजातीनो मूल पुरुष जे आदिवा राह ते पातालमा डे तेनो आश्रय लेवामाटे पृथ्वी खोदे जे. एम सांजलीने कोई क्षेषीय राजाने कयुं जे ए कवि जैनी , तेथी मृग
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. यानुं वर्णन करशे नहिं,ते माटे एने मृगयानुं वर्णन करवाने कहो. ते सां जलीने राजायें तेम कह्यु, ते उपरथी धनपाल बोल्यो.
॥ रसातलं यातु यदत्र पौरुषं,कुनीतिरेषाऽशरणोह्यदोषवान् ॥ प्रहन्यते यलिनाति फुर्बलो, हाहा महाकष्टमराजकं जगत् ॥ ३॥ अर्थः-जीवनी हिंसा करवी एवं जे पराक्रम तेनो नाश था. अरेरे ! ए महोटा कष्टनी वा त ने अने या जगत् पण राजरहित देखाय ले, जेमां अशरण तथा दोष रहित उर्बल एवा पशुनने बलवान् मारवा जाय डे माटे ए अनीति .
ए काव्य सांजली राजा कोपायमान थयो अने लालचोल लोचन करी बोल्यो, हे धनपाल ! ए तें झुं कडं? तेवारें धनपाल था प्रमाणे बोल्यो ।
॥ वैरिणोपिहि मुच्यते, प्राणांते तृणनणात् ॥ तृणाहाराः सदैवैते, ह न्यंते पशवः कथं ॥ १ ॥ अर्थः-जो मुखमां तृण लश् शत्रु यावे, तो तेने तेनो वैरी मारतो नथी तो निरंतर तृण नक्षण करनार एवा पगुन्ने मारवां ते गुं कहेवाय ? ए श्लोक सांजली राजा नोजने करुणा उप नी तेथी धनुष्य जांगी नारख्युं, बाण नांग्या अने जावजीवसुधी आखेट कनु पञ्चरकाण कीg. राजा खुशी थयो धनपालने सिरपाव आप्यो, पहे रामणी करी, साबासी दीधी, अने कह्यु के तें मुझने पापथकी निवर्ताव्यो, माटें तुं महारो उपकारी बो.
पनी राजा आहेडाथी पाडो फरी पोताने घेर आवे . तिहां मार्गमा घणा ब्राह्मणोयें मली यज्ञमां होमवा सारु यज्ञस्तंनने विषे डाग बांध्यो बे, ते करुणस्वरें बुंबारव करे , ते जो राजा धनपालने पूछे ले के, आ बकरो गुं कहे जे ? तेवारें धनपाल पंमितें नीचेंप्रमाणे एक काव्य कह्यु.
॥ नाहं स्वर्गफलोपनोगतृषितोनान्यर्थितस्त्वं मया, संतुष्टस्तृणनदणेन सततं साधो न युक्तं तव ॥ स्वर्गे यांति यदि त्वया विनिहता यझे ध्रुवं प्रा णिनो, यज्ञ किं न करोषि मातृपितृनिःपुत्रैस्तथा बांधवैः ॥१॥ अर्थः-हे राजा,आ बकरो एम कहे जे जे ढुं स्वर्गनो अनिलापी नथी तथा तेना सु खनी प्राप्ति करवाने माटे तमारी पासें में याचना पण कीधी नथी,केवल तृ गनण करीने सदा संतुष्ट एवो निरपराधी हुँ बगं, बतां हे साधु ! मारी तमें हिंसा करो बो, ए कर्म तमने योग्य नयी: अने यझमां जीवनी हिं
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. सा करवाथी जो ते जीवने स्वर्गप्राप्ति थती होय तो माता, पिता, पुत्र, ना इयोयें करीने यज्ञ केम करता नथी? - ए श्लोक सांजलीने राजायें पूज्युं के,त्यारे गुं यज्ञ करवाथी स्वर्गनी प्रा ति नहिं थाय? त्यारे कवि बोल्यो.
॥यपं हित्वा पशून हत्वा,रुत्वा रुधिरकर्दमम् ॥ यद्येवं गम्यते स्वर्गे. नर के केन गम्यते ॥ ६ ॥ अर्थः-यझनो स्तंन तोडी नाखवाथी तथा पशु उन। हत्या करवाथी; तथा रुधिरनो कीचड करवाथी जो स्वर्गनी प्राप्ति थ ती होय, तो पड़ी नरकमां कोण जाय? वली राजायें पूज्युं के, यज्ञ केवी रीतनो करवो? ते कही संनलावो. त्यारे कवि बाल्यो.
॥ सत्यं यूपं तपोह्यग्निः, प्राणास्तु समिधो मम ॥ अहिंसामादतिं द द्या, देष यज्ञः सनातनः ॥७॥ अर्थः-सत्यरूप यस्तंन तथा तपश्चर्या रूप अनि अने पोतानां प्राणरूप समिध,अहिंसारूप आहुति,एवी रीतनो जे यज्ञ,तेज नाश रहित निर्दोष यज्ञ जाणवो. अने यज्ञ पण तेनेज कहेवो. अने हिंसा कारक जे यज्ञ, ते निंदवा योग्य ले. त्यारे राजायें पूब्युं के, ए वात बीजाने केम गमती नथी? तेनो उत्तर कवि बोल्या.
॥ हिंसा त्याज्या नरकपदवी सत्यमानाषणीयं, स्तेयं देयं सुरतविरतिः सर्वसंगानिवृत्तिः ॥ जैनोधर्मो यदि न रुचते पापपंकावृतेन्यः, सर्पिष्टं कि मलमियता यत् प्रमेही न जुक्ते ॥ ॥ अर्थः-नरकना मार्गरूप जे हिंसा तेनो त्याग करवो अने सत्य नाषण करवू, चोरी न करवी, विषय सुरखनो त्याग करवो, अने सर्व परिग्रहनो त्याग करवो एवा उपदेशरूप लहरों क री युक्त नत्तम जैनधर्म ने. ते बतां पापी लोकोने ते जैनधर्म जो रुचतो न थी तो त्यां दृष्टांत कहे जे के, जेम प्रमेह रोग ग्रस्त मनुष्यने घृत अरुचि कारक थाय दे, तो ते घृत काहिं उष्ट कहेवाय डे? तेनी पढ़ें याहिं पण जा ग. ए वात सांजली राजायें बकरो मूकाव्यो, धनपालने घj सन्मान दीg, पनी राजा घरे आव्यो.
हवे एकदा प्रस्तावें राजा सरस्वतीकंवानरण एवे नामें शिवना प्रासा दनेविषे धनपालने साथें तेडी गयो, तिहां राजायें पूब्यु के, हे धनपाल ! आजना समयमां कोईमां एवं ज्ञान , के जेथकी चमत्कार उपजे ? ध नपालें कह्यु के, एवं सम्यक्झान श्रीजिनशासनने विषे , अन्यत्र तो मि
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. थ्यात्व , ते सांजली धनपालने जूठो पाडवामाटे राजायें कह्यु के, आ प्रासादनांत्रण हार , ते माहेला ढुं कया छारमांथी पाडो नीकलीश ? ते सांजली धनपाल पंमितें एक माटीना गोलामांहे कागल नाखीने थगीधर ना हाथमां आप्यो. अने थगीधरने कयुं के,राजा बाहिर निकल्या पनी तुं आ गोलो राजाने यापजे. एम कही थगीधरने शीख दीधी. राजायें विचा खु जे, त्रण धारमाथी एक हारनुं नाम एवं लख्युं हशे. माटे त्रणे हार ने पडतां मकी शिलाटने तेडावीमंझपनी शिला पानी हटावी नपरली वाटें राजा निकल्यो, निकट्या पडी थगीधरें माटीनो गोलो राजाने आप्यो रा जायें ते गोलो नांजी मांहेथी कागल काहाढीने जोयुं, तो तेमां एवं ल खेलुं हतुं जे राजा शिलाट तेडी मंझपनी शिला पाठी करावी उपर चार करी निकलशे? ते वात वांचीने राजा चमत्कार पाम्यो अने धनपालने घणुं दान दश्ने श्रीजिनशासनने प्रशंसवा लाग्यो.
वली एकदा प्रस्तावें तेज शिवप्रासादने विपे धनपालपंमितने साथें ते डीने राजा गयो. त्यां राजाये तथा बीजा सर्व लोकोयें महादेवने नम स्कार कस्यो, बने धनपालपंमितें न कस्यो, तेवारें राजायें कविने प्रब्यं के, तुं केम नमस्कार करतो नथी? तेवारें कवियें आ प्रमाणे कयुं.
॥ जिनेंचंप्रणिपातलालसं, मया शिरोऽन्यत्र ननाम नाम्यते ॥ गजें गंमस्थलदानलंपट,शुनीमुखे नालिकुलं निलीयते ॥ ए॥ अर्थः-जिने रूपी जे चश्मा तेने वंदन करवाने नत्कंतित थयेनुं जे मारुं मस्तक,ते जि नेविना बीजाने नम्युं नथी अने नमस्कार करनार पण नथी; जेम हाथी ना गंमस्थलपर बेसीने तेना मद करणना सुगंध लेवामां लंपट, एवा जे चमरा ते कुतरीना मस्तक उपर बेसवाने कोइ दिवस बता नथी. ते सां नली राजा रीशाणो अने विचाओँ जे, या ब्राह्मणनी जाति , ते अवध्य बे, पण एणे शिवने नबाप्या माटे एनां नेत्र काहाडी लेवां जोयें. पनी धनपालने राजा कडं जे, तुं मत्तक्षेषी बो. त्यारें फरी कवि बोल्यो.
॥ नवबीजांकुरजनना,रागाद्याः दयमुपागता यस्य ॥ ब्रह्मा वा विष्णुर्वा,ह रिर्जिनो वा नमस्तस्मै ॥१॥ अर्थः-मायारूपी प्रपंचना नत्पन्न करना रा एवा, जे काम, क्रोध, मद, मत्सर, लोन इत्यादिकथी रहित होय पड़ी
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
एE जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. ते ब्रह्मा हो, वा विष्णु हो, वा महेश्वर हो, अथवा जिनेश्वर हो, तेने मा रो नमस्कार होजो. ए श्लोकथी पण राजा बराबर प्रसन्न थयेलो न दीतो, तेवारें धनपालें राजानो अभिप्राय जाणीने विचायुं जे रामा खुशी थाय तेम करूं? पण श्रीजिनेंविना अन्य देवनी स्तुति तो कदापि करूं नहि.
हवे राजा महादेवनुं देहरुं मूकी पोताना घर नणी चाल्यो, मार्गमां ए क वृक्षा मोशी मस्तक कंपावती हाथ धूजावती साहमी मली,ते जोइरा जायें पोतानी साथैना सर्व पंमितीने पूब्युं जे या मोकरी शिर धूणावती कर कंपावती गुं कहे जे ? ते सांनली पंमितो कहेवा लाग्या.
तेमांएक पंमित बोल्यो ॥ दोहा ॥ कर कंपावे शिर धुणे, बूढी काढुं क हे॥ हकारंता जम जडह, नन्नंकार करे ॥ १॥ बीजो पंमित बोल्यो के ॥ श्लोक ॥ जरायष्टिप्रहारेण,कुजीनता हि वामना ॥ गतं तारुण्यमाणिक्य,नि रीदेत पढ़े पदे ॥२॥ पनी राजायें धनपालनी साहामुंजोयुं, तेवार धन पाल नीचे प्रमाणे श्लोक बोल्यो,
॥श्लोक ॥ किं नंदी किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं विधुः किं विधाता, किंवा विद्याधरोऽयं किमुत सुरपतिः किं नलः किं कुबेरः ॥ नायं नायं न चायं न खलु नहि न वा नैव चासौ न चासौ,क्रीडां कर्तुं प्रवृत्तः स्वयमित हि तले नूपति!जदेवः ॥ ११॥ अर्थः-हे राजन् ! था मोशी तमोने जोड्ने एम कहे जे, जे आ कोण रु ? अथवा सादात् विष्णु ? के कामदेव बे ? तथा चं ? के ब्रह्मा ? के कोई गंधर्व ले ? के इंजे ? के नलराजा ? के कुबेर ? नहिं नहिं आ रुन होय, विष्णु न होय, मदन न होय, चंइ न होय, ब्रह्मा, गंधर्व, इंघ, नल, कुबेर एमांनो को नथी! पण आ पृथ्वीपर काडा करवासारु नोजराजा आवेला ने.
ए काव्य सांजली राजा घणो हर्ष पाम्यो. अने कहेवा लाग्यो के,हे ध नपाल! वर माग. जे माग ते यापुं. तेवारें धनपालें कह्यु के,चदु युगल आ पो. ते सांजली राजा धनपालमां मनोगत जाव ज्ञान देखी चमत्कार पा म्यो,पढी घणुं दान आपीने धनपालने खुशी कस्यो.
हवे धनपालपंमितें श्रीषनदेवना वर्णनमय श्रीषमपंचाशिका नामें ग्रंथ कयो, तेने शिलामां कोरवाने सरस्वतीकंगनरण प्रासादने विष स्था प्यो, एकदा नोजराजानुं काव्य करी जोजराजाने संनलाव्यु, ते कहे .
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
ए ॥अन्युघृता वसुमती दलितं रिपूरः,कोडीकता बलवता रिपुराज्य लक्ष्मीः॥ एकत्र जन्मनि कृतं तदनेन यूना, जन्मत्रये यदकरोत्पुरुषः पुराणः॥ १ ॥ __ अर्थः-त्रण जन्में करी पुराणपुरुष जे विष्णु,ते जे कार्य करता हवा, ते त्रण कार्य युवान एवा नोजराजायें करयां,ते जेम के,विष्णुयें वाराहावतार मां पृथ्वीनो नदार कस्यो, अने जोजराजें या जन्ममा पृथ्वीनो नदार क खो, विष्णुयें नृसिंहावतारमां हिरण्यकशिपुर्नु उरःस्थल फाडयुं, आणे या जन्में करीशमन- हृदय स्फोटन कयुं, विष्णुयें वामनावतारमा बलिरा जानी सर्व राज्य लक्ष्मी लीधी, ने जोजराजाये आज जन्ममां शमननी राज्यलक्ष्मी लीधी जे. एवं पोतानुं वर्णन सांजली राजा हर्ष पाम्यो थको ते षनपंचाशिकानी शिला नपरें मणिमय कलश स्थापतो हवो.
एक दिवसें राजायें धनपालने पूङयुं के, केम हमणां तमें राजसनाने विपे स्वल्प आव जाव करो हो ? धनपालें कह्यु, स्वामी! में नरत राजानी कथा रचवा मांझी , तेमां वखत रोकवो पडे ने माटे बराबर अवातुं न थी. राजायें कह्यु,तो ते मुझने संनलावो. तेवारें धनपालें का. कया वख तें संनलावं ? तेनो निर्धार करी आपो. राजायें रात्रिनो वखत तेराव्यो. पड़ी नित्यप्रत्ये रात्रिनी वखतें धनपाल कथा संजलाववा यावे, ते सांजलतां थ कां राजाने एवो रस उपन्यो के रखे ने या ग्रंथनो रस अन्यत्र जाय? एवा हेतुथी सोनानो थाल नीचें मंमाव्यो. ___ एकदा राजायें कह्यु के,हे धनपाल! तमें जरतने स्थानकें महारूं वर्णन करो. अने आयोध्याने स्थानकें उऊयणी नगरीनुं वर्णन करो. तथा च रित्रने स्थानकने विषे महाकालनुं वर्णन करो, तो हुँ तमोने घणुंज इव्य
आपुं. अने मानमहत्त्व पण बापुं. तेवारें धनपालें कयुं ॥ यतः॥ जम्मत जिग पयपंकय, बाराहगाउन होइ मग ॥ तेणे नदु महकऊं. कया विश्य रायमरकीव॥१॥ ते सांजली राजा क्रोधायमान थयो थको ते मलपुस्तक ल अग्निमांहे नाखी दीg, तेथी धनपालने दुःख लाग्यं त्यां थी पोताने घेर आवी जुना मांचा उपर सुइ रह्यो, एवामां तेमनी पुत्री तिलकमंजरीयें आवीने पूब्युं के, हे तातजी ! तमोने एवडं दुःख प्राप्त थ युं तेनुं हुं कारण ले ? तेवारें धनपालें निःश्वास मूकी सर्व वृत्तांत कह्यु. ते सांजली तिलकमंजरी बोली, हे तातजी ! तमें दुःख म करो. ए सर्व कथा
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
एG जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. महारे मुखायें , में सांजली , तेवीज हैयामां धारी राखी ने. तमोने लखावीश. ते सांजली धनपाल हर्ष पाम्यो थको स्नान करी देवपूजा कीधी. पजी ते कथारत्न, तिलकमंजरीयें लवाव्यं माटें ते ग्रंथy नाम पण तिलक मंजरी एवं राख्यु.पढी धनपालपंमित त्यांथी रीसाइने सांचोर नगरें गयो.
एवामां नोजराजानी सनाने विषे परदेशी वादी वाद करवा आव्यो, तेमणे नोजराजानी सनामांहेला सर्व पंमितोने हराव्या, कोश्नी पंमिता तेनी आगल टकी शकी नहीं. तेवारें राजाने धनपालपंमित सांगरी याव्यो माटे तेने तेडं मोकल्युं, पण धनपालें कडं के, जो राजा पोते पाहीं तेड वासारु आवे, तो हुँ यावं, नहीं तो सर्वथा आवू नहीं. तेवारें राजा पोतें जश् मनावीने तेडी लाव्यो, घणुंज मान महत्त्व दीधुं. धनपालनु आव, सांनतीने वादी चिंतातुर थयो. तेने रात्रियें सरस्वतीयें आवीने कह्यु के ए क धनपालविना बीजा सर्वत्रस्थानकें तहारो जय , माटें धनपालपंमित नी साथें तुं वाद करीश नहीं. एवं सरस्वती देवी, वचन सांजली ते वादी रात्रिनोज तिहांथी बानो मानो चालतो थयो. तेथी धनपालनो जय थ यो. सर्वत्र कीर्ति पसरी, यशोवाद पाम्यो.
हवे धनपालपंमित एक श्रीवीतरागदेवनी स्तुति करे तेविना अन्यदेव नी स्तुति सर्वथा करेज नहीं. एवी वचनशुधिपूर्वक समकेत तथा बारव्रत पाली अंतसमयें अगसण अाराधी स्वर्गे गयो. अनुक्रमें मोद सुख पाम शे? ए वचनशुदि उपर धनपालपंमितनी कथा कही. माटें वचनशुदिनु आराधन करवू. ए वचनशुदिनुं बीजं हार कह्यं ॥ २६ ॥
हवे त्रीखं कायशुदिनुं हार कहे . ॥निहंतो निर्कतो,पीलिङतो य दद्यमाणोवि ॥ जिणवऊ देवयाणं, णमा जो तस्स तणुसुचि ॥२७॥ अर्थः-खजादिकें करी (विहंतो के०) बेदातो थको तथा कुंत नालादिकें करी (निऊंतो के०) नेदातो थको त था घाणीमांहे घाली (पीलिङतो के० ) पीलातो थको दुइति निचे (य के० ) वली अग्निमांहे ( दद्यमाणेवि के०) दाजतो बलतो थको पण (जि पवद्यदेवयाणं के० ) श्रीजिनेश्वरदेवने वर्जीने बीजा अन्य मिथ्यावृष्टि देवो ने (जो के०) जे पुरुष (ए एमइ के०) न नमे, (तस्सतणु सुधि के) तेने तनुशुदि कहीयें. एटले कायदि कहीयें. अर्थात् एक श्रीअरिहंत दे
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२॥ वने तथा श्रीअरिहंतनी ज्ञाना प्रतिपालक जे साधु तेने प्रणाम करवो, पण बीजाने प्रणाम न करवो. एवो प्रथम प्रतिमापन्न श्रावकनी पेरें निय म राखे, तेने "रायानि-गणं” इत्यादिक बागार मोकलां न होय तेने निरागार समकेत कहीयें. अने जेब आगार मोकलां राखे, तेने सागार समकेत कहीये. प्रतिमाधर श्रावकनें निरागार समकेत होय. एवीरीतें जे मनःशुद्धि वचनशुदि अने कायशुद्धियें करी समकेत पाले अनुक्रमें तेने दायिक समकेत पण आवे ॥ २७ ॥
दवे कायगुदिनी उपर वजकरणराजानो दृष्टांत कहे . अवंती देशमां दशपुर नामा नगरनो वजकरणनामें राजा , ते एकदा आहेडे क्रीडा करवा गयो, तिहां घणी जीवहिंसा करी, तेमां एक सगर्ना मृगलीने मारी नाखी, तेनो गर्न तडफडतो त्रूटी पड्यो, ते देखी राजा ध्रज्यो; अने पश्चात्ताप करवा लाग्यो के हा हा !! में ए गुं अकार्य कयुं, अरे मुज पातकीनी शी गती थाशे !!!
एवामां त्यां एक शिलापाट नपरें ध्यानारूढ थयेलो साधु दीगो तेने रा जायें जश् नमस्कार कस्यो, यतियें धर्मलान दीधो. राजा बेसीने साधुप्रत्ये पूबवा लाग्यो के, तमें इहां था झुं करो बो? साधुयें कह्यु के, अमें अमा रा आत्मानुं हित करीयें बैये. तेवारें राजा हसीने बोल्यो के, तमें नूख तृ पा शीत तापादिक सहन करो बो, ए मु आत्महित करो बो ? साधुयें कयुं, जिहां अल्पकष्टथी घणुं सुख पामीयें, तेने आत्महित कहीयें; परंतु स्त्रीसंजोग मद्यमांसादि आहार करतां अनेक जीववध करवे स्वल्प सुख जोगवी पनी परनवें हजारो लाखो गमे वर्षो पर्यंत नरककुंममाहे पचवू पडे. हे राजन् ! तेने आत्महित न कहीयें. इत्यादिक धर्मर्नु रहस्य कहीने ते साधुयें राजाने समजाव्यो. राजा धर्म पाम्यो समकेत उच्चस्युं, अने एवो नियम कस्यो के, आजपली मिथ्यादृष्टि देव तथा गुरु प्रमुखने हुँ म हारी कायायें करी प्रणाम करूं नहीं एवो निश्चयथी दृढधर्म अंगीकार कस्यो.
हवे उजयणी नगरी सिंहरथ राजा , तेणें वजकरण राजाने पो तानी सेवा निमित्तें तेडाव्यो, पण वजकरण नियमनंगनी बीकथी पोता ना हाथनी मुश्किामां रत्नमय श्रीमुनिसुव्रतस्वामीनी प्रतिमा थापीने न मस्कार करती वखतें ते प्रतिमा सन्मुख प्रणाम करे, तेथी नियम अखंम
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
100 जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. रहे. एवामां कोक उर्जने ते सिंहस्थराजा आगल चाडी करी जे बजकर गराजा कांश तमने नमस्कार करतो नथी, पण वीटीमां गोठवेली पोता ना देवनी प्रतिमाने प्रणाम करे . ए वात सांजली राजा कोप्यो अने विचारयुं जे प्रनातें जश्ने एने काष्ठपंजरमां नाखू, जो प्रणाम करे तोज मकुं. एम सिंहरथराजाने ते रात्रियें बंध श्रावती नथी तेवारें राणी पू ब्युं, स्वामी तमोने एवडी शी चिंता उपनी के घपण आवती नथी? राजायें वजकरणनी वार्ता सर्व राणी बागल कही संनलावी. __ एवामां देवकुंमपुरनगरनो रहेवासी गुणसमुह नामें वणिक तेनी यमु ना नामें नार्या ले, तेनो चिबुक नामें पुत्र , ते घणा करियाणां लइ उऊ यणी नगरीये आव्यो . अने ते नगरमां वखार नाडे लश् व्यापार करतो अनंगलता वेश्यानी साथें लुब्ध थयो थको तेणे सर्व व्यनो व्यय करी नाख्यो. एकदा अनंगलतायें वणिकने कह्यु के, तुं राजानी राणीनां आन रण मने लावी बाप, तो दूं तहारी साथै विषय सुख जोगवं. तेवारें तेने संतोषवामाटें ते वणिक, राजाना मंदिरमां चोरी करवा पेठो, ते वखत ते राजानां वचन तेणे सांजव्यां. ते वणिक कर्मवशे चोरी करवा पेगे , पण जातें परम श्रावक बे, तेथी तेणें विचायुं जे महारो स्वामी वजक रणराजा समकेत धारी बे,ते रखे ने बंधीखाने पडे, माटे चोरी पडती मू कीने एक वार तेने जर खबर आपुं. पड़ी ते त्यांथी निकल्यो. दशपुरे या वी वजकरण राजानी आगल वात कही,तेणें प्रब्युं तहारा जाणवामां के म आव्युं ? वणि पोतानुं सर्व वृत्तांत कयुं, तेवारें वजकरणराजा धान्य पाणीनो संग्रह कर। कोटना दरवाजा बंधकरी पोते माहे रह्यो. ___ एवामां सिंहरथराजा पण चडी आव्यो. ते पण दशपुरना गढने वीं टी पडाव नारखी बेतो. केटलाएक दिवस पड़ी ते देश सर्व उजडजेवो थ गयो. एवामां श्रीरामचंद, लक्षण अने सीता एत्रणे जण दक्षिणदेश त रफ जतां ते देशमां आव्या. रामचंजीये नरेला घर, हाट, सर्व सूना दे खीने ते देशवासी को दरिड़ी पुरुषने तेनुं कारण पूबवाथी तेणें सर्व हकी गत कही. ते सांजली रामचंजीये ते पुरुषने दान आपी विसज्यो. पड़ी लक्ष्मणजीप्रत्ये कहेता हवा के, वजकरण राजा आपणो साहामी नाश्शु इसमकेतधारी , माटें एनुं सहाय करवू. एम कही ते त्रणे जण दश पुर
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२०१ नगरें याव्या.तिहां उद्यानमा उतारो करी लक्ष्मणने वजकरण पासें मोकव्यो, तेने देखी वजकरण नती उनो थयो,आसन आपी सर्व पोतानुं वृत्तांत कडुं. जोजननी सामग्रि करावी तेवारें लक्ष्मणे कयुं के, महारो स्वामी रामचंजी सीताजीनी साथे उद्यानमां बेग , तेमने मूकीने दुं जोजन न करूं. ते सांजली वजकरणराजा सर्व रसवती साथे लक्ष लक्ष्मणसहित उद्यानने वि थे श्राव्यो. सर्वजणायें हर्षसहित नोजन कयुं. रामचंजीयें सिंहरथरा जा पासें लक्ष्मणने मोकट्यो, तेणें जश् कयुं के, अयोध्यापति नरतरा जानो मोकलेलो दूत बूं. अने वजकरणराजा नरतराजानो साहामी नाई थाय , माटे तमें एनी साथै मेलाप करो, अने यु६ म करो. जो मेल न हीं करशो, तो तमारूं कहुं तमें जोगवशो.
एवां लक्ष्मणनां वचन सांजलतांज सिंहरथें नृकुटि चडावीने नफरने दु कम कस्यो के, आ दूत बतां महारी साहामुं चडी चडी बोले , माटें एने गर्बु जाली बाहेर काढी मूको. ते सांजली नफर नल्या, एटलामां लक्ष्मण एक आलानस्तन कपाडी सर्व नफरोने हतप्रहत करी सिंहरथनो मुकुट नांगी चोटली पकडी सिंहासनथी नीचें नाखी बेदु बाह बांधीने उघाडे पगे रामचंजी पासें लश् आव्यो. तिहां सिंहस्थ कहेतो हवो के, हे स्वामी! में तुमने उत्तख्या नहिं, महारी नूल थइ माटें अपराध क्षमा करो, तेने रामचंजीयें कडं के, वनकरणनी साथ मेलाप करी चालजे, अने आज पडी प्रणाम करवा बाबत एनुं नाम पण लईश नहिं. ते वात सिंहरथे कबूल करी. वजकरण साथै मेलाप कीधो. सिंहरथराजा रामचंजीनी घणी नक्ति करवा लाग्यो, केटलाएक दिवस तेना आग्रहथी तिहां रही, पनीद क्षिणदेश जणी चाव्या. सिंहस्थ उऊयपीयें आव्यो, अने वजकरण दशपु रें गयो. तिहां खबर आपनार वणिकने बानरण आपी विदाय कस्यो. ते वजकरणराजा मन, वचन अने कायानी गुड़ियें समकेत पाली स्वर्गे प होतो. अनुक्रमें मोक्षसुख पामशे. ए कायगुदि उपर वजकरणनो दृष्टांत सांनली मन, वचन अने कायानी शुधिपूर्वक समकेत पालवें ॥ इति तपागजालंकार श्री शांतिचंगणिशिष्य श्रीरत्नचंगणिविरचितश्री सम्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिकाप्रकरणबालावबोधे त्रिशुधिस्व रूपनिरूपणनामा चतुर्थोधिकारः ॥ ४ ॥
२६
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
हवे पांचमुं पांच दोष टालवानुं हार कहे . ॥ उसिङ जेश श्मं, ते दोसा पंच वणिका ॥ संका कंख विगिला, परतिब पसंस संथवणं ॥ २७॥ अर्थः-(जेश के) जे जीव, पांच दोर्षे करीने (इमं के०) आ समकेतने (उसिऊ के० ) दृषवे एटले दोष स हित करे, ते जेम कादवें करी वस्त्र मलिन करे तेम पांच दोषे करी सम केत मलिन करे . (ते दोसा पंच के०) ते पांच दोष (वाणिजा के) वर्जवा ते पांच दोषनां नाम कहे . एक शंका, बीजो कांदा,त्रीजो विति गिहा, चोथो परतीर्थिनी प्रशंसा अने पांचमो परतीर्थिनो संस्तव, परिचय.
हवे शंकादि दूषणोनुं स्वरूप कहे जे. ॥ देव गुरुम्मि तत्ने, अनि न वबित्ति संस संका ॥ कंखा कुमय हिला सो, दयादिगुणे लेस देसण ॥ ए॥ अर्थः-प्रथम शंकानुं स्वरूप गा थाना पूर्वाई करी कहे जेः-( देव के ) देवने विषे ( गुरुम्मि के ) गुरुने विषे (तत्ते के०) नवतत्त्वादिक पदार्थोने विषे (अबिनवनित्ति के०) अस्ति एटले, जे किंवा नास्ति एटले नथी इति एटले एवो जे ( संस के०) सं शय तेने ( संका के ) शंका एवे नामें दूषण कहीये. ते शंकाना बे नेद ने. एक सर्वथकीशंका अने बीजी देशथकीशंका जाणवी. तिहां धर्म अस्ति अथवा नास्ति एवी जे शंका ते सर्वप्रकारे शंका जाणवी. तथा बीजी देश थकी शंका ते धर्मपदार्थ तो ले परंतु या धर्म जे कहे थे,ते खरो ,किंवा आ अमुक धर्माचार्य जे धर्म कहे , ते खरो ? वली जिहां जश् बेसीयें बैयें तिहां सदु पोतपोताना धर्म दीपावी देखाडे . तो हवे कयो धर्म ख रो करी मानी ? एवी तेनी शंका टलेज नहीं. पनी आपणपुं शंका था णीने बीजा घणा जीवोने श्रीजिनधर्मनी नपरें शंका उपजावे, तेथी सम्य क्त्वमोहनी कर्म बांधे, जमतां जमतां एकने अनाजमांहे माखीना पांख नी शंका आवी तेनी तेने चांति थाय, पडी तेनाथी वली बीजा पासें बे ठा होय तेने पण ब्रांति थाय. ए दृष्टांतें जाणवी. तेमाटे देव श्रीअरिहंत अढार दोषरहित, बने गुरुसुविहित शुक्ष्प्ररूपक संप्रति विजयमान श्रीतपा गहाधिराज श्रीविजयदेवसूरि प्रमुख जाणवा. तथा धर्म तो श्रीअरिहंतना षित जाणवो. ए त्रण तत्त्व निःशंकपणे अंगीकार करवां. एमां लगारमात्र पण शंका आणवी नहिं. जे निःशंकपणे समकेत पाले, ते दर्शनसंपन्न क
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. हीयें ॥ यतः ॥ दंसणसंपन्नयाएणं नंते जीवे किं जणयश, देसणसंपन्नाया एणं नवमिन्नत्त लेयणं करिति परं नहाति परं अणुकाएमाणे, अणुत्तरे णं नाणदंसरोणं अप्पाणं संजोए मागे सम्मंनावे माणेणं विहरतित्ति ॥
हवे एनेविषे आषाढनूति आचार्यनो दृष्टांत कहे . आ जरतत्रे अ योध्यानगरीयें आषाढनूति आचार्य श्राव्या, तेणें घणा चेला कस्या. ते स व चेलानी पासेंथी वचन लीधुं के, तमें देवता था. तो मुझने आवी क हेजो. पण देवोमां उपना पनी सर्व विषयासक्त थया थका कोइ पण आ चार्य पासें कहेवा सारु आवे नहि. एकदा एक प्राणप्रिय परमवन्नन चेलो हतो, तेनी पासेंथी वचन ली, अने ते चेलायें काल करती वखतें कब्रल कीधुं, जे हुँ अवश्य तमारी पासें ावीश. पडी गुरुयें घणा दिवस वाट जो पण शिष्य याव्यो नहिं. तेथी गुरुने तत्त्वनी तथा परलोकनी वास्त उतरीग, नास्तिकमतीथयो. चारित्र मूकीने स्वबंदीथको विचरवा लाग्यो. बकायनी नपेदा करी पण वेष साधुनो राख्यो , उतायो नथी.
हवे पहेला देवता थयेला शिष्ये अवधिझाने करी जोयुं तो गुरुने ना स्तिकपणे विचरता दीठा. पड़ी गुरुने प्रतिबोधवाने अर्थे एक महोटुं स्था नक विकूयु. तिहां पोतें देवतायें आवी नाटक करवा मांमयु. एक गाम वालाने ते नाटक जोतां महीना वीती गया, ते नाटक जोतां नख तृ पा आवे नहिं. पडी ते देवता बालकनुं रूप ले घणां आनूषण पहेरीने गुरु आगल आव्यो. गुरुयें पूब्युं के, तुं कोण बो ? तेरों कयुं जे महारूं नाम पृथ्वीकाश्यो , गुरुयें तेनुं गलुं मरडीने सर्व बाजरण ल लीधां. वली केटलेक दूर ज बालकनुं रूप लश् अटवीमां गुरु पासें याव्यो, तेवा रें गुरुयें पूब्युं तहारं नाम मुंडे ? बोकरायें कह्यु के महारूं नाम अपका इयो ने, तेनां पण तेमज आचरण लसीधां. वली तेमज यागले जा तेउकाइयो, पढी वली वायुकाइयो, वली वनस्पतिकाइयो, पनी त्रसका यो, एम आगल पागल ज जूदे जूदे नामें बालकने वेपें गुरुने मल्यो अने गुरुयें पण तेने मारीने प्रत्येक वरखतें यानरण उतारी लीधां. वलीपागल ते देव एक साध्वीनुं रूप विकूर्वी आंखमां अंजन नाखी कंकणादिक सर्वथा चरण पहेरी उनो. गुरुयें तेने जोश्ने कयुं के, तुं महारी दृष्टिथी वेगली ज ती रहे. केम के तुं जिनशासनने विषे उसाहनी करनारी बो. ते सांजली
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. साध्वी बोली जे तमें महारां बिए जूठ बो, पण तमारी जोलीमां गुंबे, तेतो तपासो ? एवा मर्मनां वचन साध्वीना मुखथी सांजलीने शंका पा म्यो थको आगल चाल्यो, एवामां देवतायें राजानुं रूप बनाव्युं ते राजाने श्राचार्य साहामो धावतो दीठो. तेराजा प्रथमथीज ए आचार्यनो नक्त में एवा राजानुं रूप कहुं तेणे श्रावीने श्राचार्यने खमासमण देने वांद्या, अने मुखडीनी निमंत्रणा करवा लाग्यो पण आचार्ये जाण्यं जे पात्रं उघा डीश तोआ आनरण राजाना दीठामा यावशे, मात्रै थाहार लेवानो खप नथी, एम राजाने कर्यु. तो पण राजायें बलात्कारें सुखडी नाखवाने मि जोलीमां हाथ घाल्यो, एटले यानरण हाथमा श्राव्यां. ते जोरा जा क्रोधवंत थ बोल्यो के,अरे पापिष्ट ! महारा ब बालक तेंज मास्या दे, या वानरण सर्व महारा बालकोनां जे. ते सांगली जयथी कंपतो थको आचार्य तिहांज कनो रह्यो. कांइ पण जवाब दे शक्यो नहीं. तेवारें ते देवता पण चेलानुं रूप लश् आचार्यनी आगल यावी उनो रह्यो. अने पगे लागी कहेवा लाग्यो के,हे स्वामी ! आ नाटकादि कर्त्तव्य जे तमें जो यां ते सर्व मेंज करी देखाड्या. तेने गुरुयें कडं में तहारी घणीए वाट जो ३ पण तुं याव्यो नहि, तेथी महारी धर्म उपरथी थास्ता उतरी गश्, य ने में नास्तिक मत यादयो. तेने देवतायें कह्यु देवलोकनां विषयसुख मू कीने या मनुष्यदेवरूप उकरडामां कोण आवे? एकेकुं विषयसुख नोग वतां शेकडा वर्ष वहीजाय. एटलामां तो मनुष्यना तुब आनरवां पूरां था जाय, पण ढुंज तमारा स्नेहनो बांध्यो इहां आव्यो बु. जू तमने एक महारुं नाटक जोतां मात्र महीना वीतीगया. ए दृष्टांतें बीजा पण दे वलोक संबंधी सुख जागी लेजो. मानें तमें हवे कांहि पण श्रीजिनधर्मने विषे शंका करशो नहिं. हुं देवतानी कति पाम्यो बुं, ते एज धर्मना पसा यथी जाणी लेजो. ए प्रमाणे गुरुने प्रतिबोध आपीने देवता स्वर्ग गयो.
गुरु पण अलोया प्रायश्चित्त लश्ने गबवासमांहे यावी चारित्र पाल वा लाग्यो. तीर्थकरनी आझा पालतां तथा गुरुनी थाझा पालतां बारा धक थाय. जे कारणमाटे बाझायें धर्म . यतः॥ आणारुणोचरणं, आणाएच्चियं मंतिवयणा ॥ एतो यणाजोगंमिवि, परम वणिजो इमो हो॥ १॥ एसा परायणाहिं, पयडा जं गुरुकुलं च मोनई ॥ आयार पढम
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२०५ सुत्ते, ए तोचिय दंसियं एयं ॥ २ ॥ एयंमि परिचत्ते, आणाखलु नगवंतो परिचत्ता ॥ तिएय परिवाए, दोएहवि लोगाण चाउत्ती ॥३॥ नाणचरण परिणामे, एयं असमंजसं इमं हो ॥ पासण सिद्धीयाणं, जीवाण तहाय जणियमिणं ॥३॥ नाणस्स होय नागी, थिरचर दंसणे चरित्ते अ॥धमा आवकहाए, गुरु कुलवासं न मुचंति ॥ ५ ॥ इति श्रीएकादश पंचाशके ॥ एम आषाढनतिनो दृष्टांत सांजली त्रणे तत्त्वने विषे शंका बांमवी.
हवे कांदा नामें बीजा दूषण, स्वरूप कहीये डैयें. _(कंखाकुमयहिलासो के ) जे कुमतीनो अभिलाष होय, वांबा होय तेने कांदा कहीये. ते कांदा शाथकी थाय? तोके अन्यदर्शनीयोमां ( दयादिगुणे लेस देस के०) दयादिक जे गुण तेनो लेश देखवा थकी कांदा थाय, एटले कोक कुमति मिथ्यादृष्टि जीवमा दया, तप, संयमा दिक बाह्यगुण होय, ते देखीने मूढपणाथी एवं जाणे जे आ पण रूहूं करे , माटें एने थादरीयें तो पण नझुंज ने, एनी नक्ति युक्ति करीयें, तो सारी वात . एवी अन्यदर्शनीने विषे अनिलाषा करे, ते कांदा क हीयें. ए थकी कांदा मोहनीयकमें बंधाय, माटे एहवी सहहणा करवी के जे प्राणी श्रीजिनेश्वरदेवनी आज्ञा युक्त तप, जप, संयम, क्रिया, अनु ष्ठान करे; तेहिज प्रमाण जे. अन्यथा तो अंधना गमननी बराबरी थाय. एटले अंध पुरुष घणुयें उजाय तो पण मार्ग पामे नहीं. तेम श्रीतीर्थक रनी थाझा रहित जे कां करवू, ते सर्व उन्मार्ग प्रस्थित कहीये. तेनी करणी सर्वे अज्ञान कष्टमांहे गणाय माटें अन्यदर्शनीयोनां तप, जप, कि या अनुष्ठान देखीने कांदा न करवी ॥ यतः ॥ तेसि बहु माणेणं, उमग्ग
मोयणा अनिष्फलं ॥ तम्हातिबगराणा, लिएसु जुत्तोब बदमायो ॥ १॥ तेपुण समिया तिगत्ता, पियदधम्मा जीइंदियकसाया ॥ गंजीरा धीमंता, परम वणिया महासत्ता ॥ २ ॥ उसग्ग ववायाणा, वियागा से वगा जहा सत्ती ॥ नावविसुदि समेया, थाणारुणोय सम्मत्ति ॥ ३ ॥ ति एकादशमसाधु पंचाशके ॥ २ ॥ __ हवे एने विषे जितशत्रुराजा अने मतिसागर नामें प्रधाननी कथा क हे . जरत क्षेत्रने विषे वसंतपुर नामें नगर तिहां जितशत्रुराजा राज्य करे , ते नामें करी यथार्थज डे तेने मतिसागर नामें प्रधान , तेनुं
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
नाम पण यथार्थज बे. एकदा प्रस्तावें राजा सना जरी वेठो बें, एवामां aise श्वनो व्यापारी नाना देश तथा नानाजातिना घोडा लइ श्राव्यो बे, तेनी प्रतिहारें खावी खबर करी. राजायें व्यापारीने पासें बोलाव्यो तेणे पण पोताना घोडा राजाने देखाड्या तेमांथी जोइने चंकीर्णवर्णे बे हांसला घोडा राजायें लीधा. पढी राजा, जोजन करी ते घोडानी परीक्षा करवाने खर्थे मंत्री श्वरनी सायें अश्वक्रीडा करवा चाल्यो. एक अश्व उपर राजा बेोखने एकनी उपर प्रधान बेतो. खागल चालतां ते घोडा विपरी तशिक्षित निवड्या तेथी ते राजा ने प्रधान बेदु जग निर्मनुष्य घटवी मांजर पड्या. वली घोडा पण घणा दोड्या, माटें बेदु मरण पाम्या. अने राजा तथा प्रधान बन्ने मूख्या तरस्या घटवीने विषे नमता जमता एक जलस्थानक पाम्या तिहां स्नान, मक्कन करी निर्मल जल पीधुं खने केट लाएक दिवस तिहां मूख्या बेसी रह्या.
राजानुं सैन्य पण खबर जेतुं जेतुं तिहां खावी पहोच्युं. सर्व जनोयें राजाने नमस्कार को हवे राजा घणा दिवसनो मूख्यो हतो, तेणें मू खथी कंदो ने तेडी कयुं के, महारा खावामाटे चणा, खडद खने चो ला वगेरेना मोदक तथा वटक प्रमुख रसवती करो. कंदोइयें पण तेमज चाक प्रमुख धान्यना मोदक तथा वटक प्रमुख सुस्वादिष्ट कीधां. राजायें श्राद्धना ब्राह्मणनी पेठें तृप्तो थको घणादिवसनी नूख मटाडवामाटे चणानी रसवती खाधी. वली प्रडदनी रसवती खाधी. वली ते यास्वादिने चोलानी रसवती यास्वादी, एम अतृप्तथको घणो खाहार राजायें कस्यो. वैद्यादिकें वास्खो तो पण निवर्त्त्या नहीं. एम घणी जातिना पुष्ट खाहार संपूर्ण करा. तेथे राजाने अजीर्ण रोग थयो, ते रोगनी घणी वेदना जो वर्त्तध्यानी को काल करी दुर्गति पाम्यो.
हवें मतिसागर प्रधान पोताना शरीरनुं स्वरूप जाणतो हतो, वमन वि रेचन प्रमुख करतो हतो, जलदोष काहाठी वैद्योक्तमार्गे प्रहार तो ह तो. तेथी शरीरपाटव पामी घणा वर्ष पर्यंत सुख जोगवी अंतें समाधि मरण करी स्वर्ग सुखनो जाजन थयो.
हवे एनो उपनय कहे बे : - राजामात्य ते संसारी जीव जाणवा. तेमां रा जा खाहार लंपटी हतो तेथी चणकमाषादि कना मोदकादिक खारोगी
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
२०७ जीर्णादिक रोगें करी दुःखी थइ दुर्गति पाम्यो. तेम इहां ते राजाना जेवा जीव ते सार जिनधर्म की अज्ञानदर्शनानिलाप करी मरण पामी दुर्ग ति पाम ने जेम मंत्रीश्वर वमन विरेचनादिकें जलदोष टाली पथ्याहार सेवी घणा दिवस सुख जोगवी समाधिमरण करी स्वर्गनुं नाजन थयो, ते म ते मंत्री जेवा जे जीव ते तपश्चरणादिकें करी कर्मदोष टाली एकाग्रमनें श्री जिनधर्म खाराधी पंमित मरण करी स्वर्ग तथा मोनां सुख पामशे. ए म कांदाने विषे नृप मंत्री कथा सांगलीने अन्यदर्शननी अभिलाषा न करवी. हवे चिकित्सा दोष कहीयें ढैयें.
॥ विचिगिता सफलं पर, संदेहो मुणिजमिन डुगंडा | गुण कित्तां पसंसा, परिचय करणं तु संथवणा ३० ॥ अर्थः- श्रीजिनवचननो आराधन करवाना ( फलं के० ) फल ( प के० ) प्रत्यें जे ( संदेहो के० ) संदेह करवो ( स के० ) तेने ( विचिगिता के० ) विचिकित्सा कहीयें. एट जे मास पण पक्षपण वह अष्टमादिक जे तप करीयें ढैयें, तेथकी फल प्राप्ति याशे ? किंवा नही थाय ? एवो संदेह आणवो नहीं; परंतु श्रीअ रिहंतनी खाज्ञा पूर्वक जे तप जपादिक शुनकरणी करवी तेनां फल स्वर्गा पवर्गादिक बेज. एवो निश्वय राखवो ॥ यतः ॥ जोजहवायं न कुण, मिठ हि तदुकोनो ॥ वश्य मित्तं, परसंसं कमावि ॥ १ ॥ पूर्वे जे शंका दूषण कयुं ते श्रीजिननापित नवतत्त्वादिक पदार्थोंने विषे संदेह रूप जावं, ने तपश्चरणादिकना फल संबंधि संदेहरूप या विचिकि त्सा दूषण जाणवुं ए रीतें शंकाथ की विचिकित्सानो नेद समजवो.
वे व विचिकित्सानो बीजो जेद कहे बेः - ( उ के० ) तु एटले पुनः ( मुजिमि के० ) मुनिजनने विषे ( डुगंडा के० ) गंडा करवी. ते जे म के, यतिना मलें करीने मलिन थयेलां एवां गात्र तथा वस्त्र देखीने नाक मरोडे अथवा एम कहे के, प्रासुक पाणीथी स्नान करे तथा वस्त्र धोइ ना खें तो शी हरकत बे ? एवी मनमां चिंतवणा करे, ते गंडा कहेवाय. प
यतिने तो जगवाने अस्नानी तथा प्रदंतधावन वाला कह्या बे एवा न गवंतना वचननी अनास्ता खावी तेमाटे एने विचिकित्सा दोष कहीयें. ए
करी समकेत दूषाय तेथी खागले नवें कुरूप दुर्गंधपणुं पामे, अनंतसंसा रपणे परिभ्रमण करवापणुं पामे ॥ यतः ॥ चत्तारि उहं सिद्धा पता सं
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
១០០ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जहा ॥ त मा खलु पढमा उहसेवा परमत्ता तं जहा सेणंमुंभे नवित्ता, बागरा अणगारीयं पवश्ए निग्गंथे पावयणं णो सहहइ पो पत्तियणो रोचय णिग्गंथं पावयणं असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे, मणं उच्चावचं नियविणिग्याय मावजाइपढमा उहसिजाति॥
तथा चत्तारि सुहासिसेवा परमत्ता तं जहा ॥ सेगमुंभे निग्गंथे पावयणे निग्गंथं वा पावयणं सहह पत्तिय रोए निग्गंथं पावयणं सहहमाणे प त्तियमाणे रोएमाणे णो मणं उच्चावचं नियत्व णोविणिग्याय मावया प ढमा सुहसियाति ॥ इति स्थानांगे चतुर्थस्थानके ॥
हवे एनेविषे शुनमतिराणीनो संबंध कहीयें बैयें. जंबुद्धीपना जरतत्रे वैताढ्य पर्वतनी दक्षिणश्रेणिने विषे गजपुर नामा नगरें जयसूरि विद्याध राधिपति राज्य करे , तेने गुनमति नामें प्रिय अग्रमहीषी बे, ते स्त्रीनो जरतारनी साथै विषयसमुश्मा जीलतां सुखें काल जाय , एकदा प्रस्ता वें कोश्क जीव देवलोकथी चवीने गुनमतिनी कूरवरूप शुक्तिकापुटनेविषे मोतीपणे थावी उपनो, ते गर्नने प्रनावें राणीने अष्टापदादिक तीर्थनी यात्रा करवानो दोहोलो उपनो, तेवारें राणीयें राजानी बागल आवीने क झुं के, स्वामी! तमारी संघातें मुफने अष्टापदादिक तीर्थनेविषे जश्ने देव पूजा करवानो नाव ले. ते सांजली जयसरि राजा पूजानी सामग्री लश् गु नमतिने पण साथै विमानमां बेसाडी अष्टापद नणी चाल्यो. तिहां जश विविध प्रकारें नगवाननी पूजा करी, दोहोलो पूर्ण करयो.अष्टापदथी पाग वल्या. पनीमार्गमांधावतां एक वनने विषे जुर्गधनबल्यो ते नासिकाथी खम्यो जाय नहीं. तेवारें राणी पतिने पूबवा लागी, के आवा चंपकादि तरुवनने विषे दुर्गध श्यो उबले ले ? के जे नासिकाथी खम्यो जातो नथी. तेवारें राजा ये कयुं जे आगली शिलापट्टने विषे ऊर्ध्वजादंम सूर्यनिवेशित दृष्टियुग ए वा यति प्रत्ये तुं नथी देखती के गुं? ए महाकषिना शरीरनो मुर्गध उबले .
ते सांजली गुनमति कहे थे, के श्रीजिनशासनने विषे जेम सर्व विधि विधान रूडां कह्यां ने तेम जो यतिने प्राशुक जलथी स्नान करवू कयुं द त, तो शी हरकत हती? तेवारें राजायें कह्यु ए वचन बोलीश मां.जे कार ण माटे कयुं बे के ॥ शुचिर्नूमिगतं तोयं,शुचिनारी पतिव्रता ॥ शुचिाय रतो राजा, ब्रह्मचारी शुचिः सदा ॥ १ ॥ माटे ए यतिमहानुनावने अस्ना
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२०० नी थकां पण चारित्रगुणे करी पवित्रज कहीयें, तेवारें शुजमति कहेवा लागी के, घणादिवसनो मल शरीरने विषे निबिड थइ वेठो , तेने पाणी ये धोने आपणे मल टालीयें एवी महारी बा , एवां स्त्रीनां वचने करी राजायें पद्मिनीनी पुढे निऊरणाना शुद्ध पाणीमगावीने यतिनुं शरीर पो ताना हाथे परखाली पखालीने सर्व मलनो नाश करो. ते यतिना मेल टा लवानी साथे पोताना गुननाव डे माटें पोतानुं कर्म पण नाश कयुं, पनी प्रधान, बावना चंदन ला केशरथीघसीतेनां विलेपन करयां. एम ते यतिनुं शरीर सोनानी प्रतिमा सरखं क. पनी ते बेदु यतिने वांदी विमानें वेशी अन्यतीर्थ यात्रा करवा जणी चाल्यां. तिहांथी पाडा वसतां तेहिज रस्ते
व्यां. तिहां गुनमतियें यतिने घणाए जोया, पण दीठा नहिं. तेवारें प्रियपतिने कहेवा लागी के हे स्वामी! यति केम देखाता नथी? तेवारें रा जायें कडं आ जून यतिना शरीरने तो नमरायें वींटी ली, बे, तेणे करी दग्धस्तंन सरिखा देखाय डे आपणे जे श्रीखंझ केशरादिकें करी विलेपन कीधं, तेतो उलटुं यतिने परिसह कारण थयु, तेथी जमरायें यतिने संता प्या, माटे हाहा! ! गुण, ते दोषने अर्थे थयो.
पनी विद्याधर राजा तिहां यावीने यतिना शरीरथी नमराने अलगा करवा लाग्यो, एटलामां ते यतिने पण विषम परिसह सहन करतां घाती चार कर्मनुं क्ष्य थइ गयुं अने केवलझान नपर्नु, तत्काल चार निकायना देवता मव्या, सहस्र पांखडीनुं सुवर्णकमल रच्युं तेनी उपर बेसी केवली, धर्मदेशना देवा लाग्या. जयसूरिराजायें पगे लागीने कयुं के, स्वामी! में त मोने परीसहनुं कारण की, मा. महारो अपराध दमा करो. तेवारे सा धु बोल्या के, तें तो नक्ति करी पण ते नक्तिनुं फल मुझने परीसह पणे प रिणम्यु, ते माहारा पूर्वकृत कर्मने योगें जाणवू ॥ यतः ॥ कोडाणं कम्मा एं, उविरमाणं उपडिकंताणं ॥ चश्त्ता मुरको नडि, पुण अ वेश्त्ता तवसी वाजो ॥ १ ॥ तथापि ॥ बियजो मल मश्लं, मुणिमणे कुणा जिण मयवु गर्छ । सो उसिए सम्मत्तो, नवे नवे पाव उगलं ॥२॥
एवं गुरुनु वचन सांजलीने गुनमति राणी पण गुरुप्रत्ये खमाववा ला गी. मनमांहे खेद करवा लागी, तेने गुरुये कह्यु के, हे गुनमति ! तुं खेद म कर. तुमने निंदता गर्दतां खमतां मिहामिउक्कड देतां घणुं कर्म विलय थ
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ३ गयु. हवे एकनवें नोगववा जेटलुं शेष कर्म रह्यं , पनी ते स्त्री जरतार केवलीने वांदी पोताने नगरें आव्यां, अनुक्रमें पुत्रने राज्य यापी बेहु जणे दीदा लीधी. ते निरवद्य दीदा पाली बेहु सौधर्म देवलोकें देवदेवी थयां. हवे देवांगना चवीने सुरपुर नगरें सिंहरथ राजानी मदनावली नामें ते रा जानी अत्यंत प्राणप्रिय स्त्री थर, ते बेदु जण विषयसुख जोगवतां मदनाव लीने प्रोक्त यतिनी गंजान कर्म उदय याव्यं, तेथीअकस्मात तेना शरी रमांथी उंगंध उबट्यो ते घ्राणेंहिये खम्यो जाय नहिं. तेथी तेनी पासे को रही शके नहिं. वैद्यने पूब्युं तेवारें वैये कह्यु के ए रोग अमारा अनुनव प्रमाणे असाध्य जणाय , ते सांजली राजायें अरण्यमांहे प्रासाद करावी
आप्युं, तिहां ते राणी रही; अने राजायें ते महेलनी चारे दिशायें सुन टोने रक्षा करवा राख्या, राणी पोताना कर्मदोषनो वांक देखी तिहां रही. ___ एकदा ते प्रासादने विषे सूडा अने सूडीनु जोडलु आव्युं तेमां रात्रिने समे सूडी सूडाने कहे ले के, हे स्वामी ! को एवी रूडी वार्ता कहो, के जे थकी पापणी रात्रि सुखें वीती जाय, तेने सूडायें कह्यु के, कथा बे प्रका रनी ले. एक चरिया थने बीजी कप्पिया तेमांथी तमने कई कथा सांज लवानी ना? तेवारें सूडीयें कडं चरिता कथा कहो. ते सांजली सू डो कथा कहेतो हवो. अने सूडी तथा मदनावली राणी एबेदु सांजले ले.
पूर्व वैताढयपर्वतने विषे जयसूर विद्याधर राजा हतो, तेनी शुनमति नामें नार्या ते अष्टापदनी यात्रा करी पानी वली तेवारें मार्गमा यतिना मलमलिन गात्र देखी उगंला करवा लागी,पडी पतिना कहेवाथी डुगंबाथी निवृत्तिने यतिनी पूजा करी, ते श्रावकधर्म पाली दीक्षा लश् सौधर्म देवलो के देवांगना थइ. तिहाथकी चवीने सिंहरथराजानी मदनावली नामें स्त्रीथ . ए कथा सांजलतांज मदनावलीने जातिस्मरण झान उपन्यु. तेथी पोता नो पूर्वनव दीठो,तेवारें पोतानुं कर्म निंदवा लागी. वली सूडीयें पूज्युं, स्वा मी! ते मदनावली हमणां क्या ? सूडायें कह्यु, या प्रासादनेविपे बेती ने पूर्वले नवें यतिनी गंडा करवाथी मुर्गध शरीर पामी . हवे जो ए सात दिवस सुधा त्रिकाल जिनपूजा करे,तो एनी उर्गध विलय थ जाय. कपूर,कस्तूरी, जेवो शरीरनो गंध थाय. ते सांजली मदनावली हर्ष पामी; सूडी बागल पोतानुं वृत्तांत कह्यु. ए कथा कहीने सूडो सूडी बेदु अदृश्य
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तर।.
२१ थइ गयां, बने मदनावलीयें विचायुं जे ए सूडायें महारा पूर्वला जव शी रीतें जाण्या हशे ? एम चिंतवी पली सात दिवस सुधी एकाग्रमनें करी त्रि संध्य जिनपूजा करी. तेवारें सातमे दिवसें शरीरथकी सुगंध नाश पाम्यो. अने कपूर, कस्तूरी, कमलगंध प्रगट थयो. तेनी सुनटोयें जश् राजाने व धामणी आपी. राजायें तेमने हर्षदान आप्यु. पडी राणीने हाथी उपर बेसाडी वाजते गाजते नगरमांहे पेसारो करी घेर तेडी लाव्या.
एकदा उद्यानपालकें आवी राजाने विनति करी के स्वामी! तमारा म नोरथ उद्यानने विपे एक साधुनें केवलज्ञान नपर्नुले. तेनो देवता महोत्स व करे , तेवारें मदनावलीयें कह्यु के स्वामी! चालो केवलीने वांदीयें. धर्मदेशना सांजलीयें अने आपणा मनना संदेह नांजीयें, पढ़ी उद्यानपा लने वधामणी आपी राजा राणी वेदु वांदवा गयां. तिहां पंचाजिगम सां चवी पंचांग प्रणाम करी धर्मदेशना सांजलवा वेतां. देशना पूर्ण थयानं तर मदनावलीयें पूब्युं स्वामी ! जेणें मुफ कुःखणीने प्रतिबोध दीधो, ते सूडो कोण हतो? केवलीयें कह्यु के तहारो पूर्वला नवनो जरतार ते सूडाने रूपें यावी तुमने उपकार करी गयो. मदनावलीयें पूब्युं ते देवता हमणां तमारी सनामां आव्यो ? केवलीयें कहुं था महारी सन्मुख वेठो . तेवारें सुवर्णा जरणे नूषितथकी मदनावली वे हाथ जोडी देवता प्रत्ये कहेवा लागी के, हे स्वामी! तमें अवसर जो महारी ऊपर घणोज रूडो नपकार कीधो. देव तायें कह्यु के, ढुं हवे आजथी सातमे दिवसें चवीने विद्याधरनो पुत्र थाइश. तिहांतुंआवीने मुझने प्रतिबोध करजे. मदनावलीयें कह्यु के मने जाणवामां आवशे तो प्रतिबोध आपीश. ते सांजली देवता केवलीने वांदी स्वर्गे गयो.
हवे मदनावली वैराग्य पामीथकी राजाने समजावी दीदा लेती हवी. राजायें श्रावकधर्म पडिवज्ज्यो अने पोताने नगरें आव्यो. मदनावली साध्वी विविध प्रकारनां तप करती विचरे से. एकदा ते साध्वी रात्रिने स मयें हारदेशे कास्सग्गमा उनी रही . एवामां ते देवतानो जीव चवीने मृगांक एवे नामें विद्याधरनो पुत्र थयो . ते यौवन पामी विद्याशक्तिवं त थयो . ते विद्याधर पण तिहां आव्यो अने कामस्सग्ग धारिणी : करकारिणी एवी मदनावली साध्वीने यौवनवंती देखीने कामें पीडित थ यो थको प्रार्थना करवा लाग्यो के, हे मदनावली ! तुं आवी महारा वि
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. मानमां बेस. आपणे बेदु यौवननो लाहो लहीयें, तुं या तपस्यारूपी कुहाडे करीने शरीररूपी कल्पवेलीने शा सारु बेदी नाखे ? ताहरे यौव ने महारं यौवन अने महारे यौवनें तहारुं यौवन फसवंत थाय, एम क र. इत्यादि घणी युक्तियें करी प्रार्थना करी पण मेरु पर्वतनी चूलिका जेम वायरे करी चलायमान थाय नहिं. तेम ते साध्वी पण चलायमान थ न ही. तेवारें वली अनुकूल परिसह करवा लाग्यो. तेम बतां अमिथकी जेम सुवर्ण दीपे, तेम ते परिसहथी साध्वीनुं ध्यान दीपतुं थयुं. ते गुनध्यानने योगें साध्वीने तिहांज केवलझान उपमुं. तेनो देवतायें महोडव कीधो. ते महोचव देखी मृगांक विद्याधर चमत्कार पाम्यो. पनी केवली थयेली सा ध्वीयें तेने पूर्वनव संजलावी प्रतिबोध आपीने कह्यु के, तुं सांसारिक मो ह त्यागीने नि केवल श्रीजिनधर्मनेविषे प्रीति कर. विद्याधरने पोताना पू वैला नव सांजलवाथी जातिस्मरण शान उपमुं. तेथी वैराग्य पामी स्वय मेव लोच करी प्रव्रज्या लश् बेतो. अने साध्वीनें कहेवा लाग्यो जे तमें रू डो प्रत्युपकार करी पोतानो बोल पाल्यो. पड़ी ते चारित्र धाराधी तपस्या करी कर्म निर्घाटन करी केवलझान पामीमोदें पहोच्यो. तेमज मदनावली साध्वी पण घणा दिवसपर्यंत केवलपर्याय पाली मोदें पहोची. ए विचि कित्सा उपर शुनमतिनो दृष्टांत सांजली विचिकित्सा करवी नहीं.
हवे चोथो प्रशंसा दोष कहीयें यें. (गुणकित्तणंपसंसा के०) जे मिथ्यादृष्टिना गुणोनु कीर्तन करवू, तेने प्र शंसा कहीये. तेमनी प्रशंसा करवा यकी मिथ्यात्वनी वृद्धि थाय, तथा मि थ्यात्वसंबंधी करणी करवानी वा उपजे, एटले ए पण करणी रूडी , एवं जाणी मिथ्यात्वनी करणी विशेषथकी करे ॥ यतः॥ प्राणाएवढेते, जो ववूहेश्नोह दोसेणं ॥ सो बाणा अणवलं,मित्त विराहणं पावो ॥१॥ इति एकादशमसाधु पंचाशके ॥
हवे ते प्रशंसा वे प्रकारनी बे. एक देशथकी अने बीजी सर्वथकी; ते मां जे सदु पोत पोतानो धर्म करे, ते रूडो डे, एवं बोलवू ते सर्बथकी प्र शंसा कहीये, अने जे मिथ्यादृष्टिनुं एकीकरण वखाणQ ते देशथकी प्रशंसा कहीये. जेम जे को चोरने वखाणे ते चोर होय जेम अनयकुमारे चोर वखाण्या ते जातें चांमाल हतो तेने बोध थापी यांबानी चोरी मनावी
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी. २१३ पण ते जातें चोर न इतो तेम जे मिय्यादृष्टिने वखाणे ते मिथ्यादृष्टिमांदे नले. तथा जे अनाचारीने वखाणे तेने अनाचारी कहीयें ॥ यतः ॥ नवहिताहिं समणे निग्गं संजोयं विसंगनोइयं करेमाणे नाइकम्मर तं जहा ॥ खायरिय पडिणीयं, नवद्याय पडिणीयं, थेरपडिणीयं, सादु कुल गल संघ ना दंसण चरित्तपडिलीयं. जे घणीज मिय्यादृष्टिनी ने कुमतिनी प्रशंसा करे ते दर्शन प्रत्यनीक मांहे गणाय तेमाटे मिय्यादृष्टिनी प्रशंसा न करवी ॥ यतः ॥ जे निरकुवा निरकुणीवा परपासंमाणं पसंसं करेगा, जे विषनिएहगाणं पसंतं करेगा, जेनिएहगाणं खणुकूलं नासेका, जेलनि एहगाणं प्राययविसेका, जे निएहगाणंगाथं स पयरकरंवा परुवेका, जे निसहगाणं संतीए कायकिलेसाईए तवेश्वा संजमेश्वा माणेइवा विखा वा सुएवा पडिचेरएवा अविमुहमु-६ परिसामधगए सलाहिको सेवियां परमादम्मि एसु नवव जाणं जहा सुमति ॥ इति महानिशीथे चतुर्थाध्ययने ॥ वे एमिष्यादिकनी प्रशंसा करवाने विषे सुमतिनो दृष्टांत प्रशंसा का विषे नागीलनो दृष्टांत कथा रूपें कहीयें जैयें. या नरतदेत्रें मगधदेशें कुशस्यलपुरनगरने विषे जीवादिक नवतत्त्व ना जाए एवा सुमति अने नागील एवे नामें वे जाइ घणा धनाढ्य वसे . या अंतराय कर्मने योगें तेमनी पासेंथी धन जतुं रयुं, तो पण पो तानुं सत्य मूकता नथी. कूड कपट बल बद्म नथी करता. प्रतिक्रमण पौष धादिक करणी कया करे, तेने कदापि मूके नहीं. एम करतां जेवारें अत्यंत व्यहान थया ने सगा सरोजाना स्वार्थ पहोंचता रह्या अने मान महत्त्वपणुं पण उबुं थयुं, तेवारें वे जाइ विचार करवा लाग्या के,
पणे धनहीन थया तेथी सर्वत्र मानहीन यया ॥ यतः ॥ जा वीहो ता पु रिसस, होइ खालावडिव लोड ॥ गलीच दधणं वि, जला विदूरं परिचय ॥ १ ॥ तेमाटे हवे परों परदेश जइयें के ज्यां प्रापणने कोई उलखे नही. एवं विचारी ते बेहु जाइ परदेशें चाव्या. वाटें चालतां चालतां पांच साधु तथा एक श्रावकने मार्गे जता दीवा. तेवारें नागीजें कयुं के, हे नाइ सुमति ! आपने एसथवारो रूडो मल्यो माटें ए साधुनी साधें जश्यें. ते वात सुमतियें कबूल करीने बेहु जाइ तेमनी संघातें चाव्या. खागल चालतां ते साधुनी नागी परीक्षा करी अने तेथे ते साधुमां केटलां एक अपल
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
दीगं. जेम खराब कवेरात होय ते ऊवेरीनी परीक्षायें पहोंचे नहीं, तेम ते साधुउने पण नागीलें पाखंमी कपटी जाएया. परीक्षायें पोहोता नहीं तेवारें पोताना नाइ सुमतिने कहेवा लाग्यो के, आपले एनी सायें जइगुं नहीं, कारण के बावीशमा तीर्थकर श्रीनेमिनाथ भगवानना मुखथी में सां ल्युं बे, के ॥ जहा एवंविहे अणगारे रुवे नवंति ते कुसीले तेविडीए विनि सि, कप्पंतीति ॥ कुसिलोसन्न पासबो, सबंदो सिढिलो तहा || दिट्ठी एवी इमं पंच, गोयमा न निरीसए ॥ १ ॥
माटे ए सथवा मूकी बीजो सथवारो जोइयुं, जे माटें एमनी सायें जातां पण श्रालापसंलापादिक थाय, ते यातां श्रीतीर्थकरनी श्राज्ञानो प्रति क्रम याय, तेथी जीव अनंत संसारी थाय ॥ यतः ॥ पमाएणं च रत्ताणं, पंत संसार बढणं ॥ जम्मानि ढुक्का सावध, आयरिया ईल तिबयं ॥ १ ॥ प्रालाइ विय सरणं, तनंगे जाए किं न जग्गंति ॥ खाणं च यइकंतो, कम्मादेसा कुणइ सवं सांजली सुमतियें नागीलने कयुं के, तुं ए साधुर्जनो सथवारो मूकी जावा चाहातो होतो सुखें जा. परंतु हुं तो ए सथवारो मूकीश नहीं. तुं घेलो थयो बो. जे ए साधु मां दोष देखे बे. पण ए साधु निर्दोष म हानुजाव बे. एम बेदु जाइ परस्पर विरोध बोलता थका पोतपोतामां x प्रीति थावा लागी, तेवारें नागील कहेवा लाग्यो ॥ यतः ॥ जीवाणं चिय ए थं, दोस कमजाल कसिया || जे चचगइ निष्फिडणं, हेनवएसं न बुद्ध ति ॥ १ ॥ नोवेमि तुन दोसं, नायावि कालस्स देमिदोसमहं ॥ जहिय बु डिएस, होयरावि नलिया पकुप्पंति ॥ २ ॥
एवं नागीजनुं वचन सांजलीने सुमति जे बे, ते परिणामें दुर्मति ने, ते नाप्रित्येंकहेवा लाग्यो के, एक तुंहीज शास्त्रवादी श्राव्यो जे यावा म हानुभावना वर्णवाद बोजे बे. ढुंतो जाएं बुं जे ए साधुनी उपरांत
बेज नहीं, जे विचित्र प्रकारनां तप करे बे, गोचरीनी शुद्धि करे बे, तपें करी दुर्बल शरीरवाला थया बे, अने तुं महोटो श्रावक थइ पड्यो बो, के जे एवा महानुभावने कुशीलीया अने अनाचारी करी दीये बे. तेवा रें नागील बोल्यो जे, मुफने एनी ऊपर कांइ लगारमात्र पण द्वेषबुद्धि नथी. पण तीर्थकर पासेंथी सांजक्युं बे, जे एवा लक्षणें लक्षित जे होय, तेने कु शीजीया कहीयें, माटे तेवानुं मोहोढुं पण न जोवुं.
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२२५ तेवार सुमति बोल्यो के, जेहवो तुं निर्बुदि बो तेवो तहारो तीर्थकर प ण निर्बुधिज हशे, के जेणे एवा साधुउनी साथें संगत करवामाटे तुमने निवास्यो जे. एटलुं बोलतांज सुमतिनुं महोढुं नागीलें पोताने हाथें करी ढांक्युं अने कहेवा लाग्यो के, हे नाइ! एवं वचन मुखथी न बोल. श्री तीर्थकरदेवनी अाशातना करी अनंतसंसारी कां थाय ? तुंए साधु उनां तप किया अनुष्ठान वखाणे डे पण ढुं तो एमने बालतपस्वी जा | बुं, जेमात्रै एमां कांश साधुना गुण देखाता नथी, केम के गश्कालें एम णे एक ढण विनानी स्त्री दीती, तेने जोवा लाग्या पण तेनी उपरथी पोतानी दृष्टि पानी खेंची लीधी नहीं. तेमाटे कयुं जे के ॥ यतः॥ चित्त नित्ति न निहाए, नारीवासु अलंकियं ॥ नरकरंपिव दिणं, दिहि पडिसमाहरे ॥१॥ तथा वली तेने देखीने बालोयुं पडिकम्युं पण नहीं तथा बाजे प्र जातें वस्त्रने बेहडे हरिकायनो संघट कीधो तथा काचा पाणीनो परिसंनो ग कीधो, इत्यादिक एनां घणांज विपरीत आचरण में दीवां. तेमाटे तुक ने कहूं के, एनी संगति करवी तथा प्रशंसा करवी रूडी नथी.
ते सांजली सुमति बोल्यो के, नाइ ! ए साधु कुशीलिया हो अथवा सु शीलिया हो, पण महारे तो एनी साथेज जावू . माटें महारो हाथ म क. ए पड़ी ए लांबा निकली जशे तो ढुं एमने मली शकीश नहीं. तेवारें नागीलें तेनो हाथ मूकी दीधो, सुमति त्यांथी जश्ने पहेला साधुनने म व्यो. अनुक्रमें ते साधुननी पासेंथी ते सुमतियें दीदा पण लीधी. एम कु शीतीये कुशीलीया एकठा मव्या; जेम काजलमां काजल मली जाय तेनी पेठे जाणवं. अनुक्रमें बार वर्ष पर्यत महारौरव कुष्काल पज्यो. ते मां पांचे साधु घणा अनाचरण सेवी अंते अणालो अपडिक्कमी काल क री पिशाचादिक व्यंतरदेवोनां वाहनपणे उपना. तिहाथी चवी म्लेबदेश मां नपजशे. तिहां घणा जीवोनो वध करी मद्यमांस नदग करी सातमी नरकप्टथ्वीयें जाशे. तिहाथकी चवी घणाकाल नमीत्रीजी चोवीशी व ती समकेत पामशे. ते समकेत पाम्या पलीना नवथकी त्रीजे नवें पांच साधुमाथी चार साधु मोदें जाशे, अने पांचमो जे सर्वथकी महोटो ने ते तो अनव्य ले एकांत मिथ्यादृष्टि , ते केवारें मोक्ष पामशे नहीं.. वली गौतमस्वामीयें पूज्युं के, हे जगवन् ! सुमतिनो जीव जव्य ले के
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. अनव्य जे? जगवंतें कडं नव्य .. तेवारें गौतमें पूब्युं जो जव्य , तोते काल करी किहां जश् उपन्यो ? नगवान् बोल्या, परमाधामी देवनेविषे जइ उपन्यो. गौतमे पूज्यु, हे स्वामी! नव्यजीव होय, ते परमाधामी देवमां उप जे? जगवाने कयुं, हा उपजे. गौतमें पूयुं, कोण जीव उपजे ? जगवाने कह्यु के,जे जीव माहामिथ्यात्वने उदयें करी पोताना गुरुनो तथा पोतानो उपरी जे आपणी उपर परम हितचिंतवतो होय तेनो परम हितोपदेश न माने ते हादशांगी रूप श्रुतज्ञान विराधी सिद्धांतनो मार्ग जाणी अणजा णी अनाचार प्रशंसीने परमाधार्मिक देवोनी जातिमाहे जश् उपजे,तेम ए सुमति पण अनाचारीनी प्रशंसा करी श्रीतीर्थकरनी अाशातना करी पर माधार्मिक देवमां जश् उपनो के. वली श्रीगौतमे पूब्युं धागल एनी शीग ति थाशे ? नगवान् बोल्या, एवं अनाचारनी प्रशंसा करी तेथकी सन्मार्ग प्रनाशन वखाण्यु, ते कर्मना उदयथी अनंतसंसारीपणुं उपायु, तेमाटे हुँ एना केटला जव तुमने कहूं. एतो अनेक पुजलपरावर्त जमतां नमतां पण संसार परिचमणनो पार पामशे नहीं. तो पण तुमने एना संदेपथी स्वल्प नव कडं बुं, ते तुं सांजल.
श्रा जंबधीपने वींटी रह्यो जे लवणसमुह तेमा जे स्थानकें गंगा धने सिंधु ए वे महोटी नदीयें प्रवेश कस्यो , ते स्थानकथकी दक्षिण दिशिना नागें वेदिकाथकी पंचावन योजन गया. पड़ी साडाबार योजन प्रमाण हाथीना कुंजस्थलने आकारें साडात्रण योजन ऊंचो हीप , तिहां अत्यं त घोर अंधकारमय घडीयालने थाकारें सुडतालीश गुफा ले. ते गुफाउने विपे जलचारी मनुष्य वसे . ते मनुष्य वजषजनाराच संघयवाला, माहाबलिष्ट पराकमवंत, साडाबार हाथ प्रमाण शरीरवाला, संख्याता वर्ष श्रानखाना धणी , तेमने मद्य मांस प्रिय , स्वनावेंज परस्त्री लंपट ले, देखवामां काले वर्णे, उर्वर्ण, दुर्गंध, खरस्पर्शवाला मार्जार, राक्षसना जेवी कठिण नापाना बोलनारा, एवा अंतरंग गोलीया मनुष्य ने तेनी अंतरंग गोली ले चमरी गायना श्वेतवालनी साथें गुंथी बेदुकाने बांधी समुश्मा हे प्रवेश करीयें तो तेना महिमायें करी जलहस्ती, मघरमब, कन्डप, सुसु मार, ग्रहादिक जलजंतुथी जय थाय नहीं. अने समुश्माहे पेशी समुह अवगाहीने मनोवांबित रत्न से घरे आवे. पण ते मनुष्योनी गोली काहा
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
१७ डतां लेतां घणु कुःख उपजे, ते फुःख नारकीना उखनी साथें मेलवीये ते टलां ने पण ते जीवतांथकां तेहनी गोली काढी शकाय नहीं, जे कारण माटे ते मनुष्यो महाबलवंत होय .
हां श्रीगौतमस्वामीयें पूज्यु के, हे जगवन् ! ते मनुष्यनी गोली कया प्र कारें लेवाय ? तेवारें लगवाने कह्यु, हे गौतम! तेहज लवणसमुज्नेविषे वजमय शिलासंपुट महाघरट्टने आकारें . ते शिलासंपुट उघाडीने तेमां मधु, मद्य, मांसना नाजन मूके ते मूकनार रत्नदीपना वाणीया पापना प्राणीया एवा मनुष्य . ते मनुष्यने धावतां जेटले ते देखे, तेटले ते रत्न वाणीयाने मारवाने अर्थे उजाता धाइ आवे अने रत्नवाणीया.पण जेवारें तेमने थावता देखे, तेवारें मधु, मद्य, मांसना खंमें नरेला तुंबडा नाखतां नाखतां ते रत्नवाणीयां पाला नासे. अने पहेला अंतरंगगोलीया मनुष्य ते मधुश्रादिकने खावामाटे तिहां ते शिलासंपुटमांज रहे. ते खाइ रह्या नंतर फरी पण तेमनी पनवाडे दोडे. तेवारें वली पण ते तेवीज रीतें मद्यमांस ना खे.ए प्रमाणे जे स्थानकें वजमय शिलाघरट्ट उघाडा करी मूक्या ,तेमाहे मांसादिक गंधना खेंच्या खावामाटें प्रवेश करे अने रत्नवाणीया पण ते स्थानकें आवे, पडी सात आठ दिवस के. सर्व हथीयारें सहित सन्नाह पहेरी ते शिलाघरहने चारें बाजु सात मांझले वींटी केटलाएक ते शिला संपुट एकता मेलवे जो ते मांहेथी पण ते निकलवा पामे तो ते मनुष्योस घलाये रत्नवाणीयानो प्रलय करे, एवा ते बलवंत जे. पाखो रत्नछोप उजड करे, पण ते घरदृसंपुटमांहे आव्याथका पण मरे नहीं. अने तेनां हाड काना खंग पण थाय नहीं. एवा ते धर्मर , तेमनां हाड पण वजमय जे.
