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२त जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. म लंट गयंद, हरिण रोऊ शीयाल मयंद ॥ २७ ॥ चातक चकवा चास चकोर, नाम नरेसर अतिहि कठोर ॥ पशुसंस्थान नयर मांहिं नस्या,एम प्राणी बहु रूपें कस्या ॥॥ निखररूप कीधा नारकी, नामकरम आज्ञा मारकी ॥ विबुध निधान नयर जनघणा, कीधा सुंदर सोहामणा ॥२॥ मानववास वसे मानवी,तेहनीपेर किधी नवनवी॥ को सुंदर कोई कुत्सि त अंग, कोइ गोरा को काजल रंग ॥३०॥ कोई उंचा कोई अतिवामणा, कोइ सुखिया को उखी दूमणा ॥ कोई सुसर को दूसर हुआ, सकल लोक गुण श्म जूजुथा ॥३१॥ गोत्रकर्मनो जुनविशेक, निर्मलवंश किया नर एक ॥ एक कीया माणस कुलहीन,निर्बल निर्धन निर्गुण दीन ॥३॥ आयुरायनो ए अधिकार, हडिबंधन बांध्यो संसार॥ तेहना हुकम थयाविण सरे, कोइ नवांतर नवि संचरे ॥३३॥ रायवेदनी रंगे रमे,सुख असुख थश्ने परिणमे ॥ ए चारे नवना थिर थोन, जिम मंदिरना मंमन मोन ॥३४॥ हवे कहिगुं मोहनीय नरेश,जिणे जीत्या सवि देशविदेश ॥ जिणे जीत्या स वि सुर नर राय, मुनि केता लगाव्या पाय ॥३५॥ एहतणो पोढो परिवा र, नाना महोटा सवि कुंजार ॥ एहनुं मन अटवीमां वास, इंशदिक सेवे जिम दास ॥३६॥ नदी प्रमत्तता कुर्मति नीर, चित्तविदेश मंझप तस तीर ॥ वेसे चतुर तृमा चोतरे, विपर्यास आसन ऊपरें ॥३७॥ बल साते बं धवनुं एह,पुष्ट करे आणी मन नेह ॥ एहथी राय कर्म परिणाम, राज्य क रे अविचल अनिराम ॥३॥ मोह तपी पटराणी सार,माहा मूढता नामें नार ॥ कंत कामिनी सबल सनेह,एक जीव दीसे दोश् देह ॥३॥ मिथ्या द शन महेंतो तास, सदा रहे नरपतिने पास ॥ स्वामिनक्त सबलो बुधिवंत, राजकाज सवि चलवे तंत ॥ ४० ॥ त्रण जग वरते जेहनी आण, वश की धा सवि जाण अजाण ॥ मोहरायना सवि आरंन, थोनावण जाणे थिर थंन ॥४१॥ जे अधीगे राखे नार, करे जपमाला कर हथियार ॥ हसे रुवे तुसे दे श्राप, तेवा देव मनाव्या आप ॥४२॥ जे आरंनी जे परिय ही, जस बहु तृमा तृप्ति नहीं ॥ घरबारी जे गुरु पूजाय, ए सवि महेंता त यो उपाय ॥४३॥ होम हवन हिंसा ज्यां घणी, दया दान मूक्या अव गणी ॥ जिम जग एवे धर्मे धसे, तिम मिथ्यामति महेंतो हसे ॥ ४ ॥ वीतराग जे निर्मलदेव, तेहनी न करे नावे सेव ॥ ब्रह्मचारी विरति गुणवं