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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥दोहा॥ ॥ सेवक वाणी सांजली, हरख्यो राय विवेक ॥ मनवंबित मुफ होय शे, शकुन दुषां अतिरेक ॥ १ ॥ थान वचन साहमो दुवे, उत्तम शकुन ते जाण ॥ बोलाव्या पुरुषोत्तमें, केही कीजें काण ॥२॥ विवेकराय हवे चालिने, प्रवचनपुरमें आय ॥ मंत्री पण पूथकी, प्रजा लोक सजाय ॥३॥ सकल लोक राजा मली, अरिहंतनी बत्र बाय ॥ सुख समाबें जई रह्या, मर जय कोय न थाय ॥ ४ ॥
॥ ढाल बारमी ॥ ॥ इक दिन नमि राजानो हाथी तूट्यो, अति मदमत्तथको ॥ ए देशी ॥ मयण तणां दल पूरी शूरां, पुण्यरंगपाटण आय रहे। हां याय रहे ॥ शूनुं नगर ते दीतुं सघर्तु, मयण नणी ते जाय कहे ॥ हां ॥१॥ मय ण कुंवर मन चिन्तवे एवं, राय विवेक ते नासी गयो ॥ हां० ॥ नाम सु एणीने न रह्यो मनो, जंबुक कायरकाय थयो ॥हां०॥॥ कुलाचार प एग न कस्यो कोइ, दत्रीतणो धर्म नाख दियो ॥ हां० ॥ मंत्रीतणो सुत बाखर एहज, राजा एहने कोण कियो ॥ हां०॥ ३ ॥ जाति उपर गयो न दु असली, जींत विना केम चित्र धरे ॥ हां० ॥ नासण विद्या धुरथी शीखी, ते नहिं विसरी चित्त खरे ॥ हां० ॥ ४ ॥ रणनी होंश रही मनमां है, इण अवसर शठ ए नाठो ॥ हांग ॥ लोक लाज पण न गणी नोले, काम कियो अतिही माठो ॥ हां ॥५॥ जिनवरनो पण जगतो युगतो, निर्मद निर्मम न्याय थियो ॥ हां।। जे जेहवो नर सेवे तेहवो, फल पण हाथोहाथ दीयो ॥ हां ॥ ६ ॥ जिनवर संगतिथी सिंहादिक, ते पण वैर विरोध तजे ॥ हां ॥ कां चुरकी ए घाले माथे, शीतल सार समाधि नजे ॥ हां ॥ ७ ॥ अरिहंत चरण शरण इणे लीधो, कालूं हमणां पुड ग्रही ॥ हां ॥ उंदर क्युं बिलमांहे लूटे, जो जब जावे साप वही ॥ हां ॥॥ पण मुक ताततणी ए वाचा, प्रवचन पुर मत जाय कदा ॥ हां ।। माह री कीरति सघले दूर, जयतपताका पाइ मुदा ॥हा॥॥ जयततणां नि शान घुरायां, हथियार हवे सब म्यान करे ॥ हां०॥ नवनवां नेटणां ले तो मन्मथ, निजपुर दिशिने पाउ धरे ॥ हांग॥१०॥ नव रसमां क सार शृंगारा, काम अयाणे मुख कीयो ॥ हां० ॥ शान्त जणी ते नेहडे थाप्यो,