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यायियों द्वारा किया गया । गौतम ने लोक दुःख से रहित होनेका यन किया और वह निष्पक्ष भाव से लोकोपकार को प्रस्तुत हुए । उनने निर्वाण-प्राप्ति की शिक्षा देकर अपने को लोकोद्धार मिद्ध, किया और बांधि-सत्वीक रूपमें अपना विश्वरूप प्रदर्शित किया । इसी कारण उम आदित्य-बंधु बुद्ध की दीघनिकाय' ने 'लोक चक्षु' कहा और लंकावतार सूत्र ने उपमा रची
"उदेति भास्करो यद्वत्समहीनोत्तमेजिने"
इस सिद्धान्त का समर्थन बुद्धमतानुचर विपुलश्री मित्र के १. वीं शताब्दी के शिलालेन्त्र द्वारा भी होता है ।
अतः सर्य के विभू चक्षुसमर्थलाभका बांध भारतीय पार्यो का अति प्राचीन काल में हृदयंगत हश्रा और कालान्तर में भी श्राद्य वंशज उसे न भूले । जो मय सम्मान संहिता काल में प्रारम्भ हुआ वह पार्य-वंशजों के ममाज में बराबर बना रहा
और सर्योपासकों का बाहुल्य ब्राह्मण उपनिषद् सूत्र नथा बौद्ध मत कालों तक बना रहा । पर्सिया, पशियामाइनर और रोममें भी सूर्योपासमा के प्रचार के प्रमाण मिलने के कारण उन देशों से भारतीयों में श्रादित्य-पूजा भाव के प्रवेश करने का निष्कर्ष उपयुक्त प्रमाणों के रहते कदापि मान्य नहीं हो सकता। सूर्य द्वारा विश्वलाभ की उम सनातन प्रतीति का भक्तिवाद के कुछ छुसि होते देखकर ही १७ वीं शताब्दी में गो स्वामी तुलसीदास ने उसकी रक्षा को ओर कुछ ध्यान दिया और अपने इष्टदेव राम को पद पद पर भानुकुल भूषण कह कर भानुकुल और विष्णु के ऐक्य की रक्षा की।
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- श्री 4 गमावतार शर्मा द्वारा लिग्वि भारतीय ईश्वरवाद' से उद्धृत ।