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श्रीनपमिति नवप्रंपचनुं स्तवन. पूर ॥ ११७ ॥ पूरीने ऊंखर थया, मुख मूके निःश्वास ॥ कामी कामिनी पग पडे, प्राश करे श्म दास ॥११७॥ अग्नि आपथी ऊपजे,तृमा आप जलाय ॥ आ थाप विचारतां, आपहि आप बुझाय ॥ ११॥ आशा बंधन बांधियो, जग सघलो मूंकाय ॥ रहे उदास जे आश तजि, जीव न्मुक्त कहाय ॥१२० ॥ श्राश करो अरिहंतनी,जग थई रहो उदास ॥ वि नय अनोपम एह सुख, अनुनय लीलविलास ॥ ११ ॥ शी पारागो टको, तापें फाटी जाय ॥ तिम याशा मन मानवी, न लहे मुक्ति उपाय ॥१२॥जेह निराशी गोटको, ते होय सहज अनंग ॥ तरुथानो मल अप हरी, रूपूं करे सुरंग ॥ १२३ ॥ तेम निराशी मन हरे, सवि आतम सं ताप ॥ बातम परमातम हुए, विनय विचारो आप ॥ १२ ॥ विनय वि चारी आदरो, समता शिवपुर वाट ॥आरति नावे आशनी, उपजे नहीं नच्चाट ॥ १२५॥ विरुई याशा विषयनी, खेडो विष वेल ॥ रोपो सम ता सुरलता, विनय रमो रस खेल ॥ १२६ ॥ काट न लागे कनकने, जि म रहेतां रज पास ॥ तिम कर्मै नवि नेदियें,तम राम उदास ॥१२॥ श्म उदास रस चाखतां ॥ शिथिल होय नव बंध ॥ शुकल ध्यान तब क पजे, पावन परम सुगंध ॥ १२ ॥ शुकलध्यान जब थिर करी, चंचल मन कलोल ॥ केवल झान तरंगमां, आतम करे ऊकोल ॥ १२ए ॥ कर्म घनघाति दय गयां, तब प्रगटी निज ज्योत ॥ तिम वादल विघटी गया, न दयो रवि उद्योत ॥१३०॥ माखणथी जब जल बल्यूं, तब प्रगटयूं घृत रूप ॥ तिम घनघाती मल बले,प्रगटे ज्ञान अनूप ॥१३१॥ मन वच काया थिर करी,परम शुकल धरि ध्यान ॥ चारे कर्म दही लहे,परमानंद निधान॥१३॥ सिम सदा सुख अनुनवे, अनुपम काल अनंत ॥ अजरामर अविचल रहे, प्रणमूं ते नगवंत॥१३३॥धरमनाथ आराधतां,ए सवि सीके काज ॥अंत रंग रिपु जीतियें, लहियें अविचल राज ॥१३॥ धर्मनाथ अवधारियें,सेव कनी अरदास ॥ दया करीने दीजीयें,मुक्ति महोदयवास ।।१३५॥ वास न यो जो मुक्तिनो,तो द्यो सहज उदास ।। तेह लही अमें साधशू,सहेजें शिव अन्यास ॥१३६॥ सत्तरशें सोलोत्तरे,सुरत रही चोमास ॥ स्तवन रच्यूं में अ ल्पमति, आतम ज्ञान प्रकाश ॥१३॥ श्रीविजयदेव सूरि पटें, श्रीविजय प्रन सूरि ॥श्रीकीर्तिविय वाचक तणो, विनय विनय रसपूरि ॥१३७ ॥ इति ॥
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