हवे ते रत्नवाणीया महाबलवंत वृषन जोतरी अरहट्टनी पेरें ते वजशि लासंपुट जमाडे. एवं एकवर्ष पर्यंत करे, तिहां अंतरंग गोलिया एक वर्षसु घी महोटी वेदनाने अनुनवीने जो काल करे, तोपण तेना हाथ पग प्रमु खनां संधाण त्रूटे परंतु हाड खंमोखम थाय नहीं. एटले हाडना कटके कटका थाय नहीं. हवे जेवारे ते मनुष्योना आंगुलि प्रमुख अवयव आटा नी पेठे बाहेर पडता देखे, तेवारें रत्नवाणीया, ते शिलासंपुटनो उपरलो पुट परहो करे अने शोधी करीने तेहनी गोलीयो उपाडी लीये.
इहां गौतमस्वामी पूबवा लाग्या के, नूरख्या तरस्या बता एवी वेदनाने
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. अनुनवता थका पण एक वर्ष पर्यंत केम जीवता रही शके ले ? लगवाने कमु स्वकतकर्मना उदयथकी जीवता रहे जे. हे गौतम ! ते सुमतिनो जी व परमाधार्मिक देवतामांहेथी चवीने अंतरंग गोलिया मनुष्यमांहे यावी उपजशे, तिहां वेदना नोगवी वली पण तेहज अवतार लेशे. एम अनुक्र में सात नव तिहांज करशे. पनी नवमे नवें व्यंतरदेव थाशे, दशमो वन स्पतिमां लींबडानो अवतार लेशे, अगीयारमो मनुष्यमां स्त्रीपणे उपजशे. बारमो तिहाथी बही नरकप्टथ्वीयें जाशे. १३ तिहाथी चवी कोढीयो मनु ष्य थशे. १४ तिहाथी चवी यूथाधिपति हस्तिपणे उपजशे. १५ तिहांथीच वी अनंतकाय वनस्पतिमाहे. १६ तिहां अनंतो काल परिभ्रमण करशे. १७ तिहांथी निकली मनुष्य थशे. १७ तिहाथी चवी स्वयंनुरमण समुने वि पे माहामत्स्य थशे. १५ तिहाथी मरी सातमी नरकप्पथ्वीयें जशे. २० ति हाथी चवी बलदपणे ऊपजशे. २१ बलद मरीने मनुष्य थाशे. ए प्रमाणे घणा नव करी महान्यकुलनेविषे अवतार पामी दीदा लेशे. २२ ति हांथी अनुत्तर विमाने देवता थशे. २३ तिहाथी चक्रवर्ती महासम्यग्दृष्टि थाशे, ते चक्रवर्तीनी पदवी नोगवी पनी दीदा लश् यथोपदिष्ट दीदा पाली केवलझान पामी २४ मोदें जशे. माटे हे गौतम ! ए सुमतियें कुशी लियानी संगति करीवली ते कुशीलियानी प्रशंसा करीने तीर्थकरदेवनी आ शातना करी तेथी अनंता नव संसारमा परिभ्रमण करशे. अंतरंग गोलि यानां दुःख पामशे, तेमाटें मिथ्यादृष्टि प्रमुखनी प्रशंसा न करवी ॥ इति महानिशीथना चोथा अध्ययनगत सुमतिनी कथा॥
हवे पांचमो मिथ्यादृष्टिनो परिचय करवो ते दोष कहे . मिथ्यादृष्टि प्रमुखनी साथे जे (परिचयकरणंतु संथवणं के०) परिचयर्नु करवं तेने संस्तवन कहीयें, माटे ते सम्यकदृष्टियें वर्ज. केम के मिथ्यादृष्टिनी साथें परिचय करतां थकां बोधबीज जाय अने परिचय करवाथी एवा परिणाम थाय जेम के एनोधर्म पण रूडो जे. एq बोलतां थकां मिथ्यात्व तथा कुम तिनी वृद्धि याय माटे मिथ्यादृष्टया दिकनो संस्तव टालवो ॥३०॥
ए उपर सौराष्ट्रवासी श्रावकनो संबंध कहीये यें. सौराष्ट्रदेशने विषे कोणिक आचार्यनो उपासक, एक श्रावक झानादिक तत्त्वनो जाण . थ न्यदा दुष्काल पडवाथी ते श्रावक मालवा नगी चाल्यो, मार्गमां बौध लो
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
२१
को मया तेनी साथें जवा लाग्यो. तेवारें बोडोयें कयुं के, या मारो उ पधि उपाडो तो तमोने खावा सारु पीयें ते तेणें अंगीकार कर. पी तेनी सायें परिचय करतां तेनो परिणाम एने परिणम्यो. अनुक्रमें चालतां मार्गमा असाध्य रोग कपनो, तेवारें तेने मार्गमां पडतो मूकी रक्त वस्त्र बौद्ध चालता थया, ते मरीने यदेव थयो. तिहां अवधिज्ञान नो उपयोग दीधो. तेवारें रक्तवस्त्रे ढाकेनुं पोतानुं शरीर दीठं, ते देखीने वि चारखा लाग्यो जे, बौना पसायथी हुं य थयो बुं, तो हवे बौद्धना शास नो महिमा वधारूं. एम चिंतवी जिहां बौद्ध जोजन करवा वेग हता, ति हां जश्ने कंकण, केयूर, मुद्दामंमित पोतानो हाथ देखाड्यो, अने पोता नी सर्व हकीगत कही. वली लाडु तथा घेवर प्रमुख बौद्धोने खावासारु निरंतर यापवा लाग्यो. एवो प्रभाव देखी घणा लोक बौद्धना नक्त थया. सर्व कहेवा लाग्या जे बौद्धनुं शासन घणुं सारुं बे. जेमाटे एमने देवता यावीने गाडवा जेवडा लाडवा खापे बे.
.
एकदा उऊयणी नगरीयें कोलिक आचार्य याव्या तेनी यागल श्राव कलोकोयें सर्व वृत्तांत कयुं के, स्वामी ! या प्रकारें कुमतियोनी वृद्धि थाय बे. ते सांजली याचार्ये पोताना यतियोने शीखावी मोकल्या के, जेवारें हाथ निकले तेवारें कहेजो के हे योत्तम ! तुं प्रतिबोध पाम ने पंच परमेष्ठी नमस्कार संचार. तुं उत्तम श्रावक हतो बतां मिथ्यात्वनी वृद्धि केम करे बे ? एवी याचार्यनी शिखामण सांजलीने यतियो तिहां गया ति हां यनो हाथ निकल्यो तेने यतियोयें पकड़ी राख्यो यने गुरुयें कहेलो संदेश कह्यो, ते सांजली यह प्रतिबोध पाम्यो. तेना हृदयमांथी मिथ्या त्व ज्ञान गयुं. यने सम्यक्ज्ञान तेना हृदयमां श्राव्युं, तेवारें ते यदें क
यें गुरुसमीपें वीने पाप थालोववा कयुं. गुरुयें तेने कयुं के, पाप नीलोया हजबे के तहारामां मिथ्यात्व व्याप्युं बे, तेनो त्याग कर. ते पण तेमज निरंतर तिहां खावीने सर्वजनने कहेवा लाग्यो के बीजां सर्व दर्शन मिय्या वे एक श्रीजैनदर्शन बे, तेहज मुक्तिनुं श्रर्थी बे, माटे तेनेज खादरो. एम सर्वनी यागल प्रतिदिन श्रीजिनशासनना गुण बोल तो विचरवा लाग्यो, तेथी घणालोको प्रतिबोध पामी बौद्धमत मूकीने श्री जिनधर्मना रागी थया. एवी सौराष्ट्रवासी श्रावकनी कथा सांगली अन्य
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. दर्शनीनो परिचय टालवो जेम धंतुरानी संगतथी तैल विणसी जाय तेम मि थ्यात्वनी संगतथी समकेतनो विनाश थाय. तथा जेम मोघरानी संगतथी तै लमां सुगंध थाय, तेम सुगुरु तथा साधर्मीनी संगतथी समकेत सुगंधी थाय,
इति तपागहालंकारश्रीशांतिचंगणिशिष्यश्रीरत्नचंगणिविरचितश्रीस म्यक्तत्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्तत्वसप्ततिकाप्रकरणबालावबोधे शंकादिपंच दूषणस्वरूपनिरूपणनामा पंचमोऽधिकारः ॥ ५ ॥
हवे बहुं आठ प्रानाविकोनुं हार कहे जे. ॥ सम्मंदसण जुत्तो, स सई सत्ति पनावगो होई ॥ सो पुण व विसि, निदिको सुत्त निईए ॥ ३१॥ अर्थः-जे (सम्मंदसणजुत्तो के०) निरति चार पणे सम्यक्त दर्शने करीने युक्त होय (स के०) ते पुरुष (सईस त्ति के०) बतिशक्तियें (प्पनावगोहोई के) प्रानाविक होय श्रीजिनशा सननी दीप्ति करे, (सोपुण के० ) ते पुरुष वली (इब के०) इहां श्री जिनागमप्रणीतसूत्रने विपे झानादिक गुणें करी ( विसिको के ) विशि ष्ट प्रधान वचनादिक लब्धिनो धणी एवो (निदिको के०) कह्यो ले ते जेम याकाशने विषे सूर्य, चं अने घरने विपे जेम दीपक शोने दे, अजवा यूँ करे बे. तेम श्रीजिनशासनरूप आकाश तथा घर तेने विषे सूर्य, चं तथा दीपक समान ते पुरुष जाणवो. (सुत्तनिईए के) सूत्रनी नीतियें करी जाणवो, सूत्र जे आगल पावयणी प्रमुख कहेशे, ते सूत्रने न्यायें करो ॥३१॥
हवे ते प्रानाविक आठ नेदें , ते आठ नेद कहे :॥पावयणी धम्मकही, वाई निमिति तवस्सीय ॥ विद्या सिझो य कई, अव पनावगा नणिया ॥ ३२ ॥ अर्थः-एक (पावयणी के०) प्राव चनिक, बीजो (धम्मकही के०) धर्म कथिक, त्रीजो (वाई के० ) वादी, चोथो (निमित्ति के० ) नैमित्तिक, पांचमो ( तवस्ती के०) तपस्वी, (य के०) वली बहो ( विद्या के०) विद्यावान्, सातमो (सिको के) सिम (य के०) अने बातमो (कई के०) कवि ए (अव के०) बाउज (प नावगा के०) प्रानाविक श्रीवीतरागें (नणिया के० ) कह्या २ ॥ ३ ॥
हवे प्रकरणकर्ता ए आनुं स्वरूप कहे :॥ कालुच्चिय सुत्तधरो, पावयणी तिबवाहगो सूरी ॥ पडिबोहिय नवज
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. णो, धम्मकही कहण लचिल्लो ॥ ३३ ॥ अर्थः-( कालुच्चिय के०) का लोचित एटले जे कालें जेटलो उचित अर्थात् योग्य होय, तेटला वर्तमान ( सुत्तधरो के० ) सूत्रनो धारक होय उपलदणथी तेटला श्रुतना अर्थनो धारक पण लेवो, जेमाटे सूत्र अने अर्थ संयुक्त जोयें. केम के अर्थविना सूत्र नथी अने सूत्र विना अर्थ नथी, जेम घृतविना दूध नथी अने दूध विना घृत नथी. ए दृष्टांतें जाणवो. ते (पावयणी के०) प्रावचनिक कहियें. एटले प्रवचन हादशांग गणिपिटक डे, जेहने ते प्रावचनिक जाग उत्तम थाचार्यादिकें प्रवचननो अन्यास करवो. केम के प्रवचनना अन्यास वि ना आलोचना दानादिक कल्पे नहिं. तेमाटे अर्थसहित द्वादशांगीनो जे धारक होय, तेने प्रानाविकाचार्य कहीयें ॥ यतः॥ चत्तारि थायरिया पल ता, तं जहा सुत्तधरे एगे नामं जो अबधरे, अउधरे एगे नामं णो सुत्तधरे, एगे सुत्तधरेवि अबधरेवि, एगेणो सुत्तधरे णो अबधरे ॥ इति ॥
ते प्रावचनिक कहेवो होय? तोके (तिबवाहगो के०) तीर्थ जे च तुर्विध श्रीसंघ तेनो वाहक एटले प्रवर्तक होय एटले चतुर्विध संघने गुन मार्गने विषे प्रवर्तीवे एवो (सूरी के० ) आचार्य कहीयें. एटले जिनशास न ज्ञानवंतने बाहारिक कह्यो ॥ यतः॥जयणाए कम्मं, खवेई बदुआई वा सकोडीहिं ॥ तन्नाणी तिहिं गुत्तो, खवे ऊस्सासमाण नवे ॥१॥ तथा ॥ जा जयमाणस्स नवे, विराहण सुत्तविहि समग्गस्स ॥ सहोइ निऊरफ ला, अप्नविसोहिय जुत्तस्स ॥१॥ ए प्रानाविकनो पहेलो नेद कह्यो.
हवे प्रानाविकनो बीजो नेद कहे जेः-(पडिबोहिय नवजणो के० ) प्र तिबोध्या नव्यजनोने जेणे एवो (धम्मकही के०) धर्मकथिक नामें बी जो प्रानाविक कहीयें जे माटे (कहलहिलो के० ) कथनलब्धिवंतनो उपदेश लागे एटले लब्धिवंतना कथनथी सांजलनारने उपदेश लागे ते उपदेश पण नव्यने देवो कह्यो, तेनुं कारण ए ले जे अनव्यने तो उप देश लागेज नहीं. परंतु नव्यने पण सामग्री मलेज उपदेश लागे ॥ यतः ॥ सामग्गी अनावा, ववहारिय रासि अप्पवेसा ॥ नवावि ते अणंता, जे मुरक सुहं न पावंति ॥ १ ॥ माटे नव्यने पण एम डे तो अनव्यने तो मुक्तिनी वार्ताज करवी नथी. एटलामाटे मुक्तिगमन योग्य एवा व्यव हारराशिया जीव लेवा तेमां पण जे संझी पंचेंश्यि पर्याप्ता मनुष्य जाति
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो.
लेवा तेमां पण याचार, देश, कुल, धर्मश्रवण, श्रनादिक पाम्या होय एवा नव्यजीव उपदेशने योग्य कह्या बे. तेने पण जे खीराश्रव, लाश्र वादि लब्धिवंत होय तेहनो उपदेश लागे ॥ यतः ॥ जो हे वायपरकंमि, हेनन
मंमामि ॥ सो समय पन्नवडे, सिद्धंत विराहगो यन्ना ॥ १ ॥ एटला माटे कथनलब्धिवंत जोइयें एटले कथन करवानी लब्धि जेमां हो य तेनोज उपदेश लागे, कारण के, केटलाएक नरोला पण होय बे परंतु ते वखाण करी जाणे नहीं. बारा बाकला जेवो अर्थ करे, तेथी लोक एवं जाणे जे ए जयाज नथी, तेमाटे ए विशेषण सार्थकज जाणवुं ॥ ३३ ॥
॥ दवे ए प्रावचनिक तथा धर्मकथिक ए बेदु गुणने विषे श्रीवज्रस्वामी नो संबंध कहीयें ढैयें. जरतदेत्रे ययवंती नामें देश तेमां तुंबवन नामे सन्निवेश ले. तिहां एक धन गिरिनामें इन्यसुत वसे बे. ते स्वनावेंज वैराग्य वंत, तेनां माता पिता पाणिग्रहण करवानुं कहे पण ते माने नहीं द वे तेज नगरमा धनपालशेवनी पुत्री सुनंदा बे, ते पोताना माता पिताने कहेवा लागी जे, हुं जो परशुं तो धनगिरिने परणुं, पण तेने धनगिरियें कयुं, ढुं वैरागी बुं माटें महारो प्रतिबंध मकर, जिहां तहारा जाइयें दीक्षा जीधी बे, तिहां दुं पण दीक्षा लइश, एवं जाणी जो मुऊने परणे तो सु खें परण. सुनंदायें कह्युं एक वार पाणिग्रहण करो, पढी नावें तेम कर जो. तेवारें धन गिरियें तेनो अत्यंत राग जाएणीने पाणिग्रहण कीधुं. पण कयुं के हुं दीक्षा लइश. तोपण स्त्रीनी जाति मायावी थाय बे, माटें मायायें
धन गरिने का लागी के जो एक पुत्र थाय, तो महारे याधारनूत थाय माटे महारी साथै विषयसुख जोगवो. पढी दीक्षा लेजो. ए वात मा ala धनगरि पण तेनी साथै संसारसुख जोगववा लाग्यो. एम करतां तेने उधान रह्युं अष्टापद तीर्थने विषे गौतमस्वामी प्रतिबोधित तिर्यग्र जंक देवतानो जीव देवपणाथी चवीने गुनस्वप्ने सूचित गर्नपणे यावी उपनो
वारें धनगिरिये कयुं के स्वप्नने अनुसारें तहारे उत्तम पुत्र थाशे. एवात निश्वय जालीने हवे तुं मुऊने दीक्षा लेवा दे. एम कही स्त्रीने समजावीने सिंहगिरिजी याचार्य पासें जइ धनगिरियें दीक्षा लीधी.
अनुक्रमें पुत्र जन्म थयो, तेवारें पाडोसा कहेवा लागी के खाज जो एनो बाप होत तो पुत्रजन्मनो महोटो महोत्सव करत, बापविना बीजो
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२२३ कोण महोत्सव करे ? एने बापें तो दीक्षा लीधी जे. ए वचन सानलतांज पहेला बालकने जातिस्मरण उपy, तेवारें विचारवा लाग्यो जे, मुफने दी दा उदय आवे, एवो उपाय करूं. एवं मनमा धारीने रुदन करवा ला ग्यो, माताने संतापवा लाग्यो, माता एना रुदनथी सुश् शके नहीं, बेसी शके नहीं, नोजन करी शके नहीं, ए रीतें माताने घणुंज संताप करतो हवो. माता घणो नछेग पामी महोटे कप्टें करीन महीना अतिक्रम्या. ___ एवामां उद्यानने विषे श्रीसिंहगिरि आचार्य पधास्या. तिहां आर्यसमि त अने धनगिरि ए वे साधु सबाय करी, उपयोग दे गोचरीनी आझा मागवा गुरुनी पासे आव्या. आचार्य कर्तुं आज तमोने उत्तम निमित्त नपनो , तेथी को अपूर्व वस्तुनो लाल जोश्ये, माटे सचित्तवस्तु पा मो ते लेजो. नाकारो करशो मां.एम आज्ञा मागी गोचरीयें पधास्या, ते सु नंदाने घरे आव्या तेवारें बोकरे रोवा मांमयु, माताने संतापवा मांमयो तेवारें सुनंदा करसंपुटें करी पुत्र आपवा लागी अने कहेवा लागी के आ लियो तमारो बेटो? एनाथी तमेंज सुख जोगवो. तेने धनगिरिये कह्यु के हमणां तो तुं बापे , पण पड़ी पश्चात्ताप करीश. तेवारें पाडो मागवा यावीश, तो ढुंआपीश नहीं. सुनंदायें कह्यु महारे एनो खप नथी. ढुं तमोने बापुं मु; सुखें लइ जा. तेवारें धनगिरिये पडोशी लोकोने सादी करीने बालकने जोलीमांहे लीधो. जश्ने पाधरा उपाशरे गुरु समी- यावी जो ली मूकी. गुरुयें जोली उपाडी जो तो तेमां जार घणो जाण्यो, तेवारें बो व्या के, आशुं वज ने के ? एवं कहीने जोली उघाडी तो मांहे दिव्यस्वरू प बालक दातो. पड़ी तेनुं वज एवं नाम दीg. उपाशरामां आव्या पली बालकें रुदन करबुं बंध कीg. गुरुये ते बालक साध्वीयोने आप्यो साध्वी ये सय्यातरनी आपनारी श्राविकाने धवराववामाटे ते बालक सोंप्यो. तेणे धवरावी पाबो उपाश्रयें आवी पारणामा राख्यो. गुरु अन्यत्र विहा र करी गया. हवे तिहां शालामां साध्वी नण्या करे , अने ए बालक
महीनानो पारणामां पोढेलो बतां ते साध्वीना पाठ सांजलीने पार पामा रह्यां थकां बालकें अगीयार अंगनणी मुख पावें करी लीधां.
अनुक्रमें जेवारे ते बालक त्रणवर्षनो थयो तेवारें तेमां बत्रीशवर्षना माह्या पुरुषमां जेटलु चातुर्य कला विज्ञान होय, तेटबुंदीसवा लाग्युं. ते
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. देखीने सुनंदानुं मन चलायमान थयु. अने कहेवा लागी जे ढुं महारो पुत्र पाडो लइ जश्श. तेने संघे कह्यु के ए गुरुनो माल जे, ते कोथी ले वाय नहीं अमाराथी अपाय पण नहीं तेवारें कजीयो करवा लागी व ट बालक नहीं मलवाथी राजदरबारमा गइ,गुरु पण अन्यत्र विहार करी पाढा आव्या. श्रीसंघनी विनतिथी गुरु पण राजदरबारमां गया. राजायें एवो न्याय कस्यो के, तमो बेदजण पोतपोतानी तरफथी जुदी जुदी वस्तु उबालकने आपो. तेमां जेनी वस्तु ए बालक लइ लेशे, तेने ए पुत्र आ पगुं. तेवारें सुनंदायें सुखडी तथा रमकडां प्रमुख बालकनी आगल मू क्यां पण बालकें तेनी साहामुं पण जोयुं नहीं. पनी धनगिरिजीयें रजोह रण, मुहपत्ति तथा नोकरवाली प्रमुख धर्मोपकरणरूप रमकडां बालकनी आगल मूक्यां, अने कह्यु के हे, कुमर ! अमारी पासें तो ए धर्मनी रमत डे तहारं मन माने, तो ले. ए रमत तुमने नहीं गमे, तो संसारनी रमत ले. तेवारें कुमर रजोहरण प्रमुख सर्व वस्तु ल तेने मस्तकें चडावी नाचवा कु दवा लाग्यो. ते देखी संघमांहें जयजयकार थयो. सर्व बोट्या जे आ बाल क पण श्रीजिनासननो प्रानाविक थयो. राजायें कह्यु के न्याय थ चूक्यो. या बालक गुरुने आपी यो. पली तेने साध्वीने उपाशरे राख्यो. केटलि एक प्रतमां ा तेकाणे साध्वीने नातां जातां बालकने अगीयार अंग मुख पाते थयां, एq लरव्युं . अने केटलिकमां पूर्वे बालकनी महीनांनी वस्थामां ए वात लखी ,माटे जेम सुझोने जाणमां होय ते प्रमाणेवांचवी.
पनी जेवारें वजकुमर आठ वर्षनो थयो तेवारें गुरुयें तेने दीक्षा दीधी, तेवखत सुनंदायें विचायु जे ढुं हवें घरमां कोने अर्थे रढुं. एम चिंतवी सिंहगिरि आचार्य पासेंथी दीक्षा लीधी.
आचार्य अनुक्रमें उऊयणीय विहार करतां मार्गमां वजमुनिना पूर्वन व संबंधिनो मित्र जूंनक देवता हतो ते वजमुनिने देखी हर्ष पाम्यो. पड़ी परीक्षा करवामाटे वाणीयानो सथवारो विकूर्वीने नोजननिमित्तें गुरुने
आग्रह करवा आव्यो के महाराज! शुक्ष्मान रसवती ,माटे चेलाने मो कलो. गुरुयें आशा आपी वजमुनि वहोरवा गया परंतु सूक्ष्ममेघ दृष्टि दे खी पाढा वव्या, तेवारें देवतायें वृष्टि रोकी राखी अने कहेवा लाग्यो के हवे पधारो. वजमुनि वहोरवा गया, तिहां तेणे कोलाफलनी निदा देवा
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
श्
मांमी. तेवारें वज्रमुनियें उपयोग दीधो, जे हमणां वर्षाऋतुमां कोलाना फल क्यांथी जाव्या हशे ? तेनो हेतु समजातो नथी वली खाना पग नू मिने बता नथी माटे ए कोई देवतायें बल करयुं जगाय बे, तेथी मुफ ने वैयपिंग प्रकल्प बे एवं कही, त्यांथी पाढा वल्या. एवी रीतनी या हारसंबंधी शुद्धि जोने देवता हर्ष पाम्यो पढी प्रगट या मुनिने वंदना करी कदेवा लाग्यो के में तमारी आहारदिनी परीक्षा करवामाटे श्रा कृत करूं, पण तमें महोटा यति हो, माटे चूक्या नहीं तो हवे माहारा अनु ग्रह वैक्रिय बहुरूपिणी विद्या व्यो. तेवारें वज्रमुनियें श्रीजिनशास ननी प्रजावनाने अर्थे ते विद्या लीधी देवता वांदीने पोताने स्थानकें गयो. एकदा ज्येष्ठमासमां वज्रमुनि बाहेर गया बे, तेवारें तेहज देवता तत्का लना साकर चूर्णे नरेला घेवर लइने मुनिने निमंत्रणा करतो हवो. ते पण मु नियें उपयोग देश बनालो जाली जीधां नहीं, तेवारें देवतायें संतुष्ट थइने मानुष्योत्तर पर्वतपर्यंत जावानी याकाशगामिनी विद्या यापी.
एकदा गुरु मिलनू मियें गया बे ने बीजा साधु पण सर्व गोचरी प्रमुखें बाहेर गया ले, तेवारें वज्रमुनि बालक्रीडाथी साधुना संथारादिक चारे बाजु मूकी, पाथरी, पोतें तेनी वचमां बेसीने गाढे स्वरें जेवी रीतें गुरु वाचना खापे, तेवी रीतें अनुक्रमें जूदी जूदी अगीयारे अंगनी वांचना दे वा लाग्यो. एवामां गुरु याव्या तेमणे बारणे बाना उना रहीने सर्व वांच ना सांजली ने घणो हर्ष पाम्या. पढी ते बालकने कां पण शंका न पडे तेवी रीतें गुरुयें महोटा स्वरथी निसिही कही, एटले वज्रमुनिये पण सर्व न पधि, स्थानकें मूकीने दार उघाड्यां, गुरुना पण पूंज्या, दांगो हाथथकी लीधो.
हवे गुरुयें विचायुं जे एनी विद्या प्रगट करवी जोइयें, एम निर्धारी सर्व तिने ते युंके, में गामडे विहार करकुं. तिहां सात याठ यति साधें लं. बाकी तमो सर्व यतियो इहां रहेजो. तेवारें यतियोयें कयुं
मने वाचना कोण देशे ? गुरुयें कयुं वज्रमुनि देशे यतियें तहत्ति कही ॥ यतः ॥ सीह गिरिसु सिसाएं, नहं गुरुवयण सदहंताणं ॥ वयरो किरंदाई, वायति नवि कोवियं वियणं ॥ १ ॥ गुरुयें विहार कस्यो पाउल साधु स विनयवान् माटें गुरुनुं वचन प्रमाण करी विनयपूर्वक वज्रमुनि पासें वाचना जेता हवा. वज्रमुनियें ते साधुउने एवी युक्तिथी वाचना यापी के
२९
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
जेकी गुरु घणा दिवस वाचना यापवाथी जेटलुं नावे, तेलुं वज्रमु नियें एक वाचनामां जणावी दीधुं. तेथी साधु एवी चाहना करवा ला या के यापणा गुरु याववाने हजी चार दिवस वधारे लागे तो सारुं था य, तो तेलामां मारुं अमुक श्रुतस्कंध पूर्ण य जाय.
a here दिवस वीत्या केडे गुरु याव्या तेमनी साहामा साधु डवाने गया, तेवा गुरुयें पूब्युं, जो साधु ! तमारे वाचना सुखें थइ ? साधु बोल्या, हा महाराज ! तमारे प्रसादें थइ. हवे अमारे वाचना चार्य ए वज्रमुनिज होजो. यतियोयें वज्रमुनिनी घणी प्रशंसा करी तेवारें गुरुयें गीयारे अंग वज्रने यापीने वांचनाचार्य कस्यो. अनुक्रमें गुरु दश पुर नगरें श्राव्या, यने वज्रमुनिनी पदानुसारिणी लब्धि देखी विचाखुं जे ए पूर्वाध्ययनने योग्य बे. ए अमाराथी अधिक थाशे ॥ यतः ॥ चत्तारि सी सा पत्ता जाए समजाए जाए कुलिगाले. ए चारमां वज्रमुनि श्र तिजात बे माटे एने पूर्वाभ्यास करावीयें.
ते समय दश पूर्वी श्रीगुप्ताचार्य ययवंतीमां बे, ते विहार करवा समर्थ माटे तिहांज रहे बे, एवं विचारीने गुरुयें यतियोना संघनी सा वज्रमुनिने यणीयें मोकल्यो श्रीनगुप्ताचार्यै तेनो विनय देखीने हर्ष सहित पूर्व जणाववा लाग्या. महाप्राज्ञ बे माटे स्वल्पकालमा दश पूर्व जल गया. अनुक्रमे सिंहगिरि श्राचार्य वली पण दशपुरें पधारया ने विचार के वज्रमुनिने जिहां पूर्व नावानो उद्देश कीधो तिहांज अनुज्ञा क रीयें. एम चिंतवी श्री वज्रस्वामीने दशपुरनगरें तेडाव्या ॥ यतः ॥ जनुदेसा पुन्नावि, तब किई कमो इम्मो यति ॥ दिशिवाय महागम, सुतवाणं त
पहा ॥ १ ॥ पतिहां वज्जसाधुने व्याचार्यपद स्थापनाने विषे तिर्यक् जुंनक जातिना देवता महोत्सव करता हवा. अनुक्रमें सिंहगिरि याचार्ये ग Fat are सर्व वज्रस्वामीने यापी पोतें स्वर्गे गया. वज्रस्वामी पांचों सा धुना समुदाय सार्थे गाम नगरादिकें विहार करता हवा.
हवे पाऊलीपुर नगरें धनो नामें शेठ वसे वे तेने मनोइ नामें स्त्री बे तेनी रुक्मिणीनामा पुत्री ते रूपें करी श्रीकृष्मपत्नी रुक्मिणी समान बे. ते शेठने घरे साध्वी उतरी बे, तेमनी पासें जगातां थकां रुक्मिणीयें व स्वामीना गुण तथा रूपनुं वखाल सांजलीने ते कुमरीयें वज्रस्वामीनी
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२७
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. सार्थेज पाणिग्रहण करवानी प्रतिझा करी, एटले परपुं तो एनेज परj, नहींकां बीजा कोश्नी साथे परj नहीं एवो निश्चय कस्यो.
एवामां श्रीवजस्वामी पण पामलीपुरें पधाया, राजा साहामो तेडवा गयो तेने यतिनां द्वंद साहामां मले, तेमांहे जेने रूपवंत देखे तेने ए वज स्वामी जे एम मानीने राजा नमस्कार करी वंदना करे, तेवारें साधु कहे ता जाय के, गुरु पालथी आवे जे एम करतां अनुक्रमें गुरु याव्या, तेम नुं सर्वातिशायी रूप देखी राजा घणो हर्ष पाम्या. गुरुने वांदी गुणस्तुति करी, गुरु उद्याने उतस्या, राजायें वसंतरागादिकना बाला धर्मदेशना सांजली फरी वांदीने राजा पोताने आवासें गयो. तिहां पोताना अंतःपुर नी बागल गुरुना रूप स्वरादिकनो वर्णव कस्यो. अंतःपुरें कयुं जे अमोने गुरु देखाडो. पनी पालखी, सुखासन, रथ प्रमुखमां वेसी अंतःपुर वांदवा निकल्यो. अनुक्रमें चालतां गुरुपासें आवीने वंदना करी राणी सर्व हर्ष पामी.
धनश्रेष्ठी पण कोटिसुवर्णे नया रथ साथे पोतानी रुक्मिणी पुत्रीने लइ गुरुपासे आव्यो. गुरुयें विचाटे जे महाहं रूप देखी घणी स्त्रीयो कर्मबंध करशे, माटें रूप परावर्तन करी बेठा थका धर्मदेशना दीये . तिहां सर्व स्त्रीजन वातोकरवालागी, के हा, हा विधाता चूक्यो ने, के जेणे कोकिलना कंठथी पण अधिक एवो एमनो स्वर कीधो, पण रूप मातुं की . तेथीज विधातायें कोकिलनो दृष्टांत जगतमां प्रसिद कीधो . जेम कोकिल काली डे तेमां स्वर मूक्यो , तेम रूप हंसपदीमां मूक्युं . विधाता पण एवो अवलो ले. एवं लोकोना मुखथी साधुयोयें सांजव्युं जे गुरुनी देशना तो अमृत सरखी ले, पण रूप तो सामान्य , ते बालाप संलाप गुरुयें सांन व्यो तेवारें श्रीजिनशासननी प्रनावनाने अर्थे बीजे दिवसें सुवर्णसहस्रपत्र कमल नपर तेजना पुंज जेहस्वानाविक रूप तेवा रूपें व्याख्यान करवा बेता, ते देखी सर्व लोक चमत्कार पाम्यां. अने घणा जीव प्रतिबोध पाम्या ॥यतः ॥दोहो॥ किंहिं परिमल किंहिंतुबदल, किंहिं दल किहिं नवि गंध ॥ रे चंपय तुहिं तिन्नि गुण, सदल सुरूव सुगंध ॥ १॥
हवे धनश्रेष्ठी बोल्यो जे सातपेढी सुधी इव्य खातां खूटे नहीं, एटला इव्यनी साथें महारी रुक्मिणी कन्या- पाणिग्रहण करीने सातनूमिया यावासनेविषे पधारो, यौवननो लाहो ल्यो. गुरुयें कह्यु अमें विषयना
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. लोनी नथी विषयसुखने तो विष समान जाणी पडता मूकीने अमें दीक्षा सीधी जे. एम कही ते कन्याने प्रतिबोध पापी धर्म पमाडीने पोतानी शिष्य णी करी. एम वजाचार्य श्रीजिनशासननी प्रनावना करी.
हवे एकदा प्रस्तावें गुरुयें पूर्वदेशथी उत्तरदेशे विहार कस्यो. तिहां न वितव्यताने योगें काल कराल दुःकाल पज्यो, कोइ रांक पण आगल बा हेर निकली शके नहीं. तेवारें श्रीसंघ विनति करी के महाराज! तमें अ मारे माथे गुरु बतां यमो कालमां नरव मराथी पुःखी था माटें एनी लाज तमोने में ॥ यतः ॥ रयणायर तीर परहि, याण पुरिसाण जं च दा लिई ॥ सा रयणायर लगा, नदु लजा श्यर पुरिसाणं ॥ १ ॥ ते सांन सो आचार्य पण लान जाणी कपडाना पट्ट उपरें पोतें वचमां बेठा अने चारे बाजु श्रीसंघ बेठो. पडी गंधर्वगीत गाते आकाशमार्गे चाल्या॥ यतः॥ साहाम्मिय वबलंमि, उजया उजया य सजाए ॥ चरण करणेसुयरया, तिउस्स पनावमाएग ॥ १ ॥ एवामां एक पडोसी ब्राह्मणे ते पट जातो देखी गुरु प्रत्ये कहेवा लाग्यो महाराज ! हुँ पण तमारो शय्यांतर बु. तो मुमने एकलाने कां मूकी जा डो? गुरुयें कृपा आणी तेने पण पट्टमांहे वेसाड्यो, अनुक्रमें आकाशे रह्या थका थानकें थानकें जिन चैत्यवंदावता गुरु सुनिद देशनेविपे महानिशिनामा नगरीयें पट्ट ला गया. तिहां राजा दिक सर्व बौधर्मी डे ते जेवारें पजोसणना दिवसो थाव्या तेवारें बौछ लोकोयें राजाने कहीने सर्व मालिलोकोने कहेवराव्यु जे जैनी लोकोने फूल आपवां नहीं. तेवारें उशीयाला थया थका श्रीसंघे वजस्वामीने विन ति करी के, महाराज ! फूल मली शकतां नथी ते सांजली गुरुयें विचायुं जे ए कर्त्तव्य यतिने करवा योग्य नथी तथापि केवल श्रीजिनप्रवचननी न नति करवाथी माहालान ने. एवं जाणीने आकाशगामिनी विद्याने बलें मालवदेशे महेश्वरी नगरीने विषे दुताशन व्यंतर चैत्यनी पासेंना उद्यानने विषे गया. तिहां तडित नामें माली ते आचार्यना पिता धनगिरिजीनो मि त्र, तेणे आचार्यने नमस्कार कस्यो, अने आव्यानुं कारण पूज्यु. तेने गुरुये कहुं फूल जोश्ये बैये ते एकगं करी राखजो वलता आवियुं तेवारें लेता जश्यु. एवं कहीने पढ़ी गुरु, हिमाचलपर्वतें पद्मश्हनिवासिनी श्री देवीनी पासें गया. तेमने श्रीदेवीयें वांद्या अने पोतानी पासें थाव्यानु
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
शए प्रयोजन पूज्यु. आचार्ये कयुं कमल जोश्ये बैयें. ते समयें तेणे देवाची निमिनें एकलद कमल आण्यां हतां, तेज आप्यां. ते कमल लश्ने पालामा लवाना वननेविषे आव्या, तिहाथी माली पासेंथी वीश लाख फूल ला पू वनवना मित्र जूंनकदेवतायें विमान रच्युं, तेमां वेसिने देवउँनि वाजते महानिशीपुरी नगरीये आव्या.तिहांफूल, श्रावकोने बाप्यां. श्रीजिनमंदिर ने विषे देवतायें तथा श्रावकें महोटी पूजा करी. राजायें मालीने पूज्यु के, महारी आझाविना फूल कोणे आप्यां? मालीयें कह्यु अमें आप्यां नथी. पनी अनुक्रमें गुरुनु माहात्म्य सांजली राजा पोतें वांदवा आव्यो. तिहां गुरुनु रूप देखी धर्मदेशना सांजली राजा प्रतिबोध पाम्यो, श्रावक थयो. बीजा पण घणां लोक प्रतिबोध पाम्यां अने श्रावक थया. • __ एक दिवस दक्षिण मार्गमां जातां थकां श्रीवजस्वामीने श्लेष्म था आव्यु, तेवारें साधुननी पासेंथी गोचरीमां सुंठ मगावी ते साधुला या व्या, तेने पोतें कानमा धरी राखीने विचायुं जे पनी खाणू. पण जलमां एमज रही गइ, खवाणी नहीं. ते पडिक्कमणुं करती वखतें खमासमण देतां पडिलेहणां करतां नीचे पडी ग, तेवारें गुरुयें विचास्यं जे हं दश वैधर बूं तेने आवी नूल ते वली केम पडी ? एथी जाण्यु जे हवे महारुं आयुष्य स्वल्प रहेनु जणाय , माटें अनशन करवू योग्य ले. अने पो ताना शिष्य वनसेनने कयुं के बार उकाली पडशे, तेवारे तुं सोपारापुर पा टण जाजे, कोई तुने पूढे के सुनिद क्यारें थशे ? तेवारें ताहरे एम ध्या नमा राख के जे दिवसें लाख मौल्यनी एक हांमीचडे, ते दिवसथी बीजे दिवसें सुगाल थाशे. एमविचारी जवाब आपजो अमें तो हवे अनशनकर यु. एम कहीने वजसेनने विहार कराव्यो. पोतानी पासें रहेला साधुनने जेवारें निदा नहिं मले, तेवारें लब्धिये विद्यापिंम करीने केटलाएकने ज माड्या, पडी एक दिवसें साधुने कह्यु के जो चारित्रने दोष लगाडी जमो, तो ए विद्यापिंग ल्यो. तेवारें साधु बोल्या अमारे चारित्र साथै अर्थ जे. मा टें ए पिंम लेगुं नहीं. पढ़ी वजाचार्यजी, पांचशे साधुउने लश्ने अनशन करवाने माटे चाल्या. तेमां एक न्हानो चेलो हतो तेने गुरूयें वास्यो के तुं अनशन करीश नहीं तेणें कयुं हुं अशुभ पिंम लइश नहीं तो पण ते ने नोलव्यो के तुं इहां बेश, हुं आबुं पण ते चेलायें मोहथी कयुं जे
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
ढुं तो तमारी पढवाडे आवीश. तो पण गुरुयें समजावीने राख्यो, तेवारें चलायें जाएयुं जे गुरु महाराजने प्रीति न थाय, तेम करूं तो ठीक. एवं चिंतवीने फरी पर्वतना मूलमां यावी तपेली शिला उपर ते चेलायें अनश न करी लीधुं, ते बालक हतो माटें सुकुमार पणाथी तत्काल मिनी पे गो. ध्यानें मरण पामी देवलोक गयो. देवतायें नेला थने तेनो महिमा कस्यो, तेवारें बीजा साधुयें पण विशेष दृढ थइने अनशन करयां, परंतु मिथ्यात्वी देवीयो श्राविकानां रूप करी तिहां खावीने साधुउने अनशनमा मोदकादिकनी निमंत्रणा करवा लागी ने बोली के, हे महारा ज ! या शुद्ध निर्दोष याहार बे ते ल्यो. तेवारें साधुउने प्रीति ऊपनी जाली नजीकना बीजा पर्वतनी शिलापट्ट उपर जश्ने निर्विघ्नपणे अनशन क, गुनध्यानथी काल करीने वज्नस्वामी प्रमुख देवलोक गया, तेवारें इं माहाराजे रथ उपर वेशी पर्वतने प्रदक्षिणा देइ सर्व साधुजने वांद्या. तिहां माहाराजना रथनी रेखा मंमाणी, तेथी ते पर्वतनुं रथावर्त एवं ना म थयुं तथा तिहांना वृक्ष पण साधुग्ने नमवाथी नमेला थकाज याज पर्यंत देखावे एमने पाटें वज्रसेनाचार्य पण महाप्राजाविक थया. श्रीवज स्वामी देवलोक गया पढी दशमुं पूर्व तथा चोयुं नाराच संघयण विच्छेद गयुं ॥ इति प्राचनिक तथा धर्मक थिक प्रानाविकयुगलें वज्राचार्यनी कथा | हवे जो वादी प्राजाविक तथा चोथो नैमित्तिक प्राभाविक कहे बे.
ते
॥ वाईपमाणं कुसलो, रायडुवारेवि ल माहप्पो || निमित्ति निमि तं, कऊं मि पनए निवणं ॥ ३४ ॥ अर्थः- ( वाई के० ) जे वादी होय
(पमा के० ) प्रमाण एटजे तर्कशास्त्रने विपे (कुसलो के०) कुशल विचक्षण जोइयें. जैनप्रमाणने विषे तथा सर्व प्रमाणने विषे निपुण होय जेमाटें ज्ञात प्रमाण जे होय ते वाद करी शके नहीं. जेम दाढारहित सर्प होय ते पराभव करी शके नहीं. ए प्रमाण शास्त्र थकी अजेय थाय जेम मेदपाट देशें प्राहडपुरी नगरीयें बत्रीश दिगम्बराचार्य सायें वाद करीने श्रीजगचं सूरि हता, ते हीरला जगच्चं एवं बिरुद पाम्या. तेमज श्रीमुनिसुंदर खू रि श्रीस्तंननक तीर्थे ब्राह्मणोनी सायें वाद करीने दफतरखाननी सजाने विषे " वादिगोकुलसंग " एवं बिरुद पाम्या ॥ यतः ॥ समास्स नगव
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२३१ महावीरस्स चत्तारिस्सया वाईणं सदेव मणुया सुराए परिसाए अपराजि याणं नक्कोसिया वाईसंपया होबा॥एम चोवीशे तीर्थकरने वादीनीसंपदा ने.
जिहां उत्तम वन होय, तिहां कांटाला वृदनी वाड पण जोयें. तेम गलनायकने वादीनी वाड जोश्यें. जे शास्त्रने वादें बोलतो थाके नहीं, किहांएक चालवू पडे, तो चालवे पण थाके नहीं, नरव्युं तरस्युं रहेदूं जो इयें. तिहां नूख तृषाथी मरे नहीं. ते माटे कडं के (रायज्वारेविलःमाह प्पो के०) राजधारने विषे पण लब्ध एटले विशे पाम्युं ने माहात्म्य जेणे अर्थात् घणावाद जीतीने राजसनाने विषे प्रसिद थयो होय, जेम घणा संग्राममां जय पामीने सुनट प्रसि६ थयो होय तेम ए जाणवो.
ए वादी प्रानाविकनी ऊपर मानवादीनो संबंध कहीयें ये जरतदेत्रने विपे नृगुकह नामें नगरें श्रीजिणाणंदसूरि चोमासु रह्या हता ते समय तिहां बौदर्शनी घणा रहेता हता, तेमनो जिणाणंदसूरि साथें वाद थयो, ते वखत राजानी समद बेद पद वालायें एवो तेराव कस्यो के,जे वादी हारे तेने देशोटो आपवो अने जे जीते ते देशमा रहे. तिहां वाद करतां जवितव्यताने योगें जैनमतीहास्या अने बौड़मती जीत्या, तेवारें जैनमती तिहांथी चाव्या ते वननी नगरीये आव्या, तिहां जिणाणंदसूरि घणा चिं तातुर थका रह्या, ते जिणाणंदमरिनी उननदेवी एवे नामें बहेन तेना एक अजितयशा,बीजो यद अने त्रीजो मन एवा त्रण पुत्र ले, तेनो धणी कालधर्म पामे थके मुज़नदेवीयें वैराग्य पामी, त्रणे पुत्रोनी साथें दीदा लीधी. ते साध्वीये गुरु तथा संघने पोताना गुणें करी वश कीधा, पुस्तक ना नंमारनी अधिकारिणी थइ. पोतें पुस्तकोने लखावे, बोडे, बांधे, संजारी राखे; एम सर्व नंमार तेणें पोताने हाथे राख्यो. गुरुये त्रणे चेलाने सम स्त शास्त्र नणाव्यां, पण एक नयचक्र नामें प्रमाण ग्रंथ जणाव्यो नहीं. कारण के पूर्वाचार्य प्रमाणवाद नामा पूर्वमांथी सारोधार करीने नयचक शास्त्र रच्यु जे. ते देवताधिष्ठित ने माटें जेणे श्रुतदेवता- आराधन कर। ते देवतानी आझा लीधी होय, तेनाथी नणाय. एवा हेतुथी नणाव्युं नहीं.
हवे ते त्रण शिष्यमांथी गुरुयें एक मन्नवादीने योग्य जाणीने नयचक ग्रंथ साध्वीना हथु आप्यो. अने जाण्यं जे नाग्याधिक दशे, तो पोतानी मेलें वांचशे. अने जाणपणुं करशे. पड़ी त्रणे चेला साध्वीनी पासें मूकी
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ने गुरुये तिहांथी विहार कस्यो. हवे मन्नवादीने श्बा उपनी जे ए ग्रंय ढुं वांचं. गुरुयें मुफने शा माटें नणाव्यो नही होय ? पड़ी ते ग्रंथ साध्वी थी पण बानो नंमारामांथी लाने वांचवा लाग्यो. तेमां पहेली आर्या वां चे, ते आवी रीतेः-विधिनियमनंगवृत्ति, व्यतिरिक्तत्वादनर्थकं बौक्षम् ॥ जैनादन्यबासनमनृतं नवतीति वैधयं ॥ १ ॥ ए थार्यानो अर्थ सम जीने हर्ष पाम्यों थको आंख मीची एवामां श्रुतदेवी तेना हाथमाथी पुस्त क लश्ने अदृश्य थइ गइ. आंख उघाडी जुए डे तो हाथमां पुस्तक दी नहीं. तेवारें चिंतातुर थको विचारवा लाग्यो के में गुरुनी अनाझायें पुस्त क वांच्युं, तेनुं फल दुं पाम्यो.
पड़ी ते वात मनवादीयें साध्वीनी आगल कही, साध्वीये श्रीसंघने कमु श्रीसंघ घणुं सुःख धरवा लाग्यो. मन्नवादीयें एवो अनिग्रह कस्यो, के जो ए पुस्तक मने पाईं मले, तो ढुं आहारमांहे विगय वहोलं, तिहां सुधी धान्यमा एक वाल खावा मोकला राख्या तथा ज्यांसुधी पुस्तक न म ले तिहां सुधी वनमांहेज रहेQ एवो निश्चय कस्यो. पदी श्रीसंघे आग्रह क रीने मनवादीनी देह रहाने अर्थे विगय मोकलुं राखवायूँ कह्यु. मनवा दीये पण संघनु कहेण मान्युं यतः ॥ कयकिच्चेहिवि तिहुयण, गुरुहिसिर दरिय पाणी पनमेहिं ॥ ज मनिऊ संघो, आणं को तस्स लंघे ॥१॥ पनी वलनी नगरीनी पासें एक पर्वत हतो,तिहां जा रह्या. एक वाल नामे धाननुं जोजन करे, श्रीसंध पण प्रतिदिवस श्रुतदेवता, याराधन करे.
॥हवे एकदा प्रस्तावें रात्रिने समयें मनवादी जागे , नयचक्र शा स्वनी पहेली आर्यानो अर्थ विचारे ले. एवामां श्रुतदेवी आवी पूब्यु के इष्टं ? मल्नें कह्युनाग्य वल्यु. वली बमहिना पनी तेजजगायें तेज वखतें श्रुत देवीयें पूज्यु “कान्यां” कोनी साथै मन्ने कयुं “घृतगुडान्यां" घृत गोल साथें एवी धारणा शक्ति देखी श्रुतदेवी चमकार पामी अने प्रत्यद थ कहेवा लागी के, माग. माग. हुं संतुष्ट थइ बुं. मन्ने कयुं के, नयचक्रशा स्त्रनुं पुस्तक आपो. श्रुतदेवीयें पुस्तक याप्युं अने कह्यु के तुं वादने वि पे अजय थाश्श, एवो वर थापी देवी अदृश्य थइ. पडी श्रीसंघ महोटा आमंबरसहित मन्नने नगरमा प्रवेश करवानो महोत्सव कस्यो. तथा व जी श्रीसंघे जिणाणंदसूरिने पण परदेशथी आग्रह करी तेडी पाण्या. त्र
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२३३ णे नाश्ने आचार्यपद देवराव्यां. मन बोल्यो के, नरुथञ्चमां ज वौचनी साथें वाद करी बौछने देश त्याग करावं, तोज महारु जप्युं प्रमाण नहीं कां अप्रमाण जाणवू.
एवी प्रतिज्ञा करी श्रीसंघनी आशा मागी, जरुषच्च नगरें भावी रा जाने जर मल्या, तिहां नविन काव्यादिक रची, राजाने खुसी करीने कह्यु के, हे राजन् ! बौछने तेडावो,ढुं तेमनी साथें वाद करीश. राजायें बुदाणं द नामें बौक्षमतना आचार्यने तेडीने कडं के आ मनसाथें वाद करो. नहींकां देशवटो ल्यो. तेणे पण वाद करवो कबूल कस्यो. पडी वादी, प्र तिवादी, सादी अने सजापति, ए चार परतव्या नंतर राजायें पूज्यु जे त मारामांथी प्रथम प्रश्न कोण करशे? तेवारे नवितव्यताने योगें बौदें क युं के प्रथम वादी बोले, पनी प्रतिवादी बोले. राजायें मनवादीने कयुं तमे प्रथम बोलो. मन्नवादीये ते वात प्रमाण करीने नयचक्र शास्त्रनी युक्ति नो उच्चार कस्यो, जेम समुझ गर्जना करे, तेम गर्जना करतो जेम जेम बोलतो जाय, तेम तेम तेनो स्वर मेघनी पेरें गनीर थतो दीवामां आ व्यो. एम ब दिवसपर्यंत वादी अने प्रतिवादी वापस आपसमां बोल्या. तेमां बके दिवसें मनवादीय एवो पूर्वपद कीधो, के जे थकी बौछानंदने यरहरावी नाख्यो. जुवाब आपी शक्यो नहीं. तेवारें परिश्रांत थयो थको सातमा दिवसनो वायदो राख्यो, सनाजनो उठी ने सर्व पोतपोताने घेर गया. मन्नवादी गुरु हर्षसहित उपाश्रये थाव्या, बौछानंदें खडी (चाक) ना कटकाथी मनवादीनो पूर्वपद लखवा मांझयो, पण सांजरे नहीं. तेथी चिंतातुर थयो रात्रि उजागरो करवो पज्यो, गंध आवी नहीं. हृदयस्फोट थयो. तेवारें खडीनो कटको हाथमा थकांज मरण पाम्यो.
प्रनातें दातण पाणी करी तांबूल खा राजा सनामांहे आव्यो, मन्न वादी गुरु पण हर्षसहित सद्याय करी राज्य सनायें आवी बेग. सर्वस जा मली तेवारें पूज्यं बौक्षानंद, हजी याव्या नथी तेनुं कारण झुं ? घणी वार वाट जोतां पण नाव्यो तेवारें तेने तेडवामाटे राजायें माणस मो कल्यु. तेणे जर उरडो उघाडी जोयुं तो आगल पाटलो पडेलो ने, तेनी ऊपर खडीथी अदो लखेला हाथमां खडीनो कटको रहेलो ने एवो थको मुवो पज्यो . ते जो राजपुरुषे आवीने राजा आगल यथास्थित
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वात कही. तेवारें राजायें बौकोने देशवटो दीयो. ते दिवसना बौच गया जे, ते हजी हिंदुस्थानमां आव्या नथी. ___ पढी राजायें जिणाणंदसूरि प्रमुख सर्व संघने निशान सहित गाजते वा जते गाममांहे बाएयो. ते दिवसथी राजायें मननुं नाम मनवादी एवं स्था पन कह्यू. ए रीतें श्रीजिनशासननी घणी प्रनावना करीने मनवादी सूरि स्वर्गे गया. ए त्रीजा वादी प्रानाविक ऊपर मन्नवादी सूरिनी कथा कही॥
हवे चोथो निमित्त प्रानाविक कह्यो, ने तेंनी व्याख्या करे ने. (निमित्ति निमित्तं के०) तेहवा दीप्त श्रीजिनशासनना कार्यने विषे जे निमित्तना जाण होय ते निमित्त प्रयुंजे, ते निमित्त आठ प्रकारनां ले १ आदिव्य, २ औत्पातिक,३आंतरिद, ४ नीम, ५ अंगफुरकण, ६ स्वर, ल दाण, ७ व्यंजन, परिज्ञान रूप इहां जे को अकारणे निमित्त प्रयुंजे, तो ते विराधक जाणवो ॥ यतः॥ जोइस निमित्त अरकर, कोन आएसनूइंक धमे हिं॥ करणापमोयरोहिय,साहस्स तवरक हो॥१॥तेमाटे (कर्ज मि के० ) कार्ये एटले जिहां श्रीजिनशासननी महत्प्रनावना थाती होय एवा कार्यमा निमित्त (पउँकए के०) प्रयुंजे ते पण कोण प्रयुंजे के जे (निनण के०) निपुण माह्यो होय ते प्रयुंजे. कारण के जे कोश्ने कांश निमित्त कर्तुं अने ते जो मले नहीं तो उलटी श्रीजिनशासननी अपना जना थाय, माटे तेम न करवू ॥ ३४ ॥
हवे ए निमित्त प्रानाविक ऊपर श्रीनश्वादु स्वामीनो दृष्टांत कहीयें बैयें. आ जरतत्रे महाराष्ट्रदेशमा प्रतिष्ठानपुर नगरने विषे वाराहमिहिर अने नवादु ए नामें बे ब्राह्मण नाच रहेता हता,ते चौद विद्याना पारंगामी जे, एकदा प्रस्तावें विहार करतां श्रीयशोनइसरि तिहां उद्यानने विपे आ वी समोसस्या, तेमने राजा प्रमुख सर्व लोक वांदवा जाय , ते जो ए बे नाइ ब्राह्मण पण वांदवा गया. तिहां गुरुनी देशना सांजली नश्वादु वैराग्य पाम्यो, तेवारें वाराहमिहिरने कह्यु के, हुँ तो दीदा लश्श, वाराहमि हरें कयुं हुं पण तहारी साथ दीदा लश्श. परस्पर प्रेम , माटे बेद्ध नायें दीक्षा लीधी. बेदु ना गुरुपासें चौद पूर्व नण्या तेमां नश्वादु तो सुविहित चूडामणि थयो.
हवे जो पण वाराहमिहिर महोटो ना , तो पण तेने श्रीयशोज
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१३५
सूरियें याचार्यपद अयोग्य जाणीने प्राचार्यपद आप्युं नहीं ॥ यतः ॥ बुढोगहर सद्दो, ग्गाय सामाइहिं धीरपुरिसेहिं ॥ जो ततवव पत्ते, जा
तो सो महापाव ॥ १ ॥ जे माटे याचार्यपद तो गणधरोयें धारण करयुं ते जो अविनीत अयोग्यने यापे, तो आापनार पण अनंत संसारी थाय. एवं जाणीने गुरु श्री संभूतिविजयजी तथा श्रीनबाहुजी ए वेडुने पर स्पर प्रीति जाली तथा याचार्यपदने योग्य जाणी बेहुने पट्टधर कीधा. न वाने श्राचार्यपद मल्युं जोड़ने वाराहमिहिर अनिमान या पूर्वे जे बार वर्षपर्यंत चारित्र पाल्युं हतुं ते कर्मोदयने वरों चारित्रयी ऋष्ट थयो. ॥ यतः ॥ कवि जीवो बलिउ, कवि कम्माइ हुंति बलियाई ॥ जीवस्सय कम्मरस्य, पूर्व निबाई वेराई ॥ १ ॥ हवे वाराहमिहिर कोपांनजयुक्त थ यो को बाहेर नीकलीने गुरुनी उपर द्वेष धरवा लाग्यो, चौदे पूर्व नोलो हतो माटे चंदपन्नति, सुरपन्नति प्रमुख जैनशासनना ज्योतिष्य ग्रंथो जोइ ते उपरथी बीजा नवीन ज्योतिषनां वाराहीसहिंता प्रमुख ग्रंथ बनावी साधुनो वेष मूकीने ब्राह्मणनो वेष धारण करी लोकोनी या गल निमित्त कहने तेनाथी खाजीविका चलाववा लाग्यो, तेने लोक पूछे केट में क्यांथी एया ? तेवारें लोकोनी खागल एवं कहे के में एक दिवस नगरनी बारणे लग्न कुंमली मांमी, ते कुंमलीने नांग्या विना एम ज पाढो चाली निकल्यो. पढी जेवारें याद खायुं, तेवारें नूसाडी नाख वा गयो ने तिहां जश्ने जोनं तो कुंमलीमां सिंहलग्ननो स्वामी सिंह ते पूब वधारीने ऊपर ऊनो बे पढी में लग्गनी नक्तिने लीधे महारी बा ती कठिण करीने सिंहनी नीचें घुसीने लग्न नुंसाडी नाख्युं महारी जक्ति जो ने सिंहो धिपति जे सूर्य ते तिहां खाव्यो अने महारा उपर तुष्टमान इने बोल्यो के, माग, माग. तेवारे में कयुं, मुऊने नक्षत्रादिकनो चार खरे खरो जेवो बे वो बतावो पढी सूर्य पोताना ज्योतिषना मंगल चारमां मुकने लइ गयो. तिहां मने सर्व चार बताव्या, उदयास्तचक्र बताव्यं ते ज्योतिषना बलथी हुं त्रण कालनी वात जाणुं बुं. एवी कल्पित वातो क हीने लोकोमां पूजाय, राजा प्रमुखने निमित्त कहीने खुश करे ने चम कार पाडे. एम घणा लोकोने मिथ्यात्वी कस्या. एवा अवसरमां श्रीन बाहु स्वामी पण ते नगरमां श्राव्या तेमने राजा प्रमुख सर्व लोक वांदवा
·
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
गया श्रावकोयें महोटा महोत्सव सहित गाममां प्रवेश कराव्यो, पण वा राह मिहिरथी ते सहन थयुं नहीं, तेवारें विचायुं जे एनुं मान खंमित क रुं, तो सारी वात थाय. एवं चिंतवी एक दिवस राजसनामां जश्ने राजाने कवा लाग्यो के, खाजयी पांचमे दिवसें पूर्व दिशाथी वर्षाद या वशे, ते त्रीजे पहोरे वरसशे. या हुं कुंमालुं करूं बुं, तेना वञ्चमां बावन पलनुं मालुं पडशे. एवं निमित्त कयुं ते वात श्रावकोयें खावीने जइबा हुस्वामी यागल कही, के हे स्वामी ! या वाराहमिहिरें कहेली वात सत्य बे किंवा सत्य बे ? तेवारें नबाहु बोल्या, कांक सत्य बे ने कांक
सत्य बे, केम के पूर्व दिशाथी नहीं पण ईशान कोरोथी यावशे, ते घडी दिवस पाउलो रहेशे तेवारें पडशे, पण त्रीजो पहोर कह्यो ते जूतो को बे. वली बावन पलनो नहीं परंतु वायुथी सुकाइ जाशे माटे साडी एकावन पलनो मत्स्य रहेशे, तथा कुंमालानां मध्यभागमां नहीं पढे पण कुंमालानी कोर उपर एक बाजुयें पडशे, माटे ते वाराहमिहिर मिय्यात्व ना योगयी घालुं जुटुं बोजे बे. ए वात पण श्रावकोयें राजाने कही . राजा बोल्यो. साच जूठनी खबर हवे तरत पांच दिवसमां जलाइयावशे. एटलामां पांचमो दिवस याव्या तेवारें वर्षाद वरश्यो ने श्री बाहु स्वामीना कहेवा प्रमाणें सर्व वात सत्य थइ, तेवारें राजा प्रमुख सर्व लो कोयें श्रीश्वादु स्वामीनुं ज्ञान वखाएंयुं श्रने वाराहमिहिरनी कां सा ची कांई जुवी वात पडी गइ तेथी तेनी मानता कमती थवा लागी. वली एक दिवस राजाने घेर पुत्रजन्म थयो तेनी वाराहमिहिरे जन्मपत्रिका ब नावीने एकशो वर्षनुं यायुष्य वर्त्ति काहाड्युं, त्यारें सर्व लोक खत ल ने राजाने वधाववा याव्या. अन्यदर्शनी योगी, संन्यासी, प्रमुख सर्व या शीर्वाद यापवाने याव्या, परंतु एक श्रीनबाहु गया नहीं, तेवारें वारा हमिहिर राजाने कहेवा लाग्यो के, हे राजन् ! तमारे घेर पुत्रजन्म थयो, ते बाहुने रुच्यो नहीं, तेथी यांही खाशीर्वाद आपवा श्राव्यो नहीं, माटे ए श्वेतांबरनें वो जोइयें. ए वात पण श्रावकोयें जइ श्रीबाहु स्वा मीने कही. तेवारें बाहु बोल्या वारंवार केम जवाय ? एक वार जणुं ; श्रावक बोल्या क्यारें जाशो? गुरु बोल्या आठमे दिवसे रात्रिने वखतें बिल्लाडी
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२३७ ना योगथी पुत्र मरण पामशे,तेवारें मुख देखाडी धावा. ए वात श्रावकोयें जा राजाने कही, राजायें सर्व बिलाडीयोने याखा गाममांथी बाहेर का हाडी मूकावी, तथा बिनाडी कोश्ना घरमां अथवा गाममां न आवी श के, तेना शेकडो गमे जाबता कस्या. परंतु आम्मे दिवसे दैवयोगें दासीना हाथथी कमाडनी गसणी बालकना माथा उपर आवी पडी तेथी बालक मरण पाम्यो.धावीयें जश् वाराहमिहिरने कयुं, वाराहमिहिर मूर्जा खाइध रतीय पज्यो, वली सावधान थयो थको रोवा लाग्यो. अनुक्रमें राजायें वात सांजली तेथी गुरुने ज्ञाने चमत्कार पाम्यो. तेवारें वाराहमिहिर बो व्यो, बिल्लाडीथी तो मरण पाम्यो नही ? पड़ी गुरुयें तांसणीनी उपर बि लाडीना मुखनो आकार लाकडामां करेलो हतो ते देखायो राजायें कडे श्वेतांबरनां वचन खोटां न थाय, पढी गुरुने पूबता हवा के एकज लममां एटलो फेर केम पड्यो ? गुरुयें कह्यु अमें बेदु श्रीयशोनसरिना शिष्य बैयें, पण ए गुरुप्रत्यनीक थइ चारित्र मूकी गलामां जनोई पहेरी भ्रष्ट थयो ,माटे एनुं वचन मलतुं नथी. पडी राजानुं चित्त तेना उपरथी उतरी गयुं तेथी वाराहमिहिर लड़ा पाम्यो, माटे तिहांथी निकली अन्यत्र स्था नकें जर तापसी दीदा लइ. अज्ञानकष्टथी जैन उपर क्षेष चिंतवतो मरण पामीने व्यंतर देवता थयो. तेणे आवी श्रीसंघमां मरकीना रोगनो उप व कस्यो, तेथी घणां जोक मरवा लाग्यां, तेवारें श्रावकोनो नपश्व टालवा नेमाटे महामहिमावंत एवं " नवसग्गहर” नामें स्तोत्र गुरुयें बनाव्युं. तेनुं घरघरनेविषे गण' सरु थयुं तेथी सर्व उपश्व दूर थइ गयो. पली सर्व श्रावकोना घरमां जो थोडं झुं काम होय तो पण ते उवसग्गहरनो पाठ करे, के ते काम पार पडी जाय, एम करता करतां वट लोकोमा एवी चाल पडी गइ के जो गाय दूध न आपे, तो पण उवसग्गहर स्तोत्र गुणे, तेवारें गाय पण दूध आपती थाय. एमज वली कोइक बाणा वीरावा गइ ते एकली हती तेनी बाणानी पोटली उपाडी आपवाने को बीजो माणस ते वखत तिहां हाजर हतो नहीं तेवारें तेणे पण त्यां नवसग्गहरनो पाठ कस्यो, तेथी नागें पोते आवीने जारी नपाडी तेना माथा उपर राखी दीधी. एमज एक स्त्री रोटला करवा बेठी हती,तेनो बोकरो जाडे गयो,ते रोवालाग्यो तेणे जाण्यु जे रोटलो बली जाशे, त्यारे नवसग्गहरनो पाठ कस्यो के तर
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. त नागराजा आवीने कहेवा लाग्यो जे, गुं काम ? स्त्रीये कह्यु बोकरो रडे . तेने राखो. तेवारें ते बोकराने शौच करावी रोतो रखाव्यो. एवं प्रा ये सांजलाये बैयें. एवी रीतें नीच कामो लोको कराववा लाग्या, तेवारें नागराज खीज्यो अने गुरुपासें आव। विनति करी के, हे महाराज ! संघ थी हुँ एक दणमात्र पण अलगो रही शकतो नथी,लोको तो पूर्वोक्त हलकां हलकां काम ते पण माहरी पासे करावे , तेवारें गुरुयें जाण्यु जे ए नि
र्भाग्य लोको देवने खीजावशे तो उलटो अनर्थ थ पडशे, माटे आ स्तो त्र नंमारी मूकबु युक्त . तेमने नागें कयुं, हे स्वामीनाथ ! आप बही गाथा नंमारी मूको अने शेष पांच गाथाथीज हुं महारे स्थानकें वेठो थ को सर्व उपश्व टालीश. एवं सांजलीने गुरुयें बही गाथा नंमारी मूकी. ए म संघने नपगार कीधो, श्रीजिन शासननी उन्नति थइ. वली श्रीनवादु स्वामीना करेला श्रीयाचारांग, सूयगडांग, आवश्यक, दशवैकालिक, उ तराध्ययन, दशाकल्प, व्यवहार, सूरपन्नति, ऋषिनाषित ए दशनी नि युक्ति प्रमुख अनेक ग्रंथ हालमा विद्यमान . ए श्रीनश्वादुस्वामी श्री माहावीर स्वामीथी एकसो सित्तेर वर्षे अनशन आराधी देवलोकें गयां. ए चोथा नैमित्तिक प्रानाविकनें विषे श्रीनबादुस्वामीनी कथा कही ॥ हवे पांचमो तपस्वी प्रानाविक तथा बहो सिम प्रानाविक कहे जे.
॥ जिपमय मुनासंतो, विगिठे स्कमणेहिं नरम तवस्सी ॥ सिम बहू विद्यमंतो, विद्यावंतो य नचिययणं ॥ ३५ ॥ अर्थः-विरुष्ट तप जे मास खमण, पासखमण, बघ प्रमुख तप करतो थको श्री (जिणमयं के० ) जिनमतप्रत्यें जिनशासनप्रत्ये (उप्नासंतो के०) दीपावतो थको (विगि
रकमणेहिं के०) विग्रंथ अने साधु होय तेने (तवस्सी के० ) तपस्वी प्रानाविक (जम के० ) कह्यो .॥ यतः ॥ एगोगु होइ हरियो, बी दि जिविसस्स सप्पस्स ॥ तश्य कूव फलगे, कोसघरे थूल नदमुणि ॥१॥
माटे जे तप कर, ते निर्मायपणे करवू, ए प्रकारे जे तप करे, ते तप परत्र हितकारी थाय. यतः ॥ दसहिं गमेहिं संपन्ने अणगारे आगमेसि जदत्ताए कम्मं पक्करेंति तं जहा॥अणिदाण्याए, दिसिंपयाए,जोगवाहिया ए, खंतिखमणि जिदियत्ताए, अमानयाए, अप्पसबयाए, संसा मस याए, पवयणवचुलयाए पवयण ननावणयाएत्ति ॥ इति श्रीगणांगे ॥
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२३ए अन्यथा अझान तप तो जीवें घणायें कयां, पण श्रीजिनशासनो सा र जे दया तेने जाणी नहीं, तो सर्व तप वृथा जाणवां. कायक्वेशरूप जा गवां. जो मायायें तप करे, तो स्त्रीवेद पामी स्त्रीना कामनोग पामे, पण तेनुं फल पागल स्त्री रत्ननी परें उर्गतिनुं जाणवू. तेमाटे केवल क मनिर्जरा हेतुयें तपस्या करे, प्रस्तावें तपोलब्धियें करी श्रीजिनशासननां कार्य करे, ते तपस्वी नामें पांचमो प्रानाविक जाणवो.
हवे एनी ऊपर विष्णु कुमारनो संबंध कहीयें बैयः-एज जरतदे द स्तीनागपुरे, पद्मोत्तरनामें राजा तेने ज्वाला नामें स्त्री , तेणे एकदा प्र स्तावे सिंह स्वप्नमां दीतो, तेने प्रनावें विष्णुकुमर जन्म्या. अन्यदा वली ते ज्वालामुखीयें चौदस्वप्न दीवां, तेने प्रनावें माहापद्मनामें नवमो चक्रवर्ती लघुपुत्र जन्म्यो, विष्णुकुमार तो धुरथकीज निःस्टही वैराग्यवान् हतो, माटे तेणें युवराज पदवी लीधी नहीं. तेवारें तेना पितायें महापद्मने युवराज पदवी आपी. हवे ते समये उऊयिणी नगरीनो नरवर्मनामे रा जा , तेनो मिथ्यात्ववासित नमुचि एवे नामें मंत्रीश्वर ने. एकदा श्री मुनिसुव्रत स्वामीना शिष्य श्रीसुव्रत नामें याचार्य ते अयवंति नगरीना उद्यानने विषे आव्या, तेमने लोक वांदवा जाता देखीने राजा नमुचि प्र धानने कहे , के चालो थापणे पण वाचार्यने वांदवा अश्ये, तेवारें में त्रीयें कह्यु के, ढुं एनी साथें वाद करीश, तेने राजायें पण नश्कनावें कह्यु तहारे वाद करवो होय तो सुखें वाद करजे.
पड़ी नरवर्मराजा नमुचिसहित जश्ने गुरुने वांदी बेग, तिहां नमुचि प्रधान मदमत्त थश्ने आचार्य साथें वाद करवा लाग्यो. तेने असमंजस बोलतो जाणीने याचार्यना शिष्य बोल्या, अरे उष्ट ! तुं आचार्यनी साथें गुं बोले ले ? ढुंज तुमने जवाब आपुं, तेटलो बस . पड़ी ते शिष्ये प्र माण शास्त्रनी चर्चायें नमुचिने निरुत्तर कस्यो. ते मंत्र खील्यो सर्प जे म हालीचाली शके नहीं, तेम शिष्यनी युक्तिथी बंधायो थको नमुचि कां पण बोली शक्यो नहीं. मानन्रष्ट थयो थको तिहाथी उठी ग यो. पड़ी क्षेष धरतो थको तरवार हाथमां लश्ने रात्रिने समय यतिने मारवा माटें तिहां गयो, तेने शासनदेवतायें थंनी राख्यो. हाली चाली शके नहीं, प्रनातें तेने थंन्यो देखीने लोक सर्व चमत्कार पाम्यां. आचार्ये
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. करुणा आणीने शासनदेवी पासेंथी मूकाव्यो. राजायें ते वात सांगली प्र धानने उष्ट जाणी देशबाहेर काढी मूक्यो. नमुचि तिहाथी निकल्यो थको हस्तीनागपुरें गयो, तिहां कलाना योगें महापद्म कुमारनो प्रधान थयो.
हवे तिहां कोक सिंहबल नामें फटाश्यो राजा मे ते धाड ला महा पद्मकुमारना गामोमां लूंट फाट करे . गाम जांजे ने, मार्गमां पंथीज नोने लूंटे , तेवारें महाप- कह्यु के, कोइ सिंहबलराजाने बांधी लावे, एवो ? नमुचियें तेने जीतवा बीर्यु लीधुं अने राजा, कटक ला सिंह बलसाथै यु६ करवा गयो, तिहां यु६ करी सिंहबलने बांधी लावीने महा पद्मने थावी सोंप्यो. तेवारें महापद्म प्रसन्न थर कहेवा लाग्यो के वर माग! नमुचियें कह्यु के, हाल नंमारे राखो. जेवारे काम पडशे, तेवारें हूं मागी लश्श. एबुं कहीने नमुचि पोताने घेर गयो.
हवे एकदा महापद्मनी माता ज्वालायें श्रीअरिहंतनो रथ फेरववा तैयार कीधो ,अने तेनी शोक्य लक्ष्मी नामें बे,ते मिथ्यामतिवाली ,माटें तेणें ब्रह्मानो रथ फेरववा माटे तैयार कीधो , तिहां ज्वालायें कह्यु, प्रथम महारो रथ नगरमां निकलशे अने लक्ष्मीयें कयुं प्रथम महारो रथ नगर मां फरवा निकलशे, एम बे शोक्योने मांहोमांहे क्वेश थवा लाग्यो तेथी पद्मोत्तरराजायें क्लेश मटाडवा सारु बेदु रथ फेरववामाटे मना करी. तेवारें महापद्मकुमर पोतानी मातानो मनोरथ नंग थयो देखीने देशांतर जणी चाली निकव्यो, ते कुमर जाग्यवंत डे माटें ज्यां जाय त्यां तेनी अने क राजा सेवा करे, तेणें अनेक राज्य कुमरीयोनां पाणिग्रहण कस्यां. अ नुक्रमें पितानी वृक्षावस्था जाणी पाडो हस्तिनागपुर नगी आव्यो. तेने पि तायें राज्य थापी पोतें सुव्रताचार्य पासेंथी दीक्षा लीधी. तेनी साथेंज वि ष्णुकुमार पण दीक्षा लीधी.
पाउल महापद्म चक्ररत्न पामी जरतदेवनी ब खंक पृथ्वी साधीने ह स्तिनागपुरें याव्यो. सर्व राजायें मली बार पर्षपर्यंत राज्याभिषेकनो महो त्सव कीधो. पडी महापद्मचक्रवर्तियें लक्ष्मी जे पोतानी मातानी शोक्य , तेनो रथ रोकीने पोतानी माता ज्वालायें तैयार करेलो श्रीअरिहंतनो रथ नगरमांहे फेरव्यो. श्रीजिनशासननी प्रनावना करी, ठाम ठाम श्री जिनप्रासाद कराव्यां.
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
- श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२४१ हवे पद्मोत्तर साधु इंघियजय करी नाना प्रकारनां तप करी केवलज्ञान पामी मोदें पहोता. अने विष्णुकुमर मासखमण पदवमणादिक घणांप्र कारना तप करता थका वैक्रियादिक समस्त लब्धि पाम्या, मेरुपर्वत उपर जश्ने तपस्या करता थका काउस्सग्ग ध्याने रहे . ___एकदा सुव्रताचार्य, श्रीहस्तिनागपुरें आवी चोमासुं रह्या बे, तिहां म हापद्मचक्रवर्तिपासें नमुचि प्रधान , ते जे करे, ते थाय. तेनो हालदुक म चाले , ते नमुचि पूर्वखं वैर स्मरण करी अधिकष आचार्यनी ऊपर चिंतववा लाग्यो अने संधान जो चक्रवर्ती पासें जश् पूर्वला नंमारें मूकेला वरदानने बदले सात दिवसपर्यत राज मागीलीधुं. कोक आचार्य वली एवं कहे जे के ब महीना सुधी नमुचियें राज्य मागी लीधुं . चक्रवर्ती तो नमुचिर्नु कूडकपट कां जाणतो नथी, तेथी वरदानने बदले राज्य आप्यु. नमुचि राजगादी वेगे अने चक्रवर्ती पोताना महेलमांहे रह्यो.
तिहां नमुचियें यज्ञ मंझाव्यो. तेवारे सर्व पाखंमीदर्शनी तेने आशी दि देवा आवें, दान लेवा आवे, अने जैनना यतितो सर्व निःस्टही , माटे कोई दान लेवा भाव्या नहीं. ते बल पामीने नमुचियें सुव्रताचार्यने तेडावीने कह्यु के हुँ राजें वेठो बुं, यज्ञ कीधो ले. तिहां मने सर्व मलवा याव्या,अने तमें मलवा आव्या नहीं माटे जाउ शहाथी महारा देशमा त मारे रहेवू नहीं. तेने गुरु घणां मिष्ट वचनें करी समजावता हवा, पण को रीतें समजे नहीं.अने कह्यु के सातदिवसनो अवधि बापुं. एटलामां जो नहीं जाशो अने आठमे दिवसें दुं तमोने देखीश तो मारी नाखीश.
