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जैनकथा रत्नकोष नाग त्री जो. ॥ दोहा ॥
॥ दंज कहे सुणजो वली, नगरी लोक विचार ॥ अंतर ए में देखियुं, सरराव मेरु प्रकार ॥ १ ॥ थीएडी निशा घणी, तुऊ लोकामें दीठ ॥ जाग रुक ते लोक बे, चेतन चातुर मीठ ॥ २ ॥ अल्प देत जारत करे, प्रायें ताहरां लोक ॥ वेद नाम ते नवि लिये, तिलनर नांही शोक ॥ ३ ॥ बंधन बहुलां इहां लहे, ताडन तर्जन जोर ॥ तिहां कोई जागे नहीं, बंध कि For परिघोर ॥ ४ ॥ दीन हीनता ए लहे, कण कण वारोवार ॥ नव नव मंगल तेल, सार समाधि विचार ॥ ५ ॥ इहां राजा दंगे घणुं, लोक न
वेदा ||राज प्रजा ते एक बे, हितवत्सल ते खाण ॥ ६ ॥ वे लोक प्रति क्लेशसूं, धन पामे के कोय ॥ सहजें धन पामे घणा, ए च रिज तिहां जोय ॥ ७ ॥ इहां धन धरती गाडियें, अधोगमनने हेत ॥ ति हां देवल दानें करी, वाहीजें गुन खेत ॥ ८ ॥ जानतणो सांसो इहां, उ
अधिक घोर ॥ निवें लान तिहां सही, अल्प नद्यमें जोर ॥ ए ॥ इहां बम लानें करी, हर्ष धरे सहु कोय ॥ लान अनंतें पण तहां, या श धरे नहिं जोय ॥१०॥ हीन वस्तुमां पण सही, लान अनंतो थाय ॥ asद दान दीनां कां, कंचन कोडी प्राय ॥ ११ ॥ नरपति सुरपति ता हरा, सेवक सघला जेह ॥ ते तसु नगरी दास सम, एवडो अंतर एह ॥ १२ ॥ इहां लोकांने सुत बे, ते पण वैरी थाय ॥ लोक विदेशी फिरी ति हां, हितवत्सल लघुना ॥ १३ ॥ एहवां लोक हूं निरखतो, इक दिन सना मकार || राजऋद्धि देखण नली, उनो जाय तिवार ॥ १४ ॥ ॥ ढाल चोथी ॥
॥ राजा जो मिले ॥ ए देशी ॥ साधुनी परखदा ज्योति स्वरूप, तिहां नृप वीर विवेक अनूप ॥ राजा सांजलो, मेरी रजथकी रिपुने कलो ॥ सत्त्व सिंहासन मांमधुं सार, गुरु प्रादेश ने उत्राकार ॥ ० ॥ १ ॥ एक णी ॥ श्री ॐी बेन पासें नार याचार, राजाने चामर ढालणहार ॥ रा० ॥ कर्म विवर not a खवास, तिल महाजन आणीजें पास ॥ रा० ॥ २ ॥ ब्रह्मता जे जाणणहार, गायन गीत करे विस्तार ॥ रा० ॥ गुन लेश्या ते नटवी नारी, येइ थेइ नाटक नाचे उदार ॥ ० ॥ ३ ॥ स्याद्वाद मुख धो ताम, मीठो मृतयी समान ॥ रा० ॥ थिगत हूया ते सघला