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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. णे दीध ॥ ज० ॥ १७ ॥ निज गुणनो खप न करे कां, परगुण लेवा जा य॥ सावद्य शास्त्रजणे घणां जी, कर्मबंध जिणे थाय ॥नम्॥ १७॥ लाल पाल ऋषिजी करे जी, अवर जेह नर नार ॥ गजवृत्तिने मूकी करी जी, लेवे खर आचार ॥ ज०॥ १५ ॥ विकथा वाद बदु करे जी, बागम न जाणे सार ॥ नाव नेद समफे नहिं जी, बाहिज दृष्टिअपार ॥न॥२०॥ समवाये पांचे करी जी, स्याहाद सुखकार ॥ ते नवि बूजे धुरथकी जी, जि नमति मूल विचार ॥ज० ॥ २१॥ नय प्रमाण निरखे नहिं जी, निश्चय नय न व्यवहार ॥ इव्य अने पर्याय न बजे, कलियुगने परिवार ॥ न ॥ २२ ॥ श्रावक पण वली एहवा दूधा, ए जुगने परसंग ॥ देव न माने गुरु नवि माने, धर्म नपर नहिं रंग ।। न॥२३॥ गोगा मोगा ने महमा यी, देवपाल जली रीत ॥ तेहने सेवे मना सूधा, अरिहंत न धरे चित्त ॥ज० ॥२४॥ नाटक गीत सुहावे नावे, जिनवाणी न सुहाय ॥ गुरु न पदेश सुणे नहिं कबहूँ. घरधंधामा धाय ॥ज ॥२५॥ त्याग धर्म करी ने युं थाखे, फल नव दीयूँ कोय ॥ पूरी प्रतीति नहिं धर्म ऊपर, सिम कि हाथी होय ॥ न० ॥ २६ ॥ दान देबदु वंबा इहां राखे, त्याग न राखे ना व ॥ निर्वउक धर्म मन आचरतां, थाये नवजल नाव ॥ न० ॥ २७ ॥ माहा मंत्र नवकार तजीने, समरे बीजा मंत्र ॥ पुण्यानुसारी धनने अर्थ, धारे बदला यंत्र॥ ज०॥ ॥ धातुरवादी जवटे खेले, वांले धननी रा शि॥ पनरे कर्मादानने सेवे, श्रावक नाम नन्नास ॥ज ॥२ए ॥ वादें कु पात्र मुखें धन खरचे,पात्र न पोष्यो जाय ॥ राजा धन दंमीने लेवे, कोडी दान न थाय ॥ न० ॥३० ॥ आतम रूप न उलखे जी, ज्ञान न आणे चि त्त ॥ काम क्रोध नीनो रहे जी, आरंन अधिको नित्तान० ॥३१॥ कलि युग समय स्वनावथी जी, श्रावक एहवा थाय ॥ धर्ममंदिर कहे विण जो गवियां, कर्म न मूक्यां जाय ॥ न० ॥३॥
॥दोहा॥ ॥अवर लोक पण कलियुगें, व्यापी पापी कीध ॥ कूड कपट बलब लघणा, कुमति कदाग्रह गृ६ ॥१॥सेवक स्वामी बल करे, पिता पुत्र व ली देख ॥ पति पत्नी\ बल करे, लायें कुलनी रेख ॥३॥ न बने सासू ने वहूं, घरमां कलहो होय ॥ वीलू चटकानी परें, सासूवाणी जोय ॥३॥