आचार्य पोताने स्थानकें ावी सर्व यतियोने पूडवालाग्या जे आप णामां कोण शक्तिवंत साधु बे ? जे ए नमुचिने समजावे. यतियोयें कह्यु विष्णुकुमार एने समजावशे. गुरुये कह्यु विष्णुकुमारने मेरु उपरथी तेडी
आवे, एवो कोई यति शक्तिमान में, तेवारें एक यतियें कह्यु के, महारामां मेरुपर्वतें जवानी शक्तितो ले पण पाळाववानी शक्ति नथी. गुरुये कयुं वि ष्णुकुमार तुमने तेडी आवशे, ते सांजली यति गुरुनी आझा लइ लब्धि साधन करी मेरुपर्वतें विष्णुकुमरपासें जश् वांदीने सर्व समाचार संजला व्या, तेवारें विष्णुकुमार पण ते मुनिनी साथे तेडी गुरुनी पासें थाव्या, गु रुने वंदना करी पूज्यु. महाराज जे कार्य करवानुं होय ते कहो. गुरुये कह्यु
३१
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४३ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जिनशासननुं कार्य करवाथी महोटो लान , माटे नमुचिने समजावो.
विष्णुकुमार पण नमुचिनी राजसनाये जई घणे मीठे वचने तेने सम जावता हवा, पण शीलानी पेरें ते उष्ट समजे नहीं.
विष्णुकुमार कह्यु जरतदेत्रमा तो तहारुं सर्वत्र राज्य , माटे ते मू कीने ए साधु क्यां जाय? तेने नमुचियें कहुं त्रण पगलां नूमि आपुं बुं. पण तेनी बाहिर कोई यतिने देखीश तो मारी नारखीश. ते वचन सांजली विष्णुकुमार कोपायमान थयो थको लब्धिने बले लक्ष योजननुरूप करी बे पगें करी सर्व पृथ्वी रोकी मूकी अने कह्यु के,अरे नमुचि ! हवे त्रीजो पग हुँ किहां मूकुं ? एम कही नमुचिना मस्तक उपर मुक्यं ते नमुचिविष्णुकुमरना पगथी थाक्रम्यो थको काल करीने नरकने विषे गयो ते रूप करवाथी सर्व पृथ्वी आक्रमी,पर्वत चलाचल थया, इंमहाराजें मेरुसमानरूप देखीन यत्रांत थ अवधिज्ञान प्रयुंजी सर्ववृत्तांत जाएयु. पडी समाधान करवा मा टे गंधर्व देवांगना मोकली तेणें यावी वीणानादे मधुरस्वरें गीतगान करी विनति कीधी के स्वामी ! प्रसन्न था कोप मूको. सुव्रताचार्य पण आवी ने कह्यु हवे कोप मूको. नमुचि जिनशासननो अपराधी हतो, तेने शिक्षा दीधी. हवे रूप संकोच करो वली महापद्मचक्रवती पण आवीने पगें ला ग्यो अने कहेवा लाग्यो जे में अयोग्यने राज्य आप्युं, मांजारीने दूध सो प्युं ते विणशे पण सुधरे नहीं तप महारो अपराध खमो. तेवारें विष्णु कुमार वैक्रियरूप संहरीने पोतानुं सहज रूप आदयुं. महापद्मने उलंनो देश कह्यु के तें जिनशासनना शेषीने सर्वस्व स्वाधीन करीने तुं पोतें महेलमां जर वेसी रह्यो, यतियोनी कांड पण खबर लीधी नहीं, एटले तहारो वांक बे माटे उलंनो देवं . चक्रवर्तीयें कह्यु महारो गुनो बदो. आज पलीक दापि एवो गुनो करूं नहीं. ए रीतें तेने उपशांत करी पगे लागी चक्रवर्ती पोताने घेर गयो. सुव्रताचार्य साथें विष्णुकुमार नपाश्रये आवी गुरुपा सेंथी यालोयणा लइ पडिक्कमीने स्फाटिकन। पेरे निर्मल थयो ॥ यतः॥ पायरिय गडंमि य,कुल गण संघेय चेश्य विपासे ॥ आलोश्य पडिक्कतो, सुको जं निराविला ॥ १ ॥
तिहां विष्णुकुमार त्रिविक्रम एवं नाम पाम्यो. घणा वर्ष लगण शुरु दीक्षा पाली तपश्चरणे करी जिनप्रवचन दीपावी केवलज्ञान उपार्जी मो
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्तवसित्तरी.
२४३
दें गयो. ए रीतें तपस्वी प्राजाविकने विषे विष्णु कुमारनो वृत्तांत कह्यो. ed as विद्याप्राजाविक कहे :
( बिदुविधमंतो के ० ) सिद्धि पानी के घण । विद्या जेहने एटले प्रत्यादिक शोल विद्यान तथा सिद्धि पाम्या ने घणा मंत्र एटले सूरिमं त्रादिक जेहने एवो जे होय ते ( विद्यावंतीय के० ) विद्यावंत प्राजाविक मां न तिहां मां स्त्री देव अधिष्ठायक होय ते विद्या कहीयें खने पुरुष देव प्रधिष्ठायिक होय ते मंत्र कहीयें तथा ( उचियणो के० ) उचितनो जाए जोइयें. जो एविद्यामंत्रने जो जिनशासनदी पाववा खर्थे फोरवे तो या राधक थाय ने तेनेज यथातथा फोरवे तो विराधक थाय ॥ यतः ॥ विद्यंमंत जोगं, तेगिलं कुणई नूई कम्मं च ॥ अस्कर निमित्त जिंवी, श्रीरंज परिग्रम ॥ १ ॥ इतिउपदेशमालायां ॥ ३५ ॥
एनी उपर या खपटाचार्यनो दृष्टांत कहे बे. श्रीवर्धमान स्वामीना शासनने विषे विद्यामंत्र बलवंत यार्य खपटाचार्य बे. एकदा प्रस्तावें विहार करतां नृगुकछें पधास्या. तिदां बौऽमत वासित बलमित्र राजा बेमा हां बौचार्य प्रतिदिन जैननी निंदामय वखाण करे एवो बे तेथी नृगुक
संघें मलीने गुरुने विनति करी के मे बोनी यागलें महोदुं कष्ट सहन करता रहीयें ढैयें ! ए नित्य प्रत्यें जैननी निंदा करे वे माटे एनी सायें वाद करीने एनुं मुखनंग करो तो रुडं थाय ॥ यतः ॥ कंटका नां द्विजिह्वानां, द्विविधैव प्रतिक्रिया ॥ उपानमुखनंगोवा, दूरतोवापसर्पणं ॥ १ ॥ ते सांजली प्राचार्य बोल्या, यमें क्लेश वाद करीयें नहीं. ते वखत आचार्यनो नाज वन नामें बे, ते वादविवादमां शूरवीर बे, माटे ते ज इने बौनी सायें वाद करे ने बौने हरावे तेथी बौद्ध नासता फरे.
ते वात सांजलीने अन्यगामथी कोइक वृद्धकर नामें बौनो आचार्य याव्यो तेणे प्रथम तो जवनसाधुनी साथै राजासम वाद करवा मांमयो, तिहां बौद्ध हास्या ने वन जीत्यो, तेवारें वृद्धकर बौद्धाचार्यै विचायुं जे ए जैनाचार्यना शिष्यथी हुं हाथो तो हवे महोढुं गुं देखा ? तेथी तेणे अनशन लइ जैनना साधु उपरें प्रदेष वहेतां थकां काल कीधो, ते म रीने को एक नगरना उद्यानने विषे यक्ष थयो. ते यक्ष जैनना श्रावकोने मारी प्रमुखना रोग उपजावी, उपव करी संतापवा लाग्यो श्रावकोयें या
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वीने आचार्यने कह्यं त्यारें खपटाचार्यतेय दना चैत्यने विषे जश्ने जुना खा सडां ते यदने काने वलगाड्यां. पनी तेनी पलोंती पर पग मूकी समस्त अवयव ढांकीने सूइ रह्या घोर निश घोराववा लाग्या.
एवामां ते देराशरनो पूजारो आव्यो. तेणे आचार्यने घणुंए जोर करी जगाडवा मांमयो, पण आचार्य जाग्या नहीं तेवारें पूजारे जश्ने राजानी आगल पोकार कस्यो. राजा पोतें तिहां याव्यो अने पोते आचार्यनुं वस्त्र दूर करे तो ते वस्त्र बमणु महोटुं थाय तेवारें ताजणाना प्रहार देवा मांझ्या. ते प्रहार राजाना अंतःपुरमा जश् लाग्या अंतःपुरमा सोर बकोर थ रह्यो. ते जो राजायें विचायुं जे ए कोई सामान्य पुरुष नथी एम जागी राजा यावी पगे लाग्यो अने कहेवा लाग्यो के,स्वामीप्रसन्न था. महारो अपरा ध माफ करो. तेवारें प्राचार्य तिहाथी नग्या अने राजाने धर्मलान आापी जवा लाग्या यदने कहेवा लाग्या के अरे यद नन महारी साथें चाल ते सांजली यह पण याचार्यनी साथै चाल्यो तिहां चैत्यनी आगल महोटी वे शिला पडी हती ते पण यदनी पनवाडे चाली ते चमत्कार राजा प्रमुख सर्व लोके दीठो पड़ी राजा आचार्यने पगें पडीने कहेवा लाग्यो के,स्वामी सि लाथी यघसाय एने पुःख थाय ने माटे कृपाकरीने मूको तेवारें खपटाचार्य बोल्या एणे अमारा संघने घणो संताप्यो ने.राजायें कह्यु हवे नहीं संतापे एवी राजानी विनति सांजली यदने मूक्यो यद ज पोताने स्थानकें बेगे,शिला पण स्थिर थर. राजायें महोटा महोत्सवसहित गुरुने नगरमा प्रवेश क राव्यो गुरुनी देशना सांजली राजा प्रतिबोध पाम्यो. गुरुये विहार करो.
एकदा प्रस्तावें नृगुकचथी श्रीसंघना मोकलेलाबे यति आवीने गुरुने वि नति करवालाग्या के, स्वामी ! कोक सुविनीत शिष्य ले तेणे व्यानुयोगम य बागमनां पानां नंमारमाहेथी काढीने वांच्या तें मांहेथी आकष्टी विद्या काढी तेने साधीने तेना बले विविध प्रकारनां पकवान्नफलादिक अणावीने खावा मांमयां तेने गीतार्थे वास्यां थकां तेमनी साथै वढवाड करीने बौक्षम तनेविषेजश्बौछनी साथें मव्या ते बौधना पात्र आकाशे मोकली वलता नरी ने मगावे.बौधने सूखडीप्रमुख यथा वांनित खवरावे . ते चमत्कार देखीने घणां लोक बौदर्शनी थायजे तेमाटेअमोने श्रीसंघे मलीयापनी पासेंमो कल्या ३ ते वचन सांजलीने ते यतियुगलनी साथें आचार्य नृगुको पधाख्या.
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४५
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. तिहां विद्याने बलें करी आचार्ये ते शिष्यनां पात्रां विविध प्रकारनी सु जद नदिकायें जयां, आकाशमार्गथी आवता हता तेने वतांज या काशथकी आकर्षी शिलातलने विषे श्रास्फाल्या थका नांगीने कटके कट टका थइ नूमिने विषे पज्या ते देखीने पहेलो कुशिष्य तथा उष्ट बौहोते सर्व जेम वायराथी आक नाश पामे तेम नाशिगया. __पनी आर्यखपटचार्य बौदना चैत्यने विषे गया तिहां बौधोयें कह्यु के प्रतिमाने नमस्कार करो प्राचार्य को नया थका बोल्या के अरे बौछो तमें सत्वर उठीने महारे पगें लागो. एवं कहेतां वारज बौदेव बौदिस त्त्वनी प्रतिमा श्रावी गुरुने पगें लागी ते केटलाएक दिवसपर्यंत तेमज गुरुना पगमा लागी रही एवो चमत्कार देखीने घणा बौक्लोक प्रतिबोध पाम्या. केटलाएक दिवस तिहां रहीने गुरुयें अन्यत्र विहार कस्यो.
हवे पामलीपुर नगरने विषे वाहड नामें राजा ते केवल विप्रनक्त ने ते राजा सर्व दर्शनीने तेडीने कहे के तमें विप्रने पगे लागो तो महारा न गरमांहे रहो नहींकां नगर मूकी चालता था एवा राजाना आदे शथी सर्व दर्शनी विप्रने पगे लागीने तिहां रह्या. परंतु जैनना साधु ये सात दिवसनी अवधि मागी ते राजायें पण आपी पड़ी उपाश्रयें भावी विचार करवा लाग्या के हमणा आपणामां जैनशासननो प्रानाविक थाय एवो कोण ?
तेवारें एक शिष्य बोल्यो जे खपटाचार्यना शिष्य महेंश उपाध्याय हाल आपणा देशमां पधाया , ते प्रामाविक ले ते सांजलीने श्रीसंघे ते मने तेडवामाटे बे यति मोकल्या. यतिथे तिहां जर सर्व वार्ता कही सं नसावी तेवारें महें नपाध्याय पण ते यतियुगलनी साथें पामलीपुरें याव्या तिहां आहार करी स्वस्थ थइ घणा यतियोने परिवारें परवस्या थ का करवीर वृक्नी लांबी बे काम हाथमा राखी राजछारें गया राजा प ण सिंहासने यावीने बेग. राजानी बेतु बाजुयें पलोंठी वाली दस्त कर्णे ललाट प्रमुख अंगनेविषे लांबां लांबां टीलां काढीने ब्राह्मणोनी पंक्तियो बेठी बे, उपाध्यायने राजायें कह्यु के ब्राह्मणोने नमस्कार करो. उपाध्यायें क ह्यु, कई पंक्तिना ब्राह्मणोने नमस्कार करीयें ? राजायें कह्यु, ब्राह्मण सर्व पूजनीयज डे माटे बेदु पंक्तिना ब्राह्मणोने पगें लागो. तेवारें महें। उपा
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
ध्यायें बेकia ब्राह्मनी बेदु पंक्तियें फेरवी तेथी विप्रोनां मस्तको द डानी पेठें खागले जइ पड्यां. ते देखी राजा प्रमुख सर्वलोक त्रास पाम्या; गाममा हाहाकार थ रह्यो राजा पोते सिंहासनथी कठीने उपाध्यायने प लागो ने कह्युं के स्वामी, महारी नूल थइ ते माफ करो.
"
उपाध्यायें कहां, वली पण कहे के विप्रने पर्गे लागो. राजा बोल्यो महाराज महारो एकवार थयेलो अपराध खमो उपाध्यायें कयुं तहारो अपराध माफ करूं बुं. पण हवे तुं विप्रनी वातमां पडीश नहीं, राजायें क ह्युं तमे दयालु बो माटे विप्रोने जीवितदान आपो एवामां यकाशवाणी थ जे सर्व विप्रो दीक्षा लीये, तो जीवता रहे ते वात शेष विप्रोयें अंगीकार करी तैवारें उपाध्यायें तत्काल ते सर्व विप्रोनां मस्तक गला ऊपर मूकाव्यां ते मूकतावेंतज पोताने स्थानकें यथातथ्य बेसी गया ब्राह्मण सघला जीव ता रह्या. ने दीक्षा लीधी, राजायें पण श्रावकधर्म अंगिकार कस्यो.
ब्राह्मणोने दीक्षा दे श्रीजिनशासनना प्राजाविक महें उपाध्याय नृगु काव्या तहां पोताना गुरुने वांदी बेवा. यार्यखपटाचा श्रीमुनिसु व्रत स्वामीना चैत्यनी प्रतिष्ठा करी श्रीमहें उपाध्यायने प्राचार्य पढ़ें स्था पी गष्ठानुज्ञा दीधी. पोतें उत्तमार्थ साधी स्वर्गेपहोता तेमने पाटें महेंाचार्य पण महाप्रजाविक थया. यामृवृनां फलपण याम्रज होय ए दृष्टांतें जा rg. ए विद्यामंत्रप्रानाविक ऊपर यार्य श्रीखपटाचार्यनुं चरित्र कयुं ॥ हवे सातमा सिमाना विक तथा खातमा कविप्रानाविकनुं स्वरूप कहे बे.
॥ संघाइ कऊसाहग, चूमंजन जोग सिद्ध सिद्धे ॥ नूब सहगाथी, जिए सासरा जाउ सुकई ॥ ३६ ॥ यर्थः - ( संघाइ के० ) संघ ते सा धु, साध्वी, श्रावक, खने श्राविका लक्षण जाणवो तथा यदि शब्द थकी जिनगृह, जिनबिंब, उपाश्रय, ज्ञानजंमार प्रमुख ( कऊ के० ) कार्य लेवां
कार्यना ( साग के ० ) साधक जे ( चूांजनजोग के० ) चूर्ण तथा अं जन ने योग तेणें करीने जे ( सिद्ध के० ) सि६ थयो तेने ( सिद्धे के० ) सिद्ध कहीयें. एटले एटला वानां जेनां करेला साचा थाय पण खो टा नयाय विघटे नहीं तेने सिद्ध कहीयें. हवे चूर्ण ते गुं कहीयें, तो के जे
की सुवर्णसिद्धि, रजत सिद्धि याय एवा चूर्ण होय वे जेम कालिकाचार्ये सोनानो इटवाह करी शाकराजानुं कटक सर्व संतोषयुं, ते चूर्ण जाणवुं.
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२४७ हवे अंजननुं स्वरूप कहे जेः- अांखमां अंजन कस्यायका निधान देखी ये नूरख्यो होयने राजा प्रमुखनी थातिमां बेसी जमे तोपण को देखे न ही वली बीजोपण एवा चिंतितकार्य करीये. ते सर्व अंजन कहीये.
तथा योग ते औषधिने योगें पादलेप करवाथी आकाशगामिनी गति यावे,तीर्थयात्रा करीयें तथा जे औषधिने योगें सौजाग्य पामीयें दौ ग्य पामीयें.एवा ए औषधादिकना योग कह्या . पण जे जाणकार होय ते मात्र संघादिकना कार्यने अर्थेज फोरवे. ते गुरुनी तथा श्रीतीर्थकरनी आझायें फोरवे केमके श्रीजिनशासनने विषे सर्व क्रिया साझा प्रधान ॥ यतः॥ बह मदसम, दूवालसेहिं मास मासखमणेहिं ॥ अकरितो गुरुवयणं, अपंत संसारित हो ॥ १ ॥ इति पंचम प्रत्याख्यान पंचाशके ॥
हवे एनी उपर पादलिप्ताचार्यनो दृष्टांत कहे जेः- एहजनरतदेवने वि पे अयोध्यानगरीयें फलक नामें श्रेष्ठी धनाढ्य ले तेने पडिमा नामें स्त्री ने, तेणें पुत्र थवामाटे वैरुट्या देवीने आराधी देवीयें स्वप्नमां श्रावीने कडं के तुं श्रीनागहस्ति आचार्यनुं पगधोयण पीजे, तेथी तुमने घणा पुत्र थाशे ए Q कहीने देवी अदृश्य थइ. प्रनातें पडिमा श्राविका पडिक्कमणुं करी, देव जुहारी, उपाश्रयें यावी एटले गुरुनो पगधोयण परतववाने वेयावच्ची साधु बाहेर निकटयो ने तेने पडिमा श्राविकायें पूब्युं या गुंडे ? साधुयें कडं गुरु नुं पगधोयए डे, श्राविकायें कह्यु ए मुझने बापो महारे एनो खप जे ते धो यण साधुयें प्राप्युं घेर जश् श्राविकायें पीधुं ते पीकरीने पानी उपाश्रयमां
वी गुरुने वांदी करी सर्ववृत्तांत कह्यु. तेवारें गुरुयें श्रुतोपयोग देश कह्यु के हे श्राविका, तुजनेजे पहेलो पुत्र थाशे तेने बोडीने तुं यमुनाना तटनपर दशवर्षपर्यंत वास करजे,तो ए पुत्र जीवशे अन्यथा पहेलोपुत्र जीवशे नहीं.
ते सांजली श्राविकायें कह्यु एटलुं महाराथी बनशे नहीं. माटें प्रथम पुत्र जे थाशे, ते ढुं तमोने यापीश गुरुयें कह्यु एम करीश तो चिरंजीवी थाशे. एवी वात अंगीकार करी ते श्राविका घेर थावीने फलकशेग्नी आ गल सर्ववात कही, तेणेपण ते वात अंगीकार करी पड़ी ते श्राविकाने ते हिज रात्रीय नागलोकथकी चवी रत्नमयनागदर्शन स्वप्न सूचित देवता ग जपणे आवी कपनो. स्त्रीय स्वप्ननुं वृत्तांत शेठने प्रनातें आवी कयुं शेठ बोल्या तुमने उत्तम पुत्र थाशे. अनुक्रमे सातमे महिने ते स्त्राने एवो दो
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. होलो उपनो जे हुँ उद्याननेविषे जर दान आ', तेवात शेठ पागल क ही शेठे उद्याननेविषे दान देवरावी दोहोलो पूर्ण कस्यो.
हवे दिवस पूर्ण थये थके पुत्रनो जन्म थयो,शेवें जन्ममहोत्सव कीयो रत्नमय नाग स्वप्नमां दीठो तेमाटे तेनु नाम पण नागें दीधुं पड़ी ते पुत्र लश् गाजते वाजते उपाश्रयें यावी गुरुने अर्पण कस्यो. तेने गुरुयें कह्यु, थ मारो थको आठ वर्ष लगा तमें पालण पोषण करो, पनी अमे दीदा देयं एवं गुरुनु बोलवू सांजली ते पुत्रने घेर लइ आव्या ते अनुक्रमें वधतो आठ वर्षनो थयो, तेवारें तेने महामहोत्सवे गुरुयें दीदा दीधी. पडिमा श्राविकाने बीजा पण राजहंस सरखा घणा पुत्र थया ते कुलना आधार नूत थया अने प्रथम पुत्र गबनो आधरनत थयो.
हवे ते न्हानो चेलो पासेना घरथकी याबण वहोरी आव्यो तेने गुरु यें पूब्युं चेला तुं बालोइ जाणे जे चेलायें कडं हा महाराज तमारा प्र सार्दै ढुं जाणुं बु. गुरुयें कडं केवीरीतें बालोय? चेलो बोल्यो ॥अंबतंब जीए, अपुफियं पुप्फदंतपंतीए ॥ नवसालीकं जीयं, नववर्ई कुडएण म हदिन्नं ॥ १ ॥ ए आर्यामां शृंगार पोषण कयो माटे गुरु खीज्या थका बोल्या हे “पलीत ! ” तेवारें चेलायें कह्यु एक मात्रा अधिक आपो एम तेनी चतुराश्ये गुरु संतोषवंताथयाथका “जापलित्त” एवो नाम देता हवा. __हवे ते शिष्य पोतानी प्रझाने बलें करी जे कांश सांजले ते सर्व जाणे ए ना मुखपावेंज में एम बहुश्रुत थयो जाणीने गुरुयें तेने सूरिपद दीधुं गहा नुझा दाधी. पडी ते शिष्य सर्वत्र स्वदर्शन, परदर्शनमां जाणीतो थयो गुरु ये तेने योग्यजाणीने पादलेप विद्या आपी जेनाथी आकाशमां गमन कर वानी शक्ति आवे तेथकी पादलिप्त सूरि कहेवाणा. ___ एकदा गुरुनी आज्ञा मागी पादलिप्तसूरि साधुना समूहसहित पामली पुरें याव्या.तिहां मुरड नामे राजा राज्य करे ने तेने कोणि सूत्रनो दडो
आप्यो बे. ते घणाजनोने देखाज्यो, पण तेनो को तार काढी शके नहीं उखेडी शके नहीं पड़ी राजाये पादलिप्तसूरि आव्या जाणीने तेडाव्या.सरि पण सनामां आवी बेठा राजायें सूत्रनो दडो थापी कमु ए दडो नखेली आपो. आचार्य नष्णपाणीमांहे दडो मूक्यो तेवारे ते नष्णपाणीने योगें द डा उपर चडावेलु मीण उतरी गपुं. तार मली आव्यो दडो उखेली थाप्यो.
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
श्वए राजा खुशी थयो वली राजायें एक दाबडो उघाडवा माटें प्राप्यो तेने पण गुरुये तेमज नष्ण पाणीमां मूक्यो नष्णताने योगें लाख उतरी गइ तेथी संधीबंधी प्रगट थइ तेवारे दाबलो उघाडी आप्यो.
हवे गुरुये एक तूंबई रत्ने नरी शीवीने राजाना हाथमां उघाडवा याप्यु राजायें उघाडवा माटे घणा उपाय कस्या पण शीववानो मूलस्थानक पाम्यो नहीं ए प्रकारें राजा गुरुनी चतुराई देखी चमत्कार पाम्यो. ___ एकदा राजाने असाध्य रोग थयो वली मस्तकें शूल थयुं, वैद्य तथा योगी प्रमुख घणा आव्या, पण वेदना शमे नहीं तेवारें आचार्यने तेडाव्या गुरुये कह्यु तिहां आववानुं हुं काम ? तमे तिहां जश्ने राजाने अमारी सन्मुख सुवरावो अमे इहांज वेठां वेदना समावी देणुं तेवारें प्रधाने राजा ने गुरुनी साहामो सुवायो गुरुयें तिहां बेठां राजाना जानु ऊपर आंगुली फेरवी के राजानी वेदना तरत शमी गइ राजायें महोटो महोत्सव कस्यो पोतें श्रावकधर्म अंगीकार करी गुरुनो परमनक्त थयो.
हवे गुरु तिहांथी संघनीसाथें विहार करी मथुरा नगरीये आव्या,तिहां देवताना करेला थूजने विषे देव जुहास्या तिहांथकी संघनी साथें गुजरात मांहें उँकारपुरने विषयाव्या. तिहां देवयात्रा करी तिहाथी खेडपुरें आव्या, तिहां चार पादुडा पाम्या, जेमा पूर्वना अधिकार विशेष होय तेने पाहुड कहियें. योनिपादुड, निमित्तपादुड, विद्यापादुड अने सिझपादुड तेमां, प्रथम योनिपादुडमांहे तो विविध औषधीनेयोगें करी जीवनी तथा अजीवनी उ त्पत्तिना प्रकार पामीयें. बीजा निमित्तपादुडमांहे अष्टांग निमित्त पामी. त्रीजा विद्या पाडने विषे मंत्रविद्यानी साधना तथा तेनां फल कह्यां . चोथा सिपादुडने विपे सर्व सुवर्णसिदि रूपसिदि प्रमुख सिदिन पामीयें ए चार पादुड पामीने पादलिप्तसूरि देवदाणवने पण अजेय थया.
हवे ते समयें दक्षिणदेशे खेडपुर, लाटदेशे नृगुकन्न, सोरतदेशे वननी नगरी तथा सूरासनदेशे मथुरानगरी ए चार नगरने विपे जैननो संघ घ गो पामीयें तिहां खेडपुरनो संघ मली गुरुने अन्यत्र विहार करवा आपे नहीं. कारण के तिहांनो राजा उग्र ते ए गुरुविना बीजा कोइने वश नावे.
एवामां नृगुकलने विषे ब्राह्मणो मली श्रावकोने पूजादिक कार्य करवा दीये नहीं. तेमाटे संघे गुरुने विनंति लवी मोकली जे आप पत्र पधारजो
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. घणी जिनशासननी उन्नत्ति थाशे. तेवारें गुरुये कयुं कार्तिकवदि प्रतिपदाने दिवसें नरुअचे आवी देवजुहारवानो अमारो नाव ले एवं सांजलीने श्री संघे पण ते दिवसें नेगाथश्ने महोटा विस्तारसहित पूजा मांमी.
आचार्य पण एक प्रहर लगण वरखाण वांचीने खेडपुरथकी पादलिप्त विद्यायें नृगुकन्हें पधाया. तिहां पण समस्त संघ वाट जोतो बेटो के एट लामां अश्वावबोध तीर्थने विषे गुरु आव्या दीठा, तेवारें संघ हर्ष पाम्यो थको आवीने गुरुने वंदना करी राजादिकने पण सूरि आव्यानी खबर थ तेवारे राजा तथा ब्राह्मण प्रमुख समस्त लोक आवी गुरुने पगे लाग्या, संघे पण राजा प्रमुख समस्त लोकने वस्त्रादिक आपवे करी संतोष पमाड्या. राजाय गुरुने कयुं के महारो शो वांक डे के आप महारा नगरमां पधार ता नथी? गुरुयें कडं खेडपुरनो संघ आववा देतो नथी, तेने उहवीने अवाय नहिं. माटे अमे हवे थाहार पाणी तिहांज जा करj.
राजायें वीनव्यो के जो तमे प्रतिदिवस देव जुहारवा पधारो, तो हुँ आठ दिवसपर्यंत महोटा विस्तारपूर्वक पूजा रचावं. ए विनति गुरुयें अंगी कार कीधी. अनुक्रमें वल्लनी नगरीये आव्या, तिहां शत्रुजय गिरनार प्रमु ख तीर्थोनी यात्रा करी पड़ी ढंकपुरनगरें आवी देव जुहास्या.
ते ढंकपुरमा एक नागार्जुन योगी ने तेणे सुवर्ण सिदिना योगथी घणा लोकने संतोष्या के तेमाटे तेनी अत्यंत प्रसिदि थयेली ले ते योगी आवी
आग्रह करीने गुरुने पोताना मठमां तेडी गयो, तिहां तेणे गुरुना प्रासक पाणीयें पग धोइने नक्ति करी ते नक्तिनी साथें विनति पण करी के स्वामी मथुरामां बाठ दिवस तमारे देरासरें पूजा महोत्सव ,माटें प्रतिदिन प धारवं. तेनुं वचन मान्य करीने गुरु, मथुरायें पधाया. तिहां देवजुहारी खेडपुरनगरें आवी थाहार करे एटला सर्व कार्य त्रण पहोरमांहे करे. एवी पादलेपशक्ति के एम आठ दिवस लगण उपर कहेला सर्व स्थानकें यात्रा करी फरी खेडपुरमा आवी आहार करे.
हवे नागार्जुन योगीयें गुरुना पग धोयणने सूंघीने ते मांहेथी १०७ औष धीना नाम जाणीने ते कागल उपर लखी लीधा पड़ी ते एकशोने सात औषधी साथै थाउमुं पाणी नेली पोताने पगें लेपकरी उडवा लाग्यो पण नडीने वली पडीजाय एम परिश्रम करतां ते योगीना शरीरें चांदा पज्यां तेजो गुरुयें
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
२५१
तेने चांदां पड्यानुं वृत्तांत पूढयुं, तेवारें तेणे यथास्थित वार्त्ता कही दीधी. गुरु तेनुं ज्ञान देखी चमत्कार पामी कहेवा लाग्या के, तें सर्व औषध जा एयां. पण गुरुनाग रह्यो बे. तेवारें नागार्जुन पगेलागी वीनवतो हवो के, महाराज ! हुं सुवर्णसिद्धि तमने खापुं, पण मुकने ए विद्या खापो. गुरुयें कयुं सुवर्णसिद्धिने मे शुं करीयें एवं कही गुरु चालता थया. जोगी तेमने बोलाववा श्राव्यो तिहां कुंनारनो इंटनिवाह बे, ते इंटनिवाहनी नपरें गुरुयें चूर्ण नाख्युं ने नागार्जुनने कयुं तुं प्रजातें ए इंटनिवाह जोजे ए बुं कही मथुरा जणी आकाशमार्गे चाव्या. प्रजातें योगी यावीने जूबे, तो पहेलुं घर बधुं सुवर्णमय दीतुं ते जोड्ने योगीनुं मन चलायमान थयुं मनमां विचायुं जे एनी आगल महारी शी गणती बे.
वी एकदा प्रस्तावें गुरु श्रीशत्रुंजय पधारया जाणीने नागार्जुनें श्रावी गुरुने पर्गे लागी कयुं, स्वामी ! विद्या खापो गुरुयें कयुं तुं श्रीजिनधर्म श्रं गीकार करे तो हुं विद्या श्रापुं अन्यथा न खाएं पढी ते नागार्जुने श्रावक धर्म याद रखो, तेने श्रावकधर्म थापी पादक्षेप विद्या पण यापी ते नागार्जुन धर्म पामी तथा विद्या पामी हर्ष पाम्यो थको शत्रुंजयनी तलहटीयें गुरु ने नामे पालीताणुनगर वसाव्युं गुरुनुं नाम पादलिप्त हतो तेनो अपभ्रंश शब्द ने पालीताणु नाम थयुं, पढी ते नागार्जुन हर्षवंत थको परम जैन धर्म पालतो परम श्रावक थयो.
हवे पहाणपुरने विषे शालिवाहन राजा राज्य करे बे. तेनी सनामां हे चार पंमित ललक श्लोक प्रमाण शास्त्र रचीने याव्या तेमां यात्रे य कवियें एक लक्ष प्रमाण वैद्यकशास्त्र कस्युं तथा कपिल कवियें एक लक्ष प्रमाण धर्मशास्त्र रच्युं तथा बृहस्पतियें एक लक्ष प्रमाण नीतिशास्त्र रच्युं, तथा पंचाल कवियें एक लक्ष प्रमाण कामशास्त्र रच्यु. ते चारे जण श्रा वीने राजाने कवा लाग्या के यमे शास्त्र रच्यां बे, ते तमारे सांजलवां जोइयें. राजायें कयुं एवडां महोटां शास्त्र सांजलतां हुं क्यारे परवारुं ते माटे एक पद " श्राद्यंताच्यां ” एटले एकेका पदमां कविनुं नाम बीजुं या द्यशास्त्रनुं नाम, रहस्य प्राणीने मुऊने समजावो जेम हुं सांननुं.
तेवारे ते चारे पंमित एकेका पदमांहे नामगर्पित शास्त्रनुं रहस्य करी लाव्या ॥ तद्यथा ॥ जीनोजन मात्रेयः, कपिलप्राणिनां दयां ॥ बृहस्पतिर विश्वासः,
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
पंचालः स्त्रीषु मार्दवं ॥ १ ॥ ते सांगली राजा हर्ष पाम्यो. दान यापी रा जा शिवशासननी प्रशंसा करवा लाग्यो. तेवारें राजानी पट्टराणी जोगवती श्रावका बे, ते राजाप्रत्यें कहती हवी ॥ तागडयं तुवा इंद गयघडा मय नरेण पिवा ॥ जा जाव न पालि तद्वं, पंचवयण नाई समूल स ॥ १ ॥ राजायें पूढचं ते पादलिप्तसूरि कोण बे ? राणीयें सर्व तेनुं वृत्तांत खाद्यथी मांगीने कयुं तेवारें शालिवाहन राजायें पोताना शंकरनामा प्र धानने खेडपुरने विषे गुरुने तेडवा मोकल्यो ते शंकर प्रधान खेडपुरें ज गुरुने यादरसहित तेडी श्राव्यो. राजायें महोटा याम्बरसहित नगरमां प्रवेश करवानो महोत्सव को पछी राजायें चारे पंमितनी साहामुं जोयुं त्या हस्पतियें राजाने कह्युं एनी पंमिताश्नी परीक्षा करणुं, पढी राजा नी आज्ञा मागी कोई हीरो नामे राजानो सेवक हतो तेने एक थाली घृत थी जरी खापी ने कह्युं के ए याली गुरुनी खागल जइ मूकजे तेणे पण थाली लावी गुरु यागल मूकीने कयुं के घृतदर्शन मंगलनुं कारण बे माटे व्यो.
गुरुयें अंतरंगनाव समजीने लघु लाघवी कलायें करी ते घृतमांहे पात ली सुइ घाली ते उपरथी एवो नाव जगाव्यो के जेम घृतमांदे बारीक सूइ घालीने घृत घुं वे तेम हुं नगरमांहे यावी तमारा मर्म नेद करीश. हीरा यें तेवीज थाली तिहांथी खाणीने राजा यागल मूकी तेमां सुइदेखीने बृ हस्पतिनो मद गल्यो काष्ठनी पेठें निश्चेष्ट थयो ने विचायुं जे ए आचार्य नी साथै श्रमारुं काइ जोर चालशे नहीं.
हवे महोत्सवें करी गुरुने नगरमां पधाराव्या प्रतिदिवस राजा पण तेमनो रचेलो ग्रंथ सांजवे तेथी राजा गुरुनो परमनक्त थयो चारे ब्राह्मणने बोलावे नहीं. तेवारें पंचालय पंमित मत्सरें नराणो थको राजाने कहेवा लाग्यो के ए जैनाचार्य सर्व महारां करेलां शास्त्र चोरीने वांचे बे. राजायें पूयं ते केम ? पंमितें कह्युं ए तरंगलोला कथा महारे मुख पावें बे राजायें कयुं, ते केम जाय ? तेवारें प्राचार्यनो रचेलो ग्रंथ तेने एकदा सांजली ने पंचालय पंतेिं धारी राखेलो हतो, ते पाठ राजाने कही संजलाव्यो. रा जायें ते सत्य करी मान्यो.
हवे ए वातथी संघने लकानुं काण थयेलुं जाएगी श्रीजिनशासननी दी प्ति करवाने खर्थे गुरुयें उपाय कस्यो, ते यावी रीतें के गुरु कपटथी मर
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
. श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२५३ ण पाम्या, तेमने श्रावको महोटा आमंबरथी बाहेर परवानो उपाय क रवा लाग्या, ते गुरुनु मरण सांजलीने नगरनां लोक सर्व तेमना गुण सं नारी संजारी रडवा लाग्यां, तेवारें पंचालकवि पण रडवा लाग्यो, तद्य था ॥ सीसे कहवि न फूट, जम्मस्त पालित्तयं हरंतस्स ॥ जस्समुह नि ऊराउ, तरंगलोला नवुढा ॥१॥ ते पंचाल, वचन सांजली गुरु बेठा थया श्रीसंघे पण गुरु जीवता थया, तेनो महोत्सव कस्यो. गुरुने लोकें पू ब्युं साहेब! आप केवी रीतें जीवता थया? गुरुये कह्यु या पंचालकविना वचनामृतथी जीवतो थयो . जे माटे पंचालें पोताना मुखथी कह्यु के तरंगलोला ए ग्रंथ पादलिप्त सूरिनो करेलो डे, एकह्यु तेथी एणे रा जानो कलुषनाव दूर कयो. ए वातथी राजायें पण जाण्यु जे मुफने पंचा लें खोटुं समजाव्युं तेथी राजायें पंचालपंमितने देशोटो दीधो तेवारें था चार्ये, राजाने समजावीने पंचालने नगर मांहेज रखाव्यो. तेवार पबी पकार कस्यो. तेमाटें पंचालकवि प्रतिदिवस गुरुनी सेवा करवा प्रवृत्त्यो. ए रीतें घणा वर्षपर्यंत श्रीजिनशासनी दीप्ति करी, वट वानखानो अं तसमय जाणी अनशन आदरी इंश्नी सजाना मंझन थया. ए सिप्राना विक उपर पादलिप्त सूरिनो संबंध कह्यो।
हवे आठमो कवि प्रानाविक कहे :(जूयबसब के०) नूतार्थ शास्त्रनो जोडनार एटले श्रीजिनशासनमांहे वीतरागदेवें जेहवा नाव कह्या , तेवाज नावें प्ररूपणा करी नवा शा स्त्रोनी (गथा के० ) गाथा बांधे तथा काव्य बांधे तथा गद्यमय जोडी नवीन ग्रंथोनी रचना करे तथा (जिणसासणजाण के०) श्रीजिनशास नना सर्व मर्म रहस्यनो जाण श्रीजिनशासननो नक्त एवो जे होय. तेने (सुक्कई के) सुकवि कहाये ते जिनशासननो प्रानाविक थाय ॥ ३६॥
ए कविप्रनावकनेविषे श्रीसिबसेन दिवाकरनो संबंध कहीयें बैयें. विद्याधरगबने विषे श्रीपादलिप्तसूरिना संतानीया श्रीस्कंदिलाचार्य ने, ते विहार करता गौडदेशने विषे कोशल गामें पहोता. तिहां मुकुंद नामा ब्रा ह्मण गुरुनी देशना सांजली प्रतिबोध पाम्यो; जेमाटे “ यथा चतुर्निर्कनकं परीक्ष्यते, निघर्षण बेदन तापताडनैः॥ तथैव धर्मोविजुषा परीक्ष्यते, श्रुते न शीलेन तपोदयागुणैः ॥१॥” ते ब्राह्मणे विचायुं जे श्रुत, शील, तप
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. अने दया ए चार वानां मांहेलुं एके वानुं पण शिवशासनमांहे शुक्ष न थी. तेमज वली ते शासनमा अनिनिवेश मिथ्यात्व तो डेज, माटे तेनां ए चार वानां शुम पण कहेवाय नहीं. अने जैननां ए चारे वानां शुम . एम ते वैराग्य पाम्यो थको दीदा लेतो हवो. हवे ते मुकुंदचंद नामा साधु हरहमेश ढवर शब्द करतो शास्त्र गोखतो रहे.
तेने गुरुयें वायो के, हे महानुनाव ! रात्रि महोटे शब्द गोखवू नहीं. जेमाटे महोटे शब्दें गोरखवाथी जो अनार्यलोक जागे तो दलवा, खांमवा, पीसवा प्रमुख आरंनमा प्रवर्ते ॥ यतः॥ जागरिया धम्मिणं, अहम्मीणंतु सुत्तया सेया ॥ वजाहिव नगिणीए,यकही सुजियो जयंतीणं ॥१॥ इति जगवती सूत्रना नावनी गाथा तथा यतिदिनचर्या ग्रंथमां पण ए गाथा ले.
पड़ी ते साधुयें रात्रै गोख मूकी दश्ने दिवसेंज महोटे ढवर स्वरें गोखे. ते लोकोने अनिष्ट लागे तेमज न्हाना चेला तथा गृहस्थना बोकरा तेनी उपर हसे, एकदिवस तेने केटलाएकें कह्यु के आ वृक्षपणमां बाकरे शब्हें गोखीने झुं मूसलो फूलावशो एवं हांसुं सांजलीने ते विद्यानो अर्थी बतो सरस्वती देवीना चैत्ये जश् बेठो तिहां एकवीश उपवास कस्या, तेना नाग्य योगें सरस्वती प्रगट थइ ने कह्यु के हे आर्य ! तुं सर्व विद्यानो पारंगामी था. एवं कह। देवी अदृश थ.
पड़ी ते साधुनी जेवारें कोयें हांसी करी तेवारें एणे कयुं आवो मू सलो फूलावी देखा९. पनी चउटामां जश् स्थूल मूशलो अगावी तेने मंत्र शक्तियें करी पत्र पुष्प फलादिकें करी फूलावी देखाड्यो अने कहेवा लाग्यो के जे महारी साथें वादे यावे तेनी नपर पत्रावलंबन की, जे. एम कहे. स्कंदिलाचार्य तेने प्रानाविक जाणी आचार्य पद आप्यु. तेमनुं वृक्षवादी एवं नाम दीधुं अने पोतें अनशन करी देवसनाना नूषण थया. एकदा श्रीवृक्षवादी सूरि जरुषचे पधास्या तिहां तेमनो घणो महिमा वथ्यो.
हवे उजयणी नगरीय विक्रमादित्यराजा राज्य करे . तेनो प्रधान दे वकृषि ब्राह्मणनी देवसिका स्त्री , तेनो सिइसेननामा पुत्र , ते सकल विद्यानो पारंगामी डे परंतु अहंकारी ने तेथी तेणे एवी प्रतिज्ञा करी ने के मुऊने जे जीते, तेनो हुँ शिष्य थालं. पडी तेणे वृक्षवादी सूरिनु पत्रावलंबन सांनली सुखासने वेठो थको घणा डाने परवस्यो थको नृगुकडे थावे .
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
Չնս एवामां वृक्षवादीसूरि पण कोई कार्यार्थ घणा शिष्यने परिवारें बाहिर नि कल्या बे. तेवारें सिक्ष्सेनें बात्रोने पूछु ए कोए श्वेतांबर जाय ? बारें कमु ए वृक्षवादी सूरि वादि मदनंजन जाय .
ते सांगली सिक्ष्सेन, तेमनी पासें आव्या अने कहेता हवा के तमा री साथें हूँ वाद करीश. आचार्य कर्तुं इहां रानमां श्यो वाद करवो, इहां पोकार करवाथी झुं वलवानुं ले चालो नगरमां जराज्यसनायें वाद करी ये. सिक्ष्सेने कयुं आ गोवालीया आपणा सादी के एज हार जीत कहे शे, ते आपणने प्रमाण अ. गुरुयें विचायुं जे ए पंमित तो ने पण उता वलीयो ले. तेवारें गुरुये कह्यु पूर्वपद कर.
पली सियसेने गाढे स्वरें पूर्वपद कयो, अने संस्कृतनाषांमां कठिण काव्य बोलवा लाग्यो, गोवालीया बोल्या एने तो नूत लाग्युं जणाय ? कोरीतें ए बोलतो रहेतो नथ। महोटे सार्दै बोलीने अमारा कानने पीडा करे जे हवे ते वारंवार तर्कवादें जेवारें पारडी थाक्यो? तेवारें वृक्ष वादीने कहेवा लाग्यो के हवे तमें उत्तरपद करो.
वृक्षवादी मनमां चिंतव्युं जे आ गोवालीयानी सनामांश्यो तर्कवा द करीयें ? इहां तो अांधलाने ारीसो देखाडवानो न्याय थाय, माटें विचार करीने काबडो बांधी रजोहरण केडमां बांधी घीहीणीबंदनी राशि जगता कांश्क नाचता कूदता थका मुखथी एवी रीतें कहेता हवा. तद्य था ॥ नवी मारीयें नवी चोरी परदारा गमन निवारीयें, थोवाथो दा इये, तो सर्गे दडवडी जायें ॥१॥ कालुंकांबल नीचोवट्ट, बाशें नरीयो दीवडो थट्ट ॥ एवड पडीयो नीले जाड, अवर किश्युं ने सग्ग निलाड ॥ ५॥ इत्यादिक बंद नाता जाय अने दामो नबाली नाचता जाय, तेवा रें गोवालीया पण लाकडी उबाली गुरुने प्रदक्षिणा देता नाचता दुवा अने कहेता दवा के प्राववादी गुरु महोटा पंमित ने अने या बापडो बां नगीयो तो मात्र महोटा पोकार करी जाणे , पण कांइ नण्यो नथी.
एवं गोवालीयानुं वचन सांजली सिक्सेन ब्राह्मण आवी गुरुने पगें लागीने कहेवा लाग्यो जे दुं तमारो शिष्य थयो मुझने दीक्षा आपो तमें समयना जाण बो अने हुं समयनो जाण नथी माटें हुँ मूर्ख ढुं तेथी हुँ हास्यो अने तमें जीत्या तेने गुरुये कह्यु एथी तुं कां हास्यो नथी बने हुँ
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जीत्यो पण नथी एतो मात्र आपणे रमततुल्य चर्चा थइ माटे चालो या पणे राज्यसनामां जश् वाद करीयें,तिहां जे जीतहार थाय ते बेहुने प्रमाण ३. सिक्ष्सेनजीयें कडं के में प्रतिझा करेली के जे मुझने हरावे तेनो हुँ शिष्य था माटें दीक्षा आपो. पबी गुरु नगरमां तेडी आव्या राजसनामां वांदे जीतीने रूडं मुहूर्त जो तेने दीदा थापी. राजायें ते वात सांजलीने जिहां गुरुयें तालोटा दीधा हता तिहां तालारसू नामें गाम वसाव्युं तिहां श्रीषनदेवनुं प्रासाद कराव्युं तेनी वृक्षवादी सूरिये प्रतिष्ठा करी.
मुकुंदचंद साधुनुं नाम सिक्ष्सेन थाप्युं अनुक्रमे पूर्वगत आम्नाय मां हेली केटलिएक विद्या नण्या माटे योग्य जाणी गुरुयें तेमने आचार्य पद आपतां सिरसेनदिवाकर एवं नाम दीधुं ॥ यतः॥ वाश्य खमासम गे, दिवायरे वायगिति एगहा ॥ सूत्ते पूछगयंमि, एए सदाय पयती॥१॥ ___ एकदा सिक्ष्सेनसूरि गुरुनी आज्ञा मागी उजयपीय आव्या तिहां श्रा वकोयें महोटे महोत्सवें पेसारो कराव्यो नगरीना चोकमां आव्या तेवारें राजा विक्रमादित्य पण हाथी उपर चडेला एमने सामा मल्या अने पू ब्युं, ए कोण थावे जे? श्रावकोयें कडं सर्वज्ञ पुत्र आवे . राजायें तेनी परीक्षा करवा निमित्ते हाथी उपर चड्यो बतां मनथी प्रणाम कस्यो गुरुयें तेने महोटे स्वरें धर्मलान दीधो. राजा समज्यो जे मुझने महोटो जाए। धर्मलान दीधो दशे. एम विचार करी गुरुने पूज्युं तमोने जे नमस्कार क रे, तेने तमें धर्मलान द्यो बो के जे नही नमे, तेने पण धर्मलान द्यो हो ? गुं तमारो धर्मलान घणुं सस्तो ? गुरुये कह्यु अमारो धर्मलान कोडी चिं तामणि रत्नोथी पण अधिक महर्घ्य दे माटे जे नमे तेनेज आपीयें तमे मनमां जावथी नमस्कार कस्यो माटे तमोने धर्मलान दीधो, जेमाटे प्रधा नपणु नावनमस्कारने २ ॥ यतः॥ वावाराणं गुरुन, मण वावारो जिरोहि परमतो ॥ जो ने सत्तमिवा, अहवा मुरकं पराणेई ॥१॥ ते सांजली राजा ह र्ष पाम्यो हाथीथकी नतरीने वंदना करी कोडीसुवर्ण नाक आगल मूक्यां. गुरुये कह्यु अमें ए सुवर्णने गुं करीयें अमें तो निग्रंथ 3. राजा बोल्यो में ए धर्मादा कल्प्यो माटे हवे महारें नंमारमाए इव्य खप आवे नहीं. पनी ते इव्य राजायें जीर्णचैत्योहार निमित्तें श्रावकोने नलावी, अने वहीमांधावी रीतें धर्मलाने लखाव्युं ॥ यतः ॥ धर्मलान इति प्रोक्ते दूराउत्रितपाणये ॥
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. सूरये सिक्सेनाय, ददौकोटि धराधिपः ॥१॥ पुले वास सहस्से, सयंमि व रिसाण नवनव कलिए ॥ हो कुमर नरिंदो, तुहविक्कमराय सारिबो॥ १॥ राजा विक्रम गुरुनो नक्त थयो पड़ी गुरु अनुक्रमें विहार करतां चित्रकूटें ाव्या. तिहां प्रासादें देव जुहारी समस्त प्रासाद जोतां एक प्रा सादें लेखमय स्तंन दीठो वृक्षश्रावकने पूब्यु ए गुंडे ? श्रावकें कह्यु ए पूर्वा चार्य मंत्रादरमय पुस्तक नाखी तीप्तमय स्तंन कीधो .एने कोइ उघाडी शके नहीं. गुरु प्रतिदिन देरासरें आवी स्तंनने संघे. एम सुंघता तेनी सर्व
औषधियो जागवामां आवी,पडी तेनीप्रतिपदी औषधि पाम्या ते औषधि उनो रस बांट्यो तेथी पाका चीनडानी पेरें स्तंन फाटी पड्यो,तेमांहेथी एक पार्नु काहाडी वांच्युं तेमांथी एक सरशव विद्या अने बीजी सुवर्ण विद्या ए बे विद्या मली एटलामां थांनो फाटेलो हतो ते मली वजमय थइ गयो. अने आकाशवाणी एवी थयी जे हे प्राचार्य ! ए विद्याने तुं अयोग्य बो माटे चपलस्वनाव मूक नहींका जीवितना संदेहमां पडीश. बे विद्या पाम्या तेमां सरशव विद्या तो कोई काम पडे तो जेटला सरशवना दाणा मंत्रीने जलाशयमां नारखीयें तेटला असवार बेंहेंतालीश प्रकारना हथीयारे सहित बाहेर निकलीने लडाइना मेदानमा खडा थइ आवी उना रहे. ते शत्रुनी सेनानो नंग करी पनी अदृश्य थइ जाय अने सुवर्ण विद्याथी वगर प्रयासे जेटलुं सुवर्ण जोश्ये तेटलुं तयार थइ जाय. ए वे विद्या गुरुने मली पड़ी तिहांथी विहार करीने गुरु,पूर्वदिशे कुमारपुरने विषे गया तिहां देवपाल नामें राजा ने तेने प्रतिबोधीने पाको जैनधर्मी कस्यो. ते प्रतिदिन एमनी पासें वखाण सांजलवा आवे, तेथी परस्पर प्रीति थइ एम केटलोएक काल व्यतीत थयो. एकदा राजाने चिंतातुर देखी गुरुयें चिंता, कारण पूत्यु, राजायें कर्तुं स्वामी ! महारा घणा वैरी एकता थइ कटक लश् आवे , माटे हवे महारे झुं करवू ? गुरुये कयुं कां चिंताम करो. सर्व रूडं थाशे.
केटलाएक दिवस पनी वैरी आवी राजानुं नगर वीटयुं गुरुयें पा पीयें नरेलुं कुंठं अणावी तेमां विद्यायें अनिमंत्रित सरशव मूक्या, तेमां जेटला सरशव हता तेटला समस्त आयुधे सहित असवार निकट्या तेणे वैरीना सवारो साथै युझ करी हतप्रहत कीधा नंतर पोतानी मेलें अदृश्य थ गया. राजायें, जयनंना वजडावी सूरिनी पासें आवी पगे लागीने
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कह्यु महाराज ! तमें मुझने जीवाड्यो अने आ राज्य पण तमें आप्यु.
हवे राज्यमान पामीने शिक्षसेन सिथिलाचारी थया. दरवाजा बागल असवार ऊना रहे, कोई श्रावकमांहे जर शके नहीं ॥
हवे श्रीध्वादिसूरि शिइसेननुं सिथिलाचार सांजली दया आणी प्रतिबो ध देवा माटे तिहां यावी दरवाजा आगल उना रही कहेवराव्युं जे एक बु ढोवादी आव्यो बे. ते सांजली सिक्सेने तेमने बोलावीने पोतानी आगल बेसाज्यो. तेवारें वृक्षवादी पोतानुं सर्व शरीर वस्त्रोथी ढाकीने बोल्या. अ गफूलिय फूल म तोडहिं, मारोवा मोडहिंमणुकुसुमेहिं ॥ अञ्चिनिरंजणंजि प,हिमश्काइवणेण विषु ॥३१॥ ए गाथा सांजलीने सिइसेने विचार कस्यो पण गोथान अर्थ न पाम्यो तेवारें विचास्युं के गुंथा महारा गुरु वृक्षवादी ने ? के जेनी कहेली गाथानो ढुं अर्थ समजी शकतो नथी. पनी वारंवार तेमना साहामुं जोवा लाग्यो. तेवारें जाएयुं जे ए महारा गुरु के तेथी न मस्कार करीदमापन मागी पूर्वोक्त श्लोकनो अर्थ प्रज्यो तेवारें हवा दीजीयें कह्यु के अप्राप्त फूलोने तुं त्रोडी म नाख. नावार्थ ए ले के योग जे जे ते कल्पवृद ने जेमां यम नियम तो मूल के अने ध्यानरूप महोटो स्कंध के तथा समतापणुं, वक्ता, यश, प्रताप, मारण, नच्चाटन, स्तंनन, व शीकरणादिक सिदिनु जे सामर्थ्य ते फूल डे अने केवलज्ञानरूप फल के तेमां हजी तो मात्र योगकल्पवृदना फूलज लागां ले ते केवलझान रूप फले करीने आगल फलशे माटे जे फूलोमां फल प्राप्त थयां नथी एवा अप्राप्त फल पुष्पोने तुं शामाटे तोडे ? अर्थात म त्रोड.एवो ना वार्थ जे. तथा “मारोवामोडेहिं” ज्यां पांच महाव्रत आरोप्या ने तेने मरो डी म नाख. तथा मणुकुसुमेत्यादिनुं अर्थ आम जे जे मनरूप कुसुमें क री निरंजनजिनने पूज. तथा “वनात्वनंकिंहिंमसे” एटले राज सेवादि क मानां नीरस फल कां करे ? ए सांजली सिक्सेनसूरि गुरुनी आज्ञा पोताना शिर उपर चडावी राजाने पूढी गुरुनी साथें विहार कस्यो अने निविड चारित्र धारण कयुं. एम गुरुयें प्रतिबोधी समजावी राज सेवा म कावी पोतानी साथें तेडी गया, प्रायश्चित्त आपी चारित्र गुरु कीg हवे सिघसेनसूरि अन्य आचार्य पार्सेथी पूर्वगत विद्या लेश्ने श्रुतधर थया. अनुक्रमें श्रीकृक्षवादी यात्मार्थ साधी देवसनामांहे जर बेठा.
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
ՋԱԽ
एकदा सिसेनसूर अहंकारमां मग्न थया थका श्रीसंघने कहेवा ला या के तमे कहो तो सर्व सिद्धांतनो प्राकृत भाषा टालीने संस्कृत करूं जे म लोक आपने इसे नहीं ते सांजली श्रीसंघें कयुं के तमोने प्रायश्चित्त उपनुं जेमाटें सर्वाकर सन्निपात लब्धिना धणी एवा श्रीगणधर देव तेमांहे संस्कृत भाषा करवानी शक्ति हती तथापि लोकोपकारने यर्थे सिद्धांतोप्रा कृत जाषामा कस्यांबे, तेथी श्रीतीर्थकरनी तथा गणधरनी प्राशातना तमें करी, माटे तमोने पाचिक नामें प्रायश्चित्त उपनुं तेथी केम बूटशो ? तेवारे पश्चात्ताप करता श्रीसंघने विनति करता हवा के दशमुं प्रायश्चि विविन्न ययुं ने तो पण श्रीसंघनी याज्ञा होय तो तुल्यना रूप दशमुं प्रा यश्चित्त हुं यादरुं. संघें कयुं जेम तमारो जाव होय तेम करो. पी सिद्धसेन सूरियें मौन याद रजोहरण मुहपत्ति गोपवी श्रवधूतनो वेश धारण करी जेम कोइ लखे नहीं एवी रीतें बार वर्षपर्यंत जमवानो निर्धार कस्यो. जेमाटे कोइ उलखे तो वली बीजी वार बार वर्षपर्यंत एमज करवुं पडे, माटे अज्ञात थका नमवा जाग्या एम आठ वर्ष वीत्या केडे नकयणीयें यावी महाकालने प्रासादें लिंग ऊपरें पग राखी पबेडी उढीने सूता. पूजा रे उठाडवा माटे घणुं जोर करूं पण नव्या नहीं तेवारें राजाने खबर कर राजा विक्रमादित्यें पोतें घ्यावी उठाड्या तोपण उठ्या नहीं तेवारें राजायें ताजानो मार देवा मांग्यो, ते ताजणा सर्व राजाना अंतःपुरने लाग्यां तिहांथी बूम यावी राजायें विचायुं ए सामान्य पुरुष नथी सिद्धपुरुष बे,
माटे पगे लागीने नवाड्या पढ़ी राजायें कह्युं या देव बे एनी स्तवना करीये पण एने रूसवीयें नहीं. सिद्धसेने कह्युं ए देव महारी स्तुति खमी शके नहीं जो हुं स्तुति करूं, तो ए लिंग फाटी पडे.
राजा क स्तुति करतां जे या ते नलें था. कपूर खातां दांत प डी जाय, तो पण कपूर खावुं. सिद्धसेनजीयें कयुं हमणां तो एम कहो
पण पीतमने दुःख उपजशे, डुःहवाशो. राजायें कह्युं मुऊने दुःख न हीं उपजे तमे एनी स्तुति करो, एवं कहे थके सिद्धसेन दिवाकरें श्रीमहा वीरनी स्तुतिरूप बत्रीशी करी तेनो पहेलोज श्लोक कहेतां लिंगमांथी धू
निकयां पी श्रीपार्श्वनाथनो महिमा जाली कल्याणमंदिरस्तोत्र कयुं, तिहां " यस्मिन् दरप्रनृतयोपि हतप्रनावा " ए बगीयारमुं काव्य कहेतां
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. धूम्रज्वाला प्रगट थ. ते जो मिथ्यात्वी लोकें कह्यु के महादेवनुं त्रीजें नेत्र प्रगट थयुं हवे या निकुकने बाली नस्म करशे. तेवारें तो वली तड तडाट करतो अनि निकटयो. पडी कल्याणमंदिरनुं तेरमुं काव्य कहेतां थकां लिंग फाटी पडद्यु, धरणिंना सहाय थकी श्रीपार्श्वनाथनी प्रतिमा पगट थ. पनी कल्याणमंदिर पूर्ण चुम्माली काव्य प्रमाण कयुं प्रनुनी स्तवना करी जगवान् पासेंथी दमापन माग्युं तेवारें राजायें पूजयुं के, हे जगव न् ! या झुं अपूर्व अदश्य दीवामां आव्युं ? या ते वली कयो नवीन देव ने अने या शी रीतें प्रगट थयो ? तेवारें सिरसेनजीयें अयवंतिसुकुमार नो पुत्र माहाकाल हतो, तेणें पोताना पिताना नामथी अयवंती पार्थ नाथनुं मंदिर बंधावी तेमां श्रीपार्श्वनाथनी मूर्ति स्थापी, तेनी केटलाए क वर्षपर्यंत लोकोयें पूजा करी. पनी अवसर पामीने ब्राह्मणोयें पोता नुं जोर वधेनुं जाणी श्रीजिनप्रतिमाने नीचें दाबीने तेनी ऊपर आ शि वनुं लिंग स्थापन कयुं . इत्यादि जे कांश वृत्तांत तुं, ते सर्व राजाने कही संजलाव्युं. वली हे राजन् ! आ महारी स्तुतिथी शासन देवतायें शिवनुं लिंग फाडीने वचमांथी या प्रतिमा प्रगट करी दीधी. हवे तमें स त्यासत्यनो निर्णय करी व्यो. तेवारें राजायें सो गाम मंदिरनो खरच च लाववामाटे आप्यां. अने देवनी समद गुरु मुखथी बार व्रत ग्रहण कस्वां. अने श्रीसिबसेनसूरिनो महोटो महिमा वधारीने पोताने स्थानकें गया. वादीइसियसेन दिवाकरनी पदवी प्रापी राजा प्रतिबोध पाम्यो. घणाएक मिथ्यात्वीजीवो मिथ्यात्व मूकीने श्रावक थया. तिहां अयवंति पार्श्वनाथ नुं तीर्थ स्थापन थयु. ते श्रीजिनशासन, महोटुं कार्य कीy, माश्रीसं घे शेष चार वर्षनुं प्रायश्चित्त बदीसमां मक्यु. तेवारें संघना कहेगथी । घो, मुहपत्ति, लश् गहमांहे आव्या. घणा नविन ग्रंथो रचीने श्रीजिनशा सननी प्रनावना करी. हवे एकदा प्रस्तावें सियसेन दिवाकर विहार करता करता मालवामां कार नामें नगरें आव्या. ते नगरना नक्त श्रावकोंये विनतिकरी जे हे जगवन ! आ नगरनी समीपें एक गाम हतुं, तेमां सुंदर नामा राजपुत्र ग्रामणी हतो, तेने वे स्त्री हती, तेमां एक स्त्रीयें प्रथम पु त्री जन्मीने ते वरखतें तेनी शोक पण प्रसुतवान हती तेथी ते स्त्रीयें मन मां खीजीने विचार कस्यो जे महारीशोक जो पुत्र न प्रसवे तो ठीक. केम के
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२६१ जो तेने पुत्र प्रसवथशे तो ते पतिनी वन्नन थाशे, तेथी तेणे दाश्नी साथें मलीने जेवो तेनी शोकें पुत्र प्रसव्यो, तेवोज बहार नाखी दीधो. अने तुरत नो मरी गयेलो बोकरो तेनी पासें राखी दीधो. पड़ी जे पुत्रने बहार ना खी दीधो हतो, तेने कुलदेवीय गायनुं रूप करीने पाल्यो, ने ज्यारे ते था उ वर्षनो थयो, त्यारें कार नगरना शिवनवनना अधिकारी नरडे, तेने देखीने पोतानो चेलो बनाव्यो. एकदा प्रस्तावें कान्यकुब्ज देशनो राजा यां खे आंधलो ने, तेणे दिग विजय कार्यथी त्यां पडाव कस्यो, तेवामां रात्रि ये शिवनक्त व्यंतर देवताये ते बोटा चेलाने कह्यु के शेषनोग राजाने देवा थी तेनी यांख सारी थाशे. ने तेणें तेम कस्याथी राजानीख साहस थ तेथी राजाये मंदिरना खरचसारु सो गाम तेने आप्यां, ने श्रा महोटां शिवमंदिर ले ते पण, तेणें बनाव्यां . अने अमें था नगरमां रहीयें बैयें परंतु मिथ्यादृष्टियो बलवान् होवाथी बमोने जिनमंदिर बनाववा देता न थी, ते वास्ते आपने विनति करीयें ये के, आ शिवमंदिरोथी अधिक श्हां जैनमंदिर बने तो ठीक थाय. आपतो सर्वरीतें समर्थ बो. एवां श्रावकोनां वचन सांजलीने, वादीन्यवंतीमां याव्या अने चार श्लोक हाथमां लश्ने विक्रमादित्यना हार पासें यावी धारपालनी साथे राजाने कहेवराव्युं जे " दिदृढुर्निदुरायातस्तिष्ठति हारवारितः ॥ हस्तन्यस्तचतुः श्लोकः, किमा गहतु गवतु ॥ १ ॥ ते श्लोक सांजलीने विक्रमादित्ये तेना बदलामांबी जो श्लोक लखीने मोकव्यो जे “दत्तानि दश लदाणि, शासनानि चतुर्दश ॥ हस्तन्यस्तचतुः श्लोको, यदागबतु गवतु ॥२॥ ते श्लोक सांजलीने आ चार्ये कहेवराव्यु के निदु तमने मलवा चाहे डे, परंतु धन लेवा अाव्या नथी, त्यारें राजायें तेने सन्मुख बोलाव्या ने उलखीने कहेवा लाग्या के गुरुजी घणो दिवसें आजे दर्शन दीघां? त्यारें आचार्य कहेवा लाग्या के धर्मकार्य करवामां घणोकाल रोकाण थवाथी आपनी पासें आवी शक्यो नही. हवे चार श्लोक हुँ कहूं बु ते सांजलो ॥ अपूर्वेयं धनुर्विद्या, नवता शिक्षिता कुतः ॥ मार्गणौधः समन्येति, गुणोयाति दिगंतरें ॥ १ ॥ सरस्व ती स्थिता वक्रे, लक्ष्मी करसरोरुहे ॥ कीर्तिः किंकुपित राजन्,येन देशांता रंगता ॥ २ ॥ कीर्तिस्ते जातजाडयेव, चतुरंनोधिमऊनात् ॥ आतपाय ध
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. रानाथ, गता मातममंडलम् ॥ ३ ॥ सर्वदा सर्वदोसीति, मिथ्या संस्तूयसे जनैः ॥ नारयो लेनिरे पृष्ठं, नवदापरयोषितः ॥ ४ ॥
ए चार श्लोक सांजलीने राजा नानाप्रकारना वस्त्र देवा लाग्यो, गुरुयें कडं तुं राजा बो, माटें तहारां वस्त्र अमने कल्पे नहीं. राजायें कयुं तो तमें युं कहो बो? जे आप कहो, ते दुं करूं. आपनी आगल हाथ जोडी उनो बूं. गुरुयें कयुं नकारपुरने विषे महादेवना प्रासाद थकी नंचु जैन नुं प्रासाद करावी तिहां जश्ने तेनी प्रतिष्ठा करावो.राजायें तेमज प्रासाद कराव्युं अने सिक्ष्सेनसूरीश्वरने हाथे तेनी प्रतिष्ठा करावी. तेथी तिहां न रडा लोकोना श्यामवदन थयां. श्रावकजनो घणुंज हर्ष पाम्या. एम सि सेनसूरिये ठाम ठाम जिनशासननी प्रनावना करी.
पली प्रतिष्ठान नगरें आव्या, तिहां आयुष्य पूर्ण थडे जाणी अनशन व्रत करी अतिचार आलो पृथ्वीने विपे जिनशासनना प्रानाविक थइ,स्वर्ग लोकें जिनशासननीप्रनावना करवा गया. श्रीसंघे महोटो महोत्सव कस्यो,
पली संघे गुरु देवगति पाम्या तेना समाचार जणाववाने अर्थ चित्र कूट गामें नाट मोकव्यो, ते नाटें जश्ने आचार्यनां वरखाण कह्यां, ते आ वी रीतें ॥ स्फूरंति वादिखद्योताः, सांप्रतं दक्षिणापथे॥वारं वार एवं कहेवा थी तिहां सिहसेन दिवाकरनी न्हानी बहेन बालसरस्वती एवे नामें हती, तेणें पूर्वलां वे पद सांजलीने बागलां वे पद कयां, ते कहे :- तुनमस्त गतोवादी, सिइसेनदिवाकरः ॥ १ ॥ ते सांजलीने चित्रकूटना संघने घण ज फुःख ऊपy. नाटने संतोषी वीसो. ए कविप्रानाविक याश्रयी श्रीसि इसेनदिवाकरनो संबंध कह्यो.
हवे प्रकारांतरें प्रानाविकना नेद कहे :॥ सवे पनावगा ते, जिणसासण संसकारिणा जे न ॥ नंगंतरेणवि जळ, ए ए नणिया जिणमयम्मि ॥३७॥ अर्थः-(सवेपनावगाते के०) ते सर्वे प्रजावक कहीयें (तु के०) वली (जे के०) जेणे प्रकारे ( जिण सासणसंसकारिणा के०) श्रीजिनशासननी श्लाघाना करनारा (जन के) जे कारण माटे कयुं के (नंगंतरेणवि के) नंगांतरें एटले प्र कारांतरें पण (एएनणिया के०) ए प्रानाविक आठ प्रकारे करा . ( जि णमयम्मि के०) श्रीजिनमतनेविपे ते आगली बे गाथायें कहे ॥३७ ॥
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
२६३
॥ इसे सित्ता इहिं, धम्मकहि वाइ खायरिय खवग || निमित्त विद्या राया, गणसं तब पनाविति ॥ ३८ ॥ ॥ इय संपत्ति जावे, जत्ता पूाइ जि मोरमां ॥ जिणजइवि सयं सयलं, पनावरणा सुद्ध जावेणां ॥ ३० ॥ अर्थः- ( इसे सित्ता के० ) प्रतिशेषिता एटले परम उत्कर्ष पामी ने जंघाचारण, विद्याचारण, आशिः विष, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, प्रमुखनी ( इहिं के० ) ऋद्धि जेणे एवा जे होय तेने अतिशेष रुद्धि प्राना वि कहीयें. ए प्रथम प्राजाविक जावो.
तथा बीजो (धम्मक हि के० ) धर्मकथिक ते व्याख्यान करवानी लब्धि वंत प्राजाविक जाणवो. त्रीजो जे परवादीने जीतीने जय पामे, ते ( वाइ ho ) वादी प्रजाविक कहीयें. चोयो बाररों ने बन्नुं याचार्यनां गुण तेणे करी अलंकृत जे होय ते ( खायरिय के० ) प्राचार्य प्राजाविक कहीयें. पांचमो जे विष्ट तपस्यानो करनार होय, ते ( खवग के० ) रूपक प्रा नाविक जावो. बो जे त्रिकाल निमित्तनो जाल होय, ते (निमित्तं के० ) नैमित्तिक प्रजाविक जावो. सातमो जे नाना प्रकारनी विद्या मंत्रादिक नोजा होय, ते ( विद्या के० ) विद्यावंत प्राजाविक जाणवो. यामुं जे ( राया के० ) राजानो ( गण के० ) समूह तेने ( संम के० ) संतो एटले वलन होय ते ( तिपनाविंति के० ) तीर्थ प्रजाविक एटले श्रीजिन शासन प्रत्यें प्रभावना करे दीपावे ते तीर्थप्राभाविक कहीयें ॥ ३८ ॥
कालना विषम पणा थकी कदापि ए आठ प्राजाविक न होय, तो प्राावकपणुं केम थाय ? ते कहे बेः - ( इय के० ) ए पाउल वे प्रकारें कह्या एवा जे प्रजाविको तेनी (संपत्ति के०) संपदा तेने (नावे के०) नावे ए टपाल कला प्रानाविक जेवा कोई प्राजाविक कदापि कोई कालादि कने दोष न लाने तो ते समये या प्रमाणेना कार्य करनारा जे पुरुषो हो य, तेने पण श्रीजिनशासनना प्राजाविक कहीयें. ते जेम के श्रीशत्रुंजय, गिरनार, अर्बुदाचल, प्रमुख तीर्थोनी ( जत्ता के० ) यात्रा महोटा महोटा संघने सायें तेडीने करवी, केम के एवी यात्रा घणा जीवने प्रतिबोधवानुं कारण थाय. जेम श्रीनरतचक्रवर्त्तियें संघने यात्रा करावी, जेमाटें या वसर्पिणीने विषे प्रथम संघवी नरतचक्रवर्ती थयो ते श्री अष्टापदें प्रथम प्रासाद बंधावी तेनी याचार्यपासें प्रतिष्ठा करावीनें प्राजाविक थयो.
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. तथा (पूत्रा के०) पूजादि ते श्रीअरिहंतनी तथा अरिहंतनी प्रतिमा नी, गुरु जे आचार्य उपाध्याय प्रमुखनी यथायोग्य पूजा करवी. तेमज या दि शब्द थकी सर्वजीवने अजयदान देवानी पटह नघ्घोषणा करवी,अन्त प्रासाद निर्मापण, ए शिवाय बीजां पण श्रीजिनशासनना अनुत कार्य लेवां.
तथा जेथकी ( जनमणोरमणं के०) लोकना चित्त हर्ष पामे, घणा यो जन थकी अनिग्रह धरीने लोक यात्रा करवा माटे चाली आवे, तेवा का र्य करवा तेने जनमनोरमण कार्य कहियें.
तथा ( जिज विसयं सयलं के०) श्रीजिन अने यति एटले साधु ते संबंधिया सकलकार्यनुं करवं, ते जिनशासननी प्रनावना कहीयें, पण ए (पावणा के०) प्रनावना केवी रीतें करवी ? तो के ( सुचनावेणं के ) शुधनावनाथी एटले निर्मायपणे दृष्टिराग रहितपणे केवल गुणानुरागीपणे करवी. पोताना चित्तमांहे लेशमात्र पण रागद्वेषनो परिणाम आणवो न ही ते शुक्ष्नाव कहीये. तेवा नावें करी करवी यतः॥ शैथिल्यमात्सर्यकदा ग्रहः क्रुधोनुतापमानाविधि गौरवाणि च ॥ प्रमाददंनो कुगुरुः कुसंगतिः, श्लाघार्थिता वासुकतांतदा इमे ॥ १ ॥
तथा वली जे कार्य करे, ते श्रीतीर्थकरनी तथा प्रवर्त्तमान गहनायक नी आज्ञायें करे, जेमाटें आझा विना करे, ते निष्फल थाय यतः॥ समि ति पवित्तिसबा, आणावर्जति जवफला चेव ॥ तिब गुरुदेसे पवि, ण तत्त उसा तउदेसा ॥१॥ मूढा अणादिमोहा, तहा तहा एन संपयर्टता॥ तं चेव यममता, अवमणंता । याति ॥२॥ मोरकबीणा त तह, आणाए चेव सत्व जेतेण ॥ सबब विजय श्यत्वं, सम्मंति कयं पसंगेणं ॥ ३ ॥ इतिश्रीय टम प्रतिष्टापंचाशके ॥३॥
हवे एनी उपर संघपति श्रावकोमांहे रत्नसमान रत्नश्रावकनो संबंध क हीयें बैयें. एज जरतदे काश्मिर देशे नवफूल नामा पाटण तिहां नवहं त नामा राजा राज्य करे . तेने विजयादेवी पटराणीने. - हवे तेहज नगरने विषे पूर्णचनामा शेठ वसे बे. तेना त्रण पुत्ररत्न में, एक रत्न, बीजो मदन अने त्रीजो पूर्णसिंह, एवं त्रण पुत्र ने. तेमा र नने पोमिणी नामें स्त्री, तेनो कोमल नामें पुत्र जे.
हवे श्रीनेमीश्वरना निर्वाण पनी पाउसहस्र वर्ष वीत्या के. पट्टमहा
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२६५ देव नामें केवली साधु घणा साधुने परिवार परवस्या. नवफूल नगरना तु यानने विषे आव्या देवरूत सहस्रपाखडीनुं कमल तप सिंहासने बेठा थका देशना देवा लाग्या, उद्यानपालकें राजाने खबर आपी. राजा पण तिहां आवी वेठो, रत्नप्रमुख त्रण नाइ पण परिवार सहित वांदवा या व्या. धर्मदेशना सांजलवा बेग. तिहां केवली जगवान् देशनामां तीर्थ यात्राना फल वर्णवता हवा ॥ तद्यथा ॥ अहो तीर्थस्य माहात्म्यं, पुंमरीक मिहागिरेः ॥ पशवोपि हि यत्रस्था, लन्यंते सुरसंपदम् ॥ १ ॥ ततोपि रेवत गिरेः, कता सेवा महाफला ॥ विमलाचलदेशवा, तपोयं यतःस्मृतः॥२॥ विशेषतस्त्वयं नेमिः, पवित्रं कृतवान्निजः ॥प्रव्रज्याझाननिर्वाण, कल्याणिक महामतिः ॥३॥ श्रीमवेयमाहात्म्यं,ब्रुवंति लौकिकाअपि ॥ श्रूयंते च प्रना साख्य, पुराणे वदतांवर ॥ १ ॥ पद्मासन समासीने, श्याममूर्ति दिगंबरं ॥ नेमनाथं शिवेत्येवं,नाम चक्रेऽस्य वामनः॥॥कलिकाले महाघोरे,सर्व कल्मष नाशकः ॥ दर्शनात् स्पर्शना देव, कोटियझफलप्रदः ॥ ३ ॥ तेमाटे जेणें नावगुड़ियें श्रीशजय रेवताचलनी यात्रा करी तेणे मोदकमला वरी. इत्यादि धर्मदेशना सांजली रत्नश्रावक गुरुनें पगे लागी अनिग्रहधारी थयो. जे दुं श्रीशत्रुजय तथा गिरनार तीर्थनी यात्रा करूं तोज बीजी विगय ले नं तथा तिहां सुधी ब्रह्मचर्य पालं. एवोअनिग्रह करी घेर जा सजाइ करी अने श्रीसंघने खोला पाथरी अरजी करी. संघ सर्व यात्रा माटे तैय्यार थ यो. शाह रत्नसिंह राजानी आझा मागवा गयो.राजायें कह्यु के घोडा, हाथी, मेरा, निशान, जे जोश्ये, ते व्यो. अने शीघ्र यात्राना मनोरथ पूर्ण करी आवजो. एम कहीने राजायें नालिकेर प्रमुख पीने विदाय कस्यो.
