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श्रीमोदविवेकनो रास.
४७ दा प्रेम निधान के ॥ व०॥ १२॥ अचरिज धरतो मंत्रवी, सुत देखी हे पेखी हर्ष अपार के ॥ लाज रहे सुत पुत्रथी, नवि निंदा हे नानोही नरसार के ॥ व० ॥ १३ ॥ वीर विवेक वाध्यो घणुं, सुख पायो हे श्रीजि नचंद पसाय के॥त्रीजो खंम पूरो थयो, ए सुणतां हे नविजन आवे दा य के ॥ व० ॥ १४ ॥ दयाकुशल पाठकवरु, तसु शिष्य हे धर्ममंदिर गणि सार के ॥ ए संबंध कियो नलो, सुखदायी हे श्री संघने जयकार के ॥व०॥ १५ ॥ इति श्री प्रबोधचिन्तामणौ ढाल भाषा प्रबंधे पंमित धर्म मंदिरगणिविरचिते मोहराजविवेकपाणिग्रहणप्राज्य राज्यप्राप्तिवर्णननामा तृतीयःखंमः संपूर्णः ॥ ३॥
॥ अथ चतुर्थ खंम प्रारंनः॥
॥ दोहा॥ ॥ श्रीगुरु चरण प्रसादथी, लहियें लील विलास ॥ मंगल माला संप जे, दिन दिन अधिक उल्लास ॥ १ ॥ तिण प्रस्तावें मोह हवे, नगरीय विद्यामांही ॥ चार्वाक मित्र जणी कहे, इक दिन वात उन्हाही ॥ २ ॥
आजसमे मो उपरें, ष धरे नहिं कोय ॥ एक विवेक विना सदु, परम मित्र जग होय ॥३॥ पहेले पण बल बल करी, मुजने जीत्यो एण ॥ ते वेला मुफ संनरे, नीति रहे जे तेण ॥४॥ चार्वाक तव बोलियो, मो हराय सुण सिंह ॥ शाल कंगाल विवेक , तिणसुं केहो बीह ॥ ५ ॥
॥ ढाल पहेली॥ ॥ वेगें पधारो हो महेलथी ॥ए देशी ॥मबरालो मोह बोलियो,चारवा क सुण मित्र॥नेद न जाणे तुं एहनो, बानी बुरी ए रात्र ॥म॥१॥ मनमंत्री मूरख थयो, जीवतो मूक्यो एह ॥ में पण न कहुं मंत्रीने, केद करी धरो एह ॥म०॥२॥ण क्षेषी जीवता बतां, क्युं सुख पामे जीव ॥ एको रो गज अंगमां, उन्माद रहे जस जीव ॥ म० ॥ ३॥ विरुन वैरी जागतां, निश्चित सुए जे राय ॥ बंध दु ते जाणजो, नीतिवचन कहेवाय ॥ म० ॥४॥ नानो वैरी न जाणियें, विश्वास न धरो तास ॥ मनमें वलगी कीटि का, हाथीनो करे नाश ॥ म ॥ ५॥ अवगुणियें नहिं रिपु गुणी, नानो सो पण जेह ॥ द अंकूर उग्यो थको, प्रासाद पाडे तेह ॥ म० ॥ ६ ॥