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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. आज राज आव्यो बजे, रिपु गण वटिका वाज॥२॥ नवि जाणुं आयो कठा, किण प्रेयो किण हेत ॥ इन् की, तुज नेटयो, मूक्यो ए गज सेत ॥३॥ हाथी घणा तुम राजमां, ए सम को नहिं एक ॥ हस्तीशालायें या वियो, आपथी धरि सुविवेक ॥४॥ राजा याव्यो त्यां किणे, सेवकनां सुणी वयण ॥ हस्ती रयण दीठो खरो, यानंद पायो नयण ॥ ५ ॥ उ पयोगें करी निरखियो, नगवंत ज्ञान विशेष ॥ वैताढय वनवासी करी, नागे दवने देख ॥ ६ ॥ बदु गुन लक्षण देखीने, पटहस्ती राय कीध ॥ तसु बेसी फिरशे धरा, विमलवाहन नाम दीध ॥ ७ ॥ पद्मनान देवसेन वली, विमलवाहन प्रण नाम ॥ अर्थ युक्त इणि परें होशे, जोगवशे सु ख काम ॥ ॥ नोग कर्म खपवा जणी, केवल करशे राज ॥ पुण्य पाप विण जोगव्यां, न लहे धर्म जहाज ॥ ए॥
॥ढाल बही॥ ॥ रसियाना गीतनी देशी॥ ललीलली लोकांतिक सुर वीनवे,सुण स्वामी अरदास ॥ सुझानी ॥ राज धरा मूको हवे मूलथी, धर्म तीर्थ परगास ॥ सुझानी ॥ ॥१॥ तुं ज्ञानी तुं ध्यानी ध्यायें, त्यागी सागी रे होय ॥ सुझानी ॥ संगी रंगी तुं कबही नहिं, शिवरूपी शिव जोय ॥ सुझानी ॥ल ॥२॥ तुं दानी तुं मानी दीपतो, वाणी सुणी हवे तेह ॥ सुज्ञानी ॥ दान धर्म दीपायो देश्ने, सोवन धारा रे मेह ॥ सुझानी ॥ ज०॥३॥ वरसी दान ते मेह समान ने, निवृत्ति दुइ जब तास ॥ सुझानी॥ प्रगटी सुरुचि शरद मनमां नली, निर्मल जीवन राश ॥ सुझानी ॥ल० ॥ ४ ॥ पातक पंक पलाया तिण समे, हरख्यां हंसनां वृंद ॥ सुझानी॥ सरस दु यां फल सघलां बीजा, विकस्यां नवि अरविंद ॥ सुझानी ॥ ज० ॥५॥ मुगता मारग दुथा मनहरु, साधु जणी सुख थाय ॥ सुझानी ॥ संयम से वा उद्यम तव करे, पितृ परलोकें रे जाय ॥ सुज्ञानी ॥ ल० ॥ ६ ॥ त्रीश वर्ष पण होशे तिण समे, पुत्रने देशे रे राज ॥ सुझानी ॥ दीक्षा उत्सव करशे देवता, सघला मली सुरराज ॥ सुझानी ॥ ल० ॥ ७ ॥ शिबिका बेसी सुरनर सुंदरां, नव नव नाटक साज ॥ वैरागी॥ जय जय धन धन शब्द सदुजणे, साधो श्रातम काज ॥ वैरागी ॥ ॥७॥ उपवन था वी शिबिकाथी उतरी, बाजरण सकल उतार ॥ वैरागी ॥ नमो नमो श्री