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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो.
हणियां काली केशो रे ॥ क० ॥ १४ ॥ अमार शब्द उद्घोषणा रे, तेह 'ज तीखां बाण ॥ कलिने लाग्यां प्रति घणां रे, पण न तज्यां कलिप्रा यो रे ॥ ० ॥ १५ ॥ निरुपक्रम ए यारखे रे, वज्रकपन क्युं देह ॥ क को पारद सेवियो रे, कलियुग नावे बेहो रे ॥ क० ॥ १६ ॥ गलिया ढोरती पेरे, रे होय रह्यो तिथिवार ॥ जीवतो मूक्यो नरपति रे, करुणा चि त मजारो रे ॥ क० ॥ १७ ॥ चार वर्ण धर्म जिनतलो रे, सेवे नृप यादे श ॥ जीवदया पाले खरी रे, सघला देश विदेशो रे ॥ क० ॥ १८ ॥ अध्या तम गुरु दाखवे रे, जाली जीव जीव || निज परगुण परगट कीया रे, धरी स्याहाद शुभ दीवो रे ॥ क० ॥ १९ ॥ केटलां वरस गया पी रे, ते पण देवलोक जाय || फिर जाग्यो कलियुग तदा रे, वलतो वश नवि थायो रे ॥ क० ॥२०॥ कामक्रोध जाग्या घणा रे, धर्मधन लूटयुं जोर ॥ दुर्गति जाये प्राणिया रे, करि करि पाप धोरो रे ॥ क० ॥ २१ ॥ बहुत युगां इम टू रे, कलिकेरो अधिकार || ते पण समयो पामिने रे, दी थयो जिवारो रे ॥ क० ॥ २२ ॥ जिनवर प्रगट हुआ तदा रे, कलियुग पा यो नाश || मोह सुी मन कूरियो रे, सखर थयो मुऊ दासो रे ॥ क० ॥ २३ ॥ प्रति सखरी मति रूपनो रे, चिरंजीव नवि कोय ॥ में याथी जालियो रे, स्थिरता वास न होयो रे ॥ क० ॥ २४ ॥
॥ दोहा ॥
॥ नविजन लोक मली करी, जाये अरिहंत पास || कर जोडी उजा कहे, सु साहिब अरदास ॥ १ ॥ अमल चलाव्यो कलियुगें, करडो संघ जे गम ॥ जीव घणा जाली करी, मूक्या मोहने गाम ॥ २॥ करुणाकर क रुणा करो, मोहतणो मद फेड || जिविध ए लोकांती, वैरी मूके केड ॥३॥ ॥ ढाल पांचमी ॥
॥ जी हो मिथिला नगरीनो ए धणी ॥ ए देशी ॥ जी हो जिनपति ज गगुरु बोलिया, जी हो करुणानिधि कृपाल ॥ जी हो जविक जणी याश्वा सना, जी हो दे जिनवचन रसाल ॥ चतुर नर चेतो चित्त मकार ॥ जी हो शिव अभिलाषा थाय बे, जी हो फलशे वंबित सार ॥ च० ॥ १ ॥ ए
की || जी हो कलियुग शिव पुर जावतां, जी हो रोधक थियो यसमा नं ॥ जी हो पापी पचीयो पापशुं, जी हो हवे वधियूं धर्म ध्यान ॥ च० ॥