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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
५४ ॥ रा० ॥ १३ ॥ न्याय संवाद नामा बे शेठ, सघला लोक बे जेहने देव ॥ रा० ॥ पांचे व्यवहार चोधरी पांच, ऊगडामांहे न करे खांच ॥ रा० ॥ १४ ॥ सामायिक आवश्यक सार, पुरोहित पदवीनो अधि कार ॥ ० ॥ प्रायश्चित्त ते नीरनी धार, निर्मल करवानो याचार ॥ रा० ॥ १५ ॥ सुख समाध ते शय्यापाल, तंबोली धर्मराग विशाल ॥ रा० ॥ शुद्धाशु प्रणाम पहूर, कोडि ज्ञानें सेवक शूर ॥ रा० ॥ १६ ॥ ए सघला निज स्वामी खाण, नवि लंघे कांइ मुखनी वाण ॥ रा० ॥ धर्म मंदिर हे हवे व दन, खागल बात कहे बे अचंन ॥ रा० ॥ १७ ॥ ॥ दोहा ॥
|| ति अवसर ति परखदा, मांहें कीध पुकार || मोह जिल्ला सेवक करी, चोरी देश मकार ॥ १ ॥ पुरजन काली लेई गया, आपली लांघी का र ॥ सांजली नूप विवेक तब, कीधो कोप अपार ॥ २ ॥ मुख 'बोले वली एहवं, मेलो मोह नरेश ॥ तीन जुवन राजा थयो, न थइ तृप्ति यजेश ॥ ३ ॥ में प्रभुता निज गुण नही, देखी शके नहिं एह || लोनी लोन वशें करी, हशे लंगर बेह ॥ ४ ॥ राज तेज तेहज खरो, ज्यां रहि रिपु उपचा र ॥ दिनकर कर दीगं थकां, केम रहे अंधकार ॥ ५ ॥ इण वैरी कनां थकां, प्रभुता न लगे मीठ ॥ माटी कुंन मुखें रह्यो, मोघर जलो न दीव ॥ ६ ॥ इम छालोची मंत्रीने, बोलायो नूपाल ॥ मतिनिधान तुं मंत्रवी, प्र जुता वन रखवाल ॥ ७ ॥ बल बल कां केलवी, जिंपीजें रिपु एह ॥ रा ज काज स्थिरता रहे, बुद्धि बतावो तेह ॥ ८ ॥
॥ ढाल पांचमी ॥
॥ मोरा साहिब हो, श्री शीतलनाथ के ॥ ए देशी ॥ मंत्रीसर हो महो टो मतिवंत के कर जोडीने वीनवे ॥ सुए साहिब हो मुऊ गुरु बे जाए के, यागम नीगम अनुनवे ॥ १ ॥ ते गुरुने हो में राख्यो पू के, राज्य वधे के युं रहे ॥ ब्रह्म बोल्यो हो तमचो रिपु मोह के, जोरावर प्रति गहगहे
आ चौदमी गाथामा लखेला पांच व्यवहारनां नाम कहे छे. १ लज्जावंत, २ प्रायश्चित्त शु द्ध, ३ दोष प्रकाशीन, ४ ग्रंथ निर्वाह, ५ उपत्सर्ग अपवाददर्शी. अथवा कालादिक पांच का रणना नाम कहे छे ॥ कालो सहाव णिया, पुव्वकयं पुरिसकारणे पंच ॥ मिच्छत्तं तं चैव ऊसग्ग संबुदोति सम्मत्तं. अर्थ:- १ काल, २ स्वभाव, २ नियतित, ४ पूर्वकृत, ५ पुरिसकार.