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कहा गया है कि 'यह जीव प्राणों के द्वारा ही जीवन-व्यवहार के योग्य होता है। वस्तुतः, प्राणी के द्वारा पूर्व में किए गए कर्मानुसार आत्मा और शरीर का न केवल संयोग-सम्बन्ध होता है, अपितु इनमें विशेष सक्रियता भी उत्पन्न होती है, जिसे प्राण-शक्ति कहा जाता है। इस प्राण-शक्ति के सद्भाव में जीवन का अस्तित्व बना रहता है और अभाव होने के साथ ही जीवन समाप्त हो जाता है। यह मानना कि शरीर है तो जीवन है, बहुत बड़ी भूल है, क्योंकि मरने के बाद भी पार्थिव शरीर तो रहता है, किन्तु आत्मा एवं प्राण-शक्ति का अभाव होने से जीवन नहीं रहता। यद्यपि आधुनिक आयुर्विज्ञान (Medical Science) एवं भौतिक-जीवन-दृष्टि प्राण-शक्ति के अस्तित्व को नहीं मानती, फिर भी इसे नकारा नहीं जा सकता। वस्तुतः, प्राण सूक्ष्म तत्त्व है, जिसे यन्त्रों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता। यह व्यक्ति की जीवनी शक्ति है। सम्पूर्ण शरीर प्राणों से संचालित होता है। यहाँ तक कि मन, वाणी, श्वास आदि की क्रियाएँ भी प्राणों से ही नियंत्रित होती हैं। ____यह प्राण दो प्रकार का होता है - निश्चय-प्राण (भावप्राण) एवं व्यवहार–प्राण (द्रव्यप्राण)।" जीव की चैतन्यशक्ति निश्चय-प्राण कहलाती है और पाँच इन्द्रियाँ - मन, वचन, काया, आयु एवं श्वासोच्छवास व्यवहार–प्राण कहलाते हैं। विशेषता यह है कि निश्चय-प्राण का सम्बन्ध आत्मा से है
और व्यवहार–प्राण का शरीर से। गोम्मटसार में जीवन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यह जीव अंतरंग एवं बहिरंग अर्थात् निश्चय एवं व्यवहार दोनों प्राणों के बल पर जीवन जीता है।" वस्तुतः, ये दोनों प्राण ही जीवन के अस्तित्व के मापदण्ड हैं और इनके द्वारा ही जीवन की अभिव्यक्ति भी होती है। इन प्राण-शक्तियों का सम्यक् सम्प्रयोग जीवन-प्रबन्धन का मुख्य लक्ष्य है और जीवन की सफलता इन प्राण-शक्तियों के सर्वोत्तम सदुपयोग पर निर्भर करती है। (1) निश्चय-प्राण - जैनदर्शन में जीव की चैतन्यशक्ति को निश्चय-प्राण कहा गया है। प्रवचनसार में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जीव में सहज रूप से प्रकट, सदैव बने रहने वाला और अनन्त ज्ञानशक्ति का हेतु, जो निश्चय जीवत्व है, वही निश्चय-प्राण है। इस अपेक्षा से आत्मा का सहज, स्वाधीन एवं शाश्वत् स्वभाव ही निश्चय-प्राण है, जिसके बल पर जीव की ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि से सम्बन्धित विविध अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। चूँकि आत्मा की अनन्त शक्तियों में से दो प्रमुख शक्तियाँ ज्ञानशक्ति (विशेष जानने की शक्ति) और दर्शनशक्ति (सामान्य जानने की शक्ति) हैं, अतः गोम्मटसार में आत्मा की ज्ञान-दर्शनोपयोग रूप चेतना को निश्चय-प्राण कहा गया है। 21 पंचास्तिकाय में निश्चय-प्राण को विशेष महत्त्व देते हुए कहा गया है कि यह निश्चय-प्राण ही है, जो दसों प्रकार के व्यवहार-प्राणों में चेतनता का संचार करता है। इससे स्पष्ट है कि निश्चय-प्राण के बिना व्यवहार-प्राण महत्त्वहीन (निष्क्रिय) हो जाते हैं। यद्यपि जैनदर्शन में निश्चय-प्राण को विशेष महत्त्व दिया गया है, फिर भी जीवन-प्रबन्धन किसी अपेक्षा से निश्चय और व्यवहार प्राण का सम्यक् सन्तुलित प्रवर्तन है।
अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ
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