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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
जिननङ्गणिमणेनाप्युक्तं ॥ कबश्य मइ डुब्बलेणं, तविहाय रियaिred वाव ॥ नयगयत्तणेण थ, नाणावरणोदएणं च ॥ १ ॥ हेकदारण संभव, सरहु जं विबुद्धिका ॥ सवणुमयम वित्त, तहावितं चिंतई मइमं ॥ १ ॥ अणुवक परापुग्गह, परायणा जं जणाजुगप्पवरा ॥ जिय राग दोस मोहा, नन्नहा वाइणो तेां ॥ ३ ॥ इति प्रतिक्रमण सूत्रवृत्तौ ॥
तेमाटे जे नव्यजीव होय तेहज खाज्ञारुचि होय ॥ यतः ॥ श्रहिगा रिला इमं खलु, कारेयवं विवकए दोसो ॥ श्राणानंगा उच्चिय, धम्मो स ईबो || १ || राहणाइतिए, पुष्मं पावं विराहणार्ज य ॥ एवं धम्म रस्सं, विशेयं बुद्धिमंतेहिं ॥ २ ॥ इति सप्तमपंचाशके ॥ तथा ॥ विशि कष्टस्य कर्म यं प्रयत्यकारणत्वाकिनाज्ञया, एवं कर्मक्षयं प्रति का रणत्वादीनि नगवतीवृत्तौ ॥
माटे नव्यजीव जे होय, ते याज्ञारुचि न होय तेने “खाधे पीधे दी वाली ने कमरे उच्चाट” एवो नास्तिकवादी होय तेमाटे 'नवाणं' ए पद कयुं.
(सुम्मि समिके० ) जेने समकेत शुद्ध बे, ते हुते थके तेने ( क पल्लव संमुरको के० ) करपल्लव जे हस्त तेमांहे मोह, संस्थित एटले रह्यो बे. ए नाव जाणवो ॥ यतः ॥ सम्मत्तंमि व लदे, पलिय पुहत्ते स दुका || खावसम खयाणं, सायरसंखं सया हुंति ॥ १ ॥ ६७ ॥ हवे ते समकेतशुद्धि केम थाय ? तेनो प्रकार कहे बे:
॥ संघे तियरम्मि, सूरीसु रिसीसु गुण महग्घेसु ॥ अप्पञ्च न जेसिं, तेसिं चिय दंसणं सुद्धं ॥ ६८ ॥ अर्थः- ( संघे के०) संघ जे साधु, साधवी, श्रावक, श्राविकारूप तेहने विषे तथा (तिब्बयरम्मि के० ) तीर्थकरने विषे तथा ( सूरी के ० ) सूरिने विषे, पंचाचार प्रतिपालक एवा श्राचार्य ने विषे (रिसी के०) साधुने विषे ( गुणमहग्घेसु के० ) गुणेकरी मह ते विषे अर्थात् सर्वने विषे (जे सिं के० ) जे विवेकी साधु तथा श्रावकने मन, वचन ने कायायें करी ( अप्पच्चन के ० ) प्रत्यनीकपणुं न हो य एटले विश्वास न होय नास्ता न होय ( ते सिंचियदंसणंसुद्धं के० ) ते साधु तथा श्रावकनुंज दर्शन एटले समकेत शुद्ध होय, अर्थात् श्रीसं घ तीर्थंकरादिकने देखीने तेनी उपर जे अनास्ता न खाणे, तेनुं समकेत शुद्ध होय, ने जे नास्ता खाणे, तेनुं समकेत युद्ध न होय ॥ ६८ ॥