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श्री सम्यक्त्वसित्तरी.
१६७ बाहुनो जीव चवी जरतचक्रवर्ती थयो. तथा सुबाहुनो जीव चवी बाहुब जी थयो. तथा पीठनो जीव चवी नरतचक्रवर्तीनी सुंदरी नामें जगिनी थ २. तथा महापीठनो जीव बाहुबलीनी नगिनी थइ. ईर्ष्या करया माटे मा यातपना प्रजावें स्त्रीवेद पाम्या ॥
नरतनो जीव, पांचों साधुनी नक्ति करवाथी चक्रवर्त्तीनी पदवी पा म्यो. ने या अवसर्पिणीमां प्रसादप्रतिष्ठा बिंबप्रतिष्ठाने विषे तथा संघ atri तिलकने विषे यादि करी ने बाहुबल पांचों साधुनुं वेयावच्च कर वाथी अतुल पराक्रमी थयो. संग्राम करतां जरतचक्रवर्तीने पण हरायो, अने तेणें वैराग्य पामी दीक्षा लोधी. तेमज ब्राह्मीयें पण श्री रूपनदेव पासेंथी दीक्षा लीधी ने सुंदरी दीक्षा लेती हती. तेने चरतचक्रवर्त्तीयें रू पसुंदर जाणी स्त्रीरत्न करवा माटें दीक्षा लेवा न दीधी पण नरतदिग्वि जय करवा गया पठी सुंदरीयें श्रीकृषनदेवने पूब्युं जे, स्त्रीरत्न मरीने क्यां जाय ? भगवानें कह्युं के, बही नरकें जाय ते सांगली खेद पामी थकी साठ हजार वर्षपर्यंत बिल तप कस्युं तेथी शरीर दुर्बल थइ गयुं, नरत याव्यापी दुर्बलतानुं कारण कुटुंबीयांना मुखथी सांजली सुंदरीने दीक्षा जेवानी वा जाणी याज्ञा यापी, पोतें वैताढ्यथी स्त्रीरत्न लाव्या. अनु क्रमें पांचे जीव मोछें पहोता माटे वेयावच्चना एवां फल जाणी गुरुनुं वे यावच्च करवुं. ए सम्यक्त्वना त्रण लिंगनो बीजो अधिकार कह्यो.
इति श्रीतपागीय शांतिचंगलिशिष्य रत्नचंग णिविरचित श्री सम्यक्त्व रत्नप्रकाश नामनि श्री सम्यक्त्वसप्ततिकाप्रकरणबालावबोधे सम्यक्त्वलिंगत्र यस्वरूपनिरूपणनामा द्वितीयोऽधिकारः संपूर्णः ॥ २ ॥
हवे दशप्रकारमा विनय करवारूप त्रीजो अधिकार कहीयें ढैयें. ॥ अरिहंत सिद्ध चैश्य, सूएय धम्मेय साहुवग्गेय ॥ श्रायरिय उवद्याए eard दंसणे वि ॥ १७ ॥ अर्थः- एक अरिहंतनो विनय, बीजो सिनो विनय, त्रीजो चैत्यनो विनय, चोथो ( सूएय के० ) द्वादशांगी रूप श्रुतनो विनय, पांचमो धर्मनो विनय बहो ( सादुवग्गेय के० ) सा धुवर्गनो विनय, सातमो श्राचार्यनो विनय, याठमो उपाध्यायनो विनय, rant प्रवचनो विनय ने दशमो ( दंसणे के० ) दर्शन एटले सम्यक् दर्शन तेनो (ard के० ) विनय जाणवो ॥ १७ ॥
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