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श्री मोदविवेकनो रास.
बहु व्याप कला गुरु ए उतो ॥ ५ ॥ जीव हणाय बलाय वहे जूतो सदा, पर धन हरण परदार सेवे बे ए मुदा ॥ मित्रशुं ोह विछोह करी धन मे लवे, निशिदिन मदिरा पान खान बाक्यो लवे ॥ ६ ॥ जीव जणी ए नर क निगोद लइ फेरवे, नूख तृषा तप शीत रीत पण जेरवे ॥ याधि व्याधि बहु साथ अगाध समुबे, ज्ञान ध्यान बुध पान जणी मुनि कुड् वे ॥ ७ ॥ कर stra कपूत कुकर्मणो धणी, एहना बहु अपराध सह्या में अवगणी ॥ धिक् धिक् तुने प्रेम जे मोह वधारियो, शान्ति प्रकृति मुक जाए तिहांथी वा रियो ॥ ८ ॥ निवृत्ति ताहरी नारी सारी पुत्र हूं बतो, वे मुफ घरमें श्रा are कर तुं मतो || लोक कथीरतणी भूषा तु तनु हती, हेमतणी हित सोह तोहि दूखही रही || || देवनिरंजन घ्यायो खायो मुफ गेहमें, यान पंपाल विचार विकारे कारमे ॥ लोक कहेशे वाह वाह मंत्री तो नली, नक्तिनाव भरपूर करश्यां तुम ती ॥ १० ॥ एह वचन सुखी मंत्री वि चारे मन करी, वीर विवेक विचार कहे बे हित धरी ॥ पण माही सुख वात धात मोहनुं मिलें, विरगुं नवली प्रीत रीत कहो किम जिले ॥ ११ ॥ एहनी माता ज्ञाता मुज्थी नवि नही, ते दुःख दियामांही नाहिं कहो किम सही ॥ पुत्रवधूने हाथ साथ जीमण हूशे, यांगुलियानीशान तान मन ने कशे ॥ १२ ॥ नववैराग्य प्रमुख एकदेशे मो नली, तात तो नहीं बाप साप ए घरी ॥ पुत्रतणे बहु मान न कोई विचरशे, तो पण नय गां शान वान उतारशे ॥ १३ ॥ रत्नराय मन जंग मिले कहो किलि परें, शीलनी कोपाय वास नेलो वसे ॥ साप शीशें धार कहो कुण नर र हे, ए कपम अवधार विचार मंत्री कहे ॥ १४ मोह दशा विपरीत जी तनविसरी, तो क्युं रहियें नेह गेह किए धरी ॥ मनमेनुं परि वार सार वि रस नहिं, तोशुं ए घर वास दास परनारही ॥ १५ ॥ ॥ दोहा ॥
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॥ इम थालोची मंत्रवी, दीरघदर्शी एह ॥ वीर विवेक जणी कहे, सु सुपूत सस्नेह ॥ १ ॥ तुऊ वाणी हितकारिण, मीठी अमृत धार ॥ पण परचित्त चिर कालनो, मोह दूतो मनोहार ॥ २ ॥ एह गये थइ ना रहे, मन मंत्री निर्धार ॥ इागुं वाचा में करी, हुं यारी बुं जार ॥ ३ ॥ बोल कोल किम पलटियें, उत्तम ए प्रचार ॥ ते संबल सखरो दियो, हित शे
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