हवे एनी स्त्री पोमिणी ते राजानी विजयापटराणीने मलवा गइ. वि दायगिरी मागी, तेणे पण घणी यागता स्वागता करी. श्रीफल पटकूल पापी पोमिणीने विदाय करी. पनी रूडं मुहत्ते लग्न साचवी रत्नशाह घ या संघनी साथें निशान गाजते प्रयाण कयुं, तेमनी साथे पट्टमहादेवसू रि पण यात्रायें चाव्या. प्रतिदिन व्याख्यान सांजले देवपूजा स्नात्रादिक कार्यमा प्रवर्ने, रत्नशाह सर्व संघनी बागल चोकी करतो चाले अने म दन तथा पूर्णसिंह ए बे लाइ श्रीसंघनी बेदु पासें रखवाल करे. तथा रत्न शाहनो पुत्र कोमल , ते श्रीसंघनी पनवाडे चोकी करतो चाले. एम अ
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. विजिन्न प्रयाणे चालतां पंथमा लोल अने तोल एवे नामें बे पर्वत याव्या. तिहां संधै उतारो कस्यो, नोजन करी रात्रिय संघ तिहांज रह्यो.
प्रनातें प्रयाणनंजानाद साथें संघ चालवा लाग्यो, एटले कळाल वणे महोटा दांत महोटी दाढ़ें करी जयंकर माहाकाय मुख वाघनी पेठे प सारी रहेलो डे. एवो राक्स, खाउँ खालं करतो प्रगट थयो. स्त्री प्रमुख लोक सर्व नासवा लाग्यां. आगल फोजना सुजटो हता तेणे आवी पूब्यु के घरे तुं कोण बो ? तेणें कह्यु के राक्स बूं. मुझने समजाव्या विना जो आगल जाशो तो ढुं सर्वलोकने नहाण करीश. एवामां रत्नशाह था वी कजो रह्यो. तेमने सुनटें सर्व हकीगत कही संनलावी.केटलाएकें कह्यु पाबा वलीयें. केटलाएके कयुं एनी साथें यु६ करीयें; रत्नशाहें कडं पाला तो सर्वथा नज वली, श्रीनेमीश्वरनी यात्रा तो अवश्य करवी. ___ पड़ी रत्नशाहें तेने समजाववा कह्यु के तमें जश्ने एने जेम तेम सम जावो. नाट तेने समजाववा गयो. रादसे कह्यु एक माणस मुमने थापी ने बीजा सर्व कुशलें जान. ते राक्सनो एवो निश्चय जाणी नाटें आवी शेठने कयुं तेवारें रत्नशेठे समस्त श्रीसंघने कह्यं तमें जाउ सुखें समाबें यात्रा करो. दुं आहीं रासपासें रहुँ . तेवारें शेतना वे ना तथा पुत्र कयुं तमें संघवी नो, माटें तमारे बागल चालवू जोश्ये, तेथी तमें जा अने अमेज ए राक्सना मुख आगल रहीगुं. रत्नशेठे ते सर्वने समजावी तेमने संघनी साथे चालता करी साहसिकपणुं पादरी श्रीनेमिनाथनुं श रण पडिवजी कायोत्सर्ग करीने पोतें तिहांज रह्या. तेनी साथे पोमिणी संघवीयण तथा कोमलपुत्र ए बेदु जण पण रत्नशाह न जाणे तेवी रीतें कायोत्सर्ग करीने बाना तिहांज शेठनी पासें रह्या.
हवे ते राइसें, संघवीने तिहांथी नपाडीने पर्वतनी गुफामांहे घालीबा हेर शिला देश बेसाड्यो अने ते पुष्ट राक्स अट्टाहास्य करी बीहीवरा ववा लाग्यो. संघवीयें श्रीनेमीश्वरनुं ध्यान धयुं. ___ एवा अवसरें श्रीगिरनारजीने विषे मेघनाद, कालमेघ, गिरिविदारण, कपाट, सिंहनाद, खाटिक, रैवतक, एवे नामें सातत्रिपाल श्रीअंबिकादेवीने नमस्कार करवा याव्या डे एटलामां रैवताचल जाणीयें त्रूटीज पडशे एवो कंपवा लागो, साते क्षेत्रपाल श्रीथंबिकाजी प्रत्ये कहेवा लाग्या के हे स्वा
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२६७ मिनि! शा कारण माटे श्रीगिरनारजी कंपायमान थाय ? तेवारें अंबि काजीयें झाने करी जोयुं तो शाहरत्नशंघवीने तपश्व थतो दीठो. ते जो अंबिकाजी साते देवपालनी साथै तिहां आवीने राक्षसने पगे जाली जेटले शिलातलें पाडवा लागी, एटलामां पोतानी आगल दिव्यानरणें नूषित एवा एक मनुष्यने देखती हवी तथा शाहरत्न संघवीनी स्त्री पोमि एगी अने कोमलपुत्र ए बेदु जगने पण आगल उनां रह्यां दीठां.
हवे ते दिव्यस्वरूपी नर अंबिकाजीने कहेवा लाग्यो के दुं शंकरनामा वैमानिक देव बु. पट्टमहादेवसूरियें गिरनारनुं माहात्म्य कह्यु. ते सांजली रत्नशाहें अनिग्रह कीधो. जे गिरनारजीनी यात्रा अवश्य करवी, तिहां सु धी बीजी विगय लेवी नहीं,तेवारें हुं सनामां बेठो हतो,ते में एं शैनी प रीदा करवा माटे एटला वानां कस्यां. एत्रणे मनुष्य रत्न जेवांजने, जे माटें ए लेश मात्र सत्त्वथी चलायमान थया नहीं. वली ते देवता, अंबि काजी तथा सातदेवपालने कहेवा लाग्यो के, धन्य तमोने जे तमें संघ वीनुं सहाय करवा आव्या. ढुं जो तमारी साथें युद्ध करूं तो तमारं कां महारी बागल चाले नहीं कारण के हुँ वैमानिक देव बु. तो पण तमारा साहसनी प्रशंसा करुं बु. एवं कही संघवीने पगे लागी अपराध खमावीत्र
जपने नपाडी संघमांहे मूकीने देवता पोताने स्थानकें गयो.
इहां सर्वने हर्ष उपनो हर्षनंना वजडावी अंबिका अने देवपाल पण गिरनारे याव्या ते पण संघवीनी साथें गिरनारना पाहाड नपर चड्या. श्रीनेमीश्वर नगवानने प्रणाम कीधो. गजेंऽपदकुंमे जर स्नान करी सोना ना तथा रूपाना कलश जरी गंधोदकें महमिकायें अनिषेक कस्यो, रत्ना शाहें कोश्क लेपमय बिंबने अजाणतां घणा सुगंध जलें करी न्हवण पू जा करतां ते प्रतिमा गली गइ तेवारें संघवी पश्चात्ताप करतो कहेवा ला ग्यो के हा हा मुमने तीर्थनंगर्नु पाप लागुं! हवे हुँ ए पापथी केम बूटी श!!! एवो खेद करी अनिग्रह कीधो के जेवारे ढुंए तीर्थोबार करूं ते वारेंज नोजन करूं तिहांसुधी महारे जोजन करवू नहीं.
एवो निश्चय करी संघना रखोपा माटे पोताना बे नाइने राखीने पोतें अंबिका देवी पागल ज बेठा. बे माससुधी उपवास थया तेवारें पंबि काजीयें यावी कडं हे वत्स ! उठ अने महारी साथै कंचनबलानक तीर्थ
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
១០ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ने विषे चाल. एम कही अंबिकाजी आगल चाव्यां अने तेमनी पाल र नशाह चाल्यो जाय अनुक्रमें कंचनबलानक तीर्थ गया तिहां अढार प्रतिमा रत्नमय अढार हेममय, अढार वजमय अने अढार रौप्यमय एम बहोत्तेर प्रतिमा दीठी, तेवारें हर्ष उपनो तेथी नूख तृषा सर्व वीसरी गइ.
हवे शेठने अंबिकायें कडं तहारुं मन माने ते एक प्रतिमा ले. शेठे रत्न मयबिंब लीधुं अंबिकायें कह्यु बागल काल विषम पावशे म्लेडराजा था शे तेवारें ए प्रतिमा रही शकशे नहीं तेमाटे वजशिलामय बिंबले. शेठे पण ते वचन सत्य जाणीने वजशिलामय बिंब लीधुं अने देवीने पूब्यु ए बिंब वजमय घणुं नारी ने माटे केवीरीतें लइ जानं ? देवीयें कह्यु काचे सूत्रे वींटी सूत्रनो बेहडो हाथमां कालीचाल्यो जा, पण पा वली जोश मां. शेठ एमज लश् चाल्यो घणी नूमि उलंघी पण हाथमां लगार मात्र नार जणायो नहीं तेथी संघवी जाण्युं प्रतिमा आवे बे के नथी आवती ? ए वी शंका आणी पाबंवली जोयुं तो बिंब तिहांज स्थिर थरह्यं घणा प्र कारें उद्यम कस्यो पण बिलकुल हाले नहीं, तेवारें तिहांज प्रासादनी रच ना करी; श्रीनेमिनाथजीनी प्रतिमानी पूजा करीने पनी पार| कस्युं, सर्व संघे पण पूजा करी. एम तिहां घणा दिवस रही मनना मनोरथ पूर्ण करी पली संघवी श्रीशेजेजयनी यात्रा करवा चाल्या.
अनुक्रमें श्रीशत्रुजयें ाव्या. यात्रा कीधी साधर्मिकवात्सल्य प्रमुख कार्य कयां. एवी रीतें घणा तीर्थोनी यात्रा करी देमकुशलें काश्मीरदेशे नवफूल पाटणे पोताने घरे आव्या. राजायें नगर प्रवेशादिक महोत्सव कस्या. पनी ते शेठ, नवानवां जिनशासननां कार्य करी जिनशासननो प्रानाविक थयो. एम यात्रादिक कार्य करी पण श्रीजिनशासननो प्रानाविक थाय, ए रत्न संघवीने दृष्टांतें जनमनोरमण कार्य जे करे, ते प्रानाविक थाय ॥
इति तपागबालंकार नट्टारक श्रीहीरविजयसूरिश्वर क्रमात् पट्टप्रनाकर श्रीविजय देवसूरीश्वर विजयमानराज्ये महोपाध्याय श्रीशकलचंगणि शि ष्योपाध्याय श्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचिते श्रीस म्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिकाबालावबोधे अष्टप्रानाविकस्वरूप निरूपण नामा षष्ठोधिकारः समाप्तः ॥ ६ ॥
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.. हवे समकेतनां पांच नूषण, सातमुं हार कहे :॥ समत्त नूसणारं, कोसनं तिब सेवणं नत्ती ॥ थिरया पनावणाविय, जावळ तेसि वुहामि ॥ ४० ॥ अर्थः-ए पागल कहेशे ते पांच (सम तनूसणाई के०) समकेतनां नूषण कहीयें. जेम पुरुषने मुकुट, कुंमल, हार, अबहार,कटिसूत्र, मुश्किादिक नूषण जे तेणें करी पुरुष शोनायमा न देखाय ले तेम समकेत पण ए पांच नूषणें करी शोजायमान देखाय ते पांचे जूषणनां नाम कहे .
१ एक (कोसन्नं के०) कुशलपणुं एटले श्रीसमकेतना दायिक, दयोपश मादिक जे नेद कह्या ले तेना जाणवाने विषे दरपणुं होय. तथा बीजा पण दिनकृत्य,रात्रिकृत्य, पदत्य, चातुर्मासिककृत्य, संवत्सरळत्य, जन्मक त्यादिकने विषे जे निपुणपणुं होय तेने कौशल्य कहीयें. ___ बीजुं (तिबसेवणं के०) तीर्थ जे जिनजन्मादिक कल्याणकनी नूमि तेनुं सेवन करवू ॥ उक्तं च ॥ जम्म दिरका नाणं, तिबयराणं महाणुनावाणं ॥ जयकिर निवाणं, आगाढं दंसणं हो ॥ १ ॥ अथवा जंगम तीर्थ जे आचार्य, उपाध्याय, महानुनाव अणगार, तेमना विनय वेयावच्चादिकनुं करवू ते तीर्थसेवन कहीयें.
३ त्रीजु (नत्ती के०) नक्ति करवी ते जे समकेतधारी होय तेनो वि नय वेयावच्च श्लाघा करवी तेने नक्ति कहीयें तिहां देवगुरुनी नक्ति करवी. ___४ चोथु (थिरया के०) स्थिरता ते कोइ देव दानव आवीने चलावे तो पण चले नहीं मनमां विचारे के जेवारें तेवारें जीव मोद फल जे पाम शे ते ए समकेतथीज पामशे, माटे एनी आस्था राखवी. यतः ॥ चारित्र याने जनेपि, गुणमाणिक्यपूरिते ॥ तरंत्येव महांनोधौ, सम्यक्त्वफलक ग्रहात् ॥१॥ ध्यानं कुःख निधानमेव तपसः संतापमानं फलं, स्वाध्यायोपि हि वध्य एव कुधियां तेनिग्रहाः कुग्रहाः ॥ अश्लाघ्या खलुदान शीलतुल ना स्तीर्थादियात्रा वृथाः, सम्यक्त्वेन विनैवस्यादपिच यत्तत्सर्वमंतगडुः ॥ ॥ एवी समकेतने विषे श्रेणिकादिकनी पेरें स्थिरता राखवी.
पांचमुं ( पजावणाविय के) प्रनावना ते श्रीजिनशासननी उन्नति नुं करवू मनमा ए प्रमाणे विचार राखवो के जेणे करी श्रीजिनशासननी दीप्ति थाय एवो प्रकार कह्यो ,तेनीज शोधमा रहेवू अने बतीसामर्थ्य ते
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जिनशासननी दीप्ति पण करे तेने प्रनावना कहीयें. (तेसि के०) तेनो (नाव के०) नावार्थ आगली गाथायें (वुनामि के०) कहीगुं. ४०
हवे पांच नूषणमाला पहेला कौशल्यनुं स्वरूप कहे जेः॥ वंदण संवरणाइ, किरिया निनणत्तणं तु कोसनं ॥ तिबनिसेवाय स यं, सविग्गं जणेण संसग्गी ॥४१॥ अर्थः-(वंदण के०) देववंदना, गुरुवंद ना तथा (संवरणा के०) संवरण ते पञ्चरकाण प्रमुख आदि शब्दथकी पडा वश्यक, पौषध, सामायिक, स्नात्रविधि, सत्तरनेदें पूजानोविधि प्रमुख सर्व कार्य लेवां. ते संबंधि जे (किरिया के०) क्रिया तेने विषे जे ( निगणतणं के) निपुणपणुं होय ते (तु के०) वली (कोसनं के०) कौसल्पपणुं कहीयें जेमाटे प्रावक जो सर्व क्रियाने विषे निपुण होय तो अनार्यदेशने विषे पण धर्मप्रवृत्ति चलावे जो एक श्रावक निपुण होय तो घणाजीवोने समकेत तथा देश विरति सर्वविरति पमाडवा, कारणनूत थाय जे श्रीजिनशासनने विषे निपुण होय तेनांत्रणवानां प्रशस्त थाय ॥ यतः ॥ त ठाणा सुसील स्स सुव्वयस्स सुगुणस्त समेरस्स सुपञ्चरकाण पोसहोववासस्स पासला न वंति तंजहा १ अस्सिलोए पसने नवति ५ उववाए पसजे नवति ३ आया तिपसबा नवति, एवं त नाणानि सीलस्स निवयस्स निगुणस्त निमेरस्स निपञ्चरकाणपोसहोववासस्स गरहिया नवंति तं जहा १ असीलोए गरहिए नवति २ उववाए गरहिए नवति ३ आयाति गरहिया नवतित्ति ॥ ए गा थाना पूर्वानो अर्थ कह्यो उत्तराईनो अर्थ कथा आव्या पनी कहेवाशे.
हवे ए कौशल्यताने विषे उदायी राजानो संबंध कहीयें . राजगृहीन गरीयें श्रेणिकराजानो पुत्र अशोकचं तथा अपरनाम कोणिक राज्य पा ले ले. तेने पद्मावती नामें पटराणी डे तेनी साथै विषयसुख जोगवतां कोई देवतानो जीव पुण्यवंत आवी गर्जपणे उपनो ते गर्ने रह्या पढ़ी राजा नो घणो उदय थयो माटे ते पुत्र जन्म्या पडी तेनुं नाम उदायिन दीधुं. एकदा प्रस्तावें माबी साथल उपर पुत्रने लश् श्रेणिकनोपुत्र अशोकचं रा जा जोजन करवा बेठो डे एवामां बालक मूतरवा लाग्यो ते मूतरनी धारा जोजननी थालीमांहे पड़ी तो पण पुत्र उपर प्रेम ले माटे विचायु जे रखेने एबालकने मूत्रनो रोध थाय ? एबुं चिंतवी एमज मूतरवा दीयो.
पड़ी ते मूत्रधारासहित जोजन बांकीने थाली अणधो दाथ अण
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. धोया थका बीजी रसवती लइ जमवा लागो. ते देखी चेलणामाताने दाखं
आव्युं, तेवारें कोपिकें हास्यनुं कारण पूबवाथीचेलणामाता कहेवा लागी के सांजल हे पुत्र! तुं जेवारें गर्नमां याव्यो, तेवारें मुमने श्रेणिकराजाना कालजां खावानो दोहोलो उपन्यो ते अनयकुमार श्रेणिकने सूवाडी तेना हिया ऊपर मांस पाथरी कापी कापी मांसना खंझ मुजने आपीने महारो दोहोलो पूर्ण कस्यो. अनुक्रमें तहारो जन्म थयो, तेवारें में जाण्युं जे ए पुत्र पितानो घातक थाशे,तेमाटे में तुमने करडे नखाव्यो ते वात श्रेणि जाणी मुझने गालो दश्ने उकरडाथकी पाडो अणाव्यो. नकरडामां तहारी मांग लि कोश्क जीवे करडी ते आंगलि पाकी तेनी वेदनाथी तुंरडवा लाग्यो त्यारें श्रेणिकें तहारी यांगुली मुखमांहे घालीराखी तेथी तुऊने शाता था अने चंघ आवी ते वखत तहारी यांगुली पाकी हती ते फूटी पडी तेना परुथी राजानुं महोडं जराणुं तो पण विचायुं जे आंगुली मुखमाथी काहाडीश तो रखेने ए बालकनी चंघ जती रहे ? तेमाटे मुखमाथी काढी नहीं तुं जाग्यो तेपली आंगुली काढीने मुखथुकी परु बाहेर नारव्यु, तुऊने वेदना समी ग ते आंगुली मुखमा राखतां राखतां रुजी ने सारी थइ एवी रीतनो तहारा नपर तहारा बापनो प्रेम हतो ते आज तुं तहारा बापने काष्टपिं जरमां नाखीने दिनप्रत्ये नाडी मरावे के अने तुं सुखें जोजन करवा बेठगे बो. ए कारण माटे संसारनुं स्वरूप मा देखीने मुझने हांसुं आव्युं.
ते वात सांजली कोणिक, लोहनो दंमलेश्ने काष्टपिंजर नांजवामाटे बापने बाहेर काढवा चाल्यो. तेने आवतो देखतांज श्रेणिकें जाण्युं जे मु ऊने मारवा आवे ते अपमृत्युना नयथी तालपुट विष खाइने श्रेणिकें काल कस्यो. आयुखानो निकाचितबंध हतो माटे मरीने नरकें गयो. तेथी कोणिकने घगुंज कुःख लागुं, शोक करवा लागो, पबीते जग्या देखे तेवारेंबा प सांनरी आवे तेथी कोणि विचायुं जे महारे आंहीं न रहे पबीएक सुजगा जोड्ने चंपानगरी वासी राजगृही नगरी मूकी चंपामां आवी रह्यो. __ अनुक्रमें कोणिकें त्रण खंम साध्या कारिमा चौद रत्न करी तेरमो चक्रव ी कहेवावं. एवी बुद्धिथी वैताढयनी तिमिस्त्रागुफाने दंमरत्नेकरी उघाड वा गयो गुफाने दंमरत्ननो प्रहार दीधो. तिहां गुफाधिपति जे कृतमाल दे वताते कोपें चडयो बतो तेणें कोणिकने सैन्यसहित बाली नस्म कीयो को
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
कि मरीने ही नरकपृथ्वीयें गयो. तेने पाटें नदायी राजा राज्यें वेगे. हवे दायीराजाने पिताना दुःखने लीधे चंपानगरीमां रहेतुं सोहाय नहीं. तेथ प्रधानने कयुं के कोइ रुडं स्थानक जून. तिहां नगरवसावीने रहीयें. मंत्रीश्वरें स्थानक जोतां जोतां गंगातटें निकासुत याचार्यनी करोड पडी हती तिहां पामलवृक्ष कग्यो बे तेनी पासें याव्या तिहां एक सूडो मुख वि कासी रह्यो बे तेना मुखमांहे सहेजें खावी जीवडा पडे बे तेनो सूडाने याहार याय ने ए वृत्तांत देखीने प्रधाने विचायुं जे इहां सूडाना मुखमांहे सहेजें प्रयासविना जीव यावी पडे बे तेहज सूडाने याहार थाय बे तेम ए जगायें नगर वसावीने वास करवाथी राजा ने प्रजा वेदुने सुखें प्रया सविना जीविका चालशे एवं निर्धारी नगरस्थापनाने काजें सूत्र दीधुं. नगर वसायुं पाम वृक तिहां हतुं माटे पाडलीपुर नाम दीधुं नदायी राजा तिहां खावी वश्यो ते उदायीयें घणीष्टृथ्वी जीतीने पोताने वश क री, गुरुसमीपें सम्यक्त्व मूलद्वादशवत उच्चार करी परमश्रावक थयो. चार पर्वना होरता पौषध करे प्रतिदिवस देवपूजा कथा पढी मुखमां पाली घाले घरमा पोषधशालायें उनय संध्यायें पडिक्कमणुं करे. तेथी उदायीरा जा ऋषि कहेवाणो उदायिराजर्षी एवं नाम पड्युं, जिनशासननो परमभक्त थयो, जिनशासननी सर्वक्रियाने विषे निपुण थयो.
हवे उदायीराजायें युद्ध करीने कोलिक राजाने माखो तेहनुं सर्वस्व ली धुं तेनो पुत्र समर्थथको उऊयणीना राजानी चाकरी करवा लाग्यो. तें ऐ एकदा प्रस्तावें कयणीना राजाने कह्युं जो तमे सहाय करी महारुं राज्य पाबुं पावो तो हुं नदायीराजाने मारी खातुं वकयणीना राजायें जाएयुं जे सहेजें माथाथकी वैरी जाय बे तो हवे बीजुं गुं जोइयें ? एवं विचारी तेने संबल प्राप्युं ते दुष्टात्मा तिहां खावी नदायीराजाने मारवा ना घणा उपाय करे बे, पण लाग पामतो नथी पढी उदायीना घरमां य तिनो प्रवेश निर्गमन देखी विचायुं जे एवो वेष धारण करवाथी महारुं कार्य थाशे तेवारें कपट वैराग्य देखाडी गुरुनी पासेंथी दीक्षा लीधी. पांच समिति गुप्तिशीखे, गुरुने खुशी करे, विनयवैय्यावच्च करी गुरुने वश करे, एम शोल वर्षसुधी कपट दीक्षा पाली, पण जातें अनव्य बे माटे करुणारसें रोम मात्र जेदाय नहीं. केवलराजाने मारवाने अर्थे चारित्रशुद्ध पाले बे.
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२७३ एकदा आचार्य पामलीपुर पधास्या . उदायीराजा पर्वदिवसने विपे प्रनातें उठी, प्रतिक्रमण करी श्रीमहावीरनी प्रतिमा पूजी, उपाश्रय यावी, गुरुमुखें पौषध उच्चरी, १ए स्थानक साचवतो,शादशावर्त वंदन देइ, व्या ख्यान सांजली, चैत्यपरिपाटी करी, आपणा महोलने विषे पौषधशालायें जश् पुस्तक वाचनायें करी पौषध आराधे. संध्या प्रतिक्रमण कराववा गु रुने तेथु मोकल्युं, गुरुयें साधुनने कडं कोण यतिपरवाया जे महा। साथें आवे? तेवारे ते अनव्यसाधु उपधि लश्ने तैयार थयो कहे पधारो स्वा मी! हुँ आपनी साथें आईं . गुरु नश्कनावें कपट अजाणतो साथें ते डी गयो. तिहां रजोहरणें करी राजाने प्रतिक्रमण करावे, राजा प्रतिक्रम ण करी, सद्याय करी, पोरिसी नणावी, विधि संथारो पाथरी, संथराविधि जणी, चन सरण गणी, नवकरवाली गणी, धर्मजागरण करी, कुकूटनी पेरें पग पसारीने सूतो, क्रियाध्यायें थाक्या माटें गंघ धावी गइ तेमज गुरुने पण गंध यावी गइ. तेवारें पहेलो अनव्य साधु कपटनिश करी उपयो कंको लहनी पाली गुप्त राखी हती ते काढीने राजाना कंठमां मारी राजायें स्म रणसहित काल कीधो. अने पहेलो अनव्यसाधु शरीर बाधानुं मिष करीने तेनुं कारण धारपालने समजावीने बाहेर नीकली गयो.
रुधिरप्रवाह गुरुने संथारे श्राव्यो. गुरु जाग्या अजवाली रात्रि हती मा टे अजवाले जोयुं तो रुधिर वहेतुं दीतुं तेनुं मूल जोवा लाग्या तो राजा ने गले पाली दीती, पासें जोयुं तो कुशिष्य देखातो नथी तेवारें गुरुयें वि चायुं जे ए कुशिष्यनुज काम करेलुं . पड़ी गुरुयें विचाखु जे प्रनातें जिनशासननो उनाह थाशे, माटें अमने पण एज श्रेयस्कर जे. एम निर धारी गुरुये पण अगसण आराधना करी गलें पाली जरावी काल कीधो. राजा तथा गुरु बेदु थाराधक थइ स्वर्गे गया. प्रनातें कुशिष्यनो माह थयो. ते अनव्यने घणुए शोध्यो पण किहांय मल्यो नहीं. नासीने उऊय पीयें जतो रह्यो. उऊयणीना राजानी बागल स्वरूप कडुं. राजायें तेने महा अधर्मी उष्ट जैनशासननो उमाह कारक जाणी देश बाहिर काढी मू क्यो. जे माटे पापीने क्यांय जगा मले नहीं. अने धर्मीनी सर्वत्र जय ने ए समकेतना कौशल्य नामें जूषणनी उपर नदायी राजानुं दृष्टांत कह्यु.
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. हवे गाथाना पाला बे पदना अर्थे करी बीजूं तीर्थसेवा नूषण कहे जे.
(तिब के०) तीर्थ जे श्रीशत्रुजय, नद्ययंतगिरि, अष्टापद प्रमुखनी नि रंतर (सेवाय के० ) सेवा ते ( सयं के ) स्वयं पोतें करवी यात्रायें जा तिहां केटलाएक दिवस रही पूजा करवी जो सामग्री होय तो अंतसमय जाणी पुत्रादिकने घरनो नार सोंपी पोतें निश्चिंत थइ संबल लेइ तीर्थनी सेवा करवी तथा (संविग्गजरोणसंसग्गी के०)संविग्नजन एटलें संवेगी जननी साथै संसर्ग करवो. जेमाटें संवेगीनो संसर्ग करतां थकां पोताने संवेगनी प्राप्ति थाय. तेथी वली बीजा घणा जीवोने ते संवेगी करे, जेम फूल स्वयं सौगंधिक तो हतां ते तेलने सौगंधिक करे तेथकी मोघरेल चंपेलादिक तेल लगाडे थके पुरुषमा सुगंध थाय ए दृष्टांते जाणवू ॥ यतः ॥ वसई गुरुकुले निचं, जो गवं नवहाणत्वं ॥ पियंकरे पियंवाइ, से सिरकं लदु मर हर ॥ १ ॥ इति उत्तराध्ययने ॥ तथा ॥ एसोपुण संविग्गं, संविग्गं सेसया ण जयंतो ॥ कुग्गह विरहेण लदु, पावेश्मोरकं सया सोरकं ॥ १॥ इति एकादशे साधुपंचाशके ॥
जेम श्रीगौतमस्वामी तथा केशीगणधर ए बेतु मले थके तेनो धर्मवाद सांजलीने घणा जीव संवेग पाम्या. तेमाटें सुविहित, शुक्षप्ररूपक, ज्ञानवं तनी सायें गोष्टि करवी. पण मिथ्यादृष्टि तथा भ्रष्टाचारी कुमत्यादिकनो संसर्ग न करवो. केम के तेनुं ज्ञानपण नरकपातने अर्थे थाय ॥
हवे एने विपे नागदत्तनुं दृष्टांत कहीयें .यें. कुसुमपुर नगरने विषे धने करी धनद समान एवा नागचंझनामा शेठ वसे ने तेनी नागश्रीनामें नार्या जे, तेने घणा मनोरथें नागदत्त नामें पुत्र थयो. ते बालपणे पण प्रियधर्म दृढ धर्मी थयो. बालपणामां बार व्रत पालनार, तप करनार,उपधान वहे नार देवनक्ति, गुरुनक्ति कारक नवतत्त्वज्ञाननो विज्ञानवंत थयो. ____ एकदा प्रस्तावें नागदत्त चैत्यपरिपाटी करतां कोइ एकने श्रीजिननवनने विषे अपूर्व थानरण,अपूर्व फूल,श्रीखंम, केसर,कर्पूर, अगरु, धूप, अने दी पश्रेणियें करी महोटे विस्तारें पूजा करतो देखीने चमत्कार पाम्यो. अने मनोरथ करवा लाग्यो के एवी पूजा ढुंपण करूं तो मने आनंद थाय.॥ यतः॥ स्वर्गस्थितानामिहजीव लोके, चत्वारि चिन्हानि वसंति देहे ॥ दान प्रसंगो मधुरा च वाणी, देवार्चनं सजुरुसेवनं च ॥१॥
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. पड़ी ते वात पोताना पिता नागचंपनी आगल करी, के हे पिताजी! आजे पनदत्तशेठनो पुत्र जिनदत्त नामें ,ते प्रवहणयकी घएं इव्य नपा र्जी आव्यो . तेणे देवगृहमां अपूर्व पूजा करी जे. एवी पूजा आजपर्यंत में क्याहिपण दीदी नथी तेमाटेएवी पूजा कस्यानो मुझने नाव ,तोनाग चंश्रेष्ठियें कह्यु,आपणी पासे पण इव्य घणुं ने माटे सुखें पूजानो मनोरथ पूर्ण करो. नागदत्ते कयुं तमारा इव्ये ढुं मनोरथ पूर्ण न करूं, ढुंपण प्रवह ण ले परदेशे जश् इव्य कमावी एवी पूजा करूं तो मनोरथपण पूर्ण थाय.
शे पुत्रनो हठ जाणी प्रवहणे चढवानी आज्ञा दीधी, तेणें पांचशो वाहाण करियाणांनां नयां.गाममां पडह वजडाव्यो के जेने प्रवहणे चडी देशांतरें जाएं होय ते सुखें घावजो. जे जेम केशे,तेम नाडावगेरैनी तीक बं दोबस्त करी आपी\, माटें कोई बातें सीदावतुं नहीं. एवं सांजली घणां लोक तेनी साथे चालवाने तैय्यार थवाहणे बेता. अनुक्रमें रूडे मुहर्ते स र्व सामग्री करी पांचशे वाहण लाचाल्यो. वाहणो वेगें चाल्यां जाय , ए वामां अकस्मात् वादलां थयां मेह अंधारयो तोफान लागवाथी वाहण न न्मार्गे पड्यां. जेम उन्मत्त शिष्य गुरुनी आझाना वशथकी टली जाय, तेम नाखवाना वशथकी वाहाण टली गयां. पर्वतोनी वचमां श्रावी गया. ए वामां एक वाहाण बूड्युं ते वाहाणमांहेला मरीगयेला माणसोने पाणीमां तरतां लोकोयें दीवां, ते जो सर्व वहाणोनां लोक नयनांत थयां.
एवामां एक वाणायो कंठगतप्राण थयो हतो, तेणें हाथनी संझायें पा णी माग्युं, नागदत्तें तेने पाणी लावी पीवराव्यु. तेथी कांक स्वस्थ थयो थको नागदत्तें पूज्यु के,तुं कोण बो ? तेणे कयुं कोसंबी नगरीनो रहेवा सी धनश्रेष्ठीनो पुत्र . ढुं एकशो वहाण लश्ने चाल्यो, ते पापने उदयें वा यरे करी प्रेयां प्रवहण गिरिकुंमलने विषे पड्यां. इहां चारे बाजु पर्वत श्रा वीगया, माटें वायरानो संचार न होवाथी वहाण नामनांगम पडी रह्यां हाले चाले नहीं. अनुक्रमें नातुं पाणी खुंटुं नूरख तृषायें माणस सर्व मर ण पाम्यां. ढुं एक जीवतो रह्यो . ए में महारुं वृत्तांत कयुं. हवे तुं मुज ने परलोकनो संबल आप. तेवारें तेने नागदत्ते ॥ पाणावायं मलियं.चोरि के मेदुणं दविण मुद्धं ॥ कोह माणं मायं, लोनं पिऊं तहा दोसं ॥ १ ॥ कलहं अतरकाणं, पेसुन्नं रई अरश् समानत्तं ॥ परपरिवायं माया मोसं मिड
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. तसनं च ॥ २ ॥ वोसीसूश्माइ, मुरक मागसंसग्ग विग्घनूयाइं ॥ दुग्ग निबंधणा, अहारस पावहाणा॥३॥ एगो हं नलि मे को, नाहमन्त्रस्त कस्सा ॥ एवं अदीमणसो, अप्पाणं मएसास ॥४॥ एगो मे सास अप्पा, नाणदंसणसंजु ॥ सेसा मे बाहिरानावा, सवे संजोग लरकणा ॥ ॥ ५ ॥ संजोग मूला जीवेण, पत्ता उरकपरंपरा ॥ तम्हा संजोग संबंध, स वं तिविहेण वोसिरियं ॥ ६ ॥ अरिहंतो महदेवो, जावजीवं सुसादुणो गुरु गो॥ जिणपन्नत्तं तत्तं, श्यसम्मत्तं मए गहियं ॥ ७॥
ए प्रमाणे ते कुमरें संबल आप्युं तेने लश्ने शुनध्याने परलोकें पहोतो. देवलोकें जश् नपनो. तिहां देवांगना साथै रमवा लागो. ए वृत्तांत सांजली सर्वलोक जयनांत थयां थकां नागदत्तने गालो देवा लाग्यां. कहेतां हवां के तें अमने आपदामा नाख्यां अमें शहां नूख तरषथी मरण पामगुं. ___ एवा समयें सिंहलदीपना राजायें एवी प्रतिझा करेली , के कोइ पण पुरुष बापदामां पड्यो होय, ते वात राजाना सानलवामां आवे, तो तेनी
आपदा टाल्या विना राजा जमतो नयी. ते पांचशे वहाण पर्वत कुंमलने विषे पडेलां देखी राजाना पुत्र ज पोताना पितानी आगल,ए वात कही. ते सांजली राजायें पडह वजडाव्यो के जे को प्रवहणने इहां लश् आवे, तेने लु लदा टका सुवर्णना आपुं. ते पडहने एक वृक्ष नाखवो बन्यो तेणें राजानी पासेंथी लद सुवर्ण लइ पोताना पुत्रने आप्यां. पोतें पुत्रपासेंथी विदायगिरि मागी एक लघु प्रवहण लश्ने समुश्मांहे चालतो नागदत्तनी पासे आव्यो, तेने देखी नागदत्त हर्ष पाम्यो.
पली ते वृक्ष नावडी वहाणने बाहेर काहाढवा माटें उपाय कहेवा लाग्यो जे या पर्वतना शिखरने विषे एक महोटुं चैत्य , तिहां महोटी मंमिका ने ते शिखरनी उपर तमारामांथी कोइएक पुरुष चडीने ढक्का वजा डे, ते ढक्काना शब्दथी तिहां नारंग पंखी घणां , ते उडशे तेनी पांखोना वायराने योगें सर्व वहाणो चालवा मांमशे. ते पाधरा हांथी सिंहलदीप ढूकडो , तिहां जाशे. तिहां गया पली सर्वजनोने कल्याण . परंतु जे ए क जण ढक्का वजाडवा जाशे, तेनुं मरण थाशे. कारण के तिहां का फल जल अन्न, मल नहीं. एटलुं बोलीने नावडीयो बानो रही गयो.
पनी कुमरें सर्वजनोने पर्वतना शिखर पर चडवा माटे पूज्युं, पण
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. को हा नणे नहीं. तेवारें कुमरें विचायुं जे एक महारा मरणथी घणा लोक जीवता रहेशे, माटें दुंज जालं. एबुं साहस आदरी पर्वतना शिखर ने विषे चडीने ढक्का वजडावी, तेना नाद थकी घणां नारंम पंखी नड्यां, तेनी पाखना वायराने योगें वहाण चालतां थयां ते सिंहलही आव्यां. राजा हर्ष पाम्यो को पासेंथी दाण पण लीधुं नहीं पण वहाणना मुख्य वेपारी नागदत्त न थाव्यानी खबर सानलीने खेद पामतो बीजानी उपर अनाव करवा लाग्यो सर्वलोकोयें वसाणां वेची नवां करियांणां लश्ने वहाणो नयां. घणो लान लश्ने पोताना नगरने विषे आव्यां, नागचंड शेठ तेमनी साहामो आव्यो पण पुत्रने दीठो नहीं अने लोकोना मुखथी नागदत्तनुं वृत्तांत सांजली घणुंज फुःख पामतो देखी बीजी वाणीया कहेवा लाग्या के, हे शेठ ! तहारा पुत्रे साहस अंगीकार करीने अमो सर्वने जीवता राख्या, अमें अमारे घरें कुशलें आवी पहोता, ते नाग दत्तना पसायथी समजजो. एबुं कही सर्वलोक फुःख धरे ले. ___ एवामां आकाशमार्गे एक विमान आवतुं दीतुं, तेने सर्वलोक उंची न जर करी जोवा लाग्यां. थोडीशी वारमा विमान पण नमियें उतरी आ व्यु, तेमांथी नागदत्तकुमर स्त्री साथें उतरी आवीने पिताने पगे लागो, तेने जो सर्वलोको चमत्कार पाम्यां. तिहां नागदत्त पोतानुं वृत्तांत कहे तो हवो, के ढुं सत्त्व आदरी पर्वत शिखरें चढी ढक्का वजाडी तिहाथी पालो नतरी नीचें श्रीषनदेवजीने देहरे जश्ने प्रतिमाने वांदी पूजी नप वास करी बेठो. केटलाएक दिवस वीत्या पनी तिहां आनरणालंकत शरी रवालो दिव्यरूप धारण करनारो एवो एक पुरुष आव्यो,ते पण प्रतिमाने वांदी पूजीबाहिर थाव्यो तेने में हाथ जोडी पूर्वा स्वामी ! तमें कोण बो? तेणें कह्यु के हुँ वैताढयपर्वतनो रहेवासी विद्युत्प्रननामा विद्याधर ढुं हमणां ढुं नंदीश्वरही देव वांदवा गयो हतो तिहाथी फरी थाही देव वांदवा श्राव्यो. बुं शहां तुमने देखी अवलोकनी विद्याने प्रब्यु ए पुरुष कोण ? वि द्यायें तहारं सर्ववृत्तांत कयुं ताहारं चरित्र सांजलीने दुं हर्ष पाम्यो. हुँ म हारी पुत्रीनुं पाणिग्रहण करवा तमोने विनति करुं बुं. तथा वली तेनी साथें हुँ तमोने आकाशगामिनी विद्या बापुं, ते पण व्यो. एम कही ते विद्याधरें विद्याशक्तियें करी तिहां पोतानी पुत्री अणावी परणावी दीधी. विविधप्रका
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
G जैनकया रत्नकोष नाग त्रीजो. रनां जोजन अणावी मुजने घणादिवसना उपवासनुं पारणुं कराव्युं. आ काशगामिनी विद्या आपी, महोटा पुरुष प्रसन्न थया तो झुं न करे ? । ___ पड़ी में कह्यु महारा माता पिता घणुं फुःख करतां हशे, माटें महारे न गरें पहोचतो करो. तेवारें तेणें मुझने घणी दिसहित विमान आपी हां पहोंचाज्यो. ते वात सांजली सर्वलोक हर्ष पाम्यां. महोत्सव सहि त कुमरने नगरप्रवेश कराव्यो.
हवे नागदत्तं विचाओँ जे जेहने अर्थ हुँ देशांतर गयो हतो, तेना पसा यथी हुँ घणी झदि पामीने कुशलें देमें घेर आव्यो, तो हवे महोटा वि स्तारें श्रीजिनेश्वरनी पूजा करूं. एम चिंतवी जिनमंदिरमां नित्यप्रत्ये नव नवा विस्तारपूर्वक नवनवा प्रकारनी पूजा करे. तेथी घणा जीव बोधबी ज पामे. वली साधुजनने शुक्ष्मान अशन, पान,खादिम, स्वादिम,वस्त्र,पा त्रादिकने दाने करी लक्ष्मीने कृतार्थ करे. एम लेहले समयें वैराग्य पामी सु स्थित प्राचार्यनी पासेंथी दीदाला नग्र तपश्चर्या करीअंतें अनशन श्रा राधि स्वर्गरूप श्रेष्ठपद पाम्या. ए तीर्थ सेवाने विषे नागदत्तशेठनी कथा कहो.
हवे नक्तिनूपण तथा प्रनावनानूषणनुं दृष्टांत कहे जे. ॥ नतिं थायर करणं, जहोचियं जिणवरिंद साहूणं ॥ थिरया दढ स म्मत्तं, पनावणुस्सप्पणा करणं ॥ ४२ ॥ अर्थः-(नत्तिं के ) नक्ति ते (आयरकरणं के ) आदरनुं करवं, (जहोचियं के ) यथोचितपणे (जि
वरिंद के० ) श्रीजिनवरें तथा तेमनी आझायें युक्त एवा जे (साहूणं के०) साधुजनो तेमनी नक्ति एटले आदर करवो. हवे जिननक्ति केवी री तें होय ते? कहे जे ॥ यतः॥ तिन्निनिसिहि तिन्निन,पयाहिणा तिन्नि चेव य पणामा ॥ तिविहा पूया य तहा, अव तिय नावणं चेव ॥ ॥ ति दिसि निरखण विरइ, पयनूमि पमजणं च तिरकुत्तो ॥ वरमा तियं मुद्दा, तियंच तिविहं च पणिहाणं ॥ २ ॥ श्यदसतियं संजुत्तं, वंदणयं जो जिणाण तिकालं ॥ कुण नरो उवउत्तो,सो पावई सासयं गणं ॥३॥ ए जिननक्ति. कही अने साधुनी नक्ति तो वली साधु आवता जाणी सन्मुखजावं, मस्तकें अंजलि बंध करवो, बासन देवू, वंदन पर्युपासनानुगमन करवू, दश प्रकारर्नु वैय्यावच्च करवू, अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, पीठ, फलकनुं देवं, औषध नैषज्य पथ्यादिक सामग्रीना संप्रदान प्रमुख करवे करी साधुनी नक्ति थाय ॥ यतः ॥
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
श जक्तिर्जिनेऽस्य गुरोः सुसेवा, क्रियापरत्वं व्यवहारशुक्षिः ॥ जितेंघियत्वं सु कृताश्रयत्वं, धन्यस्य धर्मो हृदि वर्त तेऽसौ ॥ १ ॥
हवे एने विपे बाह्यान्यंतररूप कामिनीनो दृष्टांत कहे जेः- राजगृह नगरें अमिततेज नामें राजा ने तिहां एक पारिव्राजक रहे . ते विद्या मंत्र करी जे कांश नगरने विषे सार वस्तु देखे, तथा स्त्रीरत्न देखे तेने चो रील जाय. तेवारें समस्त पुरनां लोक एकां मली राजानी आगल पो कार करवा गयां. राजायें तेमने कह्यु के तमें सदु पोतपोताने घेर जनि श्चिंत थश्ने सूझ रहो, ढुं पांच दिवसमांहे ते चोर पकडीने जो शिक्षा न करुं, तो अग्निमां प्रवेश करुं ! एवं कही लोकोने विसर्जन कस्यां. पही रा जायें ते चोरनी गुहिने अर्थे पोतानां घणां माणसो मोकव्यां, पण चोर हाथ लागों नहीं. एम चार दिवस वीती गया. पांचमे दिवसें राजा पोतें हाथमा तरवार लश्ने चोरने शोधवा निकटयो. तेणें संध्या समयें पदेला पारिव्राजकने तंबोलीनी दुकानें पाननांबीडां लेतो दीठो तिहांथी वली सरई याने हाटें मोघरेल, चंवेली अने केवडानां तेल लेतो दीठो. राजायें विचास्वं जे चोर तो एज जणाय जे. पनी राजा प्रबन्नवृत्तिये तेहनी पडवा. लाग्यो.
ते पारिव्राजक नगर बाहेर जश्ने एक जगायें शिला उघाडी मिगृह मांहे पेतो. राजा पण तेनी पळवाडे उघाडी तरवार सहित गयो, तिहां चोरीनी सर्व वस्तु दीठी, ते पारिवाजकें राजाने आव्यो देखी तेने मारवा दोड्यो, राजायें लघुलाघवी कलायें ते पारिव्राजकनी चोटली जाली वश आणी शिर छेदी नारख्यु. पनी राजा ते रात्रि तिहांज रह्यो, प्रनातें सर्व नगरनां लोकोने तेडीने कह्यु के सदु को पोतपोतानी चीज उलखी व्यो. तेवारें जेनी जेनी जे जे वस्तु हती, तथा स्त्रीयो हती ते सहुयें पोतपो तानी लश् लीधी. तिहां राजानी कीर्ति विस्तार पामी.
हवे ते स्त्रीयोमाथी एक स्त्रीने ते पारिव्राजकें कामण कीयां हता, तेथी ते पोताना पतिने वश थ नहीं. पतिनी साथें बोले पण नहीं तेवारें तेना धपीयें घणा मंत्र तंत्रना जाणने पूब्यु. एकें कह्यु के एने पारिवाजकें का मण कीधांडे, माटें ए पारिव्राजकना हाड दूधमां धोश्ने एने पीवरावो तो एनां कामण उतरे, तेवारें पारिवाजक उपरथी राग उतरी जाशे, अने पो
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२० जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. ताना धणी ऊपर रागिणी थशे. पड़ी तेना पतियें तेमज कपु. तेथी तेनां कामण उतरी गयां, धने पोताना धणी उपर रागी थ.
हवे एनो उपनय कहे . जेम ए स्त्री कामणने योगें ते पारिव्राजकने मूकी अन्य कोश्नी उपर अनिलाषा न करे, तेम जे सुश्रावक होय ते प ण निःकेवल श्रीजिनधर्मनावित बतो केवल श्रीजिनवर तथा सुसाधुनी नपर प्रेम राखे, परंतु अन्य कोश्नी ऊपर नक्तिराग राखे नहीं. ए त्रीजुं नक्तिराग नामें समकेतनुं नूषण कडुं.
हवे चोधुं स्थिरता नामें नूषण कहे . (थिरया के०) स्थिरता नि चलता तेने ( दसम्मत्तं के०) दृढ समकेत कहीयें, जे माटे दृढसम्य क्ववान पुरुषने जो देव, दानव,चलाववा मगाववा आवे, तो पण ते च से नहीं समकेतथकी खसे नहीं. अन्यदर्शननी अत्यंत पूजा प्रनावना थ ती देखे तो पण तेनो लेशमात्र रोमोत्कंप न थाय. समकेत विना बीजा सर्व अज्ञानमार्ग , एम माने, वायराथी जेम पूणी उडी जाय जे तेम ए अज्ञानी मिथ्यादृष्टियो संसारचक्रने विषे उडता फरशे एवं माने ॥ या तं ॥ चत्तारि पुरिस जाया परमत्ता तं जहा ॥ एगेपिय धम्मे नो दहृधम्मे. द हृधम्मे णाम एगे नोपिय धम्मे एगे पियधम्मेवि दधम्मे वि. एगे पियधम्मे नो दधम्मे ॥ इति ठाणांगसूत्रे॥ ___ हवे ए स्थिरता नूपण ऊपर सुलसानो दृष्टांत कहीयें बैये, मगधदेशे राजगृहि नगरें प्रसेनजितराजा राज्य करे , तेनो नाग एवे नामें सारथिनी प्रियात्मा सुलसानामें स्त्री हती ते नागसारथिने पुत्र नथी तेनो कुःख ध रतो शोकातुर थको रहे. तेने सुलसा कहे के हे स्वामी! तमें कुःख म करो. जे कर्ममा लरव्युं हशे, ते थाशे, ते अन्यथा थनार नथी. एम करतां पण जो आपने स्थिरता न रहे, तो अन्यस्त्रीनुं पाणिग्रहण करो, के जेम तेथकी पुत्रप्राप्ति थाय, तो पण रूडं बे. तेने नागें कयुं अन्यस्त्रीनुं पाणि ग्रहण तो ढुं सर्वथा नहींज करुं परंतु अन्यदेव जे खेत्रपालादिक ने तेम नी मानता पूजा करिगुं. जे थकी आपणने पुत्र प्राप्ति थाशे.
सुललायें का एक श्रीवीतरागदेवने पूजतां जे थान ते नलें थाउ, प ए सर्वथा अन्यदेवर्नु अाराधन तो ढुं मन, वचन अने काया ए त्रणे योगें करुंज नहीं. हवे सुलसा एकाय मनें त्रिकाल देवपूजा करे, विशेष
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
शर
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. थकी साधु नक्ति करे. एकदा प्रस्तावें इंश्महाराजें सनामां बेग. सुलसानी जिनधर्मने विषे स्थिरतासंबंधि प्रशंसा करी. ते एक मिथ्यादृष्टि अदेखा दे वतायें सईही नहीं. पडी ते देव साधुनुं रूप करी सुलसाने घरे आव्यो. ध मलान दइ ननो रह्यो. ते साधुने आवता देखी सुलसा नक्ति रागें ननीय श्ने वंदन कयुं अने पूब्युं स्वामी ! शे कामें पधाया बो ? साधुयें कह्यु के ग्लान साधुना वेयावचने माटे लदपाक तेल जोश्य जैये ते तहारे घेर बे, एवं सांजलीने लेवा याव्यो . एवं वचन साधुनुं सांजली हर्ष पा मती थकी घरमां ज सुलसायें तेलनो घडो नरेलो आएयो पण देवप्रना वें ते हाथथी विलूटो थयो,तेथी घडो जांगी पज्यो. तेवारें बीजो घडो लश्या ववा लागी, ते पण देवप्रनावें हाथमाथी लूटी नांगी पड्यो, एम सात घडा याण्या ते साते नांगी पड्या, तो पण सुलसानो चित्तरूपी घट नांग्यो नहीं. घडा नांगी पड्या तेनुं लगार मात्र पण मनमां चिंतवण थयुं नहीं. जे आ अनागीयो कोण तेल लेवा आव्यो , के जेना आववाथकी महारा सा त घडा तेलना फूटी पड्या? एवी वातनी चिंतवणा लगार पण मनमा था वी नहीं. परंतु उलटी एवी चिंतवणा करवा लागी जे धिक्कार दे मुझने हुँ अल्पपुण्यवान् बुं जेमाटे महारुं तेल साधुने अर्थ काममां न आव्युं कारज साध्य न थयुं ! एम पश्चात्ताप करवा लागी.
एवी रीतें सुलसानुं मन साधु नक्ति उपर अत्यंत रागी थयेटु जोड्ने हार याहारें मंमित पहेलो साधु देवरू थ नजो रह्यो अने सुलसा प्रत्ये कहेवा लाग्यो के माग. माग. ढुं तहारी उपर संतुष्ट मान थयो बु.जे हवा देवसनामांहे महाराजें तहारा गुण वखाण्या, तेथकी पण तहारा मां अधिक गुण जे. एवं देवता, बोलवू सांजलीने सुलसायें कडं महारे पुत्र नथी ते तमें प्रसन्न था. जेम महारे पुत्र थाय एवं कहे ते देवता ये बत्रीश गोली थापी अने कह्यु जे एक गोली खावाथी एक पुत्र थशे ए म अनुक्रमें बत्रीश गोली खावाथी बत्रीश पुत्र था. वली पण काम पडे, तेवारें मुजने संजारजे दुं थावीश. एम कही देवता अदृश्य थयो.
पालथी सुलसायें विचायुं जे एकेक गोली खावाथी बत्रीश वखत सू वावड करवानां मुःख नोगववां पडशे माटें बत्रीशे गोलीने एकजवार श्रा रोगी जाउं के जेथकी एकज बत्रीश लक्षणो पुत्र थाय, तो बहु सारूं. जेमा
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
शय जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. टे क्रमी सरखां घणां बोकरां थयां तो पण शुं ? अने न थयां तो पण गं ? ॥ यतः ॥ एकेनापिहि पुत्रेण, सिंहः स्वपिति नियं ॥ सदैव दशभिः पुत्रै रं वहति गईनी ॥१॥ एवं विचारी बत्रीशे गोली एकती साथे खाधी, तेने लीधे बत्रीश गर्न एकठा साथै रह्या. तेनो नार खमी शकायो नहीं. तेवारें देवताने संजायो तेणें धावीने कह्यु के, हे सुलसा ! था तें झुं कयुं ? हवे तहारे बत्रीश पुत्र महाबलवान् थाशे. परंतु जेम बत्रीशेनो जन्म साथै एकज वखतें थाशे, तेम एमनुं मरण पण समकालें एकतुंज थाशे. ए नवितव्यता को टाली शके नहीं, माटे हवे तहारे चिंता न करवी, तहारी गर्नसंबंधि वेदना हुँ टालीश. एम कही ते देव वेदना टाली ने जतो रह्यो. पूर्ण मासे सुलसाने बत्रीश पुत्रनो जन्म थयो, नागसारथि हर्ष पाम्यो, तेणें जन्ममहोत्सव कस्यो, अनुक्रमें महोटा थया यौवन पाम्या, श्रेणिकराजाने ते बत्रीशे परमवल्लन थया. सदैव श्रेणिकनी पासें रहे. __ हवे चेडामहाराजानी सुज्येष्ठा तथा चेलणा प्रमुख सात पुत्री के ते मां सुज्येष्ठायें श्रेणिकनुं रूप सांजलीने पोतानी पासें बानो तेडाव्यो , ते वारें श्रेणिकराजा सलंग खोदावी रथ तैयार करी, तेमां बेसी सुलसाना बत्रीश बोकराने साथें लश्ने सलंगने रस्तेथी संकेत करेला स्थानकें आ व्यो. सुज्येष्ठाने चेलणा साथे घणो प्रेम डे मा चेलणा आगल ते वा त कही, तेवारें चेलगायें कडं दुं पण तहारी साथे प्रावीश! बे जणी रथ पर बेसी चालती थइ संकेतस्थानकें आवी सुज्येष्ठायें कह्यु महारो आनरणनो करंमियो वीसरी गयो ने, माटें रथने आहीं राखजो, ढुंल आQ. एम कही ते करंमीयो सेवा गइ, तेने विलंब थयो तेवारें सुल साना बत्रीश पुत्रे श्रेणिकने कद्दु महाराज! शहां वैरीनां स्थानकें थापण ने रहेवानुं काम नथी, जो चेडो महाराजा जागशे, तो आपणने जीवता जावं मुशकील थाशे. माटें रथ चलावीयें, तेवारें चेलणानो रथ यावतो जोइ तेने सुज्येष्ठा जाणी सलंगना अंधारामा पोताना रथमां बेसाडी ली धी. अने श्रेणिकें रथ चलाव्यो. पाबल बत्रीश रखवाला रह्या, एवामां सु ज्येष्ठा यावी तेणें रथ दीठो नहीं, तेवारें मनमाहे चिंतव्यु जे महारा म नोरथ फव्या नहीं, माटें दुं पोकार करूं. एवं विचारी पोकार कस्यो के चे लगाने श्रेणिक ल जाय , ते सांजली चेडो महाराजा युछ करवा स
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
२०३ ऊ थयो. तेवारें तेनो वैरंगिक सुनट चड्यो तेणें सलंगमाहेथी जाता दीना, तेथी बाण ताणीने मूक्युं, ते एके बाणे सुलसाना बत्रीशे पुत्र मरण पा म्या. श्रेणिक रथने आकरो चलावी आगल निकली गयो, अने वैरंगिक सुनट पण सुलसाना बत्रीश पुत्र मुवा पड्या हता, तेथी सलंगमाहे या गल पहोंची शक्यो नहीं, पानो वली गयो. श्रेणिकें राजगृहीमां बावी गंधर्व विवाहें चेलगाने परणी.
हवे नागसारथि अने सुलसा बेदु जण पोताना बत्रीश पुत्रोनुं मरण सांजली सुःख करवा लाग्यां, श्रेणिकें तेमने घेर ज धीरज थापी समजा व्यां, शोक निवर्ताव्यो. पड़ी ते बेदु कर्मना कटुकविपाक जाणी विशेषथकी श्रीजिनधर्मने आराधता थयां.
एकदा श्रीमहावीरस्वामी चंपा नगरीयें समोसया , तिहां अंबडपरि ब्राजकवेषी श्रीवीरदेवनो परम श्रावक , ते राजगृहि नगरें जावा लाग्यो, तेवारें नगवानने पूजतो हवो के स्वामी ! ढुं राजगृही नगरें जावं . या पने कोने का संदेशो कहेवो छ ? जगवाने कयुं सुलसा श्राविकाने अ मारो धर्मलान कहेजो. हवे अंबडपारिव्राजक वीरने वांदीने चाल्यो. विचाऱ्या जे सुलसामां श्यो गुण जे के बीजा अनेक श्रावक श्राविकाने मूकोने नी रागी पुरुष सुलसानेज धर्मलान कहेवरावे ? माटे का विशेष गुण हो वो जोश्यें. ढुं सुलसाना गुणनी परीक्षा करूं. एम चिंतवतो राजगृहामा पाधरो सुलसाने घेर आव्यो अने कहेवा लाग्यो के मने निदा आपो. हवे सुलसाने एवी प्रतिज्ञा ने जे सुपात्र टाली अन्यदर्शनीने निदा न आप वी, तेमाटें व्रतनंग थवाना नयथी तेने निदा न ापी, अने ते पारिवा जकनी सामुं पण जोयुं नहीं. तेवारें ते तेमज पाबो वली गामनी पूर्व दि शिनी पोलें चार नुजावालो हंसना वाहन नपर बेसी ब्रह्मान रूप लश्ने बेठो. पासें सावित्री बेठी, राजगृही नगरीना लोक सर्व नमस्कार क रवा गयां. पण सुलसा वांदवा यावी नहीं. बीजे दिवसें गामनी ददि पदिशिनी पोजें गरुडासन शंख, चक्र, गदादिक धारक कृमनुं रूप लइ बे तो, तेने जोवाने तथा नमस्कार करवाने सर्व लोक गयां, पण सुलसा ग ३ नहीं. त्रीजे दिवसें पश्चिम दिशिनी पोलें वृषनवाहन, शूलपाणि, कपाल धर, जटाधारी, अर्दोगें पार्वतीसहित माहादेवन रूप लइ बेगे. तिहां प
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
शन्ध जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ण सर्व लोक वांदवा याव्यां, पण सुलसा बावी नहीं. चोथे दिवसें उत्तर दिशिनी पोलें समवसरण प्राकार त्रय चामर अशोकरदादिक ऋदियें क री बिराजमान पञ्चीशमो तीर्थकर थबेगे. जैनलोको कहेवा लागां के पच्ची शमा तीर्थकर समोसस्या ने, चालो तेमने वांदवा जश्ये, पण सुलसायें कह्यु पञ्चीशमो तीर्थकर होयज नहीं. एतो को माया करी बेठो . महारो देव तो चोवीशमो तीर्थकर श्रीवीर विराजमान चंपानगरीयें समोसस्था ने तेज .
एवी सुलसानी परीका जोड्ने अंबडें विचास्यं जे एवा गुण एमां ने तो ज जगवंत नीरागी पुरुषं धर्मलान कहेवराव्यो , माटें ते योग्यज . पड़ी वैक्रियत्लब्धि विसर्जिने अंबड सुलसाने घेर आव्यो, अने कह्यु जे श्रीमहा वीरें तुमने धर्मलान कह्यो बे. एटलुं सांनजतां तेनी साहामुंजोयुं. हर्षित थइ बेसवाने आसन मूक्यु. कुशलादिक पूबवा लागी देरासरें देव जुहास्या, परस्परें हर्षवार्ता करी अंबड पोताने स्थानकें गयो.एम स्थिरता नामा नू पणने विषे सुलसा श्राविकानी कथा कही.
हवे पांचमा प्रनावना नामा नूषणनुं स्वरूप कहे :-(पनस्सप्पणा करणं के०) श्रीजिनशासनोनुं जे ते प्रकारे करीने प्रोत्सर्पणा एटले प्रसिदि नुं करवू तथा धार, तेने (पनावणा के०) प्रनावना कहीयें. साधुसाध्वी नी शक्तियें करी प्रनावना करे तथा श्रावक श्राविकानी शक्तियें करी प्रना वना करे. पण बतीशक्ति गोपवे नहीं ॥ ४२ ॥
हवे ए प्रनावनाने विषे कालिकाचार्यनो दृष्टांत कहीयें बैयें. जरतदेवें धारावास नामें नगर तिहां वैरिसिंह नामें राजा , तेनी सुरसुंदरी नामें पटराणी, तेमनो समस्त कला तथा रूपनो निधान एवो कालिक नामें पुत्र दे, ते एकदा प्रस्तावें अश्वक्रीडायें निकल्यो, ते घणा वखत सुधी यश्व कीडा करी विश्रांत थयो. उद्यानमांहे बेसवा माटे सारी बांयडानी जगायें जाय , एटलामां देशनामृतमेचे वर्षता एवा गुणसुंदर नामें आचार्यने दी ग, तेमने वंदना करीने कालकुमार पण देशनामृत पीवा बेगे. आचार्य पण योग्यजीव जाणी उपशम, संवेग, निरवद्यादिकनी करवा वाली धर्मदे शना थापता हवा. ते सांजली कुमर प्रतिबोध पाम्यो, तेवारें हाथ जोडीने आचार्यप्रत्ये विनववा लाग्यो के तमें इहां रहो. हुं माहरां माता पिताने सम जावीने दीक्षा लश्श. सरिये कमु “जहासुखं देवाणुप्पिया महापडिबंध करे
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
न्य ह” पनी कुमर आचार्यने वांदी घेर गयो, मातापिताने समजाववा लागो पण ते समजे नहीं. अने दीदा लेवानी याझा बापे नहीं, तेवारें कुमरें कडं मुझने नरक तिर्यचनां दुःख तथा रोग शोक आवे तेना जामीन थर ने घरमा राखो अने कहो के ए सुःखने तहारी पासें अमें थाववा नहीं दे गुं ? एवी जामीनगरी लखी आपो. __ माता पितायें कह्यु ए वातोनो कोइ जामीन थायज नहीं, कुमरें कह्यु श्रीगुणसुंदर आचार्य जामीन थाय ने, अने कहे जे के हुँ कहूं ते प्रमाणे क र, तो नरकादिकनां दुःख तथा रोगशोकादिक क्यारे पण न आवे, तेमाटे हुँ तेमनी पासें जाइश, अने जो तमें जामीन थराखो, तो ढुं तमारी पासेंज रहूं. एम महत्कष्टें मात पिताने समजावी महामहोत्सवपूर्वक पाँच शें राजपुत्रसहित गुरु समीपें यावीने दीक्षा लीधी. अनुक्रमें प्रज्ञा बलें करी सकल आगमशास्त्रना पारंगामीथया. योग्य जागी गुरुयें आचार्यपद दीधुं.
अनुक्रमें विहार करतां धारावास नगरें आव्या, तेमने समस्त स्वजनव र्ग वांदवा आव्यो. गुरुयें धर्मदेशना दीधी, पोतानी न्हानी बेहेन सरस्वती नामें हती. तेने प्रतिबोधीने दीक्षा दीधी, अनुक्रमें विहार करतां पांचशे साधुयें परिवस्या थका नवितव्यताने योगें उजाणीनगरीये आव्या. उद्यान नेविषे उतस्या, नगरनां लोक सर्व वांदवा आव्यां. गुरुये धर्मदेशना दीधी. सर्व लोक देशना सांजली गुरुने वांदी पोतपोतानें घेर गयां. ___ एकदा प्रस्तावें सरस्वती साध्वी गुरुने वांदवामाटे नपासरे आवे जे. ते वामां गई निन्नराजानी सवारी निकली, ते राजानी दृष्टि सरस्वती साध्वी न पर पडी अत्यंत सुंदर रूप देखी कामनूतें ग्रस्यो थको सुनटने हाथे साध्वीने पकडी पोताना अंतःपुरमां रखावी तिहां जेम सींचाणे ग्रहण करेली चीडी पुकार करे, तेम सरस्वती साध्वी पोकार करवा लागी. घणा विलाप करती हवी. अनुक्रमें ते वात प्राचार्य सांजली, तेवारें गई निन्नराजानी पासें जश न्यायरीतें समजाव्यो राजरीतें, धर्मरीतें समजाव्यो. एम अनेक प्रकारे सम जाव्यो तो पण जेम सन्निपातग्रस्त रोगीने को थौषध लागे नहीं, तेम राजाने उपदेश लाग्यो नहीं. गई निन्न ते खरेखरो गर्दनज थयो. जेमाटे प गुजातिमां पण सर्व पशुजातिने शिक्षा लागे, पण एक गधेडाने शिक्षा लागे नहीं. तेम ए राजाने पण शिखामण लागी नहीं. तेवारें गुरु पाढा वली
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
आव्या. श्रीसंघने सर्व वात कही. सर्व संघ मलीने ते राजाने समजाववा गयो, पण राजा महेलथी बाहिर निकट्योज नहीं. तो पड़ी कोनी आगल जर विनति करे! सर्व प्रधानो मली समजाववा गया, तेवारें तेने कह्यु के तमें जा तमारा मात पिताने उपदेश आपो. मुमने तमारो उपदेश लागे नहीं. तेवारें श्रीसंघनी समद गुरुयें प्रतिझा करी ॥ यतः॥ जे संघपवय पीया, पवयण उवधायगा नरा जेहा ॥ संघे नवघाय करा, तंडुवेरका का रिणोजेय ॥१॥ तेसि वच्चामिगर, जई एयं गदनिन्न रायमहं॥ नम्मूलेमि
सहसा,रजानहमजायं ॥॥ जे माटेागममांहे कर्तुं ॥ यतः॥ साहूण चेश्याणय, पडिणियंतह अवनवायेव ॥ जिण पवयस्स य हियं, सबबामे ण वारे ॥ ३ ॥ ___ एम संघ समद प्रतिज्ञा करीने पनी घेलानी पेठे नगरमाहे जमतां फ रे, अने कहेता जाय के ए गर्दनिन्न राजा ते महारी पागल शा हिसाबमा ढुं एनो राज्यलेद करी महारी बहेनने पानी लश्श. एम बोलतां चदुटा माहे फस्या करे, लोक सर्व गई निन्नराजाने वगोवे, अने कहे के राजा अ न्याय करे , एर्नु राज्य हवे रहेशे नहीं. ए राजा माहाअष्ट दे, साध्वीना शीलनो खमनार थयो, माटे हवे कांश ए राजा राज्य उपर रही शकशे नहीं. जे साध्वीना विरहथी कालिकाचार्य जेवा पण घेला थया. माटे ए महापापी राजा डे, महोटां पाप करे . इत्यादिक लोको परस्पर वातो करे, ते पण राजा सांजले, तो पण ते वात मनमां आगे नहीं. ___ हवे कालिकाचार्य राजाने समजाववो सर्वथा असाध्य जाणीने गबनो नार गीतार्थने जलावी तिहाथी चाव्या ते अनुक्रमें जतां जतां शाककुलने विषे गया. तिहां प्रथम साश्ना प्रधानने मल्या, तेनी साथें वार्ता विनोदें करी सलाहसंप कीधो, ते प्रधाने पोताना सांशसाथें आचार्यनो मेलाप करा व्यो. पनी प्रतिदिन सांनी पासें जाय मंत्रतंत्रादिकें तेने वस कयो.
एकदा प्रस्तावें आचार्य सांनी साथें गोष्टि करे बे, एवामां पडिहारे आवी सांश्ने विनव्यो, के हे स्वामी ! आपणा साहनो जे सांइ तेनो दूत आयो . सांयें कयुं श्हां तेडी लावो. तेवारें हारपाल तेने तेडी लाव्यो. आवी प्रणाम करीने सांइ पासें उनो रह्यो, अने कहेवा लाग्यो के साह ना साश्य बन्नुसाश्ने नेटणुं मोकन्यु डे, एवं कहीने बुरीनुं जेटणुं सांनी
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
១១
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. आगल मूक्यु. ते नेटणुं देखी वर्षाकालें जेम आकाश श्याम थ जाय, ते म ते सांइनु श्यामवदन थयु. आचार्य पूब्युं हर्ष थवो जोश्ये, ते स्थानकें विषाद श्यो ? तेवारे ते सांयें कह्यु के अमारा प्रनु सां जेनी उपर रुसे, तेने तेनी नामांकित तूरी मोकले. तेमाटे गुंजाणुं जे शे कारणे महारी अपरें कोप करीने बुरी मोकली ? हवे तेनी थाझा उलंघीयें तो स मस्त कुटुंब परिवार सहित अमने मारी नाखे, तेमाटे गले बुरी सीधी जोश्य. कारण के अमारो स्वामी उग्रदंम . आचार्य पूब्युं के, एकला त मारा उपरज रुष्ट थयो , किंवा बीजा घणा उपर रूठो ने? तेवारें सांड यें का महारी बरीनी नपर बन्नुमो आंकले तेमाटे बीजा पंचाj सां 5 उपरें बुरी थावी . ते पंचाएं सांइ सर्व गले बुरी लेशे अने उन्नुमो हुँ पण गले बुरी लश्श.
तेने गुरुये कह्यु मरवामांहे नली वार नथी, जो जीवता रहेशो, तो सें कडा गमे कल्याण देखशो. तेमाटे तमें सर्व पंचाणुए सांपने दूत मोक लीने तेडावो तो हुँ तमो सुधां उठे सांश्ने हिंदुस्थानमा तेडी जावं, अने तमोने राज्य अपा. एवं आचार्य- वचन सांजली पंचाएं सांइने दूत मो कली तेडावी लीधा, ते पण सर्वने प्राचार्य समजाव्या. सर्वे बन्नु एकमते थया. पली शाहाना साश्ना दूत विसर्जिने समस्त कुटुंबपरिवार साथें लई गुरुने बागल करी यानपात्र मंमावी सिंधुनदी उतस्या. सिंधुदेशमांहे थ सोरठदेशे आव्या. तिहां सोरतना राजाने वश करी सोरठ लीधी. एवामां वर्षा काल आव्यो, तेवार बन्नुंजणे मली बन्नुनागें सोरत वेहेंची लीधो. जू दा जूदा परगणामां रह्या सुखीया थया तिहां सुखमां वर्षाकाल व्यतिक म्यो अनुक्रमें शरत्काल श्राव्यो, धान्य नीपना, मार्ग चोखा थया.
तेवारें कालिकाचार्ये कयुं हुं तमोने ए देश अपाववा सारु तेडी नथी आव्यो, परंतु माहारी साथें चालो हुँ तमने मालवदेश जे सर्वदेशोनुं मंग न बे. जिहां घणा गोल, गहूं, शाली, अफिम प्रमुख उपजे , ते देश त मोने लइ आपुं. तेवारे सांश्यो बोल्या के, जो इव्यनो खजानो होय तो कटका थाय. ते खजानो खूटो ने तमारा माटे देश लूंटी शकता नथी हां सोरतमां तो अमें नोजन मात्र पामीयें बैयें, पण खजानो थतो नथी अने खजानाविना कटकाइ पण थाय नहीं. याचार्य ते वात मान्य
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. करीने एक कुंजारनो इंटवाह वेचातो लइ तेमां एक चपटीमात्र चूर्ण प्रदे प कयं. तेथी ते आखो इंटवाह सोनानो थक गयो, अने कह्यु के सुवर्णनो इंटवाह वेहेंची व्यो. ते उन्नु साश्ये वेहेंची लीधो. गुरुनी कला देखी हर्ष पामीने सर्व लश्करनी तैयारी करी चालता थया. ते अनुक्रमें लाटदेशने विपे आव्या. तिहां नृगुको बलमित्र नानुमित्रराजाने साथें लश्अनुक्रमें मा लवानी गडासंधी लगें अाव्या, तेवारें गई जिन्हें सांजल्युं जे कटक लश्ने कालिकाचार्य आवे जे. तेवारें पोते पण सङ थर लश्कर लश्ने साहामो लडवा चाली आव्यो, परस्पर यु६ थयुं. गर्द निन्न हास्यो थको अयवं तीना कोटमां पेसी पोल देइने मांहे वेसी रह्यो. कटके आवीने चारे बा जुर्ये कोट वींटी लीधो. कोटनी मांहे धान्य पाणि चारो प्रमुख जश् शके न ही प्रतिदिवस यु६ थाय.
एकदा सांठें कटक चडयुं पण माहे कोट शूनो दीतो, कोइ साहामो लडवा चडी श्राव्यो नहीं, तेवारें आचार्यने सांश्योयें पूब्युं के कोट सूनो देखाय जे, अने गर्दनिन्न गईन देखातो नथी, तेनुं गुं कारण हशे? तेवारें गुरुये कह्यु बाज आठमनो दिवस के तेथी ए गर्दजी विद्या साधे , माटे तमें जन कोटनी अटाली ऊपर गद्देनी हशे. पनी तेरों उंचा चडी जोयुं तो गईनी दीठी, गुरुने कर्तुं स्वामी गर्दनी देखाय ले ? तेवारें गुरुये कह्यु ए ग ईजी विद्या साधीने ए गर्दनी मूकशे तेनो शब्द जे को पद अथवा चतु प्पद जीवो सांजलशे, ते सर्व लोही वमता नूमियें पडशे. तेमाटे आपणो विपद तथा चतुष्पद सर्व कटक जे होय, ते हांथी उसरीने गईनीनो शब्द कानें न पडे, एटला दूर जइ बेशो जेम ए गईनीनो शब्द बापणे सांजलीयें नहीं. एवं आचार्य कहे ते सर्व कटक बे गान दूर जतो रह्यो.
वली आचार्ये कह्यु के एकशो आठ धनुर्धर शब्दवेधी होय ते महारी साथें आवो. पड़ी तेमांथी १०० शब्दवेधी अचूकबाणलक्ष वेधी एवा सु जट शोधी तेने पोतानी साथें लश् गुरु पण वाण लऽ कोट समीपें गया अने सर्व १०७ ने कह्यु, के जेवारें ए गईनी नूंकवा माटें मुख पसारे.एटले समकालें एकसाथेंज बाण मूकजो. ए गधेडीनुं मुख बाणोथी नरी मूकजो के जेम ए बोली शके नहीं, तेम करजो जो चूकशो तो एनो शब्द सांन लतांज तमारूं मरण , एम निश्चय जाणजो. तेमाटे घणी खबरदारीथी
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
नए
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. सावधान रहेजो, रखे चूकी जान. गुरुयें एवं कहे थके जेवं गधेडीयें नूक वामाटें मुख पसायुं, तेवांज एकसो ने आठ बाण समकालें लूटयां तेथी ते गधेडी, महोढुं जरा गपुं. नूंकी शकी नहीं. तेवारे ते गईनी विद्या, गर्द निन्नराजाना मुखमां मूत्र तथा लींमां करी लात मारी जती रही, गुरुयें कमु ए राजानुं बल एटबुंज हतुं ते गयु. हवे सर्व जण सामटा एकता थ नगरना कोटने नेलो, गुरु बागल थइ कटक लश्ने कोट नेव्यो,गुरुयें कह्यु लूंटशो मां. कोश्ने मारशो मां. नि:केवल गई निन्नने जीवतो पकडजो. एवं कही वडासाहनी आण वर्तावी गर्द निन्नने जीवतो गुरुनी आगल मूक्यो. के या तमारो वैरी , माटे तमारुं मन माने ते करो. ___ गुरुयें कडं अरे पापिष्ट ! अरे निलऊ ! अरे उष्ट ! अरे अकार्य कारक! हवे साध्वीनुं शीलनंग कयुं, तेनुं फल तुं पाम. एम कही वली करुणा याणीने कयुं तें अमारुं वचन न मान्यु, तथा संघर्नु वचन न मान्यु, सा ध्वीना शीलनुं खंमन कीg तेमाटें नरक तिर्यच गतिने विषे अनंत संसार जमीश ॥ यतः॥ जो अवगम संघ, पावोसोवपि माणमयलित्तो ॥ सो अ प्पाणं बोल, उरकमहासागरे नीमे ॥ १ ॥ सिरिसमणसंघ यसा, यणाए पा वंति जं उहं जीवा ॥ तं साहिठ समबो, जइ परजयवंति यो होइ ॥२॥ ते माटें ए पाप अालो प्रायश्चित्त कर, तो ब्रटीश, एवं कहे थके जेम सन्निपा तियाने दुग्धादिकनुं पान करवाथी विष व्यापे, तेम ते राजाने ए शीखाम ए वचन रुच्यां नहीं, तेवारें जैनयतिनी एवी मर्यादा डे के वैरीने पण मा रवो नहीं. एवं विचारी करुणा आणी तेने मूकी दीधो अने कह्यु के तहारे हवे था देशमा रहे नहीं. एम कही विसर्जन कस्यो. ते गर्दनिहन राज्य ज्रष्ट थयो थको वह लोकने विषे घणां दुःख पामी काल करीने नरक निगो दादिकनी गतिने विषे अनंता काल पर्यंत अनंता नव नमशे.
