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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. ॥ ६३ ॥ शैलन सम पेहेलो माणं, अस्थिर्थन सम बीजो जाण ॥त्रीजो काठ सरिखो धीत, चोथो नेत्रलता जिम ईव ॥ ६ ॥ मोहरायना ए पोत रा, सोले नीच जिस्या कूतरा ॥ समकित देशविरति चारित्र, वीतराग पद वीना सत्र ॥ ६५ ॥ फोजदार मोहरायनो, कोइ न कले जेनो मायनो ॥ मदनराय महोटो मूगल, जिणे जीत्या सुर नर नूपाल ॥६६॥ राखे पंच कुसुमनां बाण, कंपावे तिथणनां प्राण ॥ योध जुवान वडो जग जेठ, दानव देव करावे वेठ ॥ ६७ ॥ रति प्रिती धरणी दोइ तास, जे सा थें अविहड घरवास ॥ खटकतु सेवे जेना पाय, विधु वसंत सुरिजन सुख दाय ॥ ६ ॥ ब्रह्मा निज पुत्रीगुं रम्यो, इंऽ अहव्या चरणे नम्यो ॥ कृष्ण थया गोपीना दास, ए सवि मन्मथ तणा विलास ॥ ६ए ॥ त्रिनुवन नूप धरे त्रण रूप,पुरुष नपुंसक नारि अनूप ॥ त्रिहूं रूपें त्रण जगने दमे,ए व श लोक घणां मुख खमे ॥७॥ अरति हास्य जय शोक अगंड, रति बए सुनट मरोडे मूड ॥ इणिपरें कामतणो परिवार, करे रणांगण रिपुसंहार ॥ ॥७१॥ राग कुंवरनी सबल जगीश,विषयानिलाष वडो मंत्रीश ॥ पांचे इंडि य जास आधीन, सवि जग जीव कया जिणे दीन ॥ ७२ ॥ कृष्ण नील कापोती लेश, त्रए साहेली नवनव वेश ॥ संख्या रहित अगुन पारणाम, सबल शिपाइ करे संग्राम ॥ ७३ ॥ हास्यतणी नारी तुडता,नय जायों ही ण सत्त्वता ॥ नव आस्था के घरणी शोक, ए त्रिहुँ निर्लज कीघां लोक ॥ ७ ॥ हरख विषाद वडा जूकार, मोहरायना चामरधार ॥ वलि धनगर्व धरे शिर बत्र, मुखरनाव दे बीडीपत्र ॥ ७५ ॥ विकथा वात सुणा वे घणी, चारे चतुरा चिहुँदिशि तणी ॥ अविरति रांधण रांधे अन्न, निज्ञ पोलण करे जतन ॥ ७६ ॥ परनिंदा चमालिणी नार, सदा बुहारे नव दर बार ॥ खासां साते व्यसन खवास, मोहरायने सोहे पास ॥ ७७ ॥प्रौढा पापस्थान अढार, अटल उमराव वडा जूकार ॥ इणिपरें सुनट तणी बदु कोड, सेवे मोहनृपति कर जोड ॥ ७० ॥ इणिपरें अल्प कह्यो अधिकार, मोहनरेश्वरनो विस्तार ॥ हवे वर्णवं धर्मनरिंद, राज करे जग सुरतरु कंद ॥ ७॥ सात्त्विक मानस नामें नगर,अति सुवास जिम महके अगर ॥ ज्यां दानादिक गुणनो वास, ज्यां सहजें गुनमति अन्यास ॥ ७० ॥ गिरिविवे क सोहे तस पास, अति उत्तंग जिस्यो कैलास ॥ ज्यां चढतां लहियें निर