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३४ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. नमें मनमें हो, महोत्सव मांमयो अति घणो जी, ते जाणे जगदीश ॥ जुगति जुगति जोडी हो, मिली हेमज्युं जी, वाणी विशवा वीश ॥ कुं०॥ ॥ ॥ माणिक माणिक जोडी हो, हेमनी मुडी जी, बेसनो उनय संयो ग ॥ संपद संपद मिलतां हो, होवे सोहिली जी, किहां माणस संयोग ॥ कुं० ॥३॥ विमल विमलबोध कहे, सुण सगी जी, आपद दुःख मन नाण ॥ वाधे जे वाधे डे पण, बीजे चन्मा जी, आतलें पंमित वाण ॥ कुं० ॥४॥ सुस्त्री सुस्त्री हो, आयां आपद नवि रहे जी, राहु मुखें जेम चंद ॥ धीरज धीरज खमजे हो, आपद नपनां जी, वायें न चले गिरिंद ॥ कुं० ॥ ५॥ बाजथी आजथी होशे हो, एनी गुन दशा जी,यापद् अ लगी थाय ॥ प्रगट प्रगट होशे हो, पुण्य पाधरां जी, सब जनने सुखदाय ॥ कुं० ॥६॥ नद्यम उद्यम बता हो, जाल तुफ फले जी, अनुपम ने न पाय ॥ निष्फल निष्फल न होवे हो, निश्चय जाणजो जी, परतो पूरण थाय ॥ कुं० ॥ ७ ॥ सर्वगाथा ॥ १३१॥
॥ दोहा ॥ ॥ प्रवचन पुरनो डे धणी, राजा अरिहंत नाम ॥ नाव शत्रु जित्या जिणे, अतुली बल अनिराम ॥ १॥ नुक्ति मुक्ति दाता सकल, अचिंत चि न्तामणि जोय ॥ कामकुंज सुरतरु घणा, ए सम अवर न कोय ॥ २ ॥
॥ ढाल धाउमी॥ ॥ हां हां चन्द्रावती क्यां गइ ॥ ए देशी ॥ शोना साहेबनी घणी, मो पें कहीय न जायो रे ॥ स्थूलहष्टि करि वर्ण, निश्चें अनुनव पायो रे ॥ शो० ॥१॥ तीन बत्र शिर शोनतां, तीन नुवन ठकुराई रे ॥ तीन गढ़ें करी राजतो, रत्न त्रय सुखदाई रे ॥ शो० ॥ २ ॥ सिंहासन उज्ज्वल नर्बु, अशोक वृद वलि होय रे ॥ नविजन ताप बुझायवा, अछुत जलधर जोय रे॥शो० ॥३॥ मिथ्या तिमिर नसायवा, सूरज सम ने तेजो रे ॥ धर्मचक्र जसु ागलें, देव धरे धरि हेजो रे ॥ शो ॥४॥ इति नीति जा ये सवे, जंबुक ज्यु सिंह सादे रे ॥ फूल फगर वरसा दुवे, वलि सुर उंछ निनादें रे ॥ शो० ॥ ५ ॥ जाति वैर मूकी करी, सुरनर ने तिर्यंचो रे ॥ पर्षदमें आवी मले, एवो ने जिहां संचो रे ॥ शो० ॥ ६ ॥ अचरिज मू ल जे इन्ऽ , कोसुरने नवि देखे रे ॥ ते सघला किंकर इहां, निरुपम एह