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जैनकथा रत्नकोष नाग त्रीजो. सो० ॥ हं० ॥ ५॥ रूपी रसियो ए नहिं रे, गंध न लेवे कोय रे सो० ॥ फरसे नहिं ए फरसने रे लाल, ज्योति स्वरूपी सोय रे सो० ॥ ॥१०॥ निर्मल स्फटिकतणी परें रे, निश्चय नय करी जोय रे सो० ॥ कर्म उपाधि मव्यां थयां रे लाल, बहुविधरूपी होय रे सो० ॥ हं॥ ११॥ परगुण ने वश आवीयो रे, निज गुणने वीसार रे सो० ॥ चर स्थिर सघले संचरे रेलाल, अशुभ योग प्रकार रे सो० ॥ हं० ॥ १२ ॥ काष्ठमां पावक पा ये रे, तिलमा तेल ज्युं होय रे सो० ॥ गौरसमां घी नालिये रे लाल, मा टीमां हेम होय रे सो० ॥ हं० ॥ १३ ॥ दीर नीर न्यायें करी रे, होय र ह्यो एक मेक रे सो ॥ देहमांहे रह्यो उलखे रे लाल, जसु हैडे सुविवेक रे सो० ॥ हं० ॥ १४ ॥ पंचनूत नेलां करे रे, नाम कर्म वश पाय रे सो०॥ सेनानी सूत्रधार ज्यु रे साल, सेना रथंग मिलाय रे सो० ॥ हं० ॥१५॥ सकल पदारथ लोकमां रे, दिखलावे जे एम रे सो० ॥ दीपक तम निशि मंदिरें रे लाल, प्रगट प्रकाशे तेम रे सो० ॥ हं० ॥ १६॥ कर्ता नोक्ता ए सही रे, गमनागमन विचार रे सो० ॥ जब लग कमै विंटियो रे लाल, तब लग ए व्यवहार रे सो० ॥ हं० ॥ १७ ॥ एह विना जग शून्य रे, चंड विना जेम रात रे सो० ॥ वदन कमल नया विना रे लाल, शोने नहिं तिल मात रे सो० ॥ ॥१७॥ आतमना गुण आखिया रे, धर्म रुचि अणगार रे सो॥ धर्ममंदिर कहे सांनलो रे लाल, हवे पटराणी विचार रे सो० ॥ हं० ॥१॥ सर्वगाथा ॥ २ ॥
॥दोहा॥ ॥ चेतना राणी रायनी, चमकी चतुरा नार ॥ प्रीतमझुं राती रहे, घ रनी जाणे सार ॥ १॥ संवित १ प्रज्ञा २ चेतना, ३ थातपज्योति । तदा र ॥ इत्यादिक जसु नाम , विविधरूप विस्तार ॥ २ ॥ मूल रूप केवल दशा, अनुपम महिमा निधान ॥ ज्यु कत्रिम तिनमें नहिं, परमास्पंद प्रधा न ॥३॥ तेह रूप बातम निकट, रहे न देखे एह ॥ ज्ञानावर्णादिक घणी, लाग रही ले खेद ॥४॥ बीजु रूप राणीतां, बुदि इस्यो विख्यात ॥ अनंत गुणें हीणो अडे, मूल रूपथी गात ॥ ५ ॥ पांचांसुं मलती रहे, श्रवण मनन परचार ॥ नूपति करणी जे करे, बुदितणे अनुसार ॥ ६ ॥ बुद्धितणां बे रूप दुवे, कुबुद्धि सुबुद्धि विशेष ॥ न्युं धरती एकरूप ने, खा