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श्रीमोदविवेकनो रास. सिम नणी कहे, सावद्य सघलां निवार ॥ वैरागी ॥ ॥ ॥ निश्चे मन अात्मा नावता, शत्रु मित्र समता रे तास ॥ वैरागी ॥ धर्म पवन शीत सबलां जालशे, गिरि ज्युं धीरमवास॥वैरागी ॥ ल॥१०॥ धन घा ती माती वृदावली,दूर करे बल फोर ॥ वैरागी ॥ नावत ध्यान कुठार करें ग्रही, एकाकी थाप जोर ॥ वैरागील ॥११॥ देवता नर तीर्थचे जे किया, सबल परिसह जेह ॥ वैरागी ॥ सहिया वहिया कर्म उदय करी,थ नुलोम प्रतिलोम तेह ॥ वैरागी॥ल॥१॥ बार वरस पद तेर उपर थ कां, लेशे केवल ज्ञान ॥ वैरागी॥ समवसरण करशे सुरपति तदा, जोयण नो तसु मान ॥ वैरागी॥॥ ॥१३॥ कनक सिंहासन यादि देशक री, प्रतिहारज प सार ॥वैरागी ॥ देशना देशे मधुर ध्वनियें करी, नवि जनने उपकार ॥ वैरागी ॥ ल॥१॥ समकित के देशविरत केश, केशले संयम नार ॥ वैरागी ॥ संघ चतुर्विध स्थापना होयशे,धर्म उदय सुखकार ॥वैरागी॥०॥१५॥ एकादश गणधरनी स्थापना, त्रिपदी देरे कीध ॥वैरागी ॥ शिष्य घणा होशे तसु सेहथें, प्रगटी बातम कमि ॥ वैरागी॥ लम्॥१६॥ नगवंत देश विदेशे विचरशे, तारण तरण जहाज ॥वैरागी॥ धर्ममंदिर कहे धन वासर तिको, वांदीजें जिनराज ॥वैरागी ॥ ल॥१७॥
॥दोहा॥ ॥ पद्मनान जिनवर तणो, साधु गुणे शिरदार ॥ काम क्रोध जीत्या जिणे, धर्मरुचि अणगार ॥ १ ॥ किण प्रस्तावें पूबशे, कहो स्वामी मुफ एह ॥ केवल होशे के नहिं, मुफ मन संदेह ॥२॥ जगवन् नांखे सुण ऋषि, सुग्राम नामें ग्राम ॥ तस उपवनमांहे तुफे, केवल पद अनिराम ॥३॥
॥ढाल सातमी॥ ॥ राग धन्याश्री॥नरत नृप नावयुं ए॥एदेशी॥ धर्मरुचि एम सांजली ए, ले जिनवर आदेश, महामुनि सेवियें ए ॥ ए टेक ॥ चाली ते तिहां जायशे ए, तसु वनने परदेश ॥ महा॥१॥ एकादशमी प्रतिमा धरी ए, ध्यान धयां जयलीन ॥ म० ॥ पक श्रेणी कामां करि ए, थावशे गुणगाणे वीण ॥ म०॥२॥ तेरमे केवल पामशे ए, लोकालोक प्रकाश ॥ म ॥ केवल महिमा सुर करे ए, श्राणी अधिक उन्नास ॥म ॥३॥ देवनां ई उनि वाजशे ए, जय जय शब्द सुहाय ॥ म० ॥ ग्रामना लोक सदु या