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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. में नहिं दीठ ॥ अधिकुं अमृत पानथी, तुफ दर्शन अम मीठ ॥ ज० ॥ १७ ॥ श्रीजिनराज मया करी,ए कति आश्रे तोहि ॥ वीरविबुध शिर से हरो, दिन दिन अधिकी रे सोह ॥ज॥१॥ इणि परें सुरनर किन्नरें,गुण गाया धर्म टेक ॥ धर्ममंदिर धन ते सही, सेवे वीर विवेक ॥ ज० ॥२०॥
॥दोहा ॥ ॥ जयत दूर जाणी करी, हरखी वीरनी मात ॥ पुत्र समीपें आइने, आखें मधुरी वात ॥ १ ॥ चिरंजीव जीवन जगत, तीन नुवन विख्यात ॥ सुत संगम शीतल इस्यो, चंदन चन्द्र कहात ॥२॥ साची धारा दूधनी, तें धावी छे मुत ॥ स्वन्न वत्स तुं हवे थयो,शोन वधी बदु तुऊ ॥३॥ चि त मनोरथ माहरा, जव्य जीव किध एह ॥ सिद्धि प्रतें पाम्या सही, एक पम सस्नेह ॥४॥ सिंह समा ढुं तुऊ सुतें, गंजि शके कुण मोह ॥ बीजा नी मा बापडी, कुण जणशे सम तोह ॥ ५ ॥ अविचल ऋदि होजो स दा, धर्म नीति आधार ॥ निज कुलदीपायो खरो, सकल जीव सुखकार ॥६॥ एह वचन निवृत्तिनां, सुणियां वीर विवेक ॥ मध्यनाव नावी र ह्यो, निजगुण निर्मल टेक ॥ ७ ॥रण खेतर रह्यो मोहनो, सघलोई परि वार ॥ एक तात मन तिहां किणे, जीवतो दीत तिवार ॥ ७ ॥
॥ ढाल तेरमी ॥ ॥ पियु चले परदेश, सबे गुण ले चले ॥ ए देशी ॥ तिण वेलां त्यां वीर विवेकें तातने, निरख्यो परख्यो दीण खरो तसु गातने ॥ नांहि वि लेपन कर्म तणो नहिं अति घणो, अति नहिं चंचल अंचल कपम कि म जपो ॥ १ ॥ मूके बदु निःश्वास आश मन संनरे, मोहयुं सबलो स्नेह मेह यांसू करे ॥ आथमियो मोह सूर निशि सहू को कहे, सिंह गयो जिम हरिण वनमां ावी रहे॥ ॥ राज काज सुख साज सदु मुफ हाथथो, रागादिक परिवार प्रवर्तनो नाथ थो॥ है है दोषी देव तें ए वडो झुं कियो, चिन्तामणि मोहराय ननासीने दीयो ॥ ३ ॥ नक्ति यु गति नरपूर नली परें मुफ हती,हवे कुण करशे सेव देव मन नावती ॥ विरह विलाप संताप तातने जाणीने, आयो राय विवेक नेक मन या एीने ॥ ४ ॥ वीर कहे सुण वात तात हवे माहरी, ए मास्यो जे मोह सोह सवि ताहरी ॥ तीन वन फुःखदाय राय मोह ए हतो, पाप ताप