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जीवन का दूसरा अंग है - शरीर। शरीर जीवन का वह आधार है, जिसके बिना किसी भी संसारी प्राणी का अस्तित्व नहीं होता। प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनों परम्पराओं में शरीर के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। यह शरीर दिखने में सामान्य होता है, किन्तु इसकी संरचना अत्यन्त जटिल होती है। यदि व्यक्ति इसकी देख-रेख सम्यक्तया नहीं करता है, तो यह जीवन-विकास का साधक बनने के बजाय बाधक बन जाता है। सभी भारतीयदर्शनों विशेषतया जैनदर्शन में इसे एक यन्त्र के समान माना गया है और इस बात पर जोर दिया गया है कि व्यक्ति इसकी सम्यक् देख-रेख एवं सदुपयोग करे, तो बड़े से बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकता है। जिस प्रकार आत्मा की अपनी विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं, उसी प्रकार शरीर की भी अपनी अद्भुत योग्यताएँ होती हैं, जैसे - मन, वाणी, इन्द्रिय, कार्य (कर्म) करने आदि से सम्बन्धित योग्यताएँ। यह शरीर अनेकानेक सूक्ष्म अवयवों का संगठित रूप है। आधुनिक आयुर्विज्ञान के अनुसार, इसके ग्यारह तन्त्र हैं - अस्थि-तन्त्र, मांसपेशीय-तन्त्र, त्वचा-तन्त्र, पाचन-तन्त्र, रक्त परिसंचरण-तन्त्र, श्वसन-तन्त्र उत्सर्जन-तन्त्र, तंत्रिका-तन्त्र, अन्तःस्रावीग्रन्थि-तन्त्र, लसिका-तन्त्र एवं प्रजनन-तन्त्र। इन तन्त्रों की स्वस्थता के लिए जैनदर्शन में आहार-प्रबन्धन, जल-प्रबन्धन, प्राणवायु-प्रबन्धन, श्रम-विश्राम-प्रबन्धन, निद्रा-प्रबन्धन, स्वच्छता-प्रबन्धन, शृंगार (साज-सज्जा)-प्रबन्धन, ब्रह्मचर्य-प्रबन्धन, मनोदैहिक-प्रबन्धन एवं अन्यकारक-प्रबन्धन से सम्बन्धित निर्देश दिए गए हैं। साथ ही, स्वस्थ शरीर का सम्यक् दिशा में प्रयोग किस प्रकार से किया जाए, इस हेतु मन, वाणी, इन्द्रिय आदि के सम्यक् प्रबन्धन (संचालन) की चर्चा भी की गई है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का उद्देश्य उन प्रबन्धकीय सूत्रों का निर्देशन करना है, जिनके माध्यम से आत्मा रूपी यन्त्री शरीर रूपी यन्त्र के साथ इस प्रकार समन्वयपूर्वक कार्य करे कि ये दोनों मिलकर जीवन को विकास के शिखर पर आरूढ़ कर सकें। 1.2.3 जीवन का लक्षण
भारतीय दर्शनों में प्रारम्भ से ही लक्षण शब्द का विशिष्ट प्रयोग मिलता है। इसमें अर्थ की गहनता और गम्भीरता दोनों ही विद्यमान है। जैनदर्शन में लक्षण शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'मिली हुई वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं।" अन्य प्रकार से यह भी कहा गया है कि पदार्थ के असाधारण धर्म (गुण) को लक्षण कहते हैं, जैसे - पुद्गल (जड़) पदार्थ में रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि। 12 न्यायविनिश्चय में और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थ को लक्षित किया जाए, वही लक्षण है। इससे स्पष्ट है कि लक्षण ही लक्ष्य का सम्यक् परिज्ञान कराता है और लक्षण में दोष होने पर पदार्थ का सम्यक् निर्धारण नहीं हो पाता। प्रस्तुत प्रसंग में जीवन के रहस्यों का अनावरण करने के लिए जीवन का लक्षण जानना होगा, जिससे जीवन-प्रबन्धन का पथ स्पष्ट हो सके।
___ जैनदर्शन में जीवन का लक्षण अर्थात् असाधारण धर्म 'प्राण' बताया गया है। राजप्रश्नीयसूत्र (सटीक) आदि अनेक ग्रन्थों में कहा गया है कि 'प्राणों को धारण करना ही जीवन है।14 गोम्मटसार में
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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