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स्नेह-सौजन्य के साक्षात प्रतीक
उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी
__मैं जीवन के उषाकाल से ही संगठन का प्रबल पक्षधर रहा हूं। स्थानकवासी परम्परा की मान्यताओं के सम्बन्ध में गहरी निष्ठा होने पर भी मेरे अन्तर्मानस की यह भव्य भावना रही है कि जैन समाज एक बने । उसके लिए मैं समय-समय पर प्रयत्न करता रहा हूं । सन् १९४७ का हमारा वर्षावास नासिक (महाराष्ट्र) में था। मैंने जैन समाज का आह्वान किया कि महावीर जयन्ती का कार्यक्रम हम सभी मिलकर मनायें । मेरा प्रयास सफल रहा ।
सन् १९४८ में बम्बई का वर्षावास सम्पन्न कर सौराष्ट्र संघ के अत्यधिक आग्रह से मैं नासिक होकर सौराष्ट्र की ओर जा रहा था। उस समय चारित्रचक्रामणि आचार्य शान्तिसागर जी महाराज, जो दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य व तेजस्वी आचार्य थे, वे गजपंथा में विराज रहे थे। मुझे उसी रास्ते से आगे बढ़ना था। मैंने आचार्य श्री को सूचित किया कि यदि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो तो मैं वहाँ आऊँ। आचार्य श्री ने कहलाया कि आपको यहाँ अवश्य आना है और मेरे साथ ही ठहरना है । मैं वहाँ पहुंचा और एक ही मकान मे ठहरा। साथ ही प्रवचन हुए। विचार-चर्चाएं भी हुई। उस समय आचार्थ शान्तिसागर जी महाराज ने अछूत जैन मन्दिर में प्रविष्ट न हो, एतदर्थ अन्न-त्याग कर रखा था। मैंने आचार्यप्रवर से निवेदन किया कि आगम साहित्य में हरिकेशीबल मुनि का वर्णन है। उन्होंने स्पष्ट कहा-यह वर्णन श्वेताम्बर आगम का है, दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ में ऐसा कोई वर्णन नहीं है। अनेक प्रश्नों को लेकर विविध दृष्टियों से चिन्तन हुआ। उसके पश्चात् अन्य दो-चार बार दिगम्बर-मुनिप्रवरों से मिलने के अवसर भी प्राप्त हुए। किन्तु प्रवचन आदि साथ में नहीं हुए।
सन् १९७४ का वर्ष जैन समाज के लिये वरदान के रूप में रहा । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रमण भगवान् महावीर के २५०० दें निर्वाण महोत्सव के कारण भगवान् महावीर का पावन संदेश जन-जन तक पहुंचा। भगवान् महावीर का जीवन और उनके सिद्धान्तों का व्यापक प्रचार और प्रसार करने का उपक्रम किया गया। स्थान-स्थान पर जैन परम्परा के नुनिप्रवरों के सामूहिक प्रवचनों का भी आयोजन किया गया और संगठन का वातावरण बना। उसी सुनहरे अवसर पर मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ आचार्य श्री देशभूषण जी से । बम्बई महानगरी में महावीर जयन्ती के साप्ताहिक कार्यक्रमों का शानदार आयोजन था।
भात बाजार के विशाल मैदान में जैन समाज की ओर से सामूहिक प्रवचन का विराट् आयोजन था जिसमें हजारों की उपस्थिति थी । स्थानकवासी समाज के प्रतिनिधि के रूप में मैं प्रमुख वक्ता के रूप में उपस्थित था तो दिगम्बर परम्परा के प्रतिनिधि के रूप में मुख्य प्रवक्ता आचार्य देशभूषण जी महाराज थे। प्रवचन के पूर्व आचार्य देशभूषण जी से जैन धर्म के अभ्युदय के सम्बन्ध में विविध चिन्तन-बिन्दुओं पर चिन्तन हुआ। हमने दिल खोलकर बातचीत की। मुझे लगा कि गुरु का गौरव इनमें मुखरित हुआ है। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज की भाँति इनमें सहज स्नेह और सद्भावनाएं देखने को मिलीं। प्रवचन में भी उन्होंने भगवान् महावीर के उदात्त सिद्धान्त अनेकान्तवाद का विश्लेषण करते हुए जैन एकता पर बल दिया। उस समय मुझे लगा कि तन से वृद्ध होने ' पर भी उनके मन में युवकों की तरह जोश है और कार्य करने की अपूर्व लगन है ।
महावीर जयन्ती का भव्य आयोजन था। यों तो प्रतिवर्ष महावीर जयन्ती का कार्यक्रम बम्बई में मूर्धन्य नेताओं के नेतृत्व में मनाया जाता रहा है, किन्तु इस वर्ष का आयोजन अनूठा था। सभी कार्यकर्ताओं में अपूर्व उल्लास था। जैन समाज के प्रमुख मनि व महासती वृन्द के एक साथ प्रवचन का आयोजन था। जैन समाज के तथा शासकीय वर्ग के उच्चतर अधिकारियों का भी 'भगवान् महावीर के प्रति अपनी श्रद्धा के सुमन समर्पित करने का उल्लासपूर्ण क्षण था। बरसाती नदी की तरह जनसमूह उमड़ रहा " था। सभी के अन्तमानस भक्ति-भावना से विभोर होकर भगवान् महावीर के गुणानुवाद करने के लिये उमड़ रहे थे। बड़ा शानदार दृश्य
था। आचार्यप्रवर देशभूषण जी के साथ यह मेरे दूसरे प्रवचन का आयोजन था, जो पूर्ण सफल रहा। इस समय भी हम ऐसे मिले - मानो पय और पानी मिला ।
उनके जीवन के मधुर संस्मरण आज भी मेरे मस्तिष्क में स्वर्णाक्षरों की तरह चमक रहे हैं। सज्जनों का एक क्षण का : सत्संग भी अविस्मरणीय होता है। हमें तो कई घण्टों तक साथ में रहने का, विचार-चर्चा करने का, प्रवचन करने का अवसर मिला है, वह कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। मेरे हृदय की कोटि-कोटि मंगलकामना है कि आचार्यप्रवर श्री देशभूषण जी महाराज पूर्ण स्वस्थ रहकर जैनधर्म की प्रबल प्रभावना करते रहें। • कालजयी व्यक्तित्व
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