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॥ अथ ॥ ॥पंमित श्रीधर्ममंदिर विरचित श्रीमोदविवेकनो रास प्रारंनः॥
तत्र प्रथम खंमः
॥दोहा॥ ॥चिदानंद चित चाहगुं, प्रणमुं प्रथमोनास ॥ तेज तमस जीत्यां जि , लोकालोक प्रकाश ॥ १ ॥ गुण अनंत गुरुजन तणा, दयाकुशल नं मार ॥ ज्ञान दात दीये जिके, ते प्रणमुं सुखकार ॥२॥ ज्ञान वडं सं सारमा, ज्ञान ज्योति जगमांय ॥ ज्ञान देव दिलमा धरूं, ज्ञान कल्पतरु बाय ॥३॥ अनंत सिमां ज्योति ए, साधारण महाधाम ॥ मुनि मनपं कजमां धरे, सारे वंबित काम ॥४॥ ज्ञानी पण वचनें करी,कही न शके जसु पार ॥ आतम अनुनवा लहे, चिदानंद विस्तार ॥ ५ ॥ कर्म जाति बदु वर्गणा, फिर रही डे जसु पास ॥ पण तेहने लागे नहि,ज्युं रविवाद ल रास ॥ ६ ॥ पुण्यपापथी ए नहिं, अनुपम ज्योति अनंग ॥ जन्म क ह्यो जोगीसरें, उदासीनता संग ॥ ७ ॥ चन्दीप मणि नानुनी, ज्योति देशथी होय ॥ जडता दाहकता तिहां, इहां कलंक न कोय ॥ ७ ॥ लोग मांहि वसतां थकां, पहोंचाज्या इण पार ॥ कोड वर्ष कष्टें करी,न तस्या बदु संसार ॥ ए॥ काम क्रोध न रहे तिहां, जिहां जागी ए ज्योत ॥ बा लबुद्धि जाणे नहिं, नवजल तारण पोत ॥१०॥ नाद वाद तप मौन धर, आसन आश निरोध ॥ इणगुं नर लाने नहिं, स्वानाविक ए बोध ॥ ११॥ नमो नमो सरस्वति जणी, कर्म अलुखता दूर ॥ नानिपुत्र ब्रह्माथ की, उपनी अनुपम नूर ॥१२॥ निर्मल मानससर वसे, अवर मूकीप रिवार ॥ हंस केलि त्यां नित करे, सरस्वति वाहन सार ॥ १३ ॥ ते सर स्वति बातम निकट, वहे रहे निश दीस ॥ अवर कोइ जाणे नहिं, इक जाणे योगीश ॥१३॥ नीच गमन पाषाण बद्ध,जडता जाल प्रकार ॥अव र नदी दूषण घणां, ए निर्मल निर्धार ॥१५॥ जिन वाणी सरस्वति कही, बीजी सरस्वति नांही॥नव्य लोकहितकारिणी, जयवंती जगमांही॥१६॥