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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
॥ ढाल पहेली ॥ ॥ नमणी खमणी ने मनगमणी ॥ए देशी ॥ श्रीजयशेखर आखे सुरि न्दा, सुगजो रोचक नविजन वृंदा ॥ अध्यातमनो ए अधिकार, मीठो मा नुं अमृतधार ॥ १ ॥ मूरख मोहदशामा राचे, लौकिक चतुर कथा करि माचे ॥ कही परने झान दिखावे, आप प्रबोधमां कबहुँ नावे ॥२॥ पढि गुण ग्रंथ वडाई पाइ, शान्ति दशा मनमें कनु नां ॥ ज्युं नश्क गज मो ती धारे, पण तेहना गुण फल न विचारे ॥३॥ शृंगारमा बदु नर र सिया, शान्तितणे घर विरला वसिया ॥ शीत तापमां बद्ध दिन होई,शुन जाणे मेरे दिन को ॥४॥ अग्नि पडे जे पबरसेंती, बहुला लाने धरती सेंती ॥ चन्कान्ते जे अमृत वरसे, तेहवो समरस विरलो फरसे ॥ ५ ॥ अगवाव्यां पण वननां धान, उपजे निपजे को नहिं मान ॥ शालिनां जतन घणां वलि कीजें, उत्तम लोकां आदर दीजें ॥ ६ ॥ सम रस शालि सरीखो जागो, बीजा रस तुब मनमा आगो ॥ समरस अनुजवतां सु खदाइ, बीजा रस दुःख राचे ना॥ ७॥ उत्तम नर उत्तम कुल जायो, तिण ए नाग्यसंयोगें पायो । मूढ लोक बीजा रस सेवे, अंतरदृष्टि ते कब दं न देवे ॥ ७ ॥ साचो रस समरस रस राजा, शिवसुख अमृत यापे ताजा ॥ कविन कषाय विकार विदारे,जे सेवे तसु पार उतारे ॥ ए॥ वन ताडीना मूकी तमासा, पुजल परणन परणी वासा ॥ जूठी रामत जूता पासा, होय रह्या काय परना दासा ॥१०॥ अत्तरवास सुवासमां ली गा, ते नर जगमां जाण प्रवीणा ॥ मनगज समता अंकुश दीजें, अध्या तम अमृत रस पीजें ॥ ११ ॥ विवेक वीरनो वास वसीजें,समता रसनो स्वाद लहीजें ॥ बीजा रस कूचा जाणीजें, नरनव केरो लाहो लीजें ॥ १२ ॥ शान्ति शिरोमणि नवरसमांहि, गावो तसु गुण मन नहाहि ॥ ए सेवंतां शिवसुख आवे, मोह महिपतिनो नय जावे ॥ १३ ॥ काम अ न बीजा रस बाले, समता रस साहामो न निहाले । वीर विवेक परस्प र प्यारो, मोह रायने ए रस खारो ॥ १४ ॥ अध्यातम शैलीनो साचो,रा जनीतिमां नहिं जे काचो ॥ कोविद कविता गुणनो धारी, ते इण ग्रंथत णो अधिकारी ॥ १५ ॥ पहेली ढालें शान्तरस गायो, उदासीन में मंदिर पायो । नूर नविक जन मनमा नायो, धर्ममंदिर कहे सुख सवायो ॥१६॥