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श्रीमोहविवेकनो रास.
॥ ढाल त्रीजी॥ ॥ मेघ मन कां मम मोले ॥ ए देशी ॥ राग शेष वली अति घणा जी, बांध्या वड विस्तार ।। विषयतणी तृप्मा वधी जी, विषनी वेल अपार ॥ न विक जन, सुगजो कलियुग वात ॥ मूको बीजी तांत ॥ न० ॥१॥ मन प र्याय ते केवल ज्ञानी, पकश्रेणि सुप्रधान ॥ बेहला संयम तीन जे सख रा, उपशम श्रेणि विधान ॥ न॥ २॥ पुष्कलाक लब्धि ने श्रीजिनकल्पी, चौद पूरव अति मान ॥ आदिम संघयण ने शुक्तध्याना, परम समाधि नि धान ॥ ज० ॥३॥ कलियुग आवते एटलां वानां, दूर कस्यां तिण वार ॥ अनुक्रमें दश पूर्वादिक मेट्या, पूर्वानुयोग विचार ॥ ज० ॥.४ ॥ अंतर मुहू तमा प्रर्व गुणतां, ते रही सब्धि विशेष ॥ संघयण सघता ते पण बांध्यां, बेवो रह्यो देख ॥न॥५॥माहाप्राणायाम ध्यान जे धरता,महोटा श्रीक बिराय ॥ ते पण दूर कियो कलिकालें, अगुन ध्यान दीपाय ॥न० ॥६॥ इणिपरें जाये दिन दिन हीणा, कलियुग की, जोर ॥ काम क्रोध ने वैर वि रोधा, रौ आर्त अति घोर ॥ ज० ॥ ७ ॥ संप्रति राजा अनुक्रमें दू, क लिगुं कीध संग्राम ॥ ठाम ठाम जिनचैत्य कराया, नाव नक्ति अनिराम ॥ न० ॥ ॥ देश अनारजमें पण जिनवर, धर्म दीपायो सार ॥ कलियुग ने तिण काठो कूव्यो, धर्मराग मन धार ॥ ज०॥ ए॥ ते राजा देवलोक गया पली, व्याप्यो काल कराल ॥ वडवडा नपतिनां मन फेयां, कीधी मि थ्याजाल ॥ ॥ १० ॥ नव नव प्रगट किया पाखंझी, हिंसा धर्म अपा र ॥ पुर्निद पण कलियुगना सेवक, दोड्या वारोवार ॥ ॥११॥ जिन वर धर्म कियो तिण खंमित, सामाचारी नेद ॥ महेला मन मुनिवरनां की धां, सूधो संयम वेद ॥न ॥ १२ ॥ चार अडे अनुयोग जे महोटा, अ ल्प किया ते काल ॥ लेश देशथी मति श्रुत दूया, बांध्यो जडता जाल ॥ न॥१३॥ जिनशासननी रक्षा काजें, नावे देवी देव ॥ तप जप ध्यान तणो नहिं महिमा, धर्मतणी नहिं सेव ॥ न० ॥१४॥ गणगड नेद कि या इण चूमे, कृषिमें घाली राड ॥ आत्मअंगमां थोडा बूजे, वेश नणि ध रे वाड ॥ ज०॥ १५॥ सूत्र सकल माने नहिं जी, अर्थतणा करे नेद ॥ सर्दहणा जिन वचनें नाहिं, मिथ्या राखे खेद ॥ ज० ॥ १६ ॥ नूर शूर नो लाया एणे, लोनतणे वश कीध ॥ निर्मथने पण सग्रंथ कीधा, मूर्जा मंति