हवे गुरुयें जे सांइने प्रथम जय मल्या हता, ते सांइने अयवंतीनु राज्य आप्युं अने बीजा पंचाj सांश्ने सामंत पणे तेनी चाकरीमा राख्या, प ण ते सर्वगुरुनी आज्ञा मानवा लाग्या. पनी ते शाककुलमाथी आव्या मा टें शाक वंश कहेवाणो. सरस्वती साध्वीने पाचं मूलयकी चारित्र थापीने शुरू कऱ्या. पोते पण बालोर पडिक्कमीने पाढा गहमांहे याव्या. हवे सर स्वती साधवी तथा आचार्य सुखें चारित्र पालवा लाग्या, जिनशासननी उ
३७
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. नति करवाथी समस्त देशनो तथा नगरनो संघ सर्व हर्ष पाम्यो. जेम को इनु निधान गयुं होय, तेने कोई पाबु वाली आपे, ते जेम हर्ष पामे, तेम सरस्वती साध्वी पोतानुं गयेलु शील तथा गयेलू चारित्र पामी हर्ष पामी.
हवे जगुकबने विषे श्रीकालिकाचार्यना नाणेज बलनानु कुमार राज्य करे . ते आचार्यनी नगिनी जानुश्रीना पुत्र जे, ते बलमित्र जानु कुमार गुरुने तेडवाने अर्थे मतिसागर नामा प्रधानने मोकल्यो, तेणें यावी कह्यु के स्वामी ! तमारा नाणेजें तमोने घणी विनति करी कहेवराव्यु ने, के एक वार श्रीनरुचें चैत्य जुहारवाने पधारोजेम अमारी उत्कंठा पूर्ण थाय, ते सांजली घणे कष्ठे शाकराजाने समजावी गुरु जरुचे पधास्या. नाणे जे घणा महोत्सवे पेसारो कराव्यो. स्वजनवर्गने हर्ष कपनो. गुरु प्रतिदिवस धर्मदेशना दीये, ते देशना सांजली बलनानु कुमार प्रतिबोध पाम्यो. कह्यु के मुफने दीदा आपो, गुरुयें समस्त स्वजनवर्गने समजावी दीक्षा दीधी.
हवे गुरुनी देशना सर्वजनोने मीठी लागे, पण एक राजाना पुरोहित ने कडवी लागे, जेम सूर्य उग्यो ते सर्व कोइने रुचे, पण एक घूडने रु चे नहीं, ए दृष्टांतें जागी लेवू.
ते पुरोहित गुरुनी संघाते वांकुं बोले, तेम तेने 'वांकुं लक्कड वांकुंवहे' एउ खाणो जाणीने गुरुपण प्रश्न प्रमुख करे वलतुं ते बोली न शके एवो करी मूके.
हवे ते पुरोहित मनमा प्रक्षेप वहेतो थको राजाप्रत्ये कहे के हे स्वा मी ! ए महातपस्वी यति माहाशीलवंत सत्यवंत , पण ए यतिना पद अाक्रमे माहा प्रायश्चित्त लागे, तेमाटें जे वाटें ए जाय तेवाटें तमारे जाएं युक्त नथी. राजा पण उब्बलकामा थाय माटे जेम कोई कहे तेम तेने का ने लागे, परंतु तत्त्वातत्त्व विचारे नहीं ॥ यतः ॥ बल्लीनरिंद चित्तं, वरका एं पाणियं च महिला॥ तत्रय वच्चंति सया,जय धुत्तेहि निऊति ॥१॥ राजायें पुरोहितने पूब्युं एना पदनुं आक्रमण केम टले ? पुरोहितें कडं अनेषणा करावीयें, तो टले.
राजा पुरोहितने वचनें कामण्यो थको जाणे पुरोहितें कामण कीयां होय नहिं एवो थको कहेतो हवो के हे पुरोहित ! तुं जाणे तेम कर. जे म ए गुरु जता रहे ते उपाय कर, इहां दूध मांजारने जलाव्यु, ते दृष्टांत आवी मन्यु. पबी ते पुरोहित लोकोने उपदेश दीये जे गुरुने आधाकर्मी
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
शए
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. आहार आपीयें. तो आपणने आप्यानुं फलज होय, पण ए वातमां पाप नथी, तेवारें लोक पण नश्क ते बाधाकर्मी नेली नेली वस्तु गुरुने वहो रावे. यति जिहां जिहां वहोरवा जाय, तिहां सर्वत्र अनेषणीय आहार दे खे, ते प्रावी गुरुने कहे, तेवारें गुरुये पण राजारूपी दूध ते पुरोहितरूपी आउणने योगें विनष्ट थयुं जाण्यु, तेमाटे हवे शहां रहेवानो लाग नथी॥ यतः॥ असिवे कणोयरिए, रायासप्पेनएय गेलने ॥ एएहिं कारणे हिं, य पत्ते हो निग्गमणं ॥ १ ॥ एवं विचारी गुरु पजोसण कस्या विनाज चालता थया. उपड्या नगवंतने न गणे चोमासुं, ए उखाणो साचव्यो. अनुक्रमें चालता चालतां मरहठदेशे पश्हाणपुरना संघने बागलथी जणाव्युं, के अ मो आवीयें बैयें. जिहां सुधी अमें आवीयें नहीं तिहां सुधी तमें पजीस ण करशो मां. अमो आव्या पली पजोसण करगुं. हवे तिहां परमश्रावक शालिवाहन राजा ले ते गुरुनु बागमन सांजली हर्ष पाम्यो थको, श्रीसं घनी साथे घणे आम्बरें साहामो आव्यो, घणे विस्तारें नगरप्रवेश महो त्सव कीधो. शालिवाहन राजा प्रमुख प्रतिदिन धर्मदेशना सांगले. घणाघ ममहोत्सव थाय. अनुक्रमें पजोसरापर्व नजीक पाव्यां.गुरुयें राजाप्रत्यें कडं नादरवा शुदि पंचमीने दिवसें पजोसण .राजायें कयुं तेहीज दिवसें इंश्महोत्सव ले माटे लोकानुरत्ति ते दिवस साचव्यो जोश्य. तेमाटे पजो सानां कर्तव्य जे पूजा स्नात्रादिक ने, ते सचवाय नहीं. तेथी प्रसाद क रीने बहने दिवसें पजोसण करो के, जेम पजोसणनां कर्त्तव्य सर्व सुखें स चवाय. गुरु कहे ॥ अविचल मेरुचूला, सूरो वा उग्गमित अवराए ॥ न यपंचमी रयणी, पतसवणा अश्वमई॥१॥जहाणं नगवंमहावीरे वासाणं वास राएमासे विश्कते वासावासं पङोसवे तहाणं गणहरावि, जहाणं ग गहरा तहाणं गणहरसीसा, जहाणंगणहरसीसा तहाणं अम्मगुरुयो,जहाणं अम्मगुरुणो तहाणं अम्मेवि वासावासं पङोसवेमोतंरयणि गोयश्कमिळा॥
एबुंसांजली राजायें कयुं चोथे पजोसण करो, तेवारें सूरि कहे एमज हो. चोथे पजोसण करतां दोप नथी “अंतराविनसेकप्पा पोतं रयणिं उवा यणावि तए” ए श्रीकल्पसूत्रना अधरने मेले चोथे पंजोसण करतां दो ष नथी,ते वचन सांजली राजा प्रमुख सकल संघ हर्ष पाम्यो. राजायें ज ३ अंतःपुरमांहे वात कही. अंतःपुरी हर्ष पामती कहेवा लागी जनुं थयुंजे
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
शए जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. अमावास्यायें तो उपवास , तेने पारणे साधु अघ्म तपर्नु उत्तर पार| करशे तेने प्रतिलानना करी पनी पारणुं करीशं. तेथी महोटो लानयाशे, ॥यतः॥ पहसंतगिलाणेसु, आगमगाहीसु तय कवलोए ॥ उत्तर पारणगं मि य, दिन्नंसु बदु फलं होई ॥ १ ॥ __ पड़ी ते लोक हर्ष पाम्यां थकां साधुनक्ति विशेष करे मरहठ्देशे ते दि वसें साधुनी पूजानो महोत्सव प्रवत्यो. ए कारणे श्रीकालिकाचार्यै चोथे पजोसण पाण्यु, ते सर्वसंघेमान्युं ॥ यतः ॥ असहाण न वऊं,गीयबवा रियंति मयत ॥ आयरणविदु आणंति, वयण सुबहुमणंति ॥ १॥ तेवारें ते समयें जेटला सुविहित आचार्य हता, तेणें कालिकाचार्य- वचन प्र माण कीj. जेमाटें जेणे सुविहिताचार्य, वचन न मान्युं तेणें तीर्थकर नुं वचन पण न मान्युं, अने जेणें तीर्थकरनुं वचन न मान्यु तेणे सुवि हित आचार्य, वचन पण न मान्युं एम परस्पर संबंध जाणवो.
तथा चोथ प्रमाण करवाने अर्थे चोमासा त्रण पण चौदरों कीधां थ न्यथा चोमासा त्रण पूनमें हता. एम कालिकाचार्यनुं वचन सघला गबवा सी आचार्य मान्यु, पनी घणाकालांतरे एटले संवत् ११५ए वर्षे पूनमीयो मत प्रगट थयो. तेमांथी वली संवत् १२०४ना वर्षे आंचलीयो मत प्रगट थयो, पण कालिकाचार्यना वखत मांहेला कोइ पांचमीया देखाता नथी ते माटे जापीयें बैये जे चोथर्नु पजोसण ते शुकडे अने पंचमीयें करे ते मिथ्यावाद जे. एम उत्तममतिना धणीय विचारवं. तथा अधिक मास यावे श्रावण महिने पजोसण करे , ते पण घटमान नथी जेमाटे पजोसण नादरवा शुक्तपद प्रतिबंध ले माटे श्रावणनां पजोसण करवां ते पण एक मत वादज कहेवाय, पण गबपरंपरा न कहेवाय. ए पण विचारजो.
हवे कालिकाचार्य अनुक्रमें विहार करता कर्मयोगें तेमना सघला शिष्य मुर्विनीत थया, को आज्ञा माने नहीं, अने शास्त्रमा तो आज्ञा तेज प्रमा ण ॥ यतः ॥ बम दसम ज्वालसेहिं मास मासखमणेहिं ॥अकरितो गुरुवयणं, अणंत संसारि हो ॥ १ ॥ गुरुयाणा नंगा, र क तवंपि काकणं ॥ तहविहु पत्तो नरयं, सो कुलथवाजून साहू ॥२॥ गुरुवाणाय कमणे,या वित्तो करे वित्तवं ॥ तहविन पावश्मोरकं, पुवनवे दोवई चेव ॥
हवे आचार्य शिखामण आपे,तेवारें शिष्य ननंठ वचन बोले ते सांगली
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. गुरु विचारे ॥ यतः ॥ तारिसा मम सीसा, जारिसा गलिगदहा ॥ गलिग हहे चश्त्ताणं, दळं गिमहासंजमं ॥ १ ॥ तहा बँदेण बागाउ, चिहए य बंदेण॥बंदेश वठ्ठमाणोवि, सिसे बंदेण मुत्तवे ॥ २ ॥ हुँ एमने बोडी जावं तो महारं चारित्र सुखें पले अने ए शिष्यनी शुदि पण ठेकाणे आवी जा य. एवं चिंतवी ते परमार्थ शय्यातर श्रावकने कही वली एवं कर्तुं के,अमे अमारा शिष्यना शिष्य श्रीसागरचं याचार्य ने तेमनी पासें जागुं. तमोने महारा शिष्यो घणाज अमारा अर्थीथका पूढे तो जवाब आपजो नहीं, कां सहेज साज पूले तिहांसुधी जवाब आपशो नहीं. एम शय्यातर श्राव कने समजावीने रात्रिय शिष्योने सूता मूकी आचार्य चाल्या, ते अविहि नप्रयाणे चालतां सागरचंझचाय पासें गया. सागरचंज्ञचाये जाण्यु जे को इक मोसो आव्यो , माटें अवझायें उठी उना थया नहीं. बेसवाने या सन पण आप्युं नहीं ॥ यतः ॥ अपुवं दंहुणं, अनुमणं तु होइ कायवं ॥ सादुम्मि दिहपुन्चे, जहारियं जस्स जं जोगं ॥ १ ॥ एवो आगमोक्त आचार ने ते अहंकारथी संनास्यो नहीं. श्राचार्य आवी पासें बेग, सागरचंशचा ये वखाण कयुं, वखाण पूर्ण थये थके कालिकाचार्य प्रत्यें पूब्युंजे में केर्बु वखाण कीg? याचार्ये कयुं रूडं कीg.
पनी कालिकाचार्यने पूबता हवा के मने विषमनाव व्याख्यान पूनो? तेने गुरुये कह्यु धर्मास्तिकाय वादनुं वखाण करो. तेवारें गुरुसंघाते धर्मा स्तिकायवादनी प्रमाणवादें चर्चा करी, पण गुरुयें पोतानुं नाम तथा स्व रूप प्रकट न कयुं ॥ यतः॥ देवतानां गुरूणां च, नाम नोपपदं विना ॥ बरेन्नैव जायायाः, कथंचिन्नात्मनस्तथा ॥ १ ॥ ए प्रकारें गुरु सागरचंशचार्य पासें रह्या पण कोइ उलखे नहीं.
पालथी तिहां ते उष्ट शिष्य प्रनातें जाग्या थका आचार्य प्रत्ये न दी ठा, तेवारें शोधवा लाग्या, शोधतां न मल्या, ते वखत शय्यातर श्रावक पासें जश् पूबवा लाग्या के आचार्य किहां गया ? श्रावकें कडं दुं गुंजा j? तमारा गुरुनी वात तमें जाणो. तेवारें शिष्य बोल्या जिहां गया हशे तिहां तमने कहिने गया हशे. तमने कह्या विना जाय नहीं. ते सांजली श्रावक नमुह चडावी बोल्यो अरे अविनीतो! तमें गुरुनी आज्ञा मानता न हता, अने गुरुनी साथे विरु६ वचन बोलता हता, तेवारें गुरु तुमथी
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वाजें आवी चाख्या गया. हवे गुरु विना अब थका रडता फरो ॥ यतः ॥ रुस चोजतो, वह हियएए अणुसर्य नगि ॥नव कहिकरणिके, गुरुस्स आलोण सो सीसो ॥ १ ॥ जीहाए विलिहितो, न नद सारणा जहिं त जि॥ दंमेण य वि रोहो, गुरुकुलवासेण कित्तस्स ॥ २ ॥ एम शय्यातर श्रा वकें घणुये हंकास्या बता जय पाम्या थका बोल्या जे अमने गुरुनो वरांसो पड्यो आज पनी अविनीतपणुं नहिं करीयें, माटे अमने गुरुनी शुदि कहो, तो तिहां जश् गुरुने पगे लागी अविनय खमावी गुरुनी आझामां रहीयें!
त्यारें शय्यातर श्रावकें ते सघला चेलाने पाधरा थया जाणीने कह्यु के गुरु आहींथी अमुक नगरें गुरुना शिष्यना शिष्य श्रीसागरचंशचार्य , तेमनी पासें गया , तिहां तमें जान. __ पड़ी ते सर्व शिष्योनो समुदाय तिहां चाल्यो. मार्गमां लोक पूले ए कोण जाय जे ? तेने कहे के ए कालिकाचार्य जाय जे. एम परंपरायें साग रचंाचाय सांजल्यु, जे महारा गुरुना गुरु कालिकाचार्य आवे . तेवा रें हर्ष पाम्यो थको पासें बेठेला तेहिज कालिकाचार्य डे, तो पण पोतें अजाण , माटें तेमनेज कहे , के बाज महारा पितामह श्रावशे, ते वारें तेणें कडं में पण ए वात सांजली जे. एम करतां केटलिएक वेलायें साधुनो समुदाय आव्यो. सागरचंाचार्य पोताना गुरुयाव्या जागी ठी नना थया, तेवारें साधु बोल्या तमें बेसो. अमें तो सर्व यति बैये, अने आचार्य तो पहेलाज घणा दिवस थया तमारी पासें अाव्या . सागरचंश चार्ये कयुं हां तो एक मोसो साधु आव्यो, प्राचार्य तो अाव्या नथी. एम बात करे , एटलामांज गुरु पण बाहिर मिलें गया हता, ते या वी पहोता. तेमने साधुसमुदाय जइ पगे लाग्यो. सागरचंशचार्ये कह्यु ए कोण ? शिष्य बोल्या ए कालिकाचार्य आपणा गुरु . ते सांगली साग रचंशचार्य लगा पामीने खमावता हवा. अने घणुं फूरवा लाग्या के हा हा में चिंतामणिरत्न महारा हाथमां आव्युं पण जाण्युं नहीं !!! गुरुये कह्यु ए तहारो वांक नथी,परंतु अझाननो वांक . पडी तेणे अज्ञान दोष खमावी गुरुने हादशावर्त वंदन करी अशन, पान, खादिम,स्वादिमादिकें नक्ति करी.
हवे गुरु वखाण करे अने सागरचंशचार्य पासें वेसे ते सागरचं प्र थम झाननो गर्व कीधो , माटे ज्ञानगर्व उतारवाने अर्थे वखाणमां गुरु
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
श
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. दृष्टांत देखाडवा सारं एक पाथो ते नाजनविशेष गुरुयें नदीनी वालुकायें नराव्यो. वली खाली कराव्यो वली जराव्यो वली खाली कराव्यो एम क रतां वालुका सर्व नडी गइ, अने पाथो खाली रही गयो. सागरचंशचायें पूज्यु के स्वामी ! ए श्यो विनोद कस्यो ? तेवारें गुरुयें तेना उपर नय दे खाड्यो के सांजल ! हे वत्स ! जेम वालुकायें नरेलो पहेलो संपूर्ण पायो तेम सुधर्मा स्वामी कने प्रतिपूर्ण श्रुत पामीयें, ते पण वली सातिशय पा मीयें. तेनी अपेक्षायें जंबुस्वामीमां कांक न्यून अल्पातिशय पामीये. जे कारण माटे बहाणवडीया साधु डे ए प्रकारे श्रुत न्यून थातां थातां या वत् महाराथकी तहारा गुरुपासें अति हीनश्रुत, अने तेथकी वली तहारे विपे हीनतर पामीये ते पण फुःसमकालना अनुनावथकी प्रणष्टातिशय पामीये. तेमाटे हवे श्रुतनो गर्व न करवो ॥ यतः ॥ आसवणं मईन, तर तम जोगेण ढुंति माविनवा ॥मा वहन कोवि गवं, अहमे को पिंमिन चं ॥ १ ॥ एवं कहे थके सागरचंशचार्य श्रुतगर्वनुं मिलामिछक्कड दे गुरुने खमाव्या. पली गुरु घणा शिष्यने परिवार परिवस्या तिहांथी विहार करी जिनशासनने प्रनावता पृथ्वीतलने पवित्र करता पहाणपुरने विपे अाव्या.
• हवे एकदा सौधर्माधिपति शकेंद माहाविदेहने विषे सीमंधरस्वामीनां वरखाण सांगले , तिहां अधिकार विशेषे निगोदना स्वरूपनो विचार चा व्यो ॥ यतः ॥ गोलाय असंखिजा, असंख निगोह हव गोलो ॥ इकमि निगोयए, अणंत जीवा मुणेयवा ॥१॥ अलि अपंता जीवा, जहिं न पत्ता तसा परिणामो ॥ उवङति चयंति य, पुणोवि तव तव ॥२॥ इत्या दि सौधर्मे निगोदना विचार सांजली हर्ष पाम्यो थको प्रजुने पूबतो हवो. हे स्वामी! आजना समयमांजरतदेत्रनेविपे एवा निगोदना विचार कहेनार कोइ किंवा नथी ? तेवारें लगवाने कयुं हे सौधर्माधिप! जेवो अमो नि गोदनो विचार कह्यो,तेवो विचार कहेनार जरतदेत्रमा एककालिकाचार्य जे.
ते वात सांजली इंश् आश्चर्य पाम्यो थको वृक्षब्राह्मण, रूप धारण करी ललाटें महोटुं टीबुं करी बादुयुग तथा हृदयमां तिलक करी महोटी, धोली, सर्वत्र सरखी जे दाढा, तेणें करी शोनायमान थश्ने कालिकाचार्य पासें आवी बेगे अने पूब्युं, कहो स्वामीजी ! श्रीजिनशासनने विपे निगो दना विचार केवी रीतना कह्या जे? आचार्य हर्ष पामीने जेहवा सीमंधर
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
शएम जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. स्वामी विचार कह्या तेवाज कही संनलाव्या. इं३ वली विशेष ज्ञान जोवा माटें पूज्युं, के स्वामी ! हुँ १६ बु अगसण करवा वांबुं बु. माटें म हालं आयुष्य शेष केटलुं ले ? एवं कहीने हाथ देखाडवा मांझयो तेवारें आचार्य श्रुतोपयोग दे पद, मास, वर्ष, पल्योपमादिकनी वृद्धि करतांबे सागरोपमायु कयुं, ते सांजली इंडें कयुं महाराज! मनुष्यनुं एटलुं आयुष्य क्यांथी होय? आचार्य कर्तुं मनुष्यनुयायुष्य एटलुं न होय पण तुं तो इं बो. एवो बाचार्यनो ज्ञानातिशय देखी हर्षित थयो थको इंऽ बोल्यो, स्वा मी! धन्य ने तमारा झानने जेना श्रुतझाननी सीमंधरस्वामीये पण सादी पूरी,एम कही घणी प्रशंसा करी कहेवा लाग्यो,स्वामी! मुज सेवकने का कार्य प्रसाद करो. आचार्य कर्तुं जे कार्य करवानुं हतुं ते करी बेठा छैयें, बीजुं निःस्टहीने वली गुं कार्य करावq होय ? एवं आचार्य कहे थके य ति सर्व गोचरीयें गया हता, तेमने जाण कराववामाटे इंघ महाराज न पाश्रयनुं बारj फेरवी गुरुने वांदीने स्वर्ग गया.
केटलिएक वेला पनी यतियो वहोरी आव्या पण उपाश्रयनुं बार[ देखे नहीं, तेने गुरुयें आवी देखाड्युं अने इंश् आव्या संबंधि सर्ववृत्तांत यति यो आगल कही संनलाव्युं. यति तथा श्रावक लोक सर्व आश्चर्य पाम्यां. श्रीजिनशासननी प्रनावना थश्. एम जिनशासननी घणी प्रनावना करी आयुनो अंत आव्यो जागी अनशन यादरी आहीं मनुष्योने प्रतिबोधी पली देवसनामां जइ तिहां देवताने प्रतिबोध देवा गया. ए प्रनावनारूप स म्यक्त्वनुं पांचमुं नूषण तेनेविषे कालिकाचार्य- दृष्टांत कह्यु.
यहां एक शंका रहे डे के कालिकाचार्यजी त्रण थया , तेमां प्रथम श्रीविक्रमाजितना संवतनी आगल श्रीपन्नवणाजी सूत्रना कर्ता जे कालि काचार्यजी महाराज थया , तेमने इंऽमहाराज निगोदना विचार पूबवा आवेला , एवं महारा सांजलवामां आव्युं बे, अने या कालिकाचार्यजी महाराज, लग जग विक्रम संवत्ना एए३ वर्षे विद्यमान हता, माटे तेम नुं तथा एमर्नु अगीयारशे वर्षनुं लगनग यांतलं डे, तेम बतां जे प्रत उप रथी ए पुस्तकमें बाप्युं बे, ते प्रतमा ए वात लखेली हती तेथी में बापी जे.पनी जेम बीजी प्रतोमां अथवा अन्यग्रंथोमां वृक्षवचन होय ते प्रमाण .
इतिश्री तपागबालंकारोपाध्याय श्रीशांतिचं गणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्न
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्व सित्तरी.
चंगणि श्री सम्यक् रत्नाधिष्ठान श्रीसूर्यपुरस्थादि चतुर्विधसंघस्य चतुर्द यष्टम्यादिपर्वसु वांचनार्थ अप्रमत्त तथा पौषध प्रतिपालनार्थ विरचिते श्री सम्यक्तरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्व सप्ततिकाबालावबोधे पंच सम्यक्त्व नू पण स्वरूपनिरूपण नामा सप्तमोऽधिकारः समाप्तः ॥ ७ ॥
हवे समकेतना पांच लक्षणनुं यामुं अधिकार कहे बे. ॥ लरिक सम्मत्तं, हियय गयं जेहिं ताई पंचेवा ॥ नवसम संवेगो तह, निवेयणुकंप बिकं ॥ ४३ ॥ अर्थः- ( जेहिं के० ) जेणें हेतुयें करी (हियगयं के० ) हृदयगत ( सम्मत्तं के० ) सम्यक्त्वने (लरिकजइ के ० ) लखीयें जालीयें जे या अमुक व्यजीवना हृदयमां उपशमादिक समकेत वे, एवं जालीयें जेम घूमें करी पर्वतनेविषे न जाणीयें एटले पर्वत विषे यहिशे, त्यारेंज धूम देखाय बे, पण अभिविना धूम होय ज नहीं तेम ए पांच लक्षण जे कहेशे, तेविना सम्यक्त्व पण नहींज हो य. जो ए पांच लक्षण होय तोज ते समकेतधारी होय जेम जे बत्र चा मरादिक धरावतो होय तेज राजा कहेवाय, तेम ए पण जाणवुं.
3
(
(ताई के ० ) ते समकेतनां लक्षण (पंचेव के०) पांचज होय, तेनां नाम कहे :- एक (नवसम के० ) उपशम, बीजुं (संवेगो के०) संवेग (तह के ० ) तथा त्रीजुं (निवेय के ० ) निवेद, चोथुं (अणुकंप के० ) अनुकंपा, पांचमुं ० ) प्रास्तिक्य ए पांच नाम कह्यां. हवे एनो अर्थ कहीयें बैयें. प्रथम उपशम ते कमा धारण करवी, बीजुं संवेग ते जववैराग्य संसार ना सुखनेविषे यासक्तता न होय. त्रीजुं निर्वेद ते मोहनी वांबा एटले म मां एवो विचार रहे, के ते दिवस केवारें यावशे, के जेवारें हुं मोद सुख पामीश ! एवी वांडा हरहमेश तेना मनमां रहे. जेम घृतपूर खावानी वांबा रहे. पी ते तुरत न पामे ते प्रारब्धाधीन बे पण घृतपूर खावानी श्वा र हे ते पण रूडी जावी तेम मोद पण तुरत पामे अथवा घणे काले पामे तो पण मोह पामवानी इब्बा रहे, ते पण रूडी जावी. चोयुं अनुकंपा ते दुःखीया जीवने विषे करुणा रहे. बती सामर्थ्यं दुःखीया जीवनुं दुःख टा लेने न टाली शके तो पण मनमां एवी अभिलाषा रहे जे या जीवने डुं दुःखथकी मुक्त करूं तो रूडं. पांचमुं खास्तिक्यता ते श्रीवीतरागें जे
36
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जीवादिक नवतत्त्व कह्यां , तेनेविषे शुरू सदहणा राखे, तेनां मनमां ए वात तो निश्चल थयेली होय के जे श्रीअरिहंतजीयें नारख्युं , ते सर्व था अन्यथा होयज नहीं. एवे वैराग्य बराबरी थाय ॥यतः॥ श्यसिलिंगजूया खल, उरकल कराजिणेहि परमत्ता॥नावपहाणा सहणं, अन्ने दवलिंगधरा ॥१॥ संपुरमा विहि किरिया, जावेण विणा न ढुंति किरियत्ति ॥णयफलविग लत्तण, गवेजववायणाएणं ॥ २ ॥ आणोदेणाणंता, मुक्को गेवेजगेसुन सरीरा ॥ एयतबा संपुरमा, एस किरियाए उववा ॥ ३ ॥ ताणंत सोविप त्ता, एसाण दसणंति सिचंति ॥ एवं मग्गहकुत्ता, एसाण बुहाण इति ॥ ॥ ४ ॥ इयणिय बुद्धिमं, बालोवे कण व जश्यत्वं ॥अयंत नावसा, नर्वविरह महं जगेण ॥५॥ इति चतुर्दश शिलांगपंचाशके ॥ ४३ ॥ हवे प्रथम उपशम लक्षण, अने बीजुं संवेगनामा लक्षण, स्वरूप कहे जे.
॥अवराहेवि महंते, कोहाणुदनवियाहिं नवसम्मो ॥ संवेगो मुरकं पश्, अहिलासो उ नव विरागो ॥ ४४ ॥ अर्थः- कोश्य ( महंते के ) महो टो आपणो अपराध कस्यो, ते अपराधीनो (अवराहेवि के०) अपराध डे तो पण तेनी नपर ( कोहापुदवियाहिं के ) क्रोधनो अनुदय करवो एटले क्रोध प्रगट न करवो, तथा ते क्रोध- फल जे ताडनादिक ते पण न करवू तेने ( नवसम्मो के०) उपशम कहियें जेम कुरगडूना पात्रामांहे, यति धुंक्यो तोपण तेने उपशम आव्यो परंतु लेशमात्र कषायोदय न थयो ॥ यतः॥ कडुअ कसाय तरूणं, पुप्फ च फलं च दोवि विरसाइं॥ पुप्फेण जाइ कुविन, फलेण पावं समायर ॥१॥ जो पण बद्मस्थने विपे सत्तामां कपाय होय, तो पण ते उदय प्राप्त न करे, तेने मावंत कहीयें ॥ यतः॥ किंसकावुत्तुजे, सराग धम्ममि को अकसा ॥ जो पुण धरिज धणियं, कुच्चयः जालि एस मुणि ॥ १ ॥ ए गाथाना पूर्वा, उपशमनुं स्वरूप कह्यु हवे कथा कह्या पड़ी गाथाना उत्तराई संवेगनुं स्वरूप कहेशे. ___ए उपशम कमानी उपर मेतार्य मुनिनुं दृष्टांत कहे :- सांकेतपुरने विषे चंशवतंसक राजाने वे स्त्री परमवन्नन . प्रथम सुदर्शना अने बीजी प्रियदर्शना, तेमां सुदर्शनाने एक सागरचं अने बीजो मुनिचं ए बे पुत्र जे, अने प्रियदर्शनाने पण एक बालचं अने बीजो गुणचं एवे नामें बे पुत्र बे, ते मेरुपर्वत जेम वे सूर्य अने वे चंमा तेणें करी शोने,तेम चंश
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
शण वतंसक राजा पण पुत्रनां बे जोडलायें करी शोने जे. राजायें सागरचंइने युवराज पदवी आपी अने मुनिश्ने उऊयणीनुं राज्य आप्युं.
एकदा हिमंतऋतुने विषे राजा, राज्यकार्य करी मंत्रीश्वर प्रमुखने विस र्जीने रात्रं वासघरने विषे आव्यो. घरमा घणो नद्योत करतो दीवो दीठो. तेवारें विचायुं जे ए दीवो ज्यां सुधी उलवाइ न जाय तिहांसुधी महारे कानस्सग्ग पारवो. एम निर्धारी कानस्सग्ग धारी ननो रह्यो. वली प्रथम प्रहरनेविपे शय्यापालिकायें जाण्यं जे रखे अंधकार थाय? एवी वांबायें ते दीवो सींच्यो. पडी ते दीवायें करी जेम बाह्य अंधकार नाश पामे, तेम गुनध्याने करी राजानो कर्मरूप अंधकार नाश पाम्यो, एमज बीजे त्री जे अने चोथे पहोरें पण शय्यापालिका दीवो सींचती जाय, पण ते राजा नो अनिग्रह जाणती नथी, हवे जेवारें थोडीसी रात्रि शेष रही, तेवारें शय्यापालिकाने उघ श्रावी गइ. दीवो बूझाइगयो जोइने राजायें कानस्स ग्ग पायो, कानस्सग्ग पारी जेटले शय्यायें सूवा जाय, तेटले घणो वखत सुधी कानस्सग्गमा रह्या हता, तेने लीधे पग लोश्य नराणा. तेथी जेम नि नवद त्रूटी पडे, तेम राजानुं सुकुमाल शरीर नूमियें पड्युं, तेवारें नम स्कारमंत्र स्मरण करतो गुनध्याने आयु परें मरण पामी राजा स्वर्गे गयो. प्रनातें खबर पडवाथी सर्व परिवार शोक करतो तेनी अंतक्रिया करी.
हवे सागरचं पोतानी उरमान माताने कहेवा लाग्यो, ढुंदीदा लनं. अने तमारा पुत्रने राज्य आपुं, उरमान मातायें कडं राज तमोने बाजे माटे तमें राज्य जोगवो महारो पुत्र तमारी चाकरी करशे महोटा नाश्नी चाकरी करवामां कां लाज नथी. एम कहे थके मंत्रीश्वरें सागरचंइने राज्य बाप्युं. हवे स्त्रीनुं चित्त चंचल थाय डे माटे उरमान मातायें विचामु जे एने मारी नाखीने महारा पुत्रने राज्य अपावं, एवु चिंतवी ते बल जोयां करे. ____एकदा प्रस्तावें सुदर्शना राणी सागरचंइने अर्थे दासीने हाथे उद्या ननेविषे एक लाडु मोकव्यो, प्रियदर्शनायें ते दासीने पूब्युं तुं क्यां जा य ? दासीयें कह्यु राजाने उपवासना पारणा मात्रै लाडु लइ जावं बुं. तेवारे प्रियदर्शनायें दासीना हाथथी लाडु ल लघुलाघवी कलायें तेने विष लिप्त करी तेमज दासीना हाथमां पाडो आप्यो. दासीयें जश् सागर चंराजाने याप्यो, तेणे विचायुं जे प्रथम न्हाना नाइने खवरावीने पनी
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०० जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. हुँ खानं, तो तीक. एवं विमासी तेमांथी अडधो लाडवो लघु नाइने वहेंची प्राप्यो नाय तरतज खाधो. तेवुज तेना शरीरमां विष व्यापी गयं. अने नमियें पड्यो. राजायें औषध प्रमुख करी लघुनाइने जीवाड्यो. पडी दा सीने पूब्युं, कोना हाथथी लाडवो लीधो हतो? तेणें प्रियदर्शनानुं नाम कह्यु. राजायें विचास्युं ए काम एणे कयुं हशे, पण जो ए लाडु में आ रोग्यो हत, तो अपध्याने मरी नरकें जात, माटे हजी सावधान थावं. ___ एम विमासी प्रियदर्शनाना पुत्रने राजपाटें बेसाडी पोतें दीदा ल अनुक्रमें गीतार्थ थया. विहार करतां उऊयणी नगरीयें अाव्या. तिहां साधुना संघने पूर्वा जे तमारूं चारित्र सुखें पले ले ? तेवारें यतिना समु दायें कह्यु राज्यपुत्र तथा पुरोहितपुत्र नलंठ , ते यतियोने संतापे में, माटें शहां रहेQ विपम बे. ते वात सांजली पाधरा पुरोहितने घरे आव्या, तिहां आकरे शब्दें धर्मलान दीधो, घरना चाकर सर्वे वारवा लाग्या के, अरे साधु ! तुं हां किहां आवी चज्यो ? जो राजपुत्र जाणशे, तो तुमने संताप करशे माटे जो तुं तहानं नटुं चहातो हो, तो हाथी जतो रहे. एवं सांजलतां वली पण गाढे शब्द धर्मलान दीधो.
ते धर्मलान सांजली राजानो पुत्र तथा पुरोहितनो पुत्र बेदु नीचें थाव्या बलात्कारें यतिने हाथें जाली मेडी उपर अगासीयें लश् गया, अने कहे वा लाग्या अरे मुंम! अमारी आगल तुं नाच. यतियें कर्तुं तालविना नाटक थाय नहीं माटे तमें ताल वजावो, ने ढुं नाचुं. पली यतियें नाच वा मामयं अने ते वे जण ताल वजाडवा लाग्या, तेने यतियें कडं अरे मूर्यो ! तालनंग झुं करो बो? अरे कुलने कलंक सरखा एटलो ताल व जाडवो, ते पण तमारा माता पितायें शीखव्यो नथी, के जे तमें नृत्यने विपे तालनंग करो बो? एवी यतिनी वाणी सांजली ते क्रोधांध थबोल्या के आ मुंमानी मुंम फोडो. एवं कही ते वेदु उष्ट मली यतिने मारवा न ग्या, यति पण बल करी तेमना अंगोपांगनी संधि उतारी मेडीथकी उतरी ने वनमांदे जतो रह्यो. संधियो उतरी जवाथी बेदु जण बुंबारव करवा लाग्यो.
ते वात सांजली राजा तिहां आव्यो जूए तो वेदु आंख उघाडी प ड्या , राजायें विचायुं महारानाइ सागरचंडविना एवो को युचनेविषे कुशल नथी,जे संधियो उतारी नाखे! पड़ी उपासरे आवी यतिउने पूब्युं,
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३०१ सर्वयति बोल्या, अमारामां कोई एवो डेज नहीं जे एवं काम करे! परं तु एक परोणो यति धाव्यो हतो तेणे की, होय तो तेनी अमने खबर नथी. पड़ी तेनी खबर काहाढवामाटे वनने विपे गया, त्यां सागरचंइसा धुने दीठा, तेमने देखीने राजा लगा पाम्यो थको नीचं मुख करी उनो र ह्यो. सागरचंसाधुयें कडं के नलो तें चंशवतंसक राजानो वंश दीपाव्यो! जेमाटे तुं तहारा पुत्रने तथा पुरोहितना पुत्रने यतिन्ने नपश्व करतां वारी नथी शकतो? माटें धिक्कार ने तहारा राज्य जोगववाने! तेवारें रा जा पगे लागी विनति करवा लाग्यो के, महाराज! ए महारो अपराध दमा करो अनें प्रसन्न था. बावीने बेदु जाने समाधि करो. आज पबी यतिने कोइ पण उपश्व करे नहीं. यतियें कडं जो बेहु जण दीक्षा लीये,तो हुँ एने साजा करूं. राजायें कयुं ते कहे ,के अमें दीदा लश्शू पण साजा क रो. पनी साधुयें आवी वेदुने साजा करी दीदा दश्ने पोते अन्यत्र विहार कस्यो.
हवे राजपुत्रं विचाटे जे काकायें मुझने रुडं की, जे संसारमा पाप करवा थकी निवारीने दीक्षा दीधी, तेमाटें कर्मक्ष्य करवा निमितें दीक्षा पालतो तपस्या करतो विचरवा लाग्यो अने पुरोहितपुत्र जे दुःख पामतो थको जैनधर्मनी उगंडा करतो हतो ते पण शुम चारित्र पाली तप कर तो विचरवा लाग्यो. ते वेदु आयु पूर्ण थये देवलोकें देवपणे एकता जर उपना. परस्पर प्रेमथी कामनोग विलसता थका परस्पर बोलबंध करता हवा के आपण बेदुमाथी जे प्रथम चवे, तेने बीजो ावी प्रतिबोध करे.
तेमां प्रथम पुरोहितनो जीव देवपणाथी चवीने उगंडाकर्मने योगें रा जगृहनगरें चांमालने घेर गर्नमां पुत्रपणे उपनो. हवे तेहिज नगरें धन्ना सार्थवाहनी जार्याने पुत्र जीवता रहेता नथी तेमाटें फुःखणी थने तेने ते चांमालिनी स्त्री साथें प्रीति , एकदा ते चांमालिणी गर्नवती थकी सार्थवाहनी स्त्रीपासें मलवा आवी ने सार्थवाहनी स्त्री पण गर्नवती ने तेणीये तेनी आगल पोताना पुत्र मरणनां पुःख कह्यां,तेवारें चामालिणी ये कयुं जो महारे हमणां पुत्र यावशे, तो ते पुत्र हुँ तुमने आपीश. अ नुक्रमें समकालें बेदुने प्रसव थया, चांमलिपीयें पुत्र जन्म्यो अने सार्थ वाहणीय मुवेली दीकरी प्रसवी. पनी अंतरंग माणसनी साथें मूवेली पुत्री मोकलीने चंमालिणीनो पुत्र पोताने घेर कोइ न जाणे, तेम अणाव्यो.
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०३ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. बने ते पुत्रनुं मेतार्य एबुं नाम दीधुं. चांमालिनी स्त्री पोताना धणीने मृतपुत्री जरोली देखाडी.अनुक्रमें ते मेतार्यपुत्र सर्वकलानो पारंगामी थयो, यौवन पाम्यो पितायें इन्यकुलनी उपनी आवकन्या साथें विवाह जोड्यो.
हवे ते पूर्वनवना मित्र देवतायें अवधिज्ञानें जो तिहां आवी प्रतिबो ध दीधो, पण कर्मने वशे तेने उपदेश लागे नहीं. तेवारें देवतायें विचाडे जे एने कष्टमां पाडीश, तो ए प्रतिबोध पामशे. अन्यथा सुखीयो थको प्र तिबोध पामशे नहीं. पड़ी जेवारे मेतार्य आठ कन्यानुं पाणिग्रहण कर वा वरघोडे चड्यो , चदुटामांहे याव्यो, तेवारे ते देवता पहेला मातंग ना शरीरमांअधिष्ठित थयो तेवारें वरघोडाने देखी मातंग पोतानी स्त्रीने क हेवा लाग्यो के हे प्रिये ! आपणी बेटी मुइन हत तो तेनो आवो विवाह महोत्सव करत,ते सांजली स्त्रीनी जाति तुब होय माटे तेणें अंतरनी वा त कही दीधी, जे हे प्रिये ! तमें शोक न करो. ए पण तमारोज पुत्र ने. तेनुं कारण चांमालें पूबवाथी ते चंमालिणीयें बधीप्रथमथी वात कही सं नलावी दीधी, तेवारें चंकालें तेने पोतानो पुत्र जाणी अश्वथकी पग जा लीने नीचें पाडी नारख्यो. अने कहेवा लाग्यो अरे पापी! तुं महारो पुत्र थ उत्तमकुलना लोकने केम अपवित्र करें ? हवे हुँ एक महारा कुल नी कन्या परणावीश. एवं कही बलात्कार हाथ जाली वगवानी खाडमा नाखी दीधो. मेतार्य लाज्यो थको दीनवदन करी रह्यो बोली न शक्यो.सार्थ वाह अने तेनी स्त्री प्रमुख लोक सर्वशीयाला था पोताने घेर गया. देवतायें बमा लोकोने मनमा संशय पाड्यो भने सर्वे जाण्यु जे ए सत्यवात जणायचे.
पबी देवता दिव्यस्वरूप धारण करी मेंतार्यने कहेवा लाग्यो के बावीथ वस्था पाम्यो तो पण प्रतिबोध केम नथी पामत ? हजी कांड वधारे संक टमां पडवा श्छे ? मेतायें कर्तुं महारा कुलनुं कलंक उतार तो पड़ी तुं जे कहे, ते धर्म अंगीकार करूं. देवतायें कयुं कुलनुं कलंक हुँ केम टाली शकुं? तें पूर्वले नवें यतिनी निंदा करी पड़ी चारित्र पाल्युं , माटे चांमालकुल पाम्यो. मेतार्ये कडं आ थाठ कन्या उपरांत श्रेणिकराजानी पुत्री प रणावी कलंक टाली बार वर्ष घरवास रहीने पढ़ी ढुंदीदा लेलं. एम कर.
ते सांजली देवतायें वली सर्व सङननां मन फेरवी नाख्यां, तेथी सर्व चहटामां यावी पाली जाननी तैय्यारी करवा लाग्यां, मातंग पाडो जान
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. मां चाली श्राव्यो. अने हाथ जोडी कहेवा लाग्यो के में ते वखत मदिरा पीधी हती, तेथी एल फेल बकी गयो, पण ए महारो पुत्र नथी. महारो अपराध माफ करो. तेवारें सर्वना नर्म टल्या, आठकन्या परण्यो.
हवे श्रेणिकनी कन्या परणाववामाटें देवतायें एक बाग आप्यो, ते प्रतिदिन रत्नमय जीमी करे, तेथी मेतार्यना पितायें रत्नोनो थाल जरीने श्रेणिक आगल नेटणुं मूक्यु. श्रेणिकें कयुं श्या कामें आव्या बो ? तेरों क युं ताहरी पुत्री महारा पुत्रने परणावी थाप. राजायें गलहबो दश बाहिर कढाव्यो. तो पण प्रतिदिवस रत्नोनो थाल नरी राजा आगल नेटणुं ल
आवे,अने कन्यानी मागणी करे, तेवारेंराजा तेने तिरस्कार करी कढावे. __ हवे अनयकुमारे विचायुं एटला रत्नने मातंग क्याथी लइ आवे हैं ? एम विमासी अजयकुमारें मातंगने पूब्यु. मातंगें कडं अमारे घेर एक ब करी , ते जेटली लीमी करे ,तेटलां सर्व रत्न थाय ने. तेथी महारे घेर रत्न घणांडे, अनयकुमार कह्यु ए बागली राजाने बाप तो हुँ तहारी वां बा पूरूं, ते सांजली मातंग ते बागली राजाने घेर लश् आव्यो, तिहां लीं मी करे पण रत्न थाय नहीं, तेवारें राजायें बागली पाबीतेने घेर मोक ली तो तेमज रत्न थवा लाग्यां. तेवारें अनयकुमार देवमहिमा जाण्यो पब मातंगने कझुं वैनारगिरिसुधी सुखें गाडां, वहेल, रथ, जर शके तेवो मार्ग करी आप. तेणें देवप्रनावथकी तेज वरखतें सुखें रथ, हाथी, घोडा जर शके एवो सरलमार्ग करी आप्यो. जेथी सर्वलोक सुखसमाधे जा श्रीवीरने वांदवा जवा लाग्या, वली बनयकुमारे कह्यु राजगृहने फरतो यनंग प्राकार, रूडो कोशीसां सहित करी बाप. तेणें ते पण तत्काल क री आप्यो, वली अनयकुमारे कयुं दीरसमुनुं जल आणी आप के जे थकी तहारा पुत्रने स्नान करावी पवित्र करीयें. तेणें कहेतां वारज खीर समुनुं जल आणी आप्यु.
एटलां कार्य कस्या पली श्रेणिकराजायें अनयकुमारनुं वचन पालवाने अर्थ बत्रतलें नीरसमुश्ना पाणीथी मातंगना पुत्रने न्हवरावी पवित्र क री कन्या- पाणिग्रहण प्रथमनी पाठ कन्या साथे कराव्यं. बार वर्ष में तायें देवता पासे मागी लीधां हतां, अने वली बीजां बार वर्ष नव स्त्रीय मली देवता पासेंथी माग्यां. सर्व मली चोवीश वर्ष पर्यंत नव स्त्रीयो साथें
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कामनोग जोगवी पड़ी नव स्त्रीसहित दीक्षा लश् मेतार्य साधु गुरुनी पासें नव पूर्व जण्या. निर्मल चारित्र पालतां विचरवा लाग्या. ___ एकदा विहार करतां राजगृही नगरीयें सोनीने घेर आहार लेवाने अ थै अाव्या. श्रेणिकराजायें अनियह कस्यो ने जे १०७ यव सोनाना ल तेनुं जगदीश्वर बागल स्वस्तिक करूं, तो मुखमां पाणी घालुं. तेमाटें ते सोनीये १०७ यव सोनाना घडी चोकी उपर मूक्या, पोतें कार्य विशेष उरडामां गयो, एवामां क्रौंचपदी ते नद वस्तु जाणीने गली गयो. ते साधुयें दीता. सोनी बाहिर आव्यो, तो यव दीठा नहीं. मेतार्यने पूर्दा महाराज! यव क्यां गया? तेवारें मेतार्य विचायुं जे ए सोनी उष्ट ने ते कौंचपदीने मारी एना पेटमाथी यव काढी लेशे. तेना मरण, निमित्त हुँ थाश्श! माटे महारे मौन धारण कर,,एज श्रेय जे. एम धारी मौन रह्या. सोनारें चोर जाणी वाधरी माथु वीट्युं खेंची करी बांध्यु. तेना जोरें आंख बेदु निकली पडी उपर चाबकाना प्रहार दीधा, तेवारे ते यति चा मडाना पटबंधने संयम राज्य पटबंध करी जाणतो अने चाबकाना प्रहारने अमृतधारा जेवं मानवा लाग्यो. मेतार्यमुनि उपशमसुधा पान करी पक श्रेणि आरोहि केवलज्ञान पामी, सिहशिलानो शृंगार थई अनंत सुख पाम्यो.
हवे सुवर्णकारना गृहने विषे सुतारे कुहाडे करी काष्ट फाडयुं तेनो खं म उडीने कौंचपदीने गले लागो. तेना घातनी पीडायें १०७ यव निक ली पड्या. ते देखी सोनार पश्चात्ताप करवा लाग्यो के, हा हा !! आ में युं कयुं !!! जो राजाश्रेणिक जाणशे, तो मुझने बेहाल करी मार। नाख शे, एवं जाएगीजय पामी दीदाला मेंतायनांज रजोहरण प्रमुख नपकरण लइ श्रेणिकराजानी पासें जर धर्मलान दीधो, पोतानुं सर्व वृत्तांत श्रेणिक आगल कह्यु. श्रेणिकें कह्यु, तें जयथी दीक्षा लीधी, पण हवे निर्नयपणे पा लजे. एवं कही सुवर्णकार ऋषिप्रत्ये विदाय कस्यो. ए मेतार्यमुनिनु चरित्र सांजली कर्णपवित्र करी श्रीसम्यक्तत्व- उपशमनामे लक्षण यादरवू ॥
हवे गाथाना उत्तराई करीसंवेगनामा बीजुं लक्षण कहे :-तिहां (मो रकप के०) मोदप्रत्ये जे (अहिलासो के) अनिलाष एटले वांबा ते (संवेगो के०) संवेग कहीयें. (तु के० ) वली (नव के ) संसार तेथकी जे (विरागो के० ) वैराग्य ते पण संवेग कहीयें, जेमाटें जे मोदानिलाषी
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३०५ होय, तेने नववैराग्य अवश्य होयज. अने जेने नववैराग्य होय, तेने मोदानिलाष अवश्य होय. एम ए बेहुने परस्पर संबंध डे ॥ यतः॥ सं वेगेणं नंते जीवे किं जणयति, संवेगेणं अत्तरं धम्म सवं जयति, यषुत्त राए धम्मसझाए संवेगहावमागबंति अपंताणुबंधि कोह माण माया लोहे पावंति नवं कम्मं न बंधंति॥तप्पवश्यं वणं मिबत्तविसोधिं काकण दसएग राह एहनवति दसण किंसुदिए अगए तेणेव नवग्गहणेणं सितंति सोहियणं विसुभाइ तंच पुरमा नवग्गहणंणाश्क्कमतित्ति ॥५४॥
हवे ए संवेगने विषे दमदंतमुनिनो दृष्टांत कहे . हस्तिशीर्ष नामा न गरें दमदंत नामें राजा हतो, ते एकदा जरासंध प्रतिवासुदेवनी सेवा नि मित्तें राजगृही नगरीयें गयो बे. ते अवसर पामी पांच पांमवो पोतानुं स बल सैन्य लश्ने दंमदंतराजानो देश नांज्यो, लूंट्यो, ते वात सांजली दम दंत राजायें जरासंधर्नु साहाय्य पामी सबल कटक लश् यावी हस्तिनागपुर पर घेरो नाख्यो. दूत मोकली पांमवोने कहेवराव्यु के, ढुं जरासंधनी सेवा यें गया पड़ी तमें बल करीने महारो देश खूट्यो, पण हवे तमें हस्तिना गपुरथी बाहेर निकलीने महारी साहामा आवी यु६ करो तो हूं जाणुं, जे तमें खरा बलवंत बो. पांवो जयत्रांत थया थका बाहेर आवे नहीं त्यारें दंमदंत राजायें कहेवराव्यु के जो सिंह होता तो साहमा आवी युद्ध करता. पण ढुं एटला दिवस तमाळं गाम वींटी बेतो , तेम बतां तमें ल डवा याव्या नहीं, ते उपरथी जाणुं मुंजे तमें शीयालीया बो. एवं कहेव रावी दमदंत पोताने नगरें पालो आव्यो.. ___ एकदा श्रीधर्मघोषसूरिनी देशनारूप सुधा पान करी संसारविषय म दिरापानथकी विरक्त थयो थको परमसंवेग पामी दंमदंतराजायें दीक्षा लीधी, अनुक्रमें गीतार्थ थइ एकलो विहार करतो हस्तिनागपुरनी पोले मे रुनी परें अचल थइ कानस्सग्गे रह्यो. एवामां अश्वक्रीडायें निकलेला यु धिष्ठिर प्रमुख पांचे पांमवो ते मुनिने देखता हवा, तेवारें अश्वथकी लत री पगे नालस्थल लगाडी वांदी गुणस्तुति करी जे धन्य तमारो अवतार जे तमो बाई दीदारूप राज्य पाम्या! एवं कही आगल क्रीडा करवा ग या. पाउलथी फुर्योधन पण घणा परिवारसहित निकल्यो, तेणे पण ते मु निने दीग, तेवारें क्रोधे नस्यो बोल्यो के, अरे था पापीने मारो. एवं घ
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. णा दिवससुधी थापणने गढरोहमा राख्या हता, हवे कपट करी इहां बे ठो ले. एवं कही सामो पथरो नारख्यो ते साधुने लाग्यो तो पण साधु समनावथी चूक्या नहीं. पनी यथा राजा तथा प्रजा ए न्यायें ते अयोधन गया पनी तेना माणसो पण ते साधु उपर पथरा फेंकता गया, ते पाषा ण खंभे करी यति दटाइ गयो, अचेष्ट था पड्यो देखायो नहीं. __ एवामां पांच पांडव क्रीडा करी पाबा वल्या, तेणें यतिने दीतो नहीं. लोकोने पूब्युं अरे आहीं यति हता, ते किहां गया ? लोकें र्योधन- त त्तांत कडं. ते सांजली युधिष्टिरें विचायुं जे हा हा ए पापी नरकगामीयें आ गुं अकार्य कयुं ! यतः॥ ताणंनन्वय वयरं, मयं हीणं तरंगवा ॥ जे
जहियगंतवं, चिहावितारी सोही ॥१॥ एवं कही पाषाण सर्वे परा करावी यतिनुं वयावच्च करी वांदी स्वस्थ करी अपराध खमावीने घेर याव्या.
हवे ते महामुनि वेदनायें पीडित थको अपकारी जे कौरव अने उप कारी जे पांमव ते वेढुनी उपर समनाव चिंतवतो थको पकश्रेणि आरो ही केवलज्ञान पामी शिवपुरनेविषेअनंतसुखराशि जोगवतो थयो। यतः॥ परिहंतो उको, हणेण तह पंमवेण युवंतो ॥ समसत्तुमित्त नावो, सो दमदंतो मुणी जयन ॥ १ ॥ इति ऋषिमंगलसूत्रे॥
प्रनातें राजा युधिष्ठिरनी सेवा करवामाटे योधन आव्यो, तेने युधिष्टिरें कह्यु अरे कुलांगार! तुं हमणां यतिने मारवा लागो पण जे दिवसें आपणुं नगर वींटी पड्यो हतो ते दिवसें तुं क्यां गयो हतो? शामाटे यु६ करवा सामो न थयो ? ते इपि हमणां जेवारें दमा अादरी हथीयार बोडी ने बेगे, तेवारें तुं मारवा दोड्यो ? इत्यादिक घणां वचन कही शिखामण
आपी. पण ते जुर्योधनने नरकें जाएं ने माटे का जवाब न ापतां नीचुं मुख करीने रह्यो. दमदंत राजऋषि कृतकृत्य थयो. ए संवेग लक्षणने विषे दंमदंतराजानी कथा कही,माटे समतारूप सुधापान करी संवेग यादरो॥४॥ __हवे त्रीजुं लक्षण निर्वेद तथा चोथु लक्षण अनुकपा अने पांच मुंलदाण थास्तिक्य , एत्रणेनुं स्वरूप अनुक्रमें कहे :
॥ निवेन च्चागिना, तुरियं संसार चारयगिहस्स ॥ उहिए दयाणुकंपा, अबिक्क नजि जिणवयणे ॥४५॥ अर्थः-हवे (निवेन के) निर्वेद ते गुं कहीयें ? तो के ( तुरियं के०) उतावले ( संसार के०) संसाररूपीयो
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्व सित्तरी.
३०७
( चारय हिस्स के० ) चारक घर एटले बंधिखानानुं घर तेहने ( चागि To) त्यागवानी वा तेने निर्वेद एवं नामें समकेतनुं लक्षण कहीयें, एटले संसाररूप दिखानाना घरने उतावले त्यागवानी जे इवा करवी निर्वेद जावो संसाररूप बंदीखानाना घरथी निर्वेद एटले निकलवं.
केटाएक आचार्य संवेगनो अर्थ नववैराग्य कहे बे, अने मोहनी air, तेहने निर्वेद कहे बे ए अर्थ पण घटे बे ॥ यतः निवेएणं नंते जीवे किंजय निवेएणं जीवे दिवमाणुस्स तिरिबएस कामनोगेसु विरक् माणे निवेयं हवमागत्ति सवविसएस विरजत्ति सवविसएस विरमाणे प्रारं परिग्गह परिवार्य करेंति आरंभ परिग्गह परिवार्य करेमाणे संसार मग्गं वुद्धिदंति सिद्धिमग्गं पडिवन्नेय नवति ॥ इति उत्तराध्ययन सूत्रे ॥ ए गा थाना पूर्वार्थ कह्यो, उत्तरार्द्धनो अर्थ कथा कह्या पती खावशे.
हवे ए निर्वेद लक्षण पर हरिवाहनराजानी कथा कहीयें यें:- एहि जनरतदेत्रे जोगवती नगरीयें इंइदत्तराजा राज्य करे बे, तेनी मणिप्रना नामें पट्टराणी ने तेने हरिवाहन नामें पुत्र ले. हवे तेहज नगरमां जमंदर नामें सुतार से बे, तेनो नरवाहन नामें पुत्र बे, तथा वसुसार नामें श्र से बे. ते धनंजयनामे पुत्र ते हवे राजपुत्र हरिवाहन तथा सुतार पुत्र नरवाहन ने श्रेष्ठ पुत्र धनंजय, ए त्रणेने मांहोमांहे मित्राचारी थइ, प्रतिदिन एकता मली रमतक्रीडादिक करे.
एकदा राजायें पोताना पुत्रने घणीज खाकरी शिखामण यापी जे हे पुत्र ! तुं मित्रोनी साधें रमत कया करे बे ते मूकीने त्र्यायुधान्यास कर. नहीं कां महारो देश मूकीने चाल्यो जा. एवी राजानी वात सांजली त्रणे मित्रे मली यापसमां विचार कस्यो, के जो राजायें देश मूकवा कयुं, तो हवे आपने परदेशेंज जावुं, घने यापणा जाग्यनी परीक्षा करवी. एवं विचारी
जण पोताना पिता प्रमुखने पूढया विनाज देशांतरें चालता यया. मार्गे जातां महोटा रयने विषे पड्या. एवामां एक गर्जे पोतानो गुंढादम चो करीने हरिवाहन कुमरनी साहामो दोडयो. एटले शेठनो पुत्र ने सू तारनो पुत्र एवे जग नाशि गया. पढी गजशिकामां विचक्षण एवा कुमरें पोतानी कलायें हाथीने वश कीधो. पोतें ते हाथीनी उपर चडी बेठो खने पोताना वे मित्रोने शोधवा चाल्यो घणोय शोध कस्यो, पण मित्र मल्या नहीं.
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
बागल जातां एक महोटुं सरोवर दी, तिहां कुमर हाथीथकी उतरीने श्रम टालवाने अर्थ सरोवरमांहे स्नान करवा पेठो, जलक्रीडा करी खेद टाली बाहेर निकटयो. तिहां मित्रोना विरहथी फुःखी थयो थको सरोवर नी समीपें एक महोटुं आराम में, तेमांहे देमंकर नामें यदनुं एक महोटुं चैत्य दीतुं तेमांहे पेतो. रात्रियें एक खूणामां जश् सूक्ष रह्यो.
एवामां तिहां रात्रियें अप्सरायें आवी नाटक मांमयुं ते नाटक देखी कुमर चमत्कार पाम्यो. पनी ते अप्सरा नाटक करी परिश्रांत थ थकी पोतानां सखरां वस्त्र मूकी बीजां वस्त्र पहेरी पुष्करिणीमां जलक्रीडा कर वा गइ. पालथी कुमरें उठी तेमनां वस्त्र लश्लीधां. केटलिएक वार पड़ी ते जलक्रीडा करी देहरे ावीने जूए, तो कपाट दीधां दीत. तेवारें विचारो जे कोक धूतारो डे ते आपणां वस्त्र लइ कपाट देश मांहे बेसी रह्यो . पड़ी ते बाहिर रही थकीज हरिवाहनने घj घणुं बीहीवराववा लागी, पण मृगतीनो बीहीवराव्यो सिंह कांबीये नहीं. तेम हरिवाहन पण तेना थी बीहीनो नहीं. तेवारें अप्सराज्ये जाण्युं जे मांहे कोइ साहसिकपुरुष ने माटे एने मन गमतुं करीयें तो वस्त्र पामी,अन्यथा वस्त्र मल नहीं. तेथी सौम्यवचन कहीने वस्त्र मागवा लागी. कुमरें कह्यु, तमारा वस्त्रने वा यरो सर गयो ने माटे जा वायरापासेंथी वस्त्र मागी व्यो.
ते सांजली अप्सरा बोलीयो तहारो सत्त्वगुण जो अमे संतुष्ट थये ली 5 माटे वर माग. एवं सांजली कुमरें कपाट उघाडी वस्त्र प्राप्यां. सदु पोतपोतानां वस्त्र लइ कुमरने कहेती हवी के तुं राजपुत्र बो, एवो अमें निश्चय कस्यो माटे या खगरत्न पीयें . ते ले. एनाथी युद्धमा तहारो जय थशे तथा श्रा कंचुकरत्न आपीये बैये ते तुं तहारी स्त्रीने आपजे. तथा अमारा वचनथकी शीघ्र राज पामीश. एवी आशीष देश दे वांगना पोतपोताने स्थानकें गइ.
प्रनातें खड्गरत्न लश्ने कुमर चाल्यो, आगल जातां एक नगरी दोती. तेमां घरहाट प्रमुख सर्व विविध वस्तुयें नरेलां , पण कोइ मनुष्यने दीतुं नहीं. तेवारें पाश्चर्य पामतो राजाना महेलमां गयो. तेनी त्रीजी नूमियें चडयो तिहां एक मनोहर रूपवंती कन्या तेणे दीठी, कन्यायें पण कुमरने देखी उती उनी थइ बेसवार्नु आसन मूक्यु, तेना उपर कुमर बेगे. पनी कन्या
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३०ए प्रत्ये पूजवा लाग्यो के आ कयुं नगर ले ? एनी शी हकीगत ? अने तुं पण एकाकी शहां केम रही हो? ते मने समजाव.
तेवारें कन्या हाथ जोडी कुमरप्रत्ये कहेवा लागी के हे महापुरुष ! सांजल. एनुं वृत्तांत कहूँ . सावस्तिनगरीना विजय नामें राजा तेनी अनं गलेखा नामें ढुं पुत्री चं,एकदा ढुं गवादें बेठी हती,तेवारें जयंतनामा वि द्याधरें मुझने दीती, ते कामविव्हल थ मुजने तिहाथी अपहरीने यहां पुर स्थापना करी पाणी मूकी ने. अने मुमने कहे जे के तुं महारीसाथें पाणिग्रहण कर. ढुंआ नगरनुं राज्य पालतो थको तहारी साथे जोगनो गवतो रहीश. ते विद्याधर विवाहनी सामग्री करवा गयो बे. आज काल आवी बलात्कारें महालं पाणिग्रहण करशे. पण पूर्वं मुझने महारा पितांने घेर ज्ञानवंत मुनिराजें कह्यु के प्रियदत्तराजानो पुत्र हरिवाहन नामें डे, ते ताहारो पति थाशे. ते मुनिनुं वचन खोटुं थाय ,तेनुं पण मुजने महोटुं दुःख लागे, के एवा महानुनावनां वचन केम व्यर्थ थाय ?
तेवारें हसी करीने कुमर कहे जे के हे सुभ्र ! एवा विद्याधरने मूकीने ह रिवाहनना पाणिग्रहणने झुं वांजे ले ? हंसली हंसने मूकी बगलाने केम वां ने ? माटे हरिवाहनने मूकी विद्याधरसाथे पाणिग्रहण कर, हवे कुमरनुं रूप, तेज, वचनचातुर्य, देखी कुमरीयें विचाओँ जे रखे ने ए हरिवाह नज महारा नाग्ययोग्ये खेंचा याव्यो होय,तो केम ? ए पण एवां वचन कही महारी परीक्षा करतो हशे गुं? एम चिंतवी कुमरप्रत्ये कहेवा लागी के, हे स्वामिन् ! तमें जूठ महारो चित्तोनास तेवोज थाय डे, माटे जाणुं हुं जे हरिवाहन ते तमेंज बो, तो हवे महारी ऊपर कृपा करी आपणो वंशादिक प्रगट करो. जेम मुफने हर्ष ऊपजे एवी वार्ता करे , एवामां तो शरणा इ नफेरी प्रमुख तूर्यनाद थयो, ते सांजली कुमरीयें कह्यु, हे स्वामी ! शीघ्र नासो, शीघ्र नासो. जेमाटे जयंति विद्याधर थाव्यो ते महाउप्ट ले तमोने मारी नाखशे. माटे तमे हवे लगारमात्र विलंब म करो.
कुमरे कयुं हे सुन्नु ! तुं चिंताम कर. महारुं बल जोजे कहे जे? एवा मां तो विद्याधर आव्यो, ते कुमरने देखी कोपाकुल थ बोल्यो अरे महारा अंतःपुरमांहे कोण याव्यो ? कुमर बोल्यो, श्रीदत्तराजपुत्र हरिवाहन आ कुमरीनुं पाणिग्रहण करवा आव्यो बे. जो तुमने युद्ध करवानी इबा
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो.
होय तो श्राव महारी साहामो. जो के महारा हाथ कहेवा बे ? एवं सांजल तां कुमरनी सायें युद्ध करवा माटेंते विद्याधर खड्ग लइ याव्यो, कुमरें ख रत्नें करी तेनी तरवारना वे कटका करी नाख्या उंचो उबली मुष्टिना प्रहारें मायानो मुकुट नांगी चोटली जाली हेगे नाखी तेना हृदय ऊपर घडी वेठो. तेवारें विद्याधरें कत्युं, हे महापुरुष ! मूक. मूक. बजे करीनेज में तहारुं कुल जाएगी लीधुं. माटे सुखें तुं ए कन्यानुं पाणिग्रहण कर. अने या नगरीनुं राज्य पण तुंज जोगव. मुऊने तहारो मित्रकरी जेखव. कुमरे तेने मू क्यो तेवारें ते कुमरने पगें लागी घणो नक्तिनाव देखाडी वैताढ्यें गयो.
वे कुमरे नंगलेखानुं पाणिग्रहण करी ते अप्सरायें यापेलुं कंचुक पहेरायं तिहां तेनी साथै विषयसुख जोगवतो ते नगरीनुं राज्य पाले बे. सुराज्यें करी तामामनां लोक यावी तिहां वस्यां नगरी एवी संकीर्ण थ 5 के मां तिल पडवा जेटली पण जगा मले नहीं. एवं नगर वस्युं, तेनुं विद्याधर नगर एवं नाम दीधुं. हवे ते नगरनी पासें एक रेवानदी बे, तिहां हरिवाहन राजा अनंगजेखानी साधें जलक्रीडा करवा गयो बे. अनंगजेखा पण कंचुकादिक नवां वस्त्रने नदीना तट उपर राखी जलक्रीडा करवा पा
म पेठ बे, घणी वार जलक्रीडा करी पाठी खावी जींजेलां वस्त्र उतारी नवां वस्त्र परवा लागी एवामां एक मत्स्य यावीने ते कंचुकरत्ननी मां हे पद्मराग नामें रत्न बे, तेने विषे मांसनी बुद्धि प्राणी गलामांहे उतारी गयो. तेनी पाउल घणा सुनटो दोड्या पण मत्स्य पाणी मांहे दृश्य थइगयो.
राणी कंचुकने डुःखें दुःख करती रहे राजा पण दुःख करवा लाग्यो ed ते मत्स्य तिथी दूरदेशें वेनानदीने तटें महापुरी नगरी वे तिहां न कुंजरराजा बे ते जलक्रीडा करी मंत्री प्रमुख परिवारसहित क्रीडा पर्वत पर बेठा बे, एवामां एक माढीयें खावी तेमनी यागल कंचुकरन मूक्युं
राजाने कह्युं या महोटो मत्स्य श्राव्यो हतो, तेना उदरमांहेथी ए कंचुकरत्न नील्युं बे, राजायें विचायुं जेनुं ए कंचुक बे, ते स्त्रीरत्ननुं रूप पण कहे हो ? एम राजा कंचुकने देखी कामें पीडित थयो, घने माहीने प्रसाद दान यापी विसर्जन कस्यो.
हवे राजा कामज्वर पीडित थयो थको मंत्री प्रत्यें कहेवा लाग्यो के हे मंत्री ! तुं जो मुकने जीवाडवो वांबतो होय, तो या कंचुकनी पहेरनार स्त्रीने
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३११ पेदा कर. मंत्री ते स्त्रीने मेलववा माटे घणा उपाय कस्या, पण शोध पाम्यो नहीं. तेवारें सातदिवस उपवास करी राज्यनी अधिष्टायिका देवी आराधी. ते देवी प्रगट थइ कहेवा लागी के, सर्वथा ए वात तमें करशो नहीं केम के ए हरिवाहन राजानी अनंगलेखा नामें स्त्री, हजी सर्पनी मणि लेवानी हिम्मत चाले, पण ते स्त्रीनुं शीलरत्न सेवाय नहीं. तेने में त्रीयें कह्यु एक वार ते स्त्री मने आणी बाप. पडी राजा , ने ते स्त्री . एवं प्रधाननुं बोलवू सांजलीने देवी विद्याधर पुरें यावी तिहां अरिहंतनी प्रतिमानी पूजाने विषे प्रवर्त्तमान थयेली अनंगलेखाने दीठी, तेवीज तिहां थी अपहरीने नरकुंजर राजाना घरनेविषे लावी मूकी पनी मंत्रीनी विदाय गीरी मागीने देवी पोताने स्थानकें गइ.
नरकुंजर राजा आवी कहेवा लाग्यो के, हे प्रिये! आ तहारुं कंचुक दे खी कामें पीडित श्रश्ने में देवांगनाने हाथे तुमने इहां अणावी , माटे हवे तमें महारी साथै कामनोग करवाने प्रवों, यौवन सफल करो.
अनंगलेखायें कडं जो मुझने हाथ लगाडीश तो तहारूं मरण माटे साडात्रण हाथ दूर रहीने माहारी साथें वात कर. राजायें विचाखू एने एना धणीनो ताजो विरह थयेलो डे माटें ए एम कहे डे, पण विलंवे सि ६ थाशे. एq विचारी राजा पाबो वली गयो. अने ते स्त्री अश्रुपातें नू मिका सींचती हरिवाहननुं रूप आलेखी तेनुं मुखडु जोती रहे .
हवे पूर्वला हरिवाहनना बे मित्र एक तो सुतारनो पुत्र, अने बीजो शेठनो पुत्र, ए वे जण हस्तीना नयथकी हरिवाहनने एकला मूकी नाशि गया हता, ते दूर देशांतर नमतां जमतां विंध्याचलनी अटवीमां गया, तिहां तेणे वंशजालमांहे नीचं मुख अने उंचा पग करी धूम्रपान करतो हाथमां जपमाला लइ जाप करतो थको एक पुरुष दीठो, ते पुरुष पण मनुष्यनो संचार जाणी मंत्रजाप पूर्ण थये थके बाहिर आवी वेदुप्रत्ये कहे वालाग्यो के, हे महापुरुषो! तमें कोण बो? इहां केम याव्या बो? एवं सांन जीते बेदु जण बोल्या, हे वीर पुरुष ! कुलादिक पूबवानुं गुं काम ! अमे दैवयोगें नमता जमता इहां निकली याव्या बैयें, तहारे जे काम होय ते कहे. तेवारें विद्याधरें कयुं हुं त्रिलोकी विद्या साधुं . तेनी में पूर्वसेवा तो करी, हवे उत्तरसेवाने विपे तमें उत्तरसाधक था, के जेम महारे वि
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. द्या सिह थाय. एवं सांजली ते बेदु जण उत्तरसाधक थया. अने विद्याधरें उत्तरसाधक पामीने होमपूर्वक विद्या साधवा मांझी, ते थोडे दिवसें वि द्यासिदि पाम्यो. तेवारे विद्याधरें कह्यु तमो वेजण थकी महारी विद्या सि ६ था हवे तमोने \ आपीने ढुं कृतकृत्य था ? एम कही एक रूप प रावर्तनी अने बीजी यंजनसिदि, त्रीजी वैरीसैन्यविमोहिनी, चोथी विमा नकारिणी, ए चार विद्या आपीने विद्याधर गयो. ते गगनवनन नगरने विषे जर वैरीने जीती पोतानुं राज्य कबजे करी राज्य सुखे नोगववा लाग्यो.
हवे ते शेवपुत्र तथा सूतार पुत्र वेहु जण जमता नमता बेना नदी ने..तटें याव्या, तिहां लोकोना मुखथी अनंगलेखानी वात सांजली ते स्त्री ने जोवा वांडता अंजने करी अदृश्य थइ अनंगलेखानी पासें आव्या ति हां जूवे , तो ते हरिवाहननुं रूप आलेखी तेनुज ध्यान करती रहेली दीती. पड़ी ते वेदु जणें तेनी परीक्षा करवा निमित्तें हरिवाहननी बबीनो पट्ट अपहरि लीधो, ते पट्ट गयो जागी वली घणुं दुःख करवा लागी ते ने बेदु जणे कयुं तहारं कुःख झुंजे? अमनें कहे तो अमें टालीयें. तेवा रें तेणें हरिवाहन, प्रथमथी मामीने पाणिग्रहणपर्यंत सर्व वृत्तांत लखी देखाडयं. ते वांचीने बेद जणे पोताना मित्रनी स्त्री जागी आवी पगें ला ग्या, अने कहेता हवा के तुं कशी वातनी चिंता करीश मां. अमें तहा रा पतिना मित्र बैयें. एवं कहीने पनी बेदु जण राजानी सनायें गया, राजायें तेमने आसन यापी बेसाड्या, अने पूबवा लाग्यो के तमें कया देशथकी आव्या डो? वली झान विज्ञान कांइ जाणता हो, तो मने क हो. एवं राजानुं वचन सांजली ते बोल्या अमोजोगवती नगरीथकी आव्या बैयें. मोहनी अने वशीकरणी प्रमुख घणी विद्या जाणीयें बैयें. तमारे को काम होय ते कहो, तो ते अमें करी आपीयें. __राजायें तेमने एकांतें तेडीने कयुं के आअनंगलेखा स्त्री मने वश करी थापो. तेवारें तेणे एक चूर्ण काढीने राजाने याप्युं अने कह्यु के, ए चूर्णर्नु तिलक करी ए स्त्रीपासें जाजो, तो तमारे वश थाशे. एवं तेमनु कथन स त्य मानी राजा तिलक करी स्त्री पासें गयो, तिहां हरिवाहनना मित्रोयें पूर्वे कही मूकेतुं हतुं ते संकेतप्रमाणे अनंगलेखा उनी था राजानी सा हामी चाली यावी, तेने राजायें जोगनी प्रार्थना करी तेवारें अनंगलेखा
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३१३ ये कयुं महारे श्रीअष्टापदजीनी यात्रा करवानो अनियह ले. ते पूर्ण था य तो पनी तमें जेम कहेशो, तेम करीश. राजा पोतानो अर्थ सि६ थयो जाणीने पहेला बेदु जण पासें आवी ते वात कही. तेवारे ते बेदु जणे कडं तमें कांश चिंता म करो. अमें एने अष्टापदनी यात्रा तरत करावी तमारी पासें लइ आवद्यु, कारण अमारी पासें थाकाशगामिनी विद्या ने तेथी ब त्रीश कोश उंचे चडतां अने अष्ठापदें जतां यावतां कांइ पण विलंब ला गशे नहीं. एवं कही विमाननी रचना करी, तेमां अनंगलेवाने बेसाडी विमानने आकाशमार्गे चडाव्युं. पनीयाकाशे रह्यांथकां कहेवा लाग्या के, अमो बे जण हरिवाहनना मित्र बैयें अनंगलेखाने लइ जाइये बैयें. जो तमारामां शक्ति होय, तो अमारी सामा आवो.
ते सांजली राजा पोताना सुनटोने कहेतो हवो के, अरे सुनटो ! तमें एने पकडो. ए स्त्रीला जायचे पण आकाशगामिनी विद्या को पासें न होवाथी सर्व सुनट हारी पाला वली अाव्या, राजा निराश था बेगे, ते वारें पहेला वेदु जण वली विमानमांहेथी उतरी अंजनविद्यायें करी राजा ना घरथकी वे कन्याउने अपहरी विमानमां बेसाडी लश् चाल्या, ते वि द्याधरनगरने उद्याने आव्या, तिहां सर्व लोकोने शोकातुर दीठां. तेवारें लोकोने पूबवा लाग्या के, केम आही सर्व लोक शोकमय देखाय ले तेने कोकें कडं के अनंगलेखा राणीना विरहथी अमारो राजा सशोक डे, ते माटें राजाना शोकने लीधे लोक पण सशोक बे.
हवे श्रेष्ठीपुत्र सिहपुरुषतुं रूप लश्ने राजसनायें गयो, तेने राजायें पूज्युं तहारामां शी शी विद्या के ? तेणें कडं महारी पासें तो घणी वि द्या, तमारे जे अर्थ होय ते कहो. राजायें कह्यु महारी स्त्री अनंग लेखा आणी आपो. तेवारे ते सिहपुरुष पूर्वे सूतारनी साथें संकेत कस्या प्रमाणे पडी उढी ध्यानमां बेटो के तरतज विमाने वेठीथकी अनंग लेखा तिहां आवी. तेने देखीने राजा घणुंज दर्ष पाम्यो. विमानथकी अ नंगलेखा बे कन्याउनीसाथे उतरी राजाने पगे लागीराजा चमत्कार पाम्यो थको सिमपुरुषने कहेतो हवो के हवे मने महारी स्त्री तो मली पण म दारा बे मित्रोनी साथें वियोग थयेलो , तेनो मेलाप करी आपो, तो ढुं आपनो महोटो उपकार मानु. एवो राजानो पोतानी उपर प्रेम देखी
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. ते वेदु मित्र पोतानुं मूलरूप प्रगट करी राजाने पगे लाग्या. राजायें आनं दयुक्त थकां विचायुं जे विधाता अनुकूल होय तेवारें सर्व अनुकूल थाय.
