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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ ढाल चोथी ॥ ॥ धरा ढोला एना गीतनी देशी ॥ण अवसर हवे एकदा रे, रूठी माया नारी॥मनना मान्या॥ प्रीतमझुं कलहो करे रे, मानवती निर्धार ॥ मनना मान्या ॥ कयुं कीजें हो सुजाण कयुं कीजें, नीच मायागुं मोहिनी उतार ॥ मनना मान्या ॥ १ ॥ ए आंकणी॥ सुबुदि कहे कर जोडिने रे, सांजल तुं जरतार ॥ म ॥ एह दशा तुमची नहीं रें, आपो आप विचार ॥ म० ॥ कयुं ॥२॥ पंमित तुं जग परगडो रे, नीचर्यु संग निवार ॥ म० ॥ हुँ नारी तुमने कहुँ रे, तेह नहिं व्यवहार ॥ म० ॥ ॥ कयुं ॥३॥ व्यसन वगोवे वाहला रे, उत्तमने पण एह ॥ म ॥ मुख मीठा धीठा जिके रे, अंत दिखावे ह ॥म० ॥ क० ॥ ४ ॥ नोला तो नूले सदा रे, एह अनादिनी रीत ॥म ॥ पंमितही जो पांतरे रे, क्युं रहेशे गुन नीत ॥म ॥ कह्यं ॥ ५॥ तुं उत्तम शिरसेहरो रे, नेहडो पर्यु निवार ॥ म० ॥ नीच कीचमां इहां रहे रे, निज पदने सं नार ॥ म० ॥ कयुं ॥ ६ ॥ घरणी परणीजे तजे रे, दत ऊपर ए खार ॥म० ॥ प्रीतम पल्लव जालीने रे, वीन, वारंवार ॥ म० ॥ कयुं ॥ ७॥ चातुर पण आतुर सदा रे, कर्म उदय वश होय ॥ म०॥ पण कबही पा बी लिये रे, आप विचारी जोय ॥ म० ॥ कयुं० ॥७॥ तें शिर चाढी एहने रे, घरधणियाणी कीध॥ म०॥ चारवाकमती हशे रे, घरनो नेद ण दीध ॥ म० ॥ कयुं०॥ ॥ पोषी पण षी न रे, शोषी नहि एलगार ॥म ॥ दूध तुजंगी पायें रे, वाध्यो विषनो नार ॥म ॥कह्यु॥१०॥ मधुबिन्छ सम सुख देइने रे, दे कुःख मेरुसमान ॥मा हत करे शत नावें चढी रे, वाध्यु अति अनिमान ॥ म० ॥ कह्यु०॥ ११॥ विषवेली व्याली कीg रे, काजी पावक जाल म॥ ए पातकथी नविटले रे, पाप सरो वर पाल ॥ म० ॥ कयुं ॥ १२॥ पापीथी पावक कीधो रे, अमृतथी विष थाय ॥म० ॥ अंगारा वरसे चन्थी रे, रविथी तम प्रगटाय ॥ म० ॥ कयुं०॥१३॥ धूल उडे सागरथकी रे, पथ्यथकी थाय रोग ॥म ॥ वर स्वरूपी तो नए रे, एह कर्मनो योग ॥म ॥ कयुं॥१४॥ पाप क्रिया जे ए करे रे, तसु नोक्ता तुं थाय ॥ म० ॥ रागवशे जाणे नहिं रे, ए कामण कहेवाय ॥ म ॥ कयु०॥१५॥ एहनो शील शत एहवो रे,ज्यु