________________
३० जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. एकांत मतधरू, यहां रहेवा मन नाणियें ए॥ १ ॥ साधक व्यवहार जेह, निरत कारण जर्नु, उरहो अवलंब ए सहि ए॥ निश्चयने ग्रहे एह, कीरिया दूषवे, खोटागुंवणशे नहिं ए॥२॥ ग्रंथथकी करे बोध, तप जप खप करे, उद्यम पण सवि पाचरे ए॥मुखथी बोले एम, ए सद जून, नय प्रमाण नवि उच्चरे ए ॥ ३ ॥ स्याहाद नहिं एथ, जे साचो सही, स कल रसायण साधकू ए ॥ कपटी कूडा एह, स्वपर रूपनु, परमारथना बा धक ए॥ ४ ॥ वली कहे जगमा एक, बातम व्यापियो, ब्रह्म स्वरूपी ए दु ए ॥ ज्युं आकाशे चन्छ, एकज डे सही, जल प्रतिबिंब जू जून ए ॥ ५॥ उपजे विएसे नूर, जलकन्नोल ज्युं, नाना महोटा दीसता ए॥ पण ते एक स्वरूप, अवर न कोयनें, एह अर्थ कहे हीसता ए ॥ ६ ॥ के उत्तम के नीच, के सुर नारकी, बारज म्लेह के आखियें ए ॥ के ना री के खंज, के नर तिर्यंच, मोर पिन्ड सम साखीयें ए॥ ७ ॥ के पंमित के मूढ, के रंक राजवी, इत्यादिक नेद अनुसरे ए॥ कर्म न माने हेत, सह ज स्वनाव ए, बदरी कंटकनी परें ए ॥ ७ ॥ आतमगुण पर्याय, अनंत माने नहिं, बोले बालकनी परें ए ॥ परिणामी बे इव्य, आतम पुजल, एक विवेचन ना करे ए ॥ए॥ सत्ता शाश्वतरूप, निज निज व्यनी, मर्यादा मूके नहिं ए ॥ व्य अने पर्याय, नेदानेद जे, स्याहादी समजे सही ए॥ १० ॥ इहां नव सीके माउ,विवेक सुतें कह्यो, माता वचन प्र माणियो ए ॥ उनि चली पंथमांही, पुत्र प्रेरी थकी, जेद जलो मन या णीयो ए ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ ७० ॥
॥ दोहा ॥ ॥ सुबुदि सुता हवे चालतां, तापस आश्रम दीव ॥ विसामो श्हां ली जियें, सखरी बाया मीठ ॥ ॥ बढा तापस अति घणा, जटा जूट बद्ध नार ॥ हाथ अदमाला अडे, नाम नारायण सार ॥२॥ शिष्य घा चिद् दिश जइ, मूल कंद फल लेह ॥ वनवीही आणे घणा, नोजन अर्थे तेह ॥३॥ शुक सारो पंखी नणी, राम नाम शीखाय ॥ पादप सींचे वा रियं. धर्म न धर्म नपाय ॥ ४॥ निवृत्ति नारी चिंतवे, ए पण मोहें तीन
॥ शम दम करुणा को नहिं, झान गुणें करि हीन ॥ ५ ॥ चुक्ता नामिनी 'बे तजी, नजी न अंतर दृष्टि ॥ कोड क्रिया अफली दुवे, ज्युं उखरमें वृष्टि