पली राजायें बेदु मित्रो पासें पोतानी सर्व वार्ता मूलथी मामी कही, तेमणे पण पोतानी सर्व हकीगत कही. त्रणे मित्र परस्पर प्रेमथी रह्या बे कन्या आणी ते बेतु मित्रने परणावी,पडी पोतानीशक्तियें घणांराज जीती मित्रने बीजा देशोनां राज्य आपी पोतें विद्याधरपुरनुराज्य पालतो विचरे जे.
हवे इंइदत्तराजा १६ थयो, तेवारें हरिवाहनकुमरने पोतानी पासें ते डावी रूडं मुहूर्त जोवरावी राज्यपाटें थाप्यो. पोतें दीक्षा लश् घणुं तप तपी कर्मक्ष्य करी शाश्वतुं मुक्तिनुं राज्य लीधुं.
पितायें जेवारें दीक्षा लीधी, तेवारें हरिवाहन, बे मित्र अने अनंगलेखा ए चारे जणे सम्यक्त्वसहित श्रावकधर्म आदस्यो. पडी हरिवाहन राजाती र्थयात्रा, रथयात्रा, अष्टाहिक, अजयदान पट्टह, जिनप्रासादबिंबप्रतिष्ठादि क अनेक उत्तम कार्य करी श्रीजिनशासननो प्रानाविक थयो.
एक सहस्त्र वर्ष वीत्या के. उद्याननेविषे केवली नगवान् पधास्या, न द्यानपालें वधामणी आप तेने हर्षदान दे राजा हरिवाहन पोताना बे मित्र तथा अनंगलेखा साथें वांदवा गयो. धर्मदेशना सांजली संसारथकी निर्वेद पाम्यो थको पूढवा लाग्यो के कहो स्वामी ! महारं आयुष्य केटलुंने ? केवलीये कयुं तहालं आयुष्य नवप्रहर मान बे, ते सांजली राजा भ्रूजवा लाग्यो के हा!!! हवे नवप्रहर माहे दुं महारुं गुंआत्मसाधन करीश! केव जीयें की चिंता म कर. हजीकांश विपश्यं नथी । तरत दीका से॥ यतः ॥ अंतोमुहूत्तमित्तं, विहिणाविहिया करेइ पवजा ॥ पुरकाणं पऊत्तं, चि रकाल कयाइं किं नणिमो ॥ १ ॥ कंचणमणि सोवाणं, थंनसहस्सुसियं सु वरम ततं ॥ जोकारिज जिणहरं, तनवि तव संजमो अहिट ॥२॥ केवली यें एवं कह्या नंतर पोताना विमलवाहन पुत्रने राज्य आपी राजायें मित्र क्ष्य तथा अनंगलेखानी साथें दीक्षा लीधी संसारथकी निर्वेद पाम्यो ना वना जावतो दूध, के धन्य ए गुरु के जेणें हुं संसार समुश्मांहे बूडताने बाहिर काढयो तथा अनित्यादिक बार नावना नावतो रह्यो एवामां अक स्मात् मस्तकें शूल उपy घणी वेदना था तो पण चिकित्सानी वांडा की . धी नहीं. मनमां विचायुं जे रूडं थयुं के पाबला नवनां करेला कर्म उद
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२५
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. य याव्यां, तेने जोगवीने रण उतारूं बुं एम वेदना अहियासतो गुन ध्या ने काल करी सर्वार्थ सिविमाने तेंत्रीश सागरोपमने आनखे देवता थयो. तिहाथी चवी महाविदेहमांहे उत्तमकुल पामी दीक्षा लइ मोदें जाशे. त था बे मित्र अने अनंगलेखा पण माहाविदेहमां मोदें जाशे. एत्रीजा निर्वेद लक्षणनी नपर हरिवाहनराजानी कथा कही ॥३॥
हवे समकेतनुं चोथु लक्षण अनुकंपा , ते कहीयें बैयें, (मुहिए दया णुकंपा के० ) दुःखीया प्राणीने विषे जे दया करवी, तेने अनुकंपा कही ये ते अनुकंपा के प्रकारें . एक इव्यथकी अने बीजी जावथकी तेमां पोतानी शक्तिने अनुसारें इव्यादिक अापीने आगला, फुःख टाल ते व्यथकी अनुकंपा जाणवी अने जावथकी तो आइहदय थाय जे अरे या दुःखी जीव , हुँ एनुं पुःख नांजी शकतो नथी? एवं मनमांहे नावे ते नावथकी दया कहीयें ॥ यतः॥ ददगपाणि निवहं, नीमे नवसायरम्मि मुरकत्तं ॥ अविसेसोअणुकंपा, उहावि सामब कुण ॥१॥
हवे ए अनुकंपाने विषे जयराजानी कथा कहीयें बैयें. हस्तिनागपुरने विषे जयनामें राजा , ते एकदा सना पूरी वेठो ने एवामां अकस्मात् लो कोने शेडतां दीठां, तेवारें राजायें वेत्रीने पूब्यु ए लोक धाय , ते झुं जे ? वेत्रे समाचार ल ावी राजाने कर्तुं स्वामी पूर्वे तमारा पितायें प्र जातें एक स्वप्न दीतुं हतुं. ते स्वप्ननो विचार करी रूडेवाने स्वप्नमां जेहवा विचार कह्या हता. तेवां चित्रामण चितरावीने तेने लुगडाथी ढांकी रा रव्यां हता, ते प्रतिदिन पूजाता हता हवे आज उन्मत्तशतामंद, गोविंद, ध रणीधर, प्रमुख कुमरें लुगडं उघाडी ते चित्र जोयुं तेथी ते त्रणे कुमर तत्काल अचेत थयाथका पड्या . तेने जोवा माटे लोक शेडे बे. .
ते सांजलीने तेनो प्रतिकार करवा माटे राजा तिहां गयो, ते पण मू तिं देखतांज मूळ खाई पडी गयो, तिहां मंत्री प्रमुख परिवारें मली शी तलोपचारें करी राजाने सावधान कस्यो. कुमरो पण सावधान थया, प बी राजा स्वस्थ थ दंतधावन करी सनामां आवी बेतो. मंत्रीश्वरें राजा प्रत्ये पूयु, स्वामी! मूर्ति देखीने त्रण कुमर तथा तमोने मूळ आवी तेनुं कारण झुंहशे ? राजायें प्रधानने कडं सांजल. एy घणुं वृत्तांत ते कडं बु विजयवर्मन नगरें शादुल नामें राजा तेनी निंदा नामें नार्या, तेनो चं
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. द नामें पुत्र हतो. तेने पुरोहितनो.पुत्र विष्णु अने मंत्रीनो पुत्र सुबुदित था श्रेष्ठीनो पुत्र शंख,ए त्रणे जपनी साथें मित्राचारी हती प्रतिदिन एकता रमे, एकता जमे अने एकता नमे. अन्यदा अश्वक्रीडायें करी परिश्रांत थ को राजानो कुमर महोटा आंबाना वृदनी हेठे वीसामो लीये . एवामां एक कापालिक आव्यो तेने कुमरें नमस्कार कीधो. कापालिकें आशीर्वाद दीधो जे तुं नागलोकनी स्त्रीनो नाथ थाजे. तेवारें कयुं हुं मनुष्य j, ते नागलोकनी स्त्रीनो स्वामी शी रीतें था ? योगीयें कडं गुरुना प्रसादश्रकी
न थाय ? सर्व चिंतव्या पदार्थ थाय. जे पृथ्वीमां भ्रमण करे, ते सर्व कांड पामे, पण जे कूपना देडका सरखां होय, ते कांइ पण न पामे ? एवां योगीनां वचन सांजली मंत्रिपुत्रनी साथे कुमर घेर थाव्यो.
रात्रे कुमरें यावी योगीने पूब्युं के स्वामी ! नागलोकनी स्त्री शी रीतें पामीयें. योगी कहे सांजल. वंध्याचल नामा पर्वतें सुवेल नामा यदनुं प्रासाद ने. तेनी माबी जीतें गुफा ने तिहां नागस्त्री घणी. तेनो नोक्ता तुं थाइश. एवो ढुं तदारुं सौजाग्य देखू बु. एवं सांजली कुमर कामवश थयो थको पिताने प्रत्याविना त्रण मित्रसहित योगीनी साथें जवा ला ग्यो तेने त्रण मित्रं कर्तुं के, हे कुमर! तुनें योगीनो विश्वास करवो योग्य नयी ॥ यतः ॥न नारिषु न मूर्वेषु, न विरोधिषु शत्रुषु ॥ नचाविज्ञातशीले पु, विश्वसंति विपश्चिताः ॥१॥ नवितव्यताने योगें तेत्रण मित्रोनांव चन अवगणीने कुमार ते योगीसाथें चाट्यो. अनुक्रमें विंध्याचलें गया, ति हां योगीयें चार बोकडा वेचाता लीधा. ते चार जणने एकेको बोकडो आप्यो. अने कह्यु के सर्व जण एकेको बोकडो मारीने यदनी पूजा करो. पबी अांख मीचीने पगे लागो, के जेम साध्य सिम थाय.
तिहां त्रण जणा तो योगीनुं वचन मानी बोकडाने मारी आंख मीची यदनें पगें लाग्या अने श्रेष्ठीपुत्रे तो पापथकी जयपामी बागनो व ध न कस्यो. योगी तरवार काढी ते त्रगेनो शिरद कीधो. अने श्रेष्ठी पुत्र शंखने पण योगी मारवा लाग्यो, तेवारें यदें कडं हे पापिन् ! एने मारीश नहीं, कारण के एणे तदारं कथन कीधुं नथी एणे बोकडो मायो नथी. एतो जीवदयावान पुरुष , तेमाटे एने मारीश नहीं. एवं कहेथ के योगी यदने मनाववा गयो, एटलामा श्रेष्ठीपुत्र शंख ते बोकडाने जा
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यत्तवसित्तरी.
३१७ ने नाशी गयो. बोकडाने जीवतो सुगमें मूकीने विचायुं जे ए त्रणे मित्र पाप की, तो ते पापर्नु फल पाम्या. पण हवे ढुं महारा स्वजनने मुख झुं देखाहूं? माटें जिहां कोई मुझने उलखे नहीं एवी नूमियें जतो रहूं. एम चिंतवी पागल चाल्यो, तेने जाग्ययोगें मार्गमां सुबुदि नामें श्रावक मल्यो, तेनी आगल पोताना फुःखनी वात कही, त्यारे श्रावकें कह्यु धन्य डे तुजने के तें जीवदया पाली पोतानो आत्मा गास्यो. हवे तुंधर्म मूकी श मां. एम मारगमां बेहुने मित्रा थइ. श्रावकें तेने चौद पूर्वनुं सारनू त एवं पंचपरमेष्ठी, स्मरण आप्यु, अने कह्यु जे एनुं स्मरण करवाथी तु
ने इहलोकें तथा परलोकें रूडं थाशे. ____एम ते एकता पंथें चाल्या जाय एवामां मार्गे नीमनामें पत्नीपति नी धाड घावी, तेणें सथवारो खूट्यो, घणां लोको नासी गयां. तथा मरा एणां अने ए शंख प्रमुख दश बंदीवानो पकडाया. तेने पनिपतिपासें लग या, पश्निपतियें कयुं जा. एमने देवीने देहरे राखो. जेवारें अगीयारमो नर मलशे. तेवारें देवीने बलि आपीलॅ. एम कही राख्या. हवे शंख पोता ना मुखथी नवकारमंत्रनुं स्मरण मूके नहीं गण्याज करे. एम करतां य गीयारमो पुरुष पण कोइस्थल थकी पाण्यो तेवारें अष्टमीने दिवसें चामुं मानी बागल अग्यार जणने बली देवामाटें उना कीधा. तेमने अंघोल क रावी तरवार तैयार करे . एवामां पोकार करतो पनिपतिनो माणस आ व्यो के, स्वामी! धान, धा. तमारो पुत्र नूतग्रस्त थयो , मरणदशानीद्र कडो आव्यो में, ते सांजलतां वार पस्निपति तिहां गयो. तेवारें शंख नव कारमंत्रनो महिमा जागी चोकीदारने कहेवा लाग्यो के अमो अगीयार ज गने तमें जीवता मूको. तो ए तमारा पुत्रने दुं जीवाडं. पश्निपतियें कर्दा एने तेडी लावो. शीपाश् आवी शंखने तेडी गया. हवे शंखें तिहां मंमलर चना करी पछेडी नढी कमलबंधन नमस्कार जाप करवा लाग्यो, तेना म हिमायकी नूतडं नासी गयु. कुमर गती बेगे थयो. पन्निपतियें तेने खोला मां लीधो, नवो जन्ममहोत्सव कीधो. शंखना कहेवाथी दश बंदीवानो ने जमाडी वस्त्र यापीने पनिपतियें बोडी मूक्या. अने निरपराधी जीवो नो हवेथी वध करवो नहीं. एवो पडह वजडाव्यो. ते दिवसथी पनिपति ते शंखने गुरुनी पेरें याराधवा लाग्यो.
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१७ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
एकदा प्रस्तावें शंखना मात पितायें पोताना पुत्रनी खबर पामीने ति हां तेडं मोकल्यु पनिपतियें घणा आमंबरसहित तेने घेर पहोंचतो की धो. ते आपोतानां मातपिताने मल्यो,त्रणे मित्रनुं स्वरूप कडुं. राजाप्र मुख सर्व लोक कुःख करवा लाग्यां. तिहां शंख गुरु समीपें शुद्ध धर्म पामी गुनकार्योमांव्यव्यय करतो घणी श्रीजिनशासननी उन्नति करतोजीवदया मां तत्पर थयो. एम घणुं पुण्यकर्मोपार्जन करी मरीने देवलोकें देवता थयो.
ते देवनुं जेवारें शेष स्वल्पायु रघु, तेवारें गुरुने पूज्युं नगवंत ! हुँ बोध बीज केम पामीश ? गुरुये कह्यु हस्तिनागपुरे शूरराजानो पुत्र जय एवे ना में तुं थाइश. तिहां चित्र जोतां जोतांत्रण मित्रनी साथें तुं प्रतिबोध पा मीश. ते वात गुरुनी पासेंथी सांजलीने ते देवता शूरराजा पार्से आव्यो, अने राजाने कह्यु के तमारी जीतने विषे माहारा पूर्व वृत्तांत आलेखवो, तेणे महारा स्वप्न पाम्याथकी महारुं तथा महारा त्रण मित्र, पूर्ववृत्तांत चित राव्यं तेने लूगडांथी ढांकी मूक्युं, अने हुं शंखनो जीव देवलोकथी च वी आहीं यूरराजानो पुत्र थयो बु. तथा एत्रणराजपुत्र महारा पूर्व नव ना मित्र ते पण ए चित्र देखी मोह पामी. जातिस्मरण पाम्या अने मुज ने पण जातिस्मरण उपनुं तेणे करी में महारूं समस्त पूर्वनव वृत्तांत क युं. तिहां समस्त लोक राजानो तथा त्रण मित्रनो पूर्वनव सांजली दया ने विपे तत्पर थया. सर्व लोको नवकारमंत्र तथा जीवदयानी प्रास्ता आणी धर्म करवाने प्रवा . पडी ते जयराज त्रण मित्रनी साथें गुरुनी स मी चारित्ररत्न पामी आराधक थइ अनंतसुखनुं नाजन थयो. ए समके तना चोथा अनुकंपा लक्षणने विषे जयराजानुं चरित्र कयुं.
हवे पांचमुं आस्तिक्य नामें समकेतनुं लक्षण कहे . (अबिक्कमबिजिणवयणे के०) श्रीजिनेश्वरना वचन उपर जे आस्था राखे, तेने आस्तिक्यता कहीयें ॥ यतः॥ मन्न तमेव सबंमि, सकङजि णेहि परमत्तं ॥ सुहपरिणामो सम्मं, कंखाइवि मुत्तिया रहि ॥ १ ॥४५॥
ए आस्तिक्यने विषे पद्मशेखरनी कथा कहीयें बैयें. आ जरतत्रने वि षे पृथ्वीपुर नगरें पद्मशेखर नामें राजा राज्य करे जे. तेणें श्रीविनयंधरत्र रिनी पासेंथी जीवादिक नवपदार्थनो विचार लेइ वजलेखनी पेरें श्रीजि नवचन ऊपर आस्ता राखी . ते राजा प्रतिदिन सनायें बेगे अको गुरु
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३२ए ना गुणवर्णन करे. तेथी घणा जीवने धर्मठपर, गुरु कपर तथा श्रीजिन वचननी नपर बास्ता आवे. परंतु एक श्रेष्ठीनो पुत्र विजय नामें में ते राजा प्रत्ये कहे के जे ए साधुनी गुणस्तुति करे ले ते सर्व पलाल फूलनी परे डे, एवा ते वली जगतमां कोण ले के जे पांचे इंडियना विषय जीती शके? ते माटे ए सर्व यतिनी कपटाने माहारो तो ए अनिप्राय डे के कुःखी या जीवने मारी तो ते माया थका पूर्वकर्मवेदीने नवांतरें सुगति पामे.
हवे ते विजयने प्रतिबोधवा माटे राजायें पोताना यद एवे नामें अंत रंग पुरुषने कह्यु के ए विजयनी साथें तुं मित्रा करी तहारा उपर विश्वा स उपजाव. पली तेणे तेम कराने जेम ए विजय न जाणे, तेवी रीतें विज यना रत्नकरंमकमांहे राजानुं बाजरण मूक्युं. राजायें पडह वजडाव्यो जे महारं आनरण गयुं वे माटे जेना घरमांहेथी निकलशे तेने दुं चोरनो दंम आपीश. तेमाटें जे कोइ जाणो तो मने अावी कहेजो, जे कहीने पाळ
आपशे तेनी नपर दंम नथी. हवे जेवारें कोये पण यावीने राजाने न कयुं तेवारें राजायें पोताना सुनटो मोकलावीने घेर घेर शोध करी ते शो ध करतां विजयने घरे करंमीया मांहेथी यानरण निकल्युं, तेवारें राजा ये विजयने तेडावी पूज्युं तें केम महारं आनरण चोयुं ? विजयें कह्यु हुँ जाणतो पण नथी. राजायें कह्यु जे चोर होय, ते क्यारे पण पोताना मुखें माने नहीं. एम कही राजायें तेने मारवानो दुकुम आप्यो. एवो अकस्मा त् चोरीनुं कलंक चडे बते मरवाना नयथी कंपतो एवो जे विजय ते पो ताना यदनामें मित्रने कहेवा लाग्यो के तुं महारो मित्र बो, माटें हमणां मने गमे ते उपाय करीने जीवतोरखाव. दंझपरतीने पण जीवतोरदंतेम कर.
तेवार यदमित्रे राजानी आगल जइ कयुं के स्वामी ! विजय कहे जे. के ढुं तमारा आनरणनी वात जाणतो पण नथी. महारे माथे फोकट कलं क चड्युं बे, माटें महारी पासेंथी दंम लश्ने मने मुक्त करो. ते सांजली रा जायें कयुं अरे यह ! ए विजय कहे जे, के उःखीया जीवने मारी नाखीयें तो मस्या थकां ते जीव पोतानुं कर्म जोगवी सुगति पामशे, तो ए पण रूडं ने, जे ए विजयपण मस्यो थको सुगति पामशे. जेमाटे विजयना क हेवा प्रमाणे जीव तो मरवा माटे वांज , तो हवे विजयने मरवा माटें शी हरकत ? एमां एने शा वास्ते थाटलू बधुं ःख लागे ? अने प्रपं
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. च करवो पडे ले ? दंम आपवो पडे ? ए वात यदें आवी विजयने कही तेवारें विजयें कडं यावी रीतें मरण पामीने मने सुगति जोश्ती नथीमा टेजेमतेम करीमने जीवित दान अपाव. ते सांजली वली पण या वीने राजाने वीनव्यो के स्वामी विजय तो कहे , के मुजने मरण थकी जीवq घणुं वनन , तेमाटे एने मूकी द्यो. त्यारें राजायें कयुं महारा घ रथकी एक तेलतुं नरेलु नाजन लश् याखा नगरमां नमवू अने तेमां थी एक तेलनो बिंउमात्र पण नीचे पडवा न देतां तेवूनुं तेवू जाजनमहारी आगल पाjावी मूके, तो दुं जीवतो मूकीश. तेणे ते वात कबूल करी.
पडी राजायें समस्त नगरलोकने कदेवराव्युं के चहूटे चढूटे शेरी यें शेरी वीणा, वेणु, मृदंग वजाडो. अने वेश्या-ने कहेवराव्युं के त में शोल शणगार सजी रस्तामां आवी नृत्य करो, मधुरस्वरें गीतगान करो. एवा राजाना दुकुम प्रमाणे सर्व को कार्य करवामांप्रवर्तन थयां. एवामां वि जयपण कंठसुधी नरेगुं तेल, नाजन ले रस्तामां निकल्यो, घणुये रसीयो हतो, पण मरणना जयथी मार्गे जातां वीणा वेणुनादें करी वेश्याने ना चवामां एणे काननो तथा नेत्रनो चालो कीधो नहीं, एy एक तेल मांहेज ध्यान रह्यु. जे रखे ने तेलतुं एक बिंड पडी जाय ? जो बिंदु पडशे तो रा जा मारी नाखशे. तेमाटें घरोज सावधानपणे तेलना नाजनने नगरने विपे जमाडी जेहबुं नरेलुं हतुं तेवूने तेवुज राजानी पागल आवी मूक्युं अने राजाने प्रणाम कस्यो. तेवारें राजा हसीने बोल्यो के अरे विजय! तुं कहेतो हतो जे इंडियो चपल ने, तेने कोइ पण जीती शके नहीं, अने य ति कपट करे ले, तो हवे तें आजे इंडियोने केम जीती लीधीयो? तेवारें विजयें कर्तुं सर्वथकी मरण, जय महोटुंबे, में पण मरणना नयथी इंडियोनें जीती. एम सर्व जीवोने जीवितव्य वन्नन बे, मरणने कोई वांबतो नथी.
हवे राजा पोतें दृष्टांत आपीने विजयने समजावे , राजा कहे ले के जेम तें मरणना जयें करी इंशियोवश कीधीयो, मरण थकी तुंबीहीनो, तेम ए यति पण अनंता नवनेविषे मरण करवू, तेना जयथी इंडिय जय करे .तेमाटेंतुं कां नास्तिक थाय ? एम दृष्टांत थापी राजायें प्रतिबोध्यो थको विजयश्रेष्ठियें आस्तिकपणुं आणीने श्रावकपणुं पडिवङयु. ए रीतें पद्मशेखर राजायें घणा जीवोने युक्तिपूर्वक प्रतिबोध यापी श्रीजिनवचन उप
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३२१ रास्ता प्रणावी. एम श्रीजिनधर्म आराधि श्रीजिनवचन उपर यस्ता धरतो तें अनशन जइ सुरनिवनने विषे जइ देववृंदने प्रतिबोध देतो हु वो. ए या स्तिक्यनामा समकेतलक्षणने विषे पद्मशेखर राजानुं दृष्टांत कयुं.
इति महोपाध्याय श्रीचं गणि शिष्योपाध्याय श्रीशांतिचं गणित शिष्य श्री रत्नचंग लिविरचित श्रीसमक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिका बा लावबोधे सम्यक्त्वलचणस्वरूपनिरूपण नामाऽष्टमोधिकारः संपूर्णः ॥ ८ ॥
हवें प्रकारनी जया राखवी, तेनुं नवमं अधिकार कहे बेः॥ परतिबियाणं तदे, वयाण तग्गहिय चेश्याएं च ॥ जं बविहवावारं, न कुइसा बहा जयणा ॥ ४६ ॥ अर्थ : - ( परतिबि के ० ) परतीर्थी से अन्यतीर्थी मिथ्यादर्शनी जे तापस पारिव्राजकादिक तेने तथा ( तदेवया एग के० ) तेना देव जे हरि, हर, ब्रह्मादिक तेहने तथा ( तग्गहिय के० ) तेणें ग्रहण करया एवाजे श्री अरिहंतना ( चेश्याांच के० ) चैत्य प्रतिमा ते ( जं०) जे (दिवावारं के० ) षड्विध व्यापार एटले व प्रकार नो व्यवहार (नकुइ के० ) न करे ( सा के० ) ते ( बविहाजयणा के० ) कारनी जया एटले यत्ना कहीयें, एम सिद्धांतना जाए कहे बे. हवे ते प्रकारनां नाम कहे बेःਰ
--
॥ वंदा नसणं वा, दाणाणुप्पयागमेसि वजे ॥ खाजावं संजावं, पुमानित्तगो न करेइ ॥ ४७ ॥ अर्थः- एक (वंदा के ० ) वंदन, बीजुं ( नसणं के० ) नमस्कार, ( वा के० ) वली त्रीजुं ( दाए के० ) दान
चो (अप्पयाण के० ) अनुप्रदान ( एसि के० ) ए चार वा परतीर्थ प्रमुख विषे ( वजेर के० ) वर्डे, तथा पांचमो ( खाला वं के० ) खाताप ने बडो ( संजावं के०) संलाप एवा व प्रकार, पू aa परतीर्थ प्रमुख विषे न करवा. तिहां जे ( पुवमा लित्तगो के ० ) प्रथ मनालापक एटले पहेलुं बोलाव्याविनानुं तेनी सायें बोलवं, ते (ए क रेइ के०) करे नहीं, एटले बोलाव्यो बोले ते खालाप कहीयें, जे कारण माटे बोलाव्या पठी तो श्रीगौतमस्वामीयें पण जगवती प्रमुख सूत्रनेवि पे प्रश्नना उत्तर याप्या बे, तथा मया प्रमुख श्रावकें पण उत्तर श्रा प्या बे, एम जगवती प्रमुख सूत्रोनेविषे देखीयें बैयें ॥ यतः ॥ तेषं काले
४१
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. एं तेणं समएणं समजगवं महावीरे जावगुणसीलए चेए समोसढे जा परिसागडीगया तेणं कालेणं तेणं समणेणं समस्स नगवळ महा वीरस्त जिसे अंतेवासी इंदणामं अणगारे गोयमगोत्तेणं एवं जहा वित्तीयसए नियंतुदेसए जावनिरकायरियाए अडमाणे अहापऊत्तं नत्त पाणं पडिग्गहं म पडिग्गाहि रायगिहा जावअतुरियम चवलजाव रीयं सोहेमाणेरा तेसिं अन्ननबियाणं अरसामंतेणं बिति वयति त तेण ते अन्ननबिया जयवं गोयमं अरसामंतेणं वित्तिवयमाणं पासंती पासेत्ता अन्नमन्न सदावंतीता एवं वयासी ॥ एवं खलु देवाणुप्पिया, अम्हं श्माकहा अविनप्पकडा अयंचणं गोयमे अम्हं अरसामंतेणं वित्ति वयति तं सेयं खलु देवापुप्पिया अम्हं श्मा कहा अविनप्पकडा अयंच णं गोयमे अम्हं अरसामंतेणं वित्तिवयति तं सेयं खलु देवाणुप्पिया अ म्मं गोयमं एयम पुडित्तए तिकट्ठ अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुण तित्ता जेणेव जगवं गोयमे तेणेव उवागवंति उवागबित्ता ते जयवं गोयमं एवं वयासी एवं खल गोयमा तव धम्मायरीए धम्मे वादेसए णायपुत्ते पंचवि काए परमवेति तं जहा धमलिकायं जाव आगासनिकायं तं चेव जावरुविकायं अरु विकायं परमवेत्ति स कहमेयं गोयमा एवं तएणं से जगवं गोयमे ते अ अनलिए एवं वयासी नो खलु देवाणुप्पिया अबिनावं नबिति वंदामो ता वयंसाखलु तुप्ने देवाणुप्पिया एयम सयमेव पञ्चुरकेवह तिकटु न अन्नत लिए एवं वयासित्ति ॥ श्रीनगवतीसूत्रे ॥ ४ ॥
हवे एज गाथानो अर्थ, ग्रंथकार विवरीने देखाडे जेः॥ वंदणयं करजोडण, सिरनामण पूयणं च इह नेयं ॥ वाया नमुक्का रो, णमंसणं मण पसा य ॥४७॥ अर्थः-प्रथम हाथy जोडवू, अं जलि करवे करी तेने (वंदणयं के० ) वंदनक कहीयें, तथा ( सिरनामण के) शिरनुं नमावq तथा पुष्पादिकें करी (पूयणंच के० ) पूजq (इह के०) ए श्रीजिनशासनने विषे एटलांवानां वंदनमांहे अवतरे,एम (नेयं के०) जाणवू. एटलां वानां परतीर्थीने न करवां ॥यतः॥परतिबियाण परामण, ननावण थुपण नत्तिरागं च ॥ सकारं सम्माणं, दाणं विणयं च वश्यं ॥१॥ ए प्रथम यत्ना कहीयें. ( हवे बीजी यत्ना कहे . ( वाया केस) वचनें करी (नमुक्कारो के०) नमस्कारनुं करवं, तथा गुणकीर्तन ते सूर्या
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३२३ दिक देवतुं स्तवन करवू तथा (मणपसाय के०) मनप्रसाद ते मिथ्याह ष्टि देव तथा तेमना तापसादिक गुरुन जे , तेमने दीते थके हर्ष, पाम, आदरनुं देवं ते नमसणरूप बीजी यत्ना कहीयें ॥ ४ ॥
हवे एनेविषे संग्रामगूरनो दृष्टांत कहीये .यें:- एहज नरतदेत्रे प पमिनीवंम नामें नगरी. तिहां शूरसेनराजा राज्य करे . तेनो संग्राम शूरनामा कुमार , तेने बालपणाथी आहेडानुं व्यसन , माटें ते आहे डो करवाने अर्थे परदेशथी शिकारी कुतरा मगावे ने प्रतिदिन आहेडो करे. एकदा तेना पितायें तेने समजाव्युं के हे पुत्र ! आहेडानो उद्यम तुं करे , ते नरकनुं कारण , जे माटे निरपराधी जीवोनो वध करवो, तुऊ ने योग्य नथी. ए बाहेडानुं व्यसन मूकी दे अने जो नहीज मूके, तो म हारा नगरथी बाहिर जतो रहे, जेम हुँ ताहारं मोहोढुं देखें नहीं ? तेम कर. एवां पितानां वचन थकी दुःख पाम्यो थको ते उष्ट गामथकी निकली नगरनी बाहिर घर बांधीने रह्यो. तिहां नित्यप्रत्ये प्रजातें नठी साथें कुतरा तेश्ने घणा जीवोनो संहार करी यावे.
एकदा ते सघला कुतराने मूकीने कोश्यामांतरें गयो बे, एवामां ते कु तराना स्थानकनी समीपें एक श्रुतकेवली, अवधिज्ञानना धणी एवा श्री शीलंधराचार्य आवी उतस्या, तेमणे ते कुतराने प्रतिबोधवाने अर्थे मधुरस्व रें सिमांतनी गाथा जणवा मांझी, ते गाथा या प्रमाणे॥ यतः॥खिणमित्त सुरक को, जीवा निहणंति जे महा पावा ॥ हरिचंदण वणसंझ, दहंति ते बार कमि ॥ १ ॥ जीवस्स दया रहिन, जीवो अन्नं करे जो धम्मं ॥ थारुह बिन्नकन्नं, सो खरमेरावणं, मुत्तं ॥ २ ॥ इत्यादिक ते आचार्यनी वाणी सांजलतां कुतराउने जीवदयानी वासना आवी. अने चिंतववाला ग्या के अमो जीववध करी नरकें जागुं, घणां फुःख पामगुं, तेमाटे हवे आपणने या जन्मपर्यंत जीववध न करवो. एq व्रत लइ बेगा.
हवे संग्रामसूर कुमार ग्रामांतरथी आव्या नंतर आहेडे चड्यो, तिहां कू तराने लूटा मूक्या. पण ते कोइ जीवनी साहामा शेडे नहीं, घणुं ए तु तु करे तथा कालीया कालीया, मोतीया मोतीया, धोलीया, धोलीया, बा जीया बाजीया, एवां एवां नाम लश पोकारे, तो पण कुतरा तो जाणे पथ रानाज घडेला होय नहिं? तेवा स्तब्ध थइ रह्या.
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
एबुं जो कुतराना रखवालने ते उष्ठ पूडतो हवो के ए कुतरा हरणा दिकनी साहामा धसता नथी तेनुं शुं कारण ? तेणे कडं बीजूं तो कांश कारण हुँ जाणतो नथी पण ए कुतरा जिहां रहे , तेनी साहामा यति उयावी रह्या बे, ते जीवदयानां शास्त्र जणता हता, न जाणीये ते सांन लीने एमनां चित्तपण जीवदयावासित थयां होय ? __एवी वात तेना मुखथी सांजलीने चिंतववा लाग्यो जे हाहा यतियोनी वाणीथी आ पशु पण प्रतिबोध पाम्या, अने दुं अनागीन अधम थको रात्रिदिवस निरपराधी जीवोने मारतो फरूं , तो नरक विना बीजे क्यां हिपण जवाने महारुं स्थानक देखातुं नथी. एवं विचारी कुतराने बोडी मूक्या अने कह्यु के तमें तमारा गुरु जेथकी प्रतिबोध पाम्या तेनी पासें जाउ.
एबुं सांजलतांज ते सर्व कूतरा गुरुनी पासें अाव्या अने हाथ जोडी विनीत श्रावकनी पेरें आगल आवी बेग. कुमर पण कौतुकें वाह्यो गुरु समी आव्यो अने गुरुने नमस्कार करी कहेतो हवो, स्वामी! मुझने प ण धर्म कहो, जेम हुँ पण प्रतिबोध पामुं. तेवारें गुरु बोल्या, हे कुमर ! देव श्रीअरिहंत अढार दो रहित अने गुरु सुविहित गुरु प्ररूपक, श्री अरिहंतनी आझा प्रतिपालक, तथा धर्म, श्रीअरिहंत जाषित विनयमूल जीवदयासार, ए रत्नत्रयनुं तुं आराधन कर ॥ यतः॥जे अश्या जेय पडि पुरमा जेय आगमिस्सा अरिहंता जगवंता ते सवे एवमाश्कंति एवं नासं ति एवं परूवयंति सच्चे पाणा सव्वे नूया सवे जीवा सवे सत्ता ए हिंसीय वा ए नवदवेयवा एग परियावेयवत्ति अपिच किंताए पढियाए पलालन्याए पय कोडीए अंतियंननायं परस्स पीडा. ण कायवा. एवो उपदेश सांजलीने कुमरें शुक्ष निरतिचार समकेत नच्चयुं. तथा निरपराधी जीवोना वध कर वार्नु पञ्चरकाण कयुं. पड़ी आत्माने कृतार्थ मानतो थको पोताने घेर श्रा व्यो. अने कूतरा पण तिर्यचने उचित धर्म पालता थका सुखें रहे बे. पो तार्नु कुमर आहेडो मूकीने श्रावक थयो, एवं जाणी शूरसेनराजायें हर्ष पामता तेहने युवराज पदवीआपी.एम पिता पुत्र बेदु सुखें राज्य पाले . . एकदा कुमरनो मित्र,सागर नामे हतो, ते समुश्मांहे यानपात्र लइ पर देशे जर घणी लक्ष्मी उपार्जीने घेर आव्यो,ते नेटगुंल कुमरने मलवा था व्यो,तेणे नेटणुं मूकी प्रणाम करी समुह संबंधी वार्ता कही. कुमरें पूजयुं,
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३२५ कां आश्चर्य दीतुं होय, तो कहो. तेवारे ते कहेवा लाग्यो के सनिलो, आश्चर्यनी वात कडं बु. में जरसमुश्मांहे कल्पवृदनी शाखायें हिंचतो पल्यंक ते परें अमृत रूप लावण्यने धरनारी चोशठ कलामां कुशल, शोल शृंगा रें जूषित एवी कन्या बेतेली दोती. ते देखीने जेटले ढुं महारा प्रवहणने तेनी पासें लश् गयो, तेटले कल्पद पल्यंक अने कन्या सर्व अदृश्य थक गया. दुं चमत्कार पाम्यो. एटले महारा सेव कर्वा श्हांकोइ देवांगना वसे डे, ते आपणने देखी पाणीमां अदृश्य थ गइ. ए आश्चर्य में दी.
हवे कुमर, कामें पीडित थयो थको विचारे जे ए स्त्रीने ढुंकेम पामुं? पडी हाथी पितानो आदेश मागी सागरमित्रने साथें लइ प्रवहणे बेसी समुश्मार्गे चाल्यो. जातां जातां ते स्थानक पाम्या, तिहां तेमज कल्पद नी शाखायें बांधेला पल्यंकनी ऊपर कुमरीने रमती दीठी, पनी जेवारें ते नी साहामुं वहाण चलावे, तेवारे सर्व इंधनुष्यनी पेरें अदृश्य थ जाय. पडी कुमरने सर्व जनोयें वास्यां बतां पण हाथमा तरवार लश् ते कन्या नी पाउल ऊंप दीधो, तिहां जलकांतरत्न निर्मित सप्तमि प्रासादनेविपे सातमी नूमिका नपर पज्यो थको चिंतववा लाग्यो के ए प्रासाद पाणी मां केम रहेतुं दशे ? एवो संशय मनमां उपनो तिहां तेने जलकांतरत्ननो महिमा सांनरी आव्यो तेवारे तेनो संशय मट्यो.
हवे कुमर तिहाथकी हेग्लनी नमिकायें गयो, तिहां कल्पदनी शाखा नेविपे पल्यंक प्रलंबमान दीठो, ते उपरें दिव्यरूप कन्या सूती दीती. पनी उढणुं परढुं करीने तेनुं मुखकमल जोयुं ते पण तेहनो स्पर्श पामी तत्काल उठीने कहेवा लागी के, हे स्वामी! जलें याव्या. एवं कही पथ्यंकें बेसाडी नाम स्थानादिक पूबवा मांमयां, कुमर पण हर्ष पाम्यो थको नगरनुं ना म पितानुं नाम अने पोतानुं नाम तथा इहां आववानो हेतु पण कह्यो वली कुमरें कडं के तुं कोण बो? अने इहां केम रहेली बो? इत्यादिक चरित्र कहे.
तेवारें कुमरी बोली. सांजल हे महापुरुष ! वैताढ्यपर्वतें दक्षिणश्रेणी ये रथनूपुरचक्रवाल नगरनेविषे विद्युत्प्रनविद्याधर राजानी मणिमंजरी नामें ढुं पुत्री पिताने अत्यंत वनन , अन्यदा महारे पिताये निमित्तियाने पूब्यु महारी पुत्रीनो वर कोण थाशे ? तेवारें निमित्तिये कयुं समुश्माहे जल कांतरत्ननुं सप्तनूमिकामय प्रासाद करावी, तिहां कल्पवृदनी शाखायें प्र
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
लंबमान पiकें बेसी वीणा वजाडती ए ताहरी पुत्रीने राख, तिहां शूर सेनराजानो पुत्र संग्रामशूर यावीने एनुं पाणिग्रहण करशे. ते निमित्तिया ना कहेवाप्रमाणें सर्व सकार करीने महारे पितायें मुऊने इहां राखी बे. आज दिवससुधी तमारी वाट जोती इहां रही बुं. ते याज महारो मनो रथरूप वृक्ष अकस्मात् फलीभूत थयो . हवे तमने जासे, तेम करो.
एव बेदु जण परस्पर प्रेमवार्त्ता करे बे, एवामां तिहां एक अकस्मात् थयो ते कहीयें ढैयें. एक घोर विकालरूपवालो, हाथमां खड्ग धारण करनारो, ने जाणे मशीमां बोली काढ्यो होय नहिं ? एवा काला शरी रवाजो एक राक्षस तिहां प्रगट थइने कहेवा लाग्यो के घरे कुमर ! ढुं सात दिवसनो मूख्यो बुं, खने ए कन्या महारुं न बे, तो तेने तुं केम परवा वांबे बे ? एवं कही कुमरीना नेवरसहित पग उपाडीने पो ताना मुखमा घाव्या, कुमरें तेनी उपर खड्ग वायुं, पण खगना वे कटका थइ पड्या. तेवारें कुमर बाहुयुद्ध करवा लाग्यो, तेमां पण राक्षसें कुमर नें देगे नाखी बांह वाली पिलवाइयें बांध्यो, पढी कुमरप्रत्यें कहेवा लाग्यो के, हे कुमर ! या तहारी स्त्रीने हुं मूकुं पण जो एना बदलामां तुं मु ऊने एक स्थूलशरीरवाली स्त्री आणी आपे अथवा तहारी नगरीमांहे घणी दासीयो महोटा स्थूलशरीरवाली बे, ते आणी थापे, तो हुं एने मूंकुं. यने तेनुं क्षण करूं. अथवा जो एम पण न करे, तो या निकट द्व कडा महारा गुरु चरक पारिव्राजक बे, तेने खावी पगे लाग. अथवा एज महारा प्रासादने विषे हरि, हर खने ब्रह्मानी मूर्तियो बे, तेने नमस्कार करी, पूजा कर. अथवा महारी प्रतिमा करावीने तेनी नित्यप्रत्यें पूजा कर. तो ढुं तहारी स्त्रीने मूकी पुं. जो एम नहीं करीश, तो आाखी गली जश.
ते सांजनी कुमरें कयुं के हुं जो स्थूलदेहवाली स्त्री तुमने खाणी या पुं, तो तेनो तुं वध करे. ते वध करवानुं पाप मने पण लागे, तेथी महा रो व्रतजंग थाय. माटे ए काम महाराथी न थाय, तेमज वली देव तो श्री जिनेश्वर ने तेमनी खाज्ञाना प्रतिपालक सुसाधु ते महारा गुरु बे तेम ने मूकीने बीजा कोइने हुं नमस्कार पण करूं नहीं. एक श्रीअरिहंत वि ना बीजा लौकिक देवने हुं प्रणाम पण न करूं, खने पूजा पण न करूं. वली हे राक्षस ! ए तुमने पण योग्य नथी, जे देवता थइने जीववधनो
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३०७
धंधो करे बे ? तेवारें राक्षसें कयुं जो एटलां वानां तुं न करे, तो इहांज श्री जिनगृह तेनेविषे श्रीवीतरागनी प्रतिमा बे, तेने पूज. ते वात कु बे मर कबूल करी ने हर्षवंत थयो थको प्रतिमा पूजवा गयो. तो तिहां ते प्र तिमाप्रत्यें बौने पूजा करतां दीग. ते जोइ कुमर बोल्यो ए बिंब मि
दृष्टि जनोयें परिग्रहीत बे तेमाटे मुजने पूजवुं कल्पे नहीं. ए कार्य क रुं तो महारा सम्यक्त्वनी हाली थाय. माटें जो तुं महारो शिरच्छेद करे ते दुं कबूल करीश, पण जे कार्य करवाने तुं कहे वे, ते मांहेलं एक पण कार्य हुं करीश नहीं. हवे तहारा विचारमां यावे ते कर.
एवं सांजली ते राक्षस कुमरी प्रत्यें तेना पगथी गलवा लाग्यो, तेवारें कन्या कुंबारव करवा लागी, के परे खार्यपुत्र ! या राक्षस जे कहे बे, ते का ये करीने हमणां तुं मुऊने जीवती रखाव वली गुरु समीपें जश्ने सम्य क्त्वनो उच्चार करजे. एम कुमरीयें बुंबारव करतां राक्षस, कुमरीने गलतो गलतो गलासुधी श्राव्यो, श्रने कुमरने कहेवा लाग्यो के एने संपूर्ण गली नेप हुं तुमने पण गली जश्श. अरे ! एक दासी पण तहाराथी अ पाती नथी, जला नथी अपाती तो रह्यं, पण हजी तुमने जीववानी या शा होय तो दासी रही, पण एक बगली पाणीमांथी पकडीने मुकने लावी याप तेने कुमरें कयुं के तुं गमे ते कर, पण हुं कांइ तहारुं वचन मान्य करीने व्रतनंग करनार नथी. जेमाटें मारी नाखवाथी उपरांत बीजी कोइ शीक्षा कांइ तहाराथी याय तेम नथी, ने मरखुं तो एक वार बेज, पण समकेत पामकुं माहाडुष्कर बे, ते कांइ वारंवार पमातुं नथी माटें तुं तहा रुं वचन मानवा संबंधी कांइ पण आशा राखीश नहीं. हुं मरवाथी बी
तो नथी. एवं कुमरनुं साहस देखीने चमत्कार पाम्यो थको ते राक्षस नुं रूप मूकीने दिव्यरूप धारण करी कुमरने पगे लाग्यो, अनेक के, जेवो सोधमै तुमने सनामांदे वखाएयो तेहवोज तुं साहसिक बो. हूं
महाराजनुं वचन मानतो न हतो, पण में तुमने सोनानी पेठें कसी जोयो, तो तुं तेवोज बे. हवे हुं सौधर्मवासी देव बुं, ते तहारी उपर संतु टथ कहुं बुं. केतुं जे कां महारी पासें माग, तेहुं खाएं. कुमरें कयुं महारे देव गुरुना प्रसादथकी कोई वस्तुनी खपती नथी. एवं कहे ते ते देव ता गंधर्व विवाहें कुमरीनुं पाणिग्रहण करावी कुमरनी रजा लइ देवलोकें गयो,
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कुमर पण मणिमंजरीनी साथै विषयसुख जोगवतो थको तिहांज रह्यो. __ एकदा प्रज्ञप्ति विद्यायें जश्ने मणिमंजरीना पिताने समाचार कह्या, ते वारे ते तिहां यावी घणी शक्षि थापीने मणिमंजरी सहित कुमरने पनि नीखेम नगरें तेडी गयो, कुमर पोताना माता पिताने पगे लाग्यो, मणि मंजरीनो पिता विदायगिरि मागी वैताढयें गयो. शूरसेन राजा पण रक्षा वस्थायें पुत्रने राज्य आपी पोतें दीक्षा लश् धर्मराज्य पालवा लाग्यो. कु मर पण सम्यक्त्वमूल श्रावकव्रतरूप धर्म पाली अंतें समाधिमरण करी देवलोकनां सुख जोगवी अनुक्रमें मुक्तिने विषे अनंत सुखनो नोक्ता थाशे. एवंदन अने नमनरूप वे यत्नाने विपे संग्रामशूरनी कथा कही ॥
हवे त्रीजी दान अने चोथी अनुप्रदान ए बे यत्ना तथा पांचमी याला प अने बही संलाप एवी चारे यत्नानुं स्वरूप कहे :
॥ गनरव पिसुणं वियरण, मिहासण पाण खऊ सजाणं ॥ तंचिय दाणं बहुसो, अणुप्पयाणं मुणि बिंति ॥ ४ए ॥ सप्पणयं संनासण, कुसलं वोसागयं च बालावो ॥ संलावो पुणरुत्तं,सुहछह गुण दोस पुना ॥५॥
अर्थः-जे (गरवपिसुएं के०) गौरव एटले थादर तेनुं पिशुन एटले सूचक एवं (वियरणं के०) वितरण जे दान ते दानेंकरी यादर जाणियें. ते माटे गौरव पिगुन कह्यु हवे ते दान कर कई वस्तुनुं होय ? ते कहे जे. (s हासण के० ) इष्ट वचन एवं अशन जे उदनादिक अने (पाण के० ) पा गी ते शद जल, इकुरस, नालिकेरजलादिक जाणवा तथा (खऊ के०) खाद्य ते फलादिक अने (सजाणं ) शय्या, वस्ति, रहेवानुं स्थानक इत्यादिकनु जे दान ते महत्त्वY जणावनाकै ने, माटे एवं दान मिथ्यादृष्टि ने देतां थकां को देखे, तो एबुं जाणे जे ए श्रावक थश्ने मिथ्यादृष्टिने ए वडो आदर करे . तो ए पण गुणवंतज हशे, माटें अमें पण एने आदर आपीयें एम मिथ्यात्वनी वृद्धि थाय. एटला माटे न देवु ए दानरूप त्रीजी यत्ना कहीयें. हवे (तंचियदान के०) तेहज दान जे एकवार आपतेतो दान कहेवाय पण जे (बहुसो के०) वारंवार देवं तेने (अणुप्पयाणं के अनुप्रदान एटले अनुप्रसाद कहीयें. ए रीतें (मुणि बिंति के०) मुनियो कहे ,ए चोथी अनुप्रदान यत्ना कहीये. शहां घर बागल को अन्यदर्शनी नो निदाचर याव्यो होय तेने लोकव्यवहारें तथा अनुकंपायें दान देवानो
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३शए कांश निषेध नथी ॥ ४ ॥ अर्थः- (सप्पणयं के०) सप्रणय एटले स्ने ह सहित जे (संनासण के०) संनाषण करवू, ते आलाप कहीयें. ते केवी रीतें याय ? ते कहे जेः-(कुसलं के०) तुमने कुशल ले ? (वा के०) अथ वा (सागयं के) स्वागतं एटले सुधागतं अर्थात् तमें आव्या ते न थ युं ? तमें जलें याव्या? अथवा सुखें आव्या इत्यादिकनुं जे पू, तेने (च के० ) वली (आलावो के) आलाप कहीयें, ते आलाप मिथ्यादृष्टिनी साथें न करवो. ए पांचमी आलाप नामें यत्ना जाणवी.
अने ( संलावोपुणरुत्तं के०) पुनरुक्त एटले वारंवार जे आलाप करवो तेने संताप कहीयें. अथवा (सुहह गुणदोसपुबाउके०)सुखदुःख गुण दो पना पूबवाथकी पण संलाप थाय. पुत्र, पुत्री, कुटुंब, परिवार, तथा शरीर था श्रयीव्यथाश्रयीयाय व्ययादिकनासुखनुं जे पूq ते सुखप्टना कहीये. तथा हमणां तमें चित्ता देखाउ बो. राजा, चोर,गोत्री प्रमुख तमने संतापे . एटला माटें तमें कुःखीया बो? एवं पूबवू, ते पुःखटडा जाणवी. तथा क या कया शास्त्रने विषे तमारो परिचय ले ? अथवा तमें कां नपता नथी? कलान्यास करो जेम रूडं थाय? तमारामां औदार्य, धैर्य, सत्त्वादिक गुण रूडा डे ? इत्यादिकनुं जे पूड, ते गुणटबा कहीयें. तथा तमें उर्बल देखा
बो, तेमज वली ज्वर, ताप, पित्त कफादिक रोगनुं पूबवू,ते दोष टन्ना क हीयें. ए प्रकार करवे करी संलाप कहीये. ते संलाप मिय्यादृष्टिनी साथें न करवो. जे माटें मिथ्यादृष्टिनी साथे जे अलाप संलाप करवो, ते उर्गति नुं कारण . ए ब यत्ना कहीयें ॥ यतः॥ालावो संलावो, विसंनो संथवो पसंगो य ॥ हीणायारेहि समं, सबंजिणंदेहिं पडिकुछो॥१॥आणायवर्टतं, जो उबवुहिक मोहदोसेणं ॥ तिबयरस्स मुयस्स य,संघस्स य पञ्चणी सोय॥
हवे ए पाबली चार यत्नाने विषे मंत्रितिलकनो संबंध कहीयें बैयें. एज नरतदेवें विजयपुर नगर तिहां नलराजा राज्य करे . तेनी सौना ग्यमंजरी एवे नामें पट्टराणी बे, अने मंत्रितिलक एवे नामें प्रधान बे. ते सकलबुद्धिनिधान ले. एकदा राजा पोताना मंत्रीनी साथे आहेडो करवा निकटयो, वनमांहे एक मृगलो दीठो, राजा तथा मंत्री बेदु मृगलानी पढ़ें लागा, ते जेटले मृगनी उपर बाण नारव्यु, एटले मृग बोल्यो, के हे दत्रीउ
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
तम ! तुं तृणना खानार ने निर्झरना जलना पीनार एवा निरपराध । अमोने शुं करवा मारे बे ? मने मारतां लाजतो नथी ?
उ
एवी मृगनी वाणी सांजलीने राजायें मंत्री प्रत्यें पूढधुं के हे मंत्री ! या मृगलो मनुष्यनी जाषायें बोले बे, एनुं शुं कारण हशे ? मंत्रीयें कयुं ए मृग न दोय ए तो कोक देवता जगाय बे, माटें यापरों एनी पाठल दोडीयें, एक्यां जाय बे ? हवे ते मृग फाल देतो चाव्यो जाय, तेनी पाठ ल राजा ने प्रधान बेदु घोडा दोडावता जाय. एटले मृग एक वनमां हे गयो, तेनी पाल राजा खने मंत्री पण गया. तिहां ध्यानैकतान, परामरसनो कूप, मानो खागर, सकलसाधु गुणसागर, एवो एक साधु दीठो, तेनी पासें जश्ने पहेलो मृगलो बोल्यो के हे महानुभावो ! तमें या साधुने वांदो, एवं मृगनुं वचन सांजली बेदु जण घोडाथी उतरी साधुने वांदता हवा. वांदीने वेठा, तेवारें साधु धर्मोपदेश देवा लाग्या ॥ यतः ॥ दानं सुपात्रे विशदं च शीलं तपो विचित्रं गुननावना च ॥ नवार्णवोत्तारण सत्तरं, धर्म चतुर्द्धा मुनयो वदंति ॥ १ ॥ ए चारमां दान घणा प्रकारनां बे, तेमां अनयदान अने सुपात्रदान ए वे दान मुख्य बे. तेना फलनो य नयी एवो धर्मोपदेश सांजलीने राजा धर्माभिलाषी थयो.
9
हवे साधुनुं रूप ने तेज देखी करी चमत्कार पूर्वक राजा पूढ़वा ला ग्यो, हे स्वामिन्! तमोने गुं वैराग्यनुं कारण थयुं ? जे एवं रूप, तेज, ला व तां यौवनावस्थायें दीक्षा जीधी ? साधु बोल्या, हे राजन! संसा रमां जो परमार्थदृष्टियें विचारायें, तो सर्व कां वैराग्यनांज कारण देखाय बे. हवे सांजलो. हे राजन् हुं महारा वैराग्यनुं कारण कहुं बुं.
सिधपुर नामें नगर तेनो जुवनसार नामें राजा, तेने कनकश्री पटरा पी ने तथा तेनो मतिसागर नामें प्रधान बे. एकदा राजसनायें नाटकी या याव्या, तेणें महोटे विस्तारें नाटक करवा मामधुं ते जोवामाटें रा जायें पोतानुं अंतःपुर पण तेडाव्यं. तिहां राजा रससहित नाटक जूवे बे.
एवामां द्वारपालें खावी कयुं, हे स्वामिन् ! निमित्तियो ब्राह्मण याव्यो बे, यापनी यज्ञा होय, तो खाहीं तेडी लावुं. राजायें कह्युं तेडी लाव. हार पालें तेड्यो थको खावीने याशीर्वाद देइ बेठो, नाटक पूरुं ययुं तदनंतर राजायें निमित्तियाने पूढयुं, तुमने कल्याण बे ? निमित्तियें कयुं, हे स्वामि
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३३१ न् ! मुझने कल्याण नथी, तुमने कल्याण नथी, अनें आ घरमा कोश्ने प ण हूं कल्याण देखतो नथी. एवं तेनुं बोलवू सांजली राजा रीश चडावीने कहेंवा लाग्यो के अरे झुं आकाश त्रूटी पडशे? किंवा पर्वत त्रूटी पडशे?
आ बांजणनी वात जो जो कहे , के कोने कल्याण नथी. प्रधाने कर्दा स्वामी ! रोष शा माटें करो बो? कारण पूजी व्यो के शाथकी अकल्याण
? तेवारें राजायें पूछे थके निमित्तियो बोल्यो स्वामी ! अकस्मात् मेघ वर सशे तेथकी सर्व नगर जलमय थइ जाशे. माटे अकल्याण देखु बुं. ___ एवं कहेतांज उत्तरदिशाथकी एक हाथप्रमाणे वादलु चड्यु. ते थोडा वखतमां सर्वथाकारों व्यापी गयु. गरिव तथा वीजलीना जबकारा था वा लागा, एटले राजा, मंत्री अने निमित्तियो ए त्रणे जण तिहाथी उठी ने सातमी नूमियें चड्या. तिहां राजा, प्रधानप्रत्ये कहेवा लाग्यो के हा हा इतिखेदे आपणुं अकस्मात् मरण पाव्यु !! आपणे कांश पुण्य कीg नथी तो हवे मरीने किहां जश्गुं ? एटलामां तो सातमी नूमिसुधी पाणी चडी आव्यां, राजाना पग जीजावा लाग्या, राजा नयन्त्रांत थयो थको न मस्कारमंत्र गणवा लाग्यो, एटले जेनी उपर पग मूकीने चडीयें एवं एक महोटुं यानपात्र प्रगट थयु,तेवारें प्रधाने कर्वा पाणी सातमीनूमियें आव्यु माटे हमणांज ए वहाणमां बेसो. कोक देवतायें तमने सहाय कीg . ते सांजलीने राजा जेटलामा जमणो पग नपाडीने वाहाणमां मूकवा जा य दे, एटलामां तो मेघ पण न दीठो, अने यानपात्र पण न दी नगर जेह पूर्वे हतुं तेह ने तेहबुज दीहूं, लोक गातां वातां व्यापार करतां दीवां. राजायें निमित्तियाने कमु ए थयुं ! निमित्तिये कयुं में कांक इजाल देखाडी तेमज संदेहथी राजायें जाणियें इंजालिक निमित्तियाने बे कोडी सुवर्ण थापी विदाय कस्यो.
पड़ी राजा पोताना अंतःपुरादिक पागल कहेले के जेहवी या इंजाल दीती तेहकुंज संसारनुं स्वरूप पण जाणजो. यौवन, लक्ष्मी, राज्य प्रमुख ए सर्व इंजालने दृष्टांतें . में मनुष्यनवादिक सामग्री पामीने आज पर्यंत निरर्थक गमावी हवे ढुंदीदा लइ सामग्री सफल करीश. एम कही पोता ना विक्रम नामें पुत्रने राज्य आपी राजायें दीक्षा लीधी. तेज नुवनसागर
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३७
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
राजा ढुं बुं. हमणां भुवनसार साधु कहेवानं बुं. एवं पोताना वैराग्यनुं का रण कही साधु बाना रह्या.
नलराजा पण साधुना वैराग्यनुं कारण सांजली हर्ष पामी कहेतो ह वो के हे महाराज ! एवी मति तमारा सरखा उत्तमपुरुष होय तेनेज या वे. पण हुंतो जारे कर्मी बुं माटे मने एवो वैराग्य यावतो नयी. तथापि मने आप कृपा करी शुद्ध समकेतनो उच्चार करावो. समकेत ढुं पालीश. तेवारें साधुयें समकेतनुं स्वरूप राजाने समजावीने पती समकेत उच्चराव्युं.
राजायें पूयं स्वामी ! ए मृग कोण हतो के जेणे महारी उपर खाट लो उपकार करो. साधुयें कह्युं ए तहारो पाउला जवनो ब्राह्मण मित्र ह तो, ते अज्ञानकष्टकरी यह थयो बे, हमणां मुऊने देखी नकनावी य यो ने तुमने देखी तहारी उपर एने प्रीति उपनी, तेवारें मृगलानुं रूप धारण करी तहारी उपर साधुसमागमरूप उपकार कीधो ॥ यतः ॥ चंदनं शीतलं लोके, चंदनादपि चंड्माः ॥ चं चंदनयोर्मध्ये, शीतः साधुसमागमः ॥ ॥ १ ॥ पी यह पण मृगलानुं रूप बांकी साधुने पगें लागी, समकेत या दरतो वो वली राजाने कयुं श्रवसरें संचारजो, ढुं यावीश. एम कही ते यह पोताने स्थानकें गयो.
राजा तथा प्रधान बेदु नगरमां खावी राजायें रत्नमय जिनप्रतिमा क रावी तेनी पूजा करतो साधर्मिक वात्सल्य, अष्टमी, चतुर्दशी, पौषधोप वासादिकने पारणे साधर्मिक वात्सव्य प्रमुख कार्य करवामां प्रवर्त्ततो वो मंत्रि तिलक प्रधान पण राजानी पेठें शुनकृत्य करवा लाग्यो.
एकदा कर्मयोगे मंत्रितिलकने असाध्य रोग थयो. वैद्ये पण हिम्मत मूकी कयुं, के ए रोग अमारे साध्य नथी. एवं कही पोताने घेर गयो. ए वामां एक पारिव्राजकनो वेश धारी वैद्य याव्यो तेरो प्रधानने समाधि करी तेथी प्रधान तेनो पक्षपात करवा लाग्यो. मिष्ट मिष्ट अशनपानादिक रूडां रूडां वानां तेनें खापे, घणो खादर यापे, राज्य सजायें तेडी लावे, राजा नी खागल तेना गुए बोले, तेने राजा कहे ए मिथ्यादृष्टिनी स्तुतिरूप मु खें करी कां श्रापणा समकेतरूप हीरोदक वस्त्रने मलीन करे बे ? मंत्री कहे गुणवंतना गुण बोलतां समकेत मलिन न थाय.
एकदा ष्टथिवीस्थान नगरथी कोइ चार पुरुष मली नलराजाने कागल
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. लख्यो जे हे स्वामिन् ! तमारो वैरी जे नीलराजा तेणे एक पांत्रीश व र्षनो पारिव्राजक पापरूप महिकायें कालो थयेलो महामायावी वाचाल
, तेने तमोने मारवामाटे मोकट्यो , तेनो विश्वास करशो नहीं. एवो लेख राजायें एकांतें वांचीने पारिवाजकने पकडवामाटे सुनटो मोकल्या, ते सुनटें तेने पकडी बांधी लातो तथा मुष्टिना प्रहार कस्या तेथी तेनी क डमांथी कंक लोहमय बुरी निकली वी, सुनटें ते बुरी लश्ने राजाने देवाडी, तेवारें राजायें प्रब्यं आ गं आश्चर्य? तेणें नीलराजानी यथा स्थित वार्ता कही संनलावी. राजायें प्रधानने तेडी कह्यु के जेनां तुं वरखा ण करतो हतो, तेनां चरित्र जो ले. एम कही राजायें तेने मंत्रिपदथी उतारी बीजो मंत्री थाप्यो. मंत्री पण पोतानुं समकेत मलीन थयुं जा एी आलोयण प्रायश्चित्त लइ समकेतनी शुद्धि करतो हवो. पनी तेने शु इसमकेत पालतो जाणीने राजायें तेडीने वली पण तेने मंत्रिपदें स्था प्यो. वली पण राजा तथा प्रधान बेतु जनने परस्पर तेमज प्रीति थ.
हवे घात करनारो परिव्राजक, राजाप्रत्ये कहेवा लाग्यो में नावथकी जैनदीदा लीधी ,माटे मारवो होय तो मार, अने जीवतो मूके तो मूक. तहारं मन माने, तेम कर. राजायें विचायु के जो तुं सम्यक्त्व पाम्यो हो, तो पण नावचारित्रीयो थयो कहेवाय तेमाटे हुँ तुमने मूकुं . एम कही परिव्राजकने मूक्यो. राजायें चिंतव्यु महारो वैरी नीलराजा ,तेनी साथै युद करूं तो घणा जीवोनो संहार थाय, माटे यदनुं स्मरण करूं पड़ी राजा यें अहम तप करी पौषध लइ पौपधशालायें वेसी यदनुं स्मरण कयु. य द तेना मनोगत नावने जाणी नीलराजाने बांधीने तेनी पासें लश् याव्यो. तेने नलराजायें कडं अरे पापी ! हवे कहे हुँ तुमने केवी शिक्षा करूं ? नी लराजायें कयुं हुं तहारे शरणेाव्यों बुं, माटें मन माने तेम कर. एमक हे थके नलराजायें तेने पोतानीयाझा मनावी पोतानो सेवक करी मूकीदीधो.
हवे नलराजा कर्मराज तथा धर्मराज बेदु राज्यने सरखां पालतो थ को रह्यो. एकदा उद्यानपाखें श्रावी वधामणी दीधी जे स्वामी ! उद्यान नेविषे मुनि पधाया , तेने राजा हर्षदान आपी पोतें मुनिने वांदवा गया. तिहां जोयुं तो जेमनी पासेंथी पोतें धर्म पाम्यो , तेज साधु पधा स्या दीगा. साधुयें पण कयुं, हे राजन् ! तुं मने उलखे ? राजायें कह्यु
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. हा स्वामी ! तमें महारा धर्माचार्य बो, तमाराथी हुँ धर्म पाम्यो बुं.
हवे आचार्य लोकोनी आगल पोतानुं वृत्तांत मांझी कह्यु, ते सांजली ने घणां लोक संवेग पाम्यां. राजायें पण धर्मदेशना सांजली संवेग पाम्यो थको पोताना पुत्रने राजपाटें थापी अमारी पट्टहोद्घोषणा करावी दीन जनोने दान आपी दीक्षा लीधी. मंत्रितिलक प्रधाने पण राजानी साथें दी दा लीधी. राजायें पडह वजडाव्यो के महारी साथै जे दीक्षा लेशे, तेना कुटुंबनी चिंता महारो पुत्र करशे. एवं करवाथी घणे लोकें दीदा लीधी. राजा ते सर्वनी दीदानो संघवी थयो. राजा दीक्षा पाली तपस्या करी अंतें अनशन पादरी सर्वार्थसिविमाने स्वेवायें सुख जोगवतो थयो. मं वितिलक समाधि मरण करी सौधर्म देवलोकें सौधर्मेनो मंत्री थयो. अ नुक्रमें बेदु जण मोदपद पामशे. ए चार यत्नाने विषे मंत्रितलक प्रधान तथा नलराजानां दृष्टांत कह्यां.
इति महोपाध्यायश्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचिते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिकाबालावबोधेपट्यत्नास्वरूपनि रूपणनामा नवमोऽधिकारः सपूर्णः ॥ ए॥
हवे बागारनो दशमो अधिकार कहे . ॥ आगारा अववाया, बबिह कीरति नंग ररकहा ॥ राय गणं बल सुर क, म्म गुरुनिग्गह वित्तिकंतारं ॥५१॥ अर्थः-(यागारा के) जे आगार ते (अववाया के ) अपवाद कहीयें. जे कारणमाटें श्रीजिन शासन जे , ते एकलाज उत्सर्ग मारग अंगीकार करवे चाले नहीं. ते माटे अपवाद कह्यो ॥ यतः॥ उवसग्गसु अकिंचि, किंचिअपवायत्वं नवेसु तं ॥ तज्नयसुत्तं किंचि, सुत्तस्स गमा मुणेयवा ॥१॥ तेमाटे जिहां उत्स गै घटमान होय, तिहां उत्सर्ग आदरवो. अने जिहां अपवाद घटे तिहां अपवाद आदरवो. श्रीजिनशासनरूप प्रासादनेविषे उत्सर्ग जे , ते मूल बारणुं . अने अपवाद जे जे, ते नासता जीवने बारी ने नत्सर्ग जे , ते यथारख्यात झान, दर्शन, चारित्रियानो निरतिचार मार्ग ले. ते दमणाने कालें संघयण, तिबल रहितपणे करी सेवन करीन शकीयें तेमाटे अपवाद सेवन करी पडीयालोयण प्रायश्चित्त लश्सम्यक्त्व नियमादिक शुरू करवा.
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३३५
ते यागार श्रीसमकेतने विषे (विकीरंति के०) व प्रकारें करीयें, ते शे करीयें ? तो के ( जंगररकछा के० ) समकेतंना जंगनी रक्षाने यर्थे करीयें. जो ए बागार न करीयें, तो समकेतनो जंग थाय ? अने जो ए गार करीयें तो समकेतनो जंग न थाय ? अने समकेतनो जंग थवाथी दुर्गतिपात थाय ॥ यतः ॥ वयनंगे गुरुदोसो, थोवस्सवि पालणा गुण क री ॥ जंगा गुरुपि वयं, सगडंवन होइ फल हेक ॥ १ ॥
ठ गानां नाम कहे बे:- एक ( राय के ० ) राजा, बीजो (गणं के० ) गण ते इष्ट स्वजन बांधव प्रमुखनो वर्ग, त्रीजो ( बल के० ) बल पराक्रम ऐश्वर्यादिकवंतनो हठ, चोथो ( सुरकम्म के० ) देवतानो क्रम एटले परा क्रम, पांचमो ( गुरुनिग्गह के० ) गुरु जे मिथ्यादृष्टि माता पितादिक तेनी निग्रह, बो ( वित्तिकंतारं के० ) वृत्तिकंतार तिहां वृत्ति एटले याजीविका तेनो कांतार एटले टवी एटले सर्वथा याजीविका नज चाले ए ब या गार समकेतने विषे जाणवां. ए व यागार मोकलां राखीने समकेत उच्चरे, तो सम्यक्त्वनो जंग न थाय ॥ ५१ ॥
हवे गारो अर्थ ग्रंथकार विवरी देखाडे बे.
॥ राया पुराइ सामी, जण समुदाने गणो बलं बलियो || कारंति वंद ाई, कस्सवि ए ए तह सुरावी ॥ ५२ ॥ गुरुपो कुदिहि जत्ता, जगाइ मि बहिण जे || कंतारो माइ, सियामिह वित्तिकंतारं ॥ ५३ ॥ अर्थः(रायापुरासामी के० ) पुर यादि शब्दथकी नगर ग्राम खेट खर्वट देशनो स्वा मी होय तेने राजा कहीयें, तथा ( जण समुदाउ गणो के ० ) स्वजननो समुदाय तेने गए कहीयें. तथा (बलंब लिगो के ० ) यामात्य, नगर, श्रेष्ठी, कानुगा प्रमुख बलवंत पुरुषो तेनुं बल (एए के० ) एटला जन बलात्कारें (कवि ) कोइक समकेतवंत जीवने (वंदराई के०) वंदन नम स्करण पूजन सत्कारादिक करावे, एवी रीतें बलात्कारें परपाखंमीने वंदना दिक करतां समकेतनो जंग न थाय. ( तहसुरावि के० ) तथा क्षेत्रपाल, शाकिनी, माकिनी, नूत, प्रेत, पिशाचादिक देवताने पण बलात्कारें करी को शक सम्यक्त्ववतपासें वंदनादिक करावे, तो तेथी तेना समकेतनो नंग न थाय ॥ ५२ ॥ अर्थः- ( गुरुणो के० ) गुरु जन जे ( कुदिनित्ता के० ) कुदृष्टि एटले मिथ्यादृष्टि एवा शाक्यादिक लोक तेना ( जत्ता के ० ) जक्त हो
"
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. य एटले मिथ्यादृष्टि गुरुना नक्त होय एवा (जे के) जे (जणगाइ के०) जनकादिक ते माता पिता ज्येष्ठ नाइ, तथा काका प्रमुख तेने गुरु कहीयें ॥ यतः ॥ पिता माता कलाचार्या, एतेषां ज्ञातयस्तथा ॥ वृक्षधर्मों पदेष्टारो, गुरुवर्गः सतां मतः ॥ १ ॥ ए जनकादिक (मिडदिहियो के०) मिथ्यादृष्टि होय एटले कुदृष्टि शाक्यादिकना नक्त होय ते बलात्कारें करी पोताना पाखंमी गुरवादिकने वंदावे तथा नियमनंग करावे, तेने गुरु निग्रह कहीये तेथी समकेतनो नंग न होय. तथा (कांतारोन्माईसियणं के०) दुधादिकरूप कांतारने विपे जे सीदावतुं तेणें करी (इह के०) याहिं (कृत्तिकांतारं के ) आजीविकारूप वनाटवि तप फुःखें करी निय मनो नंग थाय नहिं ॥ ५३ ॥
हवे एनो नावार्थ कहीयें बैयें. कोश्क सम्यग्दृष्टि जीव नत्सर्ग अप वादनो जाण होय, ते वृत्ति चलाववा रूप कांतारने विषे पज्यो, अर्थात् महा दरिड़ी अवस्थाने विषे पड्यो, कोइरीतें पण आजीविका चाले नहीं, अने जीव्युं पण जोश्ये ते पुरुष पोताना चित्तने विपे श्रीजिनधर्मनेज त त्त्वपणे जाणतो तो तेने मिथ्याष्टियें हठ थकी नियमनंग करावी, ते वृत्तिकांतार कहीयें, तेणे करी सम्यक्त्वादिक नियमनो नंग न थाय ॥५३॥ हवे ए ड आगारें करी समकेत नंग न थाय ते शामाटें ? तेनो हेतु कहे जे.
॥ न चलंति महासत्ता, सुनिऊ माणावि सुध धम्मा ॥ इयरेसि चल ण नावे, पश्न्न जग्गेन एएहिं ॥ ५४॥ अर्थः-(महासत्ता के०) महा सत्त्वना धणी होय ते देव, दानव मानवादिकें (सुनियमाणावि के०) घषुए नेदाता थकां कदर्थना पमाड्या थका पण (सुधम्मा के०) गुरुधर्म जे श्रीवीतराग देवनो नांखेलो निर्मल धर्म तेथकी (नचलंति के०) चलायमान थाता नथी. जेम मेरुपर्वत वायरे करी चलायमान थाय नहीं तेम धर्मने विषे जेमनुं अत्यंत दृढ मन थयेलु डे एवा महा सत्त्ववान् पुरुषो पण तेनी पेठे जाणवा. परंतु एवा महासत्त्व पुरुषोथी (इयरेसि के) इतर जे मंदसत्त्ववान पुरुषो , तेमने (चलणनावे के०) चलवापपुंजे, तेवा जनोने (एएहिं के०) ए ए आगार मो कला राखवे करी (पश्न नंगोन के०) प्रतिज्ञानो नंग न थाय, जे
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३३७ माटे जे उत्सर्ग मार्ग राखी शके, तो ते घणुंज रूडं , परंतु जे उत्स गेमार्ग राखी न शके, तो ते ए नागार मोकलां राखीने समकेत पा से, तो पण नखं ॥ यतः ॥ महासवाणुना, सबनिसे होय पवयणे नवि ॥ अयंवयंतुलीला, लाहा कंखिव वागीय ॥ ५ ॥
हवे ए बए आगारने विपे मृगांकलेखानुं दृष्टांत कहे जेः-मालवदेशे उ जायणी नगरीयें अवंतीसेन नामें राजा राज्य करे , तेज नगरमा एक धनसार एवे नामें सार्थवाह रहे , तेनी रंना नामें नार्या डे, तेने मृगांक लेखा नामें पुत्री जे. ते बालनावथकी पण निर्मलसमकेतनी धरनारी श्री जिनधर्मने विषे तत्पर अने जीवाऽजीवादिक नवतत्त्वनी जाण .
एकदा ते कुमरी उद्यानने विषे धनसारसार्थवाहनुं करावेलु उत्तंगती रण शिखरबंध श्रीजिनप्रासाद , तिहां सकल सामग्री लश्ने पूजा कर वाने अर्थ गइ. प्रथम इव्यपूजा करीने पढ़ी जावपूजा निमितें कानस्सग्ग करी उनी रही . एवामां तिहां सागरश्रेष्ठीनो पुत्र पोताना मित्रने साथें लश् देव जुहारवा आव्यो बे. तेणें देव जुहारी वली नश्क पणाथी कान स्सग्ग धारी प्रतिमाने नमी पगे लाग्यो वांयो. ते जो हाथ तालोटो दे तेनो मित्र हस्यो, श्रेष्ठी पुत्रे पूब्युं शा कारणे हश्यो ? मित्रं कह्यु ए प्रति मा नथी पण धनसार्थवाहनी पुत्री मृगांकलेवा जे, तेने तुं पगे लाग्यो.
हवे ते श्रेष्ठिपुत्र मृगांकलेखानुं रूप जो कामनूतें ग्रस्त थयो थको घेर जश नखरडे पर्य। सूतो, मात पितायें बोलाव्यो बोले नहीं, घणुंए पूठे, पण पाडो उत्तर आपे नहीं. तेवारें तेना मित्रे सर्व वात मातपिता आग ल कही समजावी. मातपितायें कह्यु, ए योग्य वात , ते अमें करीगुं, तुं आवी जोजन कर, इत्यादिक घj समजावीने जमाडयो.
पबी तेज उद्यानमां तेज देरासरनी पासें सागरदत्ते पण एक श्रीरुष नदेवनुं प्रासाद कराव्यं, तेनी प्रतिष्ठा कराववा तेना दशान्हिकना दश मा दिवसने विषे जमणवार करीबे. तिहां धनसार्थवाहने तेडयो , ते कुटुंबसहित आवी नोजन करी मंम्पमां बेठा , तेवारें सागरदत्तें ज्यो तिषियाने संझा करी ते नपरथी ज्योतिषीयो बोल्यो जे श्राज विवाह मेलव वानो अत्यंत श्रीकार सर्वोत्तम श्रेयस्कर दिवस , एवो दिवस को का लांतरेंज थावे जे. जो धनसार्थवाहनी कन्या मृगांकलेखा अने सागरदत्त
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३७
- जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नो पुत्र सागरचं एबेहुनो विवाह आज थाय,तो सर्वोपरि रूडो योग गणा य, तेवारें धनसार सार्थवाह पण सागरचंठें रूप देखी हर्ष पाम्यो थको बोल्यो, नखं. एम कही तिहांज विवाह मेलवीने बेदु जण नव्या, पोतपो ताने घेर जइ विवाहनो महोत्सव करवा प्रवृत्त्या कन्याना बा कन्याने पीती चोली ,अने वरना बा वरराजाने पीती चोली .
