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रूपान्तर है और मूर्तियों के घुटने तक पोशाक से ढके रहने का चित्रण उत्तर भारत की स्वतन्त्र कल्पना भी हो सकती है । पुनः संहिता - काल में ही सूर्य स्तुतिका जैसा प्रबल भाव श्रार्य में विद्य मान था वह कदापि सहज में विस्तृत नहीं किया जा सकता 1 ऋग्वेद में सूर्यकी अनेक स्तुतियाँ मिलती हैं ।
• धावा पृथिवी अंतरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च'. द्वारा सूर्य चराचर की आत्मा भी समझा गया है और सूर्य के उदय व अस्तक की भावनाओं की पृथक् व स्तुतियाँ ऋग्वेद में मौजूद हैं। उपा, सविता, आदित्य, मित्र anty. मार्चएंड और विष्णुका सम्बन्ध सूर्य से कुछ कम नहीं रहा और न सूर्य द्वारा पापमोचन के भाव का अभाव संहिता - काल में था। कुछ मन्त्रों में उपासकों की स्पष्ट स्तुति हैं कि नवोदित सूर्य उन्हें मित्र वरुणादि पर निष्पाप प्रकट करें। ऋग्वेद में ऐसी भी अनेक ऋचाएं मिलती हैं, जिनसे सूर्य के जगतात्मा सर्वद्रष्टा निष्पक्ष द्रष्टा व विश्वरूप होने के दृढ भावों के समाज में विद्यमान होने का बोध होता है। वैसी धारणाएं उपनिषद् काल तक प्रचलित रहीं. क्योंकि छान्दोग्य ने सूर्य को लोकद्वार माना है और कठ ने उसके सम्बन्ध में कहा है कि-"सूर्यो यथा सर्व लोकस्य चतुर्न लिप्यते चानुषैर्वाश्च दोषैः । " जैमिनीय ब्राह्मणोपनिषद् का कथन है कि सूर्य द्वारा ही कोई भयपाश-रहित होता है, जिसके बाद पंचविंश ब्राह्मण के अनुकूल सुदूरस्थ स्थान को देवयान- पथ द्वारा प्राप्त होता है। और तब छान्दोग्यानुकूल वह अमानव पुरुषरूप मुड़क के
'प्रोामनाः शुभः
के लोक को प्राप्त होता है । गौतम बुद्ध के समय में भी सूर्य की ऐसी ही प्रधानता बनी रही जिसका सादृश्य गौतम के व्यक्तित्व तथा उपदेश में भी घटित करने का प्रयास उनके धनु