________________
१०३ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. समकित लीधो,बेतु मोहतणो दय कीधो॥ वेदनी जातां अनंत सुख सारा, अनंत वीर्य ह्या विघ्न निवारा ॥ ४॥ अदय स्थिति दूइ आयु खपाया, दायिक पारिणामिक तसु नाया ॥ नाम कर्म गया ते अशरीरी,गोत्र गया अवगाहन धीरी ॥ ५ ॥ गर्न प्रसवनी वेद न गंही, वेदनी कर्मतणो बल नांहि ॥ विषय कषायतणा नय नावे, योग वियोगनो दुःख न पावे ॥६॥ लेवा देवा न करे सेवा, धन वन मनरी ममता न धरेवा ॥ जल थल जावं आवू जोरा, तिहांकिणे केहनो न चले तोरा ॥ ७ ॥ मंस मसक दुइ जी वनी पीडा, माखी नमरी कीडी तीडा ॥ वींनु शाप विरोधी जीवा, नाहीं अंधारो नांही दीवा ॥ ७ ॥ साते नयनी का नहिं नीति, रितुपालटणरी का नहीं रीति ॥ मंत्र यंत्र को जाणां जोशी, नहीं को गायां सां घोसी ॥॥ राजा रंक न कोइ लोका, आधि व्याधि नहिं कोई शोका ॥ माकिनी शाकीनी व्यंतर दोषा,आशा पाशा नहीं को शोषा ॥१०॥ अशन वसन नहीं रमणी रंगा, हास विलास तणी नहीं संगा॥ खाट पाट नहीं पोढी सेजा, रुसे तूसे नहीं को हेजा ॥११॥ नूख तृषा तप शीत न बाधा,कोइ न बोला घाट न वाधा ॥ मंदिर महिल न कोई विमाना, कोई न करे आदर माना ॥१॥ तप जप किरिया शील न पाले. दान दया वलीकोन निहाले ॥ ध्यान नहिं को धर्मनी चर्चा, देवतणी नहिं सेवा अर्चा ॥ १३ ॥ पाप ने पुण्यतणा नहिं बंधा, आश्रव संवरनो नहिं संधा॥ गुणताणा नहिं च ढण उतारा, ए साधकता नहिंय लगारा ॥११॥ बेदन नेदन नहिं को खेदा, शोषण तोषण वर्णन वेदा ॥ शब्द रूप रस फरस न गंधा, स्थिति गति सुख दुःख गही प्रतिबंधा ॥ १५॥ ऊपम दीजें एहनी जीकाइ, ते ज गमाहे वस्तु न कां॥ ज्योति रूप तणे अनुसारें, पंमित नर मनमें अव धारे ॥ १६॥ सुरपति नरपतिनां सुख जेतां, सघलां नेलां कीजें तेतां ॥ तेहथकी अनंत कहीजें, संपूरण सुख ते नवि बीजे ॥ १७ ॥ केवल झा नी शिव सुख देखे, कही न शके ते सुख सुविशेषे ॥ इन्झ्यिनां सुख ते दुः ख लेखे, संसारी मीठां करि देखे ॥ १७॥ स्थिर पद स्थानक इणि परें पा यो, नविजन सुणतां सुख सवायो॥ धर्ममंदिर कहे धन धन तेहा, ए पद पामे पूरण जेहा ॥१॥