एवामां सागरचं पोताना धनमित्र प्रत्ये कहे . के ते वखत देरास रमां में मृगांकलेखाने रूडी रीतें निरखी नथी, तेमाटें मुझने रूप जोवानी उत्कंठा , ते जो तुं महारी साथें आवे, तो तिहां जश् एy रूप रूडी री तें जो आवीयें, धनमित्रे कडं तुं पाटें बेठो बो ते शी रीतें निकली श कीश ? तेणें कडं रात्रै बार्नु बाहिर निकलवामां का विशेष नथी. एम क दाग्रह लइ बेगे, तेवारें मित्रं कर्तुं चाल जइ वीयें ? पढी रात्रं श्याम वस्त्र पहेरी हाथमा खड्ग लइ जिहां कन्या पाटें बेठी ने तिहां आव्या, ते अवसरें मृगांकलेखा पोतानी चित्रलेखा अने पत्रलेखादिक सखीयोना प रिवारें परवरी थकी पोत पोतामां गोष्टि करे , तिहां चित्रलेखा मृगांकले खाने कहे , के धन्य तहारो अवतार ! जे तुऊने सागरचं जेवो वर मव्यो॥ यतः ॥ अनुरूपकलाशाली, पंमितःसवयः सुधीः ॥ धनवाननुरक्त श्व, पुण्यैःसंप्राप्यते पतिः ॥ १ ॥
हवे स्त्रीजातिनो स्वनावज , के एक बोले तो तेथकी वली बीजी जे बोले, ते अवलुंज बोले, ते प्रमाणे पत्र लेखा बोली उठी के मृगांकलेखाने योग्य वर तो धनश्रेष्ठीनो पुत्र अनंगदेव हतो कारण के ते रूपें करी साक्षा त् अनंग जेवोज ले. तेवारें वली चित्रलेखा बोली जे मृगांकलेखाना वरने अर्थे संवर नामा ज्ञानीने पूज्युं तेवारें तेणें कह्यु के अनंगदेवतुं वीश वर्ष वायु , माटे ते योग्य नथी. तेथी अनंगदेवने झुं करीयें? ते सांजली पत्रलेखा बोली अरे सखि ! तुं जाणती नथी? जे थोडं होय तो पण अ मृत न जाणवू अने विष तो एक बार जेटलुं होय तो ते पण शा काम, __एवी सखियोनी वातो थती मृगांकलेखायें बेठी सांगली पण लाजनें लीधे निवारण कीधी नहीं.अने ते बेदु सखीयोनी वात सागरचं बानो रही सांजली, तेथी घणो रोपे चढी खड्ग काढीने मारवा दोड्यो, तेने मित्रे हा
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३३ए थ जाली राख्यो, अने कह्यु के सखीयो परस्पर वातो करे ले. एमा मृगां कलेखानो श्यो वांक ? एम समजावीने घेर लइंगयो.
पली सागरचं विरक्तचित्तें करी पितानी लजायें पाणिग्रहण कीg, प रण्या पडी तेना पिता सागरदत्ते सूवाने माटे महोटो आवास करावी आ प्यो पण सागरचंड उष्टात्मा ते मृगांकलेखानी साथें शेषधरतो ढूकडो ना वे. बोलावे पण नहीं, मृगांकलेखानुं नाम सानले तो पण रीष करी उठे.
ए विषे मृगांकलेखा परमार्थ अजाणती, कर्मनो दोष त्रेवडती घणो खेद करती थकी फुःखें काल निर्गमन करे , एम ते विरहानियें पीडित थकां श्रीजिनधर्माराधन करतां एकवीश वर्ष निर्गमन कखां.
हवे एकदा अवंतीसेन राजा, लाटदेशना राजाने जीतवामाटे जाय जे, तेवारें सागरदत्तने तेडीने राजा कहेवा लाग्यो के तमारा पुत्र सागरचं चश्ने महारी साथे मोकलो, जेमाटें महारा सैन्यने अन्न वस्त्रादिक सर्व वस्तु पूरे. सागरदत्तें पोताना पुत्रने कयुं के राजा तेडी जाय , तेनी सा थें जरूर जq जोश्ये,ते सांजली सागरचं पण अश्व रथ मेरा प्रमुख सऊ करी माता, पिता,नाइ, काका प्रमुखने पगें लागी विदायगिरि मागी चालवा लाग्यो, ते जेवारें मृगांकलेखाना घर आगल आव्यो, तेवारें मृगांकलेखाने दीती पण बोलावी नहीं, तो पण मृगांकलेखा आवी पगें लागीने अ श्रुपात करवा लागी तथापि तेने अवगणी तिरस्कार करी चाल्यो तेथी मृ गांकलेखा वली घणुंज फुःख पामी थकी शय्यायें आलोटती रोवा लागी, मनमां विचारे ,जे घरना दासने पण बोलावे ,अने मुझने आवीरीतें ठेली नाखे बे. माटें ए महारा पूर्वकर्मनो दोष समजवो. एवं चिंतवती रही. ___ सागरचं गाम बाहिर नदीने तटें जिहां कटकें उतारो कीधो ,तिहां मेरा देश पर्यकें सूतो . एवामां वारंवार करुणस्वरें रुदन करती कोक किन्नरीनो स्वर सोनल्यो, तेवारें मनमां विचायुं जे था रात्रिने विषे कोण स्त्री रुदन करे ले ? एम चिंतवी खड्ग लश् शब्दने अनुसारें चाल्यो आगल जातां वनना कुंजमांहे सर्वानरणें जूषित एवी एक स्त्रीने रडती दीठी. तेने कहेवा लाग्यो के हे बहेन ! तुं शा माटे रडे जे ? त्यारें स्त्रीयें कह्यु एवो को नथी जे महारुं दुःख नांगे, सागरचं कर्तुं एक वार तहारे फुःख गुंबे, ते कहे तो पड़ी पुःख नांगवानी वात ले ? स्त्री बोली महारो प्राणेश्वर हरि
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. प्रन नामें किन्नर डे महारं नाम हारावति ले, ते अमें बेदु विमानें बेसी चालतां मार्गमां महारों पति बोल्यो, चालो था वन निकुंजमांहे केलीगृह ले तिहां रमीयें. में कयुं शहां नहीं रमा, परंतु मेरुपर्वतना शिखरने विषे उद्यान , तिहां रमगुं. एवं कह्याथी महारो धणी महाराथी रीसावी वे तो , चालतो नथी,बे प्रहर थया घणी ए पगे लागुं बुं, पण मानतो नथी. तेथी महारं हृदय फाटी पडे . पण ए महारो पति तो वज जेवं हृदय करी बेठो ,तेमाटे तुंमहापुरुष बो. तेथी अमारोबेदुनो मेलाप करावी आप.
ते सांजली सागरचंड पहेला किन्नरपासें जश् तेने मनाववा लाग्यो, तेवारें किन्नर हसीने बोल्यो,अरे सागरचं! तुं मुझने मनाववा आव्यो बो, पण तुं तहारं पोतानुं पाप जोतो नथी ? जे एकवीश वर्ष थइ गयां उतां नि रपराधी सतीमांहे शिरोमणि एवी मृगांकलेखाने तें बोलावी पण नथी,अने मुझने समजाववा याव्यो बो, तो तें एसुनाषित साचुं कयुं जणाय ? ते सुनाषित था प्रमाणे जे ॥ यतः॥ परोपदेशे कुशला,दृश्यंते बहवो नराः ॥ स्ववाक्यमनुवर्तते, ये ते जगति उर्जनाः॥१॥ एवं कहेतो थकोज ते किन्न र पोतानी किन्नरीने विमानमां बेसाडी आकाशमार्ग चालतो थयो.
पालथी किन्नरीनी दासी आवीने सागरचने कहेवा लागी जे महा री स्वामिनी महारे मुखें तुमने कहेवराव्युं बे, के तमें महारी उपर उप कार कस्यो तेनो महाराथी कांड प्रत्युपकार थयो नथी, माटें आ बे वस्तु
आपुं बुं, ते तमें व्यो. एवं कही एक मूली थापी जे घसीने पगें लेप करी ये तो आकाशें गमन करवानी शक्ति आवे, वली बीजी एक औषधी आपी तेने घसीने कपालें तिलक करीयें तो रूप परावर्तन करवानी शक्ति यावे, एवं कही बे औषधि यापीने दासी जती रही.
हवे कुमर विचारे , के धन्य ने तेहने के जे स्त्रीना सेंकडागमे दोष देखे , तो पण पाणीमां रेखानी पेरें क्रोध धरे बे. परंतु हुँ कहेवो अ धम पुरुष के जे स्त्रीमा दोष अगदी पण स्त्रीनी उपर पाषाण मांहेली रेखा सरखो कोप करी बेगे बं, हा हा निरपराधी अबलाने एकवीश वर्षप यंत विरहें संतापी!!! एम चिंतवी ते वात धनमित्र आगल कही. धनमित्र कडं तें ए महोटुं पाप कीg.ए पाप तुं तहारा उपरथी नतार, नहीं कां ए अ बला सुःख करती मरण पामशे, ते वात सांजली मूली घसी पादलेप करी
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. थाकारागमनी विद्या साधी मृगांकलेखाने घेर गया तेमांप्रथम तो धनमित्र गयो तेने मृगांकलेखायें हांकी काढयो, के अरे तुं कोण ने ? जे रात्रिने वखतें महारा घरमा प्रवेश करे ? नलो हो तो नीकल. नहीं कां महारा शीलने प्रनावें करी जस्म थाश्श! धनमित्रं कर्तुं हे बहेन ! हुँ सागरचंश्नो मित्र बु तहारे घेर सागरचं थावे जे, तेनी वधामणी देवा आव्यो बुं. माटें : ख बांमीने आनंद पाम. एवं कहेतां वार तिहां सागरचं पण आव्यो,ए टले सखीयोनो वर्ग ती गयो अने धनमित्र पण बीजा घरमांज वेठो.
हवे सागरचंड अश्रुजलें पोतानो अपराध धोतो थको कहेवा लाग्यो के तुं निरपराधी बतां में तुमने घणुं संतापी ते महारो अपराध तुं दमा क र.जेम विद्या जणीने वीसारी मूकीयें,तेम में तुमने परणीने वीसारी मूकी ते महारो सर्व अपराध तुं वीसारी मूक. अने संतोष आगीने महारी सा थे बोल. ते सांजली मृगांकलेखायें कह्यु ए सर्व महारा पूर्वकर्मनो दोष , तमारो एमां कां वांक नथी. एम कही स्त्री जरतार घणाकालना विरहा नि प्रत्यें सुखजलें करी उलवतां हवा. तिहां स्त्री नार परस्परें रमतां रा त्रि अतिक्रमी, प्रनात थवा लाग्यो, तेवारें सागरचं कर्तुं दुं कटकमां जा नं केम के राजा संचारशे माटे हाजर रहे जोश्ये, मृगांकलेखायें कह्यु के तमे जाबो. महारे ऋतुस्नाननो दिवस ,जो गर्न रह्यो हो, तो पा बलथी सासु ससराने महारे उत्तर श्यो आपवो ? तेने सागरचं स्वनामां कित मुश्किा पापी. मृगांकलेखानो हार लीधो. अने कह्यु के महारा मा तापिता तुऊने पूछे तो था मुश्किा देखाडजे. एवं कही तेनी आंखमाथी यांसु लुही पोतानी आंखें बांसु आणतो सैन्यमांहे गयो.
पाबल मृगांकलेखाने उदरें को पुण्यवंत देवतानो जीव आवी उपनो. उदर वृद्धि पामवा लाग्युं. तेवारें पद्मा सार्थवाही सापानी पेठे कोप कर ती पूजवा लागी. ते मृगांकलेखायें सागरचंनी मुश्किा देखाडी तो पण सासु ससरो बेहु कहेवा लाग्यां जे एवां स्त्रीनां कपट अमें घणां जाणी ये बैयें. ते अमारा कुलने विषे कलंक लगाडधुं. माटें हवे तमें घरबाहिर निकलो. एम कहीने जेम निर्धनपुरुष पामेली लक्ष्मीने हांकी काढे, तेम मृगांकलेखाने काढी मूकी तेमनी साथें चित्रलेखा सखी पण निकली. प या सासु तेना पीयरने पण केवरावी मोकल्युं जे तमारी पुत्री कुचरित्र
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२ जैनकथा रत्नकोष नाग बीजो. कमाइ करी थावे जे, माटें जोइ तपासीने घरमां पेसवा देजो. तेथी मा ता पितायें पण तेने कह्यु के इहां तहारे माटें रहेवानी जगा नथी. जि हां तहारी बा आवे, तिहां जा. मृगांकलेखायें विचायुं जे एक विधाता वांके सर्व वांकुं थाय अने विधाता पाधरो होय, तो सर्व पाधलं थाय. __एम मावित्रं काहाढी थकी तिहांथी निकली मध्यान्ह समय एक वृद नी नीचें विसामो लेश आगल चाली एटले रात्रि पडी, ते रात्रि वृदनीचें अतिक्रमी प्रनातें तिहाथी चालती थइ, पण मार्ग नूली थकी एक विकट अटवीमां जर पडी. तिहां रोवा लागी,तेवारें चित्रलेखायें कयुं हे बहेन ! तुं त्रण दिवसनी नूखी बो, माटे कंदमूलादिकना आहार पाणी कर, तो जीवती रहीश अन्यथा गर्नपात थशे, तो बालहत्यानु पाप लागशे.
मृगांकलेखायें कर्तुं यद्यपि कंदमूलनु नपण वृत्तिकांतार आगारें करी अनुज्ञात ने एथी नियमनंग न थाय, तो पण ढुं नक्षण करीश नहीं. एवो ह लश्ने एमज नूखी रही. एवामां तिहां एक चित्रगुप्त नामें सार्थवाह आव्यो, तेणे आवी कयुं हे बहेन ! में महारा माणसना मुखथकी तहालं वृत्तांत सांजल्युं बे,हवे तुं रडीश मां. महारा सथवाराने विपे आव, तुं कही श तिहां हुँ तुमने मूकीश. एवा सार्थवाहनां वचनामृतें हर्ष पामी थकी पोतानुं सर्ववृत्तांत सार्थवाहनी पागल कही संनलाव्यु,अने कह्यु के हे सा र्थवाह ! तुं मुझने अवंतीसेनराजाना कटकमां पहोंचाड. हुं तहारो उपकार मानीश, सार्थवाहें हाकारो कस्यो. सार्थवाह तेने साथें आगल चाल्यो. कुलदेवीनी पेरें मृगांकलेखाने बाराधतो हवो,तेथा तिहां घणुं सुख पामी. ___ एवामां चित्रलेखा सखी वनमांहे इंधण लेवा गर, तेने एक निन्न उपा डी लइ गयो. सार्थवाहें घणुं जोवरावी,पण जडी नहीं. तेवारें मृगांकलेखा बोली हवे वली पूरी कर्म उदय याव्यां, जे महारी सखी पण महाराथी वि बूटी पडी. तेथी रोवा लागी. तेने सार्थवाहें आश्वासन देश समजावी राखी. __एवामा लाटदेश नजीक आव्यो, ते राजाने विजयराजासाथें मित्राचारी बे, तेमाटें तेणे मालवाथकी सार्थवाहने आव्यो जाणी मालवाना अवंती सेन राजानी साथे पोताना मित्रनुं वैर ले माटे सार्थवाहने खूट्यो. तेवारें मृगांकलेखा एक देवकुलने खूणे बुपी बेसी रही. अरण्यमांहे सिंहादिक वापदोनो स्वर सांजलवे करी जयाकुल थइ तेथी पुत्र जन्म थयो, तेनी
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३४३ चश्मा जेवी कांति देखी खोलामा ला रोवा लागी, अरे पुत्र ! था वखतें तहारो पिता होत, तो जन्ममहोत्सव करत, पणं हमणां आहीं जंगलमां तहारो जन्म महोत्सव कोण करशे ? एवं कही विलाप करे ले. तेने वनदेव तायें समजावी ॥ यतः॥ वुद्विवाहाणिवा, गुरुयाणं ननणं हीण दीणाणं ॥ महिमा उवरागोवा, ससी सुराणं न ताराणं ॥१॥ एवं कहीने रोती राखी.
अनुक्रमें प्रनात थयुं तेवारें सागरचंनी नामांकित मुझने वस्त्रनीगांठे बांधी ते वस्त्रथी पुत्रने ढांकी पोतें स्नान करवा तथा वस्त्रधोवाने तलाव उपर गइ, एवामां कोई नूरख्यो कूतरो आव्यो, ते मांसनी गंधे बालकने दांतथी ग्रहण करी लश्ने चालतो थयो, दैवयोगें ते बोकरानुं आयुष्य बल वान् होवाथी ते वखत तिहाथी ढकडं एक वैश्रमण नामें नगर के तेनो रहेवासी एक श्रेष्ठी, नदी तटें शौचने अर्थ आव्यो , तेनी दृष्टियें पड्यो, तेवारें तेणें कूतराने हांकी तेना मुखमांथी बालक जीवतो पडाव्यो, कू तरो नाशी गयो, शेठ हर्ष पामतो बतो निधाननी पेरें ते बालक लश्ने पोतानी अपुत्रीयाणी धनवती नार्याने जइ थाप्यो. धनवतीये पण तेज समयें एक मुवेलो पुत्र जण्यो बे,तेने दासीने कही नखावी दीधो अने पहे लो जीवतो बालक पोतानी पासें सुवास्यो. पनी तिहां शेठे महारे घेर पुत्र जन्म थयो, एबुं लोकोमां कहीने महोटो महोत्सव कीधो. तेनुं नाम सुरें इदत्त दीधुं. ते पुत्र बीजना चंइमानी पेरें वधतो महोटो थाय बे. ते पुत्र ना आन्या पडी तेना माहात्म्यथी वैश्रमण श्रेष्ठी धनें करीने साचे साचो वैश्रमणना जेवोज थयो. धनवतीने मृतगर्ननुं कलंक उतयुं, ते पनी वली बीजा पण एक नरदेव अने बीजो धनद एवा बे पुत्र तेणें जण्या, सुरेंदत्त पण अनुक्रमें सर्वकला नण्यो, यौवन पाम्यो, वैश्रमणश्रेष्ठीये तेने बत्रीश कन्या- पाणिग्रहण कराव्युं ते कुमर, दोगुंदक देवना सुख नोगवतो हवो.
पाब्लथी मृगांकलेखा स्नान करी थावीने जूवे , तो पुत्र दीतो नहीं. तेवारें विलाप करवा लागी, हा हा मुझने शी उर्मति अपनी जे हुँ आवा रत्न जेवा बालकने अरण्यमा मूकीने स्नान करवा गइ !!! एम विलाप करवा लागी, एवामां तिहां ललिता एवे नामें एक गोवालीयानी स्त्री या वी तेणें मृगांकलेखाने समजावीने रोती राखी, अने पोताना गोकुलमांहे तेडी गइ, तिहां तेने दूध दहीं पीवरावी सुखिणी करी.
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
एकदा गोकुलनो धणी वसंत नामें ,तेणे तेने दीती,तेवारें कामें पीडित थको नोगनी प्रार्थना करतो हवो. तेणे जेम को दासीनो तिरस्कार क रीयें, तेवो तिरस्कार कस्यो. तेने ललितायें समजाव्यो, जे ए सती डे, आपणा गोकुलमां आवी ,माटें एनो केड तुंमूकी दे. तो पण तेणें विचा युं जे महारे घेर आवी ने माटे महारं कथन मानेज बूटे, एवं निर्धायुं एकदा मृगांकलेखाने बंघमा सूती देखी उपाडीने पोताने घेर लइ गयो. अने विषय जोगववानी प्रार्थना करी तिहां मृगांकलेखायें यद्यपि “बला निगेणं" ए यागार , तो पण पोतानुं शील राख्यु, शील लोपवा दी धुं नहीं. तेना शीलना प्रनावें वसंतने वासी वल्यं, तेहज रात्रियें मरण पामीने उर्गतियें गयो. गोकुलने विषे मृगांकलेखानो शीलमहिमा विस्तार पाम्यो. वसंतना कुटुंबपरिवारें तेने घणुं मान आपीने ललिताने घेर मो कली, पण मार्ग जूली पडी तेथी अरण्यमां निकली गइ. मार्गमा वडवृद नी बायायें ज बेठी थकी कर्मनो परिणाम विचारे . __ कर्मयोगें मकरें नामें तापस तिहां आव्यो, तेणे मृगांकलेखाना सर्व समाचार सांजली आश्रमें लइ जर कुलपतिने आपी. तेणें पोतानी पुत्री करी मानी अने एक तापसनी साथे को महिरनामा ग्रामनी निकट ज मूकी. तिहां ते गामनो सुंदर नामें स्वामी , तेना माणसें तेने पकडीने बागल गणीश माणस बंदीवान डे, तेनी पासें जश् वीशमी एने पण मू की. ते सुंदरने घेर पुत्रनो जन्म थयो ,तेमाटे तेणें दश पुरुष अने दश स्त्री नकाली देवीने चडाववानी मानता करी,तेथी ए वीशे बंदीवानोने दे वीना मरने विषे लाव्या, तिहां सुंदर पोतें यावीने वीश जगने कहे वा लाग्यो जे अमारे घेर पुत्र जन्म थाय, तो नश्कालीदेवीने दश स्त्री त था दश पुरुष, मली वीश माणसनो बलि आपीयें. एवी अमें मानता क री. माटें तमारो हां बलि देवाशे, तेथी जेहने जे इष्ट होय, तेनुं स्मर ण करो. एवं सांजली गणीश माणस तो जयें करी त्रास पामतां बोली शक्यां नहीं परंतु एक मृगांकलेखा बोली जे प्रथम मुजने मारी बलि आ पो. जेम ढुं बीजा माणसनुं मरण महारी नजरें देखें नहीं. मने माहारा मरणनी चिंता नथी, पण गणीश जणना मरणनी चिंता ने.
एवं सांजली सुंदर बोल्यो के हे जगिनी ! एकली तुमनेज हुँ मूकुं बुं.
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३४५ तेने मृगांकलेखायें कडं हे नाइ सुंदर ! मुमने मारी। नाख. पण गणीश जनने मूकी थाप. जो गणीशने मारे, तो हुँ एकंली जीवती रहीने गुंक
? तेवारें सुंदर, मृगांकलेखानो करुणामय परिणाम देखीने चिंतवे जे ॥ यतः॥ निजप्राणैः परप्राणान्, परित्राति सनत्तमः॥ मादशाविपरीतं तु, प्र कुवैति महाधमाः ॥१॥ एवं विचारी जीववधनुं पच्चरकाण करी वीशे माण सने मूकी दीधां. सर्वे मृगांकलेखाने श्राशीष देतां पोतपोताने स्थानकें गयां. '
मृगांकलेखा तिहाथी चालती वली पण मार्ग नूलीने एक अटवीमां जर पडी. तिहां एक कालविकराल जेवो नूख्यो सिंह, तेने खावा आव्यो. तेवारें मृगांकलेखा बोली एक महारो पति सागरचंड मूकीने आजपर्यंत में परपुरुष चिंतव्यो नथी, एवा महारा शीलनो जो महिमा होय, तो आ विघ्न विलय थ जजो. एटलुं कहेतांज ते सिंह काष्ठना पुतला जेवो थ इने तिहांज उनो रही गयो. मृगांकलेखा आगल चाली संध्यासमयने विपे काली मशीमांहे त्रण वार जबोली काढी होय, एवी एक राक्सी नूरखीथ की तिहां आवती दीठी, तेवारे पण मृगांकलेखायें तेमज कह्यु, के महारो पति सागरचंड विना जो अवर पुरुप में महारा मनें करी चिंतव्यो न हो य, तो ते महारा शीलना प्रनावें कर। ए रादसी हताशा था. ए वचन थी राक्षसी पण निराश थचाली गइ. मृगांकलेखायें तिहां एक वटवृक्नी नीचें रात्रि काहाढी, प्रनातें चालवा मांमधु. चालतांचालतां सिक्षार्थपुरनी बाहिर उद्याने देवकुलने विपे पथिश्रांतथकी विश्राम सेवा बेठी.
कर्मना वशथकी तिहां एक कामसेना नामें वेश्या आवी, ते तेनुं रूप सुंदर देखी तिहाथी जोरावरीयें उपडावीने घेर लश् गइ. अने कहेवा लागी के तुं महारे घेर गणिकानो धंधो कर. मृगांकलेखायें कह्यु ढुं कुलीन स्त्री थइ ए काम न करूं, तेवारे तेने वेश्यायें घणुं संतापी, तो पण तेणें वेश्या पणुं अंगीकार न कीधुं. पापना वशथकी तेहिज रात्रिय कामसेना वेश्या मरण पामी, तेवारें तेनी दासीयें जोरावरीथी मृगांकलेखाने कामसेनाने पा टें थापी तो पण तिहां ते निष्कलंक शील पाले, दासीनो स्वार्थ न पहों चे. तेवारे ते दासीयें रीष आणीने कनकध्वज राजानी आगल जश् मृगां कलेरखाना रूपनुं वर्णन कां, राजायें तेने तेडवा माटे पोतानो प्रतिहा र मोकव्यो, तेणे आवी कयुं के चाल, तुजने कनकध्वज राजा तेडे डे.
४४
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. मृगांकलेखायें कमु राजा कोण, अने ढुं कोण ? जा ढुं नथी पावती. ते सांजली प्रतिहारें कडं राजानियोग मानवोज जोश्ये, तेमाटे खुशीथी आवो, तो रूडं. ते सांजली मृगांकलेखा अणबोली रही, तेवारे ते सुखासने वेसाडी लश् जावा लाग्यो, मृगांकलेखा कपटें गांमी बनीने सुखासनथकी नीचें पडी, लुगडां फाडे माथें धूड घाले, लोकोने पथरा मारे, या तज्ञा बोले, ते जो वेश्यानी दासी तेने उपाडी पोताने घेर लश् गइ. मंत्र वा दीने तेडाव्या, मंत्रवादी ढकडा आवे, तो तेने माटीना ढेफाथी मारे. तेवारें मंत्र तंत्रने विषे निपुण एवो कनकबाद नामें पोतानो अंगरक्षक हतो, तेने राजायें कडं के एने श्यो दोष ? ते तुं जश्ने जो आव. • ते कनकबाहुयें तिहां जश् एकांतें श्रीचंप्रनस्वामीना शासननी अधि ष्ठायिका ज्वालामालिनी नामें देवी , तेने मृगांकलेखाना शरीरमा उता रीने पूबवा लाग्यो, के मृगांकलेखाने श्यो दोप बे. तेवारे ते देवी मृगां कलेखाने मुखें कहेवा लागी के एने कां पण दोष नथी परंतु ए माहास ती अवंतीराजाना मंत्री सागरचंनी नार्या परमश्राविका ,ते कर्मने वश इहां ावी चडी .अने शील पालवाने माटे घेली बनी गइ ,तेने तमें कुलदेवीनी पेठे आराधो के जेथी तमारं कल्याण थाय. __एवं सांजली देवीने विसर्जन करी राजा पासें जइ परमार्थ समजावी कनकबाहु पोताने घेर मृगांकलेखाने तेडी गयो. लोकोमांहे सती कहेवाणी. देवांगनायें साख पूरी. हवे मृगांकलेखा तिहां सुखें रही थकी चिंतववा लागी, के हा हा जूवो कर्मपरिणाम कहेवा छे !! महारो धणी सागरचंड किहां ! महारो पुत्र किहां ले ! महारी सबी चित्रलेखा किहां ! कहेवां विकट कर्म कीधां के एटलानो वियोग ढुं पामी ! वली माथे कलंक च ढेलु ! निरंतर एवी चिंतवणा करती तिहां कालदेप करे .
हवे मृगांकलेखानो पुत्र सुरेंदत्त महोटो थयो, तेवारें घणुं धन कमा इने पिताने वन्ननथयो ते जो धनवती जननी चिंतववा लागी जे ए सुरें इदत्त बतां महारा अंगजात बे पुत्र का सुखी थाय नहीं, तेम पिताना मानेता पण थाय नहीं, माटें ए सुरेंदत्तने विषप्रयोगें मारी ना. एवा अभिप्रायथी त्रण मोदक बनाव्या, तेमां बे न्हाना निर्विष कसा अने एक महोटो विषमिश्रित कयो, ते लाडु नांमागारें त्रणे नाइ वेग हता, तिहां
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३४७ दासीने हाथें मोकव्या. दासी धनवतीना कह्याप्रमाणे बे न्हाना लाडु नरदेव तथा धनदेवने बाप्या अने एक महोटो लाडु सुरेंदत्तने प्यो. पण सुरेंइदत्त कार्याकुल हतो, तेथी तेणें खाधो नहीं, एमज राखी मूक्यो. अने बे नायें बे लाडवा खाधा. वली नूरख्या थया त्यारे सुरेंदत् पोतानो लाडवो अडधों अडध करीबे नाश्ने वहेंची आप्यो बेनाश्ये तरत खाधो,ते खातां वार मूर्ना खाइ पडी गया, तेनां घणां औषधादिक उपचार कस्या, पण कांश टांकी लागी नहीं, बे नाश्य काल कीधो. वैश्रमण शेवें सर्व स माचार जाण्या अने विचास्युं जे धनवती निचे एने मारशे, तेवारें सुरेंद तने एकांतें तेडीने शेते तेने सर्व वार्ता कही तथा सागरचंइनामांकित मुझ रत्न याप्यु, अने कह्यु के तुं तामलिप्ती नगरीयें जा. जो इहां रहीश तो ए उष्ट स्त्री तुऊने विषादिक प्रयोगें कपटथी मारशे.
एवं सांननी सुरेंदत्त तामलिप्ती नगरीये आव्यो, तिहां घणुं धन उपा जीने एकदा श्रीकृषनदेवना प्रासादें पूजाने अथै गयो. तिहां शासनदेवी चक्रेश्वरी मातानी मूर्ति , तेनो महोटो महिमा जागीने अहम तप करी ब्रह्मचर्य धारी थ देवीआराधन करवा वेतो. तेवारें चक्रेश्वरी प्रगट थश्ने बोली के हे वत्स ! तहारो पिता सागरचं अने मृगांकलेखा माता ए बे तुमने सिक्षार्थपुरी नगरीना प्रियमेलक उद्यानमां मलशे. तेमाटें खेद म कर. तुमने देखवाथी जेना स्तनमांहेथी दूधनी धारा वरसे, तेहने तुं तहारी माता करी जाणजे. लोक सागरचंपने देखी कहेशे, ए सुरेंदत्तनो पिता . आज थकी एक महीनामां तहारां माता पिता मलशे, एम नि श्य जाणजे. एवं कही देवी अदृश्य थइ. सुरेंइदत्त पण देवीने वचने श्री षनदेवने पूजी पारणुं करी सिक्षार्थपुर जणी चाल्यो..
हवे अवंतीसेन राजायें विजयराजाने जीती लीधो, तेवारें कटकथी विदायगिरी मागीने सागरचंड पोताने घेर आव्यो. माता पिताने पगे लाग्यो जे इव्य उपार्जन करी लाव्यो हतो, ते सर्व पिताने थापीने पड़ी मृगांकलेखाने घेर आव्यो. तिहां जेम चदुर्लीन मनुष्य शून्य देखाय, तेम ते घर पण मृगांकलेखा विना शून्य दीतुं, तेवारें विचास्युं जे ए गुं पीयर गइ ? किंवा को बीजो विचार होय तो ते केम घटे ?
पड़ी तिहांथी यावी माताने पूब्युं, तेवारें मातायें कह्यु के हे वत्स !
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४७
जैनकया रत्नकोष नाग त्रीजो. ए पापिणी, नाम कोण लीये ? तुं आंहीथी गया पली एणे कोश्कनी साथै य नाचार सेव्यो तेथकी गर्न रह्यो, कुलने कलंक लगाडयुं, माटें अमें घरथकी कहाढी मूकी, एटj सांजलतां वारज सागरचं मूळ खाइधरती उपर प ज्यो. तेने शीतलोपचारें करी मूर्जा टाल्यानंतर विलाप करवा लाग्यो. मा तायें कडं के हे पुत्र ! तुं तहारी स्त्री पासें याव्यो हतो, तो अमने जणा वी कां न गयो ? सागरचं कर्तुं तमें महारूं नामांकित मुशरत्न केम न । लव्युं ? मुशरत्न तेणें देखाड्युं तेम बतां तमें केम घरथी बाहिर काढी मू की. इत्यादिक घणा लेना दीधा.बीजुं माता पितानी साथें झुं जोर चाले!
पनी धनुष बाणनो नाथो लश् अनिग्रह करी चाव्यो जे जिहांसुधी मृ गांकलेखा न मले, तिहांसुधी महारे घेर आवq नहीं. एवो निश्चय करी मित्रने जाण कस्याविना एमज चाल्यो, ते गाम, नगर, खेट, खर्वटें जमतो पंथीजनोने पूजतो पूबतो जाय , एवामां हेडंब नामें राक्षस मल्यो, ते प्र गट थ कहेवा लाग्यो के मुफने तहारी स्त्रीनुं रूप पून. ते मृगांकलेखाने दूं गली गयो ते वचन सांजली सागरचंड कोपाकुल थको रासने गाल दे मारवा नग्यो. राक्षस पण वेतालरूपें वधवा लाग्यो, वधतां वधतां ता लप्रमाणे थयो, तेवारें कुमरें वेताल जागी पंचपरमेष्टिनुं स्मरण कडे. ते ना महिमाथी वेताल नाशि गयो.
सागरचं स्त्रीना वियोगथी मरवाने अर्थे केटलांएक काष्ठ एकतां करी महोटी चिता रची, अने कहेवा लाग्यो अरे देव, दाणव, सिम, गांधर्व, सर्व सांजलजो जे में निरपराध। सतीयोमांहे शिरोमणि एवी महारी प्रियाने घ णा वर्षलगण संतापि तेमाटे हुँ महापातकी थयो , ते पाप गुचकरवाने अर्थे अमिमांहे ऊपापात करुं बु. एवं कही जेटले अग्निमां पडवा कुदको मारवा लाग्यो, एटलामां सुयशा नामा सिमपुत्रं यावी वाखो. के हे महा पुरुष ! तुं आत्मघात म कर, तुं तहारी प्रिया अने पुत्र साथै मली घणां सु ख नोगवी दीदा लश्ने मोदें जाइश. तहारो सुरेंदत्त पुत्र तथा मृगांकले खा स्त्री सिद्धार्थपुरने विषे प्रियमेलक उद्याने श्रीकृषनदेवना चैत्यने विषे मलशे. तेनुं एंधाण ए जे एज निन्ननी पालीथकी नाशि गयेली मृगांकलेखा नी सखी चित्रलेखा तुमने मार्गमां मलशे. तो ए वात तुं सत्य मानजे. पड़ी चित्रलेखाने लातुं सिक्षार्थपुरमा जाजे. हवे मुजने अनुज्ञा श्राप तो ढुं नं
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४ए
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. दीश्वरही जिनचैत्य जुहारवा जालं. एम कही सिपुत्र आकाशें उत्पत्यो.
एवं सिरपुत्रनुं वचन सांजली सागरचंद, आनंदरसामृतमाहे जोलतो थको विचारें ले जे धन्य डे मुझने ! जे माटे मने मृगांकलेखा पुत्रसहित मलशे. पडी चिता उलवीने तिहाथकी चाव्यो केटलिएक नूमि उलंघी गयो तिहां रुदन करती हा हा मृगांकलेखा तुं क्यां गई ? एकली केम जीवती र हीश ! एवा विलाप करती स्त्रीनो शब्द सांजली कुमरे जाण्युं जे या चित्र लेखानो स्वर , तेवारे ते तिहां जश्ने तेने मल्यो चित्रलेखा पण सागर चंइने उलखी पगे लागी. तेने मृगांकलेखानो समाचार सागरचंई पूब्यो, सखीयें कडं के हे स्वामिन् ! सासु ससरायें काढी थकी पिताने घेर गश्ते ऐ पण राखी नहीं, तेवारें तमारी पासें कटक मांहे आवतां चित्रगुप्त सा र्थवाहनीसाथें चाली, तिहां दुं इंधण नेवा गइ हती तिहां मने उष्टनिन्न प कडीने पन्नीमांहे लइ गया. अने महारां आजरण उतारी लीधां. ते पालि आजेज श्रीविजय राजायें जांजी, तेवारें दुं नाशीने शहां ावी बेठी . ते सांजली वली सागरचं. पण सिदपुरुषनी वात तेनी आगल कही संन लावी. पडी बेदुजण एकतां मली श्रीसिदार्थपुरीना मार्गनणी चालतांथयां.
हवे सुरेंदत्त, सिदार्थपुरीये श्रावी श्रीषनदेवने देहरे घणो व्य व्यय करीने अहा महोत्सव करावे . तिहां हजारो माणस गाम गामनां या व्यां ने. तेनी साथें मृगांकलेखा पण यावी, तेणें सुरेंदत्तने दीगो, ते वारें स्तनयुगलथी कांचली नेदी दूधनो प्रवाह चाल्यो. ते जोश सुरेंइदत्तें विचायुं जे एज महारी माता जणाय जे. एवामां ते सिपुत्र पण श्रीनं दीश्वरहीपनी यात्रा करी तिहां आव्यो , तेणें सुरेंइदत्तने कडं झुं विचा र करे ? ए तहारी मृगांकलेखा माता आवी , माटें एने पगे लाग. एबुं सांजली सुरेंदत्त भावी पगे लाग्यो. मातायें तेने नत्संगें बेसाड्यो, बेदुने आनंद उपनो, परस्पर पोतानुं वृत्तांत कही हर्ष पामे ले. एवामा सुय शा लिपुत्रं कडं के हे सुरेंदत्त ! तुने वधामणीबापुं बुं, के तहारो पिता सागरचंड चित्रलेखानी साथें इकडो आव्यो , चाल. तेनी साहामा म लवा जश्य ! एवं कही सुरेंदत्तने आंगलीयें वलगाडी मृगांकलेखा तथा घणां नगरना लोकसहित सिमपुत्र चाल्यो. वली ते सिम पुत्र आगलथी जश् सागरचंइने पण कहेवा लाग्यो के तहारो पुत्र मृगांकलेखा साथे त
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
३५० हारी साहामो वे बे, एटलामां सुरेशदत्त दूरथी दंवत् प्रणाम करतो यावीने पिताने पगे लाग्यो, तेने सागरचंड़ें उपाडीने उत्संगें बेसाड्यो, यानंदाश्रुयें स्नान कराव्युं. सर्व खावी सोपारीना वृद्ध नीचें बेगं. मृगां कलेखायें चित्रलेखायें परस्पर खालिंगन लीधां, ते दिवसें ते चार जणने जे श्रानंद उपनो, तेनी सीमा केवली जाणे, अथवा ते चारे जणनां मन जाणे !
वे कनकध्वजराजा कनकबाहुना मुखथी सागरचंड्नुं यागमन जा il साहामो चाली याव्यो. तेमने हस्ती उपर चडावी नगर सणगारीने पोताने यावासें तेडी लाव्यो. घणी यागता स्वागता करी, एक महीनासु धी पोताने घेर खमावी पती साधें कटक यापी कयणीयें पहोंचतो की धो. तिहां पण सुयशा सिद्धपुत्रे यवंतिसेनराजाने तथा कुमरना माता पि ताने खागली जइ मृगांकलेखा तथा सुरेंश्दत पुत्रनी सायें सागरचं श्राव्यानी वधामणी दीधी, ते सांजली अवंतीसेन राजा सागरदत्तशेठनी सायें तेमने तेडावा माटें सामो याव्यो. सागरचंद राजाने तथा पोता ना पिताने पगे लाग्यो. नगर शागायुं, हाथी उपर बेसाडी नगरमां प्रवे श कराव्यो. सागरचं तथा मृगांकलेखा यावी पद्माने पगे लाग्यां. सुरें दत्त पण वडी खाइने पगे लाग्यो. वडी खाइयें खोलामां बेसाड्यो सम स्त नगरलोकने हर्ष उपनो, वधामणां थयां, सागरचंदे घणुं इव्य खरचीने श्री जिवनने नाना प्रकारें पूजा करी, साते खेत्रें वित्त वावसुं.
एकदा प्रस्तावें श्रीयुगंधर केवली उद्यानने विषे समोसख्या, तेनी नद्या नपालें वधामणी दीधी. तेवारें राजा तथा सागरचंद, सुरेंद्रदत्त, मृगांकले खा, चित्रलेखा, जनक, जननी खादिक नगरवासी समस्त लोक वांदवा ग यां. वांदी धर्मदेशना सांगली घणा जनायें सम्यक्त्वादिक चां.
वे मृगांकलेखा पूजती हवी, के हे जगवन् ! में पूर्वे श्यां कर्म कीधां के जे थकी हुं कलंकादिक अनेक दुःख पामी ? केवली कहे, हे मृगांक लेखा ! सांजल सिंहपुर नगरने विषे कंदर्प नामें ब्राह्मण हतो, ते कनक रत्नमय प्रासादने विषे अनंगदेवराजपुत्रं याराधतो थको अहंकार वहेतो रहे बे. तेही नगरें एक सत्यकीर्त्ति नामें तापस रहे बे, ते माहातपस्वी लोकमांहे पूजातो प्रसिद्ध बे हवे पुरोहित ते तापसनी पूजाने सहे तो को नंगदेव राजपुत्रने मुखें कंदर्पविप्रने कहेवरावतो हवो, जे शत
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३५१
कीर्त्ति तापसनी पर कोई एवं कलंक चडावीयें के जेथकी एनी पूजा प्र नावना घटी जाय, ते सांजली कंदर्प ब्राह्मणें पां कयुं के हुं बल जोने वखत यावे ए काम जरूर करीश. एनी प्रतिष्ठाने हाणी पहोंचाडीश.
"
हवे तेही नगरने विषे पद्मदेव श्रेष्ठीनी कमला नामें पुत्री बे, ते ल नितांगशेठना पुत्रनी उपर आसक्त बे. तेमाटें ते पुत्री लोकोमांहे व्यनि चारिणी कवाय बे. ते कमला कन्या एकदिवस पोताना माता पिताने क ह्याविनाज किaiएक जती रही बे ने दैवयोगथी सत्यकीर्त्ति तापस पण तेज दिवसें कोइने कह्याविना एमज ग्रामांतरें गयेलो बे. तेवारें लोकमां वात चाली रही जे कमला कोइकनी सायें चाली गई बे, ते बल पामीने कंदर्प विप्रें वात चलावी जे कमलाने तो सत्यकीर्त्ति तापस लइ गयौ बे. ते वात लोकोयें सत्य करी मानी लोधी ने सत्यकीर्त्तिनो निरादर थ यो. पी सत्यकीर्त्तिने ग्रामांतरथी यावतो जाणीने कंदर्प ब्राह्मणे विचा खं जे हुं लोकमांहे खोटो पडीश. तेमाटें लोकोने कह्युं के कुष्ठ तापस या व्यो बेतेने शिक्षा प्रापीयें पढी घणालोकनी सायें जइ यष्टिमुष्टिने प्रहारें क तापसने मार मास्यो. ते तापसें उपशांत पणे ताडना सहन करी.
कंदर्पविप्र सातमे दिवसें जीनमां फोडलो थयो, तेनी वेदनायें मरण पामी कूतरो थयो, कूतरो पण तेवीज जीननी वेदनायें मरण पामी वेश्या 5. तिहां चंदनव्यवहारीयानो पुत्र श्रावक हतो, तेनी साथै वेश्यानो सं बंध होवाथी वेश्या जिनधर्म पामी. एकदा सरोवरें गइ तिहां विलास करतुं राजहंसनुं मिथुन दीतुं, तेवारें क्रीडायें हंसने लइ कुंकुमें करी तेनुं शरीर विलेपी मूक्युं. तेमाटें हंसलीयें तेने चक्रवाल जाएगीने एकवीरा घडी काल प्रमाण तेनी सायें क्रीडा नहीं. धणीने विरहें दुःख पामती करुणस्वरें रोवा लागी, तेने देख ते वेश्याने करुणा यावी, तेवारें जजें करी कुंकुम धोइ हं सने उजलो की धो. हंस, हंसी, बेडु संयोग पामी रमवा लाग्यां पढी ते वेश्या पोताने घेर जई घणा कालसुधी श्रीजिनधर्म पाली मायादोषें सौध इन महिषी इ. तिहांथी चवीने इहां तुं मृगांकलेखा थइ बो.
तथा अनंगदेव जे राजपुत्र हतो, तेणें कंदर्पविप्रें करेला पापनी अनुमो दना कीधी. तेथी ते घणा नव संसारमांहे जमीने इहां चित्रलेखा नामे त हारी सखीपणे यावी उपनो बे. तें जे तापसने कलंक दीधुं तेना पापें
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. करी तुं हां कलंक पामी. वली तें जे तापसने माखो हतो, तेणे करी तुं कुःख पामी तथा अनंगदेवें तहारा पापने सहाय की ,तेमाटें इहां चित्रले खायें तहारी साथै कुःख जोगव्युं तथा एकवीश घडी पर्यंत हंस हंसीने वियो ग पाड्यो,तेथी तुं एकवीश वर्षसुधी पतिनी साथें वियोग पामी,एवी कर्मनी विपरीतता जाणीने कर्म बेदवाने अर्थ साधुनो धर्म तथा श्रावकधर्म पालो. ___ मृगांकलेखा केवलीना मुखथी पूर्वनवनां कर्म सांजली ते कर्मोने आ लोइ पडिक्कमी प्रायश्चित्त आलो शुद्ध श्रावकधर्म पालती हवी. सागरचंड पण समकेतमूल श्रावकधर्म आदरी धर्मकार्यने विषे तत्पर थयो. अंत सम यें सागरचंड तथा मृगांकलेखा बेदु जण दीक्षा लइ कर्मक्ष्य करी शिवपद ने अनुनवता हवा. ए समकेतना बागारने विषे मृगांकलेखानी कथा कही.
इति महोपाध्यायश्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचिते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशिकानामनि श्रीसम्यक्त्वसप्ततिकाप्रकरण बालावबोधे सम्यक्त्वषडाकारस्वरूपनिरूपण नामा दशमोऽधिकारः समाप्तः ॥ १० ॥
हवे अगीयारमुं समकेतनी ब नावनानुं हार कहे :॥ नाविक मूलनूध, उबारनूयं पश्ठ निहि नूथ ॥ आहार जायण मिमं, सम्मत्तं चरण धम्मस्त ॥ ५५॥ अर्थः-(सम्मत्तं के०) समकेत प्र त्ये (नाविज के०) एवं नावीनं विचारी जे (चरणधम्मस्स के०) चा रित्र धर्मनुं (मूलनूकं के) मूलनूत जेम जे वृदनु मूल सबल होय ते वृद वायरादिकें पडे नहीं. सुकाइ पण न जाय, तथा तेने शीत तापना परानव पण न थाय, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, फूल फलें करी विस्तार पा मे, तेम चारित्ररूप धर्मनुं समकेतरूप मूल जो दृढ होय, तो ते चारित्रध म देव,दानव, मानवादिक रूप वायरायें चलाव्यो चले नहीं, परिसहादिकें विणसे नहीं, तेमाटें समकेतने मूलभूत कहीयें. ए प्रथम नावना जाणवी. ___तथा समकेत जे जे ते चारित्र धर्मरूप राजनगरनुं (उबारनूचं के०) धारभूत ने एटले चारित्रधर्मरूप राज्यनगर तथा राज्यमंदिर ले ते मांहे जो समकेंतरूप धार होय तो प्रवेश कराय. ते चार सबल जोश्य जे हार मि थ्यात्वमोहनीय कर्मादि रिपुयें नांगी शकाय नहीं. जेमां प्रमादरूप चोर प्र वेश करी शके नहीं, तेमाटे समकेतने हार नूत कहीयें ए बीजी नावना.
३ तथा चारित्रधर्मरूप प्रासाद जे , तेनो समकेत जे , ते (पश्ठ
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५३
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. के) प्रतिष्ठाननूत . एटले चारित्रधर्मरूप प्रासाद जे , तेने जो सम्य क्वरूप प्रतिष्ठान सबल होय तो ते चिरस्थायी थाय,जेम राजप्रसादादिक नेविष पीत बंध सबल जोश्ये,तो ते प्रासाद पड़े नहीं तेम चारित्रधर्म रूप प्रासाद , तेने समकेतरूप प्रतिष्ठान पीठबंध सबल होय तो ते पडे नही, तेमाटे समकेतने प्रतिष्ठाननूत कह्यु. ए त्रीजी नावना जाणवी.
४ तथा समकेत जे , ते ( निहिनूध के०) निधिनूत एटले चारित्र धर्मना मूलगुण अने उत्तरगुणरूप आदिक जे रत्न, तेने राखवाने समकेत निधाननूत . जेम चक्रवर्तीना निधानमांहे सघली वस्तु पामीयें, तेम समकेतरूप निधानमांहे चारित्रधर्मना मूलगुण उत्तरगुणरूप रत्न पामीयें, तथा ते मूलगुण उत्तरगुण- उत्पत्ति स्वरूप पामीयें, तेमाटें समकेतने नि धिनूत कह्यु. ए चोथी नावना जाणवी. ____५ तथा समकेत जे , ते (आहार के) आधारनूत , जेमाटे चा रित्रधर्म जे रहे, ते समकेतने अाधारे रहे, जेवार समकेतरूप आधार नां गो, तेवारे तेनुं बाधेय जे चारित्र ते पण ग, एम जाणवू. कारण के चारित्रधर्मविना समकेत रहे, पण समकेत विना चारित्रधर्म रहे नहीं. माटें चारित्र ते आधेय डे अने समकेत ते आधारभूत . ए पांचमी नावना.
६ तथा (इमं के०) आ समकेत जे , ते (जायणं के०) नाजन बे, एटले चारित्रधर्मरूप जे घृत, उग्ध, दहीं, इदुरस, श्रीफल जल प्रमुख जे, ते समकेतरूप सुवर्णादि नाजन विना रही शके नहीं. तेमाटें समके तने नाजन कह्यु, ए बहीनावना जाणवी ॥ ५५॥
हवे एज गाथार्नु विवरण सूत्रकार त्रण गाथायें करी करे . ॥ देश लहुँ मुरकफलं, दंसणमूले दढम्मि धम्मामे ॥ मुत्तुं दसण दारं,ण पवेसो धम्मनयरम्मि ॥ ५६ ॥ नंदा वयपासा, दंसण पीतम्मि सुप्प
मि ॥ मूलुत्तरगुण रयणा,णं दंसण अरकय निहाणं ॥ ५७ ॥ सम्मत्त महाधरणी, आहारो चरण जीव लोअस्स ॥ सुयसील मथुन्नरसो, दंसण वर नायणे धर॥ ५ ॥ अर्थः-(धम्मजुमे के०) यतिधर्म तथा श्रा वकधर्मरूप डुम एटले वृद तेने विषे ( दंसपमूले दढमि के ) दर्शन जे समकेत ते रूप मूल दृढ बते (मुरकफलं के० ) मोदरूप फल प्रत्ये (लडं के०) शीघ्र ( देश के०) दीये , जेम बीजा पण सबलवंत जे थाम्रादि
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. कनां वृद ले, ते शीघ्र फलप्रत्ये आपे ले. तेम यतिधर्म थने श्रावकधर्मरूप जे वृक्ष ,तेने जो समकेतरूप मूल थड निश्चल होय, तो ते मोदरूप फ ल शीघ्र उतावलां आपे. ए प्रथम नावना जाणवी. ___ तथा (धम्मनयरम्मि के०) चारित्रधर्मरूप नगरने विषे (दसणदारं के० ) सम्यक्त्वदर्शनरूप हारप्रत्ये ( मुत्तुं के) मूकीने (पपवेसो के) प्रवेश न थाय, एटले बीजा जीवो धर्मरूप नगरनी मांहे तोज पेठा कही यें, के जो समकेतरूप दरवाजो पाम्यो होय तो. जिहां सुधी जे जीवने समकेतरूप दरवाजो प्राप्त थयो नथी, तिहां सुधी ते जीवने धर्मरूप नगर मां प्रवेश थयो नथी. तिहां सुधी ते जीवो नूलाज लम्या फरे दे. परंतु जे वारें जीवनें समकेतरूप दरवाजो प्राप्त थशे, तेवारेंज धर्मरूप नगरमा प्रवे श कराशे ॥ यतः ॥ अन्नाणं खलु क,अन्नाणा ण किंचि कध्यरं ॥ नव सायरं अपारं, जेणावरिया नमंति जीया ॥ १ ॥ संमत्तसार रहिया, जा पंता बदुविहाई सबाई॥ अरयव तु बलग्गा, नमंति संसार कांतारे ॥२॥ ए बीजी नावना जाणवी ॥५६॥ ___ यति अने श्रावकना ( वयपासा के ) व्रतरूप जे महोटो धर्मप्रासाद ने तेने दृढ एवो (दंसपीमि के०) समकेतदर्शनरूप पीठ जे पायो ते (सु प्पमि के०) सुप्रतिष्ठ एटले सारो थाप्यो होय तो (नंद के०) नांदे एटले चिरकालपर्यत रहे पण पडे नहीं. ते प्रासाद मगमगे नहिं पण नि श्रल रहे. परंतु समकेतरूप पायाविना अन्यदर्शनरूप पायायें करी धर्म रूप महोटा प्रासादनुं मंमाण थाय नहीं, एत्रीजी जावना जागवी.
तथा ( मूलुत्तरगुणरयणाणं के) मूलगुण अने उत्तरगुणरूप रत्न तिहां साधुना मूलगुण ते पंचमहाव्रत बने उत्तरगुण, ते पिंमविशुध्यादिक ॥यतः॥ मिस्स जा विसोही, समई लावणा तवो ऽविहो ॥ पडिमा अनिग्गहा विय, उत्तरगुणमो वियाणाहिं ॥१॥ ए उत्तरगुण जाणवा. तेमज श्राव कना मूलगुण ते पांच अणुव्रत जाणवां. अने उत्तरगुण तेत्रण गुणवत, चार शिदाव्रत ने, अथवा आवीरीतें कहे, ॥ दशविध पञ्चरकाण, चार अनियह, सात शिदावत, बार प्रकारनां तप, अगीयार प्रतिमा, बार जावना, चारप्रकारनो धर्म, सत्तरप्रकारनी पूजा, इत्यादिक ए सर्व श्रावक जनोनां उत्तरगुण जावा. एम साधु श्रावकना मूल उत्तरगुणरूप जे रत्न
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३५५ तेनुं (अरकयनिहाणं के०) अक्षय अरखूट निधान ते (दसण के०) सम केत जे. जेम निधानविना रत्ननु अवस्थान न पामी, तेम सम्यक्त्वविना मूलोत्तरगुणरूप रत्न पण न पामीयें. ए मूलोत्तरगुण जे जे, ते अमूल्य ले, माटे रत्ननुं उपमान दीडूं, अने पूर्वोक्त समस्त गुणरूपजे रत्न तेनो आधार समकेत डे, गुण आधेय डे माटें समकेतने निधाननी उपमा दीधी. एवं जे मनमां नाव, ते चोथी नावना जाणवी ॥ ५७ ॥
तथा महोटी पृथ्वी एटले जेनुं १८०००० योजन प्रमाण जाम पणे पृथ्वीपिंग , तलीयामां तीढि सातराज प्रमाण विस्तार वाली ते जे म असंख्याता दीपसमुह परिवेष्टिता सचराचर जीवलोक तेनो थाधार , तेम (चरणजीवलोअस्स के०) चरण जे देशविरति सर्वविरति रूप चा रित्र प्रधान एवो जे जीवलोक एटले नव्यप्राणीनो गण, तेनो (थाहारो के) अधार ते दायिक, दायोपशमिक, औपशमिक, वेदक अने सास्वाद न, ए पांच प्रकार- जे (सम्मत्त के०) सम्यक्त्व, तड़प (महाधरण। के०) महोटी पृथ्वी ने, केम के? ए समकेतरूप पृथ्वीना आधारविना चारित्ररूप जीवलोक रही शके नहीं, एवी नावना ते पांचमी नावना.
तथा (सुय के०) श्रुत ते हादशांगीरूप अने (सील के०) शील जे आचार ते सर्वसावद्य वर्जनरूप क्रिया एनो अनिप्राय कहीयें बैयें. सम्य गज्ञान अने सम्यक् चारित्र, ए बेतु परस्पर मल्यां थकां अर्थ साधक था य ॥ यतः ॥ संजोग सिमी फलं वयंति, न इग्ग चक्केण रहो पयाइ ॥ अंधोय पंगूय वणे समिच्चा, ते संपनत्ता नयरं पविता ॥१॥ तेमाटे श्रुतशी लरूप जे (मणुनरसो के०) मनोज्ञ रस , ते प्रत्ये (दसणवर के० ) वर प्रधान समकेत दर्शन रूप जे (जायणे के०) नाजन, पात्र विशेष तेने विषे (धर के०) स्थापे, धरी राखे, कारण के समकेत रूप नाजनवि ना श्रुतशीलरूप मनोज्ञ रस रही शके नहीं. एबहीनावना जाणवी॥५॥
हवे ए बनावनाने विषे चंश्लेखानुं दृष्टांत कहीयें बैये. या जंबुद्दीपने विषे मलय नामें पर्वतनी उपर बत्र समान वटवृद ,तिहां शुकमिथुन व से बे,ते मिथुनने रूडं देखी कोश्क विद्याधर लइ गयो. तेणें सज मणि मय पांजरमा रारव्यु. सारा सारा कर दाडिम बीजादिकनु नोजन करा वे, समस्त कला नणावी. बए दर्शनना नेद शीवाव्या, जिहां पोतें जाय,
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
३५६
तिहां तेने साथै लइ जाय. एक घडी मात्र पण अलगा मूके नहीं. एकदा चारणश्रमण साधुयें ते विद्याधरने प्रतिबोधीने शुकमिथुनने मलयाचल पर्व तें पालुं वटवृक्ष उपर मूकाव्यं. पढी ते मिथुनने स्वेवायें विविधप्रकारना जोग विलास जोगवतां एक पुत्र थयो, अनुक्रमें सूडासूडीने परस्परें कलह थयो, तेवारें सुडायें बीजी सूडी संघ ने अगली सूडीने बोलावे नहीं, पढी सूडीयें कह्युं महारो पुत्र मने याप. सूडायें कयुं ए महारो पुत्र बे, ते हुं नहीं खाएं. जेमाटे पुत्र ते पितानो ने पुत्री ते मातानी एवो लोक व्यवहार बे. सूडीयें कयुं, ए न्याय ते कोना घरनो ? जेमाटे में गर्न धस्यो, पाली पोषी महोटो कीधो, माटे महारोज पुत्र कहेवाय. एम बेदु पोतपो तामां विवाद करवा लाग्यां, तेवारें सूडायें कह्युं के चाल. या नगर आप नजीक बे, तिहां राजसनायें जइ न्याय करावीयें. जे प्रमाणें ते तेरा वापशे, ते प्रमाणें आपने कबूल बे.
पीते वेदु जण नगरने विषे गयां. राजसनायें जइ बेगं. राजा, मंत्री प्रमुख सनानां लोक यागल विवाद कस्यो. मंत्री प्रमुखें घणो विचार कस्यो, पण कोने रूडो विचार चित्तमां प्रतिभासे नहीं. तेवारें प्रधानें कह्युं ए वात नी समज मने पडती नथी माटें अन्यत्र स्थानकें जइ कोइ रूडा जाण पुरुष होय तेनी पासें न्याय करावो. तेवारें ते गामना दुर्ललित नामें राजा ये कह्युं जे आपणी पासें न्याय कराववा याव्यां बे, ते जो आपले न्याय न करीयें, तो आपने लगा जेवुं बे. माटें ए विवाद हूं पोतें नांजीश.
धने नू
पी राजायें पोतें विचार करीने एवो ठेराव कस्यो, के जे बीज वावे बे, मांथी जे अनाज उपजे बे ते बीज वावनार धणी लइ जाय बे. तेम वे टो ते बापनोज कहेवाय अने बापज लीये, परंतु माता तो नियमा लगी ज रहेवी जोइयें. जेम भूमिकामां बीज वावनारो बीज लइ जाय, मित्राधिपनी कहेवाय भूमिकाने वीजनो संबंध नथी, तेमाटे सुडी, पो तानुं क्षेत्र जे शरीर तेने नवें लइ जाय, पण पुत्रनो संबंध एने नथी. एवो विचार करी राजायें शुकपुत्र सूडाने याप्यो, तेवारें सूडी रोवा लागी य ने राजाने कवा लागी के जे न्याय तमें कीधो, ते जलो कीधो ? राजा या गल कोनुं चाले ? पण ए न्याय तमारी वहीमां लखावो. जेम ए वली पण बीजा विवादमां काम यावे. बीजो कोई विवाद यावे, तो तेनो चुकादो प
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३५७
एमज कराय ! राजायें पण ते वात कबूल करीने ते न्याय मंत्रीने दाये वहीमां जखाव्यो ॥ यतः ॥ बीजिनएव हि बीजं, क्षेत्रं नवतीह तद्धृतामे व ॥ डुर्ललितमहिनायो, निर्णयमेवं स्वयं चक्रे ॥ १ ॥
ए लोक सूडीयें राजाना दफतरमां लखाव्यो ने पोतें पुत्रने विरहें मूर्छा पानी ढली पडी. सूडो हर्ष पाम्यो उतो पुत्रने लइ गयो. प्रधाने शीत लोपचारें करी सूडीनें सावधान करो. सूडी पोताना धणी तथा पुत्रथकी विटी की श्रीशत्रुंजयतीर्थे जइ श्रीकृषनदेवनां दर्शन करी संसारथी वि रक्त थथकी कहती हवी ॥ यतः ॥ न गिहं न हि जरतारो, नय सयणा नेय अंगजाय ॥ सरणं इह संसारे, एग मिह जिमय मुत्तं ॥ १ ॥ एम कही अनशन की वेठी. अंतसमयें इर्जलित राजानो अन्याय तेना मन मां याव्या, तेमाटे मध्यमनावथकी कांची नगरीयें चंदनसागरशेठने घरे घणा पुत्र बे, तेनी उपर ए पुत्रीपणे उपनी, तेनुं नाम चंड्लेखा दीधुं. ते पूर्वजवना धन्यासी निश्चल सम्यक्त्वधारिणी जिनधर्ममांहे प्रवीण थइ.
पी तहां तेने राज्यसनादिकनी भूमि देखी जातिस्मरण ज्ञान उपनुं, सूडाडीनो जव दीगे, विवादनी वात सांजरी यावी, कर्मप्रकृति खेत्रस मास प्रमुख ग्रंथांना विचार जाणवामां प्रवीण थइ. तेवारें चिंतववा लागी जे राजायें अन्याय कीधो बे, माटें हवे एनां फल हुं एने देखाई. एवं म नमां विचारी चंदनसागर श्रेष्ठीनी पासें सेराह, खुगह, हांसला, नीलुखा, कालुया प्रमुख नानादेशना घोडा यणावी श्रीकार पायगायें बांध्या. डर्ज जितराजा जोवा याव्यो, घोडा देखी घणो हर्ष पाम्यो. वेचाता लेवानी मागणी करी. शेठें कह्युं ए घोडा हुं वेचतो नथी ए महारे घेर बांध्या रहे शे. वली राजायें कयुं ताहारा किशोर थाप. तेवारें शेठें पांच वर्ष पर्यंत माया प्या, तेमांथी घणा किशोर थया, तेवारें पोतानी पुत्री चंड्लेखाना कवाथी शेठें ते किशोर पोताने घेर खाली बांध्या ते वात अश्वर के जर राजा श्रागल कही. राजायें रोष करी चंदनशेठने तेडाव्यो, तेवारें चं लेखायें पिताने कयुं के राजा पूबे, तो कहेजो जे महारी पुत्रीने खबर बे.
हवे चंदनशेने राजायें पूजयं के तमें महारा अश्व किशोर केम लोधा ? शेतें कह्युं एवातनो जवाब महारी पुत्री यापशे. हुं जाणतो नथी. राजायें कयुं तमारी पुत्रीने डावो. तेवारें चंड्जेखा अद्भुत शृंगार करी सुखासने
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
बेसी, घणी दासीयें परवरीथकी महोटा थामंबर सहित राजसनायें था वी. राजा तेनुं रूप देखी चमत्कार पाम्यो हवे राजाने चंड्लेखा प्रत्युत्तर यापशे, ते कौतुक जोवाने यर्थे तिहां घणां लोक एकतां थयां. चंड्लेखा पण राजाने प्रणाम करी पोताना पिताना खोलामां यावी बेठी.
राजायें पूयं तहारा पितायें महारी घोडीना जोला किशोर घोडा केम लइलीघा ? चंड्लेखा बोली के हे राजन् ! तहारुं वचन संजाल, राजा घणुयें संचारे पण सांजरे नहीं. तेवारें चंड्लेखायें कयुं के एकने या नव नी वात पण सांनरे नहीं खने एकने घणा नवांतरनी वातो सांजरे ! एखा पापणा ज्ञानावरणीय कर्मनी केवी विचित्रता बे ? ते वचन सांजलीने व ली पण राजा घणो उपयोग दीये पण कांइ स्मरणमां यावे नहीं, तेवारें राजायें चंश्लेखाने कयुं, मने कां सांजरतुं नथी, माटे तुंज कहे. चंइलें खायें कयुं, तहारेज वचनें ए तुरंगम जो महारा पिताना थाय, तो हुं ल जं, नहीं कां महारा घरनुं सर्वस्व प्रापुं. एवं पण करी पढी राजाना न्या यना दफतर मगाव्यां, तेमां लखेलो श्लोक काहाडी राजाने कह्युं या श्लोक वांचो. ते श्लोक वांच्यो के तुरत ते राजानुं श्यामवदन थयुं. चंश्ले खायें कयुं न्यायपूर्वक बोलजो. ए अश्व किशोर महारा याय, के नहीं थाय ? राजा गुं करे वचने बंधाणो, ते केम पलटाइ शके ? मंत्री प्रमुख स मस्त लोक चंड्लेखानी चतुराई देखी चमत्कार पाम्यां. चंड्लेखा राजानी विदायगिरी मागी गाजते वाजते घेर यावी. सघला किशोर घरे आली बांध्या. नीला नीला जव मगावीने किशोरने खवरावता हवा.
हवे राजा अपमान पाम्यो थको विचारवा लाग्यो के हुं एनुं पालिय हण करी मारे वश याणीने हेरान करूं ! एवं चिंतवी चंदनशेठने तेडावी कयुं, तहारी पुत्रीनुं पाणिग्रहण तुं महारी सार्थे कराव. शेतें खावी पुत्रीने पूढधुं पुत्रीयें ते वात कबूल करी, तेवारें महोटा महोत्सवें राजाने पुत्री परणा वी दीधी. परया पछी राजायें तेने रहेवामाटें पोताना महेलथी घणुंज दूर एक प्रासाद करावीने तेमां तेने राखी ने कहेतो हवो के तुं तो गमे तेवी धूतारी हती, पण जो के महारी खबडदारीची में पण तुमने कहेवी धूती बे ? राजा कहे बे, के हुं प्रतिज्ञा करूं बुं ते तुं सांजल. खाजदिवस थी मामीने ढुं तुने कामरागें करी बोलावीश नहीं. ते सांजली चंड्लेखा
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५ए
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. बोली, स्वामी! हुँ पण प्रतिझा करुं बु ते सांजलो ! जो ढुं चंदनशेउनी पुत्री हश्श, तो महारी एठ तमने जमाडीश, तमारे हाथे हमालनी माफ क महारी शय्यासुधां उचकावीश, एवां वचन तेनां सांजली राजा क्रोधे जराणो थको अणमानीती स्त्रीयोना समूहमां तेने बेसाडी दीधी. अने तेनी साथै बोलवा चालवानो व्यवहार पण बंध कस्यो.
हवे चंश्लेखा प्रतिदिन अष्टप्रकारी पूजा करे, सौजाग्यकल्पद प्रमुख घणां तप करे, एकदा राजानी शिख मागी तपy उजमणुं करवा पिताने घरे आवी. पितायें तेनी धुर्बलकाया देखी कुःख करवा मांमयु. पुत्री कह्यु हे पिताजी ! दुःख म करो. जे वाव्युं होय ते खूपीयें,लरव्युं होय,ते पामी यें ! कीg होय,ते जोगवीये ! एम पिताने समजावी तपनुं जमणुं कह्यु.
पडी पिताने कडं अत्यंत रूपवंत अने सकल कलाकलापवंत एवी प चास कन्या मुजने आणी आपो. तथा तमारा घरथी मामीने महारा घ रसुधी बानी मानी एक सलंग खोदावी आपो. तथा महारा घरथी मांझी ने धार वासिनी देवीना देरासरसुधी बीजी पण एक सलंग खोदावी या पो. तथा महारा घरनी नीचेंनी सलंगमाहे एक महोटुं सुंदरप्रासाद करा वो. एटलु माहरुं काम करीने तमें निश्चित था. पड़ी महारी कला जून. जे पुत्रीनो पिता इव्यवान होय, तेने कां अडे नहीं. तेथी चंश्लेखायें कडं तेटलुकाम तेना पितायें व्यने बलें थोडा दिवसमां तैय्यार करी आप्युं.
पञ्चास कन्या जे आणी ने तेहने चंश्लेखायें सलंगना मार्गथी जा पो ताना पिताना घरमांहे गीत, नृत्य, वाद्य, वेणु, वीणा, तालवादन प्रमुख समस्त कला शीखावी. पनी मणिमय जिनप्रासाद कराव्युं , तेमां सिंहा सन मंमावी इंशणीनी पेरें चंश्लेखा बेसे. अने पचास कन्याउनी पासें रात्रिय नाय करावे, राजा बे पहोर रात्रि वखतें मृदंगादिक वाद्यनो श ब्द सांजली चमत्कार पामे, अने मनमां विचारे, जे ए नाद्य पातालने विषे! अथवा बाकाशने विषे! किंवा पृथ्वीतलने विषे थाय ने ! तेनो नि श्चय करवा माटें राजा पव्यंक मूकी नीचे वेसी कान देश सांजले. चंश्ले खा पण प्रनातना वाजां वागे के संगीत वीसी पञ्चास कन्याउने सलं गने रस्ते पिताने घेर मोकली आपे. अने पोतें पोताना प्रासादने विषे आवी बेसे, वली पण एक दिवसनो आंतरो नाखी तेमज मध्यरात्रिने
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. समयें संगीत मंमावे. राजा पण तेमज विस्मय पामतो सानले. अने चं लेखा पण प्रनातनां वाजा वाग्यां सांजले के नाटकने विसर्जन करी क न्याने पिताने घेर मोकली पोतें महेलमां आवी बेसें.
राजा ते नाद्यनी जगा शोधवा माटें घjय नमे, पोतें जूवे, जोवरावे, पण नाटकनी जगा क्यांहि मलें नहीं. एकदा राजा,राजसनायें आवी बे ग, तेवारें सर्वने पूब्यु के रात्रं संगीत क्या थाय ? पण कोई जवाब आपे नहीं. एम ते राजा नाटकना स्थलनी शोध माटे को दिवस अति क्रमतो, क्यारे ए स्थानक देखलं ! एवे ध्याने रहे .
चंलेखायें राजानो मनोगत नाव जाणी एक कन्याने योगणीना वे पनो प्रांमबर करावी संकेत करी शीखवीने राजानी समीपें मोकली. ते योगणीने वेशें राजसनायें प्रावी. राजायें मान देश आसन आपी बेसाडी. ते पण राजाने आशीष पापी वेती. राजायें प्रजयं हे स्वामिनि! तमारा मांहे शीशी शक्ति ? योगणी कर्वा तमारे शक्ति पूढीने गुं करवानुं ने ? जे काम होय, ते कहो, तो करी आपीयें. एवं तेनुं वचन सांजली राजा तेने पोताने घेर तेडी लइ गयो. नलां जोजन करावी, जलां वस्त्रे करी संतोषी. वली रात्रिने समयें संगीत सांजली राजायें कह्यु ए संगीत क्यां थाय ? ते मुफने देखाडो. योगणी कह्यु ए देवतानां नाटक ए वी रीतें देखाडाय नहीं माटें जो तमने जोवानी श्वा होय, तो तमारी अांखे त्रण पाटा बांधी पड़ी देव शरीर तमने आपीने तिहां तेडी जश्गुं. राजाये ते वात पण अंगीकार करी. प्रजात समयें योगणीयें मंगल मंमा व्युं,मंत्रजाप करवा लागी. 'फुटफुट्स्वाहा' एवो जाप करती रात्रिने सम ये लोकोनी श्राव जाव बंध थया पली राजानी अांखें त्रण पाटा बांधीने चंश्लेखाने घेर तेडी गइ. तिहाथी चंदनश्रेष्ठीने घेर लश् गइ, तिहांथी हार निवासिनी देवीने घरे लश् गइ, पडी सलंग नवनना हारने विषे एकांतें राखीने अांखना पाटा बोड्या, तेवारें राजायें पाताल भुवन दीतुं ते जाणे सादात् देवनुवनज होय नहिं ? तेनी मध्यमां रत्नमय सिंहासने बेठी चंश्लेखा दीठी,राजायें जाण्यु ए कोक महर्दिक देवनी देवांगना ले.
पनी राजाने देखी पञ्चास कन्यायें न्हाना प्रकारनुं संगीत मांमधु, ते जो राजायें विचायुं, जे मने जे लोचन मव्यां , तेनुं फल दुं आजे पा
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३६१ म्यो. जेमाटें में साक्षात् देवांगनाउने महारी नजरें दीती. तथा देव नाटक पण सादात् दीहूं. पनी एक प्रहर लगण नाटक करी तत्काल विस[.
एवामां एक दासी कहेवा आवी के हे स्वामिनि ! रसवती नीपनी, माटें जमवा पधारो. तेवारे ते जमवा उठी. जोजनशालायें गइ. तिहां था ली वाटका प्रमुख सर्व सुवर्णना आणी मूक्या. राजा एक खूणे उनो जू वे , तो जे जे वस्तु देखे, ते सर्व मणिमय सुवर्णमय देखे, ते देखीने आश्चर्य पामे. चंइलेखा, दासीयोना यूथ साथें जमवा बेती. योगणी पण पासें जश् बेठी. तिहां विविध प्रकारना मेवा, सुखडी, शाल, दाल सालणा प्रमुख जे जे राजा देखे , ते ते सर्व अपूर्वगंध अपूर्व रसमय देखे .
हवे योगणी पूजा के स्वामिनि ! तमें कोण बो? या पृथ्वीतल के म पवित्र कह्यू डे ? ते कृपा करी अमोने कहो. एवं पूबवाथी स्त्री माया स्वनाव केलवी अश्रुपात करी बोली के हे योगणी ! हे स्वामिनी ! महारं वृत्तांत सांजलो. ढुं धरणींनी पटराणी धरणीइने परमवन्नन बुं अने आ महारी दासीयो ते वीणावादमां अत्यंत कुशल एमनी बराबर वीणा कोई पण वजाडी शके नहीं. ए मुझने अत्यंत वनन , ते दासीयो महारा स्वा मी धरणीई महारी पासेंथी मागी, में कयुं हुं नहीं आपुं. जो ए तमने आपुं, तो महारा नाटकनो नंग थाय, तेवारें नागराजायें कह्यु, तमें नहीं थाप शो, तो हूँ जोरावरीथी लश् मूकीश. एवं वचन महारा स्वामीनुं सांजली ढुं तिहांथी रीसाइ आवीने इहां रत्नमय नुवन करी रहेली बु. हवे तुमने कढुं के जे रीतें नागराजा महारुं था रहेवानुं स्थानक न जाणे, तेवी रीतें तमें मंत्रनी शक्ति फोरवजो. एवं कही वली पण चंलेखा योगणी प्रत्ये कहेवा लागी, के घणे कालें तमें मुझने मल्या बो, माटें आपणे एक था लमां नेगां जमवा बेसयुं, एम कही बेदु जणी एकज थालमांजमवा बेती.
तेवारें चंश्वतीनी संज्ञायें पहेली योगणी बोली हा, हा, हुं एक परो णो साथें तेडी भावी , ते वीसरी गयो. चंश्लेखायें कडं कोण परोणो ने? योगणी कहे, फुललितराजा, तेवारें चंश्लेखा नाक मरोडी कहेवा लागी के अरे रे औदारिक शरीरवालो मलमूत्रनो थागर, अपवित्रतानो सागर, एवो मनुष्य ते वली इहां केम थाल्यो ? योगणी कहे हे स्वामिनि ! तमें नाक शा वास्ते मरडो बो ? में मंत्रशक्तियें करी तेनुं दिव्य शरीर क
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. घु ले. तेमाटे महारा वचनथी एने एकज थालमांहे जमाडो. ए देवतानी रसवती एणे चाखी नथी, जेथी ए पण जमीने पढी मनुष्यलोकमांहे वा तो करशे ? एम कही योगणी राजाने तेज्यो, तिहां ते राजा एठी रस वतीने पण कृतार्थपणुं मानतो जमतो हवो. जम्या नंतर बेहेडे गंगोदकें चलु कराव्यो, पंच सौगंधिक अपूर्व तंबोल आप्यां.
पली योगपीयें कयुं हे राजन् ! उठो था घरनी सर्व शोना जूवो, राजा पण गम ठाम दासीयो साथें हसतो थको जोवा लाग्यो. जो जो ने हर्ष पामतो हवो. पनी योगणीने राजायें कह्यु, तहारा प्रतापथी महारी सघनी वांडा पूर्ण थइ. हवे ए देवांगना साथें जो रमवानो अव सर आपो, तो ढुंकतार्थ था. योगपीयें कह्यु ए वात कहेशो मां. कारण के जो मनुष्यनी साथें रमी , एवी वात धरणी जाणे, तो एनो त्याग करी मूके, तथापि महारी पासें मंत्रबल , तेणे करी तमारी ना पूर्ण करीश. पण एक वात तमोने कबूल करवी पडशे, के या जन्मपर्यंत एर्नु वचन माथे चडावी रहे, पडशे. राजायें कडं जेम तमें कहेशो, तेम हुँ करीश. तेवारें योगपीयें चंश्लेखाने कह्यु ए राजा ताहरो याज्ञाकारक , माटे एनुं मनोवांबित पूर्ण कर. वली हमणां ए घणी रात्रिनो जागेलो डे, माटे तहारा नुवननी मेडीयें सुखशय्यायें सूवाडीने देवशय्यानुं सुख पामवा दे. चंश्लेखायें हा कही. तेवारें एक दासी बोली उपर पट्यंक न थी,माटे जो सूवो तो उपर पव्यंक लइ जाउ. ते सांजली राजा हर्ष पाम्यो थको योगपीना वचनथकी पव्यंकने पोताना मस्तकें नपाडी नपर लग यो. तिहां पंव्यंक अने तलाइ सर्व दासीनी पेरें पोतें पोताने हाथे पाथरी. पड़ी चंश्लेखा नाना प्रकारना संजोगरसें करी राजानुं चित्तरंजन करती हवी.
