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२०४ जैनकथा रत्नकोष नागत्रीजो. के हो नरियुं जरपूर के ।। हं० ॥ परम पवित्र प्रधान ए, अघनंजन दो रं जन बहु नूर के ॥ हं० ॥ १३ ॥ महिमा ब्रह्म विलासनी, कही न शके हो सुरगुरु पण एह के ॥ हं० ॥ धर्ममंदिर कहे वंदणा, कर जोडी हो धरि धर्म सनेह के ॥ हं० ॥ १४ ॥
॥दोहा॥ ॥ मंगल कारण ए सही, मांगलीक मुखरूप ॥ ज्ञेय ध्येय करी धवल पद, आतम बाप स्वरूप ॥ १ ॥ परम देव पण ए सही, तारण तरण सु एह ॥ परम समाधि स्वरूप ए, झानरतन गुणगेह ॥॥ ब्रह्मरसायण संग थी, हेम कुधातु विकार ॥ तिम ए अंतर यातमा, परमातमता सार ॥ ३ ॥ त्यां लगि मीठा अवर रस, ज्यां लग ए नव दीठ ॥ ज्यां अमृत चा रव्युं नहिं, त्यां जल स्वादो मीठ ॥४॥ खट् दर्शन नदीयां समां, निज निज नय विस्तार ॥ सघला नय समवायधर, जिन मत सागर सार ॥ ५॥ स्याहाद मति अनुसरे, ते पामे ब्रह्मरूप ॥ एह विना सघलां गणो, नव संसार स्वरूप ॥ ६ ॥ उद्यम संसारी सकल, सफल निष्फल पण हो य ॥ ए अमोघ फल व्यो सदा, इहां संदेह न कोय ॥ ७ ॥ ज्ञानी ज्ञानें रा चशे,अज्ञानी अज्ञान ॥ ज्ञानतणा गुण सेवतां,झान ध्यान बहु वान ॥७॥
॥ढाल गणीशमी॥ ॥ इणिपरें नाव नक्ति मन थाणी ॥ ए देशी ॥ धन धन धर्मरुचि श्रीशषिराया, यात्म धर्म बताया जी ॥ ग्रामिणी प्रमुख नविक जन ता ख्या, पातम काम समास्या जी॥ध ॥ ए आंकणी॥१॥ आतम सुर तरु कामित दाता, काम धेनु विख्याता जी ॥ रत्न चिंतामणि कामित कुंना,
आत्म महिमा अचंना जी॥ध० ॥ २ ॥ परमातम सेवो नवि प्राणी, ए शिवपद सहि नाणी जी ॥ रसना पामी सफली गणियें, जो जिनधर्म गुण थुपीयें जी ॥ध० ॥३॥ पुण्य पाप बेदुए जवासी, इणथी होय उदासी जी॥ प्रातम केलं रूप निहालो, विषयथकी मन वालो जी॥ध०॥४॥ निजगुण परगुण बेतू जूके, अंतर गति तसु सूफे जी॥ बाहिज तप जप बहुलां साधे, विरला झान आराधे जी ॥ ध० ॥ ५॥ देश विराधक ज्ञानी होवे, जो प्रमादने सेवे जी ॥ अज्ञानी किरिया गुण नरियो, देशे आराधक वरियो जी ॥ध० ॥ ६ ॥ आराधक ज्ञानी आगममें, साचो शुद्ध शम दम