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१२२ जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. जस मति अवदात ।। एए ॥ अतीत अनागत ने वर्तमान, मंत्री जाणे सवि विज्ञान ॥ काल सनाव सवि जाणे सोय, इस्यो चतुर नहिं बीजो कोय ॥१०॥ पांच रूप धरे ते वली, श्रुत मति अवधि मनस केवली॥पांचे रूपं प्रगट प्रताप, धर्म कर्म सवि दाखे आप ॥ ११॥ अधिगति नामें त स कामिनी, गुन परिणाम तणी सामिनी ॥ निज पियु तणी वधारे लाज, सारे धरमरायनां काज ॥ १०५ ॥ सेनापति साचो संतोष, जेह निवा रे सघला दोष ॥ इणिपरें धर्म रायनी फोज, करे नविक मनमांहे सोज ॥ १०३ ॥ कबहिक जोर करे मोहराय, धर्मरायनो टाले गय ॥ धर्मराय जब करे संग्राम, मोहतणो तव टाले ग्राम ॥ १०॥ ॥ इणिपरे दोय कट क करे जूझ, नविकलोक मन अहनिशि गूळ ॥ कोश्हारे को जीते कदा, ए रीते वर्ते वे सदा ॥ १०५ ॥ नत्कट कर्मी केरे चित्त, मोहराय व्यापी र ह्यो नित्त ॥ धर्मराय त्यांथी रह्यो दूर, जिम रजनी मुख नागे सूर ॥१६॥ दुए अनुकूल करम परिणाम, नवस्थिति केरो दुए विराम ॥ नियति काल जब मिले स्वनाव, नद्यम उपजावे सन्नाव ॥१०७॥ ए पांचे जन टोलें मली, आतम शक्ति करे निर्मली। तब चेतन मन चिंता थई. है है ए ग ति मुजशी नई ॥ १७ ॥ ढुं पुरुषोत्तम परम स्वरूप, नाथ निरंजन त्रिव न जप ॥ कीधो करमें हं सांकडो, मोह महा मुशमन वांकडो॥ १० ॥ राख्यो काल अनंत निगोद, कुगति नमाडी कीधो खोद ॥ रांक तणीपरें जग रोलव्यो ॥ जले धुतारे हूं जोलव्यो ॥ ११० ॥ समजी आव्यो सद गुरु पाय, पूज्यो शिवपुर तणो उपाय ॥ तब सदगुरु शिव मारग कह्यो, झान दर्शन चारित्र सह्यो ॥ १११ ॥ देखाड्या मोहादिक दोष, कर्ता क म मरमना पोष ॥ तेह तणी देखाडी रीत, लहे राज महोटा रिपु जीत ॥११॥ चारित्र धर्म कियो अनुकूल ॥ मोहतगुं नखेडयूं मूल, धर्म न रेशरनो परिवार ॥ रमे रंग जर हृदय मकार ॥११३॥ दोहा ॥ जब उश्मन दूरे गया, विरसा विषयकषाय ॥ राज लहे तब आपणुं, उत्तम आतम रा य॥११॥ संतोषी सुखियो रहे, सदा सुधारस लीन ॥ इंसादिक तसुं या गलें, दीसे कुःखिया दीन ॥ ११५॥ ते सुख नहिं सुररायने, ते नहिं रायां राय ॥ जे आतम सुख अनुनवे, सम संतोष पसाय ॥ ११६ ॥ परवशता पाली वली, गई दीनता दूर ।। आश पराई जब तजी, जीन जीले सुख