पनी राजा बीजी पोतानी स्त्रीयोने रासनी जेवी गणीने तेमने पडती मू की अने प्रतिदिवस ते योगपीनी साथें भावी चंइलेखानी संघातें कामनोग मांप्रवते. अने पल्यंक पण उपर सइ पाथरे. पली योगपीयें कडं अरे चंद लेखा ! तहारो पति तहारो दास थयो अने तहारी प्रतिज्ञा पूर्ण थर. चंडले खायें पण पोतानीप्रतिझा पूर्ण थजाणीने शोलशृंगार सजी हसती हसती अंतःपुरमांबावी राजाने कहेवा लागी,के स्वामी ! में तो तमोने उहव्या हता माटें मुफने तमें त्यागी दीधी, पण आ बीजी अंतःपुरीये श्यो अपराध की
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३६३ धो ले, जेमाटे एमने त्यागी दीधी ले ? अथवा देवांगनाना विलासमां अमा रा जेवीना साहामुं तमे किहां जोशो? ते वचन सोनली राजा चमक्यो अने चंश्लेखानी साहामुंजो जोइने उलखी लीधी, तेवारें कह्यु के ए सर्व तहारां चरित्र जणाय बे. एवं कहेतांज चंश्लेखा आवीने राजाने पगे लागी,अने कर्तुं स्वामी योगणीने वचने में धापनो अपराध कीधो,ते क्षमा करजो. रा जायें चंश्लेखानुं बुझिविज्ञान देखीने पटराणी करी थापी. पनी राजाने पा ताल नुवनें सर्व अंतःपुरनी साथें रमतां थकां हजारो वर्ष व्यतिकम्यां. ___ एकदा उद्यानने विषे अनयंकर सूरि समोसस्या. उद्यानपालकें वधामणी दीधी तेमने यथायोग्य दान देने सर्व सजाइ करी चंश्लेखाने सायें तेडी राजा, वांदवा गयो. वांदीने योग्यस्थानकें बेगे. श्राचार्य धर्मदेशना दीधी. नानाप्रकारनी धर्मदेशनाने अधिकारें गुरु, चंश्लेखाप्रत्ये कहेता हवा, के हे चंश्लेखा! तुं कां प्रतिबोध पामती नथी ? आपणा पूर्वनवें समकेतनां फल पाम्यां जाणी शामाटे प्रमाद करे ? पूर्व सूडीने नवें श्रीशजयती र्थे श्रीषनदेवने आराधी उललितराजानी उपर कोप धरीने.समकेतना वशथी चंदनसारशेठनी तुं सर्वकलानिधान पुत्री थइ. अने वली शहां धर्म पण पामी बो, तो हवे प्रमाद शा माटें करे ले ? एवं गुरुनु वचन सांजली चंश्लेखायें श्रावकनां बार व्रत उच्चस्यां. तथा राजा प्रमुख लोक पण सर्व यथाशक्तियें समकेतादिक व्रत उच्चरी पोत पोताने घेर गयां. ___ एकदा चंइलेखा पर्वतिथियें व्रत पालवाने अर्थे पोताने घेर पोषधशा लायें पोषध सइ करीने निश्चल मेरुनी परें अकंप थर कास्सग्ग करी रही ले. एवामां एक मिथ्यादृष्टि देवी अने बीजी सम्यग्दृष्टि देवी ने ते मने परस्पर प्रीति , तेमां सम्यग्दृष्टि देवीये श्रीजिनधर्मनी प्रशंसा करी अने जिनधर्मना पालनारा साधुन्नी दृढतातो अत्यंत श्रेय ले, परंतु श्राव क श्राविकामां पण धैर्यता संबंधी वखाण करतां वर्तमानकालें चंश्लेखा नी धीरज वखाणी ते सांगली मिथ्यादृष्टि देवी चंश्लेखा पासें थावी. रा दलनुं रूप विकू:, जाणे पाहाडने फाडी नाखशे, एवा महोटा बरा हा थमांहे लइ महोटे सादें बोलती हवी के या तहारा पौषध कानस्सग्ग प्र मुख मूकी चरवला मुहपत्तिने नाखी दश्ने था अमारा पगनी पूजा कर, नहींकां तुमने एकज कवलें पाखीने आखी महारा मुखमांहे उतारीश. एवी
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो. रादसीनी वाणी सांजली चंइलेखा लेशमात्र पण काउस्सग्गथकी चला यमान थ नहीं. तेवारें महोटा हाथीयोना रूप लश्ने चंश्लेखाने बीहीव राववा माटे घणा उपसर्ग कया. पनी सिंहनां,सर्पनां, विकराल रूप करी बीहीरावी तो पण अचल रही. पड़ी उललितराजाने चोटलीयें पकडी चं लेखा आगल आणीने कहेवा लागी के था तहारुं कपट मूकी दे. नहीं तर या तहारा धणीने मारी नाखीश. एम कही राजाने चाबके मारवा मांमयो. राजा बुंबारव करी बोल्यो,अरे मनें मूकाव,मूकाव; ए मुझने मारे बे. ते सांजली चंश्लेखायें विचायुं के धर्म करतां थकां जे होनार हो, ते जलें हो. जेमाटे धर्म करतां मातुं थायज नहीं. - ए रीतें जेम जेम कोनावे, तेम तेम चंइलेखानुं मन निश्चल थातुं जा य. एम गुनध्याने चडती पकश्रेणि थारोहि केवलज्ञान पामी तेवारें ढू कडा रहेला सम्यग्दृष्टि देवतायें साधुनो वेश आणी बाप्यो. चंश्लेखायें पण चार मुष्टि लोच करी वेश परिधान कीg, देवतायें सुवर्णकमल रच्युं ते नी उपर बेसी धर्मदेशना देवा लागी. ते उपसर्ग करनारी मिथ्यावृष्टि व्यंतर देवीयें यावीने अपराध खमाव्यो. चंश्लेखायें, कुललित राजा प्रमुखने प्रति बोध दे घणा काल पर्यंत विहार करी जव्यलोकोने तारी श्रीशत्रुजयपवर्ते मोद कमला वरी. ए ब नावनाने विषे चंश्लेखानी कथा कही.
इति महोपाध्याय श्रीशांतिचंगणिशिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचि ते श्रीसम्यक्त्वरत्नप्रकाशनामनि सम्यक्त्वसप्ततिकाबालावबोधे सम्यक्त्व ष ड्नावना स्वरूप निरूपणनामा एकादशोऽधिकारः संपूर्णः ॥ ११ ॥
हवे समकेतनां स्थानकर्नु बारमो अधिकार कहीयें बैयें. ॥ अलि जि तह निच्चो, कत्ता जुत्ता य पुरम पावाणं॥अनि धुव निवा णं, तस्सोवाय बहाणा ॥ ५॥ अर्थः-(अविजिट के) जीवश्व्य अ बि एटले डे, एथ। नास्तिक वाद बाप्यो, ए प्रथम लक्षण जे (तह के०) तथा जीव जे जे ते इव्यनी अपेक्षायें (निच्चो के०) नित्य शाश्वतो . ए बीजं लक्षण तथा (कत्ता के०) जीव कर्ता , एटले ज्ञानावरणीया दिक आठे कर्मनो की छे, तेमां सात कर्मनो निरंतर समयसमयें बंधक ने, अने कदाचित् कोश्क समये या कर्मनो बंधक ने, एत्रीजुं लक्षण. तथा (य के० ) वली (नुत्ता के) जीव जोक्ता , शेनो नोक्ता में ?
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३६५ तो के (पुणपावाणं के० ) पुण्य अने पापनो नोक्ता , तिहां गुनकर्म नो बंधक जीव पुण्यनो नोक्ता , अने अशुनकर्मनो बंधक जीव पापनो नोक्ता , ए चोथु लक्षण. तथा (अबिधुवनिमणं के०) ध्रुव एटले नि थे निवार्ण जे सकलकर्मक्ष्यरूप मोद ते अलि एटले , ए पांचमुं लद ग. तथा (तस्सोवायन के०) ते मोदनो ज्ञान दर्शन चारित्रादिक उपाय डे, ए बहुं लक्षण ए (बहाणा के०) ब स्थानक कहीयें ॥ ५॥
एन स्थानकना जाणवाथकी तथा सईहवाथकी जाणीयें जे एनी पासें सम्यक्त्व , पण जेने ए लक्षगनुं श्रदान न होय, तेनी पासें सम केत न कहेवाय. जे माटें ज्ञान तो मिथ्यादृष्टि पाखंझी पासे पण पामीयें केम के किंचिदून दश पूर्वनोनणनार तो मिथ्यादृष्टि पण कह्यो .तेना किंचि दून दश पूर्व ते पण मिथ्याश्रुत कहीये. मिथ्यादृष्टियें ग्रहण कयुं माटें जे टर्बु मिथ्यादृष्टियें परिग्रहीत पूर्वश्रुत,ते सर्व मिथ्याश्रुत कहीये. कारण के मिथ्यादृष्टि जेटलुं श्रुत जणे,ते सर्व विपरीत पणे सर्दहे. अने विपरीत पणे वखाणे. अने सम्यग्दृष्टिपरिग्रहीत मिथ्याश्रुत होय ते पण सम्यग्श्रुत थाय ॥ यतः॥ व्याकरण बंदोलकति, नाटक काव्यतर्क गणितादि ॥ सम्य ग्दृष्टि परिग्रह, पूतं जयति श्रुतज्ञानम् ॥ १ ॥ इति सिद्धांतस्तोत्रे.
हवे ए बलदण, स्वरूप कहे . ॥या अणुनवसिखो,गमई तह चित्तचेयणाईहिं ॥ जीवो अनि अब स्तं, पञ्चरको नाण दिहीणं ॥ ६ ॥ अर्थः-(आया के०) आत्मा (थ पुनव सिको के०) अनुनव सिमडे, प्रत्यदपणे सिर (तह के० ) तेम (गमई के०) गमति ते अनुमाने पण जाणीयें 3यें. ते शी रीतें जाणीयें बै? तो के ( चित्तचेयशाहिं के०) चित्त एटले झानगुणे करी जाणीयें बैयें, तथा चेयणा एटले चेतना चैतन्य तेणे करी जाणी बैयें,आदि शब्द अकी सुख, सुख,श्वा, जय इत्यादिक जे आत्मगुण ते लेवा. सुखःखादि कनो वेत्ता आत्मा होय, पण अचेतन स्तंनादिक जे जे ते सुख दुःखना वेत्ता न होय. एटला माटे (जीवो अब अवस्सं के०) जीव अवश्य निश्च य , ( पञ्चरकोनाणदिहीणं के०) शानदृष्टिने प्रत्यद , जेहवो आत्मा लोकाकाश प्रदेश प्रमाण असंख्यात आत्मप्रदेशवंत ले. तेहवो, ज्ञानदृष्टियें देखें . ए प्रथम स्थानकनुं स्वरूप कडुं॥६॥
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
जैनकथा रत्नकोप नाग त्रीजो.
हवे बीजा स्थानक- स्वरूप कहे जे. ॥ दवघ्यायनिच्चो, नपायविणास वहिन जेण ॥ पुवकयाणुसरण, प जाया तस्स उ अणिचा ॥ ६१॥ अर्थः-( दवघ्यायनिच्चो के०) इव्या र्थनयने मते विचारतां आत्मा नित्य ने, जे कारण माटें (नप्पायवि पासवङिाउजेण के०) नत्पाद ते उपजqअने विणास जे विस तेणें क रीने वर्जित ने रहित लेजे कारण माटे जो घट अनित्य ले, तो तेनी न त्पत्ति पण ,तथा विनाश पण जे अने आत्मानी उत्पत्ति पण नथी अने विनाश पण नथी परंतु आकाशनी परें नित्य बे, (पुवकयाणुसरण के०) पूर्वकृत कर्मना अनुस्मरणथकी ( पजाया तस्स न अणिचा के०) ते या त्माना पर्याय ते वली अनित्य ने जेमाटे पर्यायार्थिक नये विचारतां आ त्मा अनित्य जे जेम पूर्वनवने विषे ढुं श्रावक हतो, में प्रतिष्ठा करावी ह ती,प्रतिमा जरावी हती. प्रासाद कराव्युं,इत्यादिक जे पूर्वे करेलां कृत्य ते ना अनुस्मरणथकी एटलें सांजरवा थकी यात्माना पर्याय जे मनुष्यत्व, तिर्यंचत्व, देवत्व, नरकत्व इत्यादिक ने ते अनित्य , एवा अनेक पर्याय मपजे विणसे . तेमाटे आत्मा, पर्याय आश्रयी अनित्य .अने यात्मा मूल व्ये नित्य . ए बीजुं स्थानक कयुं ॥ ६१ ॥
हवे त्रीजुं स्थानक कहे जे. ॥कत्ता सुहासुहाणं, कम्माण कसाय जोग माईहिं ॥ मिन दंम चक्क ची वर, सामग्गिवसा कुलालु च ॥६॥ अर्थः-ए आत्मा (सुहासुहाणं क म्माण के० ) गुनागुनकमेनो (कत्ता के०) कर्ता एटले करणशील ने, जेमाटे रूडी सामग्री पामीने गुनकर्म करे , अने नूंमी सामग्री पामीने अगुनकर्म करे . ते शेणे करी करे ? तो के.(कसायजोगमाइहिं के०) कषाय योगादिकें करीने एटले अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानी प्रत्याख्यानी अने संज्वलन, ए चार चार नेदें क्रोध, मान, माया अने लोजना मती शोल नेद तथा सत्यमनोयोगादिक पन्नर प्रकारना योग, एवं एकत्रीश त था धादिशब्दथकी हास्यादिक नव नोकषाय, थानियहिकादिक पांच प्रका रनु मिथ्यात्व तथा पांच इंख्यि अने बहा मननो यनिग्रह तथा पृथ्वीका यवध, अपकायवध, तेउकायवध, वायुकायवध, वनस्पतिकायवध, त्रसका यवध, एवं सत्तावन्न हेतुयें करी जीव, कर्मनो बंध करे . तिहां दृष्टांत क
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३६७ हे ः-(मिन के ) माटी (दंम के ) दंम (चक्क के) चक्र अने (ची वर के० ) चीवर लुगडं इत्यादिकनी (सामग्गिवसा के०) सामग्रीना वश थकी (कुलालुव के०) कुलालवत् एटले कुंजारनी परें अर्थात् जेम कुंजार जे , ते माटी, दंम चक्र अने चीवर प्रमुखनी सामग्री पामीने घट करे , तेमजीव कषायादिकनी सामग्री पामीने कर्मबंध करे ,एत्रीजुं स्थानक कटुं.
हवे चोथु स्थानक कहे . ॥ऊ सयं कयाई, परकय जोगे अश्पसंगो न ॥ अकयस्त नति नोगो, अन्नह मुरकेवि सो कऊ ॥ ६३ ॥ अर्थः-(सयंकयाई के०) स्व कृतकर्मप्रत्ये (जुऊ के०) नोगवे ॥ यतः॥ नानुक्तं दीयते कर्म, कल्पको टिशतैरपि ॥ अवश्यमेव नोक्तव्यं, कृतं कर्म गुनागुनम् ॥ १ ॥ अने (प रकयनोगे के०) पररुतकर्मनो जोग मानीयें तो (अश्प्पसंगो के०) अतिप्रसंग दोष आवे तथा तुकार निश्चयनयार्थे जो जीवने अन्यकृत कर्मनुं जोगवतुं मानीयें, तो देवदत्तना जमवाथकी यज्ञदत्तने पण तृप्ति थावी जोश्ये, पण एम तो देखातुं तथी जे जमे बे, तेनेज तृप्ति थती दे खाय बे, पण अन्यने तृप्ति थती नथी मात्रै परकतकर्म नोगवे नहीं. स्वयं कृत कर्मज जोगवे ॥ यतः॥ जीवेणं नंते अत्तकडे उरक परकडे उरके इति अ कयस्सत्ति माटे (अकयस्सनबिनोगो के०) अरुत कर्मनो नोग नथी (अ नह के० ) अन्यथा जो अकतकर्मनो जोग मानीयें तो (मुरकेवि के०) मोदने विषे पण ( सो का के०) ते कर्मनो जोग होय. उडता रोगनी परें जो कर्म पण उडीने वलगीजाय,त्यारे तो सिघना जीवने पण कर्म लागी जाय! तेमाटें स्वयंकत कर्मज आत्मा जोगवे. ए चोथु स्थानक कहुं ॥६३॥
हवे पांचमुं स्थानक मोद ले तेनुं स्वरूप कहे जे. ॥निवाण मरकय पयं, निरुवम सुहसंगयं सिवं अरुयं। जियराग दोस मोहे, हिं नासियंता धुवं यति ॥ ६४॥ अर्थः-(निवाणं के) निर्वा ण एवं (अरकयपयं के० ) अदयपद , शाश्वतुं स्थानक ले, ते एक सि
नी अपेक्षायें सादि अनंत के अने सर्वसिवनी अपेक्षायें अनादि अनं त . सिक्ने पतनना अनावथकी पाबो अवतार लेवो नथी माटे अक्ष्य ले वली कहे ? तो के (निरुवमसुहसंगयं के०) निरुपम सुखसंगत बे, ते दुःखगड़ित नथी, तेमाटे निरुपम सुखसंगत कयुं. तथा (सिवं
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
के० ) निरुपव बे, एटले उपश्व रहित बे. केम के तिहां सात जय मांहेलो एके जय नथी, तथा बावीश परिसह मांहेलो एके परिसद नथी, माटे शिव कह्युं उपवरहित कयुं तथा (खरुयं के० ) खरुज ने एटले रोगरहित बे जेमाटे रोग तो शरीराश्रित के तिहां मोक्षमां शरीरना खना व रोगरहित पशुं बे, तेमाटे खरुज कयुं. हवे ते मोह केवी रीतें जा
यें ? ते कहे :- ( जिय राग दोस मोहेहिं के० ) जीत्या बे राग द्वेष ने मोह जेणें एवा प्राप्त पुरुषोयें ( नासियंता के० ) जाषित कथित बे पण तारवाने नथी कयुं. जितरागदोषमोह एवा जे जिन, तेणें कयुं . (ता के० ) तेमाटे ( धुवं के० ) निवें (वि के ० ) बे. जे श्रीवीतराग देवेंकयुं ते तुंज बे, एमज जाणवुं. ए पांच स्थानक कयुं ॥ ६४ ॥ हवे बहुं स्थानक, ते मोह साधवानो उपाय कहे बे.
॥ सम्मत ना चरणा, संपुमो मोरक साहणोवा ॥ ता इह जत्तो जुत्तो, स सति नाएा तत्ताणं ॥ ६५ ॥ अर्थ: - ( सम्मत्त के० ) स म्यक्त्व जे खोपशम, दयोपशम कायिकादिक श्रात्मानो गुनपरिणाम तथा (नाल के ० ) ज्ञान विशेष जे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, म नः पर्यवज्ञान ने केवलज्ञान तथा ( चरणा के० ) चारित्र जे सामायिक वेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय ने यथाख्यात ए त्रण वानां तेणें करी (संपुमो के० ) संपूर्ण पूरे पूरो बे. ( मोरकस होवा के० ) मोह साधवानो उपाय ( ता के० ) ते कारण माटे ( इह के० ) ए उपाय विषे एटले मोक्षरूप कार्यनुं जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप उपा
बेतेने विषे (जत्तो के ० ) यत्न करवो ते (जुत्तो के०) युक्त बे (ससति के ० ) स्वशक्थिकी पण, कोने ? तो के ( नाणतत्ताणं के० ) जेणे ज्ञाने करी त त्त्व जायुं बे, तेहने एटले जेथे श्री जिनवचननां रहस्य जाएयां बे, तेने ए उपाय विषे स्वशक्तिकी यत्न करवो युक्त बे, ए बहुं स्थानक कयुं ॥ ६५॥ स्थानकने विषे नरसुंदर राजानो संबंध कहीयें बैयें. एहीज क्षेत्रने विषे कांची नामें नगरमां नरसुंदर नामें राजा राज्य करे बे ते राजा नास्तिक वादी बे. जीवादिक पदार्थ मानतो नथी, देवगुरुनो द्वेषी बे, तेने सुरसुंदरी नामें ग्रमहिषी बे, अने सुमति नामें प्रधान बे.
वे
हवे चंद्रपुरनगरने विषे चंमसेन नामें सामंत बे, तेने मंत्रतंत्रादिकनो
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. जाण एवो एक योगी मित्र , ते चंमसेन सामंत नरसुंदर राजानी सेवा थकी उछेग पाम्यो थको योगीने कहेवा लाग्यो के तुं महारो मित्र जो माटें महारुं एक काम कर. योगीय कयुं हुं काम ले ?.ते मने कहे. चंमसेनें कह्यु नरसुंदरराजानी चाकरीमा मने कांहिं पण सुख नथी. माटे ए राजाने मारी नाखीयें, तो ढुं सुखसमाधिमां रहूं! ते वात पहेला उष्टात्मा योगी अंगी कार करी. पडी ते योगी कांचीनगरीये आव्यो, अने मंत्रतंत्रादिक विद्यायें करी लोकोमांहे प्रसिद्धि पाम्यो. राजायें तेनी कलासंबंधी तारिफ सांजली तेडावीने पूब्यु, तमें कया देशथकी याव्या बो ? योगीय कर्तुं आप योगी योना नक्त बो. एवं सांजली ढुं श्रीपर्वतथकी तमा दर्शन करवायाव्यो ढुं.
राजायें प्रब्युं तमारी पासें कई का विद्याले ? तेवारें योगी बोल्यो हूँ रात्रिने दिवस करी देखाडं अने दिवसने रात्रि करी देखा९. धरतीने आका श करूं, आकाशने धरती करूं, समुने एक चुलुकें आचमन करूं इत्यादि विद्या , माटे तहारे जे काम होय ते कहे, तो ढुं करी आपुं. तेवारें योगीने प्रधाने कर्तुं एटला महोटा थाम्बर अमारे कराववा नथी पण महारी स्त्री प्रणयकलह थकी रीसाने ग्रामांतरें गडे,तेने शहां बेनं आणी आप,तो ए सर्व तहारं बोलवू साचुं करी मानीये. ते सांजलीने योगीयें मंगल मांमधु, मंत्र साध्यो,आकर्षण मंत्र करीलोटथी खरडेला हाथे रोटला करतीएवीथ कीज मंत्रीश्वरनी स्त्री आणी. मंत्री हर्ष पाम्यो थको नाचवा लाग्यो,राजाने ते योगीनी उपर वास्ता यावी. तेवारें राजायें एकांतें तेडीने योगीने पूज्यु हे स्वामी! कालवंचना थाय के न थाय ! एटले आयु पूरण यये मरण प्राप्त थाय , ते न थाय, एवो कोश् नपाय , के नथी? योगी कर्वा जे थकी कालने वंची घणु जीवीयें मरीयें नहीं, एवो नपाय जे. पण जो तुं महारी दीदा लश् महारो चेलो था, तो ते उपाय चाले नहीं कां चाले नहीं. ते सांजली राजायें प्रधानने राज्य नलावी पोतें योगी पासे दीदालीधी. __ योगीयें कह्यं नासिकाथकी बार यांगुल पवन बाहिर निकले अने दश यांगुलमांहे पेसे, तेथी जे विपरीत करे, ते मरणने वंचे. इत्यादिक कही योगीय राजाने नूमिमांहे घाल्यो. पडी हिंसादिक पापमांहे बोल्यो, एम नि त्यप्रत्ये करावतां एकदा राजाने विषम विष आपीने योगी नाशी गयो, वि ष चड्या पडी राजा अचेतन थइ पज्यो. समस्त परिवार रोवा लाग्यो,प्र
४७
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. धानें योगीने पकडवा माणस मोकल्या. योगी कागडानी पेरें नाशी गयो, मल्यो नहीं. घणा मंत्रवादी तेड्या, पण कोश्नो उपाय लाग्यो नहीं. जे वारें पूर्ण विष व्यापी गगुं, तेवारें मरी गयो जाणी हाथणी उपर चडावी यामंबर सहित स्मशाने लश् गया, अगरुचंदननी चिता करीने जेहवो रा जाने चितामांहे मूकवा लाग्या, तेहवोज राजा अांख नघाडी जोवा ला ग्यो. अने बोल्यो के या मुऊने झुं करोडो? तेवारें प्रधाने कर्वा महापात की योगी तमोने विष देश नाशि गयो पण हाथमा न आव्यो, मंत्रवादी तेड्या तेणें पण हाथ खंखेया, तेमाटें तमने मृत जाणीने इहां आण्या, ते सांजली राजायें कडं दुं केम निर्विष थयो ? प्रधानें कडं ते कारण तो कांश समजातुं नथी पण में एवं सांजव्युं जे जे कोइएक उग्रतपस्वी लब्धि वंत साधु थाय , तेना शरीरनो जो कोश्ने पवन लागे तो पण तेनुं विष जतुं रहे. ने निर्विष थजाय,तेवा कोई साधु याव्या होय, तोढुं कही शकतो नथी.
राजायें तेनी खबर करवा मागस मोकल्यां के जान को तपस्वीलब्धि पात्र साधु आव्यो के ? ते जो श्रावो. माणस पण जो आवी राजाने कहेवा लाग्या के हे स्वामिन् ! तमारा पुष्पाकर उद्यानने विषे चंप्रनाचार्य समवसस्या , राजा कहे साची वात ने, एने प्रसादें महाकै विष उतरी गयु, तेमाटें ए साधुने जर वांदीये. एम विचारी राजा तथा मंत्री प्रमुख सर्व लोक आचार्यने वांदवा आव्यां. राजा वांदी हाथ जोडी वेठो,आचार्य धर्मोपदेश दीधो. अवसर जाणी जीवास्तिवादनी प्ररूपणा करी तेवारें राजा ये नास्तिकवाद स्थाप्यो,अने कह्यु के जीव नथी,जो जीव होय तो घटपटा दिकनी परें देखाय ते देखातो नथी, माटें आकाशपुष्पनी परें जीव नथी.
गुरुयें कडं तें नजरें दीठो नथी,माटे कहे बे के जीव नथी तो तहारी स मज प्रमाणे मेरु महिधरादिक पर्वत पण नथी, तेम तहारा पूर्वज पण न थी. केम के ते पण तें दीठा नथी, परंतु तहारा पूर्वज नहीं,तो तहारी न त्पति पण न जोश्य, माटें तहारा पूर्वज तो अनुनवसिम थाय , तेम सु ख दुःखादिक जे आत्माना गुण डे,ते पण प्रत्यद देखाय . सुख फुःखादि कथात्मा अनुनवे ले. जे सुखदुःखादिकनो कोश्क धणी,ते आत्माजले.
राजायें कह्यु ए सत्य वात थइ, पण जीव पापें करी नरकें जाय अने पुण्यें करी स्वर्ग जाय, ए वात मलती नथी, जे माटे महारा पितायें घणां
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३७१ पाप कस्यां ने, माटे तमारे मतें नरकें गयो हशे तो ते इहां आवीने मुफ ने पापथकी शामाटे निवारतो नथी ?
गुरु बोल्या सांजल. हे राजन् ! कोइक चोर चोरी करतां पकडायो होय, तेने हाथे पगें गलायें जकडी बांध्यो होय, ते कहे के मुफने लूटो मूको. हूं महारा कुटुंबने मली आई ! पण ते चोरने कुटुंबने मलवा माटे कोइ बूटो मूके? राजायें कर्तुं न मूके. गुरु बोल्या तेम नारकी जीवने परमाधार्मिक देवोयें वींटी लीधेलो तेणे मारतो दातो नेदातो ते केवी रीतें निकल वा पामे ? ए दृष्टांतें तुमने समाचार आपवा सारु केवी रीतें आवी शके ?
राजायें पूज्यु महारी माता परमश्राविका जीवादिक नवतत्त्वनी श्रद्धा वंत हती, प्रतिक्रमण सामायिक पौषधनी करनारी हती ते तमारे मतें स्व गें जवी जोश्ये, तो ते मुमने प्रतिबोध देवा केम नथी आवती ?
गुरुये कह्यं सांजल. ते स्वर्गमा विविध प्रकारना कामनोगने विपे आ सक्तथकी तथा वली मनुष्य लोकनो जुर्गध चारशे तथा पांचशे योजन सु धी चंचो पसरे ने, एवा पुगंधमांहें केम आवे? ॥ यतः॥ चत्तारि पंच जो यण सयाई, गंधोध मणुष लोगस्स ॥ नटुं वञ्च जेणं, नदु देवा तेण या वंति ॥ १॥ पंचसु जिणकन्नाणेसु, चेव महरसितवाए जावा॥ जम्मंतर निहेण य,आगति सुरा श्हयं ॥२॥ माटें जीव बतो ,एवी सद्दहणा कर.
वली राजायें कडं में जीवनी सद्दहणाने अर्थे एक चोरने पकडी तेनारा जेवडा खंम कीधा, पण तेमाथी का जीवनो खंग निकलतो दीतो नहीं. ते माटें जाएं बु जे जीव नथी जो जीव हत, तो तेनो खंझ पण दीवामां आवत? ___ गुरुये कह्यु कोइक पुरुषे अरणीनुं काष्ठ लश् तेनो लोट करी नाख्यो प ए तेमां अनि दीठो नहीं, तेम वली बीजा कोश्क पुरुषं अरणी, काष्ठ म थन कयुं, ते मथन करतां अनि प्रगट थयो. खंमोखंम करतां, लोट कर तां, यमि प्रगट न थयो अने मथन करतां प्रगट थयो, तो ए अमि किहां थी निकटयो ? एवी रीतें रूपी पदार्थ जो सामग्रीविना नथी देखाता तो जीवतो पदार्थ , ते केम देखाय ? तेमाटे चैतन्य गुणें करी जीव जाणीयें.
वली राजायें कडं में एक चोरने पकडी लोहनी मंजूषामांहे घाल्यो, ते मंजूषाने लाख देइने निश्चि कीधी. अनुक्रमें नूख तरष वेती ते चोर मरण
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. पाम्यो पण तेनो जीव कया रस्ताथी निकली गयो ! एवं को लिए मंजूषा मां दी नहीं, तेवारें में निर्धार कस्यो जे जीव नथी.
गुरुये कह्यं तेनुं दृष्टांत कहुं बुं, ते सांजल. कोक शंखवादक महाबल वान हतो,ते घणो वेगलो रही शंख वजाडे,तो पण सर्व कोइ जाणे जे ए अमारी पासेंज शंख वजाडे जे. एकदा राजा शरीरचिंतायें प्रवृत्त्यो बे, ते वारे वेगलो रही तेणें शंख वजाड्यो, तेथकी राजा दोन पाम्यो, राजाने बंधकोष्ट थयो. तेथी बाधा निसरी नहीं. राजायें ते शंखवादकने बंधावी अणाव्यो, अने कह्यु के एने मारी नाखो. तेवारें तेणें विनति करी के स्वा मि! में दूर रही शंख वजाव्यो बे, तो पण तमें जाण्युं जे महारी पासें र हीने शंख वजाडे डे, तो एमां महारो श्यो वांक छ ? जो महारं वचन न मानो, तो आप परीक्षा करो. राजायें कडं जलें दुं परीक्षा करुं . एम कही राजायें ते शंखवादकने निश्चिइ कुंजमां घाल्यो कुंनने घणो बूरी ली धो लेशमात्र विश्राव्युं नहीं, तिहां रही तेणें शंख फुक्यो, ते राजा प्रमु ख समस्तलोकें सांजव्यो, तो हवे ते शब्द कुंजमांहेथी कये मार्गे निकल्यो ? बिइ तो कोइ देखातुं न हतुं,तथा लुहारें लोह घड्यु, ते लोहमांहे अग्नि कया मार्गे पेठो बिइ तो हतुं नहीं, तेम जीव पण शरीरमांहे पेसतो निकलतो देखाय नहीं, पण बोलावीये तेवारें ढुंकारो करी नवे ने, ते जीव जाणजे.
वली राजा बोल्यो स्वामी ! महारी एक वात सांजलो. में एक चोरने प्रथम तोल्यो, पडी मारी नाख्यो, मास्या नंतर फरी पण तोल्यो, परंतु जीव निकल्या पडी तेमां वजन कमती थयुं नहीं. जो जीव होय, तो जीव जतो रह्यो तेनो नार उडो थवो जोश्ये, तेमाटे जीव नथी. ए वात निःसंदेह .
गुरुये कह्यु एक गोवालीयें एक दडो वायरे चरीने तेने तोव्यो पड़ी वली वायरो काहाढीने पण तोव्यो, तो पण सरखो उतस्यो तो हवे वायरानो जार क्यां गयो ? ए दृष्टांतें जाणवू, जे शरीरमांहे जीव पेसे तो शरीर जारी न थाय अने शरीरमांथी जीव निकले, तो हल न थाय. जीव अरूपी व्य , तेने चेतनादिक गुणें करी जाणीये. इत्यादिक अनेक प्रकारनी युक्ति प्रतियुक्ति सांजलीने राजा प्रतिबोध पाम्यो थको गुरुप्रत्ये कहेवा लाग्यो के महाराज! तमारे प्रसादें करी माहारुं बदु प्रकारें मोहविष गपुं, तो पण महारो नास्तिकवाद कुलक्रमागत आव्यो , ते केम मूकाय ?
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
३७३
"
गुरु कयुं विवेकरूप दीपक पामी अंधकारंमांहे कोण पेसे ? कोण रहे ? सन्मार्ग पामी उन्मार्गे कोण जाय ? ॥ यतैः ॥ जइ केवि पुवपुरिसा, अंधलया अंधकूव पडिया ॥ ताकिं सञ्चरकणं, जडत्ति तवं व पडियवं ॥ १ ॥ तद्यथा ॥ कोइक चार वाणीया व्यापारें धन उपार्जन करवा माटे चाव्या, अनुक्रमें चालतां चालतां लोहनी, रूपानी, सुवर्णनी धने रत्ननी खाल पा मी, लोह नाखी रूपुं जीधुं, रूपुं नाखी सुवर्ण लीधुं सुवर्ण नाखी रत्न जीधां. घरे यावी नवा घर कराव्यां, पाणिग्रहण कीधां, पुत्र पुत्री प्रमुख कुटुंबनी वृद्धि २. घणां धर्मकर्मनां कार्य करी इहलोकें परलोकें सुखी थयां, पण ते चारमा एक वाणीयो कदाग्रही हतो तेणें लोह लीधेनुं मूक्युं नहीं. तेने घणा बीजात्रा जणे समजाव्यो, तो पण जोहने मूकी रूप्य, सुवर्ण, रंन atri नहीं. घणा योजनसुधी लोहनो नार उपाड्यो पण लोह नाख्युं नहीं. a as रह्यो, ते वाणीयो पापनो प्राणीयो घरे प्राव्यो, दारि जोगवतां कालने प्राप्त थयो, इह लोकें परलोकें दुःखी थयो. ए दृष्टांतें हे राजन् ! तुं पण ते लोहवालीयानी पेरें पूर्वजवें दुःखी ययो हो तेम खागले नवें दुःखी थाइश. तेवारें राजायें पूयं में पूर्वनवें शी रीतें दुःख जोगव्यां बे ? तेवारें या चार्य राजाप्रत्यें पूर्व कहे बे. एहज नरतक्षेत्रें मवगाम नामें गाममां र्जुन नामें कुलपुत्र रहे बे. तेने सुश्रावक शुभंकर एवे नामें मित्र हतो, ए कदा ते गामें एक साधु पधास्था. तेवारें शुभंकर श्रावकें, अर्जुनने कयुं चा लो, साधुने वांदवा जइयें ! धर्मश्रवण करीयें ! तेने अर्जुनें कयुं हे मित्र ! में एमना यागमनुं रहस्य जाएयुंज बे, ए यागम सर्व लोकोने धृतवाने खर्थे धूर्त्तोयें करेलां बे, लोकने पासमां पाडवाने खर्थे तेनुं नाम सिद्धांत क aroj a. एवां वचन बोलवाथी तेणें कुकर्म उपायु अनुक्रमें ते अर्जुन म रण पामीने बागथयो, तेज बागने अर्जुनने पुत्र अर्जुनना श्राने दिवसें मारीने ब्राह्मणोने थाप्यो. तिहांथी मरीने रासन थयो, ते घणी ताडना तर्कना सहेतो नार वहन करे, ते गलीया रासनने कुंनारे घणो मायो ते aat मरण पामीने गर्त्तानुकर थयो, अचि नकरडे लोटतो थको प्रशुचि aण करतो थको रहे, तेने प्राहेडीना कूतरायें मारी नक्षण कस्यो, तिहाँ श्री मरी उंट थयो. तिहां पण घणो जार वहन करवे करी तेनी पीठ सडी ग. तेनी वेदनाथी मरण पामीने गोबर गामने विषे धना नामें वाणीयाने
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. घेर पुत्र थयो, ते जन्मथी मुंगो बहेरो थयो, तेथी तेनी उपर लोक हांसी करे थके ते मूल् क्रोधने वशथको कूवामां पडी मरण पाम्यो. तिहाथी मरी नंदगामने विपे ठाकोरने घेर दासपुत्र थयो, तेणे एकदा मदिरापान ने उन्मत्तपणे करी ठाकोरने गाल दीधी, ठाकोरें तेनी जीन कपावी तेथी महा पीडायें नूमियें पज्यो, रडवा लाग्यो. एवामां एक साधु चारित्रीयो ज्ञानवंत आव्यो, तेणे आवी कह्यु के हे नई ! तुं झुं रडे ले ? तुं तहारुंज पूर्व कृत कर्मसंनार. तेणें अर्जुनना नवथकी मामीने सघला नव कही संनला व्या, ते सांजलवाथी तेने जातिस्मरण ज्ञान उपनु, तेथी पोतानां करेंलां पा पने निंदतो साधुयें दीधेलो नमस्कारमंत्र तेने सांजलतो थको काल करीने तुशहां राजकुमर थयो बो. पूर्वनव अन्यासथी तुऊने नास्तिक मत आव्यो. राजा पोताना पूर्वनव सांजली जातिस्मरणें करी पूर्वनव चरित्र देखी था चार्यप्रत्ये कहेवा लाग्यो के हे स्वाम। ! तमें कडं ते सर्व सत्य , हवे मुज ने जीवादिक नवतत्त्वनी सहहणा यावी. जे तमें कह्यु, ते तेमज . महा रो एटलो काल निरर्थक गयो. हवे प्रसन्न थ संसार समुश्थी तारवा माटे मुझने दीदा द्यो, गुरु कहे. जहासुहं देवापुप्पिया मा पडिबंध करेह.
हवे राजा परम संवेग पाम्यो थको पुत्रने राज्य आपी पोतें आचार्य पासें दीक्षा लेतो हवो. गुरुयें शीखामण दीधी॥ यतः॥जयंजरे जयं चिके, जयंमा से जयं सए ॥ जयं नुऊतो फासंतो,पावं कम्मं न बंध ॥१॥ इत्यादिक गुरु शिक्षा पामीने निरतिचार चारित्र पालतो हवो. सकलसिद्धांत नणी प्रवचननो पारंगामी थयो. आचार्यै योग्य जाणी आचार्यपद दीधुं. अने क जीवने प्रतिबोधी पोतानी पाटे शिष्यने थापी पोतें जिनकल्प आदस्यो, "गामेएगराश्यं, नगरे पंचराश्यं ” ए रीतें विहार करता हवा, हले अव सरें पादपोपगमन अणसण करी सर्वार्थ सिम विमाने देवता थयो. तिहां स्वेवायें सुख जोगवी मनुष्यनव पामी चारित्र आराधी मोदें जाशे. ए समकेतनां स्थानकने विषे नरसुंदर राजानुं चरित्र सांजली दृढ थq. ए समकेतना शडशठ बोल सांजली हृदयमा धारी निश्चल समकेत आद र. जेम समकेत मोहनीय कर्मक्ष्य करी दायिकसमकेत आवे.
हवे सकलशास्त्रार्थनू निगमन वाक्य कहे . ॥ श्यसतसहि पयाई, उचिणि उ विउल आगमारामा ॥ संगहिया इब म
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्व सित्तरी.
३७५
ए, मंदमईणं सरणकं ॥ ६६ ॥ श्रर्थः - ( इसतस पिया के ० ) इति ते परिसमाप्ति बे चार सद्दहणा प्रमुख बोर द्वार तेना उत्तर शडशठ पद ते प्रत्यें (विल के० ) विपुल महोटो एको जे ( यागमारामा के० ) आगम रूप खाराम ते आराममांहेथी परमार्थे फूलनी परे ( उच्चिणि के० ) वीपी लइने (न के० ) वली ( इब के० ) ए समकेत सप्ततिकाना मा प्रकरणने विषे ( मए के० ) में ( संगहिया के० ) संग्रह कीधां एकठां कीधां. ते शेने खर्थे एकठां कीधां ? तो के (मंदमईणं के०) मंदमति एटले तु बे मति जेनी तेवा नव्य जीवोने ( सरण देकं के० ) स्मरणहेतुने का एकai कीधां. जेम माली महोटा धारामथकी फूल जेइ चंगेरी नरे, पी देवगृहें अथवा घरे खावीने तेनी माला गुंथे ते श्रीजिनप्रतिमाना जोगमां खावे, तथा व्यवहारीया अने राजा प्रमुखने जोगमां यावे तेम विपुल एवा सिद्धांत रूप यारामथकी या शडसह बोलरूप पुष्प लइने ए समकेत सप्ततिका नामा प्रकरणरूप चंगेरीमांहे माला रूपें एकता कीधां बे, ते नव्यजीवाने कंठे करवाने खर्थे कीधा बे. एटलें नव्यजीवोने काम मां आववा माटे कीधा बे, ए नाव बे ॥ ६६ ॥
हवे एना परिज्ञानथकी गुं फल थाय ? ते कहे बे.
॥ एसिं विह परिमा, दंसण सुद्धिं करे नवाणं ॥ सुम्मि दंसण म्मि, करपल्लवसंत मुरको ॥ ६७ ॥ यर्थः - ( एसिं के० ) ए समके तना सराव नेदनी (डुविह के० ) बे प्रकारनी ( परिस्मा के० ) परिज्ञा एटले परिज्ञान ते एक सामान्यथकी ने बीजी विशेषयकी ए बेदु परि ज्ञा जे बे, ते ( दंससुकिरेइनवाएं के० ) नव्यजीवने दर्शनशुद्धि एट
समतनी शुद्धि करे समकेत निर्मल करे. जेमाटें अनव्यजीवने तो समकेत नथी, तो तेनी शुद्धि पण क्यांथकी होय ? जेम कोइ स्त्रीयें पु त्र प्रसव्योज नथी तो ते स्त्री, नामस्थापना पण कोनी करे ?
आगमना जाव बे प्रकारें बे. एक खाज्ञागम्यनाव ने बीजा युक्तिग म्यनाव तेमां जे निगोदादिकना विचार ते याज्ञागम्य नाव बे घने बी जा विचार युक्तिगम्यनाव बे. ते जेम बे, तेम गीतार्थे वखावा अने सद्दहणा करनारें तेमज सदहवा ॥ यतः ॥ याला गिनो अहो, थालाए चैव सो कहियो || दिनंति दिहंता, कहणविहराद्या इयरा ॥ १ ॥ श्री
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
जिननङ्गणिमणेनाप्युक्तं ॥ कबश्य मइ डुब्बलेणं, तविहाय रियaिred वाव ॥ नयगयत्तणेण थ, नाणावरणोदएणं च ॥ १ ॥ हेकदारण संभव, सरहु जं विबुद्धिका ॥ सवणुमयम वित्त, तहावितं चिंतई मइमं ॥ १ ॥ अणुवक परापुग्गह, परायणा जं जणाजुगप्पवरा ॥ जिय राग दोस मोहा, नन्नहा वाइणो तेां ॥ ३ ॥ इति प्रतिक्रमण सूत्रवृत्तौ ॥
तेमाटे जे नव्यजीव होय तेहज खाज्ञारुचि होय ॥ यतः ॥ श्रहिगा रिला इमं खलु, कारेयवं विवकए दोसो ॥ श्राणानंगा उच्चिय, धम्मो स ईबो || १ || राहणाइतिए, पुष्मं पावं विराहणार्ज य ॥ एवं धम्म रस्सं, विशेयं बुद्धिमंतेहिं ॥ २ ॥ इति सप्तमपंचाशके ॥ तथा ॥ विशि कष्टस्य कर्म यं प्रयत्यकारणत्वाकिनाज्ञया, एवं कर्मक्षयं प्रति का रणत्वादीनि नगवतीवृत्तौ ॥
माटे नव्यजीव जे होय, ते याज्ञारुचि न होय तेने “खाधे पीधे दी वाली ने कमरे उच्चाट” एवो नास्तिकवादी होय तेमाटे 'नवाणं' ए पद कयुं.
(सुम्मि समिके० ) जेने समकेत शुद्ध बे, ते हुते थके तेने ( क पल्लव संमुरको के० ) करपल्लव जे हस्त तेमांहे मोह, संस्थित एटले रह्यो बे. ए नाव जाणवो ॥ यतः ॥ सम्मत्तंमि व लदे, पलिय पुहत्ते स दुका || खावसम खयाणं, सायरसंखं सया हुंति ॥ १ ॥ ६७ ॥ हवे ते समकेतशुद्धि केम थाय ? तेनो प्रकार कहे बे:
॥ संघे तियरम्मि, सूरीसु रिसीसु गुण महग्घेसु ॥ अप्पञ्च न जेसिं, तेसिं चिय दंसणं सुद्धं ॥ ६८ ॥ अर्थः- ( संघे के०) संघ जे साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप तेहने विषे तथा (तिब्बयरम्मि के० ) तीर्थकरने विषे तथा ( सूरी के ० ) सूरिने विषे, पंचाचार प्रतिपालक एवा श्राचार्य ने विषे (रिसी के०) साधुने विषे ( गुणमहग्घेसु के० ) गुणेकरी मह ते विषे अर्थात् सर्वने विषे (जे सिं के० ) जे विवेकी साधु तथा श्रावकने मन, वचन ने कायायें करी ( अप्पच्चन के ० ) प्रत्यनीकपणुं न हो य एटले विश्वास न होय नास्ता न होय ( ते सिंचियदंसणंसुद्धं के० ) ते साधु तथा श्रावकनुंज दर्शन एटले समकेत शुद्ध होय, अर्थात् श्रीसं घ तीर्थंकरादिकने देखीने तेनी उपर जे अनास्ता न खाणे, तेनुं समकेत शुद्ध होय, ने जे नास्ता खाणे, तेनुं समकेत युद्ध न होय ॥ ६८ ॥
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सम्यक्त्तवसित्तरी.
३७७
हवे जे एवा न होय तेनां लक्षण कहे बे:
॥ जं पुरा इय विवरीया, पल्लवग्गहा संबोह संतुहा || सुबदुंपि कमं ता, ते दंसण बाहिरा रोया ॥ ६९ ॥ अर्थ :- ( जंपुण के० ) जे वली ( इय के० ) ए पूर्वेकह्या तेथकी ( विवरीया के० ) विपरीत होय, एटले संघ, तीर्थकर, याचार्य ने साधु, तेने विषे प्रत्यनीक होय (पल्लवग्गहा के० ) पल्लवग्रहा तिहां पल्लव एटले बेहडो तेना जालनारा एटले जेम कोइकें रुणुं नांग्युं होय तेहनोज बेहडो पकडी बेसे, तेम कांक शास्त्र न एया होय तेनाज निमानें संघादिकनो बेहडो पकडे, जाले कहे के एनो प्रत्यु तर प. एवी रीतें हुंकार तुंकार करे, बराबरी करे तेने पल्लवग्गहा कहीयें पण ते कहेवा होय? तो के (संबोहसंतुहा के ० ) संबोध एटले पोतें कांक जयाथकी पोताना ज्ञानें करी संतुष्ट थयाथका होय, परंतु पूरण यागम ना जाव जाणे नहीं. तेमाटे जे कदाग्रह लीधो, ते मूके नहीं, एवा ज म्माली ने गोशाला सरखा जे होय, ते ( सुबटुं पिनमंता के० ) घणुये तप संयम क्रियाने विषे नयम करता होय तो पण (ते के०) ते जीवो (दं सबाहिरा के० ) समकेतदर्शनथकी बाह्य वे एम (ऐया के० ) जाणवा एटले ते जीवो समकेतथी रहित जाणवा ॥ यतः ॥ दाणं उरकनिहाणं, क हा तहा खाणं ॥ सम्मत्त विरहियाएं, तवोविसं तावगो नलिउ ॥१॥ इति श्रीहरिनसूरिकृत मूलबुद्धिप्रकरणे ॥ तथा जेणे एक तीर्थकरादिक नीलना करी, ते अनंत तीर्थकरादिकनी हेलना करी, एम समजवुं. ॥ यतः ॥ एगंमि हेलियं मिवि, सवे ते हेलिया मुणेयवा ॥ नालाईल गु गाणं, सवववि तुन जावा ॥ ॥ इति पुष्पमालाप्रकरणे ॥ माटे जे सं घादिकनी खाशातना करे, तेनी पासें समकेत न पामीयें, यने समकेत विना घणय तप जपादिक जे कां करे, ते सर्वमुक्तिना मूलने श्रर्थे न हो
केटला एक नव्य जीव पण साधुने वेशें जैनी क्रियाने बसें करी नवमी ग्रैवेयकें जाय, तो पण ते प्रशंसवा योग्य न थाय ॥ यतः ॥ यैवेयकाप्तिर प्पेवं, नातः श्लाघ्या सुनीतितः ॥ यथान्यायार्जिता संप, दिपाकं विरसा त्वतः ॥ इति श्रीहरिनसूरिकृतयोगबिंदौ ॥ ६९ ॥
वे ने विषे सुंदर दृष्टांत कहे बे:- जंबूद्दीपना पूर्वमहा विदेहें मलि वती नामा देशविषे मणिवती नामा नगरी ते परिणामे पण मणिवतीज
४८
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७८
जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
बे, तिहां सुस्थित नामें शेठ परमसम्यग्दृष्टि बार व्रतधारी श्रावक रहे बे, तेने घेर एक वातागरो विनयादि गुणें करी संयुक्त कामकाज करवाने नि पुण, सुंदर एवे नामें बे, अने परिणामे पण सुंदर बे. ते एकदा पुण्ययोगें साधुनी संगति पामीने सिद्धांतनां रहस्य प्रत्यें सांजलतो हवो, तेथे गुरु नी पासेंथी व्रत लीधुं जे महारे अष्ट प्रकारी पूजा कस्या विना तथा बती जोगवाइयें साधुने वांद्याविना जमवुं नहीं. ते नियम दृढ यास्तायें पा से बे. ते प्रकृतियें अल्पकपाय वालो देवगुरुने विषे क्तिवंत हतो, तेथी अंतें पंचपरमेष्ठीनुं स्मरण करी समाधि मरण पामी तिशिला नगरीयें त्रि विक्रम नामें राजा तेनी सुमंगला राणीनी कुखने विषे पुत्रपणे यावी पनो. राणीयें पूर्णकलशनुं स्वप्न दीठं, ते स्वप्न राजानी यागल कत्युं. राजा यें कह्युं तुमने उत्तम राज्य धुरंधर पुत्र थाशे, ते सांजली राणी हर्ष पामी. नुक्रमें गर्भ वधते थके राणीने दोहोलो उपनो तेथी दुर्बल थवा ला गी. राजायें दुर्बलतानुं कारण पूब्धुं तेवारें राणीयें कयुं के हुं हाथली उ पर बेसुं, अने तमें उत्रधार था, एवी रीतें हुं गामने चोराशी चढूटे फ रुं तथा नद्याननी क्रीडा करूं, याचकने दान खाएं, दीनजननो उद्धार क रुं एवो मुऊने दोहोलो उपनो े, ते हवें हुं शी रीतें तमोने उत्रधारक क रीने दोहोलो पूर्ण करूं ? राजायें ते दोहोलो पूर्ण कस्यो.
"
अनुक्रमें पुत्रजन्म थयो राजायें बंदीवान प्रमुख मूक्या, घणो महो त्सव कस्यो, वली ए पुत्र गर्नमां यावे थके एनी माता घरमाथी निकली उद्याने क्रीडा करवा लागी, तेमाटे एनुं निर्गतमुख एवं नाम दीधुं. अनु *में तेपुत्र बालनाव मूकी चंड्मानी पेठें सर्वकलामां प्रवीण थयो.
एवामां वैशाली नगरीनो राजा वासव नामें बे, तेनी कामकीर्त्ति नामें पुत्री बे, ते निर्गतमुख कुमरना गुण सांजलीने तेनी उपर अनुरक्त य थकी पोताना माता पिताने कहेवा लागी के हुं निर्गतमुख कुमरनी साथें मारुं पाणिग्रहण करीश. अन्य पुरुष सर्व महारे पिता जाता स्थानकें बे. माटें मुऊने तिहां स्वयंवरा मोकलो, ते पुत्रीनुं वचन सांजली माता पिता पण घणी सकाइ सहित ते पुत्रीने तिहां मोकलतां हवां तें पुत्रीयें प
गलकी सांपरायण नामा ब्राह्मणने मोकल्यो, तेणे जर त्रिविक्रम नू पने आशीर्वाद देने कयुं के हे स्वामी ! वैशालिका नगरीनो स्वामी वासव
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसम्यक्त्वसित्तरी.
३७ए नामें राजा तेनी कामकीर्ति नामें पुत्री , ते तहारा पुत्रना गुण सांजली अनुरक्त थइ थकी परणवा यावे , ते वात सांजली त्रिविक्रम राजा हर्ष पाम्यो. पड़ी केटले एक दिवसें कन्या पण आची पिताना कहेवाथकी कुमरें पाणिग्रहण कयुं बेहुने परस्परें चश्मा रोहिणीनी परें प्रीति थ.
हवे रणसिंह नामें सीमाडीयो राजा ने ते त्रिविक्र मराजानी याझा मा नतो नथी घणो उन्मत्त थयो , तेनी नपर त्रिविक्रम राजा कटकल चडे बे, ते वात जाणी कुमरें आवी पिताने कह्यु के पुत्र, सन्नाह पहेरवा यो ग्य बते तमें सन्नाह पहेरो, ते युक्त नहीं. माटे तमें बेठा रहो. हुँ रणसिंह में वश करी आवीश. ते वचनामृत सांजली राजा हर्ष पामीने घेर रह्यो अने कुमरने सैन्यनी साथे मोकव्यो. कुमर तिहां जा प्रजातनो सूर्य जेम अंधकारनो नाश करे,तेम वैरीरूप अंधकारनो नाश करी रणसिंह राजाने वश करी बांधीबाणीने पिताने पगेलगाड्यो, जय पामी जयनिशान वजडाव्युं.
एकदा त्रिविक्रम राजायें पुत्रने राज्ययोग्य जाणी राज्य आपी पोतें गुरु समी दीक्षा लीधी. पाबल श्रीनिर्गतमुख राजा राज्य पाले ने, जेहवो नामें तेहवोज परिणामें पण प्रजापालक थयो. हवे ते राजाने युवराज म दन नामें ले तथा सुमति नामें प्रधान के अने सुवचन नामें दूत ने, ते त्रणे जण अहंकार करवा लाग्या जे अमें जैयें, तो ए राजानुं राज्य चा ले में, अमारा पसायथी राजा सुखें बेसी रहे . अनुक्रमें राजा ते त्रणे नां गर्वित चित्त जाणी तेमनो गर्व उतारवाने अर्थे सेना साथें ला पोतें देश जोवा निकट्यो,ते देशने जोतो जोतो सीमाडीया राजाउने वश करतो करतो अनुक्रमें पालो पोताना देशनी गडासंधियें याव्यो.
तेवारें राजा, मदन युवराजने तथा सुमति प्रधान अने सुवचन दूतने क हेवा लाग्यो जे आपणे चारे जण मली पोत पोताना नाग्यनी परीक्षा करी जोश्य के कहेनां कहेवां नाग्य जे. एम कही बीजा मंत्रीने राज्य नसावी ए केकुं खड्ग हाथमां लश्ने चारे जप खाली हाथें निकल्या, ते चालता चालता कांची नगरीये श्रावी थाका थका तलाव उपर बेग. दातण कीधा पनी राजायें कह्यु बाज नोजननी सामग्री कोण करावशे ? तेवारें सुवचन दूत बोल्यो तमें त्रणे जण इहां बेसो. नोजननी सामयी बाजे ढुं करावीश. एम कही दूत नगरमांहे गयो. एक व्यवहारीयाने हाटें जश् बेतो. हवे ते दिवसे नगरमा
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________ 30 जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. हे महोत्सव , परगामनां लोक घणा व्यापारने अर्थे श्राव्यां बे, दाट उपर ग्राहकोनी नीड , अने व्यवहारीयो दाट उपर एकलोज डे तिहां सुवचने तेने सहाय करी, तेथी ते व्यवहारीयानो व्यापार घणो थयो भने सारो लान थयो, व्यवहारीयो हर्ष पामी हाट बंध करी पोताने घेर जम वा जाय , तेवारें सुवचनने कहे , के हे महापुरुष! उठो महारे घेर ज मवा चालो. तेने सुवचनें कहुं हुं एकलो नथी महारी साथें त्रण जण बीजा दे, ते विना हुँ एकलो जमुं नहीं. तेने शेनें कह्यु तमें जान. ते त्रणे जणने महारे घेर तेडी लावी नोजन करावो, तेवारें सुवचन दूत यावी त्रणे जणने तेडी गयो तेमने व्यवहारीये नली सजाश्ये नोजन कराव्यां, तेमने जोजन करावतां शेठने सवा दाम खरच थयो. बीजे दिवसें रत्नपुर नगरने विषे गया. तिहां पण परिश्रांत थया थका तलावें जश् हाथ पग धो दातणपाणी करी वेठा, निर्गतमुख राजायें कह्यु हे युवराज! बाज नोजन करवानो तहारो वारो ,माटे नोजन कराव. ते सां जली युवराज नगरमांहे आव्यो तेने रूपें करी मन्मथ जेहवो हतोमाटे तिहां एक पुरुषषिणी मगधा नामें वेश्या ,तेणे दीठो. तेथी ते कामातुर थ. तेवारें बेटीनो अनुराग जाणी अक्कायें दासी मोकली, तेने तेडावी लीधो ते पण मगधा वेश्यानुं रूप देखी हर्ष पाम्यो. परस्परें द्यूतक्रीडा करवा ला ग्या, एम करतां नोजन वेला थइ, तेवारें वेश्यायें कर्तुं स्वामी उठो नोज न करीयें ? तेणें कह्यु महारा त्रण मित्र तलावें बेग , तेमना विना हुँ नोजन करूं नहीं. वेश्यायें कडं जात्रणेने तेडी लावो. जोजन पापणे घेर करावो. ते सांगलीत्रणेने तेडी आव्यो. स्नानपूर्वक नलि सजायें नो जन कराव्यां तेने नोजन करावतां पांचशो रौप्यक खरच लाग्यो. त्रीजे दिवसें पंचपुर नामा नगरें गया तिहां पण तेमज परिश्रांत थकां तलावनी पालें पूर्वोक्त सर्व सजा करी बेग. राजायें मंत्रीश्वरने कयुं श्रा ज जोजन कराववाने तमारो वारो डे माडे तमे नगरमां जश्नोजन करावो. मंत्रीश्वर नगरमां याव्यो, अनुक्रमें नगर जोतो जोतो राज्यसनायें गयो, थादर मान महत्त्वसहित राजाने प्रणाम करी बेतो. एवामां तिहां एक ऊगडो आव्यो बे, ते या प्रमाणे .के कोई दूर ग्रामने विषे एक व्यवहा रीयो वसे , तेनी बे स्त्री ने तेमां लघुस्त्रीने पुत्र थयो, तेवारें व्यवहारीये
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. 31 काल कीधो. लघु शोक्यनो पुत्रमहोटी शोक्ये पाल्यो, तेथी ते तेहनोज कहेवा णो परस्पर बेदुने मांदो मांहे प्रेम हतो,माटें लघु शोक्ये कांश मनमां था एयुं नहीं, अनुक्रमें इव्यने अर्थे वढवा लागी. एक बीजाथी जूदी थ तेवा रें महोटी शोक्यें कह्यु पुत्र महारो ,तहारे एनी साथें श्यो संबंध ? ज घु शोक्य कह्यु ए पुत्र महारो रे गामना लोकोने कां पण समजण पडती नथी तेवारे ते बेदु स्त्री वढती वढती राज्यसनायें यावी, राजा बागल पोतपोतानां कुःख रोवा लागी. राजाने पण कांश समजण पडी नहीं. तेवा रें सुमतिप्रधान जे प्रादुणो थइ आव्यो , तेणे कयुं स्वामी मुझने दुकुम आपो,तो हुँ ए विवादनो निवेडो करी बापुं. राजायें कह्यु घणुंज रू९. जुले न्याय करीयापो! राजानो आदेश पामी सुमति प्रधाने कर्तुं तमें बेतु जणी माहोमांहे समजी ल्यो. तो सारी वात ने. नहींतर इव्य अर्यो अई वहेंची व्यो,अने पुत्रना बे कटका करी एकेको कटको वहेंची ल्यो. ते सांन ली महोटी विचाओँ जे पुत्र मरी जाय तो महारे गुंडे, पण इव्य तो थ ई मने मले में, जो पुत्र जीवतो रहीने एनो ठरे, तो ऽव्य बधुं पुत्रने मली जाय अने पुत्र तो महारो नथी, एनोज , एम चिंतवी तेणे हा पाडी. पण लघु स्त्रीय विचाघु जे महारो अंगजात पुत्र जीवतो हो, तो महारे काम श्रावशे, पण पूत्र मूथा पनी हुँ व्यने गु करुं ! पुत्रने जीवतो देखीश तो पण एम जाणीश जे महारो पुत्र . एवं तत्त्व विचारी ते उतावली बोली जे एम ढुं नहीं करीश. जलें ए पुत्र महारी वडी शोक्य लइ जाय, अने इव्य पण एनेज आपो. दुं महारा पुत्रने जीवतो देखीनेज संतोप पामीश, महा रे इव्य खपतुं नथी. महारुं एकलीनुं पेट नरवा माटें हुं लोकोनुं काम का ज करीश! पण पुत्रने मारी नाखवानो न्याय क्यांय पण सांजल्यो नथी. एवी रीतें तेनुं लोही तप्युं देखी प्रधानें कडं पुत्रनी खरेखरी साची माता एजबे,माटें एने पुत्र तथा इव्य थापो अने महोटीने पुत्रनी उपर निःस्ने हीपणुं जोश्तेने खोटी जाणी काढी मूकी. एवी तेनी बुधिदेवी राजा खुशी थयो. अने नोजनादिकें करी चारे जाने संतोष्या, ते राजाने नोजन क रावतां चार हजार इव्यनो खरच थयो. ' हवे चोथे दिवसें हस्तिनागपुरें गया, तिहां राजा पछेडी Jढी महोटा वृदनी नीचें निश्चित जस्तो ,कंघ करवा लाग्यो, ते जोश्त्रण जण हस
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________ 32 जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वा लाग्या के आजे राजा पोतानो वारो जाणीने सूइरह्यो. हवे बाजे या पणे जोजन शीरीतें कर'? तेत्रण जण जेहवामां एवी वात करे नेते हवामां ते हस्तिनागपुरनो अपुत्रीयो राजा मरण पामेलो ,तेवारें मंत्रीश्व र प्रमुखें पंचदिव्य कीधां ,ते पासेंना नगरने विषे जमतां जमतां क्यांहि योग्यपुरुष न पाम्या,तेवारें नगरनी बाहिर निर्गतमुख राजा सूतो ,निश करे ,तिहां ते पंचदिव्य आव्यां,राजा उपर अनिषेक कलश ढोल्यो,हाथीयें गुंढमां लइ तेने पोतानी उपर चडाव्यो! अश्व हेंषारव कस्यो. बत्र चामर विकस्वर थयां,त्रण जणने पूब्यु एनुं नाम गुंडे ? तेणें कह्यु एनुं निर्गतमुख नाम ,तेवारें समस्त लोक बोल्या बापणो निर्गतमुख राजा थयो,एम कही प्रणाम करता हवा. राजा, पंचदिव्यनी साथें तथा त्रण मित्रनी साथें सिं हासनें जश्वेठो, तिहां जयश्री नामें राजपुत्री ,तेनुं पाणिग्रहण कयुं, ते दिवसें नोजन करावतां सवा लाख इव्य बेतुं. ए रीतें राजानुं नाग्य कह्यु. हवे तिहां नवो राजा राजगादीयें बेठो तेने जो अन्यायी लोक आझा न मानता हवा. तेवारें राजायें प्रतिहारोने कह्यु जे अन्याय करे तेनुं निवा रण करजो. ते सांगली प्रतिहार हसवा लाग्या, जे ए राजाथकी राज्य ते केम चालशे? राजायें तेने हसता देखीने नीतीनपर चित्रेला चित्रधरने कह्यु के जे याज्ञा न माने, तेने सारी पेठे शिक्षा प्रापजो. एवं सांजलतांज चित्रधरो उठीने पहेला हास्यकरनारा प्रतिहारो प्रत्ये ताडवा लाग्या, ते आश्चर्य देखी सर्व वैरी जन धावीने राजाने पगें लाग्या, जे माटे मूर्ख ज नने जिहां सुधी ताडना न करीयें, तिहां सुधी पाधरा थाय नहीं. अनुक्र में ते वात सीमाडीया राजायें सांजली तेथी ते पण सर्व आवी वश थया. ए आश्चर्य जोड्ने युवराज, मंत्री, तथा दूत, एत्रण जगनुं मान गली गयु. अने ते जाणवा लाग्या जे ए राजानुं नाग्यज महोटुंबे,एने जाग्ये ज राज्य चाले ने. एमां बाप' कांइ पराक्रम नथी. ___एकदा बे पुरुष आवीने निर्गतमुख राजा प्रत्यें विनवता हवा, के हे स्वामीन् ! श्रीपुरनगरने विषे नरकेशरी नामें राजा राज्य करे , ते समस्त राजाउने तृण समान गणे, तेहनी जयलक्ष्मी नामें पुत्री , ते महारूप वंत जे विधातायें घणा यादरसहित घडी , ते कुमरी एकदा सनामां राजाने तत्संगें बेठी थकी तेने एक निमित्तिये दीठी, राजाये पूब्युं, ए पु
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________ 373 श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. त्रीनां लक्षण कहेवां ले ? निमित्तियायें कह्यु जे पुरुष ए पुत्री- पाणिग्रहण करशे, ते सकलप्टथ्वीनुं पाणिग्रहण करशे? एवो एना लक्षणें करी जाएं बुं. ते सांजली राजायें विचाओँ जे एनुं हुंज पाणिग्रहण करूं जेथकी सम स्त पृथ्वीनो मालक थालं ते पाप वार्ता मंत्रीश्वरें जागी तेवारें राजाने नि वास्यो जे या अकार्य तमें करशो मां. ते सांजली राजायें नृतने कह्यु, ए मंत्रीश्वरने मारो. ए महारी वस्तु , तेने महारं मन मानशे, तेम हुँ करीश, तेमां एने वचमां पाववानुं गुं काम ? हवे ते कन्याने प्रधाने को प्रजन्नघरने विषे बानी राखी, वली ते वातनो नेद कोश्क पुरुषं राजाने कह्यो. तेथी राजा कोधे चड्यो थको प्रधानने मारी नाखवानो उपाय चिंतवे बे,ते जोइअमो बेहु जणने प्रधानें तमारी पासें मोकलीने कहेवराव्यु ,के तमो आवीने ए कन्या- पाणिग्रहण करो. राजाने पापचिंतवणाथी वारो. ते वात सांगली प्रधानने राज्य नलावी हाथमा एक खड्ग लइ ते बे पु रुपने आगल करीने निर्गतमुख राजा, तिहाथी चाल्यो, ते श्रीपुरनगरें या वी पहोतो. तिहां मंत्रीश्वरें तेनी साथें जयलक्ष्मी कन्यानुं पाणिग्रहण क राव्यु. अने श्रीपुरनगरनुं राज्य आपी, तेनी आज्ञा प्रवर्त्तावी. नरकेशरीरा जा शीयालीयानी पेठे बीहीने नासी गयो. ए रीतें निर्गतमुख राजा, पूर्व नवना पुण्यप्रना करी त्रणे राज्यनुं सुख नोगववा लाग्यो. एवामां तिक्षशिला नगरीथी एक दूत आवीने कहेवा लाग्यो के स्वामी! तमारा पितानी नगरी तमारा विना शून्य करी जाणजो. हालमां तमारी न गरीने शूरतेज राजायें वींटी ,ते वात सांजलतांज राजा नृकुटिनीषण थ सैन्य सङ करीने चड्यो,तिहां जातां वार संग्राम करी सूरतेज राजाने आ करे बंधनें बांध्यो. तेने केटलाएक दिवस राखी वश करी आज्ञा मनावी, पोतानो सेवक करी मूक्यो, तेवं पण पोतानी पुत्री यशोमती एवे नामें हती, ते निर्गतमुख राजाने परणावी. राजायें तिक्षशिला नगरी महोटा महोत्सवें प्रवेश कीधो. इहां चार स्त्रीनी साथै विषयसुख जोगवतांत्रण रा ज्य पालतां, दिवस निर्गमन करे ले. जता कालने जाणतो नथी. ___ एकदा राजा विचारे , जे में पूर्वनवें श्या पुण्य कीयां दशे ! के जेना योगें हुँ एटली राजऋदि पाम्यो ? एवामां उद्यानपालें थावी विनव्यो के हे राजें! तहारा नंदनवनने विषे चार ज्ञानना धारक श्रीधर्मघोषसूरि प
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________ 34 जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. धास्या में ते वात सांजली उद्यानपालकने धणुं प्रीतिदान आपी, चार अं तेनर सहित राजा वांदवा माटे गुरुनी पासें याव्यो. तिहां गुरुने वांदी यु क्तस्थानकें बेगे. प्राचार्य धर्मदेशना देवा मांझी // श्लोक // उत्सर्गे परमे ष्ठिमंत्रपठनं देवार्चनं वंदनं, प्रत्याख्यानविधानमागमगिरामश्रांतमाकर्णनं // कालेऽर्हरुसंविनक्तमशनं, न्याये न वित्तार्जनं, शीलावश्यकशीलनैरनुदि नं कार्य शुनाः सेवनं // 1 // एबुं देशनामृत पान करीने हर्षवंत थको रा जा गुरुने पूबतो हवो,के नगवन् ! में पूर्वनवें श्यां पुण्य कीधां ले के जेथकी एवी राज्यसंपदा पाम्यो ? आचार्य कर्तुं तुंपूर्वनवें व्यवहारियाने घेर सुंदर नामें कर्मकर हतो, तिहां साधुने संयोगें धर्म पामीने देव जुहास्या विना तथा गुरुने वांद्या विना हुँ जमुं नहीं एवो तें नियम लीधो. ते गुरू मनथी पाल्यो, ते पुण्यना योगें तिहाथकी काल करीने शहां एवी राज्य संपदा पाम्यो बो. हवे शहाथी काल करी देवतानां सुख पामीश. सातमे नवें मोदसुख पा मीश. एवाथाचार्यना मुखरूप कुंमथकी वचनामृत पान करीने राजा, संतोष पामी समकेत मूल बार व्रत गुरुमुखें उच्चरी वांदी पोताने घेराव्यो. पड़ी देवपूजा, गुरुपूजानां फल देखी विशेषथकी चैत्यनिर्माणादिक ध मकार्य करी श्रीजिनशासननो दीपक थयो. एवी रीतें राज्यसुख जोगवी सातमे नवें मोदें जाशे. ए श्रीदेवगुरु नक्तिने विषे सुंदरनी कथा सांजली ने हे नव्यो! तमें देवगुरुनी नक्ति करजो // इति // हवे शास्त्रनुं तत्त्वजूत वाक्य कहे :॥श्य नाविकण तत्तं, गुरुवाणाराहणे कुणह जत्तं // जेण सिवसुरक बीयं, दसरासुद्धी धुवं जहद // 7 // अर्थः-(श्य के०) ए पूर्वोक्त प्रका रें कडं जे (तत्तं के० ) तत्त्व श्रीजिनधर्मनुं सारनृत सम्यक्त्व तेने (जा विकण के०) जावें करी चिंतवीने तेनी वासना राखीने (गुरुयाणाराह णे के) श्रीगुरुनी आज्ञा याराधनने विषे (कुणहजत्तं के० ) यत्नने क रो. हे नव्यो ! एहवं संबोधनपद बाहित्थकी लेवू. गुरु बाझा बाराधनने विषे यत्न करो. एवं कडं ते शा माटे ? तो के जेमाटे देवतुं आराधन जे करवू, ते पण हमणां गुरुने बायत , कारण के देवतत्त्व जे , ते पण गुरुना कह्याथी जापीयें .यें. एरीतें देवतत्त्व अने धर्मतत्त्व एबे गुरुने वायत्त थयां, ए बेनुं स्वरूप जो गुरु समजावे,तो समजीयें,तेमाटे जेणें गु
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्रीसम्यक्त्वसित्तरी. ३न्य 6 प्ररूपक सुविहित नट्टारक श्रीविजयदेवसूरि प्रमुखनी आज्ञानुं आराधन कीy,तेणें देवनी आझार्नु पण आराधन की,तेथी “गुरुयाराहणेकुणह जत्तं” ए पद कह्यं // यतः // महागरा बायरिया महेसि, समाहि कामे सुयसीलबुधिए // संपानि कामेषुत्तराई, आराहतोसहधम्मकामी // 1 // ___ (जेण के०) जेणे गुरु थाझा आराधन यत्ने करी कीर्छ तेणे (शिवसुखबी यं के०) शिवसुख जे मोद सुख तेनुं बीज एटले कारणनूत एहवी (दसण सुकी के०) समकेतदर्शननी शुदि जे निर्मलता ते प्रत्ये (धुवंलहह के०) निश्चे पामी. अने जेवारें जीवने समकेतशुदि आवी तेवारे ते जीवने अ वश्य मोक्षसुख प्राव्यु. केम के जे जीवने दायिक समकेत आव्युं ते जी व उत्कृष्टा चार नव, संसारने विषे करे // यतः॥ तश्य चउने तेमिउ, न वम्मि सियंति सणेखीणे // जं देवनिरय संखाचरम देहेसु ते टुंति // 1 // दर्शनशुद्धि पण तेवारेंज कहीयें, के जेवारें जीव दायिक समकेत पामे. शहां शिव एवं पद प्राणवे करी ग्रंथकारें ग्रंथने विपे अंतने पावें मंगलाच रण कीधुं // यतः // मंगलादीनि मंगलमध्यानि मंगलावसाना निशास्त्राणि विपामुपादेयानि निःश्रेयससाधकानिनवंतीति // 70 // ॥इति श्रीतपागहालंकार सार जट्टारक श्रीहरि विजयसूरीश्वर पट्टालंका र हार सार नट्टारक श्री 5 श्रीविजयसेनसूरीश्वर पट्टप्रनाकर नहारक श्री 5 श्रीविजयदेवसूरीश्वर विजयमानराज्ये महोपाध्याय श्रीसकलचंगणि शिष्योपाध्याय श्रीशांतिचंगणि शिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिनिः श्री सम्यक्त्वरत्नाधिष्ठानश्रीसुरतबंदरादिचतुःसंघस्याष्टम्यादिपर्वसु श्रीसम्यक्त्व सप्ततिका प्रकरणबालावबोधे सम्यक्त्वस्थान पट्स्वरूपनिरूपणोनामा aa दशोधिकारः समाप्तः // 12 // // प्रशस्तिश्लोकाः // श्रीवीरपट्टांबुज नास्करानः, श्रीमत्सुधर्मागणनृद्दनूव // अद्यापि वाणी प्रसरीसरीति, यस्य प्रनोः पंमितवक्रवासा // 1 // बनूव तत्पट्ट परंपरायां, सूरिर्जगचं इति प्रसिदः // लेने तपोगन इति प्रसिदि, यस्माकुणोयं प्रथि तावदातः // 2 // परंपरायामपितस्य जातः, साधुक्रियामार्गविकासनास्वा न // आनंदपूर्वो विमलाग्रसूरि, जगजनानंदकरः प्रसिदः॥३॥ तस्यापि
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________ 36 जैनकथा रत्नकोप नाग बीजो. पट्टे विजयायदानः,सरिर्बनून प्रबलप्रतापः // राशिर्गुणानां किल यस्यवारां, राशेः समानीकुरुते कवींइः // 4 // बनूव सूरिः किल तस्य पट्टे, श्रीहीरपूर्वो विजयोर्जितश्रीः॥ लेने प्रतिष्ठां किलनूयसी यो,नरेंइलमीकतामजलं // 5 // तस्यापि पट्टेऽजनि सूरिराजः, सेनोत्तरश्रीविजयोयशस्वी // ततार जैनागम वारिराशि, नावः स्वबुध्योत्तमनाग्यनाग्यः // 6 // विजयते किल तत्पदसे वया, सुलन रिपदं प्रणयी गुणः // विजयदेवगुरुर्गरिमांबुधि, स्तपगणे ग गने किमु चश्माः // 7 // श्रीधानंद विमलगुरुशिष्याः, श्रीसहजकुशलनामा नः // लुंपाकमतमपास्य, गजमलमिव निर्मलाजाताः // 7 // तेषां च शिष्य मुख्याछाचकवरसकलचंझनामानः // चंशश्व वचनसुधां, वतृषुर्य विबुधव रपेयां // // श्रीशांतिचंशवरवाचकेंश, स्तेषां च शिष्या बहुशिष्यमुख्याः // बनवुरुदामगुणैरुपेताः, प्रनावकाः श्रीजिनशासनस्य // 10 // श्रीमऊंबुही प,प्राप्त निविरचनाचतुराः // येषां बुद्धिं सुरगुरु,रपीह ते विश्वगेयगुनयश , सां // 11 // गीतार्थाः // तेषां गुरूणां गुणसागराणां, प्रसादलेरां समवा प्य चके // अनेकशास्त्रार्थ विचारसारः, परोपकाचकरत्नचंः // 12 // सम्य क्त्वसप्तत्यमलप्रबोध, बालावबोधं पटुनिः सुबोधं // सम्यक्तत्वरत्नप्रवरप्रका श,नामानमेनं, समयानुसारात् // 13 // युग्मं // रस मुनि रस शशिवर्षे, (1676) पौषे शुक्त त्रयोदशी दिवसे // सूरतबंदरमुरख्ये,परमार्हत्संघरमणीये // 14 // इति रत्नचंझनामा चकार बालावबोधमतिसुगमम् // सम्यक्तत्वस प्ततिवर, प्रकरणतत्त्वार्थबोधकरं // 15 // सूर्याचंश्मसी यावत्, यावत्स तधराधराः // यावत्तपागणस्ताव दिदं जयतु पुस्तकं // 16 // इति महोपा ध्याय श्रीशांतिचंगणि शिष्योपाध्याय श्रीरत्नचंगणिविरचित सम्यक्त्व स ततिकाबालावबोधग्रंथः समाप्तः // श्रीरस्तु शुनंनवतु // PathaAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAntan ( 9 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 (1 1 1 1 1 1 1 1 - ANDooGajraGokGRICypiciolo DoGJIGDIGIGRApkcoloose इति श्री दर्शनसित्तरी ग्रंथ समाप्त तत्समाप्तोयं - - जैनकथा रत्नकोषस्य तृतीय नाग समाप्त॥ M oyouyanyooosyorycycayaGycycocuredyomyocmcayaaycycyemoiyonica
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
_