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वंशवरा और मधुवन के लेख से सिद्ध है । दूसरा प्रमाण है स्वयं हर्ष वर्द्धन द्वारा प्रयागोत्सव के अवसर पर दूसरे ही दिन अपने कुलदेव सूर्यकी मूसिंका पूजा-सम्पादन, जो ऐतिहासिकों द्वारा स्वीकृत है। तीसरा प्रमाण है प्रसिद्ध संस्कृत कवि मयूर द्वारः सूर्यशतक की रचना, जिसमें सूर्यकी महती महिमा का वर्णन है
और जिसकी रचना का मुख्य प्रयोजन तत्कालीन सूर्योपासनाकी विशेषता को सुरक्षित करना प्रतीत होता है। सूर्योपासना में महान विश्वास का प्रमाण इस किम्बदन्ती में मिलता है कि सूर्य शतक के छठे श्लोक शीघ्राङ्घ्रिपाणीबरिणभिरपधनैर्घधराव्यक्तघायान'. . . . . 'के समाप्त करते हो सूर्य ने साक्षान् होकर श्वेत चर्म रोग-मस्त मयूर को वर मागने को कहा, सूर्य-माहात्म्य की धारणा का भी परिचय सूर्यशतक में की गई सूर्य प्रशंसासे प्राप्त होता है । मयुर ने अपनी स्तुतियों में सूर्य की तुलना शिव, विष्णु
और ब्रह्मा से की है और दिखलाया है कि संसार-कल्याण में जितना स्त्रकाय में कृतपरिकर भगवान भास्कर हैं. उतना शिष विष्णु, अनादि में कोई भी नहीं । आगे सूर्य का वेद त्रितयमयत्व, सर्वव्यापकत्व ब्रह्मा-शंकर-विष्णु-कुबेर-अमि से समत्व और सर्वाकारो परत्य का वर्णन किया गया है । सूर्यशतक के ऐसे प्रभावात्मक वर्णन का स्वाध्याय १६ वीं शताब्दी तक सूर्य-पूजकों द्वारा किया जाता रहा और प्रमाण मिलता है कि मयूर के सूयशलक के ही नाम पर चार और सूर्य शतक पीछे के कवियों वागा लिन गए । उनमें राघवेन्द्र सरस्वती, गोपाल. शर्मा और श्रीश्वर विद्यालंकारने संस्कृत में रचना की, पर दक्षिण निवासी के. पार, लच्छन ने तेलुगु में सूर्य स्तुति की । निश्चय ही यह ७ वी सदीकी सूर्य-पूजा-प्रेम का प्रभाव था जो वर्षों बाद तक बना रहा जिसके प्रमाण ग्रन्थ शिलालेख व मूर्तियों में संरक्षित है।