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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. खजानो तुऊ हो ॥ धिक् धिक तुमने धीठ दूश्ने, करवा आव्यो जूफ हो ॥रा० ॥ ७ ॥ नाश तुं हमणां जीवतो मूकुं, खोटी कां धरे धीर हो ॥ पा ल तटी तो किण परें रहेशे, सरवरकेरो नीर हो ॥रा० ॥७॥चेतन वृंदें गरे संते, जीपी मूक्यो तेह हो । निर्लकनी परें आवे दोडी, एहवी ता हरी सोह हो ॥ रा० ॥॥ माहरा सेवक मुफ\ रुशी, कोश्क तुफ आय हो ॥ पण ते अंतर सेवक महारो, स्वामी धर्म सुखदाय हो ॥ रा॥१॥ नोलवियो तें जरतनगी बदु, पण नूलो नहिं तेह हो ॥ अनुनव रसियो सेवक मेरो, परम अध्यातम गेह हो ॥ रा० ॥ ११ ॥ पांचे पांमवें वे ना ६ हणिया, ते सहु कर्त्तव्य तुम हो ॥ उत्तम जाणी में उमरिया, होड करिश क्युं मुफ हो ॥ रा० ॥ १५ ॥ हत्याकारक अर्जुनमाली, दृढप्र हारी वलि देख हो ॥ तें अधिकारी नरकना कीधा, में सुख दीधां अलेख हो ॥ राम् ॥ १३ ॥ तें कन्यानो शिर दायो, मनमें न करी लाज हो । तेह चिलातीने में दीधो, स्वर्गतणो सुखसाज हो ॥रा ॥ १४ ॥ जूनो जर्जर देह देखीने,करुणा आवे मुफ हो ॥निला वृदने अनि प्रजाले,तोश्ये नीरस गुफ हो ॥रा० ॥१५॥
॥दोहा॥ ॥ इणि परें वीर विवेकनी, वाणि सुणी नृप मोह ॥ वृक्ष हून पण तरु ए दुश्, कोप्यो अधिक बोह ॥ १ ॥ निज हथियारें वरसतो, हणवा वीर विवेक ॥ वहि आयो तिहां वाघ ज्युं, बे जूण्याअतिरेक ॥ २॥ मनतणी परें बे जगा, जूफे मांहोमांहि ॥ अंजनगिरि हिमगिरि मल्या, सुर सा खी रह्या तांहि ॥३॥ वीर विवेके मोहने, नपाडियो ग्रहि पाय ॥ नाल्यो धरणी ऊपरें, दीण दून स सकाय ॥४॥ शेही तुं सब जगतनो, पापी पा प निवास ॥ विरुइ विप वेली हती, ते जणी कीजें नाश ॥ ५॥ देव सम र तुं बापणो, जे सारे तुम काज ॥ नवि लूटे तुं जालियो, यइतणो अज
आज ॥ ६ ॥ सुत सहोदर कोई अवर, कवट चालणहार ॥ नरपति तसु राखे नहिं, ए नृपनीति विचार ॥ ७ ॥ जननी जनक न को इहां, राखि शके नहिं तोहि ॥ पापतणां फल आश्यां, दोष नहिं ने मोहि ॥ ७ ॥ सा दवीधर बुं हुं सही, किंचित कारण होय ॥ पाप फल अघ वृदना, ते मारे डेतोय ॥ ए॥ श्म कही वीर विवेक तब, ब्रह्मशस्त्रशुं मोह ॥ हणियो