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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. वियु, देम कुशल तुम होयो जी ॥ किण कारण चिर कालथी, तुझ दर्शन ए जोयो जी ॥ ॥ ए जोय दर्शन, हर्ष पाम्यां, आया थें, कारण कि से ॥ तव बोलियो ते, पुरुष प्रणमी, हेतु मुफ मन, ए वसे ॥ इक मयण दे, जगत जीपी, जेण वडो, यश लियो॥ए मयण देखो, नयनागें, तव राजा, मुख पूबियो ॥३॥ बीजुं कारण ए अजे, तुझवेरी बे एको जी॥ हाथ नायो तुज पुत्रने, जीवतो नानो विवेको जी ॥॥ सुविवेक नागे, तेह चिन्ता, राजन थें, मनमां धरो ॥ तेह चिंता नांजूं, रिपु विनासुं, जो मुफे, सेवक करो ॥ माहरो पण, तेह वैरी, वयर लेगुं, ते पडें ॥ एवो कलि युग. पुरुष बोल्यो, बीजुं कारण, ए अ ॥ ४ ॥ कलि बोल्यो सुण नूप ति, प्रवचन पुर तुऊ रो जी ॥ माहरे मन सुगमो अबे, लेलं तुज हजूरो जी ॥०॥ हजूर खेळ, देख तूं हवे,ज्ञान रदक, बांधलॅ ॥ संवेग सामंत, जेह जोधा, तेह सघला, साधरां ॥ वड वडा वीर, विवेक सघला, सबल दूता, गुनमति ॥ हवे खबर पडशे, अणी माथे, कलि बोल्यो सुण, नूपति ॥५॥ देखे हाथ तुं माहारा,प्रवचन पुर नथेडो जी॥ जोर न नाजे ज्यां लगे,नवि मूकुं तां केडो जी ॥०॥ केडो न मूकुं, ज्यां लगें,अवदीण न दुवे,ए खरो ॥मुक्तिनो मारग, जांजी ना, मदत जो, माहरी करो॥अरिहंत राजा, फे डि नाखू, ध्रुजावू, धर्मनी धुरा॥ कलिकाल महारं,नाम साचूं,देख हाथ तुं, माहरा ॥ ६ ॥ हरख्यो मोह नरेश ते, सांजली वचन करालो जी॥ काम कढ़ नर ए खरो, अरिदलनो ए कालो जी ॥ ॥ ए काल अरिदल, तणे माथे, उक्त नर ए, आकरो ॥ चिर काल एहनी, स्थिति न होसी, तोही ज ने मुज, काजरो ॥ श्म जाणिने निज, पास राख्यो, सार सेवक, सुरखकरु ॥ बहु मान दीधो, वडो कीधो, हरज्यो मोह, नरेशरु॥ ७ ॥
॥दोहा॥ ॥ राज काज लायक घरां, कलियुग राख्यो राय ॥ रत्नथकी सेवक न ला, जिणथी अरि जीपाय ॥ १॥ समय स्वनावथकी हवे, अरिहंत मोद सिधाय ॥ दिनकर श्राथमियें थके, तमनो जोरो थाय ॥ ॥ कलियुग फोज मुखी दुश्, सेना ले। अशेष ॥ चिहुं दिशि पसरे पवन ज्यु, प्रवच नमांही विशेष ॥३॥